________________
भगवई
३३६
श. १५ : सू. १८७,१८८
माणुस्सं विग्गहं लभिहिति, लभित्ता मानुष्यं विग्रहं लप्स्यते, लब्ध्वा केवला केवलं बोहिं बुझिहिति, बुज्झित्ता मुंडे बोधिं 'बुज्झिहिति' 'बुज्झित्ता' मुण्डः भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइहिति। भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजिष्यति। तत्थ वि य णं अविराहियसामण्णे तत्रापि अविराधितश्रामण्यः कालमासे कालमासे कालं किच्चा सम्बट्टसिद्धे कालं कृत्वा सर्वार्थसिद्धे महाविमाने महाविमाणे देवत्ताए उववन्जिहिति। देवत्वेन उपपत्स्यते। से णं तओहिंतो अणंतरं चयं चइत्ता सः तस्मात् अनन्तरं च्यवं च्युत्वा महाविदेहे वासे जाई इमाई कुलाई महाविदेहे वर्षे यानि इमानि कुलानि भवंति–अढाई जाव अपरिभूयाई, तहप्प- भवन्ति-आयानि यावत् अपरिभूतानि, गारेसु कुलेसु पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति, एवं तथाप्रकारेषु कुलेषु पुत्रत्वेन जहा ओववाइए दढप्पइण्णवत्तब्वया प्रत्याजनिष्यते, एवं यथा औपपातिके सच्चेववत्तव्वया निरवसेसा भाणियन्चा दृढ़प्रतिज्ञस्य वक्तव्यता सा चैव जाव केवलवरनाणदंसणे समपन्जिहिति॥ वक्तव्यता निरवशेषा भणितव्या यावत्
केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पत्स्यते।
शरीर को प्राप्त करेगा, प्राप्त कर सम्पूर्ण बोधि का अनुभव करेगा, अनुभव कर मुंड होकर अगार धर्म से अनगार धर्म में प्रव्रजित होगा। वहां पर भी श्रामण्य की विराधना न कर कालमास में काल को प्राप्त कर सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देव के रूप में उपपन्न होगा। तदनन्तर वह जीव वहां से च्यवन कर महाविदेह वर्ष में जो ये कुल हैं-आढ्य यावत् अपरिभूत, उन कुलों में पुत्रत्व के रूप में जन्म लेगा, इसी प्रकार जैसी औपपातिक में दृढ़प्रतिज्ञ की वक्तव्यता है वही वक्तव्यता अविकल रूप से बतलानी चाहिए यावत् उत्तम केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्राप्त करेगा।
१८७. तए णं से दढप्पइण्णे केवली अप्पणो ततः सः दृढ़प्रतिज्ञः केवली आत्मनः १८७. उसके पश्चात् वह दृढ़प्रतिज्ञ केवली तीतद्धं आभोएहिइ, आभोएत्ता समणे अतीताध्वानम् आभोगयिष्यति, अपना अतीतकाल देखेगा, देख कर श्रमणनिग्गंथे सदावेहिति, सदावेत्ता एवं आभोग्य श्रमणान् निर्ग्रन्थान् निर्ग्रथों को बुलाएगा, बुला कर इस प्रकार वदिहिइ-एवं खलु अहं अज्जो! इओ शब्दयिष्यति, शब्दयित्वा एवं वदिष्यति- कहेगा-आर्यो! मैं ही निश्चित चिर अतीत चिरातीयाए अद्धाए गोसाले नाम एवं खलु अहम् आर्य! इतः चिरातीते काल में गोशाल नामक मंखलिपुत्र थामंखलिपुत्ते होत्था-समणधायए जाव अध्वनि गोशालः नाम मंखलिपुत्रः श्रमण-घातक यावत् छद्मस्थ-अवस्था में ही छउमत्थे चेव कालगए, तम्मूलगं च णं । आसीत्-श्रमणघातकः यावत् छद्मस्थः काल को प्राप्त किया था, आर्यो! उसके अहं अज्जो अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चैव कालगतः, तन्मूलकं च अहम् आर्य! फलस्वरूप मैंने (गोशाल के जीव ने) आदिचाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टिए, तं मा अनादिकं 'अणवदगं' दीर्घाध्वानं अन्त-हीन दीर्घपथ वाले चतुर्गत्यात्मक णं अज्जो तुभं केइ भवतु चतुरन्तसंसारकंतारमनुपरिवर्तितः संसार-कान्तार में पर्यटन किया, इसलिए आयरियपडिणीए उबज्झायपडिणीए (अनुपर्यटितः), तत् मा आर्य! युष्माकं आर्यो! तुम में से कोई आचार्य का प्रत्यनीक, आयरियउवज्झायाणं अयसकारए कोऽपि भवतु आचार्यप्रत्यनीकः । उपाध्याय का प्रत्यनीक, आचार्य और अवण्णकारए अकित्तिकारए, मा णं से वि उपाध्यायप्रत्यनीक: आचार्योपाध्यायानाम् उपाध्याय का अयशकारक, अवर्णकारक एवं चेव अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं अयशकारकः अवर्णकारक: अकीर्ति- और अकीर्तिकारक मत बनना, और इस चाउरतससारकतार अणुपरियट्टिहिति, कारकः, मा सः अपि एवं चैव अनादिकम् प्रकार आदि-अन्त-हीन दीर्घपथ वाले जहा णं अहं॥
'अणवदग्गं' दीर्घाध्वानं चतुरन्तं चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में पर्यटन मत संसार-कान्तारं अनुपरिवर्तिष्यते, यथा करना, जैसे कि मैंने (किया)। अहम्।
१८८. तए णं ते समणा निग्गंथा ततः ते श्रमणाः निर्ग्रन्थाः दृढप्रतिज्ञस्य १८८. उसके पश्चात् वे श्रमण निग्रंथ दृढप्रतिज्ञ दढप्पइण्णस्स केवलिस्स अंतियं एयमढे केवलिनः अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा केवली के पास इस अर्थ को सुनकर और सोचा निसम्म भीया तत्था तसिया निशम्य भीताः त्रस्ताः तृषिताः अवधारण कर भीत, त्रस्त, तृषित और संसारभविग्गा दढप्पइण्णं केवलिं (तसिया) संसारभयोद्विग्नाः दृढ़प्रतिज्ञ संसार के भय से उद्विघ्न होकर, द्रढ़प्रतिज्ञ वंदिहिंति नमंसिहिति, वंदित्ता नमंसित्ता केवलिनं वन्दिष्यन्ते नमस्यिष्यन्ति, केवली को वन्दन करेंगे, नमस्कार करेंगे, तस्स ठाणस्स आलोएहिति पडिक्क- वन्दित्वा नमस्यित्वा तस्य स्थानस्य वन्दन-नमस्कार कर उस स्थान की मिहिंति निदिहिंति जाव अहारियं आलोचयिष्यन्ति प्रतिक्रमिष्यन्ति आलोचना करेंगे, प्रतिक्रमण करेंगे, निन्दा पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवन्जिहिति॥ निन्दिष्यन्ति यावत् यथार्ह (जहारियं) करेंगे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त तपःकर्म
प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपत्स्यन्ते। को स्वीकार करेंगे।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org|