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________________ भगवई १५७ श. १३ : उ. ६ : सू. ११२-११७ विहार करो, इस प्रकार 'जय-जय' शब्द का प्रयोग किया। ११२. तए णं से केसीकुमारे राया जाए–महयाहिमवंत-महंत-मलय-मंदरमहिंदसारे जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ॥ ततः सः केशीकुमारः राजा जातः- महत् हिमवत्-महत्-मलय-मन्दर-महेन्द्रसारः यावत् राज्यं प्रशासन विहरति। ११२. वह केशी कुमार राजा हो गया- महान् हिमालय, महान् मलय, मेरू और महेन्द्र की भांति यावत् राज्य का प्रशासन करता हुआ विहरण करने लगा। ११३. तए णं से उदायणे राया केसि रायाणं __ आपुच्छइ॥ ततः सः उद्रायणः राजा केशिनं राजानम् आपृच्छति। ११३. उस उद्रायण राजा ने केशी राजा से पूछा। ११४. तए णं से केसी राया कोडुबियपुरिसे ततः सः केशी राजा कौटुम्बिकपुरुषान् ११४. केशी राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को सदावेइ-एवं जहा जमालिस्स तहेव शब्दयति-एवं यथा जमालेः तथैव बुलाया-इस प्रकार जैसे जमालि की सभितरबाहिरियं तहेव जाव साभ्यन्तरबाहिरिकां तथैव यावत् वक्तव्यता, वैसे ही वक्तव्य है यावत् भीतर निक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेंति॥ निष्क्रमणाभिषेकम् उपस्थापयन्ति। और बाहर उसी प्रकार यावत् अभिनिष्क्रमण अभिषेक उपस्थित किया। ११५. तए णं से केसी राया अणेग- ततः सः केशी राजा अनेकगणनायक- गणनायग-दंडनायग-राईसर-तलवर- दण्डनायक - राजेश्वर . 'तलवर' - माडंबिय - कोडूंबिय - इन्भ - सेहि- माडम्बिक - कौटुम्बिक - इभ्य-श्रेष्ठिसेणावइ-सत्थवाह - दूय • संधिपाल- सेनापति-सार्थवाह दूत-सन्धिपालसद्धिंसपरिबुडे उद्दायणं रायं सीहा- साधु संपरिवृतः उद्रायणं राजानं सणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयावेति, सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखेनिसीयावेत्ता अट्ठसएणं सोवणियाणं निषादयति, निषाद्य अष्टशतेन कलसाणं एवं जहा जमालिस्स जाव सौवर्णिकानां कलशानां एवं यथा जमालेः महया-महया निक्खमणाभिसेगेणं यावत् महता महता निष्क्रमणाभिषेकेण अभिसिंचति, अभिसिंचित्ता करयल- अभिषिञ्चति, अभिषिच्य करतलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए परिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तके अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं बद्धावेति, अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धयति, बद्धावेत्ता एवं वयासी-भण सामी ! किं वर्धयित्वा एवमवादीत्-भण स्वामिन्! देमो ? किं पयच्छामो ? किणा वा ते किं ददमः? किं प्रयच्छामः? केन वा ते अट्ठो? अर्थः? ११५. अनेक गणनायक, दंडनायक, राजे, ईश्वर, कोटवाल, माडम्बिक, कौटुम्बिक इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत और संधिपालों के साथ, उनसे घिरे हुए केशी राजा ने उद्रायण राजा को प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बिठाया, बिठाकर एक सौ आठ स्वर्ण कलश इस प्रकार जैसे जमालि (९/१८२) की वक्तव्यता यावत् महान् महान् निष्क्रमण अभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषिक्त कर दोनों हथेलियों से संपुट आकार वाली दस नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर 'जय हो विजय हो' के द्वारा वर्धापित किया, वर्धापित कर इस प्रकार बोला-स्वामी! बताओ हम क्या दें? क्या वितरण करें? तुम्हें किस वस्तु का प्रयोजन है? ११६. तए णं से उद्दायणे राया केसिं रायं एवं बयासी-इच्छामि णं देवाणुप्पिया! कुत्तियावणाओ स्यहरणं च पडिग्गहं च आणियं, कासवगं च सदावियं-एवं जहा जमालिस्स, नवरं-पउमावती अग्गकेसे पडिच्छइ पियविप्पयोगदूसहा॥ ततः सः उद्रायणः राजा केशिनं राजानम् एवमवादीत्-इच्छामि देवानुप्रियाः! कुत्रिकापणात् रजोहरणंच प्रतिग्रहं च आनीतं, काश्यपकं च शब्दायितम्-एवं यथा जमालेः, नवरम्-पद्मावती अग्रकेशान् प्रतीच्छति प्रियविप्रयोग-दुस्सहा। ११६. उद्रायण राजा ने केशी राजा से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! मैं कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र को लाना तथा नापित को बुलाना चाहता हूं-इस प्रकार जैसे जमालि की वक्तव्यता, इतना विशेष है-प्रिय का विप्रयोग दुःसह है, इस प्रकार कहती हुई पद्मावती ने अग्रकेशों को ग्रहण किया। ११७. तए णं से केसी राया दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं स्यावेति, तः सः केशी राजा द्विः अपि उत्तरापक्रमणं सिंहासनं रचयति. ११७. केशी राजा ने दूसरी बार उत्तराभिमुख सिंहासन की रचना कराई। रचना कराकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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