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भगवई
गोयमा! अक्कमित्ता पभू, नो अणक्कमित्ता पभू॥
१६५ गौतम! अवक्रम्य प्रभुः नो अनवक्रम्य प्रभुः।
श. १४ : उ. ३ : सू. ३६-४३ गौतम! प्रहार कर जाने में समर्थ है। प्रहार किए बिना जाने में समर्थ नहीं है।
३६. से णं भंते! किं पुचि सत्येणं सः भदन्तः! किं पूर्वं शस्त्रेण अवक्रम्य ३६. भंते! क्या वह पहले शस्त्र से प्रहार करता अक्कमित्ता पच्छा वीइवएज्जा? पुचि पश्चात् व्यतिव्रजेत्? पूर्वं व्यतिव्रज्य है, पश्चात् बीचोंबीच होकर जाता है? क्या वीइवइत्ता पच्छा सत्येणं अक्कमेज्जा? पश्चात् शस्त्रेण अवक्राम्येत्?
पहले बीचोंबीच होकर जाता है, पश्चात् शस्त्र
से प्रहार करता है? गोयमा! पनि सत्थेणं अक्कमित्ता गौतम! पूर्वं शस्त्रेण अवक्रम्य पश्चात् गौतम ! पहले शस्त्र से प्रहार करता है, पश्चात् पच्छा वीइवएज्जा, नो पनि वीइवइत्ता व्यजिव्रजेत. नो पर्व व्यतिव्रज्य पश्चात
बीचोंबीच होकर जाता है। पहले बीचोंबीच पच्छा सत्येणं अक्कमिज्जा। एवं एएणं । शस्त्रेण अवक्राम्येत्। एवम् एतेन होकर जाकर पश्चात् शस्त्र से प्रहार नहीं अभिलावेणं जहा दसमसए आइडी- अभिलापेन यथा दशमशते आत्म- करता। इस प्रकार इस अभिलाप के अनुसार उद्देसए तहेब निरवसेसं चत्तारि दंडगा। द्धिकोद्देशके तथैव निरवशेषं चत्वारः जैसे दसवें शतक (१०/२४-३०) में आत्मभाणियन्वा जाब महिड्डिया वेमाणिणी। दण्डकाः भणितव्याः यावत् महर्द्धिका ऋद्धि उद्देशक, वैसे चारों दण्डक निरवशेष अप्पिड्डियाए वेमाणिणीए॥ वैमानिकी अल्पर्द्धिकया वैमानिक्या। वक्तव्य हैं, यावत् महान्-ऋद्धि वाली वैमानिक
देवी अल्प-ऋद्धि वाली वैमानिक देवी का
शस्त्र से प्रहार कर जाने में भी समर्थ है।
भाष्य १. सूत्र २६-३६
नहीं है, मस्तिष्कीय चिन्तन और शारीरिक अवयव भी विकसित नहीं प्रस्तुत प्रकरण में लोकोपचार विनय की प्रतिपत्ति का विवरण हैं फिर भी यत् किञ्चित् मात्रा में वे शिष्टाचार का पालन करते हैं। दिया गया है। इसका आश्य है-नैरयिक जीव लोकोपचार विनय करना हाथी यूथपति का सम्मान करते हैं। गाएं गौरोचन वाली गाय का सम्मान नहीं जानते।
करती हैं। बंदर भी अपने मुखिया का सम्मान करते हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तक के जीवों में देवता द्वारा शस्त्र आक्रमण अथवा शस्त्र प्रहार अपने पौरूष का लोकोपचार विनय नहीं है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों में भाषा का विकास प्रदर्शन हो सकता है। नेरइय-नेरइयाणं पञ्चणुभव-पदं
नैरयिक-नैरयिकानां प्रत्यनुभव-पदम् नैरयिक-नैरयिकों का प्रत्यनुभव पद ४०. रयणपभपुढविनेरइया णं भंते! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाः भदन्त! ४०. भंते ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस केरिसयं पोग्गलपरिणाम पञ्चणुब्भव- कीदृशकं पुद्गलपरिणामं प्रत्यनुभवन्तः प्रकार के पुद्गल परिणाम का प्रत्यनुभव करते माणा विहरंति? विहरन्ति?
हुए विहरण करते हैं? गोयमा! अणिढं अकंतं अप्पियं असुभं गौतम! अनिष्टम् अकान्तम् अप्रियम् गौतम! अकांत, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ अमणुण्णं अमणाम। एवं जाव अहेसत्त- अशुभम् अमनोज्ञम् 'अमणाम'। एवं और अमनोहर। इसी प्रकार यावत् मापुढविनेरइया॥
यावत् अधःसप्तमी पृथिवीनैरयिकाः। अधःसप्तमी पृथ्वी के नैरयिकों की वक्तव्यता। ४१. रयणपभपुढविनेरइया णं भंते! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाः भदन्त! ४१. भंते! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस
केरिसयं वेदनापरिणाम पचणुब्भवमाणा कीदृशकं वेदनापरिणाम प्रत्यनुभवन्तः प्रकार के वेदना परिणाम का प्रत्यनुभव करते विहरंति? विहरन्ति?
हुए विहरण करते हैं? गोयमा ! अणिहं जाव अमणाम। गौतम! अनिष्टं यावत् 'अमणाम'। एवं गौतम! अनिष्ट यावत् अमनोहर। इस प्रकार एवं जहा जीवाभिगमे बितिए नेरइय- यथा जीवाभिगमे द्वितीये नैरयिकोद्देशके जैसे जीवाभिगम के द्वितीय नैरयिक उद्देशक उद्देसए जावयावत्
में यावत्४२. अहेसत्तमापढविनेरइया णं भंते! अधःसप्तमीपथिवीनैरयिकाः भदन्त! ४२. भंते! अधःसप्तमी पृथ्वी के नैरयिक किस केरिसयं परिग्गहसण्णापरिणामं कीदृशकं परिग्रहसंज्ञापरिणाम प्रकार के परिग्रह संज्ञा परिणाम का प्रत्यनुभव पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति? प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति?
करते हुए विहरण करते हैं? गोयमा ? अणिढे जाव अमणाम। गौतम! अनिष्टं यावत् 'अमणाम'। गौतम! अनिष्ट यावत् अमनोहर। ४३. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त! इति। ४३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
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