________________
भगवई
श. १२ : उ. ४ : सू. ६७
५० १७. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते-
ओरालियपोग्गलपरियट्टे ओरालिय- औदारिकपुद्गलपरिवर्तः औदारिक- पोग्गलपरियट्टे ?
पुद्गलपरिवर्तः? गोयमा ! जण्णं जीवेणं ओरालिय- गौतम! यत जीवेन औदारिकशरीरे सरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरीर- वर्तमानेन औदारिकशरीरप्रायोग्यानि पायोग्गाइं दवाइं ओरालियसरीरत्ताए द्रव्याणि औदारिकशरीरत्वेन गृहीतानि गहियाई बधाई पुट्ठाई कडाइं पट्टवियाई बद्धानि स्पृष्टानि कृतानि प्रस्थापितानि निविट्ठाई अभिनिविट्ठाई अभि- निर्विष्टानि अभिनिर्विष्टानि अभिसमण्णागयाइं परियादियाइं परिणा- समन्वागतानि पर्याप्तानि परिणामिमियाइं निजिण्णाई निसिरियाई तानि निर्जीर्णानि निःसृतानि निःनिसिट्ठाई भवंति।
सृष्टानि भवन्ति। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ- तत् तेनार्थेन गौतम! एवम् उच्यतेओरालियपोग्गलपरियट्टे ओरालिय- औदारिकपुदगलपरिवर्तः औदारिकपोग्गलपरियट्टे।
पुद्गलपरिवर्तः। एवं वैक्रियपुद्गलएवं वेउब्वियपोग्गलपरियट्रेवि, नवरं- परिवर्तोऽपि, नवरम्-वैक्रियशरीरे वेउब्वियसरीरे वट्टमाणेणं वेउब्विय- वर्तमानेन वैक्रियशरीरप्रायोग्यानि सरीरप्पायोग्गाई दवाइं वेउब्विय- द्रव्याणि वैक्रिय-शरीरत्वेन गृहीतानि, सरीरत्ताए गहियाई, सेसं तं चेव सव्वं, शेषं तत् चैव सर्वम्, एवं यावत् एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे, आनापानपुद्गल-परिवर्तः, नवरम्नवरं-आणापाणुपायोग्गाई सव्वदव्वाई आनापानप्रायोग्यानि सर्वद्रव्याणि आणापाणुत्ताए गहियाई, सेसं तं आनापानत्वेन गृहीतानि, शेषं तच्चैव ।
भवाता
१७. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा
है-औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त औदारिक पुद्गल-परिवर्त है? गौतम ! औदारिक शरीर में वर्तन करते हुए जीव के द्वारा औदारिक शरीर के प्रायोग्य द्रव्य औदारिक शरीर के रूप में गृहीत, बद्ध, स्पृष्ट, कृत, प्रस्थापित, निविष्ट, अभिनिविष्ट (तीव्र अनुभाव के रूप में प्रस्थापित), अभिसमन्वागत (उदय के अभिमुख), पर्याप्त, परिणामित, निर्जीर्ण, निःसृत और निःसृष्ट होते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त है। इसी प्रकार वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त भी वक्तव्य है, इतना विशेष है-वैक्रिय शरीर में वर्तन करते हुए जीव के द्वारा वैक्रिय शरीर के प्रायोग्य द्रव्यों का वैक्रिय शरीर के रूप में ग्रहण, शेष पूर्ववत्, इसी प्रकार यावत् आनापान पुद्गलपरिवर्त्त, इतना विशेष है-आनापान के प्रायोग्य समस्त द्रव्यों का आनापान के रूप में ग्रहण, शेष पूर्ववत्।
चेव॥
भाष्य 1. सूत्र १७
२. निर्विष्ट-जीव उन पुद्गलों का विन्यास करता है। प्रस्तुत सूत्र में औदारिक पुद्गल-परिवर्त आदि के नामकरण ३. अभिनिविष्ट-विधिपूर्वक स्थापित पुदगलों का जीव से संलग्न का प्रयोजन बतलाया गया है। औदारिक पुद्गल-परिवर्त करने वाला हो जाना। जीव औदारिक वर्गणा के पुद्गलों की तेरह अवस्थाओं से गुजरता है- ४. अभिसमन्वागत-गृहीत पुद्गलों में विधि पूर्वक रसानुभूति की १. गृहीत-जीव के द्वारा स्वीकृत।
क्षमता उत्पन्न होना। २. बद्ध-जीव के प्रदेशों द्वारा गृहीत पुद्गलों का आत्मीकरण। ५. पर्याप्त-जीव के अवयवों द्वारा उनपुद्गलों के रस का ग्रहण करना।
३. स्पृष्ट-जीव के द्वारा उन पुद्गलों का स्पर्श होता है। पुट्ठ का ये पांच अवस्थाएं स्थिति से संबद्ध हैं। वैकल्पिक अर्थ है पुष्ट। जीव अन्य-अन्य पुद्गलों का ग्रहण कर पुष्ट १. परिणामित-रसानुभूति की दृष्टि से परिणामांतर होता है। करता रहता है।
२. निर्जीर्ण-रस के क्षीण होने पर वे पुद्गल निर्जीर्ण होते हैं। ४. कृत-परिणामान्तर का कार्य चलता रहता है।
३. निःसृत-निर्जीर्ण पुद्गल जीव प्रदेशों से निकलने लग ये प्रथम चार अवस्थाएं औदारिक पुद्गलों के ग्रहण से जाते हैं। संबद्ध हैं।
४. निसृष्ट-जीव के प्रदेशों से वे पुद्गल सर्वथा' त्यक्त होते हैं। १. प्रस्थापित-गृहीत पुद्गलों का स्थिरीकरण होता है।
ये चार अवस्थाएं विगमन से संबद्ध हैं।
१. भ. वृ. १२/६७-'गहियाई ति स्वीकृतानि, 'बधाई ति जीव प्रदेशैरात्मी
करणात्, कुतः? इत्याह- 'पुट्ठाई ति यतः पूर्व स्पृष्टानि तनौ रेणुवत् अथवा पुष्टानि पोषितान्यपरापरग्रहणतः कडाई ति पूर्व परिणामापेक्षया परिणामान्तरेण कृतानि 'पट्टवियाई ति प्रस्थापितानि-स्थिरीकृतानि जीवेन, "निविट्ठाई' ति यतः स्थापितानि ततो निविष्टानि जीवेन स्वयम, 'अभिनिविट्ठाई' ति अभि-अभिविधिना निविष्टानि सर्वाव्यपि, जीवे लग्नानीत्यर्थः 'अभिसमन्नागयाई' ति अभिविधिना सर्वाणीत्यर्थः
समन्वागतानि संप्राप्तानि जीवेन रसानुभूतिं समाश्रित्य परियाइयाई ति पर्याप्तानि जीवेन सर्वावयवैरात्तानि तद्रसादानद्वारेण 'परिणामियाई ति रसानुभूतित एव परिणामान्तरमापादितानि। 'निज्जिण्णाई' ति क्षीणरसीकृतानि "निसिरियाई' त्ति जीवप्रदेशेभ्यो निःसृतानि,
कथं ?-निसिट्ठाई ति जीवेन निःसृष्टानि स्थप्रदेशेभ्यस्त्याजितानि। २. वही, भ. १२/६७-इहाद्यानि चत्वारि पदान्यौदारिकपुद्गलानां ग्रहण-विषयाणि
तदुत्तराणि तु पञ्चस्थितिविषयाणि तदुत्तराणि तु चत्वारि विगमविषयाणीति।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org