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________________ भगवई ३५३ श. १६ : उ. २ : सू. ३२-३४ भाष्य १. सूत्र २८-३१ जरा शब्द के द्वारा शारीरिक दुःखों की ओर संकेत किया गया दुःख के दो प्रकार हैं-शारीरिक और मानसिक। जरा बुढ़ापे का है। शोक शब्द के द्वारा मानसिक दुःखों की ओर संकेत किया गया है। वाचक है। बुढ़ापे को दुःख माना गया है। अमनस्क जीव शारीरिक दुःख का वेदन करते हैं इसलिए उनके जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य । जरा होती है, शोक नहीं होता। समनस्क जीव जरा और शोक-दोनों __ अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतबो।' का वेदन करते हैं। ३२. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव पज्जुवासति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् पर्युपास्ते। ३२. भंते! वह ऐसा ही है। भंते वह ऐसा ही है। यह कहकर यावत् पर्युपासना करने लगे। सक्कस्स ओग्गह-अणुजाणणा-पदं शक्रस्य अवग्रह-अनुज्ञापना-पदम् शक्र का अवग्रह-अनुज्ञापन पद ३३. तेणं कालेणं तेण समएणं सक्के तस्मिन् काले तस्मिन् समये शक्रः ३३. उस काल उस समय वज्रपाणि, पुरन्दर देविंदे देवराया बज्जपाणी पुरंदरे जाव देवेन्द्रः देवराजः वज्रपाणिः पुरन्दरः देवराज देवेन्द्र शक्र यावत् दिव्य भोगार्ह भोगों दिव्वाई भोगभोगाई भंजमाणे विहरइ। यावत् दिव्यान् भोगभोगान् भुजानः को भोगता हुआ विहरण कर रहा था। इस इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं ।। विहरति। इमं च केवलकल्पं जम्बूद्वीपं सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप को विपुल अवधिज्ञान विपुलेण ओहिणा आभोएमाणे- द्वीपं विपुलेन अवधिना आभोगयन् के द्वारा जानता हुआ, जानता हुआ देखता आभोएमाणे पासति, एत्थ णं समणं आभोगयन् पश्यति, अत्र श्रमणं भगवन्तं है-यहां श्रमण भगवान् महावीर जम्बूद्वीप द्वीप भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दीवे। एवं जहा महावीरं जम्बूद्वीपे द्वीपे। एवं यथा ईशाने में है। इस प्रकार जैसे तृतीय शतक में ईशान ईसाणे तइयसए तहेव सक्के वि, तृतीयशते तथैव शक्रोऽपि, की वक्तव्यता, उसी प्रकार शक्र की नवरं-आभिओगे ण सदावेति, हरी नवरम-आभियोगान न शब्दयति, हरिः । वक्तव्यता, इतना विशेष है-शक्र पायत्ताणियाहिबई, सुघोसा घंटा, पादातानिकाधिपतिः सुघोषा घण्टा, आभियोगिक देवों को आमन्त्रित नहीं करता। पालओ विमाणकारी, पालगं विमाणं पालकः विमानकारी, पालकं विमानम्, उसकी पदाति सेना का अधिपति हरिणगमेषी उत्तरिल्ले निज्जाणमग्गे, दाहिण- औदीच्ये निर्माणमार्गः, दक्षिणपौरस्त्ये, देव, सुघोषा घंटा, विमान-निर्माता पालक, पुरथिमिल्ले रतिकरपव्वए, सेसं तं चेव रतिकरपर्वतः शेषं तत् चैव यावत् नामकं । विमान का नाम पालक, निर्गमन का मार्ग जाव नामगं सावेत्ता पज्जुवासति। श्रावयित्वा पर्युपास्ते। धर्मकथा यावत् उत्तर दिशा। दक्षिण-पूर्व में रतिकर पर्वत। शेष धम्मकहा जाव परिसा पडिगया॥ परिषद् प्रतिगता। पूर्ववत् यावत् नाम बताकर पर्युपासना की। भगवान् ने धर्म कहा यावत् परिषद् लौट गई। ३४. तए णं से सक्के देविंदे देवराया ततः सः शक्रः देवेन्द्रः देवराजः श्रमणस्य समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा धम्म सोचा निसम्म हट्टतुट्टे समणं भगवं निशम्य हृष्टतुष्टः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वंदइ नमसइ बंदित्ता नमंसित्ता महावीरं वन्दते नमस्यति, वंदित्वा एवं वयासी-कतिविहे ण भंते ! ओग्गहे. नमस्यित्वा एवमवादीत्-कतिविधः पण्णत्ते? भदन्त! अवग्रहः प्रज्ञप्तः? सक्का! पंचविहे ओग्गहे पण्णत्ते, तं। शक्र! पञ्चविधः अवग्रहः प्रज्ञप्तः, जहा-देविंदोग्गहे, रायोग्गहे, गाहावइ. तद्यथा-देवेन्द्रावग्रहः, राजावग्रहः, ओग्गहे, सागारियओग्गहे, साहम्मि- गाथापत्यवग्रहः, सागारिकावग्रहः, ओग्गहे। साधर्मिकावग्रहः। जे इमे भंते! अज्जत्ताए समणा निग्गथा ये इमे भदन्त! आर्यतया श्रमणाः विहरंति एएसि णं ओग्गहं निर्ग्रन्थाः विहरन्ति एतेभ्यः अवग्रहम् अणुजाणामीति कट्ट समणं भगवं अनुजानामि इति कृत्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा तमेव दिव्वं जाणविमाणं गृहति, दहित्ता नमस्यित्वा तदेव दिव्यं यानविमानम् १. उत्तर. १६/१५॥ ३४. देवराज देवेन्द्र शक्र श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर, हृष्ट तुष्ट हो गया। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर इस प्रकार कहा-भंते ! अवग्रह कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? शक्र! अवग्रह पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेदेवेन्द्र अवग्रह, राज-अवग्रह,गृहपति-अवग्रह, सागारिक-अवग्रह, साधर्मिक-अवग्रह। भंते! जो ये श्रमण निग्रंथ आर्य रूप में विहरण करते हैं, उन्हें अवग्रह की अनुज्ञा देता हूं। यह कहकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर उसी दिव्य यान-विमान पर चढा, चढकर जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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