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भगवई
श. १२ : उ. ७ : सू. १३५-१३६
सयसहस्सेस् एगमेगसि निरयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए, नरगत्ताए, नेरइयत्ताए उववन्नपुग्वे ? हंता गोयमा! असई अदुवा अणतखुत्तो॥
शतसहसेष एकैकस्मिन निरयावासे पृथिवीकायिकत्वेन यावत् वनस्पतिकायिकत्वेन, नरकत्वेन नैरयिकत्वेन उपपन्नपूर्वः? हन्त गौतम! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः।
नरकावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में नरकावास के जीव के रूप में और नैरयिक के रूप में उपपन्न पूर्व है? हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार |
१३५. सब्बजीवा वि णं भंते ! इमीसे सर्वे जीवाः अपि भदन्त! अस्यां रत्न- १३५. भंते ! क्या सब जीव इस रत्नप्रभा पृथ्वी
रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए प्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत्यु के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् नरकावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के निरयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव निरयावासे पृथिवीकायिकत्वेन यावत् रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में, वणस्सइकाइयत्ताए, नरगत्ताए, वनस्पतिकायिकत्वेन, नरकत्वेन नरकावास के जीव के रूप में और नैरयिक नेरइयत्ताए उववन्नपुब्वे ? नैरयिकत्वेन उपपन्नपूर्वः?
के रूप में उपपन्न पूर्व है ? हंता गोयमा! असई अदुवा हन्त गौतम! असकृत् अथवा हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार। अणंतखुत्तो॥
अनन्तकृत्वः।
१३६. अयण्णं भंते ! जीवे सक्करप्पभाए अयं भदन्त! जीवः शर्कराप्रभायां १३६. भंते ! क्या यह जीव शर्कराप्रभा पृथ्वी के
पुढवीए पणुवीसाए निरयावाससय- पृथिव्यां पञ्चविंशतिषु निरयावासशत- पचीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक सहस्सेसु एगमेगसि निरयावासंसि? सहस्रेषु एकैकस्मिन निरयावासे?
नरकावास में रहने वाले....? एवं जहा रयणप्पभाए तहेव दो एवं यथा रत्नप्रभायां तथैव द्वौ इसी प्रकार जैसे-रत्नप्रभा पृथ्वी की आलावगा भाणियव्वा। एवं जाव आलापको भणितव्यौ। एवं यावत् वक्तव्यता है वैसे ही दो आलापक वक्तव्य धूमपभाए॥ धूमप्रभायाम् ।
हैं। इसी प्रकार यावत् धूमप्रभा की वक्तव्यता।
१३७. अयण्णं भंते ! जीवे तमाए पुढवीए
पंचूणे निरयावाससयसहस्से एगमेगसि निरयावासंसि ?
अयं भदन्त! जीवः तमायां पृथिव्यां पञ्चोने निरयावासशतसहस्रे एकैकस्मिन् निरयावासे?
१३७. भंते ! क्या यह जीव तमःप्रभा पृथ्वी के निन्यानवें हजार नौ सौ पिचानवें नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् उपपन्नपूर्व है। शेष वर्णन पूर्ववत्।
सेसं तं चेव॥
शेषं तत् चैव।
१३८. अयण्णं भंते ! जीवे अहेसत्तमाए
पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महति महालएसु महानिरएसु एगमेगंसि निरयावासंसि ? सेसं जहा रयणपभाए॥
अयं भदन्त! जीवः अधःसप्तम्यां पृथिव्यां पञ्चसु अनुत्तरेषु महामहत्सु महानिरयेषु एकैकस्मिन् निरयावासे? शेष यथा रत्नप्रभायाम् ।
१३८. भंते ! क्या यह जीव अधःसप्तमी पृथ्वी के
पांच अनुत्तर विशालतम महानरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में रहने वाले.....? शेष वर्णन रत्नप्रभा की भांति वक्तव्य है।
१३६. अयण्णं भंते! जीवे चउसट्टीए अयं भदन्त ! जीवः चतुष्षष्टिषु असुर-
असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि कुमारावासशतसहसेसु । एकैकस्मिन् असुरकुमारावासंसि पुढविक्काइयत्ताए असुरकुमारावासे पृथिवीकायिकत्वेन जाव वणस्सइ काइयत्ताए देवत्ताए यावत् वनस्पतिकायिकत्वेन देवत्वेन देवित्ताए आसण-सयण-भंडमत्तो- __ देवीत्वेन आसन-शयन-भाण्डामत्रोपवगरणत्ताए उववन्नपुब्वे ?
करणत्वेन उपपन्नपूर्वः? हंता गोयमा ! असई, अदुवा हन्त गौतम! असकृत् अथवा अणंतखुत्तो।
अनन्तकृत्वः।
१३६. भंते ! क्या यह जीव चौसठ लाख असुर
कुमारावासों में से प्रत्येक असुरकुमारावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में, देव के रूप में देवी के रूप में, आसन, शयन, भांड, अमत्र
और उपकरण के रूप में उपपन्न पूर्व है। हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार।
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