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________________ श. १५ : सू. ४७-५० २६० भगवई ४७. तए णं अहं गोयमा! चउत्थ-मास- ततः अहं गौतम! चतुर्थ-मासक्षपण- खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पारणके तन्तुवायशालायाः पडिनिरिखमामि, पडिनिक्वमित्ता प्रतिनिष्क्रामामि, प्रतिनिष्क्रम्य नालन्दां नालंद बाहिरियं मज्झमज्झेणं बाहिरिकां मध्यमध्येन निर्गच्छामि, निग्गच्छामि, निग्गच्छित्ता जेणेव । निर्गत्य यत्रैव कोल्लाकः सन्निवेशः तत्रैव कोल्लाए सण्णिवेसे तेणेव उवागच्छामि, उपागच्छामि, उपागम्य कोल्लाके । उवागच्छित्ता कोल्लाए सण्णिवेसे उच्च- सन्निवेशे उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि नीय-मज्झिमाई कुलाई घर-समुदाणस्स। गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्याम् अटन् भिक्खायरियाए अडमाणे बहुलस्स बहुलस्य माहनस्य गृहम् अनुप्रविष्टः।। माहणस्स गिहं अणुप्पवितु॥ ४७. गौतम ! मैंने चतुर्थ मासखमण के पारण में तंतुवायशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां कोल्लाक सन्निवेश था, वहां आया, आकर कोल्लाक सन्निवेश के उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए बहुल ब्राह्मण के घर में मैंने अनप्रवेश किया। ४८. तए णं से बहुले माहणे ममं एज्जमाणं ततः सः बहुलः माहनः माम् आयन्तं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठचित्तमाणदिए पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टचित्तः णंदिए पीइमणे परमसोमणस्मिए हरिस- आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः वसविसप्पमाणहियए खिप्पामेव परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पहृदयः आसणाओ अन्भुढेइ, अन्भुढेत्ता पाय- क्षिप्रमेव आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, पीढाओ पच्चोरुहइ, पचोरुहित्ता अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति पाउयाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता एगसाडियं प्रत्यवरुह्य पादुकाः अवमुञ्चति, उत्तरा संग करेइ, करेत्ता अंजलिम- अवमुच्य एकशाटिकम् उत्तरासंगं उलियहत्थे ममं सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ, करोति, कृत्वा अञ्जलिमुकुलितहस्तः अणुगच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण- मां सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति अनुगम्य पयाहिणं करेइ, करेत्ता ममं बंदइ नमसइ, मां त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, वंदित्ता नमंसित्ता ममं विउलेणं कृत्वा मां वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा महुघयसंजुत्तेणं परमण्णेणं पडिला- नमस्थित्वा मां विपुलेन मधुघृतभेस्सामित्ति तुट्टे, पडिलाभेमाणे वि तुट्टे, संयुक्तेन परमान्नेन प्रतिलाभयिष्यामि पडिलाभिते वि तुट्टे॥ इति तुष्टः, प्रतिलाभयन् अपि तुष्टः, प्रतिलाभिते अपि तुष्टः। ४८. बहुल ब्राह्मण ने मुझे आते हुए देखा, देखकर हृष्टतुष्टचित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्णमन वाला, परम सौमनस्य युक्त तथा हर्ष से विकस्कर हृदय वाला हो गया। वह शीघ्र ही आसन से उठा, उठकर पादपीठ से नीचे उतरा, उतरकर पादुका को खोला, खोलकर एक पट वाले वस्त्र से उत्तरासंग किया, उत्तरासंग कर दोनों हाथ जोड़े हुए सात-आठ कदम मेरे सामने आया, आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर-मैं महावीर को विपुल मधु-घृत-संयुक्त परमान्न से प्रतिलाभित करूंगा, यह सोचकर तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करता हुआ भी तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करके भी तुष्ट हुआ। ४६. तए णं तस्स बहुलस्स माहणस्स तेणं ततः तस्य बलस्य माहनस्य तेन दव्वसुद्धेणं दायगसुद्धेणं पडिगाहगसुद्धेणं द्रव्यशुद्धन, दायकशुद्धेन, प्रतिग्राहक- तिविहेणं तिकरणसुद्धणं दाणेणं मए शुद्धेन, त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन दानेन पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्धे संसारे मयि प्रतिलाभिते सति देवायुष्कः निबद्धः, परित्तीकए, गिहंसि य से इमाई पंच संसारः परीतीकृतः, गृहे च तस्य इमानि दिव्याई पाउन्भूयाइ, तं जहा-वसुधारा पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, तद्यथाबुट्ठा, दसद्धवण्णे कुसुमे निवातिए, चेलु- वसुधारा वृष्टा, दशार्धवर्णः कुसुमः खेवे कए, आयाओ देवदुंदुभीओ, निपातितः, चेलोत्क्षेपः कृतः, आहताः अंतरा वि य णं आगासे अहो दाणे, अहो देवदुन्दुभयः, अन्तरा अपि च आकाशे दाणेत्ति घुट्टे॥ अहोदानम् अहोदानम् इति घुष्टम्। ४६. बहुल ब्राह्मण ने द्रव्य शुद्ध, दाता शुद्ध, प्रतिग्राहक शुद्ध, त्रिविध त्रिकरण से शुद्धदान के द्वारा मुझे प्रतिलाभित कर देवायुष्य का निबंध किया, संसार को परीत किया, उसके घर पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा निपात वृष्टि, पांच वर्णवाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा फहराने लगी, देवदुन्दुभियां बजी, आकाश के अंतराल में 'अहोदानम्अहोदानम्' की उद्घोषणा हुई। ५०. तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग- चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-धन्ने णं देवाणुप्पिया! बहुले माहणे, कयत्थे णं ततः राजगृहे नगरे श्रृंगाटक-त्रिक- चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति एवं भाषते एवं प्रज्ञापयति एवं प्ररूपयति- धन्यः देवानुप्रियाः! बहुलः माहनः, ५०. राजगृह नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवं प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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