________________
भगवई
८८. अणुत्तरोववाइया णं भंते! देवा केवतिएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोव वाइयदेवत्ताए उववन्ना? गोयमा ! जावतियं छट्टभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतिएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोववाइयदेवत्ताए
उववन्ना ॥
२१५
अनुत्तरोपपातिकाः भदन्त ! देवाः कियता कर्मावशेषेण अनुत्तरोपपातिकदेवत्वेन उपपन्नाः ?
१. भ. ५/१०७ । २. भ. ६ / १६ ।
गौतम! यावत् षष्ठभक्तिकः श्रमणः निर्ग्रन्थः कर्म निर्जीर्णाति एतावता कर्मावशेषेण अनुत्तरोपपातिकदेवत्वेन
उपपन्नाः ।
१. सूत्र ८४-८८
लव सप्तम देव-यदि सात लव जितना आयुष्य और होता तो वह मुक्त हो जाता किंतु इतने आयुष्य के अभाव में वह साधु मर कर लव सप्तम देव बनता है।
भाष्य
अनुत्तरोपपातिक देव-यदि बेले (दो उपवास) जितना आयुष्य और होता तो वह मुक्त हो जाता किंतु उसके अभाव में वह साधु मर कर अनुत्तरोपपातिक देव बनता है।
इन दोनों प्रसंगों में एक प्रश्न उपस्थित होता है- संसारी जीव कर्म के आधार पर ही संसार में टिक पाता है। उक्त दोनों प्रकार के देवों के कर्म अत्यल्प शेष रहते हैं फिर वे तैतीस सागरोपम तक तथा वहां से च्युत हो मनुष्य की आयु तक कैसे संसार में रह सकते हैं? अनुत्तरोपपातिक देवों को अनुत्तर शब्द आदि विषय प्राप्त होते
८६. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥
Jain Education International
३. त. सू. भा. वृ. ४/२७ - सर्वे चानुत्तरोपपातिनः किल देवाः प्रतनुकर्माणो
भवन्तीति ।
हैं। वे उन विषयों का अनासक्त भाव से उपभोग करते हैं। उनका मोह उपशान्त होता है' इसलिए उनके गाढ़ कर्मों का बंध नहीं होता । अनुत्तरोपपातिक देवों को अल्प वेदना और अल्प निर्जरा वाला बतलाया गया है ।' सिद्धसेन गणि के अनुसार अनुत्तरोपपातिक प्रतनुकर्मा होते हैं।' उक्त आधारों पर सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है- अनुत्तरोपपातिक देवों के घात्य कर्म प्रतनु होते हैं। मुख्यतः भवोपग्राही कर्मों का बंध होता रहता है। उन्हीं के आधार पर संसार में टिके रहते हैं।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
श. १४ : उ. ७ : सू. ८८,८६
८८. भंते! अनुत्तरोपपातिक देव कितने कर्म अवशेष रहने पर अनुत्तरोपपातिक देव के रूप में उपपन्न हुए ?
गौतम ! श्रमण निर्ग्रथ एक बेले (दो दिन के तप) में जितने कर्मों की निर्जरा करता है, इतने कर्मों के अवशेष रहने पर यदि आयुष्य पूरा हो जाए तो वे श्रमण निर्ग्रथ अनुत्तरोपपातिक देव के रूप में उपपन्न होते
हैं।
इस विषय में पातंजल योग दर्शन का 'भवप्रत्ययो विदेहप्रकृति लयाना' - इस सूत्र का भाष्य और व्याख्या * तथा पातंजल योग दर्शन का ३ / २६ का भाष्य द्रष्टव्य है ।
लवसप्तम देवों की स्थिति सर्वोत्कृष्ट बतलाई गई है।'
For Private & Personal Use Only
८६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
४. पा. यो. द. १/११ | ५. पा. यो. द. पृ. ३१६-२१।
६. सू. १ / ६ / २४ तथा उसका टिप्पण ।
www.jainelibrary.org