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भगवई
१०३
श. १२ : उ. १०: सू. २२५
४. देसे आदिटे सम्भावपज्जवे देसे आदिढे असम्भावपज्जवे
४. देशः आदिष्टः सदभावपर्यवः देश: आदिष्टः असद्भावपर्यव:
एवं दुयगसंजोगे सव्वे पडंति, एवं द्विकसंयोगे सर्वे पतन्ति, त्रिकसंयोगे तियसंजोगे एक्को न पडइ। एक: न पतति। छप्पएसियस्स सव्वे पडंति। जहा षट् प्रदेशिकस्य सर्वे पतन्ति। यथा षट् । छप्पएसिए एवं जाव अणंतपएसिए। प्रदेशिकः एवं यावत् अनन्तप्रदेशिकः।
४. पंच-प्रदेशी स्कंध का एक देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, एक देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है। इस प्रकार द्विक्-संयोग में सर्व भंग आते हैं। त्रिक-संयोग में एक-आठवां भंग नहीं आता। षट्प्रदेशी स्कंध में सर्व भंग आते हैं। जैसेषट्प्रदेशी स्कंध की वक्तव्यता, इसी प्रकार यावत् अनंतप्रदेशी स्कंध की वक्तव्यता।
भाष्य
१. सूत्र २११-२२५
प्रस्तुत आलापक में 'आया' 'नो आया' और सिय ये तीन शब्द विमर्शनीय हैं। यहां आया-आत्मा शब्द सत् के अर्थ में प्रयुक्त है। नो आत्मा का अर्थ है असत्। 'सिय' शब्द सर्वथा एकांत का निषेध करने वाला है। यह अनेकांत का द्योतक है। इसी के आधार पर स्याद्वाद का सिद्धांत प्रतिष्ठित हुआ। नयचक्र के अनुसार स्यात् शब्द नियम का निषेध करने वाला, वस्तु की सापेक्षता को सिद्ध करने वाला है। ___स्यात् के आधार पर पृथ्वी, परमाणु, स्कंध आदि के सत्असत् स्वरूप का निर्णय किया गया है। इस निर्णय की प्रक्रिया में अनेक विकल्प/भंग बनते हैं।
रत्नप्रभा पृथ्वी१. स्यात सत् है। २. स्यात् सत् नहीं है। ३. स्यात् अवक्तव्य है।
वह अपने पर्यायों के आदेश (अपेक्षा) से सत् है। पर पर्यायों के आदेश से सत नहीं है। स्व और पर-दोनों पर्यायों के युगपत आदेश से वह अवक्तव्य है।
परमाणुस्यात् सत् है। स्यात् सत् नहीं है। स्यात् अवक्तव्य है। द्विप्रदेशी स्कंध के छह भंग होते हैं१. स्यात् सत् है।
२. स्यात् सत् नहीं है। ३. स्यात् अवक्तव्य है। ४. स्यात् सत् है, स्यात् सत् नहीं है। ५. स्यात् सत् है, स्यात् अवक्तव्य है। ६. स्यात् सत् नहीं है, स्यात् अवक्तव्य है।
द्विप्रदेशी स्कंध दो परमाणुओं के मिलन से बनता है। उसके दो अंश हैं इसलिए उसकी सप्तभंगी नहीं होती। त्रिप्रदेशिक आदि स्कंधों में सप्तभंगी होती है। त्रिप्रदेशी, चतुष्प्रदेशी और पंचप्रदेशी स्कंधों में अनेक भंगों की रचना उनके अंशों के आधार पर की गई है।
प्रस्तुत आलापक में अंशों के आधार पर भंगों की रचना की गई है इसलिए द्विप्रदेशी स्कंध में सप्तभंगी नहीं, त्रिप्रदेशी आदि स्कंधों में सप्तभंगी हो सकती है। दार्शनिक युग में वस्तु के धर्मों के आधार पर सप्तभंगी की रचना की गई फलतः प्रत्येक धर्म की सप्तभंगी बनती है।
त्रिप्रदेशी स्कंध के तेरह भंग होते हैं१. स्यात् सत् है। २. स्यात् सत् नहीं है। ३. स्यात् अवक्तव्य है। ४. स्यात् सत् है, स्यात् सत् नहीं है। ५. स्यात् सत् है, स्यात् सत् नहीं हैं। ६. स्यात् सत् हैं, स्यात् सत् नहीं है। ७. स्यात् सत् है, स्यात् अवक्तव्य हैं। ८. स्यात् सत् है, स्यात् अवक्तव्य हैं।
१. नयचक्र गाथा २५३
नियम णिसेहण सीलो णिपादणादो य जो हु खलु सिद्धो।
सो सियसद्दो भणियो, जो सावेक्खं पसाहेदि। २. भ. वृ. १२/२१२-'अप्पणो आइडेत्ति आत्मनः-स्वस्य रत्नप्रभाया एव वर्णादिपर्यायैः 'आदिष्टे आदेशे सति तैय॑पदिष्टा सतीत्यर्थः आत्मा भवति, स्वपर्यायापेक्षया सतीत्यर्थः, परस्स आइडे नोआय' त्ति परस्य शर्करादिपृथिव्यन्तरस्य पर्यायैरादिष्टे-आदेशे सति तैर्व्यपदिष्टा सतीत्यर्थः नो आत्माअनात्मा भवति, पररूपाऽपेक्षयाऽसतीत्यर्थः, तदुभयस्य आदिढे अवत्तव्यं'
ति तयोः-स्वपरयोरुभयं तदेव वोभयं तदुभयं तस्य पर्यायैरादिष्टे-आदेशे
सति तदुभयपर्यायैर्व्यपदिष्टेत्यर्थः अवक्तव्यं अवाच्यं वस्तु स्यात्। ३. वही, १२/२१८,२१६-द्विप्रदेशिके व्यंशत्वादस्य त्रिप्रदेशिकादौ तु
स्यादिति सप्तभङ्गी। ४. प्रमाण नयतत्त्यालोक ४/१४-एकत्र वस्तुन्येकैक धर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात् कारांकितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभंगी।
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