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भगवई
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भूमीओ पचोरुभइ, पचोरुभित्ता तेयास- मिसेमाणे' आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, मुग्याएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता प्रत्यवरुह्य तेजःसमुद्घातेन समवहन्यते, सत्तट्ठपयाई पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता समवहन्य सप्ताष्टपदानि प्रत्यवागोसालस्स मंखलिपुत्तस्स बहाए वष्कते, प्रत्यवष्वष्क्य गोशालस्य सरीरगंसि तेयं निसिरह॥
मंखलिपुत्रस्य वधाय शरीरके तेजः निसृजति।
श. १५ : सू. ६५,६६ रौद्र हो गया, क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर आतापन भूमि से नीचे उतरा, नीचे उतरकर तैजस-समुद्घात से समवहत हुआ, समवहत होकर सात-आठ पैर पीछे सरका, पीछे सरक कर मंखलिपुत्र गोशाल के वध के लिए अपने शरीर से तेज को निकाला।
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६५. तए णं अहं गोयमा! गोसालस्स ततः अहं गौतम! गोशालस्य मंखलिपुत्तस्स अणुकंपणट्ठयाए मंखलिपुत्रस्य अनुकम्पनार्थाय वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स । वैश्यायनस्य बालतपस्विनः उष्णतेजः उसिणतेयपडिसाहरणट्ठयाए एत्थ णं प्रतिसंहरणार्थाय अत्र अन्तरा अंतरा सीयलियं तेयलेस्सं निसिरामि, शीतलिका तेजोलेश्यां निसृजामि यया जाए सा ममं सीयलियाए तेयलेस्साए। सा मम शीतलिकया तेजोलेश्यया वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स उसिणा वैश्यायनस्य बालतपस्विनः उष्णा तेयलेस्सा पडिहया॥
तेजोलेश्या प्रतिहता।
६५. गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल की अनुकंपा के लिए बाल तपस्वी वैश्यायन की उष्ण तेजोलेश्या को प्रतिसंहृत करने के लिए गोशाल तक तेजोलेश्या पहुंचे, उससे पूर्व शीतल तेजोलेश्या को निकाला। मेरी शीतल तेजोलेश्या से बाल तपस्वी वैश्यायन की उष्ण तेजोलेश्या प्रतिहत हो गई।
६६. तए णं से बेसियायणे बालतवस्सी ममं ततः सः वैश्यायनः बालतपस्वी मम ६६. बाल तपस्वी वैश्यायन ने मेरी शीतल सीयलियाए तेयलेस्साए साउसिणं शीतलिकया तेजोलेश्यया स्वकोष्णां तेजोलेश्या से अपनी उष्ण तेजोलेश्या को तेयलेस्सं पडिहयं जाणित्ता गोसालस्स। तेजोलेश्यां प्रतिहतां ज्ञात्वा गोशालस्य प्रतिहत जानकर, मंखलिपुत्र गोशाल के मंखलिपत्तस्स सरीरगस्स किंचि आवाहं मंखलिपत्रस्य शरीरकस्य किञ्चित् ' शरीर का किञ्चित् आबाध, व्याबाध, अथवा वा बाबाहं वा छविच्छेदं वा अकीरमाणं । आबाधां वा व्याबाधां वा छविच्छेदं वा छविच्छेद न करते हुए देखकर अपनी उष्ण पासित्ता साउसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरइ, अक्रियमाणं दृष्ट्वा · स्वकोष्णां तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण किया, प्रतिपडिसाहरित्ता ममं एवं वयासी-से गतमेयं तेजोलेश्यां प्रतिसंहरति, प्रतिसंहृत्य संहरण कर इस प्रकार बोला-भगवन्! मैंने भगवं! गत-गतमेयं भगव!
माम् एवमवादीत्-तद् गतमेतद् जान लिया, भगवन्! मैंने जान लिया, जान भगवन् ! गत-गतमेतद् भगवन्!
लिया!
भाष्य सूत्र ६५-६६
बताया गया है कि इस ऊर्जा का विनाशक (विस्फोटक) परिणमन १. तेजोलेश्या
एक साथ सोलह जनपदों को भरमीसात् कर सकता है।' लब्धि, ऋद्धि, योगज उपलब्धि, प्रातिहार्य, अतिशय,
पौदगलिक ऊर्जा के विभिन्न रूपों का परस्पर में रूपान्तरण वचनातिशय आदि के विशद विवेचन से जैन वाङ्मय भरा हुआ है।
करने की अनेक विधियों एवं तकनीकों का विकास आज विज्ञान ने वैसे बौद्ध एवं वैदिक साहित्य में भी इस विषय में बहुत मूल्यवान
किया है। तेजोलेश्या में मनःकायिक प्रभाव के माध्यम से पौदगलिक सामग्री उपलब्ध है। प्रस्तुत शतक में 'तेजोलेश्या' नामक एक विशेष
ऊर्जा के रूपान्तरण की प्रक्रिया को काम में लिया जाता है। किस लब्धि की चर्चा है जो चामत्कारिक ढंग से विपुल ऊर्जा-स्रोत के रूप
प्रकार निर्दिष्ट विधि के द्वारा तपस्वी अपनी तैजस शक्ति को इस में प्रयुक्त की जाती थी। अनुग्रह करने वाली तेजोलेश्या का 'शीत'
रूप में रूपान्तरित कर देता है तथा संक्षिप्त विपुल अवस्थाओं में रख और निग्रह करने वाली तेजोलेश्या को 'उष्ण' कहा जाता है। शीतल
सकता है, शीतल तेजोलेश्या उष्ण तेजोलेश्या को किस प्रकार तेजोलेश्या उष्ण तेजोलेश्या के प्रहार को निष्फल बना देती है।
निरस्त कर देती है आदि विषय अनुसंधान के विषय हैं तथा अनुपयोग काल में तेजोलेश्या को 'संक्षिप्त' और उपयोग काल में उसे
वैज्ञानिक क्षेत्रों में चलने वाले शस्त्रास्त्रों एवं प्रतिरोधी-शस्त्रास्त्रों 'विपुल' अवस्था में रखा जा सकता है। विपुल-अवस्था में वह सूर्य
(जैसे-anti-aircraft gun आदि) के प्रयोगों के साथ तुलनीय हैं। बिम्ब के समान दुर्दर्श होती है। वह इतनी चकाचौंध पैदा कर देती है दरअसल में भारतीय अध्यात्म-विद्याओं पर मौलिक कि उसे खुली आंखों से देखा नहीं जा सकता। तेजोलेश्या का प्रयोग अनुसंधान-कार्य वैज्ञानिक पद्धति से किया जाय तो अनेक नए करने वाला अपनी तेजस्-शक्ति को बाहर निकालता है, तब वह तथ्यों का उद्घाटन हो सकता है। साधना आदि के द्वारा चेतना, महाज्वाला के रूप में विकराल होती है। प्रस्तुत शतक में स्पष्ट लेश्या, भाव आदि चैतसिक शक्तियों के विकास की प्रक्रियाओं के १. भ. १/१२१॥
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