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भगवई
श. १२ : उ. २ : सू. ५५,५६
साह, अत्थेगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू॥
अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है, कुछ जीवों का जागृत रहना अच्छा है।
भाष्य
१. सूत्र ५३-५४
जीवों का सोना अच्छा या जागना अच्छा? इन प्रश्नों का उत्तर भगवान् ने अनेकान्त दृष्टि से दिया। अधर्म पक्ष वाले जीवों का सोना अच्छा है, धर्म पक्ष वाले जीवों का जागना अच्छा है। सूत्रकृतांग में तीन पक्ष बतलाए गए हैं- अधर्म पक्ष', धर्म पक्ष और मिश्र पक्षा' प्रस्तुत विषय का विशद वर्णन उन तीन पक्षों के मूल पाठ में प्राप्त है। इसका संक्षिप्त सार यह है जो व्यक्ति अधर्म का आचरण करता है
और अधर्म या अनैतिकता से आजीविका करता है, वह सुप्त है, उसका सोना ही अच्छा है। जो व्यक्ति धर्म का आचरण करना है और धर्म या नैतिकता से आजीविका करता है, वह जागृत है, उसका जागना ही अच्छा है। सुप्त का सोना इसलिए अच्छा है कि वह जागृत अवस्था में दूसरों को दुःख देता है और स्वयं को तथा दूसरों को अधार्मिक संयोजनाओं में संयोजित करता है। जागृत व्यक्ति जागृत अवस्था में दूसरों को दुःख नहीं देता इसलिए उसका जागना अच्छा
है। वह जागृत रहकर स्वयं को तथा दूसरों को अनेक धार्मिक संयोजनाओं से संयोजित करता है। धर्म-जागरिका से जागृत रहता है। शब्द-विमर्श
दुःखणयास इत्यादि शब्दों के लिए द्रष्टव्य भगवई ७/११४ धार्मिक-श्रुत चारित्र रूप धर्म का आचरण करने वाला। अधर्मिष्ठ-जिसको अधर्म इष्ट है। अधर्मानुग-जो धर्म का अनुगमन नहीं करता।
अधर्माख्याति-अधर्म का आख्यान करने वाला, अधर्म के द्वारा ही जिसकी ख्याति है।
___ अधर्मप्रलोकी-जो धर्म का उपादेय रूप में अवलोकन नहीं करता।
अधर्मप्ररञ्जन-अधार्मिक कार्यों में अनुरक्त रहने वाला। अधर्म समुदाचार-धर्म के सदाचार का पालन नहीं करने वाला।
५५. बलियत्तं भंते ! साह? दुब्बलियत्तं
साहू ? जयंती! अत्यंगतियाणं जीवाणं बलियत्तं साह, अत्थेगतियाणं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू॥
बलिकत्वं भदन्त ! साधु ? दुर्बलिकत्वं साधु ? जयन्ति! अस्त्येककानां जीवानां बलिकत्वं साधु, अस्त्येककानां जीवानां दुर्बलिकत्वं साधु।
५५.भंते ! जीवों का बलिष्ठ होना अच्छा है ?
दुर्बल होना अच्छा है ? जयंती ! कुछ जीवों का बलिष्ठ होना अच्छा है, कुछ जीवों का दुर्बल होना अच्छा है।
५६.भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा
है- कुछ जीवों का बलिष्ठ होना अच्छा है, कुछ जीवों का दुर्बल होना अच्छा है?
५६. से केणद्वेणं भंते! एवं बुचइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-
अत्थेगतियाणं जीवाणं बलियत्तं साहू, अस्त्येककानां जीवानां बलिकत्वं साधु, अत्थेगतियाणं जीवाणं दुब्बलियत्तं अस्त्येककानां जीवानां दुर्बलिकत्वं साहू ?
साधु ? जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव जयन्ति ! ये इमे जीवाः अधार्मिका: अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा यावत् अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पमानाः विहरंति, एएसि णं जीवाणं दुब्बलियत्तं __विहरन्ति, एतेषां जीवानां दुर्बलिकत्वं साहू। एए णं जीवा दुब्बलिया समाणा साधु। एते जीवाः दुर्बलिकाः सन्तः नो नो बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं बहूनां प्राणानां भूतानां जीवानां सत्वानां सत्ताणं दुक्खणयाए जाव परिया- दुःखनाय यावत् परितापनाय वर्तन्ते। वणयाए वटुंति। एए णं जीवा एते जीवाः दुर्बलिकाः सन्तः आत्मानं वा दुब्बलिया समाणा अप्पाणं वा परं वा परं वा तदुभयं वा नो बहुभिः तदुभयं वा नो बहुहिं अहम्मियाहिं अधार्मिकीभिः संयोजनाभिः संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति। संयोजयितारः भवन्ति। एतेषां जीवानां एएसि णं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू। दुर्बलिकत्वं साधुः। .
जयंती ! जो ये जीव अधार्मिक यावत् अधर्म के द्वारा आजीविका चलाते हुए विहरण कर रहे हैं, उन जीवों का दुर्बल होना अच्छा है। उन जीवों के दुर्बल होने से वे अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःखी यावत् परितप्त करने के लिए प्रवृत नहीं होते । उन जीवों के दुर्बल होने से स्वयं को, दूसरे को, दोनों को अनेक अधार्मिक संयोजनाओं में संयोजित नहीं करते इसलिए उन जीवों का दुर्बल होना अच्छा है।
३. वही, २/२/७२-७४।
१. सूय. २/२/५२-६२॥ २. वही, २/२/६३-७०।
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