SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई श. १६ : उ. ६ : सू. १६-६१ ३७६ महासुविणाणं अण्णयरे सत्त महास्वप्नानाम् अन्यतरान् महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति॥ महास्वप्नान् दृष्ट्रा प्रतिबुध्यन्ते। सप्त किन्हीं सात महास्वप्नों को देखकर जागृत होती हैं। ८६. बलदेवमायरो-पुच्छा। बलदेवमातरः-पृच्छा। गोयमा! बलदेवमायरो जाव एएसिं गौतम! बलदेवमातरः यावत् एतेषां चोद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे चत्तारि महास्वप्नानाम् अन्यतरान् चतुरः महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति॥ महास्वप्नान् दृष्ट्रा प्रतिबुध्यन्ते। ८६. बलदेव की माता-पृच्छा। गौतम! बलदेव की माता यावत् इन चौदह महास्वप्नों में से किन्हीं चार महास्वप्नों को देखकर जागृत होती हैं। १०. मंडलियमायरो णं भंते!-पुच्छा? माण्डलिकमातरः भदन्त!-पृच्छा। गोयमा! मंडलियमायरो जाव एएसिं गौतम! माण्डलिकमातरः यावत् एतेषां चोद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरं एगं चतुदर्शानां महास्वप्नानाम् अन्यतरम् महासुविणं पासित्ता णं पडिबुझंति॥ एकं महास्वप्नं दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते। १०. भंते! मांडलिक की माता-पृच्छा। गौतम! मांडलिक की माता यावत् इन चौदह महास्वप्नों में से किसी एक महास्वप्न को देखकर जागृत होती हैं। भगवओ महासुविण-दसण-पदं भगवतः महास्वप्न-दर्शन-पदम् भगवान् का महास्वप्न-दर्शन पद ११. समणे भगवं महावीरे छउमत्थ- श्रमणः भगवान् महावीरः छद्मस्थकालि- ६१. श्रमण भगवान् महावीर छद्मस्थकालीन कालियाए अंतिमराइयंसि इमे दस क्याम् अन्तिमरात्रिकायाम् इमान् दश अवस्था में रात के अंतिम भाग में इन दस महासविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, तं महास्वप्नान् दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः, तद्यथा- महास्वप्नों को देखकर जागृत हुए, जैसेजहा१. एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं १. एकं च महान्तं घोररूपदीप्तधरं १. महान् घोर रूप वाले दीप्तिमान एक ताल तालपिसायं सुविणे पराजियं पासित्ता णं तालपिशाचं स्वप्ने पराजितं दृष्ट्रा पिशाच (ताड़ जैसे लंबे पिशाच) को स्वप्न में पडिबुद्धे। प्रतिबुद्धः। पराजित हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए। २. एगं च णं महं सुक्किलपक्वगं २. एकं च महान्तं शुक्लपक्षकं २. श्वेत पंखों वाले एक बड़े पुंस्कोकिल को पुंसकोइलगं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। पुंस्कोकिलकं स्वप्ने दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः। स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ३. एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्वगं ३. एकं च महान्तं चित्रविचित्रपक्षकं ३. चित्र विचित्र पंखों वाले एक बड़े पुंस्कोकिल पुंसकोइलग सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। पुस्कोकिलकं स्वप्ने दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः। को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ४. एगं च णं महं दामदुर्ग सन्वरयणामय ४. एकं महद् दामद्विकं सर्वरत्नमयं ४. सर्वरत्नमय दो बड़ी मालाओं को स्वप्न में सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। स्वप्ने दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः। देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ५. एगं च णं महं सेयं गोवग्गं सुविणे ५. एकं च महान्तं श्वेतं गोवर्ग स्वप्ने ५. एक महान् श्वेत गोवर्ग को स्वप्न में पासित्ता णं पडिबुद्धे। दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः। देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ६. एगं च णं महं पउमसरं सब्बओ ६. एकं च महत् पद्मसरः सर्वतः ६. चिहुं ओर कुसुमित एक बड़े पद्म सरोवर को समंता कुसुमियं सुविणे पासित्ता णं समन्तात् कुसुमितं स्वप्ने दृष्ट्वा स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। पडिबुद्धे। प्रतिबुद्धः। ७. एगं च णं महं सागरं उम्मीवीयी- ७. एकं च महान्तं सागरम् ७. स्वप्न में हजारों ऊर्मियों और वीचियों से सहस्सकलियं भूयाहिं तिण्ण सुविणे उर्मिवीचिसहसकलितं भुजाभ्यां तीर्णं परिपूर्ण एक महासागर को भुजाओं से तीर्ण पासित्ता णं पडिब। स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः। हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ८. एगं च णं . दिणयरं तेयसा जलंतं ८. एकं च महान्तं दिनकरं तेजसा ८. तेज से जाज्वल्यमान एक महान् सूर्य को सुविणे पासित्ता णं ५ युद्धे। ज्वलन्तं स्वप्ने दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः । स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ह. एगं च णं महं हरिवेरुलियवण्णाभेणं ६. एकं च महान्तं हरिवैडूर्यवर्णाभेन ६. स्वप्न में भूरे व नीले वर्ण वाली अपनी नियगेणं अंतेणं माणुसुत्तरं पव्वयं निजकेन आन्त्रेण मानुषोत्तरं पर्वतं सर्वतः आंतों से मानुषोत्तर पर्वत को चारों ओर से सबओ समंता आवेदियं परिवेढियं सुविणे ___ समन्तात् आवेष्टितं परिवेष्टितं स्वप्ने आवेष्टित और परिवेष्टित हुआ देखकर पासित्ता णं पडिबुद्धे। दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः। प्रतिबुद्ध हुए। १०. एगं च णं महं मंदरे पन्चए १०. एकं च महान्तं मन्दरे पर्वते मन्दर- १०. स्वप्न में महान् मंदर पर्वत की मंदर मंदरचूलियाए उवरिं सीहासणवरगयं चूलिकायाः उपरि सिंहासनवरगतम् । चूलिका पर अवस्थित सिंहासन के ऊपर अप्पाणं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। आत्मानं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः। अपने आपको बैठे हुए देखकर प्रतिबुद्ध हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy