________________
भगवई
भगवान् महावीर (ईस्वी पूर्व ५९९ -५२७) की वाणी द्वादशांगी में संकलित है। उस द्वादशांगी के पांचवें अंग का नाम है-विआहपण्णत्ती जो 'भगवती सूत्र' के नाम से सुप्रसिद्ध है। जैन साहित्य में तत्त्वज्ञान की दृष्टि से भगवती को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है। इसमें दर्शनशास्त्र,
आचारशास्त्र, जीवविद्या, लोकविद्या, सृष्टिविद्या, परामनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का समावेश है। प्रस्तुत खंड में पांच शतकों (१२ से १६) के मूलपाठ, संस्कृत छाया तथा हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन विस्तृत भाष्य के साथ हुआ है। साथ में | अभयदेवसूरि-कृत वृत्ति भी प्रकाशित है। बारहवें शतक में जागरिका, परमाणु, जीव विभक्ति, पुनर्जन्म, सप्तभंगी आदि का सूत्रात्मक शैली में विवेचन है।
तेरहवें शतक में पंचास्तिकाय, शरीर, भाषा और मन का संबंध, भावितात्मा अणगार की विक्रिया आदि महत्त्वपूर्ण विषयों का समाहार है।
चौदहवें शतक में तमस्काय, तेजोलेश्या, परमाणु, देवों की विनय विधि तथा देवों की दिव्य शक्तियों का विलक्षण वर्णन है।
पंद्रहवां शतक समग्र भारतीय इतिहास के लिए एक महत्त्वपूर्ण सूचना-स्रोत है। इसमें गोशालक के जीवन-वृत्त का रोचक शैली में निरूपण है।
सोलहवें शतक में एक महत्त्वपूर्ण सूचना है-'वायुकाय के बिना अग्निकाय नहीं होती। भगवान महावीर के पास देव-आगमन के प्रसंग भी बहुत उतोरक हैं। निर्जरा का तुलनात्मक विवेचन, अधिकरण, मुनि की शल्य-चिकित्सा आदि महत्त्वपूर्ण प्रसंग भी इसमें समाविष्ट है।
प्रस्तुत ग्रंथ को समग्र दृष्टि से भारतीय दार्शनिक वाङ्मय का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ कहा जा सकता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org