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________________ भगवई १६५ लौह पिण्ड, स्वर्ण और उपल।' इसलिए शरीर का स्पर्श करने पर आत्मा का संवेदन होता है और इसीलिए शरीर के द्वारा किए हुए कर्म का आत्मा भवान्तर में भी वेदन करती है । अत्यंत भेद मानने पर अकृत कर्म के भोग की दोषापत्ति होती है। आत्मा और शरीर का अत्यंत अभेद मानने पर शरीरांश का छेदन करने पर आत्मांश का छेदन करने की दोषापत्ति होती है। शरीर को जलाने पर आत्मा भी जल जाती है। इस प्रकार पुनर्जन्म का अभाव सिद्ध हो जाता है इसलिए आत्मा शरीर से कथञ्चित् भिन्न भी है। वृत्तिकार ने काय के विषय में एक मतान्तर का उल्लेख किया है। मतान्तर के अनुसार यहां काय शब्द का प्रयोग कार्मण शरीर के अर्थ में किया गया है। कार्मण शरीर और संसारी आत्मा का परस्पर निश्चित संबंध है। इसका तात्पर्य है- कार्मण शरीर की अपेक्षा आत्मा शरीर से अभिन्न है। औदारिक अथवा स्थूल शरीर की अपेक्षा आत्मा शरीर से भिन्न है। जयाचार्य ने शरीर को आत्मा मानने का विश्लेषण सापेक्ष दृष्टि के आधार पर किया है। उनके अनुसार जैसे जीव को गुरुलघु कहा गया है, वह सापेक्ष दृष्टि का निरूपण है। वास्तव में जीव अगुरुलघु होता है किन्तु औदारिक आदि प्रथम चार शरीरों की अपेक्षा जीव को गुरुलघु कहा गया है। यह प्रतिपादन जीव और शरीर का कथञ्चित् अभेदोपचार करके किया गया है। उसी प्रकार यहां शरीर को आत्मा भी सापेक्ष दृष्टि से बतलाया गया है ? दूसरा बिन्दु-काय रूपी है अथवा अरूपी ? शरीर पौद्गलिक है इसलिए वह रूपी है। वह आत्मा से कथंचित् अभिन्न है, इस अपेक्षा से वह अरूपी भी है। अभयदेवसूरि ने अरूपी मानने का हेतु यह बतलाया है- कार्मण शरीर अतिसूक्ष्म है" अतः रूपी के लिए भी अरूपी की विवक्षा की गई है। द्रष्टव्य भगवती जोड़ ढाल २५५ गाथा ५६-५७ का वार्तिक । तीसरा बिन्दु-काय सचित्त है अथवा अचित्त ? जीवच्छरीर चैतन्य युक्त होने के कारण सचित्त है। मृत शरीर चैतन्य वियुक्त होने के कारण अचित्त है। चौथा बिन्दु - काय जीव है अथवा अजीव ? १. भ. वृ. १३/१२८ २. वही, १३ / १२८ । ३. भग. जो. ढा. २८८ गा. ५२-५४ बंधक नैं अधिकार, गुरु लघु जीव भणी कह्यो । ते धुर शरीर च्यार, तेह सहित जंतू लियो । तेम इहां कहिवाय, काया जीव सहीत ते । आतम कहियै ताय, नय वच वबहारे करी ॥ काल वर्ण अवलोय, भमर को भगवंत जिम । नय ववहारे जोय, पंच वर्ण निश्चै नये ॥ ४. भ. वृ. १३/ १२८ । ५. भग. जो. ढा. २८८ गा. ६२। ६. भ. वृ. १३/ १२८ । ७. वही, १३ / १२८ । ८. भग. जो, ढा. २८८ गा. ६६-७४ Jain Education International श. १३ : उ. ७ : सू. १२८ है इस प्रश्न का उत्तर है - शरीर उच्छ्वास आदि प्राण से युक्त इसलिए वह जीव है। मृत शरीर अजीव है। * अभयदेवसूरि के अनुसार कार्मण शरीर अजीव है । उसमें उच्छ्वास आदि नहीं होते। ' पांचवां बिन्दु-काय जीवों के होता है अथवा अजीवों के ? इस प्रश्न का उत्तर है- जीवों के काय-शरीर होता है। अजीवों के भी शरीराकार होता है। जैसे मूर्ति शरीराकार वाली होती है। भाषा और मन के विषय में वर्तमान का नियम है-भाष्यमाण भाषा है और मन्यमान मन । काय का नियम त्रैकालिक है। भाषा और मन तात्कालिक होते हैं-जिस समय बोला जाता है, उस समय भाषा होती है। जिस समय मनन किया जाता है, उस समय मन होता है। शरीर चिरस्थायी और दीर्घकालिक है। काय का एक अर्थ है चय। जिस समय वह चीयमान है, उस समय भी काय है। उससे पूर्व भी उसका चय होता रहा है और भविष्य में भी उसका चय होता रहेगा। इस अपेक्षा से उसका अस्तित्व त्रैकालिक है। अभयदेवसूरि ने 'पुब्बिं काये' इसकी व्याख्या मेंढक के उदाहरण से की है। मेंढक का मृत शरीर जीव का संबंध होने से पहले का है। जीवच्छरीर जीव के द्वारा चीयमान काय है। मृत शरीर काय समय व्यतिक्रांत का उदाहरण है। मृत्यु के पश्चात् वह चीयमान नहीं होता । " जयाचार्य ने 'पुब्विं वि काये' की व्याख्या पोट्ट परिहार और गर्भ की चौबीस वर्ष की स्थिति के आधार पर की हैं। " फूल के जीव मरकर तिल संकलिका में सात तिल के रूप में पैदा हुए। उनके लिए तिल का पौधा पूर्ववर्ती काय है। उन जीवों ने अपने प्रयत्न से नए काय की रचना नहीं की ।' एक जीव बारह वर्ष तक गर्भ में रहा, वह वहां से मरकर उसी गर्भ में फिर से पैदा हो गया। उसका शरीर पूर्ववर्ती काय है । " काय के पुद्गलों का भेदन त्रैकालिक है। काय चिरस्थायी है। उसमें चयापचय की क्रिया होती रहती है। श्रमयुक्त अवस्था के समय कायवर्गणा के जिन पुद्गलों का निसर्ग होता है, उनका भेदन काय मुक्त होने के उत्तर काल में होता है। कठोर श्रम की अवस्था में मुक्त पुद्गलों का भेदन वर्तमान क्षण में होता है। होस्यै जीव संबंध जिम मृत दर्दुर तनु त । तेहनी परे प्रबंध, एह वचन लोकीक नों॥ प्रथम जीव थी काय, मूंआ डेडका नों तनु । लोक कहै ते मांय, जंतू आवणहार है ॥ वनस्पति रे मांही, कह्यो पोटपरिहार प्रभु । फूल जीव मर ताहि, हुस्यै सप्त तिल सूंघणी ॥ वर्ष चउवीस विचार, गर्भ विषे काया रहै। रही तिहां वर्ष बार, तेहिज तथा अन्य ऊपजै ॥ ते माटे ए वाय, जीव संबंधज काल थी। पहिलां कहिये काय, जीव पर्छ तिहां ऊपजै ॥ काइज्जमाणे काय, जीव जिको काया प्रतै । चिणवा लागो ताय, गर्भ अवस्था काय पिण । ६. भ. १५/७२-७३। १०. भ. २ / ८३-८४ | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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