SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई २१०. आया भंते ! नेरइयाणं दंसणे ? अण्णे नेरइयाणं दंसणे? आत्मा भदन्त! नैरयिकाणां दर्शनम्? अन्यत् नैरयिकाणां दर्शनम्? श. १२ : उ. १० : सू. २१०-२१२ २१०. भंते ! क्या नैरयिकों की आत्मा दर्शन है? क्या नैरयिकों की आत्मा से भिन्न कोई दर्शन है ? गौतम ! नैरयिकों की आत्मा नियमतः दर्शन है, उनका दर्शन भी नियमतः आत्मा है। इसी प्रकार यावत् वैमानिक देवों तक, निरन्तर दंडक वक्तव्य है। गोयमा ! आया नेरइयाणं नियमं दसणे, दंसणे वि से नियमं आया। एवं जाव बेमाणियाणं निरंतरं दंडओ॥ गौतम! आत्मा नैरयिकाणां नियमम् दर्शनम्, दर्शनम् अपि तत् नियमम् आत्मा। एवं यावत् वैमानिकानां निरन्तरं दण्डकः। भाष्य १. सूत्र २०६-२१० इस आलापक में आत्मा, ज्ञान और दर्शन की सापेक्ष चर्चा की गई है। ज्ञान और दर्शन आत्मा के गुण हैं, लक्षण हैं। गुण और गुणी का संबंध भेदाभेदात्मक है। जो सर्वथा भिन्न है वह उस द्रव्य का गुण नहीं हो सकता। सर्वथा अभिन्न होने पर गुण और गुणी-ये दो नहीं हो सकते। प्रस्तुत प्रकरण में ज्ञान और अज्ञान के आधार पर आत्मा के भेदाभेद की चर्चा की गई है। अज्ञान के दो अर्थ हैं १. ज्ञानावरण कर्म के उदय से होने वाला ज्ञान का अभाव।। २. मिथ्या दृष्टि का सहचारी ज्ञान।। सूत्र २०६ में बतलाया गया-ज्ञान और अज्ञान नियमतः आत्मा है। सूत्र २०८ में बतलाया गया-अज्ञान भी नियमतः आत्मा है। सूत्र २०६ के संदर्भ में एक प्रश्न प्रस्तुत होता है-मिथ्यादृष्टि के साहचर्य से जैसे ज्ञान अज्ञान बनता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि के साहचर्य से दर्शन अदर्शन क्यों नहीं बनता? अभयदेव सूरि ने इस विषय में इतना उल्लेख किया है-सम्यग् दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के दर्शन में कोई विशिष्टता नहीं होती।' प्रस्तुत प्रश्न का समाधान दर्शन के स्वरूप में खोजा जा सकता है। दर्शन सामान्य और निर्विकल्प बोध है इसलिए वह मिथ्यादृष्टि के साहचर्य से अदर्शन नहीं बनता। ज्ञान विशेष और सविकल्प बोध है इसलिए मिथ्यादृष्टि के साहचर्य से वह अज्ञान बन जाता है। सियवाद-पदं स्याद्वाद-पदम् २११. आया भंते ! रयणप्पभा पुढवी ? आत्मा भदन्त! रत्नप्रभा पृथिवी? अण्णा स्यणप्पभा पुढवी ? अन्या रत्नप्रभा पृथिवी? गोयमा ! रयणप्पभा पुढवी सिय गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी स्यात् आत्मा, आया, सिय नोआया, सिय अवत्तव्वं- स्यात् नो आत्मा, स्यात् अवक्तव्यम्आयाति य नोआयाति य॥ आत्मा इति च नो आत्मा इति च। स्याद्वाद पद २११. भंते! रत्नप्रभा पृथ्वी आत्मा है? रत्नप्रभा पृथ्वी से भिन्न कोई आत्मा है ? गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है, स्यात् नो आत्मा है-आत्मा नहीं है, स्यात् अवक्तव्य-आत्मा और नो आत्मा-दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। २१२. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- स्यणप्पभा पुढबी सिय आया, सिय रत्नप्रभा पृथिवी स्यात् आत्मा, स्यात् नोआया, सिय अवत्तव्वं- आयाति य नो आत्मा, स्यात् अवक्तव्यम्-आत्मा नोआयाति य? इति च नो आत्मा इति च? गोयमा! अपणो आदिढे आया, गौतम! आत्मनः आदिष्टः आत्मा, परस्स आदिढे नोआया, तदुभयस्स परस्य आदिष्टः नो आत्मा, तदुभयस्य आदिढे अवत्तव्वं- रयणप्पभा पुढवी आदिष्टः अवक्तव्यं-रत्नप्रभा पृथिवी आयाति य नोआयाति य। आत्मा इति च नो आत्मा इति च। २१२. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है, स्यात् नो आत्मा है, स्यात् अवक्तव्य-आत्मा और नो आत्मा-दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है? गौतम ! स्वपर्याय की अपेक्षा आत्मा है, पर पर्याय की अपेक्षा आत्मा नहीं है, स्वपर्याय और पर पर्याय की अपेक्षा अवक्तव्य हैरत्नप्रभा पृथ्वी-आत्मा और नो आत्मादोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है, स्यात् नो आत्मा है, स्यात् अवक्तव्य- आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ- तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेस्यणप्पभा पढवी सिय आया, सिय रत्नप्रभा पृथिवी स्यात् आत्मा, स्यात् नोआया, सिय अवत्तवं-आयाति य । नो आत्मा, स्यात् अवक्तव्यम्-आत्मा नोआयाति य॥ इति च नो आत्मा इति च। १. भ. वृ. १२/२०१-सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टयोदर्शनस्याविशिष्टात्वादात्मा दर्शनं दर्शनमप्यात्मैवेति। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy