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________________ श. १४ : उ. ८ : सू. १०६ २२० भगवई मणुपत्ताणं से पुब्बग्गहिए उदए अणु- तत् पूर्वगृहीतम् उदकम् अनुपूर्वेण लिया हुआ जो जल था, वह पीते गए, पीते पुग्वेणं परिभुंजमाणे झीणे। तं सेयं खलु परिभुञ्जमानं क्षीणम्। ततः श्रेयः खलु गए। आखिर वह समाप्त हो गया है। देवाणुप्पिया! अम्हं इमीसे अगामियाए देवानुप्रियाः! अस्माकम् अस्याम् देवानुप्रिय! यह श्रेय है कि हम इस विशाल, छिण्णावायाए दीहमद्धाए अडवीए अग्रामिकायां छिन्नापातायां दीर्घाध्वनि वस्ती शून्य, आवागमन रहित प्रलंब मार्ग उदगदातारस्स सब्बओ समंता मग्गण- अटव्याम् उदकदातुः सर्वतः समन्तात् वाली अटवी में किसी जल लेने की अनुमति गवेसणं करित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स मार्गण-गवेषणां कर्तुम् इति कृत्वा देने वाले की चारों ओर मार्गणा-गवेषणा करें। अंतिए एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता अन्योन्यस्य अन्तिके एतमर्थं प्रति- इस प्रकार एक-दूसरे के पास इस अर्थ को तीसे अगामियाए छिण्णावायाए शृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य तस्याम् सुना, सुनकर उस विशाल, वस्तीशून्य, दीहमद्धाए अडवीए उदगदातारस्स अग्रामिकायां छिन्नापातायां दीर्घाध्वनि । आवागमन रहित प्रलंब मार्ग वाली अटवी में सब्बओ समंता मग्गण-गवेसणं करेंति, अटव्याम् उदकदातुः सर्वतः समन्तात् जल लेने की अनुमति देने वाले व्यक्ति की करेत्ता उदगदातारमलभमाणा दोच्चं पि मार्गण-गवेषणां कुर्वन्ति, कृत्वा चारों ओर मार्गणा-गवेषणा की। मार्गणाअण्णमण्णं सदावेंति, सद्दावेत्ता एवं । उदकदातारम् अलभेमानाः द्विः अपि गवेषणा करने पर, जल देने वाले व्यक्ति के न वयासी-इहण्णं देवाणुप्पिया! उदगदातारो । अन्योन्यं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा मिलने पर दूसरी बार पुनः एक-दूसरे को नत्थि तं नो खलु कप्पइ अम्हं अदिण्णं । एवमवादिषुः-इह देवानुप्रियाः! बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहागिण्हित्तए, अदिण्णं साइज्जित्तए, तं मा उदकदाता नास्ति तत् नो खलु कल्पते देवानुप्रियो! यहां कोई जल लेने की अनुमति णं अम्हे इयाणिं आवइकालं पि अदिण्णं अस्माकम् अदत्तं ग्रहीतुम्, अदत्तं देने वाला नहीं है। हमें अदत्त ग्रहण करना गिण्हामो, अदिण्णं साइज्जामो, मा णं 'साइज्जित्तए' तत् मा वयम् इदानीं नहीं कल्पता, अदत्त का अनुमोदन करना अम्हं तवलोवे भविस्सइ। तं सेयं खलु आपत्कालम् अपि अदत्तं गृह्णीयाम, नहीं कल्पता, इसलिए हम इस आपत् काल अम्हं देवाणुप्पिया! तिदंडए य कुंडियाओ। अदत्तं 'साइज्जामो' मा अस्माकं में भी अदत्त जल का ग्रहण न करें, अदत्त य कंचणियाओ य करोडियाओ य तपःलोपः भविष्यति। तत् श्रेयः खलु जल का अनुमोदन न करें, जिससे कि हमारे भिसियाओ य छण्णालए य अंकुसए य अस्माकं देवानुप्रियाः! त्रिदण्डकान् च तप का लोप न हो। केसरियाओ य पवित्तए य गणेत्तियाओ कुण्डिकाः च