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________________ भगवई देविंदाणं भोग-पदं ७४. जाहे णं भंते! सक्के देविंदे देवराया दिव्वाई भोग भोगाई भुंजिकामे भवइ से कहमियाणिं पकरेति ? गोयमा ! ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया एवं महं नेमिपडिरूवगं विजब्बड़ - एगं जोयणस्यसहस् आयामविक्खंभेणं, तिण्णिजोयणसयसहस्साई जाव अर्द्धगुलं च किंचि - विसेसाहियं परिक्खेवेणं । तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स उवरिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीणं फासो । तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स बहुमज्झसभागे, एत्थ णं महं एगं पासायवडेंसगं बिउब्वइ-पंच जोयणसयाई उहूं उच्चत्तेणं, अडाइज्जाई जोयणसयाई विक्खंभेणं, अब्भुग्गय - मूसिय-पहसियमिव वण्णओ जाव पडिरूवं । तस्स णं पासायवडेंसगस्स उल्लोए पउमलयाभत्तिचित्ते जाव पडिरूवे । तस्स णं पासायवडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव मणीणं फासो, मणिपेढिया अट्टजोयणिया जहा वेमाणियाणं । तीसे णं मणिपेढियाए उवरिं महं एगे देवसयणिज्जे विउब्वइ, सयणिज्जवण्णओ जाव पडिरूवे । तत्थ णं से सक्के देविंदे देवराया अहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, दोहि य अणिएहिं - नट्टाणिएण य गंधव्वाणिएण य सद्धिं महयायनट्ट - गीय-वाइय-तंतीतल-ताल-तुडिय-घणमुइंगपडुपवाइयरवेणं दिव्वाई भोग भोगाई ॥ ७५. जाहे ईसाणे देविंदे देवराया दिव्वाई भोगभोगाई भुंजिउकामे भवइ से कहमियाणिं पकरेति ? जहा सक्के तहा ईसाणे वि निरवसेसं । एवं सकुमारे वि, नवरं - पासायवडेंसओ छ जोयणसयाई उङ्कं उच्चत्तेणं, तिण्णि जोयणसयाई विक्खंभेणं, मणिपेढिया Jain Education International २०७ देविंदाणं भोग-पदं यदा भदन्त ! देवेन्द्रः देवराजा दिव्यानि भोगभोगानि भोक्तुकामः भवति सः कथम् इदानीं प्रकरोति ? तस्य गौतम ! तदा सः शक्रः देवेन्द्रः देवराजा एकं महान्तं नेमिप्रतिरूपकं विकरोति एकं योजनशतसहस्रम् आयामविष्कम्भेण त्रीणि योजनशतसहस्राणि यावत् अर्द्धाङ्गुलं च किञ्चिद् विशेषाधिकं परिक्षेपेण । नेमिप्रतिरूपकस्य उपरि बहुसमरमणीयः भूमिभागः प्रज्ञप्तः यावत् मणीणां स्पर्शः । नेमिप्रतिरूपकस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महान्तम् एकं प्रासादावतंसकं विकरोति पञ्चयोजनशतानि ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन, अर्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण, अभ्युद्गतउच्छ्रित- प्रहसितमिव वर्णकः यावत् प्रतिरूपम् । तस्य तस्य प्रासादावतंसकस्य उल्लोकः पद्मलता भक्तिचित्रः यावत् प्रतिरूपः । तस्य प्रासादावतंसकस्य अन्तर् बहुसमरमणीयः भूमिभागः यावत् मणीणां स्पर्शः । मणिपीठिका अष्टयोजनिका यथा वैमानिकानाम्। तस्या:मणिपीठिकायाः उपरि महान्तम् एकं देवशयनीयं विकरोति । शयनीयवर्णकः यावत् प्रतिरूपः । तत्र सः शक्रः देवेन्द्रः देवराजा अष्टाभिः अग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः द्वाभ्यां च अनीकाभ्यां नाट्यानीकेन च गन्धर्वानीकेन च सार्धं महत् आहतनाट्य-गीत-वादित - तन्त्रीतल-ताल-तुडिय - घनमृदङ्गपटुप्रवादितवेण दिव्यानि भोगभोगानि भुञ्जानः विहरति । यदा ईशानः देवेन्द्रः देवराजा दिव्यानि भोगभोगानि भोक्तुकामः भवति सः कथम् इदानीं प्रकरोति? यथा शक्रे तथा ईशाने अपि निरवशेषम् । एवं सनत्कुमारे अपि, नवरम्-प्रासादावतंसकः षड् योजनशतानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन त्रीणि For Private & Personal Use Only श. १४ : उ. ६ : सू. ७४, ७५ देवेन्द्र का भोग-पद ७४. भंते! जब देवराज देवेन्द्र शक्र दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगना चाहते हैं, वह यह कैसे करते हैं ? गौतम ! तब वे देवराज देवेन्द्र शक्र एक महान् चक्र - नाभि के प्रतिरूप का निर्माण करते हैं - एक लाख योजन लंबा-चौड़ा और उसका परिक्षेप तीन लाख यावत् साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक प्रज्ञप्त है। उस चक्र नाभि प्रतिरूप के ऊपर बहु सम रमणीय भूमि भाग प्रज्ञप्त है यावत् मणि का स्पर्श । उस चक्र प्रतिरूप के बहुमध्य देश भाग है, वहां एक महान् प्रासादावतंसक का निर्माण करता हैऊंचाई में पांच सौ योजन उसका विस्तार ढाई सौ योजन । वह प्रासादावतंसक अपनी ऊंचाई से आकाश को छूने वाला मानो श्वेतप्रभा पटल से हंसता हुआ प्रतीत हो रहा है। इस प्रासादावतंसक के चंदोवा में पद्मलता की भांति खचित चित्र चित्रित हैं यावत् प्रतिरूप। उस प्रासादावतंसक के भीतर बहुसम रमणीय भूमि है यावत् मणि का स्पर्श । मणिपीठिका वैमानिक की भांति आठ योजन की है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक महान् देवशयनीय का निर्माण करता है, शयनीय का वर्णन यावत् प्रतिरूप। वहां देवराज देवेन्द्र शक्र सपरिवार आठ अग्रमहिषियों तथा दो अनीकों - नाट्यानीक और गंधर्वानीक के साथ आहत नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादक के द्वारा बनाए गए वादित्र, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित, घन और मृदंग की महान् ध्वनि से दिव्य भोगाई भोगों को भोगता हुआ विहरण करता है। 0 ७५. जब देवराज देवेन्द्र ईशान दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगना चाहते हैं, वह यह कैसे करते हैं ? जैसे शक्र वैसे ईशान की निरवशेष वक्तव्यता । इसी प्रकार सनत्कुमार की वक्तव्यता, इतना विशेष है- प्रासादावतंसक ऊंचाई में छह सौ योजन उसका विस्तार www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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