Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THITI PIRHITIES DAHALARISRORTATION MARRESERTELHAR TARATHIRAIAADHANE HISCHOLDERESTHAHARIBIHARNSSIP DMISSIBUDAUSARHATARIATIHARITRA FARRUNCATNAINNERARMER EPARASHARMAHARAHARMAULI ASHEARSINHHATTARAILEPHANAGAR ENAHATHEDALLEVANSHASTRHITTHALI ANANDARI SHILLIONYMESH For Personal & Private Use Only भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् VAAAAKANPRASARASHTRA Nitilit FREELAHARINHINDISEDilit D HARATI HARitikHDINARMADEMALELIMIRATAALI SISTRiilionialiSIRTAITATiranSIDHIRDERED STRUTHORIRHIHARIRCULAHANIANTHRHITRIKA ABHINADIATRE HEADRASIRIRAMODAMASTRAMAHARASHTRIAGRAARAARAHARICHHAHUNECHENERADER HORSHAN SHADUSHARDESH [ श्रुतसागर सूरिकृत संस्कृत टीका] अष्टपाहुड श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य कृत RANULODA ANDREHRA MARHAR TETHHTHAARAMHHATTIME PRAITHER DARKARIHARANASIHDITIATMHAI NitinANHRIHARMATool HAA MANEECTIHARMA DISTRATIMADHEER HERHHANUARASIA MATHRATORS HARMARA PAREDHAMAKORNER MAITHITION THMANDAR LEARNATION BHARA HIRHA HINESHEESHABANARAMINATA IMPRATNAHAAKKA HARSE LSALI MAHARAHAMANARTHANI THURNAL PATALATHARTULASINIMALS AHILDALITHURAIPUR THATANSHIP RANTARAKHA TETAPAARATHI UITELUOTE Didi AARUSHIURVETALIMIRRITADIAN THURSHITENIELateuIOHNHA HTAHARANPATIAHHH SAHARAPAHARI Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य कृत अष्टपाहुड [ श्री श्रुतसागर सूरि कृत संस्कृत टीका ] हिन्दी अनुवादक पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर सौजन्य से श्री राजकुमार जी निर्मला देवी पांड्या जयपुर कोटा, भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् पुष्प संख्या-१० . आशीर्वाद : आचार्यश्री भरतसागर जी महाराज निर्देशिका : गणिनी आर्यिका स्याद्वादमती माताजी संयोजन : ब्र० प्रभा पाटनी B.Sc.,L.L.B. ग्रन्थ : अष्टपाहुड प्रणेता : आचार्य कुन्दकुन्द हिन्दी अनुवादक : पं० पन्नालाल साहित्याचार्य संस्करण : तृतीय संस्करण वीर निर्वाण सं०. २५३० सन् २००४ प्रकाशक : भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् पुस्तक प्राप्ति स्थान : (१) आचार्य श्री भरतसागर जी महाराज संघ (२) दिगम्बर जैन महासभा कार्यालय, ऐशबाग, लखनर (३) बीसपंथी कोठी श्री सम्मेदशिखरजी (४) अनेकान्त सिद्धांत समिति लोहारिया, ... जिला बाँसवाड़ा (राजस्थान) मूल्य :0-०० रुपये Rs 100.00 मुद्रक : वर्द्धमान मुद्रणालय - जवाहरनगर कालोनी, वाराणसी-१० For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री विमलसागरजी महाराज For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्री भरतसागरजी महाराज For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकाश्री स्याद्वादमती माताजी For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण परम पूज्य सन्मार्ग दिवाकर आचार्य श्री १०८ विमलसागर जी महाराज के पट्ट शिष्य मर्यादा शिष्योत्तम ज्ञान- दिवाकर प्रशान्तमूर्ति वाणीभूषण भुवनभास्कर समतामूर्ति गुरुदेव परम पूज्य आचार्यश्री १०८ भरतसागर जी महाराज के कर कमलों में सादर समर्पित For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव देवता स्तवन दोहा परमेष्ठी पाँचों न, जिनवाणी उरलाय । जिन मारग को धारकर, चैत्य चैत्यालय ध्याय ।। . (तर्ज - अहो जगत् गुरु देव सुनियो .........) अरिहन्त प्रभु का नाम, है जग में सुखदाई। घाति चतु क्षयकार, केवल ज्योति पाई ।। वीतराग सर्वज्ञ, हित उपदेशी कहाये । ऋद्धि-सिद्धि सब पाय, जो नित भक्ति सुध्यावे ।।१।। सिद्ध प्रभु गुणखान, सिद्धि के हो प्रदाता । कर्म आठ सब काट, करते मुक्ति वासा ।। शुद्ध बुद्ध अविकार, शिव सुखकारी नाथा । ऋद्धि-सिद्धि सब पाय, जो नित नावे माथा ।।२।। आचारज गुणकार, पञ्चाचार को पाले। शिक्षा दीक्षा प्रधान, भविजन के दुख टाले ।। अनुग्रह निग्रह काज, मुक्ति मारग चलते। ऋद्धि सिद्धि सब पाय, जो आचारज भजते ।।३।। ज्ञान ध्यान लवलीन, जिनवाणी रस पीते । अध्ययन शिक्षा प्रदान, संघ में जो नित करते ।। रत्नत्रय गुणधाम, उपदेशामृत देते। ऋद्धि सिद्धि सब पाय, जो नित उवज्झाय भजते ।।४।। For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन ज्ञान चारित्र, मुकती मार्ग कहाये। तिनप्रति साधन रूप, साधु दिगम्बर भाये ।। विषयाशा को त्याग, निज आतम चित पागे। ऋद्धि-सिद्धि सब पाय, जो नित साधु ध्यावे ।।५।। तत्त्व द्रव्य गुण सार, वीतराग मुख निकसी। गणधर ने गुणधार, जिनमाला इक गूंथी ।। 'स्याद्वाद' चिन्ह सार, वस्तु अनेकान्त गाई। ऋद्धि-सिद्धि सब पाय, जो जिनवाणी ध्याई ।।६।। . सम्यक् श्रद्धा सार, देव शास्त्र गुरु भाई। .... सम्यक् तत्त्व विचार, सम्यक् ज्ञान कहाई॥ सम्यक होय आचार, सम्यक् चारित गाई। ऋद्धि सिद्धि सब पाय, जो जिन मारग धाई ॥७॥ वीतराग जिनबिम्ब, मूरत हो सुखदाई । दर्पण सम निजबिम्ब, दिखता जिसमें भाई ।। कर्म कलंक नशाय, जो नित दर्शन पाते । ऋद्धि सिद्धि सब पाय, जो नित चैत्य को ध्याते ।।८।। वीतराग जिनबिम्ब, कृत्रिमाकृत्रिम जितने । शोभत हैं जिस देश, . हैं चैत्यालय उतने । उन सबकी जो सार, भक्ती महिमा गावे । ऋद्धि सिद्धि सब पाय, जो चैत्यालय ध्यावे ।।९।। दोहा नव देवता को नित भजे, कर्म कलंक नशाय । भव सागर से पार हो, शिव सुख में रम जाय ।। नोट-प्रतिदिन प्रात: पाठ करने से जीवन सुख, शान्ति और समृद्धि को प्राप्त होता है । For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका डॉ० फूलचन्द्र जैन प्रेमी अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी अब से कुछ दशक पूर्व तक प्रायः भारतीय और पाश्चात्य विद्वान् भारतीय संस्कृति, धर्म-दर्शन और साहित्य का मूल वेदों में देखने के अभ्यस्त थे किन्तु जब से मोहन जोदड़ो हड़प्पा से प्राप्त सामग्री आदि साक्ष्यों के अध्ययन के पश्चात् चिन्तकों के चिन्तन की दिशा ही बदल गई और अब यह प्रमाणित हो चुका है कि श्रमण-संस्कृति-वैदिक संस्कृति से पृथक् और प्राचीन है। वस्तुतः श्रमणधारा भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से ही प्रवहमान है। पुरातात्त्विक साक्ष्यों, भाषावैज्ञानिक, साहित्यिक एवं शिलालेखीय आदि अन्वेषणों के आधार पर अनेक विद्वान् अब यह मानने लगे हैं कि आर्यों के आगमन से पूर्व भारत में जो संस्कृति थी वह श्रमण या आईत्-संस्कृति होनी चाहिए । श्रमण संस्कृति अपनी जिन-विशेषताओं के कारण गरिमा-मण्डित रही है, उनमें श्रम, संयम और त्याग जैसे आध्यात्मिक आदर्शों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह संस्कृति सुदूर अतीत में जैन धर्म के आदि तीर्थकर वृषभ या ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित हुई । ऋषभदेव का उल्लेख श्रमण और वैदिक इन दोनों ही संस्कृतियों में स्वयं-सिद्ध है। ये इस अवसर्पिणी काल के प्रथम सुसंस्कृत पुरुष थे, जिन्होंने सर्वप्रथम विविध ज्ञान-विज्ञान और कलाओं की शिक्षा दी थी। मनुष्य को जीवनोपयोगी असि, मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या का उपदेश देकर समाज-व्यवस्था स्थापित की। इनके प्रथम चक्रवर्ती पुत्र भरत के नाम से इस पुण्यदेश का "भारतवर्ष" यह नाम प्रसिद्ध हुआ। - प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम एवं चौबीसवें तीर्थकर महावीर तक की इस गौरवशाली तीर्थकर परम्परा से प्राप्त तत्त्वज्ञान और आत्म कल्याणकारी उपदेशों के आधार पर श्रमण संस्कृति के अमर गायक और उन्नायक सहस्रों जैन-आचार्यों ने प्रायः सभी प्राचीन भारतीय भाषाओं एवं सभी विधाओं में अपने श्रेष्ठ साहित्य के माध्यम से भारतीय साहित्य और चिन्तन परम्परा में धीवृद्धि की है। For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १० - आचार्य कुन्दकुन्द और उनका दिव्य अवदान तीर्थंकर महावीर और गोतम गणधर के बाद की उत्तरवर्ती जैन आचार्यों . का विशाल परम्परा में अनेक महान् आचार्यों का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाता है। जिनके अनुपम व्यक्तित्व और कर्तृत्व से भारतीय चिन्तन अनुप्राणित होकर . चतुर्दिक् प्रकाश की किरणें फैलाता रहा है, किन्तु इन सबमें अब से दो हजार वर्ष पूर्व युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्द ऐसे प्रखर प्रभापुञ्ज के समान महान् आचार्य हुए जिनके महान् आध्यात्मिक चिन्तन से सम्पूर्ण भारतीय मनीषा प्रभावित हुई. . और उसने एक अद्भुत मोड़ लिया। यही कारण है कि इनके परवर्ती सभी आचार्यों ने अपने को उनकी परम्परा का आचार्य मानकर उनकी सम्पूर्ण विरासत से जुड़ने में अपना गौरव माना तथा उनकी मूल-परम्परा तथा ज्ञान-गरिमा को एक स्वर से श्रेष्ठ मान्य करते हुए कहा मंगलं भगवदो वीरो मंगलं गोदमो गणी । मंगलं कोण्डकूदाइ, जेण्ह धम्मोत्थु मंगलं ॥ [मङ्गलं भगवान्वीरो मङ्गलं गौतमो गणी । मङ्गलं कुन्दकुन्दाों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥] अर्थात् तीर्थंकर भगवान् महावीर-वर्धमान मंगलस्वरूप हैं । इनके प्रथम गणधर गौतम-स्वामी ( तीर्थंकर महावीर की दिव्यध्वनि के विवेचनकर्ता तथा द्वादशांग आगमोंके रचयिता ) मंगलात्मक हैं। आचार्य कुन्दकुन्द जैसे समर्थ आचार्योंकी आचार्य-परम्परा मंगलमय है तथा प्राणिमात्रका कल्याण करने वाला जैनधर्म सभीके लिए मंगलकारक है। शिलालेखों के अनुसार इनका जन्मस्थान कोणुकुन्दे प्रचलित नाम कोंग्कुन्दी (कुन्दकुन्दपुरम ) तहसील गुण्टूर है जो कि आन्ध्रप्रदेशके अतन्तपुर जिले में कोण्डकुन्दपुर अपरनाम कुरुमरई माना जाता है। इनका जन्म शार्वरी नाम संवत्सर माघ शुक्ला ५ ईमापूर्व १०८ (बी० सी०) में हुआ था। इन्होंने ११ वर्ष की अल्पायु में ही श्रमण दीक्षा ली तथा ३३ वर्ष तक मुनिपद पर रहकर जान और चारित्र की सतत् साधना की। ४४ वर्ष की आयु ( ईसा पूर्व ६४ ) चतुर्विध सघ ने इन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया । ५१ वर्ष १० माह और १५ दिन तक उन्होंने आचार्यपद को सुशोभित किया। इस तरह इन्होंने कुल ९५ वर्ष १० माह १५ दिनकी दीर्घायु पायी और ईसा पूर्व १२में समाविमरण पूर्वक मृत्यु पाकर स्वर्गारोहण किया।' १. समयसार : पुरोवाक् ( मुन्नुडि ) पृ० ३०४ : सं०-बलभद्र जैन, प्रकाशन कुन्दकुन्द भारती, दिल्ली १९७८ । For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ० ए० एन उपाध्ये ने भी इनका समय ईसवी सन्के प्रारम्भमें मानते हुए. लिखा है "I am inclined to believe, after this long survey of the available material, that kundakunda's age lies at the beginning of thc Christian era'', कुछ विद्वान् आ० कुन्दकुन्दको पांचवी-छठी शतीका भी सिद्ध करनेमें प्रयत्नशील हैं ।२ लगता है मूल दिगम्बर परम्पराके महान् पोषक होनेके कारण आचार्य कुन्दकुन्द जैसे अनुपम व्यक्तित्व और कर्तृत्वके धनी आचार्यकी उत्कृष्ट मौलिकता एवं कोतिको कुछ विद्वान् सहन नहीं कर पा रहे हैं, इसीलिए उन्हें परवर्ती सिद्ध करनेके लिए तथ्य-रहित आधार बतलाकर अपनेको सन्तुष्ट मान रहे हैं। वस्तुतः आचार्य कुन्दकुन्द या अन्य जैनाचार्य द्वारा श्रेष्ठ साहित्यके निर्माणका उद्देश्य स्व-पर कल्याण करना था, न कि आत्म-प्रदर्शन या लौकिक यशकी प्राप्ति । इसीलिए आज अनेकों ऐसे उत्कृष्ट अज्ञातकतक ग्रन्थ उपलब्ध हैं जिनमें उसके लेखकने अपना नाम तक लिखना उचित न समझा । आचार्य अमृतचन्द्राचार्य ( ८-९वीं शती ) के पूर्व तक कुन्दकुन्दके साहित्य पर किसी द्वारा टीका आदि न लिखे जाने का यह अर्थ नहीं कि वे ५-६वीं शतीके थे, अपितु काफी साहित्यका नष्ट होना, भाषायी आक्रमण और साथ ही आज जैसे प्राचीन कालमें विविध सम्पर्क और साधनोंका अभाव कारण हैं । .... आचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थ ही उनको प्राचीनता, प्रामाणिकता और मौलिकताको कह रहे हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें "सुयगाणिभद्दबाहु गमयगुरू भगवओ जयओ'-कहकर अपनेको बारह अंगों और चौदह पूर्वोके विपुल विस्तारके वेत्ता, गमकगुरु ( प्रबोधक ) भगवान् श्रुतज्ञानी-श्रुतकेवली भद्रबाहुका शिष्य कहा है। भद्रबाहुको अपना गमकगुरु कहनेका यही अर्थ है कि श्रुतकेवलो भद्रबाहु कुन्दकुन्दको प्रबोध करने वाले गुरु थे। इसीलिए समयसारको भी उन्होंने "श्रुतकेवली भणित" कहा है । यथा १. Pravacansāra : Introduction p. 21. २. श्रमण भगवान् महावीर : पृ० ३०६ लेखक पं० कल्याण विजयगणी, (विशेष लेखकने इस पुस्तकमें दस प्रमाणों ( प्वाइंटों ) से आचार्य कुन्दकुन्दको छठी शतीका माना है। ३. बोध पाहर गाथा ६०-६१. For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२ - वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोपमं गई पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवली भणियं ॥-समयसार १. श्रवणबेलगोलकी चन्द्रगिरि पर्वत पर महनवमी मण्डपमें दक्षिण मुख स्तम्भ पर शक सं० १०८५' के लेख संख्या ४०में श्रुतकेवली भद्रबाहु भौर चन्द्रगुप्तके बाद आचार्य कुन्दकुन्द इनके बाद आ० उमास्वातिका उल्लेख करके इन्हें भद्रबाहके अन्वयका ही बतलाया है । इस लेखका मुख्यांश इसप्रकार है श्रीभद्रः सर्वतो यो हि भद्रबाहुरिति श्रुतः । श्रुतकेवलि नाथेषु चरमः परमो मुनिः ॥ चन्द्रप्रकाशोज्वलचन्द्रकीर्तिः श्रीचन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्यः । यस्य प्रभावाद वनदेवताभिराराधितः स्वस्य गणो मुनीनाम् ।। "तस्यान्वये भू-विदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः । श्रीकोण्डकुन्दादि-मुनीश्वराख्यस्सत्संयमादुद्गत-चारणाद्धिः ॥ अभू दुमास्वाति मुनिश्वरोऽसावाचार्य शब्दोत्तरगद्धपिच्छः । तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेष-पदार्थ वेदी ॥ पद्मनन्दि कुन्दाकुन्दाचार्यका ही अपर नाम है । टीकाकार जयसेनाचार्य तथा ब्रह्मदेवने कुमारनन्दि सिद्धान्तदेवको भी कुन्दकुन्दाचार्यका गुरु बतलाया है, जबकि नन्दिसंघकी पट्टावलीमें जिनचन्द्रको गुरु बतलाया है। किन्तु भद्रबाहुको भाचार्य कुन्दकुन्दने गमकगुरुके रूपमें जिस तरह स्मरण किया है उससे आ० भाबाहुको ही उनका गुरु मानना अधिक उपयुक्त है। कलिकाल-सर्वज्ञ आचार्य कुन्दकुन्दके अनेक नाम . साहित्य और शिलालेखोंमें इनके विभिन्न नामोंका उल्लेख मिलता है जिनमें कोण्डकुन्द ( कुन्दकुन्द ), पद्मनन्दि, वक्रग्रीव, एलाचार्य, महामुनि, गृढपिच्छ प्रमुख नाम हैं। नन्दिसंघसे सम्बद्ध विजयगनरके १३८६ ई० के एक शिलालेखमें तथा नन्दिसंघ पट्टावलीमें इस तरह नामोंका उल्लेख है १. शक संवत्में ७८ जोड़ देने पर उसका ईसवी सन् निकल आता है, ६०५ जोड़ देने पर वीर निर्वाण संवत् तथा १३५ संख्या जोड़ देने पर विक्रम संवत् निकाल लिया जाता है। २. (क) समयप्राभृत भूमिका पृ० ४. (ख) पञ्चास्तिकाय पर ब्रह्मदेव ( १२वीं सदी ) की टीकाको उत्थानिका. ३. जैन सिद्धान्त भास्कर वर्ष १ अंक ४ पृ० ७८. For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३ - श्रोमूलसं(घ)ऽजनि नन्दिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणेऽतिरम्य । तत्रापि सारस्वतनाम्निगच्छे स्वच्छाशयोऽभूदिह पदम नन्दी । ___ आचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः । एलाचार्यों गदपिच्छ इति तन्नाम पंचधा॥' वि० सं० ९९० में रचित आचार्य देवसेनने अपने 'दर्शनसार' ग्रन्थमें मात्र 'पद्मनन्दी' नामसे उनका उल्लेख किया है। वि० सं० १६वीं शतीके षट्प्राभृतके टीकाकार श्रुतसागर सूरिने उनके पांच नामोंका उल्लेख करते हुए उन्हें आकाशमें गमन करनेवाला (चारणऋद्धिधारी), विदेहक्षेत्र जाकर सीमंधर स्वामीकी दिव्यध्वनि सुनने वाला तथा 'कलिकाल-सर्वज्ञ' रूप विशेषताओंसे युक्त बतलाया है । प्रायः प्रत्येक प्राभृतके अन्तमें इस तरहकी पुष्पिका पाई जाती है श्रीपद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य वक्रग्रोवाचायलाचार्यगृद्धपिच्छाचार्यनामपंचकविराजितेन चतुरंगुलाकाशगमनदिना पूर्वविदेहपुण्डरीकिणीनगरवन्दितसीमन्धरापरनाम स्वयंप्रभजिनेन तच्छुतमानसम्बोधित भरतवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वशेन विरचिते षट्प्राभृतग्रन्थे सर्वमुनिमण्डली. मण्डितेन कलिकालगौतमस्वामिना श्रीमल्लिभूषणेन भट्टारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभयभाषाकविचक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दिगुव॑न्तेवासिना. सूरिवरश्रीश्रुतसागरेण विरचिता बोधप्राभूतस्य टोका परिसमाप्ता।' श्रुतसागरसूरि द्वारा आ० कुन्दकुन्दके लिए 'कलिकालसर्वश' विशेषण भी. विशेष महत्त्वपूर्ण है। विदेहक्षेत्र गमन और चारणऋद्धि सम्बन्धी उल्लेख .. अनेक ग्रन्थों और शिलालेखोंमें आ० कुन्दकुन्दके विदेहगमन और चारणऋद्धि सम्बन्धी उल्लेख मिलते हैं । यद्यपि आजके कुछ विद्वानोंने विदेहगमन और वहाँ सीमंधर स्वामीके समवशरणमें पहुँचकर दिव्यध्वनि श्रवण की इस घटनाको सही नहीं माना है। किन्तु सदियों प्राचीन इन उल्लेखोंको नजर-अन्दाज भी कैसे किया जा सकता है ? विदेह गमनकी घटनाका सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य देवसेनने किया है जइ पउमणंदिणाहो सोमंघरसामिदिम्वणाणेण । ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥ १. जैन सिद्धान्त भास्कर ( आरा ) भाग १ किरण ४ पृ० ९०. २. दर्शनसार ४३. ३. अष्टपाहुड : पृष्ठ २०५. श्री शान्तिवीरनगर, श्रीमहावीरजी, १९६८ ४. निसार : गाथा ४३. For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४ - -इस गाथामें कहा है कि पद्मनन्दि (कुन्दकुन्द ) स्वामीने सीमन्धर स्वामी से दिव्यज्ञान प्राप्तकर अन्य मुनियोंको प्रबोधित किया। यदि वे प्रबोधन कार्य न करते तो श्रमण सुमार्ग किस तरह प्राप्त करते ? जयसेनाचार्यने पंचास्तिकायकी टीकामें उक्त विदेहगमन वाली घटनाको "प्रसिद्ध कथा" कहा है। अनेक शिलालेखोंमें भी उन्हें चारणऋविषारी अर्थात् पृथ्वीसे चार अंगुल ऊपर आकाशमें अनेक योजन तक गमन करने वाला कहा है।' श्रवणवेलगोल नगरके मठकी उत्तर गोशालामें शक सं० १०४१ के शिलालेख संख्या १३९ में इस तरह लिखा है स्वस्ति श्री वर्धमानस्य वर्द्धमानस्य शासने । . श्रीकोण्डकुन्द नामाभूच्चतुरङ्गुलचारणः ॥२ अर्थात् वद्ध मानके शासनमें परिपूर्ण रूपसे निष्णात चार अंगुल ऊपर जमीनसे चलने वाले कुन्दकुन्दाचार्य हुए। महनक्मी मण्डपके उत्तरमें एक स्तम्भ पर शक सं० १०.९९ के लेख सं? ४२ में नागदेव मन्त्री द्वारा अपने गुरु श्री नयकीर्ति योगीन्द्रकी विस्तृत गुरु-परम्पराका उल्लेख है जिसमें आचार्य पद्मनन्दी (कुन्दकुन्द ), उमास्वाति-गृद्धपिच्छ, बलाकपिच्छ, गुणनन्दि आदि आचार्योंके नामोल्लेख हैं । इसमें भी आ० कुन्दकुन्दको चारणऋद्धिधारी बतलाया है । यषा श्री पद्मनन्दोत्यनवद्यनामा ह्याचार्य शब्दोत्तरकोण्डकुन्दः । . द्वितीयमासीदभिधानमुद्याच्चरित्रसञातसुचारद्धिः ॥४॥ यही श्लोक चामुण्डराय वस्तिके दक्षिणकी ओर मण्डपके प्रथम स्तम्भ पर शक सं० १०४५ के लेख सं० ४३ में लिखा है। श्रवणबेलगोलके विन्ध्यगिरि पर्वत पर सिद्धरबस्तीमें उत्तरकी ओर एक स्तम्भ पर शक सं० १३२० के लेख सं० १०५ में स्पष्ट रूपसे आचार्य कुन्दकुन्दको अनेक विशेषणों सहित भूमिसे चार अंगुल ऊपर गमन करने वाला कहा है१. जैन शिलालेख संग्रह भाग १, शिलालेख सं० ४०, ४१, ४२, १०५, १३९, २८७ २. वही पृष्ठ २८६ ३. लि संग्रह भाम.१० ४२. ४. वही : लेख सं० ४३ एवं ४७. For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्राधारेषु पुण्यादजनि सजगतां कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ॥१३॥ रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाहयेऽपि संव्यञ्जयितु यतीशः । . रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः ॥१४॥' अर्थात् यतीन्द्र कुन्दकुन्दाचार्य रजःस्थान पृथ्वीतलको छोड़कर चार अंगुल ऊपर गमन करते थे, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वे अन्तः और बाह्य रज (घूल) से अत्यन्त अस्पृष्टता व्यक्त करते थे। विविध संघ और आचार्य कुन्दकुन्द एवं कुन्दकुन्दान्वय : आचार्य कुन्दकुन्दका व्यक्तित्व और कर्तृत्व इतना अनुपम था कि दिगम्बर जैन परम्पराके प्रायः सभी संघोंने अपनेको कुन्दकुन्दान्वयका माननेमें गौरवशाली अनुभव किया। यही कारण है कि मूलसंघके अनेक भेद-प्रभेद हो जाने अथवा स्वतन्त्र अन्यान्य संघ बन जानेके बावजूद सभी संघ आचार्य कुन्दकुन्द या कुन्दकुन्दान्वयकी परम्पराका अपनेको सच्चा अनुयायी मानते हुए भावनात्मक एकता, जैन शासनको अभ्युन्नति एवं आत्मकल्याणके लक्ष्यमें एकजुट होकर लगे रहे । और यही कारण है कि जब हम उस लम्बे समयके जैन साहित्य, संस्कृति, धर्म-दर्शन और आचार-विचारोंको श्रेष्ठता तथा जैनधर्मको शाश्वतता प्रदान करने हेतु उनके त्यागकी ओर दृष्टिपात करते हैं तो हमारा मस्तक गौरवसे ऊंचा उठ जाता है और हमें अपने अन्दर अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है कि हम अपने भारतकी इस महान् धरोहरके उत्तराधिकारी और अनुयायी हैं। किन्तु हम सभीको भी इस बड़े उत्तरदायित्वका बोध होने और इसके विकासके लिए चेष्टा करते रहनेके विषयमें भी निरन्तर सोचते रहने की बड़ी आवश्यकता है । - जैसा कि यहां कहा गया है कि दिगम्बर जैन परम्परा के प्रायः सभी संघों ने कुन्दकुन्द की परम्परा के अन्तर्गत अपने को घोषित किया। इनमें द्रविडसंघ, नन्दि, सेन और काष्ठासंघ-ये चार प्रमुख हैं। इन सभी के कुन्दकुन्द अन्वय से सम्बन्धित होने के शिलालेखादि में उल्लेख प्राप्त होते हैं। अंगदि से प्राप्त शिलालेख संख्या १६६ में द्रविड़संघ कोण्डकुन्दान्वय लिखा है। शिलालेख सं. ५३८ में सेनगण के साथ कुन्दकुन्दान्वय जुग हुआ ही है। और नन्दिसंघ तो मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय, देशियगण, पुस्तकगच्छ से सम्बद्ध था ही। मूलसंघ दिगम्बर परम्परा में प्रमुखता से भान्य रहा है। मूलसंघ का सर्वप्रथम उल्लेख १. जैन शिलालेख संग्रह भाग १, पृ० १९७-१९८. २. जैन शिलालेख संग्रह भाग. ३. शि० सं० ५३८, जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ... १. कि०४ पृ. ९०. For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १६ - गंगवंश के महाराजा माधववर्मा द्वितीय और उनके पुत्र अविनीत । सन् ४००... ४२५ के करीब ) के लेखों में पाया जाता है । इसी मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख मूर्तिलेखों आदि में करना वर्तमान कालमें भी प्रचलित है। कुन्दकुन्दान्वय का स्वतंत्र - उल्लेख आठवीं-नौवीं शती के शिलालेख में देखा गया है तथा मूलसंघ कोण्डकुन्दान्वय का एक साथ सर्वप्रथम प्रयोग लेख सं० १८० (लगभग १०४४ ई० ) में इस प्रकार पाया गया है-"श्रीमूलसंघ, देशियगण, पुस्तक-गच्छ कोण्डकुन्दान्वय इङ्गलेश्वरद बलिय""शुभचन्द्रदेवर"२ अन्यान्य शिलालेखों के उल्लेख भी दृष्टव्य हैं । श्रवणवेलगोलमें कतिले बस्तीके द्वारेसे दक्षिणकी ओरके पूर्वमुख पर शक सं० १०२२ के लेख सं० ५५ पर भी लिखा है कि श्रीमतोवर्द्धमानस्य वद्धमानस्य शासने ।। श्री कोण्डकुन्द-नामाभून्मूलसंघाग्रणी गणी ॥३॥ श्रवणबेलगोल के महनवमी मण्डप में शक सं० १२३५ के लेख सं० ४१ में कहा है श्री मूलसंघ-देशीगण-पुस्तकगच्छ कोण्डकुन्दान्वये । गुरुकुलमिह कथमिति चेद्ब्रवीमि संक्षेपतो भुवने ॥२॥ कुप्पुटरू ( कन्नड़ ) के लेख सं० २०९ शक सं० ९९७ में भी कहा है" आतक्य-गुण-जलधिकुण्डकुन्दाचार्य्यर् । . आ-कोण्डकुन्दान्वयदोलु । श्री कुण्डकुन्दान्वय-मूलसंघे""। विन्ध्यगिरि पर्वतपर सिद्धरबस्तीमें उत्तरकी ओर एक स्तम्भपर शक सं० १. जैन शिलालेख संग्रह २ की प्रस्तावना. २. जैन शिलालेख संग्रह भाग ३. शि० सं० १८० पृ० २२०, यह लेख दोड्ड___कणगालुमें गौड़के खेतके दूसरे पाषाणपर उत्कीर्ण है। ३. जैन शि० संग्रह भाग ३. लेख सं० ३०७, ३१३, ३१४, ३३५, ३५२, ३५६, ३६४, ३७२, ३७७, ३८४, ३८९, ३९४, ४०२, ४११, ४३९, ४४९, ४६६-६, ४७८, ५१४, ५२१, ५२४, ५२६, ५३८, ५४७, ५५१, ५६१, ५७१, ५८०, ५८२, ५८४, ५८५, ५९०, ६००, ६२१, ६७३, ७०२, ७५५, ८३४,८३६. ४. वही भाग १ पृ० ११५. ५. जैन शिलालेख सं० भाग २ पृ० २६९. For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १७ - १३२० के विस्तृत लेख संख्या १०५ में अनेक आचार्योंके नामोल्लेख सहित यह उत्कीर्ण है यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्याख्येनापि शिष्य-द्वितयेन रेजे। फलप्रदानाय जगज्जनानां प्राप्तोऽङ्कराम्यामिवकल्पभूजः ॥२५॥ अर्हबलिस्सङ्घचतुर्विधं स श्रीकोण्डकुण्डान्वयमूलसङघं । कालस्वभावादिह जायमानद्वेषतराल्पीकरणाय चक्रे ॥२६॥' इस तरह आचार्य कुन्दकुन्द और कुन्दकुन्दान्वयका उल्लेख अनेकों शिलालेखोंमें है। उपयुक्त उल्लेखोंके अतिरिक्त महाराष्ट्र, मैसूर, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गुजरात, दिल्ली आदि स्थानोंके शिलालेखोंमें आ० कुन्दकुन्दका और इनके अन्वयका उल्लेख है। इन शिलालेखोंको जैन शिलालेख संग्रह भाग ५ में देखा जा सकता है। कुन्दकुन्दाचार्य के नामोल्लेख तथा उनकी यशोगाथासे सम्बन्धित शिलालेख दृष्टव्य है यह श्रवणबेलगोलके चन्द्रगिरि पर्वतपर पार्श्वनाथ बस्तिमें एक स्तम्भलेख सं० ५४, जो कि शक सं० १०५० का है, इसमें कहा है वन्द्योविभुम्भुवि न कैरिह कौण्ड कुन्दः । कुन्द-प्रभा-प्रणयि-कोति-विभूषिताशः । , यश्चारु-चारण-कराम्बुजवञ्चरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ॥५॥ ___अर्थात् कुन्दपुष्पकी प्रभा धारण करनेवाली जिनकी कीति द्वारा दिशायें विभूषित हुई हैं, जो चारणोंके-चारण ऋद्धिधारी महामुनियोंके सुन्दर करकमलों के भ्रमर थे और जिन पवित्रात्माने भरतक्षेत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा की, वे विभु कुन्दकुन्दाचार्य इस पृथ्वीपर किसके द्वारा वन्द्य नहीं हैं ? विन्ध्यगिरि पर्वतपर सिद्धरबस्तीमें दक्षिण ओरके एक स्तम्भपर शक सं० १३३५ के लेख सं० १०८ में कहा है तदीयवंशाकरतः प्रसिद्धादभूददोषा यतिरत्नमाला । बभौ यदन्तमणिबन्मुनीन्द्रस्य कुण्डकुन्दोदित चण्डदण्डः ॥१०॥ १. वही भाग १. पृ० १९९. २. वही भाग ५. पृ० ३५, ३८, ५४, ५६, ५७, ५८, ६३, ७२, ७३, ७५, ८४, ९२, १०२, १०५, ११०, ११२, ११४. ३. वही भाग १. १० १०२. For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ वेराबल ( सौराष्ट्र ) में १२ वीं सदीके एक संस्कृत लेख सं० २८७में लिखा है ' - बभूवुः कुंदकुंदाख्या साक्षात्कृतजगत्त्रयाः ॥ १३॥ येषामाकाशगामित्वं व्यात पंचकमुज्वलं । इस प्रकार शताधिक शिलालेखादिमें आचार्य कुन्दकुन्दकी यशोगाथा उल्लिखित है । किन्तु मैंने यहाँ कुछ प्रमुख उदाहरण ही प्रस्तुत किये हैं । यद्यपि यहाँ सर्वप्रथम मर्कराके उस ताम्रपत्रवाले लेखका उल्लेख होना चाहिए था जो आचार्य कुन्दकुन्दके उल्लेखवाला सर्वप्राचीन लेख है किन्तु इसकी प्रामाणिकता विवादग्रस्त है । फिर भी कुछ अंश इस प्रकार हैं- स्वस्ति जितं भगवता गतघनगगननाभेन पद्मनाभेन श्रीमद् जाह्मबीय कुलामलव्योमावभासनभास्करः विभूषणविभूषित काण्वायन सगोत्रस्य विद्वत्सु प्रथमगण्य श्रीमान् कोङ्गणिमहाधिराज अविनीत नामधेय दत्तस्य देसिग गणं कोण्ड कुन्दान्वय गुणचन्द्र भटारशिष्यस्य अभयणन्दि । 3. इस तरह आचार्य कुन्दकुन्द और उनके अन्वयको गौरवशाली परम्परा दो हजार वर्षोंसे अबतक निरन्तर चल रही है । तथा कुन्दकुन्दान्वय के रूपमें जिसका उल्लेख आज भी सभी प्रतिष्ठित मूर्तियोंके मूर्तिलेखों में अनिवार्यतः प्रचलित है । जिनके परिपेक्ष्य में हम उनके महान् व्यक्तित्व और कर्तृत्वके साथही भारतीय मनीषाको उनके अनुपम योगदानको परखकर सकते हैं ।' आचार्य कुन्दकुन्दकी भाषा और साहित्य आचार्य कुन्दकुन्दकी कृतियोंमें तात्त्विक, आध्यात्मिक और आचार जैसे दुरुह विषयोंके प्रतिपादनमें भी भावों और भाषाकी प्रौढ़ता तथा प्रसन्न, सरल एवं गम्भीर शैलीका जो स्वरूप दिखलाई पड़ता है वह अन्यत्र दुर्लभ है । इन्होंने भारतीय आर्यभाषा के प्राचीन स्वरूपको ध्यानमें रखकर तत्कालीन बोलचालकी १. जैन शिलालेख सं० भाग ४. २. देखिए जैन शि० सं० भाग २ की प्रस्तावना पृ० ३ में डॉ० हीरालालजीने बनावटी कहा है । ३. मर्क का यह संस्कृत कन्नड़ लेख शक सं० ३८८ ( ४६६ ई०) का है । अविनीत कोङ्कणिका मर्करा पत्र ( मर्कराके खजाने मेंसे प्राप्त ताम्रपत्र) लेखमें और राजाओंकी वंशावली इस दानपत्र में दो गई है। इस्तेमें देसिंग ( देशीय ) गण कोण्डकुन्द अवयके गुणचन्द्र भटार ( भट्टारक ) के शिष्य अभयनंदि भटार आदिकी परम्पराका उल्लेख है । For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा ( जनभाषा) के रूपमें प्रचलित शौरसेनी प्राकृत भाषाको माध्यम बनाकर विशाल साहित्यका सृजन किया। कुछ भाषा वैज्ञानिकोंने इनकी कृतियोंकी इस भाषाको "जैन शौरसेनी" कहा है । आचार्य कुन्दकुन्दके उत्तरवर्ती अनेक आचार्योंने भी इनकी परम्पराको आगे बढ़ाते हुए इसी भाषामें साहित्य सृजन किया। इस सन्दर्भ में यशस्वी विद्वान् बलभद्र जैनका यह कथन सर्वथा उपयुक्त है कि 'हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि कुन्दकुन्द केवल सिद्धान्त और आध्यात्मके ही मर्मज्ञ विद्वान् नहीं थे, अपितु वे भाषाशास्त्रके भी अधिकारी और प्रवर्तक विद्वान् थे। उन्होंने अपनी प्रौढ़ रचनाओं द्वारा प्राकृतको नये आयाम दिये, उसका संस्कार किया, उसे संवारा और नया रूप दिया । इसीलिए वे जैन शौरसेनीके आद्य कवि और रचनाकार माने जाते हैं।' ___प्राकृत भाषाओंके क्रमिक विकास एवं परिवर्तनोंके अध्ययनमें हमें कुन्दकुन्द के ग्रन्थोंसे बड़ी सहायता प्राप्त होती है, इससे हम उनके कालका निर्णय भी कर सकते हैं। प्राकृत भाषा-शास्त्रके