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भगवई
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वण्ण-सद्ध-सिलोगा सदेवमणुया-सुरे लोए 'ओराला' कीर्ति-वर्ण-शब्द-श्लोकाः पुव्वंति, गुब्वंति, थुव्वंति–इति खलु सदेवमनुजासुरे लोके प्लवन्ते, गुप्यन्ति, समणे भगवं महावीरे, इति खलु समणे स्तूयन्ते-इति खलु श्रमणः भगवान् भगवं महावीरे। तं जदि मे से अज्ज महावीरः, इति खलु श्रमणः भगवान् किंचि वि वदति तो णं तवेणं तेएणं एगा- महावीरः। तत् यदि मम सः अद्य हच्चं कूडाहचं भासरासिं करेमि, जहा वा किंचिद् अपि वदति तदा तं तपसा वालेणं ते वणिया। तुमं च णं आणंदा! तेजसा एकाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशिं सारक्खामि संगोवामि जहा वा से वणिए करोमि, यथा वा व्यालेन ते वणिजः। तेसिं वणियाणं हियकामए जाव त्वां च आनन्द! संरक्षामि संगोपयामि निस्सेसकामए आणुकंपियाए देवयाए यथा वा सः वणिक् तेषां वणिजां। सभंडमत्तोवगरणमायाए नियगं नगर हितकामकः यावत् निःश्रेयस्कामकः साहिए। तं गच्छ णं तुमं आणंदा! तव आनुकम्पिकया देवतया स्वभाण्डाधम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स समणस्स मात्रोपकरणम् आदाय निजकं नगरं नायपुत्तस्स एयमझु परिकहेहि॥ साधितः। तत् गच्छ त्वम् आनन्द! तव
धर्माचार्यस्य धर्मोपदेशकस्य श्रमणस्य ज्ञातपुत्रस्य एतमर्थं परिकथय।
श. १५ : सू. ६७ प्रसारित हो रहे हैं, गूंज रहे हैं, स्तुति का विषय बने हुए हैं-ये श्रमण भगवान महावीर! श्रमण भगवान् महावीर! इसलिए यदि आज से वे मुझे कुछ कहते हैं तो उन्हें तपः-तेज से एक ही प्रहार में कूटाघात की भांति मैं उसी प्रकार राख का ढेर कर दूंगा, जैसे उस सर्प के द्वारा ये वणिक। आनंद! मैं तुम्हारा संरक्षण और संगोपन करूंगा, जैसे उन वणिकों की हित कामना करने वाला यावत् निःश्रेयस की कामना करने वाले उस वणिक को अनुकंपा करने वाले ने भांड-अमत्रउपकरण-सहित अपने नगर में पहुंचा दिया। इसलिए आनंद! तुम जाओ, तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र को यह अर्थ कहो।
आणंदथेरस्स भगवओ निवेदण-पदं आनन्दस्थविरस्य भगवतः निवेदन-पदम आनंद स्थविर का भगवान् से निवेदन-पद ६७. तए णं से आणंदे धेरे गोसालेणं । ततः सः आनन्दः स्थविरः गोशालेन ६७. आनन्द स्थविर मंखलिपुत्र गोशाल के इस मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे भीए जाव मंखलिपुत्रेण एवम् उक्ते सति भीतः प्रकार कहने पर भीत यावत् भय से व्याकुल संजायभए गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स यावत् सञ्जातभयः गोशालस्य हो गया। उसने मंखलिपुत्र गोशाल के पास से अंतियाओ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभ- मंखलिपुत्रस्य अन्तिकात् हालाहलायाः हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण से कारावणाओ पडिनिक्खमति, पडि- कुम्भकार्याः कुम्भकारापणात् प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर निक्वमित्ता सिग्यं तुरियं सावत्थिं नगरि प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य शीघ्रं शीघ्र त्वरित गति से श्रावस्ती नगरी के मझमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता त्वरितं श्रावस्ती नगरी मध्यमध्येन बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां जेणेव कोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव कोष्ठकं कोष्ठक चैत्य था, जहां श्रमण भगवान् महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चैत्यम् यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः महावीर थे, वहां आया, आकर श्रमण समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं । भगवान् को दांयी ओर से प्रारम्भ कर तीन आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण- बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदननमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस वयासी-एवं खलु अहं भंते! छट्ठक्ख- नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रकार कहा-भंते! मैं बेले के पारण में आपकी मणपारणगंसि तुन्भेहिं अब्भणुण्णाए एवमवादीत-एवं खलु अहं भदन्त! अनुज्ञा से श्रावस्ती नगरी के उच्च, नीच तथा समाणे सावत्थीए नगरीए उच्च-नीय- षष्ठक्षपणपारणके युष्माभिः मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स अभ्यनुज्ञातः सन् श्रावस्त्यां नगर्याम् लिए घूमते हुए हालाहला कुंभकारी के भिक्खायरियाए अडमाणे हालाहलाए उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि गृह- कुंभकारापण से न अति दूर और न अति कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंते समुदानस्य भिक्षाचर्यायाम् अटन् निकट जा रहा था। मंखलिपुत्र गोशाल ने वीइवयामि, तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारा- हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण से न ममं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारा- पणस्य अदूरसामन्ते व्यतिव्रजामि, अति दूर और न अति निकट मुझे जाते हुए वणस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणं ततः गोशालः मंखलिपुत्रः मां देखकर इस प्रकार कहा-आनंद! तुम यहां पासित्ता एवं वयासी-एहि ताव आणंदा! हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारा- आओ, एक बड़ी उपमा को सुनो। इओ एग मह उवमियं निसामेहि। पणस्य अदूरसामन्तेन व्यजिव्रजन्तं
दृष्ट्वा एवमवादीत्-एहि तावत् आनन्द! इतः एकं महान्तम् उपमितं निशाम्य।
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