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श. १३ : उ. १: सू. ६
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भगवई
जहा अणंतरोववण्णगा तहा अणंतरोवगाढगा अणंतराहारगा अणंतर- पज्जत्तगा। परंपरोवगाढगा जाव अचरिमा जहा परंपरोववण्णगा॥
संख्येयाः परम्परोपपन्नकाः प्रज्ञप्ताः। एवं यथा अनन्तरोपपन्नकाः तथा अनन्तरावगाढकाः, अनन्तराहारकाः, अनन्तरपर्याप्तकाः। परम्परावगाढकाः यावत् अचरमाः यथा परम्परोपपन्नकाः।
परंपर-उपपन्नक प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार अनंतर-उपपन्नक की भांति अनंतरअवगाढक अनंतर-आहार वाले, अनंतर पर्याप्तक प्रज्ञप्त हैं। परंपर-अवगाढक यावत् अचरम भव वाले परंपर-उपपन्नक की भांति
प्रज्ञप्त हैं।
भाष्य
करने वाले।
परंपरावगाढ-विवक्षित क्षेत्र का द्वितीय, तृतीय आदि समय में अवगाहन करने वाले।
अनंतर-आहारक-प्रथम समय में आहार करने वाले। परंपर-आहारक-द्वितीय, तृतीय आदि समय में आहार करने
वाले।
१. सूत्र ५
प्रस्तुत आलापक में सत्ता-रत्नप्रभा में विद्यमान नारक जीवों के बारे में चिंतन किया गया है। असंज्ञी अवस्था से उत्पन्न नारकों को अंतर्मुहर्त तक विभंगज्ञान उपलब्ध नहीं होता। वे जीव नरक में कभी होते हैं, कभी नहीं होते। शब्द-विमर्श
नोइन्द्रिय-उपयुक्त-उत्पत्ति के समय नारक जीव नो इन्द्रियोपयुक्त होते हैं। मन योग के विकसित होने पर नो इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रहती इसलिए नो इन्द्रियोपयुक्त जीव कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते।
अनंतरोपपन्नक-प्रथम समय में उत्पन्न ।
परंपरोपपन्नक-उत्पत्ति समय की अपेक्षा द्वितीय, तृतीय आदि समयों में वर्तमान।
अनंतरावगाढ-विवक्षित क्षेत्र का प्रथम समय में अवगाहन
अनंतर-पर्याप्तक-पर्याप्त होने के प्रथम समय वाले।
परंपर-पर्याप्तक-पर्याप्त होने के द्वितीय, तृतीय आदि समय वाले।
चरम-अभयदेव सूरि ने चरम के दो अर्थ किए हैं
१. जिन जीवों का नारक भव चरम है, उन्हें चरम कहा गया है।
२. नारक भव के चरम समय में वर्तमान जीव चरम हैं।
६. इमीसे णं भंते ! स्यणप्पभाए पुढवीए अस्यां भदन्त! रत्नप्रभायां पृथिव्यां ६. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख तीसाए निरयावाससयसहस्सेस त्रिंशति निरयावासशतसहस्रेषु नरकावासों में से असंख्येय विस्तृत नरकों में असंखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं असंख्येयविस्तृतेषु नरकेषु एकसमयेन एक समय में कितने नैरयिक उपपन्न होते हैं केवतिया नेरइया उववज्जति जाव कियन्तः नैरयिकाः उपपद्यन्ते यावत् यावत् कितने अनाकार उपयोग वाले उपपन्न केवतिया अणागारोवउत्ता उबवज्जति? कियन्तः अनाकारोपयुक्ताः होते हैं?
उपपद्यन्ते? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए ___ गौतम! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु त्रिंशति निरयावासशतसहस्रेषु नरकावासों में से असंख्येय-विस्तृत नरकों में असंखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं असंख्येयविस्तृतेषु नरकेषु एकसमये एक समय में जघन्यतः एक, दो अथवा जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, तीन, उत्कृष्टतः असंख्येय नैरयिक उपपन्न उक्कोसेणं असंखेज्जा नेरइया उत्कर्षेण असंख्येयाः नैरयिकाः होते हैं। इसी प्रकार संख्येय-विस्तृत नरकों उववज्जंति एवं जहेव संखेजविडत्थडेसु उपपद्यन्ते। एवं यथैव संख्येयविस्तृतेषु के तीन गमक की भांति असंख्येय-विस्तृत तिण्णि गमगा तहा असंखेजवित्थडेसु त्रयः गमकाः तथा असंख्येयविस्तृतेषु नरकों के तीन गमक वक्तव्य हैं, इतना वि तिणि गमगा भाणियब्वा, अपि त्रयः गमकाः भणितव्याः, नवरम्- विशेष है-संख्येय के स्थान पर असंख्येय नवरं-असंखेज्जा भाणियब्बा, सेसं तं असंख्येयाः भणितव्याः, शेषं तत् चैव वक्तव्य है। शेष पूर्ववत् यावत् असंख्येय चेव जाव असंखेज्जा अचरिमा यावत् असंख्येयाः अचरमाः प्रज्ञप्ताः, अचरम भव वाले प्रज्ञप्त हैं, इतना विशेष पण्णत्ता, नवरं-संखेज्जवित्थडेसु नवरम्-संख्येयविस्तृतेषु असंख्येय- है-संख्येय-विस्तृत और असंख्येय-विस्तृत असंखेज्जवित्थडेसु वि ओहिनाणी विस्तुतेष अपि अवधिज्ञानिनः अवधि- नरकों में भी अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी आहिंदसणी य संखेज्जा उच्चट्टावेयव्वा, दर्शिनः च संख्येयाः उदवर्तयितव्याः, संख्येय उद्वर्तन करते हैं। सेसं तं चेव॥
शेष तचैव। १. भ. वृ. १३/५-चरमो नारकभवेषु स एव भवो येषां ते चरमाः नारकभवस्य वा चरमसमये वर्तमानाश्चरमाः।
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