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श. १४ : उ. २ : सू. २१-२३
विमोचनतर बतलाया है। अभयदेवसूरि का अभिमत है-यक्षावेशजन्य उन्माद का संबंध एक जन्म से है और मोहजन्य उन्माद का संबंध संसार-भ्रमण से है। संसार का स्वभाव है दुःख का वेदन।
अभयदेवसूरि ने विमोचन की व्याख्या में एक युक्ति संगत हेतु प्रस्तुत किया है। इस हेतु का आशय यह है- यक्षावेश जन्य उन्माद को यंत्र मात्र से भी समाप्त किया जा सकता है। मोहजन्य उन्माद विद्या, मंत्र, तंत्र और देवानुग्रह वाले चिकित्सकों से भी साध्य नहीं होता। इस हेतु से समझा जा सकता है - यक्षावेश जन्य उन्माद सुख-विमोचनतर है और मोहजन्य उन्माद दुःख - विमोचनतर है । '
बुट्टिकायकरण - पर्द
२१. अत्थि णं भंते! पज्जपणे कालवासी बुट्टिका पकरेति ? हंता अस्थि ॥
२२. जाहे णं भंते! सक्के देविंदे देवराया का काउकामे भव से कहमियाणि पकरेति ? गोयमा ! ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया अभितरपरिसए देवे सहावे । तए णं ते अभितरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा मज्झिमपरिसए देवे सद्दावेंति । तए णं ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरपरिसए देवे सहावेंति । तए णं ते बाहिरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरबाहिरगे देवे सहावेंति । तए णं ते बाहिरबाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा आभिओगिए देवे सद्दावेंति । तए णं ते आभिओगिया देवा सद्दाविया समाणा बुद्धिकाइए देवे सहावेंति । तए णं ते बुद्धिकाइया देवा सद्दाविया समाणा बुद्विकायं पकरेंति । एवं खलु गोयमा ! सक्के देविंदे देवराया वुकायं पकरेति ॥
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भगवई
मोहजन्य उन्माद सब प्राणियों में होता है किंतु यक्षावेश जन्य उन्माद नैरयिक और देव गण में कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर आगम में साक्षात् उपलब्ध है- देव अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप कर नैरयिक जीवों में यक्षावेश जन्य उन्माद पैदा कर सकता है, महर्द्धिक देव अल्पर्द्धिक देवों में अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप कर यक्षावेश जन्य उन्माद पैदा कर सकता है।
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अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेपण की विधि के आधार पर तांत्रिक विधि द्वारा अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेपण को समझा जा सकता है। मारण, उच्चाटन आदि तांत्रिक प्रयोगों में भी अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेपण किया जाता है।
वृष्टिकायकरण-पदम्
अस्ति भदन्त ! पर्जन्यः कालवर्षी वृष्टिका प्रकरोति ? हन्त अस्ति ।
यदा भदन्त ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः वृष्टिकायं कर्तुकामः भवति सः कथम् इदानीं प्रकरोति ?
गौतम! तदा चैव सः शक्रः देवेन्द्रः देवराजः आभ्यन्तरपरिषत्कान् देवान् शब्दयति । ततः ते आभ्यन्तरपरिषत्काः देवाः शब्दायिताः सन्तः मध्यमपरिषत्कान् देवान् शब्दयन्ति ततः ते मध्यमपरिषत्काः देवाः शब्दायिताः सन्तः बाह्यपरिषत्कान् देवान् शब्दयन्ति । ततः ते बाह्यपरिषत्काः देवाः शब्दयिताः सन्तः बाह्यबाह्यकान् देवान् शब्दयन्ति । ततः ते बाह्यबाह्यकाः देवाः शब्दायिताः सन्तः आभियोगिकान् देवान् शब्दयन्ति । ततः ते आभियोगिकाः देवाः शब्दायिताः सन्तः वृष्टिकायिकान् देवान् शब्दयन्ति। ततः ते वृष्टिकायिकाः देवाः शब्दायिताः सन्तः वृष्टिकायं प्रकुर्वन्ति । एवं खलु गौतम ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः वृष्टिकायं प्रकरोति ।
२३. अत्थि णं भंते! असुरकुमारा वि देवा अस्ति भदन्त ! असुरकुमाराः देवाः वुट्ठकार्य करेंति ? वृष्टिकायं प्रकुर्वन्ति ? हंता अत्थि ॥ हन्त अस्ति ।
१. भ. वृ. सू. १४/१६ - मोहजन्योन्माद इतरापेक्षया दुःखविमोचनतरो भवत्यन्तसंसारकारणत्वात्, संसारस्य च दुःखवेदनस्वभावत्वात् इतरस्तु सुखवेदनतर एव, एक भविकत्वादिति, तथा मोहजोन्माद इतरापेक्षया दुःखविमोचनतरो भवति, विद्यामंत्रतंत्रदेवानुग्रहवतामपि वार्त्तिकानां तस्याऽसाध्यत्वात्, इतरस्तु
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२१. भंते! वर्षाकाल में बरसने वाला पर्जन्य क्या वर्षा करता है ?
हां, करता है।
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२२. भंते! जब देवराज देवेन्द्र शक्र वर्षा करना चाहता है तब वह कैसे करता है ?
गौतम ! तब देवराज देवेन्द्र शक्र आभ्यंतर परिषद् के देवों को आमंत्रित करता है। आभ्यंतर परिषद् के देव शक्र का निर्देश प्राप्त कर मध्यम परिषद् के देवों को बुलाते हैं। मध्यम परिषद् के देव आभ्यंतर परिषद् का निर्देश प्राप्त कर बाह्य परिषद् के देवों को बुलाते हैं। बाह्य परिषद् के देव मध्यम परिषद् का निर्देश प्राप्त कर बाह्यबाह्यक परिषद् के देवों को बुलाते हैं। बाह्यबाह्यक परिषद् के देव बाह्य परिषद् के निर्देश पर आभियोगिक देवों को बुलाते हैं। आभियोगिक परिषद् के देव बाह्यबाह्यक परिषद् के निर्देश पर वृष्टिकायिक देवों को बुलाते हैं। वे वृष्टिकायिक देव आभियोगिक देवों के निर्देश पर वर्षा करते हैं। गौतम ! इस प्रकार देवराज देवेन्द्र शक्र वर्षा करता है।
२३. भंते! क्या असुरकुमार देव वर्षा करते हैं?
हां, करते हैं।
सुखविमोचनतर एव भवति यंत्रमात्रेणाऽपि तस्य निग्रहीतुं शक्यत्वादितिसर्वज्ञमंत्रवाद्यपि, यस्य न सर्वस्य निग्रहे शक्तः । मिथ्यामोहोन्मादः, स केन किल कथ्यतां तुल्यः ॥
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