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श. १५ : सू.६६
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भगवई
साथ सूक्ष्म पौद्गलिक परिणतियों की व्याख्या को आधुनिक विज्ञान जब वह किसी का निग्रह करने के लिए बाहर निकलता है तब के जैव-पौद्गलिक सिद्धांतों के आधार पर समझने की अपेक्षा है। उसका वर्ण सिन्दूर जैसा लाल होता है। वह तपस्वी के बाएं कंधे से इसमें नवीनतम सूक्ष्मग्राही उपकरणों के अनुप्रयोग भी रहस्यों के । निकलता है। उसकी आकृति रौद्र होती है। वह लक्ष्य का विनाश, उद्घाटन में सहायक बन सकते हैं।
दाह कर फिर अपने मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। प्रस्तत सत्रों में शीतल और उष्ण तेजोलेश्या के प्रयोग की चर्चा अनुग्रह करने वाली तेजोलेश्या को 'शीत' और निग्रह करने
वाली तेजोलेश्या को 'उष्ण' कहा जाता है। शीतल तेजोलेश्या उष्ण इसके दो पक्ष हैं
तेजालेश्या के प्रहार को निष्फल बना देती है। १. तेजोलेश्या-इस लब्धि की अनुग्रह-निग्रह की शक्ति की तेजोलेश्या अनुपयोग काल में 'संक्षिप्त' और उपयोग काल में व्याख्या। इस विषय में प्राचीन ज्ञान एवं आधुनिक विज्ञान के संदर्भ "विपुल' हो जाती है। विपुल-अवस्था में वह सूर्यबिम्ब के समान में मीमांसा करना अपेक्षित है।
दुर्दर्श होती है। वह इतनी चकाचौंध पैदा करती है कि मनुष्य उसे २. अनुकंपा-जैन आगमों एवं आचार्य भिक्षु के दर्शन के आधार खुली आंखों से देख नहीं सकता। तेजोलेश्या का प्रयोग करने वाला पर अनुकंपा की मीमांसा।
अपनी तैजस-शक्ति को बाहर निकालता है तब वह महाज्वाला के १. तेजोलेश्या
रूप में विकराल हो जाती है। तेजोलेश्या का अर्थ है-तैजस-शारीरिक विद्युत् के द्वारा अनुग्रह तेजोलेश्या का स्थान और निग्रह करने की क्षमता। यह हठयोग और तंत्रशास्त्र में प्रसिद्ध तैजस शरीर हमारे समूचे स्थूल शरीर में रहता है। फिर भी कुंडलिनी शक्ति है।
उसके दो विशेष केन्द्र हैं-मस्तिष्क और नाभि का पृष्ठभाग। मन हम शरीरधारी हैं। शरीर दो प्रकार के हैं-स्थूल और सूक्ष्म। और शरीर के बीच सबसे बड़ा संबंध-सेतु मस्तिष्क है। नाभि के अस्थिचर्ममय शरीर स्थूल है। तैजस शरीर सूक्ष्म और कर्म-शरीर पृष्ठभाग में हमारे आहार का प्राण के रूप में परिवर्तन होता है। अतः अतिसूक्ष्म है। हमारे पाचन, सक्रियता और तेजस्विता का मूल तैजस शारीरिक दृष्टि से मस्तिष्क और नाभि का पृष्ठभाग-ये दोनों शरीर है। वह पूरे स्थूल शरीर में व्याप्त रहता है तथा दीप्ति और तेजोलेश्या के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन जाते हैं। तेजस्विता उत्पन्न करता है। विद्युत, प्रकाश और ताप-ये तीनों तेजोलेश्या के विकास-स्रोत शक्तियां उसमें विद्यमान हैं। शरीर में दो प्रकार की विद्युत् तेजोलेश्या के विकास का कोई एक ही स्रोत नहीं है। उसका हैं-धार्षणिक और धारावाही या मानसिक। घार्षणिक विद्युत् का विकास अनेक स्रोतों से किया जा सकता है। संयम, ध्यान, वैराग्य, उत्पादन शरीर करता है और धारावाही विद्युत् का उत्पादन मस्तिष्क भक्ति, उपासना, तपस्या आदि आदि उसके विकास के स्रोत हैं। करता है। मस्तिष्कीय विद्युत्-धारा स्नायु-मंडल में संचरित रहती है।। इन विकास-स्रोतों की पूरी जानकारी लिखित रूप में कहीं भी वह ज्ञान-तंतुओं के द्वारा मस्तिष्क तक पहुंचती है और उससे मिले उपलब्ध नहीं होती। यह जानकारी मौलिक रूप में आचार्य शिष्य निर्देशों का शारीरिक अवयवों के द्वारा क्रियान्वयन कराती है। इसका। को स्वयं देते थे। मल हेत तैजस शरीर है। यह शरीर प्राणिमात्र के साथ निरन्तर रहता गोशालक ने महावीर से पूछा-'भंते ! तेजोलेश्या का विकास है। एक प्राणी मृत्यु के उपरान्त दूसरे जन्म में जाता है। अंतराल गति कैसे हो सकता है?' महावीर ने इसके उत्तर में उसे तेजोलेश्या के में भी तैजस शरीर उसके साथ रहता है। कर्म-शरीर सब शरीरों का एक विकास-स्रोत का ज्ञान कराया। उन्होंने कहा-'जो साधक मूल है। उसके बाद दूसरा स्थान तैजस शरीर का है। यह सूक्ष्म निरन्तर दो-दो उपवास करता है, पारणा के दिन मुट्ठीभर उड़द या पुद्गलों से निर्मित होता है, इसलिए चर्म-चक्षु से दृश्य नहीं होता। यह मूंग खाता है और एक चूल्लू पानी पीता है, भुजाओं को ऊंचीकर स्वाभाविक भी होता है और तपस्या द्वारा उपलब्ध भी होता है। सूर्य की आतापना लेता है, वह छह महीनों के भीतर ही तेजोलेश्या स्वाभाविक तैजस शरीर सब प्राणियों में होता है। तपस्या से उपलब्ध होने वाला तैजस शरीर सबमें नहीं होता। 'वह तपस्या से उपलब्ध तेजोलेश्या के तीन विकास-स्रोत हैंहोता है इसका तात्पर्य यह है कि तपस्या से तैजस शरीर की क्षमता १. आतापना-सूर्य के ताप को सहना। बढ़ जाती है। स्वाभाविक तैजस शरीर स्थूल शरीर से बाहर नहीं
२. क्षांति-क्षमा-समर्थ होते हुए भी क्रोध-निग्रहपूर्वक अप्रिय निकलता। तपोजनित तैजस शरीर शरीर के बाहर निकल सकता है। व्यवहार को सहन करना। उसमें अनुग्रह और निग्रह की शक्ति होती है। उसके बाहर निकलने ३. जल-रहित तपस्या करना। की प्रक्रिया का नाम तैजस समुद्घात है। जब वह किसी पर अनुग्रह
परामनोविज्ञान में मनःप्रभाव (साइकोकाइनेसिस) करने के लिए बाहर निकलता है तब उसका वर्ण हंस की भांति सफेद
मन या चेतना के द्वारा पदार्थ के सीधे प्रभावित करने की होता है। वह तपस्वी के दाएं कंधे से निकलता है। उसकी आकृति क्रिया को मनःप्रभाव (साइकोकाइनेसिस) कहा गया है। बाह्य जगत् सौम्य होती है। वह लक्ष्य हित-साधन कर (रोग आदि का उपशमन में मानवीय कार्यों के प्रति सामान्य मान्यता यही है कि प्रत्येक पदार्थ कर) फिर अपने मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है।
कार्य के लिए दैहिक अवयवों, यथा-मस्तिष्क, स्नायुओं, मांसपेशियों
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