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श. १६ : उ. ४ : सू. ५३ ३६४
भगवई ने शुष्क तृण और तप्त तवे के दृष्टान्त का आराधना में सुन्दर चित्रण गंडिया-गंडिका, कंडिका, शाखा। किया है।
जडिल-जटिल, जटावाला। शब्द-विमर्श
वृत्तिकार के अनुसार वृद्ध व्याख्या में इसका अर्थ वलितोद्वलितअन्नग्लायक-चूर्णिकार ने इसका अर्थ निस्पृहभाव से बासी भोजन घुमावदार, टेढी-मेढी किया गया है। करने वाला रूखा-सूखा भोजन करने वाला किया है। वृत्तिकार ने वाइद्धं-विशिष्ट द्रव्यों से उपलिप्त, वृद्ध व्याख्या में इसका अर्थ इसका अर्थ अन्न के बिना ग्लान होने वाला, भूख को सहन न कर वक्र किया गया है। सकने वाला किया है। निर्जरा के प्रकरण में चूर्णिकार का मत अधिक अपत्तियं-अपात्रिका, धार रहिता संगत है।
मुंड-भोथरा कौसंब-कुसुंब वृक्ष।
५३. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति यावत् विहरति।
५३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। ऐसा कहकर यावत् विहरण करने लगे।
२. आराधना ८/७-८
सूको तृण पूलो जिम अग्नि विसेहो रे। शीघ्र भसम हुवै निज कर्म दहेहो रे॥ जिम तप्त तवे जल बिंदु बिललावै रे।
तिम दुःख समचिते, सह्यां अघ क्षय थावै रे॥ १.३. भ. वृ. १६/५२।
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