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भगवई
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श. १३ : उ. ६ : सू. १०६,११०
अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते! भदन्त! तथैतद् भदन्त! अवितथमेतद् इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते! भदन्त! असंदिग्धमेतद् भदन्त! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते !-से जहेयं । इष्टमेतद् भदन्त! प्रतीष्टमेतद् भदन्त! तुम्भे वदह त्ति कट्ट जं नवरं- इष्टप्रतीष्टमेतद् भदन्त!-तत् यथैदं देवाणुप्पिया ! अभीयिकुमारं रज्जे यूयं वदथ इति कृत्वा यत् नवरम्ठावेमि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं देवानुप्रिया! अभीचीकुमारं राज्ये अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ स्थापयामि, ततः अहं देवानुप्रियानाम् अणगारियं पब्वयामि।
अन्तिके मुण्डः भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजामि।
ऐसा ही है। भंते ! यह तथा (संवादिता पूर्ण) है। भंते! यह अवितथ है। भंते ! यह असंदिग्ध है। भंते ! यह इष्ट है। भंते ! यह प्रतीप्सित (प्राप्त करने के लिए इष्ट) है। भंते ! यह इष्ट-प्रतीप्सित है-जैसा आप कह रहे हैं, ऐसा भाव प्रदर्शित कर, इतना विशेष है-देवानुप्रिय ! अभीची कुमार को राज्य में स्थापित करता हूं। मैं देवानुप्रिय के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होता
अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध॥
यथासुखं देवानुप्रिया! मा प्रतिबन्धम्।
देवानुप्रिय ! जैसा सुख हो, प्रतिबंध मत करो।
१०६. तए णं से उदायणे राया समणेणं ततः सः उद्रायणः राजा श्रमणेन
भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे । हट्टतुट्ठ समणं भगवं महावीरं बंदइ हृष्टतुष्टः श्रमणं भगवन्तं महावीरं नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता तमेव वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा आभिसेक्कं हथि गृहइ, द्रहित्ता तमेव आभिषेक्यं हस्तिनं आरोहति समणस्स भगवओ महावीरस्स आरुह्य श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अंतियाओ मियवणाओ उज्जाणाओ अन्तिकाद् मृगवनात् उद्यानात् पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव वीतीभये नगरे तेणेव पहारेत्थ वीतीभये नगरे तत्रैव प्रादीधरत् गमनाय। गमणाए॥
१०६. वह उद्रायण राजा श्रमण भगवान् महावीर
के इस कथन को सुनकर हृष्ट तुष्ट हो गया। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वंदननमस्कार किया, वंदन नमस्कार कर अभिषिक्त हाथी पर चढा। चढकर श्रमण भगवान् महावीर के पास से मृगवन उद्यान से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर जहां वीतीभय नगर था वहां जाने का संकल्प किया।
माया
११०. तए णं तस्स उद्दायणस्स रण्णो ततः तस्य उद्रायणस्य राज्ञः
अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए अयमेतद्पः आध्यात्मिकः चिन्तितः मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था एवं प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादिखलु अभीयीकुमारे ममं एगे पुत्ते इढे एवं खलु अभीचीकुमारः मम एकः पुत्रः कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए इष्टः कान्तः प्रियः मनोज्ञः 'मणामे' संमए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे स्थैर्यः वैश्वासिकः सम्मतः बहुमतः रयणे रयणब्भए जीविऊसविए अनुमतः भण्डकरण्डकसमानः रत्नः हिययनंदिजणणे उंबरपुष्पं पिव दुल्लभे रत्नभूतः जीवितोच्छ्रितः हृदयनन्दि सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ? तं जननं उदम्बरपुष्पम् इव दुर्लभः जदि णं अहं अभीयीकुमारं रज्जे ठावेत्ता श्रवणाय, किमङ्ग पुनः दर्शनाय? तत् समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं यदि अहम् अभीचीकुमारं राज्ये मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं स्थापयित्वा श्रमणस्य भगवतः पव्वयामि, तो णं अभीयीकुमारे रज्जे य महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा रहे य बले य वाहणे य कोसे य कोहागारे अगाराद् अनगारितां प्रव्रजामि, तदा य पुरे य अंतेउरे य जणवए य अभीचीकुमारः राज्ये च राष्ट्रे च बले च माणुस्सएमु य कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे वाहने च कोशे च कोष्ठागारे च पुरे च गढिए अज्झोबवन्ने अणादीयं अणवदम्ग अन्तःपुरे च जनपदे च मानुष्यकेषु च दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं कामभोगेषु मूर्च्छितः गृद्धः ग्रथितः अणुपरियट्टिस्सइ, तं नो खलु मे सेयं अध्युपपन्नः अनादिकं 'अणवदग्गं' अभीयीकुमार रज्जे ठावेत्ता समणस्स दीर्घमध्वानं चतुरन्तं संसारकान्तारं
११०. उस उद्रायण राजा के इस प्रकार का
आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक और मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआअभीचीकुमार मेरा एकाकी पुत्र है, इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण-करण्डक के समान है। रत्न, रत्नभूत (चिन्तामणि आदि रत्न के समान) जीवन-उत्सव और हृदय को आनंदित करने वाला है। वह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवणदुर्लभ है फिर दर्शन का तो कहना ही क्या? यदि मैं अभीचीकुमार को राज्य में स्थापित कर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होता हूं तो अभीचीकुमार राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोश, कोष्ठागार, पुर, अंतः पुर, जनपद और मनुष्य संबंधी काम-भोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त होकर आदि अंतहीन दीर्घ पथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार में अनुपर्यटन करेगा। मेरे लिए यह
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