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________________ १६० भगवई श. १३ : उ. ६ : सू. १२२,१२३ पण्णत्ता, तत्थ णं अभीयिस्स वि देवस्स एग पलिओवमं ठिई पण्णत्ता॥ देवस्य एकं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता। भाष्य १. सूत्र ११०-१२१ प्रस्तुत सूत्र में उद्रायण के मानसिक द्वन्द्व और उत्तराधिकारी की नियुक्ति का एक रोमांचक प्रसंग वर्णित है। इस प्रसंग पर दो दृष्टियों से विचार करना आवश्यक है। उद्रायण ने अपने पुत्र अभीचीकुमार के हित की चिंता की, उसे मूर्छा और संसार-भ्रमण से बचाने के लिए अपना उत्तराधिकार नहीं सौंपा। इस चिंतन में व्यवहार का अतिक्रमण स्पष्ट है। इस अतिक्रमण से अभीची को भयंकर मानसिक आघात लगा। उसका वर्णन १३/१२० सूत्र में किया गया है। उसका बाहरी परिणाम यह हुआ कि अभीची कुमार अपने देश को छोड़कर चंपा के अधिपति कूणिक की शरण में चला गया। आंतरिक परिणाम यह हुआ कि वह उद्रायण राजर्षि के प्रति प्रगाढ़ वैर से आक्रांत हो गया। इस वैरानुबंध का परिणाम अभीचीकुमार के हित में नहीं रहा। अभीचीकुमार आयुष्य पूरा कर असुरकुमार के आवास में उत्पन्न हुआ। जयाचार्य ने अभीचीकुमार की द्वेष से होने वाली हानि का उल्लेख किया है किन्तु वह आयुष्य बंधकाल में सम्यग्दृष्टि रहा या मिथ्यादृष्टि हो गया, इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है।' जयाचार्य ने एक इंगित अवश्य दिया है-अभीची कुमार के मन में जो द्वेष था, उस प्रकार के द्वेष से जीव सम्यक्त्व और व्रत को गंवा देता है और कोई-कोई जीव अनंत संसारी भी हो जाता है। भगवती के तीसवें शतक के अनुसार सम्यग्दृष्टि जीव के केवल वैमानिक देव के आयुष्य का बंध होता है। अभीची कुमार मृत्यु के उपरांत असुरकुमारावास में उत्पन्न हुआ। इस आधार पर क्या यह संभावना नहीं की जा सकती कि वह अपने वैरानुबंध के कारण सम्यग्दृष्टि से भी विरहित हो गया? । मनोमानसिक-मन की वह अवस्था, जिसमें आंतरिक वेदना होती है किन्तु बाहर में कोई विकार प्रदर्शित नहीं किया जाता। उस मानसिक दशा को मनोमानसिक कहा जाता है। आयावा-आतापक, यह असुरकुमार देवों की एक विशेष श्रेणी है। वृत्तिकार के अनुसार इस विषय में अन्य कोई जानकारी उपलब्ध १२२. से णं भंते ! अभीयीदेवे ताओ सः भदन्त! अभीचीदेवः तस्माद् देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं देवलोकाद् आयुःक्षयेण भवक्षयेण ठिइक्खएणं अणंतरं उच्चद्विता कहिं स्थितिक्षयेण अनन्तरं उद्वर्त्य कुत्र गच्छिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गमिष्यति? कुत्र उपपत्स्यते? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति । गौतम! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् जाव सञ्चदुक्खाणं अंतं काहिति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति। १२२. भंते! वह अभीचीदेव उस देवलोक से आयु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर उद्वर्तन कर कहां जायेगा? कहां उपपन्न होगा? गौतम! महाविदेह वास में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा। १२३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति। १२३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही १. भग. जो. ढा. २८७. गा.८,९इण रीते श्रावक नां व्रत पालै, और दोषण तो सगला टालै रे। पिण राय उदाई सूं अंतरंगा धेषो, ते तो दिन-दिन अधिक विशेषो रे॥ पनरै दिन रो संथारो आयो, जद पिण नहीं स्वमायो रे। ते श्री जिनधर्म विराधी मैं मूओ, ते तो मरनैं असुर देव हूओ रै॥ २. भग. जो. ढा. २८७, गा. १७ एहवा द्वेष सूं सम्यक्त व्रत खोवै, केइ अनंत-संसारी होवे रे। इण रे कर्म थोड़ा तिणसूं दैगो निकालो, नहिं तो रुलै अनंतो कालो रे॥ ३. भ. ३०/१६,२२॥ ४. भ. पृ. १३/१२०-मनसो विकारो मानसिकं मनसि मानसिकं न बहिरुप___ लक्ष्यमाणविकारं यत्तन्मनोमानसिकं तेन। ५. 'आयाव' त्ति असुरकुमारविशेषाः, विशेषतस्तु नावगम्यत इति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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