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आमुख
शतक का प्रारंभ 'राजगृह के प्रश्न' इस श्रृंखला से होता है। चार उद्देशक (सूत्र ५३) तक वही क्रम चलता है। पांचवें उद्देशक के प्रश्न 'उल्लुकातीर नगर में किए गए हैं। छठे उद्देशक से आगे पूर्ण शतक में किसी स्थान विशेष का उल्लेख नहीं है।
प्रस्तुत शतक का पहला प्रश्न वायुकाय से संबद्ध है। उसकी आंशिक चर्चा दूसरे शतक में भी है।' वायुकाय के बिना अग्निकाय नहीं होती, इस बिन्दु का उल्लेख एक महत्त्वपूर्ण सूचना है।'
अविरति के आधार पर अधिकरण और अधिकरणी की व्याख्या एक सूक्ष्म अध्यात्म-दर्शन का संकेत है। साधारणतया प्रवृत्ति के आधार पर अच्छे बुरे का निर्णय किया जाता है। प्रस्तुत शतक में अविरति के आधार पर प्राणी की अन्तर्दशा का अंकन किया गया है। एक मनुष्य शस्त्र का प्रयोग कर रहा है। वह जन साधारण की दृष्टि में दुष्प्रवृत्ति है। एक व्यक्ति शस्त्र का प्रयोग नहीं कर रहा है किन्तु शस्त्र का प्रयोग करने से विरत नहीं है। वह भी हिंसक है। उसका हेतु है अविरति। वह शस्त्र का प्रयोग करने से विरत नहीं हुआ। इसलिए आचरण की मीमांसा केवल दुष्प्रवृत्ति के आधार पर ही नहीं, अविरति के आधार पर की जानी चाहिए।
प्रस्तुत शतक में भगवान् महावीर से देवों के साक्षात्कार के अनेक प्रश्न हैं। पहला प्रश्न शक्र के आगमन का है। इस प्रसंग में एक उल्लेखनीय तत्त्व चर्चा है सावध और निरवद्य भाषा की।
मुनि की शल्य चिकित्सा का प्रसंग भी बहत विवेचनीय है।
निर्जरा का सिद्धांत महावीर की साधना पद्धति का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। प्रस्तुत शतक में मुनि की तपस्या और नैरयिक के होने वाली निर्जरा का तुलनात्मक विवेचन किया गया है। कष्ट सहने से निर्जरा होती है, यह सामान्य नियम है। इसकी पृष्ठभूमि में अनेक नियम जुड़े हुए हैं, जिनका उमास्वाति ने विशद विवेचन किया है। प्रस्तुत प्रकरण में निर्जरा की पृष्ठभूमि का एक नियम निदर्शित है। जिस जीव के कर्मबंध साधना के द्वारा शिथिलीकृत होता है, उसके स्वल्प तप से अधिक निर्जरा होती है। जिसके कर्म बंध प्रगाढ़ होते हैं उसके दीर्घकाल तक कष्ट सहन करने से भी निर्जरा कम होती है। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार ने वृद्ध पुरुष, अहरन, तरुण पुरुष, सूखे घास का पूला और तप्त तवा-इन पांच दृष्टांतों के द्वारा निर्जरा के मात्रा-भेद को समझाया है।'
भगवान् महावीर के पास देवराज शक्र का आगमन, संभ्रम के साथ प्रश्न करण और पुनः नमन। महाशुक्र विमान में दो देवों का उपपात और उनकी सैद्धांतिक चर्चा। गंगदत्त देव द्वारा प्रश्न का समाधान और उसका भगवान् महावीर के पास आगमन। उसकी तेजोलेश्या से अभिभूत होकर शक्र का तत्काल गमन। भगवान् महावीर द्वारा गंगदत्त के वक्तव्य का अनुमोदन। गंगदत्त के पूर्वभव का निरूपण। यह सब भगवान् महावीर के जीवन वृत्त का एक अद्भुत प्रसंग है।'
प्रस्तुत आगम का निर्माण किसी क्रमबद्ध विषय के प्रतिपादन के लिए नहीं हुआ। इसमें प्रश्नों की एक श्रृंखला है। उस श्रृंखला में नाना प्रकार के प्रश्न निबद्ध हैं।
गौतम स्वामी ने स्वप्न के विषय में जिज्ञासा की और भगवान् ने बयांलीस स्वप्नों और तीस महास्वप्नों का प्रतिपादन किया। यह पूर्वगत स्वप्नशास्त्र का अवतरण है अथवा अष्टांग महानिमित्त गत स्वप्नशास्त्र का-यह अनुसंधेय है। इस प्रकार प्रस्तुत शतक अनेक विषयों का संग्रह ग्रंथ है।
१. भ. २/६-१२ २. भ. १६/५ ३. भ. १६/८-६ ४. भ. १६/३३ ५. भ. १६/३४-४०
६. भ. १६/४५-५० ७. द्रष्टव्य भ.६/१-४ का भाष्य ८. भ. १६/५१-५२ ६. भ. १६/५४-७५ १०. भ. १६/८३-८४
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