SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई ३०१ श. १५ : सू. १२२-१२६ विचित्र-सी लगती हैं। वृत्तिकार के अनुसार-गोशालक अपनी ही तेजोलेश्या द्वारा दग्ध हो जाने पर उसके दाह का उपशम करने के लिए मद्यपान, गीत, नृत्य और (हालाहला के साथ) अंजलिकर्म आदि का सेवन कर रहा था। उसने अपने इन दोषों को छिपाने के लिए आठ चरमों' का काल्पनिक सिद्धांत गढ़ लिया तथा ऐसा निरूपण किया कि निर्वाण से पूर्व इस प्रकार के 'चरमों' का होना अवश्यंभावी होता है। आठ में से चार चरमों का संबंध व्यक्तिशः गोशालक की उस समय की प्रवृत्ति के साथ जुड़ता है तथा शेष चारों का संबंध ऐतिहासिक घटनाओं के साथ है।' इन घटनाओं में महाशिलाकंटक संग्राम तथा सेचनक गंधहस्ती के ऐतिहासिक प्रसंग महावीर और गोशालक के युग की बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटनाओं से जुड़े हुए हैं। सोलह जनपद सोलह जनपदों के नामों का भारतीय प्राचीन इतिहास एवं महावीर (या बुद्ध) कालीन भूगोल के अध्ययन की दृष्टि से बहुत बड़ा महत्त्व है। तेजोलेश्या की ऊर्जा द्वारा इन सोलह जनपदों को भस्म कर देने की क्षमता आधुनिक अणु-अस्त्रों एवं नाभिकीय शस्त्रों के साथ तुलनीय है। १२२. से किं तं पाणए? पाणए चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा१. गोपुट्ठए २. हत्थमदियए ३. आत- वतत्तए ४. सिलापन्भट्ठए। सेत्तं पाणए॥ अथ किं तत् पानकम्? पानकं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा१. गो-पृष्ठकम् २. हस्तमर्दितकम् ३. आतपतप्तकम् ४. शिलाप्रभ्रष्टकम्। १२२. वह पानक क्या है? पानक चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-१. गाय की पीठ से गिरा हुआ २. हाथ के मर्दन से उत्पन्न ३. सूर्य के आतप से तप्त ४. शिला से प्रभ्रष्ट। यह है पानका १२३. से किं तं अपाणए? अपाणए चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा१. थालपाणए २. तयापाणए ३. सिंबलिपाणए ४. सुद्धपाणए॥ अथ किं तत् अपानकम्? अपानकं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा१. स्थालपानकम् २. त्वचपानकम् ३. शिम्बलिपानकम् ४. शुद्धपानकम्। १२३. वह अपानक क्या है? अपानक चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-१. स्थाल पानक २. त्वचा पानक ३. सिंबलि (मटर आदि की फली) का पानक ४. शुद्ध पानका १२४. से किं तं थालपाणए? थालपाणए-जे णं दाथालगं वा दावारगं वा दाकुंभगं वा दाकलसं वा सीतलगं उल्लगं हत्थेहिं पराफुसइ, न य पाणियं पियइ। सेत्तं थालपाणए॥ अथ किं तत् स्थालपानकम्? स्थालपानकम्-यः दकस्थालकं वा दकवादकं वा दककुंभकं वा दककलशं वा शीतलकं आर्द्रकं हस्ताभ्यां परामृशति, न च पानीयं पिबति। तद् तद् स्थालपानकम्। १२४. वह स्थाल-पानक क्या है? स्थाल-पानक-पानी से आर्द्र स्थाल, बारक (सिकोरा), घड़ा, कलश अथवा शीतलक, जिसका हाथ से स्पर्श किया जा सके, किन्तु जिसे पीया न जा सके। यह है स्थालपानक। १२५. से किं तं तयापाणए? अथ किं तत् त्वचपानकम्? तयापाणए-जे णं अंबं वा अंबाडगं वा त्वचपानकम्-यः आम्र वा आम्रातकं वा जहा पओगपदे जाव बोरं वा तेंबरुयं वा यथा प्रयोगपदे यावत् बदरं वा तरुणगं आमगं आसगंसि आवीलेति _ 'तेंबरूयं' वा तरुणकम् आमकं पवीलेति वा, न य पाणिय पियइ। सेत्तं आस्यके आपीडयति वा प्रपीडयति तयापाणए॥ वा, न च पानीयं पिबति। तदेतद् त्वचपानकम्। १२५. वह त्वचा-पानक क्या है? त्वचा-पानक-आम्र, अम्बाडक आदि प्रज्ञापना प्रयोग-पद (१६/५५) की भांति यावत् बेर अथवा तिन्दुरूक, जो तरुण और अपक्व है, उसे मुख में रखकर स्वल्प चूसे, अथवा विशेष रूप से चूसे किन्तु उसका पानी न पी सके। यह है त्वचा-पानक। १२६. से किं तं सिंबलिपाणए? अथ किं तत् शिम्बलिपानकम्? १२६. वह सिंबलि-पानक क्या है? सिंबलिपाणए-जे णं कलसंगलियं वा शिम्बलिपानकम-यः कल 'संगलियं' सिंबलि-पानक-ग्वार की फली, मूंग की फली १. भ. वृ. १५/१२१-'चरमे' त्ति न पुनरिदं भविष्यतीतिकृत्वा चरम, तत्र मगध साम्राज्य और वज्जी गणतंत्र के बीच हुए युद्धों का पूरा विवरण पानकादीनि चत्वारि स्वगतानि, चरमता चैषां स्वस्य निर्वाणगमनेन विस्तार से उपलब्ध है। भारतीय इतिहास के लिए विद्वज्जनों के लिए यह पुनरकरणात्, एतानि च किल निर्वाण-काले जिनस्यावश्यम्भावीनीति विलक्षण उल्लेख शोध-कार्य की दृष्टि से अनुसंधेय है। नास्त्येतेषु दोष इत्यस्य तथा नाहमेतानि दाहोपशममायोपसेवामीत्स्य चार्थस्य ३. कूणिक अजातशत्रु के भाई हल्ल और विहल्ल के पास यह विलक्षण प्रकाशनार्थत्वादवद्यप्रच्छादनार्थानि भवन्ति, पुष्कलसंवर्तकादीनि तु त्रीणि हाथी एवं देव प्रदत हार थे, जिन्हें हड़पने के उद्देश्य से यह भयंकर युद्ध बाह्यानि प्रकृतानुपयोगेऽपि चरमसामान्याज्जनचित्तरञ्जनाय चरमाण्युक्तानि। किया गया था। विस्तृत वर्णन के लिए देखें-उत्तराध्ययन, लक्ष्मीवल्लभकृत २. भ. वृ. ७/१७३-२१० तथा जैन आगम निरयावलिया, १/६४-१४१ में वृत्ति, पत्र १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy