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________________ भगवई श. १६ : उ. ८ : सू. ११४,११५ ३८६ बेइंदियस्स य देसे, अहवा एगिदियदेसा य देशाः च अनिन्द्रियदेशाः च द्वीन्द्रियस्य अणिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा, च देशः, अथवा एकेन्द्रियदेशाः च एवं मज्झिल्लविरहिओ जाव पंचिंदियाणं। अनिन्द्रियदेशाः च द्वीन्द्रियाणां च देशाः जे जीवपदेसा ते नियमं एगिदियपदेसा एवं मध्यमविरहितः यावत् पञ्चेन्द्रियाय अणिंदियपदेसा य, अहवा णाम्। ये जीवप्रदेशाः ते नियमम् एगिदियपदेसा य अणिंदियपदेसा य एकेन्द्रियप्रदेशाः च अनिन्द्रियप्रदेशाः च बेइंदियस्स पदेसा य, अहवा अथवा एकेन्द्रियप्रदेशाः च अनिन्द्रियएगिदियपदेसा य अणिंदियप्पदेसा य प्रदेशाः च द्वीन्द्रियस्य प्रदेशाः च अथवा बेइंदियाण य पदेसा, एवं आदिल्ल- एकेन्द्रियप्रदेशाः च अनिन्द्रियप्रदेशाः च विरहिओ जाव पंचिंदियाणं। अजीवा द्वीन्द्रियाणां च प्रदेशाः। एवम् आदिमजहा दसमसए तमाए तहेव निरवसेसं॥ विरहितः यावत् पञ्चेन्द्रियाणाम्। अजीवाः यथा दशमशते तमायां तथैव निरवशेषम्। हैं, अनिन्द्रिय के देश हैं और द्वीन्द्रिय का देश है। अथवा एकेन्द्रिय के देश हैं, अनिन्द्रिय के देश हैं और द्वीन्द्रियों के देश हैं। इस प्रकार मध्यम विकल्प विरहित यावत् पंचेन्द्रियों की वक्तव्यता। जो जीव के प्रदेश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं और अनिन्द्रिय के प्रदेश हैं। अथवा एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं, अनिन्द्रिय के प्रदेश हैं और द्वीन्द्रिय के प्रदेश हैं। अथवा एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं, अनिन्द्रिय के प्रदेश हैं और द्वीन्द्रियों के प्रदेश हैं। इस प्रकार प्रथम विकल्प विरहित यावत् पंचेन्द्रियों की वक्तव्यता। अजीव जैसे दशम शतक में तमा की वक्तव्यता वैसे ही निरवशेष वक्तव्य है। ११४. लोगस्स णं भंते ! हेडिल्ले चरिमंते लोकस्य भदन्त ! अधस्तने चरमान्ते किं किं जीवा-पुच्छा। जीवाः-पृच्छा। गोयमा! नो जीवा, जीवदेसा वि जाव गौतम! नो जीवाः, जीवदेशाः अपि अजीवपदेसा वि, जे जीवदेसा ते नियमं यावत् अजीवप्रदेशाः अपि, ये जीवएगिदियदेसा, अहवा एंगिदियदेसा य देशाः ते नियमम् एकेन्द्रियदेशाः, अथवा बेइंदियस्स देसे, अहवा एंगिदियदेसा य एकेन्द्रियदेशाः च द्वीन्द्रियस्य देशः बेइंदियाण य देसा, एवं मज्झिल्ल- अथवा एकेन्द्रियदेशाः च द्वीन्द्रियाणां च विरहिओ जाव अणिंदियाणं। पदेसा देशाः, एवं मध्यमविरहितः यावत् आइल्लविरहिया सव्वेसिं जहा पुरत्थि- अनिन्द्रियाणां। प्रदेशाः आदिममिल्ले चरिमंते तहेव। अजीवा जहेब विरहिताः सर्वेषां यथा पौरस्त्ये चरमान्ते उरिल्ले चरिमंते तहेव॥ तथैव। अजीवाः यथैव उपरितने चरमान्ते तथैव। ११४. भंते! लोक के अधस्तन चरमान्त में जीव-पृच्छा। गौतम! जीव नहीं हैं। जीव के देश भी हैं यावत् अजीव के प्रदेश भी हैं। जो जीव के देश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय के देश हैं। अथवा एकेन्द्रिय के देश हैं और द्वीन्द्रिय का देश है, अथवा एकेन्द्रिय के देश हैं और द्वीन्द्रियों के देश हैं। इस प्रकार मध्यम विकल्प विरहित यावत् अनिन्द्रियों की वक्तव्यता। सबके प्रदेश आदि विकल्प विरहित पूर्व चरमान्त की भांति वक्तव्य है। जीवों की ऊर्ध्व चरमान्त की भांति वक्तव्यता। ११५. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः भदन्त! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः ११५. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व चरमान्त पुरथिमिल्ले चरिमंते किं जीवा-पुच्छा। पौरस्त्ये चरमान्ते किं जीवा:-पृच्छा। में क्या जीव हैं? पृच्छा। गोयमा! नो जीवा, एवं जहेव लोगस्स गौतम! नो जीवाः, एवं यथैव लोकस्य गौतम ! जीव नहीं हैं। इस प्रकार जैसे लोक तहेव चत्तारि वि चरिमंता जाव तथैव चत्वारः अपि चरमान्ताः यावत् की वक्तव्यता वैसे ही चारों चरमान्त की उत्तरिल्ले, उवरिल्ले तहेव, जहा औदीच्ये, उपरितने तथैव, यथा वक्तव्यता यावत् उत्तर चरमान्त, ऊर्ध्व दसमसए विमला दिसा तहेव निरवसेसं। दशमशते विमला दिशा तथैव चरमान्त की दशम शतक में विमला दिशा हेडिल्ले चरिमंते जहेब लोगस्स हेडिल्ले निरवशेषम्। अधस्तने चरमान्ते यथैव की भांति निरवशेष वक्तव्यता। लोक के चरिमंते तहेव, नवरं-देसे पंचिंदिएसु लोकस्य अधस्तने चरमान्ते तथैव निम्नवर्ती भाग के चरमान्त की भांति तियभंगो त्ति सेस नं चेव। एवं जहा नवरम्-देशे पञ्चेन्द्रियेषु विकभङ्गः इति अधःस्तन चरमान्त की वक्तव्यता, इतना रयणप्पभाए चत्तारि चरिमंता भणिया शेषं तत् चैव। एवं यथा रत्नप्रभायाः विशेष है। पंचेन्द्रिय में देश के तीन भंग एवं सक्करप्पभाए वि। उवरिम-हेछिल्ला चत्वारः चरमान्ताः भणिताः एवं वक्तव्य हैं शेष पूर्ववत्। जिस प्रकार रत्नप्रभा जहा रयणप्पभाए हेडिल्ले। एवं जाव शर्कराप्रभायाः अपि। उपरितन- के चार चरमान्तों की वक्तव्यता उसी प्रकार अहेसत्तमाए। एवं सोहम्मस्स वि जाव अधस्तनाः यथा रत्नप्रभायाः । शर्कराप्रभा की वक्तव्यता। उपरिवर्ती और अचुयस्स। गेवेज्जविमाणाणं एवं चेव, अधस्तनः। एवं यावत् अधःसप्तम्याः। निम्नवर्ती भाग की रत्नप्रभा के निम्नवर्ती नवरं-उवरिम-हेडिल्ले चरिमतेसु देसेसु एवं सौधर्मस्यापि यावत् अच्युतस्य । भाग की भांति वक्तव्यता। इस प्रकार यावत् पंचिंदियाण वि मज्झिल्ल-विरहिओ चेव, ग्रैवेयकविमानानाम् एवं चैव, नवरम्- अधःसप्तमी की वक्तव्यता। इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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