SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई १८६ श. १४ : उ. २ : सू. १६,२० १६. असुरकुमाराणं भंते ! कतिविहे उम्मादे असुरकुमाराणाम् भदन्त! कतिविधः १६. भंते! असुरकुमारों के कितने प्रकार का पण्णत्ते? उन्मादः प्रज्ञप्तः? उन्माद प्रज्ञप्त है? गोयमा! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तं जहा- गौतम! द्विविधः उन्मादः प्रज्ञप्तः, गौतम! दो प्रकार का उन्माद प्रज्ञप्त है, जैसेजक्वाएसे य, मोहणिज्जस्स कम्मस्स य तद्यथा-यक्षावेशः च मोहनीयस्य च यक्षावेश और मोहनीय कर्म के उदय से होने उदएणं॥ कर्मणः उदयेन। वाला। २०. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-असुर- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- कुमाराणं दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तं असुरकुमाराणां द्विविधः उन्मादः प्रज्ञप्तः, जहा-जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य । तद्यथा-यक्षावेशः च, मोहनीयस्य च कम्मस्स उदएणं? कर्मणः उदयेन? गोयमा! देवे वा से महिड्डियतराए असुभे गौतम! देवः वा सः महर्द्धिकतराक: पोग्गले पक्खिवेज्जा, से णं तेसिं अशुभान् पुद्गलान् प्रक्षिपेत्, सः तेषाम् असुभाणं पोग्गलाणं पक्खिवणयाए अशुभानां पुद्गलानां प्रक्षेपनया जक्खाएसं उम्मादं पाउणेज्जा, यक्षावेशम् उन्माद , प्राप्नुयात्, मोहणिज्जरस वा कम्मस्स उदएणं मोहनीयस्य वा कर्मणः उदयेन मोहनीयम् मोहणिज्जं उम्मायं पाउणेज्जा। से उन्मादं प्राप्नुयात्। तत तेनार्थेन यावत तेणटेणं जाव उदएणं। एवं जाव। उदयेन। एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम्। थणियकुमाराणं। पुढविक्काइयाणं जाव पृथिवीकायिकानां यावत् मनुष्याणाम्- मणुस्साणं-एएसिं जहा नेरइयाणं, एतेषां यथा नैरयिकानाम् वानमन्तरवाणमंतर-जोइस-वेमाणियाणं जहा ज्योतिषवैमानिकानां यावत् असुर- असुरकुमाराणं॥ कुमाराणाम्। २०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-असुरकुमारों के दो प्रकार का उन्माद प्रज्ञप्त है, जैसे-यक्षावेश और मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला? गौतम! महर्द्धिकतर देव अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करते हैं, उन अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेप से असुरकुमार यक्षावेश के उन्माद को प्राप्त होते हैं। मोहनीय कर्म के उदय से वे मोहनीय के उन्माद को प्राप्त होते हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-यावत् कर्म के उदय से होने वाला। पृथ्वीकायिक यावत् मनुष्य-इनमें उन्माद नैरयिक की भांति वक्तव्य है। वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक में उन्माद असुरकुमारों की भांति वक्तव्य है। भाष्य १. सूत्र १६-२० मोहनीय का एक प्रकार है मिथ्यात्व। उसके उदय से उन्माद हो कुछ कारणों से व्यक्ति की विवेक चेतना विलुप्त हो जाती सकता है। है। उस अवस्था का नाम है उन्माद। प्रस्तुत प्रकरण में उन्माद के दो मोहनीय का दूसरा प्रकार है चरित्र मोहनीय । उसका उदय होने हेतु बतलाए गए हैं। उसके अन्य हेतु भी होते हैं। यहां वे विवक्षित पर मनुष्य विषय से होने वाली विकृति को जानकर भी उससे निवृत्त नहीं हैं। स्थानांग में अवर्णवाद को भी उन्माद का हेतु बतलाया नहीं हो पाता। मोहनीय का एक भेद है वेद-कामवासना। उसका प्रबल गया है। उदय होने पर उन्माद की स्थिति बन जाती है।' चरक ने उन्माद के दो प्रकार बतलाए हैं-दोषज और आगंतुक। मोहजन्य उन्माद की तुलना के लिए आयुर्वेद के प्रज्ञापराध शब्द दोषज के चार प्रकार हैं-वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातज। पर ध्यान देना उपयोगी होगाआगंतक उन्माद के आठ प्रकार हैं-१. देवोन्मत्त, २. गुरु, वृद्ध, सिद्ध धीधृतिस्मृतिविभ्रष्टः कर्म यत् कुरुतेऽशुभम्। ऋषि के शाप, ३. पितृग्रहोन्मत्त, ४. गंधर्वोन्मत्त, ५. यक्षोन्मत्त, ६. प्रज्ञापराधं तं विद्यात् सर्वदोषप्रकोपणम्॥ राक्षसोन्मत्त, ७. ब्रह्मराक्षसोन्मत्त, ८.पिशाचोन्मत्ता यच्चान्यदीदृशं कर्म, रजोमोहसमुत्थितम्। मस्तिष्कीय अव्यवस्था आदि अनेक शारीरिक स्थितियां भी प्रज्ञापराधं तं शिष्टा, ब्रुक्ते व्याधिकारणम्॥ उन्माद का कारण बन सकती हैं। बुद्धया विषमविज्ञानं विषमं च प्रवर्तनम्। सूत्रकार ने यक्षावेश से होने वाले उन्माद की तुलना में मोह जन्य प्रज्ञापराधं जातीयान्मनसो गोचरं हि तत्॥' उन्माद को अधिक जटिल बतलाया है। अभयदेवसूरि ने मोहजन्य उन्माद आगमकार ने यक्षजन्य उन्माद को सुख-वेदनतर और सुखकी व्याख्या दो दृष्टिकोण से की है। विमोचनतर तथा मोहजन्य उन्माद को दुःख-वेदनतर और दुःख १. ठाणं ६/४३ २. चरक निदान ७/१० ३. भ. वृ. सू. १४/१६ तत्र मोहनीयं-मिथ्यात्वमोहनीयं तस्योदयादुन्मादो भवति यतस्तदुदयवर्ती जन्तुरत्तत्वं तत्त्वं मन्यते तत्त्वमपि चातत्त्वं । चारित्रमोहनीयं वा यतस्तदुदये जानन्नपि विषयादीनां स्वरूपमजानन्निव वर्तते अथवा चारित्रमोहनीयस्यैव विशेषो वेदाख्यो मोहनीयं, यतस्तदुदयविशेषेऽप्युन्मत्त एव भवति, यदाह चिंतेई, दडमिच्छई दीहं नीससई तह जरे दाहे। भत्तअरोअग मुच्छा उम्माय न याणई मरणम्॥ ४. चरक शारीरक १/१०२, १०८-१०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy