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________________ भगवई १६३ श. १३ : उ.७ : सू. १२६ मण-पदं १२६. आया भंते ! मणे ? अण्णे मणे? मनः पदम् आत्मा भदन्त! मनः? अन्यत् मनः? मन पद १२६. भंते! मन आत्मा है? मन आत्मा से अन्य गोयमा ! नो आया मणे, अण्णे मणे। गौतम! नो आत्मा मनः,अन्यत् मनः। रूविं भंते ! मणे ? अरूविं मणे? रूपि भदन्त! मनः? अरूपि मनः? गोयमा! रूविं मणे, नो अरूविं मणे।। गौतम! रूपि मनः, नो अरूपि मनः। सचित्ते भंते ! मणे ? अचित्ते मणे ? सचित्तं भदन्त! मनः? अचित्तं मनः? गोयमा! नो सचित्ते मणे, अचित्ते मणे। गौतम! नो सचित्तं मनः, अचित्तं मनः । जीवे भंते ! मणे ? अजीवे मणे ? जीवं भदन्त! मनः? अजीवं मनः? गोयमा! नो जीवे मणे, अजीवे मणे॥ गौतम! नो जीवं मनः, अजीवं मनः। जीवाणं भंते ! मणे ? अजीवाणं मणे ? । जीवानां भदन्त! मनः? अजीवानां मनः? गोयमा ! जीवाणं मणे, नो अजीवाणं । गौतम! जीवानां मनः, नो अजीवानां मनः। पूचि भंते ! मणे? मणिज्जमाणे पूर्वं भदन्त! मनः? मन्यमानं मनः, मणे ? मणसमयवीतिक्कंते मणे ? मनःसमयव्यतिक्रान्तं मनः? मणे। गौतम! मन आत्मा नहीं है। मन आत्मा से अन्य है। भंते! मन रूपी है? मन अरूपी है ? गौतम! मन रूपी है, मन अरूपी नहीं है। भंते! मन सचित्त है? मन अचित्त है? गौतम! मन सचित्त नहीं है, मन अचित्त है। भंते! मन जीव है? मन अजीव है? गौतम! मन जीव नहीं है। मन अजीव है। भंते! मन जीवों के होता है? मन अजीवों के होता है? गौतम! जीवों के मन होता है, अजीवों के मन नही होता। भंते! पहले मन होता है? मनन के समय मन होता है? मनन का समय व्यतिक्रांत होने पर मन होता है? गौतम! पहले मन नहीं होता, मनन के समय मन होता है , मनन का समय व्यतिक्रांत होने पर मन नहीं होता। भंते! पहले मन का भेदन होता है? मनन के समय मन का भेदन होता है? मनन का समय व्यतिक्रांत होने पर मन का भेदन होता है? गौतम! पहले मन का भेदन नहीं होता, मनन के समय मन का भेदन होता है, मनन का समय व्यतिक्रांत होने पर मन का भेदन नहीं होता। गोयमा ! नो पुचि मणे, मणिज्जमाणे गौतम! नो पूर्वं मनः, मन्यमानं मनः, नो मणे, नो मणसमयवीतिक्कते मणे। मनःसमयव्यतिक्रान्तं मनः। पुचि भंते ! मणे भिज्जति, मणिज्ज- पूर्वं भदन्त! मनः भिद्यते? मन्यमानं मनः माणे मणे भिज्जति, मणसमय- भिद्यते? मनःसमयव्यतिक्रान्तं मनः वीतिक्कते मणे भिज्जति? भिद्यते? गोयमा ! नो पुदि मणे भिज्जति, गौतम! नो पूर्वं मनः भिद्यते, मन्यमानं मणिज्जमाणे मणे भिज्जति, नो मनः भिद्यते, नो मनःसमयव्यतिक्रान्तं मणसमयवीतिक्कंते मणे भिज्जति॥ मनः भिद्यते। भाष्य १. सूत्र १२६ जैन दर्शन के अनुसार मन एक पौद्गलिक संरचना है। जयाचार्य ने इस पर विशद विवेचन किया है। इस प्रकरण में उसके विषय में पांच बिन्दुओं से विमर्श किया गया है। • मन अचेतन है इसलिए वह आत्मा नहीं है। • मन पौद्गलिक है इसलिए वह अरूपी नहीं है। • मनोवर्गणा के पुद्गलों का निसर्ग काल मन है इसलिए वह सचित्त नहीं है। • मन जीव नहीं है। • मन जीव के होता है। मनः पर्याप्ति के द्वारा मनन में उपकारी मनोवर्गणा के पुदगलों का ग्रहण किया जाता है। यह मन की पूर्वावस्था है। उन पुद्गलों के निसर्गकाल में मन होता है। मनन में प्रयुक्त पुद्गल मनन अवस्था को छोड़ परिवर्तित हो जाते हैं, यह मन की व्यतिक्रांत अवस्था है, उत्तर अवस्था है। मनन के समय मनोवर्गणा के पुद्गलों का भेदन होता है। इस विषय की विशद जानकारी वृत्ति में नहीं है। मनन के भेद के आधार पर इसे समझा जा सकता है। तीव्र प्रयत्न वाला मननकर्ता मनन काल में ही मन के पुद्गल द्रव्यों का भेदन कर देता है। मंद प्रयत्न वाला मननकर्ता निसर्ग काल में मनोवर्गणा के पुद्गलों का भेदन नहीं करता, निसर्ग काल के पश्चात् उनका भेदन होता है। १. भग. जो. ढा. २८८, गा. ३०-३६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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