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श. १५ : सू. १७३,१७४ ३२८
भगवई १७३. तए णं से विमलवाहणे राया ततः सः विमलवाहनः राजा अन्यदा १७३. राजा विमलवाहन किसी दिन श्रमण
अण्णया कदायि समणेहिं निग्गंथेहिं कदाचित् श्रमणेषु निर्ग्रन्थेषु मिथ्या निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न मिच्छ विपडिवज्जिहिति-अप्पेगतिए विप्रतिपत्स्यते-अप्येककान् आक्रोक्ष्यति, होगा-वह अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति आओ-सेहिति,अप्पेगतिए अवसिहिति, अप्येककान् अपहसिष्यति, आक्रोश करेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों का अप्पेगतिए निच्छोडेहिति, अपेगतिए अप्येककान् निश्छोटयिष्यन्ति, उपहास करेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों का निम्भंछेहिति, अपेगतिए बंधेहिति, अप्येककान् निर्भर्त्तयिष्यते, तिरस्कार करेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों की अप्पेगतिए निरंभेहिति, अप्पेगतियाणं अप्येककान् भन्त्स्यति, अप्येककान् निर्भर्त्सना करेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों को छविच्छेदं करेहिति, अप्पेगतिए पमारे- निरोत्स्यति, अप्येककानां छविच्छेदं बांधेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों को कारागार हिति, अप्पेगतिए उद्दवेहिति, अप्पेग- करिष्यति, अप्येककान् प्रमारयिष्यति, में डाल देगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों का तियाणं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं अप्येककान् उपद्रोष्यति, अप्येककानां छविच्छेद करेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों को आच्छिंदिहिति विच्छिंदिहिति भिंदिहिति वस्त्रं प्रतिग्रहं कम्बलं पादप्रोञ्छनम् पीटेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों को मारेगा, अवहरिहिति, अप्पेगतियाणं भत्तपाणं आच्छेत्स्यति विच्छेत्स्यति भिन्त्स्यति अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों के वस्त्र, पात्र, कंबल, वोच्छिंदिहिति, अप्पेगतिए निनगरे अपहरिष्यति, अप्येककानां भक्तपानं पादप्रौञ्छन का आच्छेदन, विच्छेदन, भेदन करेहिति, अप्पेगतिए निब्धिसए करेहिति॥ व्यवच्छेत्स्यति, अप्येककान् निर्नगरान् और अपहरण करेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों
करिष्यति, अप्येककान् निर्विषयान् के भक्तपान का विच्छेद करेगा, अनेक श्रमण करिष्यति।
निर्ग्रन्थों को नगर-रहित करेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों को निर्वासित करेगा।
१७४. तए णं सयदुवारे नगरे बहवे ततः शतद्वारे नगरे राजेश्वर 'तलवर' - १७४. शतद्वार नगर के अनेक राजा, ईश्वर, राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इन्भ- माडम्बिक-कौटुम्बिक - इभ्य - श्रेष्ठि- तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेटि-सेणावइ-सत्थवाहप्पभितओ अण्ण- सेनापति-सार्थवाह प्रभृतयः अन्योन्यं सेनापति, सार्थवाह आदि एक दूसरे को मण्णं सद्दावेहिति, सदावेत्ता एवं शब्दयिष्यन्ति, शब्दयित्वा एवं बुलाएंगे, बुलाकर इस प्रकार कहेंगेवदिहिति-एवं खलु देवाणुप्पिया! वदिष्यन्ति-एवं खलु देवानुप्रियाः । देवानुप्रियो! राजा विमलवाहन श्रमण निम्रन्थों विमलवाहणे राया समणेहि निग्गंथेहि विमलवाहनःराजा श्रमणेषु निर्गन्थेषु के प्रति मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न हो गया मिच्छं विपडिवन्ने-अप्पेगतिए आओसति मिथ्या विप्रतिपन्ना-अप्येककान् है-अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति आक्रोश जाव निब्बिसए करेति, तं नो खलु आक्रोशयति यावत् निर्विषयान् करोति, करता है यावत् निर्वासित करता है-इसलिए देवाणुप्पिया! एयं अम्हं सेय, नो खलु एवं तत् नो खलु देवानुप्रियाः ! एतद् देवानुप्रियो! न यह हमारे लिए श्रेय है, न विमलवाहणस्स रण्णो सेयं, नो खलु एवं अस्माकं श्रेयः, नो खलु एतद् । राजा विमलवाहन के लिए श्रेय है, न यह रज्जस्स वा रहस्स वा बलस्स वा विमलवाहनस्य श्रेयः, नो खलु एतद् राज्य, राष्ट्र, सेना, वाहन, पुर, अन्तःपुर वाहणस्स वा पुरस्स वा अंतेउरस्स वा। राज्यस्य वा राष्ट्रस्य वा बलस्य वा और जनपद के लिए श्रेय है, क्योंकि राजा जणवयस्स वा सेयं, जण्णं विमलवाहणे वाहनस्य वा पुरस्य वा अन्तःपुरस्य वा विमलवाहन मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न हो गया राया समणेहिं निग्गंथेहिं मिच्छं जनपदस्य वा श्रेयः यत् विमलवाहनः है। इसलिए देवानुप्रियो! यह श्रेय है कि हम विपडिवन्ने। तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! राजा श्रमणेषु निर्ग्रन्थेषु मिथ्या राजा विमलवाहन को इस अर्थ की जानकारी अम्हं विमलवाहणं रायं एयमढें विप्रतिपन्नः। तत् श्रेयः खलु। दें, इस प्रकार एक दूसरे के पास इस अर्थ को विष्णवेत्तए त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स अंतियं देवानुप्रियाः ! अस्माकं विमलवाहनं स्वीकार करेंगे, स्वीकार कर जहां राजा एयमढे पडिसुणेहिति, पडिसुणेत्ता जेणेव राजानम् एतमर्थं विज्ञापयितुम् इति विमलवाहन है, वहां आएंगे, वहां जाकर दोनों विमलवाहणे राया तेणेव कृत्वा अन्योन्यस्य अन्तिकम् एतमर्थ हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दस उवागच्छिहिति, उवागच्छित्ता करयल- प्रतिश्रोष्यन्ति, प्रतिश्रुत्य यत्रैव विमल- नखात्मक अञ्जलि को घुमाकर मस्तक पर परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए वाहनः राजा तत्रैव उपागमिष्यन्ति, टिकाकर विमलवाहन राजा को जय-विजय अंजलिं कट्ट नि मलवाहणं रायं जएणं उपागम्य करतलपरिगृहीतं दशनखं के द्वारा वर्धापित करेंगे, वर्धापित कर इस विजएणं बद्धावेहिति, बद्धावेत्ता एवं शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा प्रकार कहेंगे-देवानुप्रिय! श्रमण निर्ग्रन्थों के वदिहिति–एवं खलु देवाणुप्पिया! विमलवाहनं राजानं जयेन विजयेन प्रति मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न होकर आप समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छं विप्पडिवन्ना, वर्द्धयिष्यन्ति, वर्धयित्वा एवं अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति आक्रोश करते अप्पेगतिए आओसंति जाव अप्पेगतिए वदिष्यन्ति-एवं खलु देवानुप्रियाः ! हैं यावत् अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों को निर्वासित
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