विद्वान् प्राकृतभाषाके क्रमिक विकासका विश्लेषण करते हुए इस निष्कर्षपर पहुंचे हैं कि 'त्' और 'थ्' में परिवर्तन होते-होते प्रथम तो वे 'द्' और 'ध्' हुए, फिर क्रमशः 'द' का लोप हो गया और 'ध' के स्थानमें 'ह' का प्रयोग होने लगा। ऐतिहासिक दृष्टिसे भाषा-शास्त्रियोंने इस विकास-कालको ईसा पूर्व प्रथम शताब्दीका स्थिर किया है । कुन्दकुन्दकृत समयसार में हमें 'रथ' के स्थानपर 'रथ' और 'रह' दोनों ही परिवर्तित रूपोंका प्रयोग मिलता है । श्रुतपरम्पराके संरक्षक और पाहुड साहित्यके अनुपम स्रष्टा यद्यपि श्रुत-विच्छेदके बाद और कुन्दकुन्दसे पूर्व 'श्रुतरक्षा' के लिए प्रयत्न तो होते रहे, किन्तु मान्यताओंके आधारपर जो मतभेद उत्पन्न हो गये थे उनपर साधिकार लिखनेका प्रयत्न किसीने नहीं किया। यह कार्य आचार्य कुन्दकुन्दने अपने ऊपर लिया। अंतः 'युग प्रतिष्ठापक' होनेका श्रेय कुन्दकुन्दको प्राप्त होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि उस समय और बादकी परम्पराने - आचार्य कुन्दकुन्दको वह स्थान दिया जो अन्यको प्राप्त नहीं हुआ। क्योंकि युग . १. समयसार : मुन्नुडि : १० १०. सं०५० बलभद्र जैन. २. समयसार : वही गाथा ९८. पृ० ७७. . ३. वही पृ० ६. For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २० - प्रतिष्ठापक होनेके नाते कुन्दकुन्दको महत्ता बढ़ती हो गई । और इसीलिए . कुन्दकुन्दके मूलसंघका दूसरा नाम ही कुन्दकुन्दान्वय प्रसिद्ध हो गया।' आचार्य कुन्दकुन्दके समय बौद्धधर्मका नैरात्मवाद, क्षणिकवाद और शून्यवाद राज्याश्रय पाकर जनमानसको उद्वेलित कर रहा था। इसके कारण जनमानसमें आत्मा और आत्माके कल्याणके लिए किये जानेवाले तपश्चरण और चारित्रपर अनास्था उत्पन्न होने लगी थी। इस अनास्थाको सांख्यमतके कूटस्थ नित्यवादने और हवा दी। कुल मिलाकर उस समय जनताको धार्मिक आस्थायें चंचल हो. . रही थीं और जनतामें दिशाहीनताकी भावना व्याप्त थी । ऐसे कालमें कुन्दकुन्दने जनताको सही धार्मिक मार्गदर्शन कराने और तीर्थङ्करोंको वाणीके अनादि-निधन सत्यको प्रचारित करनेका दायित्व अपने ऊपर ले लिया और अपने तपःपूत व्यक्तित्व, अविरत साधना एवं गम्भीर आगमज्ञानके द्वारा सत्यधर्मको पुनः स्थापना की। मुनिधर्मके अन्दर व्याप्त विकृतियोंका परिमार्जन किया और अध्यात्मकी गंगा बहाकर आत्माके प्रति व्याप्त अनास्थाको दूर किया। इसलिए वे युगप्रवर्तक, युगपुरुष और क्रान्तदृष्टाके रूपमें सर्वाधिक विख्यात हुए । मंगलपाठमें तीर्थंकर महावीर और गौतम गणधरके बाद आचार्य कुन्दकुन्दके नाम-स्मरणका, उनके नामपर मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय प्रचलित होने एवं परवर्ती आचार्यों द्वारा अपने आपको कुन्दकुन्दान्वयी माननेका यहो रहस्य है । आचार्य कुन्दकुन्द के सभी ग्रन्थ 'पाहुड' कहे जाते हैं । पाहुड अर्थात् प्रामृत जिसका अर्थ है 'भेंट' । आचार्य जयसेन ने समयसार को तात्पर्यवृत्ति में कहा है कि जैसे देवदत्त नाम का कोई व्यक्ति राजा का दर्शन करने के लिए कोई "सारभूत वस्तु" राजा को देता है तो उसे प्राभृत या भेंट कहते हैं, उसी प्रकार परमात्मा के आराधक पुरुषके लिए निर्दोष परमात्मा रूपी राजा'का दर्शन कराने के लिए यह शास्त्र भी प्रामृत ( भेंट ) है। कसायपाहड पर चूणि सूत्रों के रचयिता आचार्य यतिवृषभ के अनुसार "जम्हा पदेहि पुदं ( फुड ) तम्हा पाहुड' अर्थात् जो पदों से स्फुट हो उसे पाहुड कहते हैं । जयघवलाकार आचार्य वीरसेन के अनुसार-प्रकृष्टेन तीर्थकरेण १. आचार्य कुन्दकुन्द और उनका समयसार-पृ० २२. २. णियमसारो : प्रस्तावना पृ० ४. सं० बलभद्र जैन, कुन्दकुन्द भारती दिल्ली, १९८७. ३. समयसार तात्पर्य वृत्ति : गापा १. ४. कसायपाहर भाग-१ पृष्ठ ३८६. For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २१ - आभृतं प्रस्थापितं इति प्राभृतम् । प्रकृष्टराचार्यविद्यावित्तद्भिराभृतं धारित ध्याख्यातमानीतमिति वा प्राभृतम् ।' जो प्रकृष्ट अर्थात् तीर्थकर के द्वारा प्राभूत अथवा प्रस्थापित किया गया है वह प्राभूत है । अथवा जिनका विद्या ही धन है ऐसे प्रकृष्ट आचार्यों के द्वारा जो धारण अथवा व्याख्यान किया गया है अथवा परम्परा रूप से लाया गया है वह प्राभृत है। इस तरह तीर्थकरोंके उपदेश रूप द्वादशांग वाणीसे सम्बद्ध ज्ञानरूप ग्रन्थों को हम पाहुड कहते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रायः सभी ग्रन्थों की रचना मूल द्वादशांगके तत्संबंधो स्थलोंके आधार पर की है । यथा बारहवें अंग दृष्टिवाद के अन्तर्गत चौदह पूर्वोमें पंचम पूर्व ज्ञानप्रवादके बारह वस्तु अधिकारोंमें से दशम वस्तु अधिकार के 'समय पाहुड' के आधार पर समयसार ग्रन्थ को रचना की गई। इन्होंने अपने ग्रन्थोंको प्रामाणिकताका आधार प्रायः सभी ग्रन्थोंके प्रारम्भिक मंगलाचरणोंमें कहा है कि श्रतकेवलियोंने जो कहा है मैं वही कहूँगा । अर्थात् श्रुतकेवलियों द्वारा प्ररूपित तत्वज्ञानका मैं वक्ता मात्र हैं, स्वयं कर्ता नहीं । अर्थात् समयपाहुड आदि वही ग्रन्थ है, जिनकी देशना भगवान् महावीरने और जिनकी प्ररूपणा गौतम गणधर तथा श्रुतकेवलियोंने की थी वही आचार्य परम्परासे सुरक्षित रूपमें आचार्य कुन्दकुन्दको प्राप्त हुई। साक्षात् गणधर कथित या प्रत्येकबुद्ध कथित सूत्रग्रन्थों की केवल मौखिक परम्परा चली आ रही थी, सिद्धान्त ग्रन्थों के नाम पर गृहस्थोंको पढ़नेकी अनुमति नहीं थी । श्रुत प्रायः इतना विच्छिन्न और विस्मृत-सा हो गया था कि सर्वसाधारण विद्वान्-साधुओंको उन विषयों पर लेखनी चलानेका साहस न होता था। किन्तु इस स्थितिको आचार्य कुन्दकुन्दने बड़ी कुशलताके साथ सम्हाला और साहित्य सृजन करके जनताको उद्बोधन करनेके लिए वे आगे बढ़े तथा अपने अनुभवकी बाजी लगाकर उन्होंने १. पंचत्थिकाय, २. समयपाहुड ३. पवयणसार, ४. णियमसार, ५. अट्ठपाहुड (दसणपाहुड, चारित. पाहुड, सुत्तपाहुड, बोधपाहुड, भावपाहुड, मोक्खपाहुड, सीलपाहुड तथा लिंगपाहुड) ६. बारस अणुवेक्खा और ७. भत्तिसंगहो-(सिद्ध, सुद, चारित्त, जोइ ( योगी ) आइरिय, णिव्वाण, पंचगुरु तथा तित्थयरभत्ति नामक भक्तिसंग्रह) जैसे महान् ग्रन्थोंकी रचना की। इनके अतिरिक्त रयणसारको भी कुछ विद्वान् १. वही भाग-१, पृष्ठ ३२५. २. (क) वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणिदं-समयसार १.१. (ख) वोच्छामि णियमसारं, केवलि-सुदकेवली भणिदं-नियमसार १.१. For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २२ - इनकी कृति मानते हैं। तमिल-वेदके रूपमें सुविख्यात "तिरुक्कुरल" (कुरल काव्य ) नामक नीतिग्रन्थ भी इनकी कृति माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि आचार्य कुन्दकुन्दने चौरासी 'पाहुड' ग्रन्थोंकी रचना की थी । उपलब्ध पाहुडोंके अतिरिक्त अब इन चौरासीमेंसे कुछ पाहुडोंके नामोंके उल्लेख भी मिलते हैं। प्राकृत एवं जैन साहित्यके सुप्रसिद्ध मनीषि डॉ० ए० एन० . . उपाध्ये ने निम्नलिखित तैतालिस पाहुडों की सूची प्रस्तुत की है'-. १. आचार पाहुड, २. आलाप पाहुड, ३. अंग ( सार ) पाहुड, ४, आराहणा ( सार ) पाहुड, ५. बंध ( सार ) पाहुड, ६. बुद्धि या बोधि पाहुए, .. ७. चरण पाहुड, ८. चूलिया पाहुड, ९. चूणि पाहुड, १०. दिव्व पाहुए, ११. द्रव्य ( सार ) पाहुड, १२. दृष्टि पाहुड, १३. इयन्त पाहुड, १४. जीव पाहुक, १५. जोणि ( सार ) पाहुड, १६. कर्मविपाक पाहुड, १७. कर्म पाहुड, १८... क्रियासार पाहुड, १९. क्षपणासार या क्षपण पाहुड, २० लब्धि ( सार ) पाहुड, २१. लोय पाहुड, २२. नय पाहुड, २३. नित्य पाहुड, २४. नोकम्म पाहुड, २५. पंचवर्ग पाहुड, २६. पयड्ढ पाहुड, २७. पय पाहुड, २८. प्रकृति पाहुड, २९. प्रमाण पाहड, ३०. सलमी पाहुड (?), ३१. संठाण पाहुड, ३२. समवाय पाहुए, ३३. षट्दर्शन पाहुड, ३४. सिद्धान्त पाहुड, ३५. सिक्खा (शिक्षा) पाहुए, ३६. स्थान पाहुए, ३७. तत्त्व ( सार ) पाहुड, ३८. तोय (तीय ) पाहुर, ३९. ओषत पाहुर, ४०. उत्पाद पाहड, ४१. विद्या पाहुड, ४२. वस्तु पाहुड, ४३. विहिय या विहय पाहुड।' 'संयम प्रकाश' नामक ग्रन्थमें उपयुक्त पाहुडों के अतिरिक्त नामकम्म पाहुड, योगसार पाहुड, निताय पाहुड, उद्योत पाहुड, शिखा पाहुड ण्यन्न पाहुड नाम प्राप्त होते हैं। ___ आचार्य कुन्दकुन्दकी उपलब्ध कृतियोंमेंसे पञ्चत्थिकाय, समयपाहुड और पवयणसारको नाटकत्रय या प्राभृतत्रय कहा जाता है। समयसारमें ही जीव-अजीव तत्त्वोंका संसाररूपी रंगभूमिमें अपना-अपना पाठ ( रोल ) अदा करने वाला निरूपण किया गया है । अतः समयसारको नाटक कहा जा सकता है। परन्तु यह तीन ग्रन्थ मिलकर "प्राभूतत्रयो" कहलाते १. प्रवचनसार : अंग्रेजी भूमिका : पृष्ठ २५. संपा० डॉ० ए० एन० उपाध्ये, प्रकाशक-रायचंद ग्रन्थमाला, सन् १९३५. २. संयम प्रकाश : पृष्ठ ४५३, प्रका०-आचार्य सूर्यसागर दि० जैन ग्रन्थमाला समिति जयपुर, वी०नि० सं० २४७४. For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ हैं। इसी कारण इन तीनों का इकट्ठा नाम 'नाटकत्रयी' पड़ गया। वैसे अमृतचन्द्राचार्य ही ने समयसारको नाटककी संज्ञा दी, क्योंकि इन्होंने जीव-अजीव आदि तत्त्वोंका निरूपण ऐसा किया है जैसे नाटकके सभी पात्र आते-जाते हों और इस कारण अपनी टीकामें इस ग्रंथको नाटकका स्वरूप दिया है । कविवर बनारसीदासने तो इसीके आधार पर प्राचीन हिन्दी में कवित्तबद्ध 'नाटक समयसार' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की । समयसार के माध्यमसे आचार्य कुन्दकुन्दने आध्यात्मिक क्षेत्र में आत्मतत्व और आध्यात्मिक रूपकी जिस ऊँचाईको छुआ है वह सम्पूर्ण विश्व साहित्यमें दुर्लभ है । इस दृष्टिसे यह अनुपम ग्रन्थरत्न है । यह कथन ठीक ही है कि समयसारमें पारमार्थिक दृष्टिसे ही सारी चर्चाकी गई है, अतएव अधिकार साधारण जनको उसका कोई-कोई भाग सामाजिक और नैतिक व्यवस्थाको उलट-पलट कर देने वाला प्रतीत हो सकता है ।" पं० बलभद्रजी ने भी ठीक ही लिखा है कि आत्माके शुद्ध स्वरूपका वर्णन करने वाले समयसारकी समता अन्य कोई ग्रन्थ नहीं कर सकता । इस दृष्टिसे इसे ग्रन्थराज, आत्म धर्मका प्रतिनिधि-ग्रन्थ और जेनधर्मका एकमात्र प्राण-ग्रन्थ कहा जाये तो अत्युक्ति नहीं होगी । इस ग्रन्थकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि आत्मधर्म जैसे गूढ़ विषयको इसमें अत्यन्त सरल और सुबोध रीतिसे प्रतिपादित किया गया है। दुरूह विषयको भो दृष्टान्तों के माध्यम से सहज बनाया गया है । पंचास्तिकाय को " संग्रह" अर्थात् "पंचत्थिसंग्रहो" कहा गया है। इसमें सम्यग्दर्शन के विषयभूत जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश - इन पाँच अस्तिकाय द्रव्योंका विवेचन है । समयसारमें सम्यग्ज्ञान के आधारभूत स्वद्रव्य -परद्रव्य का विवेचन है और पवयणसारमें सम्यग् चारित्र की व्याख्या है । इस तरह आचार्य कुन्दकुन्दने इन तीनों ही ग्रन्थोंमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका • आवश्यक विस्तार के साथ सुसम्बद्ध विवेचन करके मुमुक्षुजनोंके लिए साक्षात् मोक्षमार्ग प्रदर्शित किया । प्रवचनसार सुव्यस्थित रचना वाला एक दार्शनिक ग्रन्थके साथ-साथ साधक श्रमणोंके आचार-विचार संबंधी उपयोगी शिक्षाओंका १. कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्न : उपोद्घात पृष्ठ २२. २. समयसार : सं० पं० बलभद्र जैन, प्रकाशक कुन्दकुन्द भारती, १९७८. ३. समयसारकी ७६ गाथाओंमें ३७ दृष्टान्तों द्वारा विषयको समझाया गया है । For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४ - प्रतिपादक एक महान् ग्रन्थ भी है जिसमें दीक्षार्थी साधकके लिए उपयोगी तथा अत्यावश्यक उपदेश भरा हुआ है । णियमसार में भी इसी रत्नत्रयको मोक्ष-प्राप्तिका मार्ग प्रतिपादित किया गया है। बारस-अणुवेक्खामें अध्रुव, अनित्य आदि वैराग्यवर्धक बारह भावनाओंका वर्णन है। उपदेश-प्रधान आठ पाहुडोंमें जो उपदेश आ० कुन्दकुन्दने दिया है उसका प्रधान लक्ष्य श्रमणोंको सच्चे आचारमें सुदृढ़ करना है। आचार्य कुन्दकुन्दके द्वारा रचित ग्रन्थोंमें चाहे हम पंचत्थिसंग्रह पढ़ें, . समयपाहुड या पवयणसार पढ़े-उनके द्वारा वस्तुतत्वका जो प्रतिपादन किया गया है वह अपूर्व ही है। ___ अट्ठपाहुड, बारस अणुवेक्खा और भत्ति संगहो-इनमें क्रमशः रत्नत्रय, वैराग्य और भक्ति आदि विषयोंका प्रतिपादन बेजोड़ है। समयपाहुड आदि ग्रन्थोंमें आ० कुन्दकुन्दने परसे भिन्न तथा स्वकीय गुण-पर्यायोंसे अभिन्न आत्मा का जो वर्णन किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने इन ग्रन्थोंमें आध्यात्मिक सुख प्राप्तिकी धारा रूप जिस अपूर्व मन्दाकिनीको प्रवाहित किया है उसमें अवगाहन कर मुमुक्षु शाश्वत शान्तिकी प्राप्तिके योग्य बनते हैं। तभी तो कविवर वृन्दावनदासने कहा हैजासके मुखारविन्दतें प्रकाश भासवृन्द स्याद्वाद जैन वैन इंद कुन्दकुन्द से, तासके अभ्यासतै विकास भेद ज्ञान होत, मूढ सो लखै नहीं कुबुद्धि कुन्दकुन्द से । देत हैं अशीस शीस नाय इन्द चंद जाहि मोहि मार खंड मारतण्ड कुन्दकुन्द से, विशुद्धि बुद्धि वृद्धिदा, प्रसिद्ध ऋद्धि सिद्धिदा, हुए, न हैं, न होंहिगे मुनिंद कुन्दकुन्द से ॥ इस तरह साहित्यके क्षेत्रमें आ० कुन्दकुन्दकी अलौकिक विद्वत्ता, शास्त्रग्रथन-प्रतिभा एवं सिद्धान्त ग्रन्थोंके सारका आध्यात्मिक और द्रव्यानुयोगके रूपमें प्रस्तुत करनेका अपना अलग ही वैशिष्ट्य है। महावीर और गौतम गणधरके बाद यह पहला ही अवसर था, जबकि ज्ञानाभ्यासियोंको तत्त्वचिन्तन की एक व्यवस्थित दिशा मिली । यही कारण है कि दिगम्बर जैन परम्परामें भगवान् महावीर और गौतम गणधरके बाद आचार्य कुन्दकुन्दका नाम युगप्रतिष्ठापकके रूपमें बड़ी श्रद्धा और भक्तिके साथ लिया जाता है, और युगों-युगों तक वे इस रूपमें जीवित रहेंगे । आचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंके व्याख्याकार आचार्य अमृतचंद्र, आ० जयसेन, श्रुतसागरसूरि, कनडी वृत्तिकार अध्यात्मी बालचन्द्र,पं० बनारसीदास, पांडे राजमल्ल, पं० जयचन्द्रजी आदि तथा बीसवीं शतीके अनेक मनीषियोंका हम For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ उपकार कभी नहीं भूल सकते जिन्होंने कुन्दकुन्दके साहित्यका गहन चिन्तन, अवगाहन एवं स्वानुभव करके हम लोगों तक सरल रूपमें पहुँचाया ताकि हम आत्म-कल्याणके द्वारा इस जीववको सफल बना सकें । प्रस्तुत ग्रन्थ प्रस्तुत 'अट्ठ पाहुड' (अष्टपाहुड) में उपदेश प्रधान आचरणमूलक तथा तत्त्वचिन्तन युक्त आठ पाहुड ग्रन्थ निबद्ध हैं । इनमें आचार्य कुन्दकुन्दके "आचार्यत्व” अर्थात् विशाल श्रमण संघके अनुशास्ता रूपके सर्वत्र दर्शन होते हैं । इस ग्रन्थका प्रकाशन कुछ संस्थाओंसे हुआ भी है किन्तु षट्प्राभृतपर श्रुतसागर सूरिकी संस्कृत टीका सहित प्रस्तुत संस्करण की प्रथमावृत्ति जैनधर्म-दर्शन एवं साहित्य के विख्यात एवं उद्भट विद्वान्, अनेक ग्रन्थोंके प्रणेता, सम्पादक एवं अनुवादक सागर ( म०प्र०) निवासी डॉ० पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यके अनुवाद सहित श्री शान्तिवीर दिगम्बर जैन संस्थान, श्री महावीरजी ( राजस्थान) से वीर निर्वाण सं० २४९४, ई० सन १९६८ में प्रकाशित हुआ था। यह संस्करण दुर्लभ हो जानेसे इसे अब इसी अनुवाद सहित अनेकान्त विद्वत् परिषद् सोनागिर से नये रूपमें प्रकाशित करके बहुत ही प्रशंसनीय कार्य किया गया है। सोलहवीं सदी के बहुश्रुत विद्वान् भट्टारक श्रुतसागरसूरिको सम्भवतः छह पाहुड ही उपलब्ध रहे होंगे, तभी उन्होंने लिंग पाहुड और सील: पाहुडको छोड़ दंसण, चारित, सुत्त, बोध, भाव और मोक्ख - इन छह पाहुडोंपर विद्वत्तापूर्ण, विस्तृत टीका लिखी ।" " षट्प्राभृतादि संग्रह " के नामसे श्रुतसागरसूरिकी टीका सहित पं० पन्नालालजी सोनी द्वारा सम्पादित यह ग्रन्थ जैन साहित्यके महान् उद्धारक विद्वान् पं० नाथूरामजी प्रेमीके सद्प्रयत्नसे माणिकचंद्र ग्रन्थमाला, बम्बईसे सन् १९२० में प्रकाशित हुआ था। बाद में दो पाहुड और उपलब्ध होने पर अष्टपाहुडका प्रकाशन हुआ । अष्ट पाहुडपर भाषा वचनिका ( ढूंढारी भाषा) में पं० जयचन्द्रजी छावड़ा द्वारा लिखित टीका भी काफी लोकप्रिय है । "अट्ठ पाहुड" में कुल पाँच सौ तीन गाथायें हैं । इसमें ग्रन्थकारने आठ पाहुडोंके माध्यम से जैनधर्म-दर्शनका हार्द रत्नत्रयधर्म, श्रमणाचार और सच्चे श्रामण्य आदि विषयोंका बड़ी ही स्पष्टतासे विवेचन करते हुए शिथिलाचारसे सतत् सावधान रहनेके लिए बारम्बार आगाह किया है ताकि विशुद्ध वीतराग १. आमेर शास्त्र भण्डार ग्रन्थसूची ( पृष्ठ १५९ ) के उल्लेखानुसार यहाँ षट्पाहुड पर पं० मनोहर की भी संस्कृत टीका वाली पाण्डुलिपि उपलब्ध है, जिसका लिपि ० १७९० है । For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ - जैनधर्म द्वारा प्रतिपादित आत्मकल्याणके विशुद्ध मार्गपर जीव सदा अग्रसर रहें । इस दृष्टिसे यह ग्रन्थ एक आदर्श जीवनको प्रकाशित करने वाली वह महान् अमरकृति है जो जीवोंको युगों-युगों तक आलोकित करती रहेगी । यहाँ अष्ट पाहुडमें संग्रहीत प्रत्येक पाहुडका संक्षिप्त विषय परिचय प्रस्तुत है— १. दंसण पाहुड - छत्तीस गाथाओं द्वारा इस पाहुडमें सम्यग्दर्शनकी महत्ता - का विवेचन है । इसमें बतलाया है कि सम्यक्त्वरूपी रत्नसे भ्रष्ट मनुष्य भले ही. अनेक प्रकारके शास्त्रोंको जानते हो तो भी जिनवचनोंकी श्रद्धासे रहित होने के कारण वहीं के वहीं घूमते रहते हैं ।' जिस तरह जड़ (मूल) के नष्ट हो जानेपर उस वृक्षके परिवार अर्थात् स्कन्ध, शाखा, पत्र, पुष्प, फलादिकी वृद्धि नहीं होती उसी प्रकार सम्यग्दर्शन रूप मूलके नष्ट होनेपर चारित्रकी वृद्धि नहीं होती । अतः जो मनुष्य जिनदर्शन (जिनमत ) से भ्रष्ट हैं वे जड़ (सम्यग्दर्शन) से रहित होनेसे मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते । इसीलिए जो कार्य किया जा सकता है वह अवश्य करना चाहिए और जिसका करना शक्य नहीं है उसका श्रद्धान करना चाहिए । क्योंकि केवलज्ञानी जिनेन्द्र भगवान् ने श्रद्धान करनेवाले पुरुषको सम्यग्दर्शन कहा है अर्थात् श्रद्धान् करने वाले पुरुषके सम्यक्त्व होता है । इस प्रकार इस सम्पूर्ण पाहुडको प्रत्येक गाथा सम्यग्दर्शनकी महिमाके विवेचन से ओतप्रोत है । २. चारित पाहुड - इस पाहुड में पैंतालीस गाथायें हैं, जिनमें मुख्य रूपसे सम्यक् चारित्रका स्वरूप और इसके भेद-प्रभेदोंका विवेचन किया गया है। इसमें श्रमण और श्रावक दोनोंके आचारका प्रतिपादन 'गागर में सागर' की तरह मिलता है । इस पाहुड में कहा है कि जो ज्ञान-मार्ग अर्थात् सम्यग्ज्ञानके द्वारा सम्यक्त्व आचरण में उत्साह रखता है, उसीकी भावना करता है, आत्माको शरीर और कर्मसे पृथक् समझता है, अर्हत आदि स्तुति और सुगुरु आदिकी सेवा करता है, साथ ही वह सम्यग्दर्शन में श्रद्धा रखता हैं वह जिन- सम्यक्त्वको नहीं छोड़ता ४ इसीलिए जो ज्ञानी पुरुष चारित्रका पालन करता हुआ आत्माके सिवाय अन्य १. दंसण पाहुड गाथा ४. २ . वही गाथा १०. ३. जं सबकइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं । केवलिजिणेहि भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं | वही, गाथा २. ४. चारित पाहुड गाथा १३. For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ पदार्थकी इच्छा नहीं करता वह शीघ्र ही अनुपम सुखको प्राप्त करता है - यह निश्चय जानो । ' ३. सुत्त पाहुड --- सत्ताईस गाथाओंसे युक्त इस पाहुडके प्रारम्भ में ग्रंथकारने अरहंत द्वारा प्ररूपित गणधर देवों द्वारा अच्छी तरहसे जिसका गुम्फन किया है। तथा शास्त्रका अर्थ खोजना ही जिसका प्रयोजन है उसे सूत्र कहा है । ऐसे ही सूत्र से श्रमण अपना परमार्थ साधते हैं। आगे सूत्रको महत्ता वर्णित करते हुये कहा है कि जिस प्रकार सूत्र ( धागा या डोरा ) से रहित सुई नष्ट (गुम ) हो जाती है उसी तरह शास्त्र रहित मनुष्य भी नष्ट हो जाता है और जैसे – सूत्र : धागा ) सहित सुई खोती नहीं है, उसी तरह सूत्र ( आगम शास्त्र) सहित अर्थात् आगमोंके अध्ययन, मनन और तदनुसार आचरणसे युक्त पुरुष नष्ट नहीं होता अर्थात् भटकता नहीं है । अपितु उसका चतुर्गति भ्रमण रूप संसारका जल्दी अन्त हो जाता है । 3 - यह पाहुडे मुनियोंके आचार-विचारका संक्षेपमें प्रतिपादन करनेवाला महत्त्वपूर्ण प्रामाणिक तथा प्राचीन दस्तावेज है । यहाँ सकारण स्त्री प्रव्रज्या तकका निषेध किया गया है। इसी तरह मुनियोंको वस्त्रधारणका सर्वथा नियेध किया गया है । यहाँ यह भी बतलाया गया है कि जिनसूत्रों में तीन लिंग (वेष ) प्रतिपादित है । इनमें प्रथम है सर्वश्रेष्ठ नग्न दिगम्बर साधुका, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकका और तृतीय है आर्यिकाओंका । इन तीनोंके अतिरिक्त ऐसा कोई वेष ( लिंग ) नहीं है जो मोक्षमार्ग में ग्राह्म हो । ४. बोष पाहुड – इसमें बासठ गाथायें हैं जिनमें आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा, आत्मज्ञान, देव, तीर्थ, अर्हन्त और प्रवज्याइन ग्यारह स्थानों के माध्यमसे दिगम्बर धर्म और मुनिचर्याका स्वरूप बहुत ही उत्कृष्ट रूपमें प्रतिपादित किया गया है । ऐतिहासिक दृष्टिसे इस पाहुडकी अंतिम दो गाथायें अतिमहत्वकी हैं जिनमें आचार्य कुन्दकुन्दने अपने गमकगुरू भगवान्... श्रुतकेवली भद्रबाहुका जयघोष किया है तथा अपनेको उनका शिष्य बतलाया है । ५. भाव पाहुड – एक सौ त्रेसठ गाथाओं वाले इस पाहुडमें "भावशुद्धि " की महिमाका उत्कृष्ट प्रतिपादन करते हुये भावको ही गुण और दोषका कारण १. चारित्र गाथा ४२.. २. सुत्तपाहुड गाथा १. ३. सुतं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुर्णादि । सुतं जहा असुत्ता णासदि सुते सहा णो वि ॥। वही : गाथा ३. For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ बतलाया गया है । यहाँ कर्म, भावलिंग, अपरिग्रह संबंधी अनेक विषयोंका गहन विवेचन है | सम्यग्दर्शन सहित ही व्रत धारणकी प्रेरणा दी गई है। ६. मोक्ख पाहुड - इसमें १०६ गाथायें है जिनमें बन्ध और मोक्षका स्वरूप, - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा - आत्माके इन तीन भेदोंका निरूपण तथा मोक्षके कारण रूप परमात्याके ध्यानकी आवश्यकता और महत्ता बतलाई है । भट्टारक श्रुतसागरसूरिने उपयुक्त छह पाहुडों पर ही संस्कृत भाषामें टीका लिखी है । ७. लिंग पाहुड - वस्तुतः इस पाहुडका नाम " समणलिंग पाहुड" होना चाहिए। जैसाकि ग्रन्थकारने प्रथम गाथामें सूचित भी किया है । इस पाहुडमें श्रमणके लिङ्ग (वेष) को लक्ष्य करके उसके निषिद्ध आचरणोंके प्रति सावधान किया गया है। ८. सील पाहुड - शीलका महत्व प्रतिपादन करने वाले अष्ट पाहुडके इस अंतिम पाहुडमें चालीस गाथायें हैं । इसमें कहा है कि शीलका ज्ञानके साथ कोई विरोध नहीं है किन्तु शील के बिना विषयवासनासे ज्ञान नष्ट हो जाता है । शील विषयोंका शत्रु है और मोक्षका सोपान है । यहाँ जीवदया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, इन्द्रियदमन, सम्यक् दर्शन-ज्ञान तथा तप आदिको शीलके अन्तर्गत माना गया है । उपयुक्त आठ पाहुडोंके अध्ययनसे यह बात स्पष्ट होती है कि इन आठोंका अपना-अपना स्वतंत्र और मौलिक ग्रन्थोंके रूपमें महत्त्व है । यद्यपि " षट्पाहुड" नामसे श्रुतसागरीय संस्कृत टीका सहित अनेक प्राचीन पाण्डुलिपियाँ प्राप्त होती हैं किन्तु कुछ पाडुलिपि एक-एक पाहुडकी भी उपलब्ध हैं । वस्तुतः षट्प्राभृत या अट्ठ पाहुड कोई एक अलग ग्रंथ नहीं है अपितु पृथक्-पृथक् छोटे-बड़े छह या आठ पाहुड ग्रन्थोंको षट्प्राभृत या अट्ठ पाहुड नाम देकर एक साथ संग्रहीत कर दिया गया प्रतीत होता है । शोधकी दृष्टिसे इनमें इतनी महत्वपूर्ण सामग्री है कि प्रत्येक पर पृथक्-पृथक् शोध प्रबन्ध लिखे जा सकते हैं । विश्वविद्यालयोंके पाठ्यक्रममें इनका निर्धारण करके भी इनके व्यापक अध्ययन एवं अनुसंधानके नये क्षेत्र उद्घाटित किये जा सकते हैं । भट्टारक श्रुतसागरसूरि और उनको प्रस्तुत टोका यह विदित ही है कि 'षट्प्राभृत' पर प्रस्तुत संस्कृत टीकाके लेखक १६वीं शतीके विद्वान् भट्टारक श्रुतसागर सूरि हैं । ये मूलसंघ, सरस्वती गच्छ बलात्कार १. प्राकृत विद्या अक्टूबर १९८८ पृ० ३३. For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ - गणमें हुए हैं । इनके गुरुका नाम विद्यानन्दि था । विद्यानन्द देवेन्द्र कीर्तिके और देवेन्द्रकीति पद्मनन्दिके शिष्य और उत्तराधिकारी थे । विद्यानन्दिके बाद मल्लिभूषण और उनके बाद लक्ष्मीचन्द्र भट्टारक हुए । मल्लिभूषणको उन्होंने अपना गुरुभाई लिखा है। श्रुतसागरने लक्ष्मीचन्द्रको गुर्जर देशके सिंहासनका भट्टारक लिखा है | श्रुतसागरके अनेक शिष्य थे ।' श्रुतसागर ने अपनेको देशव्रती, ब्रह्मचारी या वर्णी लिखा है तथा स्वयंको अनेक उपाधि-विशेषणोंसे अलंकृत बतलाया है । यथा - नवनवतिमहावादिविजेता, तर्क- व्याकरण - छन्दअलंकार-सिद्धान्त-साहित्यादि शास्त्र निपुण, प्राकृतव्याकरणादि अनेक शास्त्रचञ्चु, उभयभाषा कविचक्रवर्ती, तार्किकशिरोमणि, परमागमप्रवीण, कलिकालसर्वज्ञ आदि । श्रुतसागरसूरि वस्तुतः अपने 'श्रुतसागर' नामको सार्थक करने वाले विद्वान्. थे। इनकी टीकाओं में उद्धृत विभिन्न शास्त्रोंके उद्धरणोंको देखने से ही ज्ञात हो जाता है ये विविध भाषाओं और शास्त्रोंके ज्ञाता थे । इनका सम्पूर्ण जीवन जैन साहित्यके लिए समर्पित था । इनकी अबतक निम्नलिखित ३८ कृतियाँ उपलब्ध हैं । 1 १. यशस्तिलक चन्द्रिका, २. तत्त्वार्थवृत्ति, ३ तत्वत्रय प्रकाशिका, ४. जिन सहस्रनाम टीका, ५. महाभिषेक टीका, ६. षट्पाहुडटीका, ७. सिद्धभक्तिटीका, ८. सिद्धचक्राष्टकटीका, ९. ज्येष्ठजिनवरकथा, १०. रविब्रतकथा, ११. सप्तपरमस्थानकथा, १२. मुकुटसप्तमीकथा, १३. अक्षयनिधिकथा, १४. षोडषकारण कथा, १५. मेघमालाव्रत कथा, १६. चन्दनषष्ठीकथा, १७. लब्धिविधानher, १८. पुरन्दर विधानकथा, १९. दशलाक्षणी व्रतकथा, २०. पुष्पाञ्जलिव्रतकथा २१. आकाशपंचमीव्रतकथा, २२. मुक्तावलीव्रतकथा, २३. निदु : खसप्तमीव्रतकथा, २४. सुगन्धदशमीकथा, २५. श्रावणद्वादशीकथा, २६. रत्नत्रयव्रतकथा, २७. अनन्तव्रतकथा, २८. अशोकरोहिणीकथा, २९. तपोलक्षण पंक्ति कथा, ३०. मेरुपंक्तिकथा, ३१. विमानपंक्तिकथा, ३२. पल्लिविधानकथा, ३३. श्रीपालचरित्, ३४. यशोषंर चरित्, ३५ औदार्य चिन्तामणि, ३६. श्रुतस्कन्धपूजा, ३७. पार्श्वनाथस्तवन, ३८. शान्तिनाथस्तवन । इनमें ८ टीका ग्रन्थ, चौबीस कथाग्रन्थ, शेष छह व्याकरण और काव्य ग्रन्थ है । 3 १. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३७१ ( पं० नाथूराम प्रेमी ) २. सायंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा : भाग ३. पृ० ३९१. ३. वही पू० ३९४० For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः किसी कविके अन्तर्मनको पूरी तरह समझना तथा उसकी भावग्राही व्याख्या करके दूसरोंको समझाना आसान नहीं होता । फिर भी यदि वह इसमें प्रवृत्ति करता है तो यह उसका गुरुतर दायित्व है कि मूल रचयिताके पूरे भावों और वाग्व्यवहारकी समीचीन व्याख्या करे तथा उसमें अन्तर्निहित भावों और गुणोंको प्रकाश में लाये । यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ के टीकाकार श्रुतसागरसूरिकी विद्वत्ताका दर्शन इस टीकामें पदे पदे होता है किन्तु कुछ मूल गाथाओंके अर्थ में विभिन्नता पाई जाती है । कुछ अपनी ओरसे भी ऐसी बातें जोड़ीं जिन्हें आगमानुकूल भी नहीं कहा सकता । मूल गाथागत भावोंके अतिरिक्त ऐसे अप्रासांगिक प्रसंग आवश्यक भी नहीं थे । परमत-खण्डन और स्वमत- पोषणकी शिष्ट परम्परा तो प्रायः सभी मतोंके शास्त्रों में उल्लिखित है। कुछ सीमा तक इस परम्पराका इसमें पालन भी किया गया है किन्तु कुछ प्रसंगों में इसका इस टीकामें अतिक्रमण भी देखनेको मिलता है, जिससे टीकाकारसे कुछ अंशों तक असहिष्णुता और कट्टरताके, भाव झलकने लगते हैं । जबकि अनेकान्तवादी जैन परम्परामें ऐसी सम्भावना - का अवकाश ही नहीं है । इसीलिए जयपुर के शास्त्र भण्डारोंमें संग्रहीत श्रुतसागरीय टीका सहित षट्प्राभृतकी पाण्डुलिपियोंमें 'या टीका झूठी है, गाथा साँची है' तथा 'या टीका अप्रमाण झूठी है, कुमार्गी किया है' — जैसी टिप्पणियों सहित प्रतिक्रियायें उद्धृत देखनेको मिलती हैं ।" सिद्धान्तकी दृष्टिसे इन टिप्पणियों के मूल में अन्तर्निहित भावनाको इस टीकाका गहन अध्येता अपने-आप समझ सकता है । किन्तु इतने मात्रसे इस टीकाकी महत्तांमें कमी नहीं आती, अपितु प्राकृत भाषाकी मूल गाथाओं पर संस्कृत में खण्डान्वय रूपमें लिखित प्राकृत शब्दानुसारी इस टीका द्वारा मूलग्रन्थकारके भावों और शब्दोंको सरल और विस्तृत रूपमें समझने में बहुत सहायता मिलती है। जैन सिद्धान्तके पारिभाषिक शब्दोंकी सरल परिभाषायें, उनकी निरुक्ति तथा व्युत्पत्ति मूलक व्याख्यायें fear भी अध्येता के आकर्षणका कारण बन जाती हैं । प्रस्तुत टीकाकी यह भी अपनी विशेषता है कि इसमें श्रुतसागरसूरिने जैन साहित्यके चारों अनुयोगोंसे सम्बन्धित ग्रन्थों और आचार्योंके सैकड़ों दुर्लभ उद्धरणों, प्रमाणों, श्लोकोंको विषयकी पुष्टि एवं उनके प्रतिपादन हेतु प्रसंगानुसार संकलित किया है, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं । इसमें उनकी विशाल ज्ञान-गरिमा १. 