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भगवई
श. १४ : उ. २ : सू. २७,२८
१६२ २७. किंपत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा किं प्रत्ययं भदन्त! असुरकुमाराः देवाः तमुक्कायं पकरेंति ?
तमस्कार्य प्रकुर्वन्ति? गोयमा! किड्डारतिपत्तियं वा पडिणीय- गौतम! क्रीडारतिप्रत्ययं वा प्रत्यनीक- विमोहणट्ठयाए वा गुत्तीसारक्खणहे वा विमोहनार्थाय वा गुप्तिसंरक्षणहेतुं वा अपणो वा सरीरपच्छायणट्टयाए, एवं आत्मनः शरीरप्रच्छादनार्थाय, एवं खलु खलु गोयमा! असुरकुमारा वि देवा गौतम! असुरकुमाराः अपि देवाः तमुक्कायं पकरेंति। एवं जाव तमस्कायं प्रकुर्वन्ति एवं यावत् वेमाणिया॥
वैमानिकाः।
२७. भंते! असुरकुमार देव किस कारण से तमस्काय करते हैं? गौतम! क्रीड़ा-रति के लिए, प्रत्यनीक-शत्रु को विमूढ बनाने के लिए, गोपनीय द्रव्य के संरक्षण के लिए, अपने शरीर को प्रच्छन्न करने के लिए। गौतम! इस प्रकार असुरकुमार देव तमस्काय करते हैं। इसी प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता।
१. सूत्र २५.२७
__भगवई ६/७६ में बतलाया गया है-देव, असुर और नाग तमस्काय का निर्माण करते हैं। वहां इसकी प्रक्रिया और हेतुओं का निर्देश नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में तमस्काय के निर्माण की प्रक्रिया के साथ उसका निर्माण करने के चार हेतु बतलाए गए हैं
१. क्रीडारति-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं
१.क्रीडा रूप रति २. क्रीडा-खेलना, रति का अर्थ है मैथुन। २. शत्रु को दिशामूढ बनाने के लिए। ३. गोपनीय द्रव्य की सुरक्षा के लिए। ४. अदृश्य होने के लिए। द्रष्टव्य भगवई ६ का आमुख तथा ६/७०-११८ का भाष्य।
२८. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति।
२८. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। यावत् विहरण करने लगे।
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