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भगवई
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श. १३ : उ.६ : सू. १६७
डेवेमाणे-कूदता हुआ। पविखविराली-बड़ी चमगादड़। अभिरममाणे-क्रीड़ा करता हुआ। वेरुलिय-गरुड़। अवदालिय-विदीर्ण कर।
भिस-नाल तंतु।
प्राणी की विशेष जानकारी के लिए जैन आगम प्राणी कोश, वनस्पति की विशेष जानकारी के लिए जैन आगम वनस्पति कोश तथा रत्न आदि की विशेष जानकारी के लिए उत्तराध्ययन ३६/६१६६ का टिप्पण द्रष्टव्य है।
१६७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव
विहरइ॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति।
१६७. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
है। इस प्रकार यावत विहरण करने लगे।
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