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चरकसंहिता-भा० टी० रखते हुए "वमन, विरेचन, नस्य, निरूहण, अनुवासन" यह पञ्चकर्म करावे ।
औषधीकी मात्रा और समयका विचार युक्तिके अधीन है जो बुद्धिमान् वैद्य युक्तिद्वारा विचारकर काम करता है उसीको सिद्धिकी प्राप्ति होती है । औषधी जाननेवाले वैद्याम युक्तिक्रम जाननेवाला वैद्य सदा शिरोमणि रहताह ॥ १२॥ १३ ॥ १४ ॥
___ अनेक यवागुकल्पना और उनके गुण। अतऊर्ध्वप्रवक्ष्यामियवागविविधौषधाः । विविधानांविकाराणांतत्साध्यानानिवृत्तये ॥१५॥ पिप्पलीपिप्पलीमलचव्याचत्रकनागरैः । यवागर्दीपनीयास्याच्छूलनीचोपसाधिता ॥१६॥
अव अनेक प्रकारकी औषधियोंसे सिद्ध कीहुई यवागुओंका वर्णन जो रोग युवागृद्वारा शांत होते हैं उन रोगांकी शांतिके लिये करते हैं । पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक. साठ, इन पांचोंसे सिद्ध कीहुई यवागू अग्निको दीपन करतीहै और उनके शूलको नष्ट करती है ॥ १५ ॥ १६ ॥
दधित्थविल्वचाङ्गेरीतक्रदाडिमसाधिता।
पाचनीग्राहणीपेचासवातेपाञ्चमालिका ॥ १७॥ कथ, विल्व, चूका. तक्र, अनारदाना, इनसे सिद्ध कीहुई यवागू पाचन और संग्राही है । लघुपञ्चमूलसे सिद्ध कीहुई यवागू वातातिसारमें हितकारक है ॥ १७ ॥
शालपणीवलाविल्वैःपश्चिपण्याचसाधिता।
दाडिमाम्लाहितापेयापित्तश्लेष्मातिसारिणाम् ॥१८॥ शालिपी. सी. विल्वगिरी, पृष्ठपर्णी, इनसे सिद्ध कीहुई यवागू खहे अनारे खट्टी करके पीहुई यवागू पित्त कफके अतिसारमें हितकारक है।॥ १८ ॥
पयस्यद्धोंदकेछागेहीवेरोत्पलनागरैः।
पयारक्तातिसारनीपृश्निपाचसाधिता ॥ १९ ॥ यकरके दृधम दृधत आधा जल मिलाकर उसमें सगन्धवाला,नीलोफर,सीट पृष्ठ पी. इनसे सिद्ध कोईई पेया रक्तातिसारको नष्ट करती है ॥ १९ ॥
दद्यात्सातिविपांपेयांसामेसाम्लांसनागराम्। श्वदंष्टाकण्टकारीभ्यांमत्रकृच्छ्रेसफाणिताम् ॥२०॥