'प्राकृत विद्या' ( उदयपुरसे प्रकाशिक त्रैमासिक शोध पत्रिका) अक्टूबर १९८८ के अमें पृष्ठ ३०-३५ पर डॉ० कस्तूरबन्द कासलीवालके "कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंकी प्रमुख पाण्डुलिपियाँ" नामक केलसे उद्धृतः For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३१ के दर्शन होते हैं | अपने प्रकृत अभिप्रायको पुष्ट करनेके लिए जिन अनेक ग्रंथोंके इस टीकामें उद्धरण दिये गये हैं उनमें प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषा के भी उद्धरण हैं । कुछ तो ऐसे हैं जिनके मूलग्रन्थ या सन्दर्भ भी आज उपलब्ध नहीं होते । समन्तभद्राचार्यकी रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी प्रभाचन्द्रीय संस्कृत टीकाका अनुसरण करते हुए इस टीकामें भी अनेक कथायें दी हैं जिससे सामान्य पाठक भी रुचिपूर्वक इसका अध्ययन कर लेता है । इस तरह अनेक दृष्टियोंसे प्रस्तुत टीका महत्त्वपूर्ण है । - श्रुतसागरसूरि द्वारा प्रस्तुत इस ग्रन्थके प्रत्येक पाहुडके और इनके अन्यान्य ग्रंथोंके आदि, मध्य और अन्तकी पुष्पिकाओं, प्रशस्तियों आदिमें आचार्यों आदिकी नामावली तथा अन्यान्य सूचनायें भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण और प्रशंसनीय हैं, जिनके द्वारा जैन इतिहासकी बिखरी कड़ियों को जोड़नेका कार्य किया जा सकता है । इस तरह बहुमुखी व्यक्तित्वके धनी श्रुतसागरसूरि द्वारा रचित विविध और विशाल वाङ्मय से स्पष्ट है कि वे प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं तथा धर्मशास्त्र, दर्शन, न्याय, व्याकरण, साहित्य आदि विषयोंके प्रतिभाशाली विद्वान् थे। इससे अपने लिए विभूषित विशेषणों और उपाधियों की चरितार्थता भी पूर्ण सिद्ध हो जाती है । उनके लिए प्रयुक्त "कलिकाल - गौतम " विशेषणसे यह प्रतीत होता है कि जिस प्रकार गौतम गणधरने श्रुतका बीजरूपमें प्रचार और प्रसार किया, उसी प्रकार परमागमप्रवीण, तार्किक शिरोमणि श्रुतसागरने अनेक वादियों को पराजित करके जैनधर्मकी अपूर्व प्रभावना भी की । भाद्रपद शुक्ला पंचमी पयुषण पर्व शुभारम्भ वीरनिर्वाण संवत् २५१६ For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका दसणपाहुड मङ्गलाचरण और प्रतिज्ञा वाक्य धर्म दर्शन मूलक है दर्शन भ्रष्ट को निर्वाण नहीं है सम्यक्त्व से भ्रष्ट जीव संसार में भ्रमण करते हैं सम्यक्त्व से भ्रष्ट जीवों को बोधि की प्राप्ति दुर्लभ है ५ उत्कृष्ट ज्ञानी कौन होते हैं ? भ्रष्टों में भ्रष्ट कौन है ? दोषवादी चारित्र से पतित है चौरासी लाख गुणों का वर्णन शील की दश विराधनाएं आलोचना के दश दोष मूल विनष्ट जीव सिद्ध नहीं हो सकते १०-११ सम्यग्दृष्टि जीवों की पाद वन्दना न करने का १९-२० २३-२७ १३ २८ ___ २९ १५ सम्यग्दर्शन के मेदों का वर्णन सम्यक्त्व से रहित जीवों की पाद वन्दना का कुफल कौन से मुनियों को सम्यक्त्व रहता है ? बाह और अन्यन्तर परिग्रह के भेद सम्यक्त्ववान् जीव हो श्रेय और अश्रेय को जानता है निर्वाण कोन प्राप्त करता है? जिन वचन रूप बोषध की महिमा विनधर्म में तीन ही लिङ्ग विष) हैं सम्यग्दृष्टि का लक्षण व्यवहार और निश्चय से सम्यग्दर्शन का लक्षण सम्यक्त्व ही मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है महालवान् जीव को सम्यक्त्व होता है । पापणा करने योग्य कौन है? For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ . २४ ४२ २६ २७ ... ५० ५२-५३ ५५-५७ . ५८ . गाथा नग्न मुद्रा से ईर्ष्या रखने वाला मिथ्यादृष्टि है गौरव करने वाले सम्यक्त्व से भ्रष्ट हैं २५ असंयमी की वन्दना नहीं करना चाहिये गुणहीन वन्दना के योग्य नहीं है वन्दनीय पुरुषों के गुणों का वर्णन २८-२९ मोक्ष का कारण क्या है ? ३० सम्यग्दर्शनादित्रिक निर्वाण के साधन हैं । चार आराधनाएं मोक्ष का कारण है सम्यक्त्व की महिमा '३३-३४ स्थावर प्रतिमा क्या है जिनेन्द्र के १००८ लक्षण तथा अतिशयों आदि का वर्णन निर्वाण को कौन प्राप्त होते हैं ? चारित पाहु मङ्गलाचरण और ग्रन्थ प्रतिज्ञा दर्शन, ज्ञान और चारित्र जीव के अविनाशी भाव है ३ ज्ञान दर्शन, और चारित्र के लक्षण चारित्र के दो भेद-सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण सम्यक्त्वाचरण का वर्णन जिन सम्यक्त्व के आराधक की पहिचान १०-११ जिन सम्यक्त्व को कौन छोड़ता है ? १२ जिन सम्यक्त्व को कौन नहीं छोड़ता है ? अज्ञान तथा मिथ्यात्व आदि को छोड़ने का उपदेश विशुद्ध ध्यान कब होता है बन्ध को कौन प्राप्त होते हैं। अरित्र सम्बन्धी दोषों को कौन छोड़ता है ? ये तीनों भाव किसके होते हैं ? संस्खातगुणी और असंख्यातगुणी निर्जरा के दृष्टान्त संघमाचरण का वर्णन, उसके दो भेद, सागार और ६५-६९ For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागार संयमाचरण के ११ भेद अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत पाँच अणुव्रत तान गुणव्रत चार शिक्षाव्रत - ३५ - अनागार संयमाचरण का वर्णन महाव्रत का निरुक्त अर्थ अहिंसा व्रत की पाँच भावनाएँ सत्य व्रत पाँच भावनाएँ अचौर्यव्रत की पाँच भावनाएँ ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ परिग्रह त्याग व्रत की पाँच भावनाएँ पाँच समितियों का वर्णन आत्म ज्ञान स्वरूप है सम्यग्ज्ञानी का लक्षण दर्शन, ज्ञान, चारित्र की महिमा सुत्त पाहुड सूत्र का अर्थ जो दो प्रकार के सूत्र को जानता है वह भव्य है। सूत्र का ज्ञाता संसार का नाश करता है। सूत्र सहित मनुष्य नाश को प्राप्त नहीं होता यह सुई के दृष्टान्त से स्पष्ट है जिन सूत्र का ज्ञाता ही सम्यग्दृष्टि है जिन सूत्र व्यवहार और निश्चयरूप है श्रुत की श्रद्धा से रहित मिध्यादृष्टि है: सूत्रार्थ से भ्रष्ट मनुष्य करोड़ों भव तक भ्रमण कस्ता है स्वच्छन्द विहार करने वाला मिथ्यात्व को प्राप्त होता है निवेल मुनि का पाणिपात्र आहार लेना मोक्ष का मार्ग है शेष अमार्ग है गाथा २१ २२ २३. २४ २५ २६-२९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९-४४ ܕ For Personal & Private Use Only 2585 ८५ ८५ ८६ ८८-९१ ९२ ९३ ९४ ९५ ९६. ९७ ९७ ९९ १०० १०१-१०४ १०६ १०७ १.०८. १०९ ११० ११० ११२ ११३ ११४ ११५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा . २२ १२८ १२९ २४-२७ १३०-१३४ वन्दनीय कौन है ? वन्दना किसे करना चाहिये इच्छाकार किसे करना चाहिये ? श्रावक धर्म का फल आत्मश्रद्धान से रहित जीव संसारी ही है आत्मध्यान की प्रेरणा मुनि को पाणिपात्र ही आहार लेना चाहिये तिल तुषमात्र परिग्रह का धारी मुनि निगोद का पात्र होता है परिग्रहवान् मुनि गर्हणीय है पांच महावत ही निर्ग्रन्थ मोक्ष मार्ग हैं और वही वन्दनीय है दूसरा लिङ्ग उत्कृष्ट श्रावकों का है स्त्रियों का उत्कृष्ट लिङ्ग-आर्यिका का पद वस्त्रधारी जीव सिद्धि को प्राप्त नहीं होता है स्त्री को दीक्षा क्यों नहीं दी जाती ? बोध पाहुड मङ्गलाचरण और प्रतिज्ञा वाक्य आयतन आदि ग्यारह अधिकारों के नाम आयतन का लक्षण चैत्यगृह का स्वरूप जिन प्रतिमा का वर्णन जङ्गम प्रतिमा का वर्णन सिद्ध प्रतिमा का वर्णन दर्शनाधिकार का वर्णन जिन बिम्बाधिकार जिन मुद्राधिकार ज्ञानाधिकार देवाधिकार धर्माधिकार तीपर्वाधिकार १४३-१४६ १४८-१५० १२-१३ १४-१५ १६-१८ १९ २०-२३ २४ १५८ १५९-१६१ १६२-१६३ १६४-१६७ १६८ १७०-१७३ १७४ २६-२७ १०-१७९ For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा पृष्ठ २८-३० १८३-१८६ ३५ अहंतस्त्ररूपाधिकार नामादि निक्षेपों की अपेक्षा अर्हन्त का वर्णन गुणस्थानादि की अपेक्षा अर्हन्त के वर्णन की। प्रतिज्ञा गुणस्थान की अपेक्षा अहंन्त का वर्णन चौंतीस अतिशय तथा प्रतिहार्यों का वर्णन मार्गणा की अपेक्षा अर्हन्त का वर्णन पर्याप्ति की अपेक्षा अर्हन्त का वर्णन प्राणों की अपेक्षा अर्हन्त का वर्णन जीव स्थानों की अपेक्षा अरहन्त का वर्णन द्रव्य की अपेक्षा अरहन्त का वर्णन भाव निक्षेप की अपेक्षा अर्हन्त का वर्णन प्रव्रज्या का वर्णन बोध प्राभूत की चूलिका भाव पाहुड मङ्गलाचरण और प्रतिज्ञा वाक्य भावलिङ्ग की प्रमुखता आभ्यन्तर परिग्रह से युक्त मनुष्य का बाह्य त्याग 'निष्फल है भाव रहित को सिद्धि नहीं होती भाव के अशुद्ध रहते हुए बाह्य का त्याग क्या कर सकता है ? भाव लिङ्ग प्रथम लिङ्ग है भाव रहित जोव ने अनेक बार निग्रंन्य मुद्रा धारण की है भाव के बिना जीव ने नरक गति के भीषण दुःख १९७ १९८ १९९-२०२ २०२-२०३ २०४-२३३ २४१-२४३ ४०-४१ ४२-५९ ६०-६२ २४५ २४६ ४१ २४९ २५० २५१ सहे हैं ८-११ २५२-२५६ १२-१६ १५७-२६४ शुभ भावना से रहित जीव सुरलोक में भी दुःख प्राप्त करता है भाव के बिना मनुष्यगति के दुःख सहन करने पड़ते हैं १७-२० २६४-२६६ For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव के बिना त्रिभुवन में भ्रमण किया है तथा क्षुधा तृषा आदि के दुःख सहन किये हैं और क्षुद्रभव धारण किये हैं रत्नत्रय का लक्षण भाव के बिना प्राप्त होने वाले क्रमरणों का निरूपण द्रव्य लिङ्गी मुनि सर्वत्र भ्रमण करता है भाव रहित जीव अनन्त काल से जन्म मरण आदि के दुःख भोग रहा है भाव के बिना जीव ने अनन्त पुद्गल ग्रहण किये भाव के बिना समस्त लोक में यह जीव भ्रमा है भाव के बिना अनेक रोग, गर्भवास के दुःख तथा बाल्य आदि अवस्थाओं के दुःख भोगे हैं भाव से मुक्त जीव ही मुक्त कहलाता है कषाय से बाहुबली कलुषित रहे मधुपिङ्ग मुनि की कथा वसिष्ठ मुनि की कथा भाव के बिना यह जीव चौरासी लाख योनियों में भटका है मात्र द्रव्य लिङ्ग क्या कर सकता है ? बाहुमुनि की कथा ३८ पानी था भावलिङ्गी शिवकुमार की कथा ( तदन्तर्गत जम्बूस्वामी की कथा ) भव्य सेन मुनि की कथा शिवभूति मुनि की कथा भाव से ही नग्न होता है भाव रहित नग्नत्व अकार्यकारी है भावलिङ्गी कौन होता है। भावलिङ्गी की भावना भावपूर्वक विशुद्ध आत्मध्यान की प्रेरणा शुद्ध जीव स्वभाव की भावना करने वाला शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त होता है गाथा २१- ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७-४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७. ४८ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७-५९ ६० ६१ For Personal & Private Use Only पृष्ठ २६७-२७४ २७५ २७६ २८४ २८५ २८७ २८९ २९० - २९५ २९६ २९७ २९८- ३२५ ३२६-३४४ ३४५ ३४६ ३४७-३४८ ३४९-३५२ ३५३-३७२ ३७४-३७७ ३७८-३७९ ३७९ ३८० ३८२ ३८३-३८५ ३८६ ૨૮૦ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३९ - पष्ठ ३९० ३९१ ३९२ ३९३ ३९४ ३९५ ३९६ ३९९ ४०१ ४०२ ४०४ ४०५ - ४०७ गाथा शुद्ध जीव स्वभाव को जानने की प्रेरणा जीव का सद्भाव मानने वाले ही सिद्ध होते हैं आत्मा का लक्षण पांच प्रकार के ज्ञान की भावना करने का उपदेश भावरहित श्रुत किस काम का है ? द्रव्य से सभी नग्न है भाव रहित नग्नत्व दुःख का कारण है मात्र नग्नत्व से क्या होने वाला है ? अभ्यन्तर दोषों का त्याग कर यथार्थ जिनलिङ्ग को प्रकट करने की प्रेरणा सदोष मुनि नट श्रमण है द्रव्यलिङ्गी मुनि बोधि को प्राप्त नहीं होता भावलिङ्ग-पूर्वक द्रव्यलिङ्गी प्रकट होता है भाव रहित मुनि तिर्यग्गति के दुःख का पात्र होता है। बोधि को दुर्लभता बोधि को कौन प्राप्त होता है ? तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कौन करता है ? बारह प्रकार के तप का वर्णन कौन सा जिनलिङ्ग निर्मल होता है ? उदाहरण पूर्वक जिनधर्म की श्रेष्ठता पुण्य और धर्म की परिभाषाएँ पुण्य, भोग का निमित्त है, कर्म क्षय का नहीं आत्मा ही धर्म है आत्मा की भावना के बिना पुण्य सिद्धि कारण नहीं है ८४-८५ शालिमत्स्य की कथा भावरहित जीवों का बाह्य त्याग निरर्थक है .८७-८९ श्रुतज्ञान की भावना की प्रेरणा ९०-९१ परीषह और उपसर्ग सहन करने की प्रेरणा ९२-९३ अनुप्रेक्षाओं तथा भावनाओं की भावना करो नौ पदार्थ तथा सात तस्व आदि की भावना तथा जीव समास और गुणस्वानों का वर्णन ४०८ ४०९ ४३८ ४३९ ४४०-४४१ ४४४-४४६ ४४८-४४९ ४५१-४५२ ४५३ For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४६४ ४६६ ४७७-४७८ ४७९ ४८० ४८१ ४८२-४८४ ४९० ४९१ १११ नौ प्रकार का ब्रह्मवत धारण करने का उपदेश भाव सहित मुनि ही चार आराधना को प्राप्त . करता है भाव श्रमण ही कल्याण को प्राप्त करते हैं आहार के ४६ दोषों का वर्णन सचित्त भक्त पान तीव्र दुःख का कारण है १००-१०१ पांच प्रकार की विनय का उपदेश १०२. जिनभक्ति और वैयावृत्य का उपदेश आलोचना का वर्णन १०४ क्षमा का वर्णन १०५-१०७ दीक्षा काल के भाव का स्मरण करने का वर्णन भाव रहित जीवों का बाह्यलिङ्ग अकार्यकारी है अहारादिसंभाओं की आसक्ति का फल ११० भावशुद्धि पूर्वक उत्तरगुणों का पालन कर तत्त्व की भावना करने का उपदेश ११२-११३ परिणाम ही बन्ध और मोक्ष का कारण है ११४-११७ शील के अठारह हजार भेदों का तथा चौरासी लाख उत्तरगुणों का वर्णन धर्म्य और शुक्लध्यान का वर्णन भाव श्रमण ही ध्यानकुठार के द्वारा संसार रूपी वृक्ष को छेदते हैं रागरूपी वायु से रहित होकर ध्यान रूपी दीपक जलता है पञ्चपरम गुरुओं के ध्यान की प्रेरणा ज्ञान सलिल की महिमा भावश्रमणों का भावांकुर नष्ट हो जाता है १२४ भावश्रमण बनने की प्रेरणा १२५-१२६ भावभ्रमण धन्य हैं १२७ भावमुनि ऋद्धियों में मोहित नहीं होते १२८-१२९ बात्म हित करने की प्रेरणा १३०--१३१ ४९२-४९३ ४९५-५०० . ११८ ५०० ५०६ ५०८ ५१३ ५१५ ५१६ ५१७-५१९ ५२१ ५२२-५२३ ५२३-५२५ For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोग सुख के कारण जीव ने अनन्त भवसागर भ्रमण किया है प्राणिवध के कारण जीव चौरासी लाख योनियों में घूमा है अभयदान की प्रेरणा ३६३ मिथ्यामतों का वर्णन मिथ्यादृष्टि जीव अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता अभव्य जीव को जिनधर्म नहीं रुचता कुत्सित धर्म के सेवन का फल तीन सौ तिरेसठ पाखण्डी मतं छोड़ने का उपदेश सम्यग्दर्शन से रहित जीव चलवश है सम्यग्दृष्टि की प्रशंसा जिनलिङ्ग की प्रशंसा सम्यग्दर्शन धारण करने का उपदेश ४१ - जीव का स्वरूप भव्य जीव ज्ञानावरणादि कर्मों का नाश करता है घातिया कर्मों के नष्ट होने पर प्रकट होने वाले गुण सम्यग्दर्शन से जीव परमात्मा बनता है जिनवर की चरण वन्दना का फल सत्पुरुष कषायरूपी विष से लिप्त नहीं होता सत्पुरुष का लक्षण धीर वीर पुरुषों का लक्षण विषय रूपी सागर के पार करने वाले भगवान धन्य हैं ज्ञानरूपी शस्त्र के द्वारा माया रूपी बेल का नाश चारित्ररूपी खड्ग के द्वारा पाप रूपी स्तम्भ नाश होता है गाथा १३२ १३३ १३४ १३५ १३६ १३७ १३८-१३९ १४० १४१ १४२-१४३ १४४ १४५ १४६ १४७ १४८ १४९-१५० १५१ १५२ १५३ १५४ १५५ १५६ १५७ For Personal & Private Use Only पृष्ठ ५२६ ५२७ ५२८ ५२९ ५३० ५३१ ५३२-५३३ ५३३ ५३४ ५३५-५३६ ५३७ ५३८ ५३९ ५४० ५४१ ५४४-५४५ ५४७ ५४८ - ५४९ ५५१ ५५२ ५५३ ५५३ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा . पृष्ठ मुनि रूपी चन्द्रमा का वर्णन विशद्ध भावों का फल १५८ १५९-१६३ ५५५-५५८ मोक्ष पाहुड .५६०-५६१ ५६२-५६३ ५६४ ५६५ . ५६९ ५७०-५७४ ५७४ ५७८ ५७९ . ५८० १८ ११ मङ्गलाचरण और प्रतिज्ञा वाक्य . . १-२ आत्मतत्त्व की महिमा और उसके तीन भेद ३-४ बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के लक्षण सिद्धों का वर्णन परमात्मा के ध्यान का क्रम बहिरात्मा का वर्णन देह से निरपेक्ष पुरुष ही निर्वाण को पाता है बन्ध और मोक्ष विषयक जिनोपदेश स्वद्रव्य में रत जीव सम्यग्दृष्टि है परद्रव्य में रत जीव मिथ्यादृष्टि है परद्रव्य और स्वद्रव्य की रति का फल परद्रव्य का लक्षण स्वद्रव्य का लक्षण स्वद्रव्य के ध्यान का फल १९-२३ कालादि लब्धि से आत्मा ही परमात्मा होता है . २४ व्रत और तप से स्वर्ग की प्राप्ति होना अच्छा है २५ शुद्ध आत्मा से ध्यान की प्रेरणा आत्मा का ध्यान किसके होता है ? २७-२८ निर्जल्प ध्यानी का विचार ध्यानस्थ मुनि कर्म क्षय करता है व्यवहार में सोनेवाला स्वकार्य में जागता है ३१-३२ ध्यान और अध्ययन का उपदेश आराधक का लक्षण और आराधना का फल ३४-३७ रत्नत्रय का लक्षण ३७-३८ दर्शन शुद्ध मनुष्य ही निर्वाण को पाता है सम्यक्त्व का लक्षण ४० सम्यग्ज्ञान का लक्षण ५८२-५८५ ५८६ ५८७ ५८९ ५८९-५९२ ५९३ ५९४ ५९५ ५९६ ५९६-५९९ ६०० ६०१ ६०२ For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४३ - ६०३ ६०४ ६०५ ६०६ ४७ ६०७ ६०७-६२० ६२० ६२१-६२२ ६२२ ६२४ ६२५ ६२६ ६२७-६३२ ६३४ सम्यक्चारित्र का लक्षण रत्नत्रय युक्त तप का फल कैसा योगी परमात्मा का ध्यान करता है कैसा जीव उत्तम सुख को प्राप्त करता है विषय कषाय से युक्त जीव सिद्धि सुख को प्राप्त नहीं होता रुद्र की कथा ४६ जिन मुद्रा सिद्धि सुख का कारण है परमात्मा के ध्यान का फल ४८-४९ चारित्र ही आत्मा का धर्म है ५० जीव स्वभाव से रागादि रहित है ___ ५१ कैसा योगी ध्यानरत होता है ? . ५२ ज्ञानी जीव कर्मों का अल्प काल में क्षय करता है। ५३ अज्ञानी और ज्ञानी का लक्षण ५४-५८ तप रहित ज्ञान और ज्ञान रहित तप व्यर्थ है ५९ तीर्थकर भी तप से ही सिद्धि को प्राप्त करते हैं मात्र बाह्य लिङ्ग का धारक मुनि मोक्षमार्ग का नाश करने वाला है सुखिया स्वभाव के छोड़ने का उपदेश कैसा आत्मा का ध्यान करना चाहिये आत्मा का जानना सरल नहीं विषयों से विरक्त मनुष्य ही आत्मा को जानता है विषय मूढ जीव चतुर्गति संसार में घूमते हैं। विषयों में विरक्त जीव संसार से मुक्त होते हैं । पर द्रव्य में परमाणु प्रमाण राग करने वाला अज्ञानी है नियम से निर्वाण किन्हें प्राप्त होता है ? पर द्रव्य का राग संसार का कारण है समभाव से ही चारित्र होता है यह पंचम काल ध्यान के योग्य नहीं है इस मान्यता का निराकरण ___७३-७५-७७ जिनलिङ्ग धारण कर पाप करने वाले मोक्षमार्गी नहीं हैं ७८-७९ ६२-६३ ६३८-६३९ ६४० ६४१ ६४२ ६४२ ६४४ ६४६ ६४७ ६०८-६५२ ६५३-६५४ For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा पृष्ठ मोक्षमार्गी कौन है इसका वर्णन ८०-८८ ६५५-६६२ धन्य तथा कृतकृत्य कौन हैं ? सम्यक्त्व का स्वरूप ९०-९१ ६६३-६६६ मिथ्यादृष्टि कौन है ? तथा मिथ्यात्व का फल ९२-९७ ६६७-६७१ बाह्य कर्म करने वाले साधु सिद्धि सुख नहीं पाते ९८-१०० ६७२-६७६ सच्चा साधु कैसा होता है ? १०१-१०२ ६७२-६७६ आत्म तत्त्व क्या है ? १०३ . ६७७ पंचपरमेष्ठी रूप आत्मा ही शरण है १०४-१०६ ६७८-६८० लिङ्ग पाहु मङ्गलाचरण और प्रतिज्ञा वाक्य १ ६८३ धर्म से लिङ्ग होता है, लिङ्ग मात्र से धर्म नहीं होता - २ , ६८३ लिङ्ग धारण कर लिंग भाव की हँसी करने का फल ६८३ श्रमणाभासों का वर्णन ४-२२ ६८४-६९२ शोल पाहर मंगलाचरण और प्रतिज्ञा वाक्य ६९३ शील और ज्ञान का विरोध नहीं है ६९३ ज्ञान की प्राप्ति कठिनाई से होती है विषयासक्त जीव ज्ञान को नहीं जानता चारित्र हीन ज्ञान, दर्शन रहित लिङ्ग और संयम रहित तप की निरर्थकता चारित्र से शुद्ध ज्ञान आदि की महिमा विषयी जीव चतुर्गति में भ्रमण करते हैं विषय से विरक्त ज्ञानी जीव चतुर्गति भ्रमण को छेदते हैं ज्ञान रूपी जल से जीव शुद्ध होता है ज्ञान से गर्वित जीव विषयों में रक्त होते हैं इसमें ज्ञान का अपराध नहीं है ६९६ निर्वाण की प्राप्ति किनको होती है ११-१२ ६९७ ६९३ ६९४ ६९५ ६९५ For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १४ ६९८ ६९८ ६९९-७०० ७०० ७०१ ७०१ ७०२ ७०२ ७०३ ७०३ ७०४ इष्टदर्शी मनुष्यों को मार्ग प्राप्त है परन्तु उन्मार्गदर्शी मनुष्यों का ज्ञान निरर्थक है आराधक कौन नहीं है ? शील की महिमा १५-१८ शील का परिवार क्या है? गोल क्या-क्या है ? विषय रूपी विष की दारुणता २१-२२ विषयासक्त जीवों को प्राप्त होने वाले दुःख तप और शील से युक्त मनुष्य विषय को विष के समान छोड़ देते हैं सब अंगों में शोल ही उत्तम अंग है विषयों के लोभी मनुष्य अरहर की घड़ी के समान संसार में भ्रमण करते है कर्म की गांठ को कौन छेदते हैं ! शील युक्त मनुष्य ही उत्कृष्ट निर्वाण को प्राप्त होता है शील के बिना मोक्ष नहीं होता २९-३१ विषयों से विरक्त मनुष्य ही नरक की भारी वेदना को नष्ट करता है अतीन्द्रिय मोक्ष पद शील से प्राप्त होता है सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, तप और वीर्य पञ्चाचार पुरातन कर्मों को अग्नि के समान भस्म करते हैं विषयों से विरक्त मनुष्य ही सिद्धि को प्राप्त होते हैं शीलवान कौन है ? जिनशासन में बोधि को कौन प्राप्त होते हैं ? शीलरूपी सलिल में स्नान करने वाले जीव सिद्धि सुख को प्राप्त होते हैं आराधनाओं को प्रकट कौन करते हैं ? सम्यक्त्व, शील तथा ज्ञान का लक्षण ७०४ ७०५-७०६ ७०६ ७०६ ७०७ ७०८ ७०८ ७०८ ७०८ ७०९ ७०९ For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टपाहुड For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमः सिद्धेभ्यः श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य - विरचितम् षट्प्राभृतम् श्री श्रुतसागर सूरि- विरचितया टीकया सहितम् दृग्वृत्तसूत्रबोधाख्यं भावमोक्षसमाह्वयम् । षट्प्राभूतमिति प्राहुः कुन्दकुन्दगुरूदितम् ॥ १ ॥ अथ 'श्रीविद्यानन्दिभट्टारक पट्टाभरणभूतश्री मल्लिभूषणभट्टारकाणामादेशादध्येषणावशाद् बहुशः प्रार्थनावशात् कलिकालसर्वज्ञविरुदावलीविराजमानाः श्रीसद्धर्मोपदेशकुशला निजात्मस्वरूपप्राप्तिं पञ्चपरमेष्ठिचरणान् प्रार्थयन्तः सर्वजगदुपकारिण उत्तमक्षमाप्रधानतपोरत्नसंभूषितहृदयस्थला भव्यजनजन कतुल्याः श्री दर्शनप्राभृत, चारित्रप्राभृत, सूत्रप्राभृत, बोधप्राभृत, भावप्राभृत और मोक्षप्राभृतं इस प्रकार कुन्दकुन्द स्वामीके द्वारा कथित षट्प्राभृत कहे जाते हैं ॥ [ विशेष - श्री कुन्दकुन्द स्वामीके द्वारा रचित लिङ्गप्राभृत और शीलप्राभृतये दो प्राभृत और हैं जिनकी भाषा टीका षट्प्राभूत के अनन्तर इसी ग्रन्थ में आगे दी जावेगी । जान पड़ता है कि संस्कृत टीकाकार श्री श्रुतसागर सूरिको टीका करते समय वे उपलब्ध नहीं होंगे, इसलिये उन्होंने षट्प्राभृतके नामसे दर्शनप्राभृत आदि छह प्राभृतोंकी ही टीका की है । ] अथानन्तर जो 'कलिकालसर्वज्ञ' इस विरुदावलीसे सुशोभित हैं, श्रीसम्पन्न आर्हत धर्म के उपदेश में कुशल हैं, पञ्च परमेष्ठी के चरणों से जो निज आत्मस्वरूप की प्रार्थना करते हैं, सर्व जगत् का उपकार करने - वाले हैं, उत्तम क्षमा की प्रधानता लिये हुए तपरूपी ज्ञान से जिनका हृदय विभूषित है, जो भव्य जीवोंके लिये पिताके समान हैं तथा आत्मस्वरूप की श्रद्धा से जिन्हें सम्यग्दर्शन उपलब्ध हुआ है ऐसे श्री श्रुतसागर सूरि, श्री विद्यानन्दिभट्टारक सम्बन्धी पट्ट के अलंकारस्वरूप श्री मल्लि १. श्रीविद्यानन्दिपदाभरण - म० । For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [१.१श्रुतसागरसूरयः श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितषट्प्राभृतग्रन्यं टीकयन्तः स्वरुचिविरचितसदृष्टयः सम्यग्दर्शनप्राभृतस्यादौ परापरगुरुप्रवाहमङ्गलप्रसिद्धिप्रार्थनपरा . नान्दीसूत्रस्य 'विरचनमाहु काऊण णमुक्कारं जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स । दसणमग्गं वोच्छामि जहाकर्म समासेण ॥१॥ कृत्वा नमस्कारं जिनवरवृषभस्य वर्धमानस्य । . .. दर्शनमार्ग वक्ष्यामि यथाक्रमं समासेन ॥ १ ॥ अष्टपदा नान्दी। (वोच्छामि) वक्ष्यामि कथयिष्यामि । कः कर्ता ? अहं श्री-कुन्दकुन्दाचार्यः । कं कर्मतापन्नम् ? (दंसणमग्ग) सम्यग्दर्शनस्वरूपम् । कथं वक्ष्यामि ? (जहाकम) यथाक्रममनुक्रमेण । केन कृत्वा ? (समासेण) संक्षेपेण । किं कृत्वा पूर्वम् ? (वड्ढमाणस्स) वर्द्धमानस्य प्रियकारिणीवल्लभ-श्रीसिद्धार्थमहाराज-नन्दनस्यान्तिमतीर्थकरपरमदेवस्य भरतक्षेत्रस्थविदेहदेशसम्बन्धिश्रीकुण्डपुरपत्तनोत्पन्नस्य सुवर्णवर्णशरीरस्य किञ्चिदधिकद्वासप्ततिवर्षपरमायुषः सप्तहस्तोन्नतशरीरस्य निर्भयत्वरञ्जितसंगमनामधेयदेवकृतस्तवनस्य वीस्वर्द्धमान-महावीरमहतिमहावीर-सन्मति-नामपञ्चकप्रसिद्धस्य । (णमुक्कार) नमोऽस्त्विति वचनेन मनसा कायेन वचसा साष्टाङ्गप्रणामम् । (काऊण) कृत्वा । कथंभूतस्य वर्धमानस्य ? (जिणवरवसहस्स) जिनवराणां श्रीगोतमादिगणघरदेवादीनां मध्ये वृषभस्य भूषण भट्टारक की आज्ञा से, प्रेरणा से और अनेक जीवों की प्रार्थना के वश से श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित षट्प्राभृत ग्रन्थ की टीका करने के लिये उद्यत हुए हैं सो परापर गुरुप्रवाह से मङ्गल सिद्धि की प्रार्थना करते हुए दर्शनप्राभृत के प्रारम्भ में मङ्गलसूत्र की व्याख्या करते हैं____गाथार्थ-कर्मरूप शत्रुओं को जीतनेवाले गौतमादि गणधरोंमें वृषभश्रेष्ठ श्री वर्धमान भगवान् को, अथवा ज्ञानादि गुणों से वर्धमान-निरंतर वृद्धि को प्राप्त होनेवाले जिनवरवृषभ-भगवान् ऋषभदेव-प्रथम तीर्थंकर अथवा समस्त तीर्थंकरों को नमस्कार कर मैं अनुक्रम से संक्षेपपूर्वक सम्यग्दर्शन का स्वरूप कहूँगा ॥१॥ विशेषार्थ-ग्रन्थ के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण, प्रतिज्ञावाक्य और प्रतिपादन की शैली का निरूपण करते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्य महाराज ने कहा है कि मैं प्रियकारिणी महाराशी के प्राणनाथ सिद्धार्थ महाराज के १. विवरण-म०। For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.२] दर्शनप्राभृतम् श्रेष्ठस्य । इत्यनेन विशेषणेन प्रथमतीर्थकर-श्रोमदादिनाथादोनामपि सर्वतीर्थंकरसमुदायस्यापि नमस्कारः कृतो भवतीति वेदितव्यम् । दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं । तं सोऊण सकण्णे देसणहीणो ण वंदिव्वो ॥२॥ पुत्र, अन्तिम तीर्थकर, भरतक्षेत्र में स्थित विदेह देश सम्बन्धी कुण्डपुर नगर में उत्पन्न, सुवर्ण के समान वर्णवाले, कुछ अधिक बहत्तर वर्ष की उत्कृष्ट आयु से युक्त, सात हाथ ऊँचे, निर्भयता से प्रसन्न संगम नामक देव द्वारा स्तुत; तथा वीर, वर्धमान, महावीर, महतिमहावीर और सन्मति इन पाँच नामों से प्रसिद्ध श्री वर्धमान भगवान् को मन-वचन-काय से नमस्कार कर संक्षेपपूर्वक पूर्वाचार्यों के क्रम का उल्लंघन न कर सम्यग्दर्शन का स्वरूप कहेगा। गाथा में आया हआ जिणवरवसहस्स शब्द विशेषण और विशेष्य दोनों हैं। इसलिये विशेषण पक्ष में बड्ढमाणस्स का विशेषण मानकर उसका अर्थ ऐसा करना चाहिये कि जो वर्धमान स्वामी कर्मरूप शत्रुओं को जोतनेवाले गौतमादि गणधरों में बृषभ-श्रेष्ठ हैं उन्हें नमस्कार कर, और विशेष्य पक्ष में बड्ढमाणस्स को विशेषण मानकर ऐसा अर्थ करना चाहिये कि जो ( वद्धते-ज्ञानादिगुणैः समेधते वृद्धि प्राप्नोतीति वर्धमानः) ज्ञानादि गुणों से निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हो . रहे हैं ऐसे प्रथम जिनेन्द्र श्री वृषभ देव को अथवा वृषभ-अजित आदि चौबीस तीर्थंकरों के समूह को नमस्कार कर। क्योंकि कटपयपुरःस्थवर्णेः' इस नियम के अनुसार 'वर' का अर्थ २४ होता है, अतः जिनवरवषभस्य का अर्थ श्रेष्ठ चौबीस जिनेन्द्र भो होता है। ___ गाथार्थ-जिनेन्द्र भगवान् ने शिष्यों के लिये सम्यग्दर्शनमूलक धर्म १. कटपयपुरस्थवर्णैर्नव-नव-पञ्चाष्टकल्पितैः क्रमशः । स्वरअनशून्यं संख्या मात्रोपरिमाक्षरं त्याज्यम् ॥ अर्थात् क ट प और य के आगे क्रम से ९९५ और ८ अक्षरों से उतने अंकों को कल्पना करना चाहिये स्वर, अ और न से शून्य समझना चाहिये और मात्रा तथा संयुक्त अक्षर त्याज्य मानना चाहिये, अर्थात् उनसे किसी अङ्क का बोध नहीं होता। इस नियम के साथ 'अङ्कानां वामतो गतिः' अंकों की गति उल्टी होती है यह नियम भी ध्यान में रखना चाहिये। उल्लिखित क्रम के अनुसार व से ४ और रसे २ अकूलिये जाते है, तथा दोनों को विपरीत गति से पढ़नेपर 'वर' का अर्थ २४ निकलता है। . For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [१.२दर्शनमूलो धर्म उपदिष्टो जिनवरैः शिष्याणाम् । तं श्रुत्वा स्वकर्णे दर्शनहीनो न वन्दितव्यः ।।२।। ( दंसणमूलो धम्मो ) दर्शनं सम्यक्तं मूलमधिष्ठानमाधारा प्रासादस्य गर्तापूरवत् वृक्षस्य पातालगत-जटावत् प्रतिष्ठा यस्य धर्मस्य स दर्शनमूल एवंगुणविशिष्टो धर्मो दयालक्षणः ( जिणवरेहिं ) तीर्थकरपरम-देवरपरकेवलिभिश्च ( उवइट्ठो ) उपदिष्टः प्रतिपादितः । केषामुपदिष्टः ? ( सिस्साणं ) शिष्याणां गणघर-चक्रधर-वज्रधरादीनां भव्यवरपुण्डरीकाणाम् । (तं सोऊण संकण्णे ) तं धर्म श्रुत्वाऽऽकर्ण्य स्वकर्णे निजश्रवणे आत्मशब्दग्रहे । ( देसणहीणो ण वंदिव्वो) दर्शनहीनः सम्यक्त्वरहितो न वन्दितव्यो नैव वन्दनीयो न माननीयः । तस्यान्नदानादिकमपि न देयम् । उक्तं च मिथ्यादृग्भ्यो ददद्दानं दाता मिथ्यात्ववर्धकः । । अथ कोऽसौ दर्शनहीन इति चेत् ? तीर्थकरपरमदेवप्रतिमां न मानयन्ति, न पुष्पादिना पूजयन्ति । किमिति न पूजयन्ति ? मिथ्यादृष्टयः किलैवं वदन्तिका उपदेश दिया है, सो उसे अपने कानों से सुनकर सम्यग्दर्शन से रहित मनुष्य को वन्दना नहीं करना चाहिये ॥ २॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार महल का मूल आधार नीव है और वृक्ष का मूल आधार पाताल तक गई हुई उसकी जड़ें हैं उसी प्रकार धर्म का मूल आधार सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन बिना धर्मरूपी महल अथवा धर्मरूपी वृक्ष ठहर नहीं सकता है। जीवरक्षारूप आत्मा को परिणति को दया कहते हैं, वह दया ही धर्मका लक्षण है । तीर्थंकर परमदेव तथा अन्यान्य केवलियों ने अपने गणधर, चक्रवर्ती तथा इन्द्र आदि शिष्यों को धर्म का यही स्वरूप बताया है। इसे अपने कानोंसे सुनकर सम्यग्दर्शनसे हीन मनुष्य को नमस्कार नहीं करना चाहिये । धर्मको जड़स्वरूप सम्यग्दर्शन ही जिसके पास नहीं है वह धर्मात्मा कैसे हो सकता है ? और जो धर्मात्मा नहीं है वह वन्दना या नमस्कार का पात्र किस तरह हो सकता है ? ऐसे मनुष्य को तो आहारदान आदि भी नहीं देना चाहिये, क्योंकि कहा है मिथ्येति-मिथ्यादृष्टियों के लिये दान देनेवाला दाता मिथ्यात्वको बढ़ानेवाला है। अब प्रश्न यह है कि वह सम्यग्दर्शन से रहित मनुष्य कौन है जिसे नमस्कार नहीं करना चाहिये । तो उसका उत्तर यह है कि जो तीर्थंकर परमदेव की प्रतिमा को नहीं मानते हैं, पुष्प आदि सामग्री से उसकी पूजा नहीं करते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं। For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १.२] दर्शनप्राभृतम् तीर्थंकरपरमदेवः किं पूजयति देवान् ? तथा वयमपि न पूजयामः । पञ्चमकाले किल मुनयो न वर्तन्ते । तदयुक्तम् । उक्तं च भर्तारः कुलपर्वता इव भुवो मोहं विहाय स्वयं रत्नानां निधयः पयोधय इव व्यावृत्तवित्तस्पृहाः । स्पृष्टाः कैरपि नो नभोविभुतया विश्वस्य विश्रान्तये सन्त्यद्यापि चिरन्तनान्तिकचराः सन्तः कियन्तोऽप्यमी ' ॥ मिथ्यादृष्टयः किल वदन्ति - व्रतैः किं प्रयोजनम् ? आत्मैव पोषणीयः, तस्य दुःखं न दति मयूरपिच्छं किल रुचिरं न भवति, सूत्रपिच्छं रुचिरम्, मयूरपिच्छेन आभेटनं बौतिर्भवति (?) । तदसत्यम् । उक्तं च भगवत्याराघनाग्रन्थेरजसेदाणमगहणं मद्दव सुकुमालदा लहुत्तं च । जत्थे पंच गुणा तं पडिलिहणं पसंसंति ॥ प्रश्न- क्यों नहीं पूजा करते हैं ? उत्तर - मिथ्यादृष्टि लोग ऐसा कहते हैं कि तीर्थंकर परमदेव क्या किन्हीं देवों की पूजा करते हैं ? जिस प्रकार तीर्थंकर परमदेव किसी की पूजा नहीं करते उसी प्रकार हम भी पूजा नहीं करते । मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि पञ्चम काल में मुनि नहीं होते । परन्तु उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कहा है— भर्तार इति — जो स्वयं मोह को छोड़कर कुलपर्यंतों के समान पृथिवी का उद्धार करनेवाले हैं, जो समुद्रोंके समान स्वयं धन की इच्छा से रहित होकर रत्नों के स्वामी हैं, तथा जो आकाश के समान व्यापक होने से किन्हीं के द्वारा स्पृष्ट न होकर विश्व की विश्रान्ति के कारण हैं; ऐसे अपूर्व गुणों के धारक प्राचीन मुनियों के निकट में रहनेवाले कितने साधू आज भी विद्यमान हैं। अर्थात् पञ्चम काल में साधुओं की विरलता तो हो सकती है, पर उनका सर्वथा अभाव संभव नहीं है । 'मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि व्रतों से क्या प्रयोजन है ? आत्मा ही पोषण करने योग्य है, उसे दुःख नहीं देना चाहिये । मयूर के पंखों से बनी पिछी सुन्दर नहीं होती, किन्तु सूत से बनी पिछी सुन्दर होती है । मयूर के पंखों से बनी पिछी से तो हिंसा होती है ।" इत्यादि कहना असत्य है, क्योंकि भगवती आराधना ग्रन्थ में कहा गया है । .... रजसेदाणमिति - धूलि और पसीना का ग्रहण नहीं करना, मृदुता, १. आत्मानुशासने श्लोक संख्या ३३ | २. छोतिर्भवति - म । For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्रभृ [ १.२ शासनदेवता न पूजनीयाः, आत्मैव देवो वर्तते । अपरः कोऽपि देवो नास्ति, वीरादनन्तरं किल केवलिनोऽष्ट जाता न तु त्रयः, महापुराणादिकं किलं विकथा इत्यादि ये उत्सूत्र ं मन्वते ते मिथ्यादृष्टयश्चार्वाका नास्तिकाः । ते यदि जिनसूत्रमुल्लङ्घन्ते तदास्तिकैयु क्तिवचनेन निषेधनीयाः । तथापि यदि कदाग्रहं न मुञ्चन्ति तदा समर्थैरास्तिकैरुपानद्भिगू थलिप्ताभिमुखे ताडनीयाः, तत्र पापं स्ति ॥२॥ ६ सुकुमारता और लघुता अर्थात् वजन में हलका होना; जिसमें ये पांच गुण हों वही पिछी प्रशंसा के योग्य है | मिथ्यादृष्टि यह भी कहते हैं कि 'शासनदेवता पूजनीय नहीं हैं, आत्मा ही देव है, उसके सिवाय अन्य कोई देव नहीं है; भगवान् महावीर के बाद आठ केवली हुए हैं, न कि तीन महापुराण आदिक विकथाएँ हैं । इत्यादि प्रकार से जो शास्त्र के विरुद्ध मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि चार्वाक अथवा नास्तिक हैं । वे यदि जिनसूत्र का उल्लंघन करते हैं तो आस्तिक —–सम्यग्दृष्टि मनुष्यों को युक्तिपूर्ण वचनों द्वारा उन्हें मना करना चाहिये। क्योंकि प्रभावशाली - समर्थ धर्म के समूल मनुष्य विनाश को सहन नहीं करते । धर्म-प्रभावना में कुछ सावद्य प्रवृत्ति होती ही है उसके बिना वह संभव नहीं है । धर्म ही प्राणियों की माता है, धर्म ही उनका पिता है, धर्म ही रक्षक है, धर्मं ही वृद्धि करनेवाला है और धर्म ही उन्हें निर्मल एवं निश्चल परम पद में पहुँचानेवाला हैं, धर्म का नाश होने पर सत् पुरुषों का भी नाश हो जाता है । अतः जो धर्मद्रोही नीच पुरुषों का निवारण करते हैं उन्हीं के द्वारा सज्जनों के जगत् की रक्षा होती है ॥ २ ॥ १. सम्यग्दृष्टि जीव जिनशासन की प्रभावना में सहायक होने से शासनदेवताओं का सन्मान करता है, परन्तु जिनेन्द्र देव के समान उनकी पूजा नहीं करता और न उन्हें देव मानता है । उसकी श्रद्धा वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी देव — अरहन्त - सिद्धमें ही रहती है । भय, आशा, स्नेह तथा लोभ के वशीभूत होकर वह रागी द्वेषी देवों को नहीं पूजता है । २. धर्मं-निर्मूलविध्वंस सहन्ते न प्रभावकाः । नास्ति सावद्यलेशेन विना धर्मप्रभावना ।।४१६॥ धर्मो माता पिता धर्मो धर्मस्त्राताभिवर्धकः । घर्मो भवभृतां धर्मो निश्चले निर्मले पदे ।।४१७॥ धर्मध्वंसे सतां ध्वंसस्तस्माद्धमं द्रुहोऽघमान् । निवारयन्ति ये सन्तो रक्षितं तैः सतां जगत् ॥ ४९८ ॥ - उत्तरपुराण पर्व ७. For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनप्राभूतम् दंसणभट्ठा भट्ठा दंसणभटुस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण -१. ३ ] दर्शनभ्रष्टा भ्रष्टा दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् । सिध्यन्ति चरित्रभ्रष्टा दर्शनभ्रष्टा न सिध्यन्ति ॥ ३ ॥ सिज्यंति ॥ ३ ॥ ( दंसणभट्ठा भट्ठा) सम्यग्दर्शनात्पतिताः पतिता उच्यन्ते । ( दंसणभट्ठस्स गुत्थि णिव्वाणं) सम्यग्दर्शनात् पतितस्य सर्वकर्मक्षयलक्षणो मोक्षो न भवति, किन्तु सम्यग्दर्शनात्पतिता नरकादिगतिषु परितो दीर्घकालं पर्यटन्ति । ( सिज्झति चरियभट्ठा ) सिध्यन्ति आत्मोपलब्धिमनुभवन्ति प्राप्नुवन्ति । के ते ? चरियभट्ठा चारित्रात्पतिता यति-श्रावकलक्षणब्रह्मचर्य - प्रत्याख्यानाभ्यां स्खलिताः, सामग्री प्राप्य श्रेणिक महराजादिवत् स्तोकेन मोक्षं प्राप्नुवन्ति । ( दंसणभट्ठा ण गाथार्थ - सम्यग्दर्शन में भ्रष्ट प्राणी भ्रष्ट कहे जाते हैं, सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट प्राणी को निर्वाण नहीं प्राप्त होता । चारित्र से भ्रष्ट प्राणी तो सिद्ध हो जाते हैं - मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, पर सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट प्राणी सिद्ध नहीं हो सकते - मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते ॥ ३ ॥ विशेषार्थ - जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से पतित हो जाते हैं वे ही यथार्थ में पतित कहलाते हैं । सम्यग्दर्शन से पतित मनुष्य को समस्त कर्मों का क्षय हो जाना जिसका लक्षण है ऐसा मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शन से पतित मनुष्य नरकादि गतियों में दीर्घ काल तक - अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन काल तक परिभ्रमण करता रहता है। इसके विपरीत जो चारित्र से भ्रष्ट हैं अर्थात् श्रावक और मुनि पद के योग्य ब्रह्मचर्यं तथा चारित्र से भ्रष्ट हैं वे अनुकूल सामग्री को पाकर श्रेणिक महाराज आदि के समान थोड़े ही समय में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । सम्यग्दर्शन से पतित मनुष्य भव्यसेन आदि मुनियों अथवा वशिष्ठ आदि ऋषियों के समान मोक्ष प्राप्त नहीं करते, किन्तु संसार-सागर में निमग्न रहते हैं । ऐसा जान कर राजा श्रेयांस आदि यशस्वी एवं प्रामाणिक पुरुषों के द्वारा चलाये हुए दान-पूजा आदि प्रशस्त कार्यों का निषेध नहीं करना चाहियेउनमें सदा श्रद्धा भाव रखना चाहिये || [ इस गाथा का विवेचन करते समय कितने ही लोग " चारित्र से भ्रष्ट मनुष्य सिद्ध हो जाते हैं, परन्तु सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट मनुष्य सिद्ध नहीं होते" इसका यह फलितार्थं निकाल कर विवेचन करते हैं कि मोक्ष For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ १. ४ सिज्झति ) सम्यग्दर्शनात्पतिता न सिध्यन्ति मोक्षं न प्राप्नुवन्ति, भव्यसेनादिवत् वशिष्ठर्ष्यादिवच्च संसारे निमज्जन्ति, इति ज्ञात्वा श्रुतकीर्तिश्रेयांसादिप्रमाणपुरुषरुप प्रवर्तितं दान - पूजादिसत्कर्म न निषेधनीयम् | आस्तिकभावेन सदा स्थातव्यमित्यर्थः ॥ ३ ॥ सम्मत्तरयणभट्ठा जाणंता बहुविहाई सत्थाई । आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ॥ ४ ॥ सम्यक्त्वररत्नभ्रष्टा जानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि । आराधनाविरहिता भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव ॥४॥ ( सम्मत्तरयणभट्ठा) सम्यक्त्वरत्न भ्रष्टाः सम्यक्त्वमेव रत्नं सर्वेभ्यो भावेभ्य उत्तमं वस्तु त्रैलोक्यपस्त्यसमुद्योतकत्वात्, तस्माद् भ्रष्टाः परिच्युता दान-पूजादिकनिषेधकाः (जाणंता बहुविहाई सत्थाइं ) जानन्तोऽपि बहुविधानि शास्त्राणि तर्क - के लिये चारित्र आवश्यक नहीं है, सम्यग्दर्शन ही आवश्यक है; और इस विवेचन के अनुरूप मोक्षमार्ग में सम्यक्चारित्र को गोण कर देते हैं । सो उनका यह विवेचन आगमसंगत नहीं है । इस गाथा में तो कुन्दकुन्द महाराज ने यही भाव प्रकट किया है कि जो श्रावक या मुनि अपने चारित्र से भ्रष्ट होते समय सम्यग्दर्शन से भी भ्रष्ट हो गया है अर्थात् अपनी श्रद्धा को भी छोड़ चुका है वह निर्वाण से बहुत दूर हो गया है अर्थात् वह अर्धपुद्गलपरावर्तन प्रमाण काल तक संसार में भटक सकता है, परन्तु जो मात्र चारित्र से भ्रष्ट हुआ है - समीचीन श्रद्धा को सुरक्षित रखे हुए है - वह शीघ्र अनुकूल सामग्री पाकर विशुद्ध चारित्र को धारण करता हुआ निर्वाण को प्राप्त हो सकता है। मोक्ष प्राप्ति के लिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में से किसी को गौण या प्रधान नहीं किया जा सकता, क्योंकि तीनों ही अनिवार्य आवश्यक कारण हैं ] ||३|| गाथार्थ – सम्यक्त्वरूपी रत्नसे भ्रष्ट मनुष्य भले ही अनेक प्रकारके शास्त्रों को जानते हों तो भी जिनवचनोंकी श्रद्धासे रहित होनेके कारण वहीं के वहीं अर्थात् उसो चतुर्गंतिरूप संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं ||४|| विशेषार्थ - तोन लोकरूप भवनका प्रकाशक होनेसे सम्यक्त्वरूपं रत्न ही समस्त पदार्थों में उत्तम वस्तु है । इस सम्यक्त्वरूपो रत्नसे पतित होकर जो दान-पूजा आदि प्रशस्त कार्योंका निषेध करते हैं वे तर्क For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.५] दर्शनप्राभृतम् व्याकरण-छन्दो-ऽलङ्कार-साहित्य-सिद्धान्तादीन् ग्रन्थान् जानाना अपि ( आराहणाविरहिया ) जिनवचनमाननलक्षणामारावनामकुर्वाणा लौंका; पातकिनः (भमंति तत्थेव तत्येव ) तत्रैव तत्रैव नरकादिष्वेव दुर्गतिषु भ्राम्यन्ति, न कदाचिदपि मोक्षं लभन्त इत्यर्थः ॥४॥ सम्मतविरहिया णं सुठ्ठ वि उग्गं तवं चरंता णं । ण लहंहि बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडोहिं ॥५॥ सम्यक्त्वविरहिता णं सुष्ठु अपि उग्र तपश्चरन्तः णं । न लभन्ते बोधिलाभं अपि वर्षसहस्रकोटिभिः ।।५।। (सम्मत्तविरहिया णं ) सम्यक्त्वविरहिताः सम्यक्त्वात् ये विरहिताः पतिताः । णमिति वाक्यालङ्कारे । ( सुठ्ठ वि उग्गं तवं चरंता णं ) सुष्ठु अपि अतीवापि उग्रं तपः कुर्वन्तोऽपि मासोपवासादिकं तपोविशेषमाचरन्तोऽपि । णमिति वाक्यालङ्कारे । (लहंहि बोहिलाहं ) ते पुरुषा बोधिलाभं सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्रलक्षणोपलक्षिता या व्याकरण-छन्द-अलंकार-साहित्य और सिद्धान्त आदि ग्रन्थों को जानते हुए भी जिनेन्द्र देव के वचनों को श्रद्धारूप आराधना से रहित होने के कारण, नरकादि दुर्गतियों में ही घूमते हैं-कभो मोक्ष प्राप्त नहीं करते। [जिनागम में श्रावकों और मुनियों की अपने अपने पद के अनुरूप अनेक प्रशस्त क्रियाओं का वर्णन किया गया है। जो लोग उन क्रियाओं का निषेध करते हैं वे जिनागम की श्रद्धा से रहित हैं और फलस्वरूप सम्यक्त्वरूपी रत्न से च्युत हैं। ऐसे जीव तर्क-व्याकरण आदि लौकिक ग्रन्थ तो दूर रहे, ग्यारह अङ्गों और नौ पूर्वो को भी जानते हों, तो भी सम्यक्त्व से रहित होने के कारण मिथ्यादृष्टि हो कहे जाते हैं । मिथ्यादृष्टि जीवों का संसारपरिभ्रमण निश्चित ही है। जिनागम में सम्यक्त्व रहित नाना शास्त्रों के ज्ञान को निःसार एवं सम्यक्त्व सहित मात्र अष्ट प्रवचन-मातृका के ज्ञान को सारपूर्ण बताया गया है। ] ||४|| ___ गाथार्थ-सम्यग्दर्शन से रहित मनुष्य अच्छी तरह कठिन तपश्चरण करते हुए भी हजार करोड़ वर्षों में भी रत्नत्रयरूप बोधिको नहीं प्राप्त कर पाते हैं ।।५।। - विशेषार्थ-जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से पतित हैं वे भले ही अतिशय कठिन मासोपवास आदि विशिष्ट तपों का आचरण करते हों तो भी For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [१.६बोधिस्तस्या लाभं न लभन्ते । कियत्कालपर्यन्तं बोधिलाभं न लभन्ते इत्याह( अवि वाससहस्सकोडीहिं ) अपि वर्षसहस्रकोटिभिः वर्षसहस्रकोटिभिरपि अनन्तकालमपि गमयित्वा ते मुक्ति न गच्छन्तीत्यर्थः । इति ज्ञात्वा दान-पूजादिकं व्यवहारधर्म निश्चयधर्मे प्रधानभूतं न वर्जनीयमिति भावार्थः ।।५।। सम्मत्त-णाण-दंसण-बल-बीरिय-बड्ढमाण जे सव्वे । कलि-कलुसपावरहिया वरणाणी होति अइरेण ॥६॥ सम्यक्त्वज्ञानदर्शनबलवीर्यवर्द्धमाना ये सर्वे । . . कलिकलुषपापरहिता वरज्ञानिनो भवन्ति अचिरेण ।।६।। ( सम्मत्तणाणदसणबलवीरियवड्ढमाण ) सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-बल-वीर्यवर्द्धमानाः । (जे सव्वे ) ये सर्वे भव्यजीवाः । सम्यक्त्वेन जिनवचनरुचिरूपेण, ज्ञानेन पठन-पाठनादिना, दर्शनेन सत्तावलोकनमात्रेण, बलेन निजवीर्यानिगृहनरूपेण, वीर्येणात्मशक्त्या, ये पुरुषा वर्द्धमानाः । वर्तमाना वा वट्टमाणपाठेन । ते पुरुषाः । (वरणाणी होंति ) केवलज्ञानिनो भवन्ति । वर-शब्देन तीर्थकरत्वं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । कदा ? ( अइरेण ) अचिरेण स्तोककालेन, तृतीयभवे मोक्षं यान्तीत्यर्थः । ते पुरुषाः हजार करोड़ वर्षों में भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप लक्षण से युक्त बोधि को नहीं प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् सम्यक्त्व के बिना अनन्त काल व्यतीत करके भी मुक्ति को प्राप्त नहीं हो सकते हैं । ऐसा जान कर निश्चय धर्म में प्रधानभूत दान-पूजा आदिक व्यवहार धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये ।।५।। गाथार्थ-जो समस्त भव्य जीव सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, बल और वीर्य से निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होते हैं वे शीघ्र ही घातिया कर्मों से रहित हो उत्कृष्ट ज्ञानी होते हैं अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थंकर होते हैं ॥६॥ विशेषार्थ-जिनवचन अर्थात जिनागम में श्रद्धा रखना सम्यक्त्व है। जिनागम का पठन-पाठन आदि करना ज्ञान है। पदार्थ की सामान्य सत्ता का अवलोकन होना दर्शन है। अपनी शारीरिक शक्ति को नहीं छिपाना बल है। और आत्मा की शक्ति को वीर्य कहते हैं । जो भव्य जीव इन सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, बल और वीर्य गुणों से वर्धमान हैं अर्थात् जिनके ये गुण निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं; अथवा 'वड्ढमाण' के स्थान पर 'वट्टमाण' पाठ होने के कारण जो इन सम्यक्त्व आदि गुणों से For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १.