________________
श. १३ : उ.७ : सू. १२५
१६२
भगवई
भाष्य १. सूत्र १२४
उसी शब्द को भाषा कहा जा सकता है, जिसका भाषा प्रस्तुत प्रकरण में भाषा पर विमर्श किया गया है। विमर्श के पर्याप्ति के द्वारा के शब्द रूप में परिणमन होता है, जो भाषा वर्गणा पांच बिन्दु हैं
के पुद्गलों की संहति होता है। पहला बिन्दु-भाषा आत्मा है अथवा आत्मा से भिन्न है ? . 'पुल्विं भंते भाषा'.....इस सूत्र में भाषा और अभाषा का अंतर
इसका उत्तर है-भाषा आत्मा नहीं है। आत्मा चैतन्यमय है। बतलाया गया है। भाषा वर्गणा के पुद्गल पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। उन्हें भाषा पौद्गलिक है। दोनों में स्वरूप भेद है।
भाषा नहीं कहा जाता। वक्ता भाषा वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण दूसरा बिन्दु-भाषा रूपी है अथवा अरूपी?
करता है फिर उन्हें शब्द रूप में परिणत करता है। ये दोनों अवस्थाएं इसका उत्तर है-भाषा रूपी है। वह पौद्गलिक है इसलिए वह भी भाषा की कोटि में नहीं आती। शब्द रूप में परिणत पुद्गलों का रूपी अथवा मूर्त है। वृत्तिकार के अनुसार भाषा के द्वारा कान में विसर्जन होता है, उस निसर्ग-काल का नाम है भाषा। तात्पर्य की अनुग्रह अथवा उपघात होता है इसलिए उसका रूपित्व सिद्ध है। दृष्टि से विचार करें तो व्यंजनाक्षर अथवा उच्चारण को भाषा के रूप यदि भाषा रूपी है तो वह चक्षु के द्वारा उपलब्ध क्यों नहीं होती? में स्वीकृत किया गया है। जब भाषा द्रव्य के पुद्गल भाषा-रूप इसका उत्तर बहुत स्पष्ट है-जो चक्षु के द्वारा ग्राह्य नहीं होता, वह परिणमन को छोड़ देते हैं, उस समय के लिए 'भाषा समय अरूपी होता है, यह नियम नहीं है। परमाणु, हवा, पिशाच आदि वीतिक्कता' का प्रयोग किया गया है। रूपी हैं फिर भी वे चक्षु के द्वारा ग्राह्य नहीं हैं।'
इस संदर्भ में द्रष्टव्य है भगवई १/४४२-४४३ का भाष्य। तीसरा बिन्दु-भाषा सचित्त है अथवा अचित्त?
शब्द के विषय में भारतीय दर्शनों में व्यापक चिंतन हुआ है। इसका उत्तर है-पौद्गलिक पदार्थ जीव-प्रदेशों की व्याप्ति के नैयायिक शब्द को अनित्य मानते हैं। मीमांसक दर्शन के अनुसार कारण सचित्त होता है, जैसे जीवच्छरीर में चेतना व्याप्त है इसलिए शब्द नित्य है।' शब्दाद्वैत का सिद्धांत है-शब्द ब्रह्म है। भाषा और वह सचित्त है। भाषा का स्वरूप इससे भिन्न है। वह जीव के द्वारा अभाषा विषय के साथ उक्त सिद्धांतों का तुलनात्मक अध्ययन किया निःसृष्ट पुद्गलों की संहति है इसलिए वह सचित्त नहीं है।
जा सकता है। भाषा और अभाषा का सिद्धांत शब्द की अनित्यता चौथा बिन्दु-भाषा जीव है अथवा अजीव?
का सिद्धांत है। इसका उत्तर है-भाषा जीव नहीं है। जीव श्वास-उच्छ्वास वक्ता दो प्रकार के होते हैं-मंद प्रयत्न वाला और तीव्र प्रयत्न आदि प्राण वाला होता है। भाषा के श्वास-उच्छ्वास आदि प्राण वाला। नहीं होते।
मंद प्रयत्न वाला वक्ता भाषा वर्गणा के पुद्गलों का अभिन्न रूप पांचवां बिन्दु-भाषा जीवों के होती है अथवा अजीवों के? में ग्रहण करता है और अभिन्न रूप में ही उनका विसर्जन करता है।
इसका उत्तर है-भाषा वर्णात्मक होती है। वर्ण का उच्चारण प्रज्ञापना में भेदन और अभेदन-दोनों प्रकार बतलाए गए हैं। तालु आदि आठ स्थानों से होता है इसलिए यह कहा जा सकता प्रस्तुत प्रकरण में केवल भेदन का ही उल्लेख है। है-भाषा जीवों के होती है। यद्यपि अजीव के योग से शब्द उत्पन्न प्रज्ञापना के अनुसार मंद प्रयत्न वाले वक्ता द्वारा निःसृष्ट होता है फिर भी वह भाषा नहीं है।
भाषा वर्गणा के पुद्गल-स्कंधों का संख्येय योजन के बाद भेदन होता शब्द को भाषा मानने के दो आधार हैं
है। अभयदेव सूरि ने 'भासिज्जमाणी भासा' इसकी महत्त्वपूर्ण • भाषा पर्याप्ति जन्यता
व्याख्या की है। उनके अनुसार जिस अवस्था में शब्द परिणाम • भाषा वर्गणा के पुदगलों का परिणमन।
विद्यमान है, उस अवस्था तक वह भाष्यमाण है।"
१२५. कतिविहाणं भंते ! भासा पण्णत्ता? कतिविधाः भदन्त! भाषाः प्रज्ञप्ताः? १२५. भंते ! भाषा के कितने प्रकार प्रज्ञाप्त हैं ?
गोयमा ! चउब्विहा भासा पण्णत्ता, तं गौतम! चतुर्विधाः भाषाः प्रज्ञप्ताः, गौतम ! भाषा के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जहा-सच्चा, मोसा, सच्चामोसा तद्यथा-सत्या, मृषा, सत्यामृषा, जैसे-सत्या, मृषा, सत्यामृषा,असत्यामृषा। असचामोसा॥
असत्यामृषा। १. भ. वृ. १३/१२४।
ताई किं भिण्णाई णिसिरति? अभिण्णाई णिसिरति? गोयमा! भिण्णाई २. वही, - भाषासमयव्यतिक्रांता-भाषासमयो-निसृज्यमानावस्थातो यावद्- णिसिरति अभिण्णाई वि णिसिरति। जाई भिण्णाई णिसिरति ताई भाषापरिणामसमयस्तं व्यतिक्रांता या सा तथा भाषा भवति।
अणंतगुणपरिवुड्डीए परिवड्डमाणाइं परिवड्डमाणाई लोयंतं फुसंति। जाई ३. न्याय सूत्र २/२/१३-३८।
अभिण्णाई णिसिरति ताई असंखेज्जाओ ओगाहणवग्गणाओ गंता ४. भारतीय दर्शन परिचय, पृ. ८०।
भेयमावज्जंति, संखेज्जाई जोयणाई गंता विद्धसमागच्छंति। ५. उत्तररामचरित २/७/२०-शब्दब्रह्मणस्तादृशं विवर्तनितिहासं।
७. भ. पृ. १३/१२४-अत्र च यस्यामवस्थायां शब्द परिणामस्तस्यां ६. प्रज्ञा. ११/७२-जीवेणं भंते! जाई दव्याई भासत्ताए गहियाई णिसिरति भाष्यमाणताऽवसेयेति।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org