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________________ श. १२ : उ. २ : सू. ४६-५२ २२ भगवई ४६. भवसिद्धियत्तणं भंते ! जीवाणं किं सभावओ ? परिणामओ? जयंती ! सभावओ, नो परिणामओ॥ भवसिद्धिकत्वं भदन्त ! जीवानां किं स्वभावतः ? परिणामतः? जयन्ति ! स्वभावतः, नो परिणामतः। ४६. भंते ! क्या जीव भवसिद्धिक स्वभाव से होते हैं ? परिणाम से होते हैं? जयंती ! स्वभाव से होते हैं, परिणाम से नहीं होते। ५०. सब्वेवि णं भंते ! भवसिद्धिया जीवा सर्वेऽपि भदन्त ! भवसिद्धिकाः जीवाः ५०. भंते! क्या सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध सिज्झिस्संति ? सेत्स्यन्ति? होंगे? हंता जयंती! सब्वेवि णं भवसिद्धिया। हन्त जयन्ति ! सर्वेऽपि भवसिद्धिकाः हा, जयंती ! सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध जीवा सिज्झिस्संति॥ जीवाः सेत्स्यन्ति। होंगे। ५१. जइ णं भंते ! सब्वे भवसिद्धिया जीवा यदि भदन्त ! सर्वे भवसिद्धिकाः जीवाः ५१. भंते ! यदि सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो सिज्झिस्संति, तम्हा णं भवसिद्धिय- सेत्स्यन्ति, तस्मात् भवसिद्धिक- जाएंगे तो क्या यह लोक भवसिद्धिक जीवों विरहिए लोए भविस्सइ ? विरहितः लोकः भविष्यति? से रहित नहीं हो जायेगा? नो इणढे समहे॥ नो अयमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। ति ५२. से केणं खाइणं अट्ठणं भंते ! एवं तत् केन 'खाइणं' अर्थेन भदन्त ! बुचइ-सव्वेवि णं भवसिद्धिया जीवा एवमुच्यते-सर्वेऽपि भवसिद्धिकाः जीवाः सिज्झिस्संति, नो चेव णं भवसिद्धिय- सेत्स्यन्ति, नो चैव भवसिद्धिकविरहितः विरहिए लोए भविस्सइ? लोकः भविष्यति? जयंती ! से जहानामए सव्वागाससेढी जयन्ति ! अथ यथानामकः सर्वाकाशसिया-अणादीया अणवदग्गा परित्ता श्रेणिः स्यात्-अनादिका अनवदग्रा परिवुडा, सा णं परमाणुपोग्गलमेत्तेहिं परीता परिवृता, सा परमाणुपुद्गलखंडेहिं समए-समए अवहीरमाणी- मात्रैः खण्डे समये-समये अपहियमाणी अवहीरमाणी अणंताहिं ओसप्पिणी- अपह्रियमाणी अनन्ताभिः अवसर्पिणीउस्सप्पिणीहिं अवहीरंति, नो चेव णं उत्सर्पिणीभिः अपहियन्ते, नो चैव अवहिया सिया। अपहृता स्यात्। से तेणटेणं जयंती ! एवं वुच्चइ-सव्वेवि तत् तेनार्थेन जयन्ति! एवमुच्यतेणं भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति, सर्वेऽपि भवसिद्धिकाः जीवाः नो चेव णं भवसिद्धियविरहिए लोए सेत्स्यन्ति, नो चैव भवसिद्धिकभविस्सइ॥ विरहितः लोकः भविष्यति। ५२. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जायेंगे तो यह लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित नहीं होगा? जयंती ! जैसे कोई सर्व-आकाश श्रेणी है-अनादि, अंतहीन, अपरिमित और अन्य श्रेणियों से परिवृत। उस श्रेणी से एक परमाणु-पुद्गल जितना खण्ड प्रति समय अपहृत करें तो भी अनंत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में उनका अपहार नहीं होता। जयन्ती ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जायेंगे फिर भी यह लोक भवसिद्धिक जीवों से विरहित नहीं होगा। भाष्य 1. सूत्र १६-५२ एक शिशु युवा बनता है, यह 'अभूतभवन्' परिणाम है। भवसिद्धिक भगवती के प्रथम शतक में भवसिद्धिक को शाश्वत बतलाया। अभूतभवनात्मक परिणाम नहीं है। यदि सर्व भवसिद्धिक जीव सिद्ध गया है। अनुयोगद्वार के अनुसार भवसिद्धिक अनादि पारिणामिक होंगे तो यह संसार भवसिद्धिक (मोक्षगमन योग्य) जीवों से खाली हो है। प्रस्तुत प्रकरण का निर्देश है-भवसिद्धिक स्वभावतः होता है, जायेगा। इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा-जयंती ! संपूर्ण परिणामतः नहीं होता। अनुयोगद्वार में अनादि पारिणामिक भाव के आकाश की एक श्रेणी है-अनादि, अंतहीन, अपरिमित और अन्य प्रकरण में भवसिद्धिक का उल्लेख है। प्रस्तुत सूत्र में सादि श्रेणियों से परिवृत। उस श्रेणी से एक परमाण-पुदगल जितना खंड पारिणामिक भाव की अपेक्षा से 'परिणाम से नहीं होता' का निर्देश प्रतिसमय अपहत करें तो भी अनंत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल है। इसलिए इन दोनों में परस्पर विरोध नहीं है। वृत्तिकार के अनुसार में उनका अपहार नहीं होता। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-सब जैसे पुदगल स्वभाव से मूर्त होता है वैसे ही भवसिद्धिक स्वभाव से भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएंगे फिर भी यह लोक भवसिद्धिक होता है। वृत्तिकार ने परिणाम का अर्थ 'अभूतभवन्' किया है, जैसे जीवों से विरहित नहीं होगा। १. भ. १/२६२ एवं उसका भाष्य। ३. भ. वृ. १२/४६-५२ : स्वभावतः पुद्गलानां मूर्तत्ववत्। २. अनु सू. २८८ ' 'परिणामओ' ति परिणामेन अभूतस्य भवनेन पुरुषस्य तारुण्यवत्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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