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________________ श. १४ : उ.६ : सू. ७३ २०६ भगवई ७३. से केणटेणं भंते! एवं बूच्चइ-नेरइया वीचीदवाई पि आहारेंति, अवीची- दव्वाई पि आहारेंति? ७३. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैनैरयिक वीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं, अवीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं ? गोयमा! जे ण नेरइया एगपएसूणाई पि दब्वाई आहारेंति, ते णं नेरइया वीचीदव्वाई आहारेंति, जे णं नेरड्या पडिपुण्णाई दवाई आहारेंति, ते णं नेरइया अवीचीदव्वाई आहारेंति। से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-नेरइया वीचीदव्वाई पि आहारेंति, अवीचीदवाई पि आहारेंति। एवं जाव वेमाणिया॥ तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते नैरयिकाः वीचिद्रव्याणि अपि आहरन्ति, अवीचिद्रव्याणि अपि आहरन्ति? गौतम! ये नैरयिकाः एक प्रदेशोनानि अपि द्रव्याणि आहरन्ति, ते नैरयिकाः वीचिद्रव्याणि आहरन्ति, ये नैरयिकाः प्रतिपूर्णानि द्रव्याणि आहरन्ति, ते नैरयिकाः अवीचिद्रव्याणि आहरन्ति। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेनैरयिकाः वीचिद्रव्याणि अपि आहरन्ति, अवीचिद्रव्याणि अपि आहरन्ति। एवं यावत् वैमानिकाः। गौतम! जो नैरयिक एक प्रदेश न्यून द्रव्य का भी आहार करते हैं, वे वीचि द्रव्यों का आहार करते हैं। जो नैरयिक प्रतिपूर्ण द्रव्यों का आहार करते हैं, वे अवीचि द्रव्यों का आहार करते हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- नैरयिक वीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं, अवीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं। इसी प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। भाष्य १.सूत्र ७२-७३ २. नैरयिक आहार के रूप में जिन पुद्गलों का ग्रहण करते __वीचि द्रव्य और अवीचि द्रव्य का अर्थ आगम पाठ में स्वयं हैं, उनमें सर्व पुद्गलों का आहार करते हैं अथवा कुछ न्यून पुद्गलों स्पष्ट है। इसका तात्पर्यार्थ समझाने के लिए अभयदेव सूरि ने का आहार करते हैं? टीकाकार और चूर्णिकार दोनों के मत उद्धृत किए हैं। इनके उत्तर में कहा गया हैटीकाकार का मत है-जितने द्रव्य-समुदाय से आहार पूर्ण १. नैरयिक ग्रहण के बाद असंख्यातवें भाग का आहार करते होता है, उसमें एक आदि प्रदेश न्यून रहता है, उस द्रव्य-समुदाय हैं, अनंतवें भाग का आस्वाद लेते हैं। की संज्ञा वीचि द्रव्य है। परिपूर्ण द्रव्य-समुदाय की संज्ञा अवीचि द्रव्य २. नैरयिक ग्रहण के बाद अपरिशेष सर्व पुदगलों का आहार करते हैं। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या आहार-द्रव्य वर्गणा के आधार इन दोनों सूत्रों में विरोधाभास है। बाईसवें सूत्र में इस नियम पर की है। उनके अनुसार सर्वोत्कृष्ट आहार-द्रव्य वर्गणा अवीचि ___का विधान है-असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं। तेईसवें सूत्र में द्रव्य है। एक आदि प्रदेश से हीन आहार-द्रव्य वर्गणा वीचि द्रव्य हैं। इस नियम का विधान है-अपरिशेष सर्व पुद्गलों का आहार करते वर्गणा दो प्रकार की होती है-जघन्य और सर्वोत्कृष्ट। सर्वोत्कृष्ट वर्गणा में एक परमाणु का अधिक योग होने पर वह ग्रहण के अयोग्य प्रज्ञापना के टीकाकार मलयगिरि ने इस विरोधाभास का बन जाती है। संभवतः चूर्णिकार ने इन दो प्रकार की वर्गणाओं के सम्यक् समाधान प्रस्तुत किया है। उन्होंने ग्रहण को विशिष्ट आधार पर अवीचि द्रव्य और वीचि द्रव्य की व्याख्या की है। बतलाया है। उनके अनुसार नैरयिक उज्झित शेष पुद्गलों का ही प्रज्ञापना के आहार-पद में नैरयिकों के आहार का विस्तृत आहार के रूप में ग्रहण करते हैं- आहार वर्गणा के जो पुद्गल वर्णन है। इस प्रकरण में वीचि द्रव्य और अवीचि द्रव्य का कोई आहार-परिणाम योग्य हो चुके हैं उनका अपरिशेष सर्व ग्रहण करते उल्लेख नहीं है। हैं, यह अवीचि द्रव्य का आहार है। प्रज्ञापना की भाषा में यह सर्व प्रज्ञापना पद अठाईस के बाईसवें और तेईसवें सूत्र में अपरिशेष का आहार है।' नैरयिकों के आहार के संदर्भ में दो प्रश्न उपस्थित किए गए हैं वीचि द्रव्य की व्याख्या कर्म ग्रन्थ के आधार पर की जा १. नैरयिक आहार के रूप में जिन पुद्गलों का ग्रहण करते हैं, सकती है। उसके अनुसार जघन्य वर्गणा से लेकर सर्वोत्कृष्ट वर्गणा ग्रहण के बाद उनमें से कितने भाग का आहार करते हैं? कितने भाग से न्यून जो आहार है, वह वीचि द्रव्य का आहार है। का आस्वाद लेते हैं? १. भ. वृ. १४/७२-७३-वीचिः-विवक्षितद्रव्याणां तदवयवानां च परस्परेण २. कर्म ग्रंथः पांचवां भाग गाथा ७५-७६.........व्याख्या पृ. २०६-२१६ पृथग्भावः 'वीचिर् पृथग्भावे' इति वचनात् तत्र वीचिप्रधानानि द्रव्याणि ३. पण्ण. २८/१-२४,६८, १०२. वीचिद्रव्याणि एकादिप्रदेशन्यूनानीत्यर्थः एतनिषेधादवीचिद्रव्याणि। अयमत्र ४. पण्ण, वृ. प. ५०३-५०४. यान् पुद्गलान् आहारतया गृहन्ति, इह ग्रहणं भावः-यावता द्रव्यसमुदायेनाहारः पूर्यते, स एकादिप्रदेशोनो वीचिद्रव्या- विशिष्टमवसेयम्, ततो ये उज्झितशेषाः केवलाः आहारपरिणामयोग्याः युच्यते, परिपूर्णस्त्यवीचिद्रव्याणीति टीकाकारः, चूर्णिकारस्त्वाहारद्रव्य- एवावतिष्ठन्ते तेऽत्राहारतया, गृह्यमाणाः पृष्टाः द्रष्टव्याः।........तान् किं वर्गणामधिकृत्येदं व्याख्यातवान्। तत्र च याः सर्वोत्कृष्टाहारद्रव्यवर्गणास्ता सर्वानपि आहारयन्ति उत नो सर्वान् सर्वैकदेशभूतान्? भगवानाह-तान् अवीचिद्रव्याणि, यास्तु ताभ्य एकादिना प्रदेशेन हीनास्ता वीचिद्रव्याणीति। सर्वान्-अपरिशेषान् आहारयन्ति उज्झितशेषाणामेव केवलानामाहार'एगपएसऊणाइंपि दव्वाई' ति एकप्रदेशोनान्यपि अपि शब्दानेकप्रदेशो- परिणामयोग्यानां गृहीतत्वात्। नान्यपीति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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