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श. १२ : उ. ५ : सू. ११७-११८
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भगवई ११७. कण्हलेसा णं भंते ! कतिवण्णा कृष्णलेश्या भदन्त! कतिवर्णा यावत् ११७. भंते ! कृष्ण लेश्या कितने वर्ण यावत् जाव कतिफासा पण्णत्ता? कतिस्पर्शा प्रज्ञप्ता?
कितने स्पर्श वाली प्रज्ञाप्त है। दब्बलेसं पडुच पंचवण्णा जाब द्रव्यलेश्यां प्रतीत्य पञ्चवर्णा यावत् द्रव्य लेश्या की अपेक्षा पांच वर्ण यावत् अट्ठफासा पण्णत्ता। भावलेसं पडुच अष्टस्पर्शा प्रज्ञप्ता । भावलेश्यां प्रतीत्य आठ स्पर्श वाली प्रज्ञप्त है। भाव लेश्या की अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा अवर्णा, अगन्धा, अरसा, अस्पर्शा अपेक्षा वर्ण-रहित, गन्ध-रहित, रस रहित पण्णत्ता। एवं जाव सुक्कलेस्सा। प्रज्ञप्ता। एवं यावत् शुक्ललेश्या।
और स्पर्श-रहित प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार
यावत् शुक्ल लेश्या की वक्तव्यता। सम्मदिठी, मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छ- सम्यग्दृष्टिः, मिथ्यादृष्टिः, सम्यग्- सम्यक्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यमिथ्यादिट्ठी, चक्खुदंसणे, अचक्खुदंसणे, मिथ्यादृष्टिः, चक्षुर्दर्शनम्, अचक्षु- दृष्टि, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधि
ओहिंदसणे. केवलदसणे. आभि- दर्शनम. अवधिदर्शनम, केवलदर्शनम, दर्शन, केवलदर्शन, आभिनिबोधिक ज्ञान णिबोहियनाणे जाव विभंगनाणे, आभिनिबोधिकज्ञानम् यावत् विभंग- यावत् विभंगज्ञान, आहार संज्ञा यावत् आहारसण्णा जाव परिग्गहसण्णा- ज्ञानम, आहारसंज्ञा यावत् परिग्रह- परिग्रह संज्ञा-ये सभी वर्ण-रहित, गन्धएयाणि अवण्णाणि, अगंधाणि, संज्ञा-एतानि अवर्णानि, अगन्धानि, रहित, रस-रहित और स्पर्श-रहित हैं। अरसाणि, अफासाणि।
अरसानि, अस्पर्शानि। ओरालियसरीरे जाव तेयगसरीरे- औदारिकशरीरम् यावत् तैजसशरीरम्- औदारिक शरीर यावत् तैजस शरीर-ये एयाणि अट्ठफासाणि। कम्मगसरीरे एतानि अष्टस्पर्शानि। कर्मकशरीरम् आठ स्पर्श वाले हैं। कर्मशरीर चार स्पर्श चउफासे। मणजोगे, वइजोगे य चतुस्पर्शम्। मनोयोगः, वाक्योगः च वाला है। मन योग और वचन योग चार चउफासे। कायजोगे अट्टफासे। चतुस्पर्शः, काययोगः अष्टस्पर्शः। स्पर्श वाले हैं। काय योग आठ स्पर्श वाला
सागारोवओगे अणागारोवओगे य अवणे
साकारोपयोगः अनाकारोपयोगः च अवर्णः।
साकारोपयोग और अनाकारोपयोग वर्ण रहित हैं।
भाष्य १. सूत्र ११७
भिन्न है। सक्षम परिणति वाले स्कंध में स्निग्ध और रूक्ष. शीत और द्रव्य लेश्या का अर्थ है वर्ण (रंग)। भाव लेश्या जीव का उष्ण-ये चार स्पर्श होते हैं। बादर परिणति वाले चतुःस्पर्शी स्कंधों आंतरिक परिणाम है। कृष्ण लेश्या से लेकर परिग्रह संज्ञा पर्यन्त सभी में आठ में से चार होते हैं, जैसे-स्निग्ध और रूक्ष में से एक, शीत जीव-परिणाम होने के कारण अवर्ण हैं।
और उष्ण में से एक, गुरु और लघु में से एक, कर्कश और मृदु में से चतुस्पर्शी होने का कारण है सूक्ष्म परिणति और अष्टस्पर्शी एक। होने का कारण है बादर (स्थूल) परिणति। यह वृत्तिकार का अभिमत मिथ्यादृष्टि जीव-परिणाम है। इस विषय में जयाचार्य ने है।' अठारहवें शतक में बादर परिणति वाले स्कंध को चतुःस्पर्शी भी विस्तृत समीक्षा की है।' बतलाया गया है। बीसवें शतक के अनुसार चतस्पर्शी का तात्पर्य
११८. सव्वदव्वा णं भंते ! कतिवण्णा जाव सर्वद्रव्याणि भदन्त! कतिवर्णानि यावत् कतिफासा पण्णता?
कतिस्पर्शानि प्रज्ञप्तानि?' गोयमा! अत्थेगतिया सव्वदव्वा गौतम! अस्त्येककानि सर्वद्रव्याणि पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता। पञ्चवर्णानि यावत् अष्टस्पर्शानि अत्थेगतिया सव्वदच्या पंचवण्णा जाव प्रज्ञाप्तानि। अस्त्येककानि सर्वद्रव्याणि चउफासा पण्णत्ता।
पञ्चवर्णानि यावत् चतुःस्पर्शानि प्रज्ञप्तानि।
११८. भंते ! सर्वद्रव्य कितने वर्ण यावत् कितने
स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! कुछ सर्वद्रव्य पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। कुछ सर्वद्रव्य पांच वर्ण यावत् चार स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। कुछ सर्वद्रव्य एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं।
१. भ. पृ. १२/११७-भावलेश्या-आतंरपरिणामः, इह च कृष्णलेश्यादीनि
परिग्रहसज्ञाऽवसानानि अवर्णादीनि जीवपरिणामत्वात्, औदारिका-दीनि चत्वारिशरीराणि पञ्चवर्णादिविशेषणानि अष्टस्पर्शानि च बादर-परिणाम- पुद्गलरूपत्वात् सर्वत्र च चतुःस्पर्शत्वे सूक्ष्मपरिणामः कारणं, अष्टस्पर्शत्वे
च बादरपरिणामः कारणं वाच्यमिति। २. भ. वृ. १८/११७। ३. वही, २०/३६। ४. भ. जो. ४/२१६/१३-२८।
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