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श. १५ : सू. ६४-६६
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भगवई
मगस्स आणूकंपियस्स निस्सेसियस्स आनुकम्पिकस्य नैःश्रेयसिकस्य हिय-सुह-निस्सेसकामगस्स एवमा- (निस्सेसियस्स) हित-सुख-निःश्रेय- इक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स एयमह स्यस्कामकस्य एवम् आख्यतः यावत् नो सहति, 'नो पत्तियति नो रोयंति, प्ररूपयतः एतमर्थं नो श्रद्दधते, नो एयमढे असदहमाणा अपत्तिय-माणा प्रतियन्ति, नो रोचन्ते, एतमर्थम् अरोएमाणा तस्स वम्मीयस्स चउत्थं पि अश्रद्दधानाः अप्रतियन्तः अरोचमानाः वप्पं भिंदंति। ते णं तत्थ उग्गविसं तस्य वल्मीकस्य चतुर्थम् अपि वपुः चंडविसं घोरविसं महाविसं अतिकायं भिन्दन्ति। ते तत्र उग्रविषं चण्डविषं महाकायं
मसिमूसाकालगं घोरविषं महाविषं अतिकायं महाकायं नयणविसरोसपुण्णं अंजणपुंज-निगरप्प- मषीमूषाकालकं नयनविषरोषपूर्णम् गासं रत्तच्छं जमलजुयल-चंचल- अञ्जनपुञ्जनिकरप्रकाशं रक्ताक्षं चलंतजीहं धरणितलवेणिभूयं उक्कड- यमलयुगलचञ्चलचलतजिह्व धरणितलफुड-कुडिल - जडुल - कक्खड - विकड- वेणीभूतम् उत्कट-स्फुट-कुटिलफडाडोव-करणदच्छं लोहागर-धम्ममाण- जटिल - कक्खट - विकट-स्फटाटोपधमधमेतघोसं अणागलिय-चंडतिव्वरोसं करणदक्षं लोहाकर-ध्मायमाणसमुहं तुरियं चवलं धमतं दिट्ठीविसं सप्पं धमधमायमानघोषम् अनाकलितसंघटेति॥
चण्डतीव्ररोषं श्वमुखं त्वरितं चपलं धमन्तं दृष्टिविषं सर्प संघट्टन्ति।
वाले, अनुकंपा करने वाले, निःश्रेयस करने वाले, हित, शुभ और निःश्रेयस की कामना करने वाले उस वणिक के इस प्रकार आख्यान करने पर यावत् प्ररूपण करने पर उन वणिकों ने इस अर्थ पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की। इस अर्थ पर अश्रद्धा करते हुए, अप्रतीति करते हुए, अरुचि करते हुए, उस वल्मीक के चौथे शिखर का भेदन किया। वहां उग्र विष, प्रचण्ड विष, घोर विष
और महाविष वाले, स्थूल काय, महाकाय, स्याही और मूषा के समान काले, चपल एवं चलती हुई द्विजिह्वा वाले, पृथ्वी-तल पर वेणी के सदृश, उत्कट, स्फुट, कुटिल, जटिल, कर्कश एवं विकट फटाटोप करने में दक्ष, लुहार की धौंकनी के सदृश धमधम (सूं तूं) घोष करने वाले, अनाकलित प्रचण्ड तीव्र रोष वाले, श्वान की भांति मुंह वाले त्वरित, चपल, दृष्टिविष सर्प का स्पर्श हुआ।
६४. तए णं से दिट्ठीविसे सप्पे तेहिं वणिएहिं ततः सः दृष्टिविषः सर्पः तैः वणिग्भिः६४. वह दृष्टिविष सर्प उन वणिकों का स्पर्श संघट्टिए समाणे आसुरुत्ते रुठे कविए संघट्टिते सति आशुरक्तः रुष्टः कुपितः होते ही तत्काल आवेश में आ गया। वह रुष्ट चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे सणियं- ___ 'चंडिक्किए' 'मिसिमिसेमाणे' शनैः- हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र, सणियं उढेइ, उठेत्ता सरसरसरस्स शनैः उत्तिष्ठति, उत्थाय सरसरसरस्य क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर वह धीरे-धीरे वम्मीयस्स सिहरतलं द्रुहति, दुहित्ता वल्मीकस्य शिखरतलम् आरोहति, उठा, उठ कर सर सर करता हुआ वल्मीक के आदिचं निज्झाति, निज्झाइत्ता ते वणिए आरुह्य आदित्यं निध्यायति, निध्याय शिखर-तल पर चढा, चढकर सूर्य को एकटक अणिमिसाए दिट्ठीए सवओ समंता तान वणिजः अनिमिषया दृष्ट्या देखा, देख कर अनिमेष दृष्टि से चारों ओर समभिलोएति॥ सर्वतः समन्तात् समभिलोकते।
उन वणिकों को देखा।
६५. तए णं ते वणिया तेणं दिट्ठीविसेणं ततः ते वणिजः तेन दृष्टिविषेण सर्पण सप्पेणं अणिमिसाए दिट्ठीए सव्वओ अनिमिषया दृष्ट्या सर्वतः समन्तात् समंता समभिलोइया समाणा खिप्पामेव समभिलोकिताः सन्तः क्षिप्रमेव सभंडमत्तोबगरणमायाए एगाहचं कूडाहचं स्वभाण्डामात्रोपकरणम् आदाय भासरासी कया यावि होत्था। तत्थ णं जे एगाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशिः कृता से वणिए तेसिं वणियाणं हियकामए चापि अभूः । तत्र यः सः वणिक् तेषां सुहकामए पत्थकामए आणुकंपिए वणिजां हितकामक: सुखकामकः निस्सेसिए हियसुहनिस्सेसकामए से णं पथ्यकामकः आनुकम्पिकः नैःश्रेयसिकः आणुकंपियाए देवयाए सभंडमत्तोवगरण- हित-सुख-निःश्रेयस्कामकः सः मायाए नियगं नगरं साहिए॥
आनुकंपिकया देवतया स्वभाण्डामात्रोपकरणम् आदाय निजकं नगरं साधितः।
६५. उस दृष्टिविष सर्प द्वारा अनिमेष दृष्टि से चारों ओर देखे जाने पर वे वणिक शीघ्र ही अपने भांड-अमत्र-उपकरण-सहित एक ही प्रहार में कूटाघात की भांति राख के ढेर जैसे हो गए। उन वणिकों की हित की कामना करने वाले, शुभ की कामना करने वाले, पथ्य की कामना करने वाले, अनुकंपा करने वाले, निःश्रेयस करने वाले, हित, शुभ और निःश्रेयस की कामना करने वाले उस वणिक को अनुकंपा करने वाले देव ने अपने भांडअमत्र-उपकरण-सहित अपने नगर में पहंचा दिया।
१६. एवामेव आणंदा! तव वि धम्मायरिएणं एवमेव आनन्द! तवापि धर्माचार्येण धम्मोवएसएणं समणेणं नायपुत्तेणं ओरा- धर्मोपदेशकेन श्रमणेन ज्ञातपुत्रेण ले परियाए अस्सादिए, ओराला कित्ति- 'ओराले' पर्यायः आसादितः,
९६. आनन्द! इसी प्रकार तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक ज्ञातपुत्र श्रमण ने प्रधान पर्याय प्राप्त किया, प्रधान कीर्ति, वर्ण, शब्द, श्लोक
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