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प्रस्तावना
[ ५९ १०. उदय-अनुयोगद्वार- इसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके उदयका वर्णन है।
११. मोक्ष-अनुयोगद्वार- इसमें देशनिर्जरा और सकलनिर्जराके द्वारा परप्रकृतिसंक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण और स्थितिगलनसे प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका आत्मासे भिन्न होनेरूप मोक्षका वर्णन किया गया है।
१२. संक्रम-अनुयोगद्वार- इसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके संक्रमणका वर्णन किया गया है।
१३. लेश्या-अनुयोगद्वार- इसमें कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पन और शुक्ल इन छह द्रव्यलेश्याओंका वर्णन है।
१४. लेश्याकर्म-अनुयोगद्वार- इसमें अन्तरंग छह भावलेश्याओंसे परिणत जीवोंके बाह्य कार्योंका प्रतिपादन किया गया है ।
१५. लेश्यापरिणाम-अनुयोगद्वार- कौनसी लेश्या किस प्रकारकी वृद्धि और हानिसे परिणत होती है, इस बातका विवेचन इस अधिकारमें किया गया है ।
१६. सातासात-अनुयोगद्वार- इसमें एकान्त सात, अनेकान्त सात, एकान्त असात और अनेकान्त असातका चौदह मार्गणाओंके आश्रयसे वर्णन किया गया है । जो कर्म सातारूपसे बद्ध होकर यथावस्थित रहते हुए वेदा जाता है, वह एकान्त सातकर्म है और इससे अन्य अनेकान्त सातकर्म है। इसी प्रकार जो कर्म असातारूपसे बद्ध होकर यथावस्थित रहते हुए वेदा जाता है, वह एकान्त असातकर्म है और इससे अन्य अनेकान्त असातकर्म है ।
१७. दीर्घ-हस्व-अनुयोगद्वार- इसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्धका आश्रय लेकर उनकी दीर्घता और व्हस्वताका विवेचन किया गया है। आठों मूल प्रकृतियोंके बन्ध होनेपर प्रकृतिदीर्घ और उससे कम प्रकृतियोंका बन्ध होनेपर नो प्रकृतिदीर्घ कहलाता है। इसी प्रकार एक प्रकृतिके बन्ध होनेपर प्रकृति हस्व और उससे अधिकका बन्ध होनेपर नो प्रकृति-हस्व होता है। इसी प्रकार स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्धकी मूल और उत्तर प्रकृतिगत दीर्घता और हस्वता जानना चाहिए।
१८. भवधारणीय-अनुयोगद्वार- इसमें ओघभव, आदेशभव और भवग्रहणभवके भेदसे भवके तीन भेदोंका विस्तारसे विवेचन किया गया है। आठ कर्म और आठ कर्मोंके निमित्तसे उत्पन्न हुए जीवके परिणामको ओघभव कहते हैं। चार गतिनामकर्म और उनसे उत्पन्न हुए जीवके
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