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भगवई
श. १३ : उ. २ : सू. २८
१२० तहेव वागरणं, नवरं-दोहिं वेदेहिं व्याकरणं, नवरं-द्वाभ्यां वेदाभ्याम् उववज्जति, नपुंसगवेयगा न उपपद्यन्ते, नपुंसकवेदकाः न उववजंति, सेसं तं चेव। उन्बटुंतगा वि उपपद्यन्ते, शेषं तच्चैव। उद्वर्तमानकाः तहेव, नवरं-असण्णी उबमुति।। अपि तथैव, नवरम्-असंज्ञिनः
ओहिनाणी ओहिदसणी य ण उन्बटुंति, उद्वर्तन्ते। अवधिज्ञानिनः अवधिसेसं तं चेव। पण्णत्तएम तहेव, नवरं । दर्शिनः च न उद्वर्तन्ते, शेषं तच्चैव। संखेज्जगा इथिवेदगा पण्णत्ता, एवं प्रज्ञप्तकेषु तथैव, नवरम्-संख्येयकाः पुरिसवेदगा वि, नपुंसगवेदगा नत्थि। स्त्रीवेदकाः प्रज्ञप्ताः, एवं पुरुषवेदकाः कोहकसाई सिय अत्थि सिय नत्थि। अपि, नपुंसकवेदकाः न सन्ति। जइ अत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा क्रोधकषायी स्यात् अस्ति, स्यात् तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नास्ति। यदि अस्ति जघन्येन एकः वा द्वौ पण्णत्ता। एवं माणकसाई मायकसाई। वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः प्रज्ञप्ताः । संखेज्जा लोभकसाई पण्णत्ता, सेसं तं एवं मानकषायिनः मायाकषायिनः। चेव। तिसु वि गमएसु चत्तारि संख्येयाः लोभकषायिनः प्रज्ञप्ताः, शेष लेस्साओ भाणियवाओ। एवं तच्चैव। त्रिषु अपि गमकेषु चतस्रः असंखेज्जवित्थडेसु वि, नवरं-तिसु वि लेश्याः भणितव्याः। एवम् असंख्येयगमएसु असंखेज्जा भाणियब्वा जाव विस्तृतेषु अपि, नवरम्-त्रिषु अपि असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता॥ गमकेषु असंख्येयाः भणितव्याः यावत्
असंख्येयाः अचरमाः प्रज्ञप्ताः।
इतना विशेष है-दो वेद वाले उपपन्न होते हैं, नपुंसक वेदक उपपन्न नहीं होते। शेष पूर्ववत्। उद्वर्तना भी रत्नप्रभा की भांति वक्तव्य है, इतना विशेष है-असंज्ञी के रूप में उद्वर्तन करते हैं। अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनी उद्वर्तन नहीं करते। शेष पूर्ववत् किन्तु वहां अवधिज्ञान और अवधिदर्शन की सत्ता है, इतना विशेष है-संख्येय स्त्रीवेदक प्रज्ञप्त हैं, इसी प्रकार पुरुषवेदक भी। नपुंसकवेदक नहीं हैं। क्रोध कषाय वाले स्यात् हैं, स्यात् नहीं हैं। यदि हैं तो जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार मानकषाय वाले, मायाकषाय वाले। लोभकषाय वाले संख्येय प्रज्ञप्त हैं, शेष पूर्ववत्। उपपत्ति, उद्वर्तन, सत्ता-इन तीन गमकों में चार लेश्याएं वक्तव्य हैं। इसी प्रकार असंख्येय- विस्तृत असुरकुमार के आवासों की वक्तव्यता, इतना विशेष है-तीन गमकों में असंख्येय वक्तव्य हैं यावत् असंख्येय अचरम भव वाले प्रज्ञप्त हैं।
भाष्य
१. सूत्र २७
असंज्ञी के रूप में उद्वर्तन-असुरकुमार से लेकर ईशान तक के देव पृथ्वी, पानी और वनस्पति-इन असंज्ञी जीवों में उत्पन्न होते हैं। इस दृष्टि से असंज्ञी के रूप में उद्वर्तन का सूत्र निर्दिष्ट है।
अवधिज्ञान और अवधिदर्शन के साथ तीर्थंकर आदि विशिष्ट जीवों का उद्वर्तन होता है। असुरकुमार से उदृत्त तीर्थंकर आदि नहीं होते इसलिए इस निषेध सूत्र का विधान किया गया है।
'पण्णत्तएम तहेव'-सत्ता का सूत्र रत्नप्रभा (भगवई १३/५)
की भांति वक्तव्य है।
असुरकुमार देवों में क्रोध, मान और माया-इन तीनों से युक्त देव कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। लोभ युक्त देव सर्वदा होते हैं। प्रज्ञापना में देवों को बहुलतया परिग्रह संज्ञा में उपयुक्त बतलाया है। लोभ को सार्वदिक मानने का यह पुष्ट आधार है। द्रष्टव्य भगवती १/२४५ का भाष्य।
चार लेश्याएं-कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तैजस लेश्या।
२८. केवतिया णं भंते ! नागकुमारा- कियन्ति भदन्त! नागकुमारावासवाससयसहस्सा पण्णत्ता ?
शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि? एवं जाव थणियकुमारा, नवरं-जत्थ एवं यावत् स्तनितकुमाराः, नवरम्-यत्र जत्तिया भवणा॥
यावन्ति भवनानि।
२८. भंते! नागकुमारों के आवास कितने लाख
प्रज्ञप्त हैं? इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता, इतना विशेष है-जहां जितने भवन (द्रष्टव्य भगवती १/२१३) प्रज्ञप्त हैं।
भाष्य
१. सूत्र २८
द्रष्टव्य भगवई १/२१२-२१५ का भाष्य।
१. भ. वृ. १६/२७-असुरादीशानान्तदेवानामसज्ञिष्वपि पृथिव्यादिषूत्पादात्। २. भ. वृ. १६/२७-क्रोधमानमायाकषायोदयवन्तो देवेषु कादाचित्का अत
उक्तं सिय अत्थीत्यादि लोभकषायोदयवन्तस्तु सार्वदिका अत उक्तं
'संखेज्जा' लोभकसाई ‘पन्नत्तत्ति'। ३. प्रज्ञा. ८/१०-११
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