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भगवई
पच्चायाहिति । से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय पूय-सक्कारिय- सम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहि यावि भविस्स ॥
१०६. से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गमिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ?
गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति ॥
अम्मड - अंतवास -पदं १०७. तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स सत्त अंतेवासिसया गिम्हकालसमयंसि
जे मूलमा संमि गंगाए महानदी उभओ कूलेणं कंपिल्लपुराओ नगराओ पुरिमतालं नयरं संपट्टिया विहाराए ।
१०८. तए णं तेसिं परिव्वायगाणं तीसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमद्धाए अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं से पुव्वग्गहिए उदए अणुपुब्वेणं परिभुंजमाणे झीणे ।
१०६. तए णं ते परिव्वया झीणोदगा समाणा तण्हाए पारब्भमाणापारब्भमाणा उदगदातारमपस्समाणा अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमद्धाए अडवीए कंचि देसंतर
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निष्यति । सः तत्र अर्चित वन्दितपूजित - सत्कृत - सम्मानितः दिव्यः सत्यः सत्यावपातः सन्निहितप्रातिहार्यः लाउल्लोइयमहिए चापि भविष्यति ।
१. सूत्र १०१-१०६
इस आलापक में प्रत्यक्ष दृष्ट शालवृक्ष, शालयष्टिका और उदुंबरयष्टिका के विषय में गौतम ने प्रश्न पूछा और महावीर ने उनके भावी जन्म का प्रतिपादन किया।
अच्चिय आदि विशेषणों की जानकारी के लिए द्रष्टव्य भ. १२/ १५४ १५८ का भाष्य ।
शालवृक्ष आदि की उन्नत गति का हेतु अकाम निर्जरा है। विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य भगवई १ / ४८- ५० का भाष्य ।
सः भदन्त ! तस्मात् (तओहिंतो ) अनन्तरम् उद्वर्त्य कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते ?
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गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति ।
भाष्य
अम्बड - अन्तेवासि-पदम्
तस्मिन् काले तस्मिन् समये अम्बडस्य परिव्राजकस्य सप्त अन्तेवासिशतानि ग्रीष्मकालसमये ज्येष्ठमूलमासे गंगायां महानद्याम् उभयतः कूलेन काम्पिल्यपुरात् नगरात् पुरिमतालं नगरं सम्प्रस्थिताः विहाराय ।
१. भ. वृ. १४/१०३ - इह च यद्यपि शालवृक्षादावनेके जीवा भवन्ति तथाऽपि प्रथमजीवापेक्षं सूत्रत्रयमभिनेतव्यम् ।
ततः तेषां परिव्राजकानां तस्याम् अग्रामिकायां छिन्नापातायां दीर्घाध्वनि अटव्यां कञ्चित् देशान्तरम् अनुप्राप्तानां तत् पूर्वगृहीतम् उदकम् अनुपूर्वेण परिभुञ्जमानं क्षीणम् ।
वृत्तिकार ने वृक्षों के विषय में एक विशेष सूचना दी है- शालवृक्ष आदि वृक्षों में अनेक जीव होते हैं। यहां वृक्ष का निर्माता मूल जीव
विवक्षित है।
ततः ते परिव्राजकाः क्षीणोदकाः सन्तः तृष्णया प्रारभमाणाः प्रारभमाणाः उदकदातारम् अपश्यन्तः अन्योन्यं शब्दयन्ति शब्दयित्वा एवमवादिषुःएवं खलु देवानुप्रियाः ! अस्याम् अग्रामिकायां छिन्नापातायां दीर्घाध्वनि अटव्यां कञ्चित् देशान्तरमनुप्राप्तानां
श. १४ : उ ८ : : सू. १०६-१०६
उपपन्न होगा। वह वहां अर्चित, वंदित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य, सत्य, सत्यावपात, सन्निहित प्रातिहार्य तथा लाउल्लोइयमहित होगा ।
इस प्रकार के प्रश्न गौतम ने क्यों पूछे ? यह प्रश्न अस्वाभाविक नहीं है । वृत्तिकार ने इस विषय में लिखा है- बहुत लोग वनस्पति को सजीव नहीं मानते। उनकी मान्यता को सामने रखकर गौतम ने वनस्पति के सन्दर्भ में प्रश्न पूछे और भगवान् महावीर से उनका समाधान पाया।
१०६. भंते! वह वहां से अनंतर उद्वर्तन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा?
गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा।
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अम्मड अंतेवासी पद
१०७. उस काल उस समय अम्मड परिव्राजक के सात सौ अंतेवासी ग्रीष्मकाल समय में ज्येष्ठ मास में गंगा महानदी के दोनों तटों पर होते हुए कंपिलपुर नगर से पुरिमताल नगर की ओर विहार के लिए प्रस्थित हुए।
१०८. वे परिव्राजक उस विशाल, वस्ती शून्य, आवागमन रहित तथा प्रलंब मार्ग वाली अटवी में कुछ दूरवर्ती प्रदेश में चले गए। पहले जो जल था, उसे पीते गए, पीते गए, आखिर वह समाप्त हो गया।
१०६. जल के समाप्त हो जाने पर प्यास से अभिभूत हो गए। उन्हें कोई जल को देने वाला दिखाई नहीं दिया। परिव्राजकों ने एक दूसरे को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! इस विशाल, वस्ती शून्य, आवागमन रहित तथा प्रलंब मार्ग वाली अटवी में कुछ दूरवर्ती प्रदेश में आ गए हैं। पहले २. भ. वृ. १४/१०३ - एवंविधप्रश्नाश्च वनस्पतीनां जीवत्वमश्रद्दधानं श्रोतारमपेक्ष्य भगवता गौतमेन कृता इत्यवसेयमिति ।
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