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भगवई
श. १३ : उ. ६ : सू. ११८,११६
१५८ स्यावेत्ता उद्घायणं रायं सेया-पीतएहिं रचयित्वा उद्रायणं राजानं श्वेत-पीतकै: कलसेहिं ण्हावेति, पहावेत्ता सेसं जहा कलशैः स्नपयति, स्नपयित्वा शेषं यथा जमालिस्स जाव चउबिहेणं अलंकारेणं जमालेः यावत् चतुर्विधेनालंकारेण अलंकारिए समाणे पडिपुण्णालंकारे अलंकृतः सन् प्रतिपूर्णालंकारः सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता सीयं सिंहासनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय । अणुप्पदाहिणीकरेमाणे सीयं दुरुहइ, शिविकाम् अनुप्रदक्षिणीकुर्वाणः दुरुहित्ता सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहे शिविकाम् आरोहति, आरुह्य सण्णिसण्णे, तहेव अम्मधाती, नवरं सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखे सन्निषन्नः, पउमावती हंसलक्षणं पडसाडगं गहाय तथैव अम्बाधात्री, नवरं पद्मावती सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणी सीयं हंसलक्षणं पटशाटकं गृहीत्वा शिविकाम् दुरुहइ, दुरुहित्ता उदायणस्स रण्णो अनुप्रदक्षिणीकुर्वाणः शिविकाम् । दाहिणे पासे भदासणवरंसि सण्णिसण्णा आरोहति, आरुह्य उद्रायणस्य राज्ञः सेसं तं चेव जाव छत्तादीए तित्थगरा- दक्षिणे पार्श्वे भद्रासनवरे सन्निषन्ना शेषं तिसए पासइ, पासित्ता पुरिससहस्स- तत् चैव यावत् छत्रादीन् तीर्थंकरातिवाहिणिं सीयं ठवेइ, पुरिससहस्स- शयान् पश्यति, दृष्ट्वा पुरुषसहस्रवाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुभइ, वाहिनीं शिविकां स्थापयति, पुरुषपच्चोरुभित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे सहस्रवाहिन्याः शिविकायाः तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य यत्रैव श्रमणः भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ, भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरथिम उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः दिसीभागं अवक्कमड़, अवक्कमित्ता। वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ॥ उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् ' अपक्रामति,
अपक्रम्य स्वयमेव आभरणमाल्यालंकारम् अवमुञ्चति।
राजा उद्रायण को श्वेत-पीत कलशों से स्नान कराया, करा कर शेष जमालि की भांति वक्तव्यता यावत् चतुर्विध अलंकारों से अलंकृत किया। वह प्रतिपूर्ण अलंकृत होकर सिंहासन से उठा, उठकर शिविका की अनुप्रदक्षिणा करता हुआ शिविका पर आरूढ हो गया। आरूढ होकर प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख आसीन हुआ। वैसे ही धाय मां भद्रासन पर आसीन हुई। इतना विशेष है-पद्मावती हंस लक्षण वाला पटशाटक ग्रहण कर शिविका की अनुप्रदक्षिणा करती हुई शिविका पर आरूढ हो गई, आरूढ होकर वह उद्रायण राजा के दक्षिण पार्श्व में प्रवर भद्रासन पर आसीन हुई। शेष पूर्ववत् यावत् छत्र आदि तीर्थंकर के अतिशयों को देखा, देख कर हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका को ठहराया। हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका से नीचे उतरा, उतर कर जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आया, वहां आकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार वंदन-नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर उत्तर पूर्व दिशा (ईशान कोण) में गया। जाकर स्वयं आभरण, माल्य और अलंकार उतारे।
११८. तए णं सा पउमावती देवी हंसल- ततः सा पद्मावती देवी हंसलक्षणेन
क्खणेणं पडसाडएणं आभरणमल्ला- हंसशाटकेन आभरणमाल्यालंकारं लंकारं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता हार- प्रतीच्छति, प्रतीष्य हार-वारिधारवारिधार-सिंदुवार-छिन्न-मुत्तावलि- सिन्दुवार-छिन्न - मुक्तावलिप्रकाशानि प्पगासाई अंसूणि विणिम्मुयमाणी- अश्रूणि विनिर्मुञ्चती-विनिर्मुञ्चती विणिम्मुयमाणी उद्दायणं रायं एवं उद्रायणं राजानम् एवम् अवादीत्वयासी-जइयव्वं सामी! घडियध्वं यतितव्यं स्वामिन! घटितव्यं स्वामिन! सामी ! परक्कमियव्वं सामी ! अस्सि पराक्रमितव्यं स्वामिन्! अस्मिन् च अर्थे च णं अढे नो पमादेयव्वं त्ति कटु केसी नो प्रमत्तव्यम् इति कृत्वा केशी राजा राया पउमावती य समणं भगवं महावीरं पद्मावती च श्रमणं भगवन्तं महावीर वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता वन्देते नमस्यतः, वन्दित्वा नमस्यित्वा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं यस्याः एव दिशः प्रादुर्भूताः तस्यामेव पडिगया॥
दिशि प्रतिगताः।
११८. पद्मावती देवी ने हंसलक्षण युक्त पटशाटक
में आभरण, माल्य और अलंकार ग्रहण किए। ग्रहण कर हार, जल-धारा, सिन्दुवार (निर्गुण्डी) के फूल और टूटी हुई मोतियों की लड़ी के समान बार बार आंसू बहाती हुई उद्रायण राजा से इस प्रकार बोली- स्वामी! संयम में प्रयत्न करना। स्वामी! संयम में चेष्टा करना, स्वामी! संयम में पराक्रम करना, स्वामी! इस अर्थ में प्रमाद मत करना-यह कह कर केशीराजा और पद्मावती ने श्रमण भगवान महावीर को वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए।
११६. तए णं से उदायणे राया सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ सेसं जहा उसभदत्तस्स जाव सम्बदुक्खप्पहीणे॥
ततः सः उद्रायणः राजा स्वयमेव पञ्चमष्टिकं लोचं करोति शेषं यथा ऋषभदत्तस्य यावत् सर्वदुःखप्रहीनः।
११६. उद्रायण राजा ने स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया। शेष ऋषभदत्त की भांति वक्तव्यता यावत् सब दुःखों को क्षीण कर दिया।
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