काञ्चनिकाः च करोटिकाः देवानुप्रियो! हमारे लिए यह श्रेय है कि हम य छत्तए य वाहणाओ य धाउरत्ताओ य च वृषिकाः च 'छण्णालए' च अंकुशकान् त्रिदंड, कमण्डलु, रूद्राक्ष-माला, मृत्पात्र, एगते एडित्ता गंगं महानई ओगाहित्ता च केसरिकाः च पवित्रकान् च आसन, केसरिका (पात्र प्रमार्जन का वस्त्र वालुयासंथारए संथरित्ता संलेहणा- 'गणेत्तियाओ' च छत्रकान् च उपानहः । खण्ड) टिकठी, अंकुश, छलनी, कलाई पर झुसियाणं भत्तपाण-पडियाइक्खियाणं च धातुरक्तान् च एकान्ते एडयित्वा पहना जाने वाला रुद्राक्ष आभरण, छत्र, पाओवगयाणं कालं अणवकंखमाणाणं गङ्गां महानदीम् अवगाह्य वालुका- पदत्राण और गेरुएं वस्त्र को एकान्त में डाल विहरित्तए त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स अंतिए संस्तारकान् संस्तृत्य संलेखनाजुष्टानां । दें, गंगा महानदी का अवगाहन कर, बालुकाएयमद्वं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता तिदंडए य (जुषितानां) भक्तपानप्रत्याख्यातानां । संस्तारक बिछाकर संलेखना की आराधना में कुंडियाओ य कंचणियाओ य प्रायोपगतानां कालम् अनवकाङ्क्षतां स्थित हो, भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर करोडियाओ य भिसियाओ य छण्णालए विहर्तुम् इति कृत्वा अन्योन्यस्य प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में मृत्यु की य अंकुसए य केसरियाओ य पवित्तए य अन्तिके एतमर्थं प्रतिशृण्वन्ति, आकांक्षा न करते हुए रहें-इस प्रकार एक गणेत्तियाओ य छत्तए य वाहणाओ य प्रतिश्रुत्य त्रिदण्डकान् च कुण्डिकाः च दूसरे के पास इस अर्थ को सुना, सुनकर धाउरत्ताओ य एगते एडेंति, एडेत्ता गंगं काञ्चनिकाः च करोटिकाः च वृषिकाः च । त्रिदंड, कमण्डलु, रूद्राक्ष-माला, मृत्पात्र, महानई ओगाहेंति, ओगाहेत्ता 'छण्णालए' च अंकुशकान् च केसरिकाः आसन, केसरिका, टिकठी, अंकुश, छलनी, वालुयासंथारए संथरंति, संथरित्ता च पवित्रकान् च 'गणेत्तियाओ' च कलाई पर पहना जाने वाला रुद्राक्ष आभरण, वालुयासंथारयं दुरुहंति, दुरुहित्ता छत्रकान् च उपानहः च धातुरक्तान् च । छत्र, पदत्राण और गेरुएं वस्त्र को एकान्त में परत्थाभिमहा संपलियंकनिसण्णा एकान्ते एडयन्ति, एडयित्वा गङ्गां डालते हैं, अवगाहन कर बालुका का बिछौना करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए महानदीम् अवगाहन्ते, अवगाह्य बिछाते हैं, बिछाकर बालुका के बिछौने पर अंजलिं कट्ट एवं वयासी वालुकासंस्तारकान् । संस्तृणन्ति, आरूढ होते हैं, आरूढ होकर पूर्व की ओर संस्तृत्य वालुकासंस्तारकम् आरोहन्ति, मुंह कर पर्यंकासन में बैठकर, हथेलियों से आरुह्य पौरस्त्याभिमुखाः संपर्यंक- संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के निषण्णाः-करतलपरिगृहीतं शिरसावर्त सम्मुख घुमाकर इस प्रकार बोलेमस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादिषुः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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