७ ] दर्शनप्राभृतम् कथंभूताः ? ( कलिकलुसपावरहिया ) कलिषु कर्मसु यानि कलुषाणि दुष्टानि पापानि मोहनीय-ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीयान्तरायलक्षणानि दुरितानि तै रहिता:क्षयंनीतघातिकर्माण इत्यर्थः । अथवा कलौ पञ्चमकाले कलुषाः कश्मलिनः शौचधर्मरहिताः वर्णान् लोपयित्वा यत्र तत्र भिक्षाग्राहिणः मांसभक्षिगृहेष्वपि प्रासुकमन्नादिकं गृह्णन्तः कलिकलुषाः, ते च ते पापाः पापमूर्तयः श्वेताम्बराभासाः लौकांयकापरनामानो म्लेच्छश्मशानास्पदेष्वपि भोजनादिकं कुर्वाणास्तद्धर्मरहिताः कलिकलुषपापरहिताः श्रीमूलसंघे परमदिगम्बरा मोक्षं प्राप्नुवन्ति लोकास्तु नरकादी पतन्ति, देव -गुरु-शास्त्रपूजादिविलोपकत्वादित्यर्थः ॥६॥ सम्मत्त सलिलपवहो णिच्चं हियए पवट्टए जस्स । कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय णासए तस्म ॥७॥ सम्यक्त्व सलिलप्रवाहो नित्यं हृदये प्रवर्तते यस्य । कर्म वालुकावरणं बद्धमपि नश्यति तस्य ||७|| युक्त हैं वे कलि अर्थात् कर्मों में अतिशय दुष्ट पाप प्रकृतिरूप मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन चार घातिया कर्मों से रहित हो शीघ्र ही अर्थात् उसी भव में अथवा दूसरा भव देव पर्याय में व्यतीत कर तृतीय भव में उत्कृष्ट ज्ञानी होते हैं अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थंकर पद प्राप्त करते हैं । ११ यहाँ संस्कृत टीकाकार श्री श्रुतसागर सूरि ने 'कलि- कलुषपापरहिता: ' इस पद का दूसरा अर्थ ऐसा किया है कि जो कलि अर्थात् पञ्चम काल में कलुष हैं - मलिन हैं, शोचधर्म से रहित हैं, ब्राह्मणादि वर्णों का लोप कर चाहे जहाँ भिक्षा ग्रहण करते हैं, मांसभोजी लोगों के घरों में भी प्रासु अन्न आदि ग्रहण करते हैं, पापरूप हैं, म्लेच्छों तथा श्मशानवासी लोगों के घर भी भोजन करते हैं तथा धर्म से रहित हैं, ऐसे श्वेताम्बराभास लौंकायक नामधारी लौंक कलिकलुषपाप कहलाते हैं । उन्हें छोड़ परम दिगम्बर मुद्रा के धारी मनुष्य ही केवलज्ञानी होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं, किन्तु लौंका देव गुरु शास्त्र की पूजा का विलोप करने के कारण नरकादि कुगतियों में पड़ते हैं ||६|| गाथार्थ - जिसके हृदय में सम्यक्त्वरूपी जल का प्रवाह निरन्तर प्रवाहित रहता है उसका कर्मरूपी बालू का बाँध बद्ध होने पर भी नष्ट हो जाता है ||७|| For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते - [१.८( सम्मत्तसलिलपवहो ) सम्यक्त्वसलिलप्रवाहः सम्यक्त्वमेव सलिलं निर्मलशीतल-सुगन्ध-सुस्वादुपानीयं संसारसंतापनिवारकत्वात् पापमलकलङ्कप्रक्षालकत्वाच्च सम्यक्त्वसलिलम्, तस्य प्रवहः प्रवाहः पूरः । ( णिच्चं हियए पवट्टए जस्स ) नित्यं हृदये वर्तते यस्य, जलपूरवद्वहतीत्यर्थः ( कम्मं वालुयवरणं) हिंसादि पञ्चपातकपापं वालुकापाली। (बंधच्चिय ) बद्धमपि । ( णासए तस्स) नश्यति तस्य । सम्यग्दृष्टेलग्नमपि पापं 'बन्धनं न याति कौरघटे स्थितं रज इव न बन्धं याति । परदेवकृतनमस्कारोऽपि पापमायाति । उक्तञ्च सकृद्वारे नमस्कारे परदेव कृते सति । परदारेषु लक्षेषु तस्मात्पापं चतुर्गुणम् ॥ . जे सणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य।। एदे भट्ठविभट्ठा सेसं पि जणं विणासंति ॥८॥ ये दर्शनेष भ्रष्टा ज्ञाने भ्रष्टाश्चरित्रभ्रष्टाश्च ।। एते भ्रष्टविभ्रष्टाः शेषमपि जनं विनाशयन्ति ।।८।। विशेषार्थ-संसाररूपी संताप का निवारक तथा पापमलरूपी कलङ्क का प्रक्षालक होने से सम्यग्दर्शन, निर्मल शीतल सुगन्धित और स्वादिष्ट पानी के समान है। जिस मनुष्य के हृदय में जलपूर के समान सम्यग्दर्शन सदा प्रवाहित रहता है-निरन्तर विद्यमान रहता है, उसका हिंसादि पाँच पापों से उत्पन्न कर्मरूपी बालू का बाँध चिर काल से निबद्ध होने पर भी नष्ट हो जाता है । जिस प्रकार कोरे घड़े पर स्थित धूलि बन्धन को प्राप्त नहीं होती है उसी प्रकार सम्यग्दष्टि जीव के लगा हुआ पाप कर्म बन्ध को प्राप्त नहीं होता। परदेव को नमस्कार करना भी पाप है, क्योंकि कहा है-सकृदिति लाख परस्त्रियों के सेवन से जो पाप होता है कुदेव को एक बार नमस्कार करने पर उससे चौगुना पाप होता है। अर्थात् मिथ्यात्व, हिंसादि पाँच पापों की अपेक्षा, भयंकर पाप है ॥७॥ गाथार्थ-जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, ज्ञान से भ्रष्ट हैं, और चारित्र से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्टों में विशिष्ट भ्रष्ट हैं अर्थात् अत्यन्त भ्रष्ट हैं तथा अन्य मनुष्यों को भी भ्रष्ट कर देते हैं । ॥८॥ १. बन्धं न याति म. २. परदेव नमस्कारोपि म. ३. एकवारं म. For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.९] दर्शनप्राभूतम् १३ ( जं दंसणेसु भट्ठा ) ये पुरुषा दर्शनेषु सम्यक्त्वेषु द्विविध-त्रिविध- दशविधेषु भ्रष्टाः पतिताः, अथवा दर्शने सुष्ठु भ्रष्टाः । तथा ( णाणे भट्ठा) अष्टविधाचारज्ञानादपि भ्रष्टाः । ( चरितभट्ठा य ) त्रयोदशप्रकाराच्चारित्राद् भ्रष्टाः । ( एदे भट्ठविभट्ठा ) एते भ्रष्टा विशेषेण भ्रष्टास्त्रिभ्रष्टत्वात् । ( सेसं पि जणं विणासंति ) शेषमपि जनमभ्रष्टमपि लोकं विणासंति विनाशयन्ति भ्रष्टं विकुर्वन्ति ॥ ८ ॥ जो को वि धम्मसीलो संजमतवणियमजोयगुणधारी । तस्स य दोस कहंता भग्गा भग्गत्तणं दिति ॥९॥ यः कोऽपि धर्मशीलः संयमतपोनियम योगगुणधारी । तस्य च दोषान् कथयन्तो भग्ना भग्नत्वं ददति ॥ ९॥ विशेषार्थ - निसर्गज और अधिगमज अथवा निश्चय और व्यवहार के भेद से सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है; औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकारका है; तथा आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ और परमावगाढ के भेद से दश प्रकारका होता है | शब्दाचार, अर्थाचार, तदुभयाचार, कालाचार, उपधानाचार, विनयाचार, अनिह्नवाचार और बहुमानाचार के भेद से ज्ञान के आठ भेद हैं । पाँच महाव्रत, पाँच समिति तथा तीन गुप्ति के भेद से चारित्र के तेरह भेद हैं । जो मनुष्य उपर्युक्त भेदों से युक्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के विषय में भ्रष्ट हैं अर्थात् उनसे रहित हैं वे भ्रष्टों में अत्यन्त भ्रष्ट हैं तथा अन्य अभ्रष्ट मनुष्यों को भी भ्रष्ट कर देते हैं । तात्पर्य यह है कि जो सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय में से किसी एक दो गुणों की अपेक्षा भ्रष्ट है वह कारण पाकर शीघ्र सुधर जाता है, पर जो तीनों की अपेक्षा भ्रष्ट हो चुका है अर्थात् मिथ्यादृष्टि बन कर अपने लक्ष्य से च्युत हो चुका है वह स्वयं तो भ्रष्ट हुआ ही है, साथ में रहनेवाले अन्य लोगों को भी भ्रष्ट कर देता है ||८|| गाथार्थ - जो धर्मशील - धर्मके अभ्यासी संयम, तप, नियम, योग और चौरासी लाख गुणों के धारी महापुरुषों के दोष कहते हैं - उनमें मिथ्या दोषों का आरोप करते हैं वे चारित्र से पतित हैं तथा दूसरों को भी पति करते हैं ॥ ९ ॥ १. अस्सिन् पक्षे दर्शने सुभ्रष्टा इति छाया योजनीया । For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ षप्राभृते [१.९(जो को वि धम्मसीलो ) यः कोऽपि धर्मशीलो धर्मे आत्मस्वरूपे उत्तमक्षमा'दिदशलक्षणे च धर्मे, पञ्चप्रकारे त्रयोदशप्रकारे चारित्रे च प्राणिनां रक्षणलक्षणे वा धर्मे शीलमभ्यासः समाधिरभ्यासो यस्य स धर्मशीलः । उक्तं च 'धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो । चारित्तं खलु धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो । ( संजमतवणियमजोयगुणधारी ) तथा यः कोऽपि संयम-तपोनियम-योग-गुणधारी वर्तते । संयमश्च षडिन्द्रिय-षट्प्रकारप्राणिरक्षणलक्षणः । तपश्च द्वादशप्रकारम् । नियमश्च नियतकालवतधारणम् । उक्तं च- ... नियमो यमश्च विहितौ द्वेधा भोगोपभोगसंहारात् । नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो घियते ॥ विशेषार्थ-वस्तुस्वभाव को धर्म कहते हैं, इस लक्षण के आधार पर आत्मा को वीतराग परिणति धर्म कहलाती है। अथवा उत्तम, क्षमा, मादव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म कहलाते हैं । अथवा चारित्र ही धर्म है, इस लक्षण के अनुसार सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात के भेद से पांच प्रकार का; अथवा पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति के भेद से तेरह प्रकार का चारित्र धर्म कहलाता है । अथवा जोवों की रक्षा करना धर्म है, इस लक्षण के अनुसार जीवदया को धर्म कहते हैं। इन सब लक्षणों का संग्रह करनेवाली निम्नलिखित प्राचीन गाथा प्रसिद्ध है-'धम्मो वत्थु' इत्यादि । वस्तु का स्वभाव धर्म है, क्षमा आदि दश धर्म हैं, चारित्र धर्म है, अथवा जीवों की रक्षा करना धर्म है। पांच इन्द्रियों एवं मन को वश में करना तथा पाँच स्थावर और एक त्रस इस तरह छह काय के जीवों की प्राणरक्षा करना संयम है । अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह प्रकार के बाह्य; तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह प्रकार के अन्तरङ्ग; दोनों मिला कर बारह प्रकार के तप हैं। किसी निश्चित काल तक व्रत धारण करना-भोगोपभोग की वस्तुओं का त्याग करना नियम है । जैसा कि कहा गया है नियमो इत्यादि-भोग ( एक बार भोग में आनेवाले भोजन आदि ) और उपभोग ( बार बार भोग में आनेवाले वस्त्र आदि) के त्याग में नियम १. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायाम् । २. रत्नकरण्डश्रावकाचारे समन्तभद्रस्य । For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.९] दर्शनप्राभृतम् १५ योगश्च वर्षादिकालस्थितिः । अथवात्मध्यानं योग उच्यते । उक्तं च वीर नन्दिशिष्येण पद्मनन्दिना - 'साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतोनिरोधनम् । शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचकाः ॥ गुणाश्चतुरशीतिलक्षसंख्याः । के ते चतुरशीतिगुणा इति चेदुच्यन्ते हिंसानृतस्तेय-मैथुन - परिग्रह- क्रोष - मान-माया - लोभ - जुगुप्सा-भय- रत्यरतय इति त्रयोदश दोषाः, मनोवचन - कायदुष्टत्वमिति षोडश, मिथ्यात्वं प्रमादः पिशुनत्वमज्ञानमिन्द्रियाणामनिग्रह एतैः पञ्चभिर्मेलिता एकविंशतिर्दोषा भवन्ति । तेषां त्यागा एकविंशतिगुणा भवन्ति । अतिक्रम व्यतिक्रमातिचारानाचारत्यागैश्चतुभिगुणिता और यम ये दो विधियां बतलाई गई हैं । जो किसी निश्चित समय तक त्याग होता है उसे नियम कहते हैं और जीवन पर्यन्त के लिये जो धारण किया जाता है उसे यम कहते हैं । योग का अर्थ – वर्षायोग -- वर्षा ऋतु में वृक्षों के नीचे बैठकर आत्मा का ध्यान करना, शिषिरयोग - शीत ऋतु में खुले मैदान अथवा नदियों के किनारे बैठकर ध्यान करना, अथवा ग्रीष्मयोग — गर्मी में पर्वत की चट्टानों पर बैठकर ध्यान करना; ये तीन योग कहलाते हैं । अथवा आत्म ध्यान को योग कहते हैं । जैसा कि वोरनन्दी के शिष्य पद्मनन्दी ने कहा है साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चेतोनिरोध और शुद्धोपयोग ये एकार्थवाचक शब्द हैं । गुण चौरासी लाख होते हैं जो इस प्रकार हैं--हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, भय, रति और अरति; ये तेरह दोष हैं । इन तेरह में मनोदुष्टता, वचनदुष्टता और कायदुष्टता ये तीन दोष मिला देने से सोलह दोष होते हैं । इन सोलह में मिथ्यात्व, प्रमाद, पिशुनता - चुगली, अज्ञान और इन्द्रियों का निग्रह नहीं करना ये पांच मिला देने से इक्कीस दोष होते हैं । इन इक्कीस दोषों का त्याग करना इक्कीस गुण हैं। वह त्याग अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार के त्याग से चार प्रकार का होता है । अतः उन इक्कीस में चार का गुणा करने पर चौरासी (८४) भेद होते हैं। इन चौरासी में पृथिवी १. एकत्वसप्तती पद्मनन्द्याचार्यस्य । For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [१.९श्चतुरशीतिगुणा भवन्ति । ते पृथिव्यादिशतजीवसमासंगुणिताश्चतुरशीतिशतानि । गुणा भवन्ति । ते दशशीलविराधनगुणिताश्चतुरशीतिसहस्राणि गुणा भवन्ति । कास्ताः शीलविराधनाः ? स्त्रीसंसर्गः १, सरसाहारः २, सुगन्धसंस्कारः ३, कोमलशयनासनं ४, शरीरमण्डनं ५, गीत-वादित्रश्रवणं ६, अर्थग्रहणम् ७, . कुशीलसंसर्गः ८, राजसेवा ९, रात्रिसंचरणम् १०, इति दश शीलविराधनाः । ते आकम्पितादिदशालोचनादोषत्यागैर्दशभिर्गुणिताः चत्वारिशत्सहस्राधिकाष्टलक्षाणि गुणा भवन्ति । उत्तमक्षमादिदशधर्मगुणिताश्चतुरशीतिलक्षाणि गुणा भवन्ति । अथातिक्रमादयश्चत्वारः के ? 'अतिक्रमस्ताव द्विशिष्टमतित्यागः । व्यतिक्रमः शीलवृतिलङ्घनम् । अतिचारो विषयेषु प्रवर्तनम् । अनाचारो विषयेष्वत्यासक्तिः । के ते दशालोचनादोषाः ? तदर्थनिरूपिका गाथेयम्___ आकपिअ अणुमाणिअ जं दिटू बादरं च सुहमं च । छन्नं सदाउलयं बहुजणमन्वत्त तस्सेवी ॥ अस्या अयमर्थ:-आकम्पिअ-आकम्पो भयमुत्पद्यते मा बहुदण्डं दासीदाचार्य: कायिकादि सौ जीवसमासों का गुणा करने पर ८४०० गुण होते हैं । इनमें शील को दश विराधनाओं का गुणा करने पर ८४००० गुण होते हैं। इनमें आकम्पित आदि आलोचना के दश दोषों के त्याग का गुणा करने से ८,४०००० आठ लाख चालीस हजार गुण होते हैं और इनमें उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों का गुणा करने पर ८४००००० चौरासी लाख गुण होते हैं। ___ स्त्रीसंसर्ग १ सरसाहार २ सुगन्धसंस्कार ३ कोमलशयनासन ४ शरीरमण्डन ५ गीत-वादित्रश्रवण ६ अर्थग्रहण ७ कुशीलसंसर्ग ८ राजसेवा ९ और रात्रिसंचरण १० । ये शोल की दश विराधनाएं हैं। विशिष्ट बुद्धि अर्थात् मानसिक शुद्धि का त्याग करना अतिक्रम है। शील रूपी वाड़ का उल्लघंन करना व्यतिक्रम है। विषयों में प्रवृत्ति करना अतिचार है। और विषयों में अत्यन्त आसक्त हो जाना अना. चार है। आलोचना के दश दोषों का निरूपण इस गाथा में किया गया है १, क्षतिं मनःशुद्धिविधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शोलवृतेविलड़ धनम् । प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ॥९॥ -द्वात्रिंशतिकायाम् अमितगतः। २. मूलाराधनायां शिवकोट्याचर्यस्य । For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.९] दर्शनप्राभृतम् १, ( अणुमाणिय ) अनुमानं इत्येतावत्पापं कृतं भविष्यति निर्धारो नास्ति २, (जं दिट्ठ) यत्केनचिद् दृष्टं तत्प्रकाशयति ३, ( बादरं ) स्थूलं पापं प्रकाशयति ४, ( सुहुमं ) अल्पं पापं कथयति, न महापापं प्रकाशयति ५, (छण्णं ) प्रच्छन्नं आचार्याग्ने कथयति, न प्रकटं ६, ( सद्दाउलयं ) संघादिकृतकोलाहले सति कथयति पापम् ७, ( बहुजणें ) बहुः सङ्घो मिलति तदा पापं प्रकाशयति ८. ( अव्वत्तं ) अव्यक्तं प्रकाशयति स्फुटं न कथयति ९, ( तस्सेवी ) यत्पापं प्रकाशितं तदेव पुनरपि करोति' १०, इति दशालोचनादोषाः । दश कायसंयमाः के ? पञ्चेन्द्रियनिर्जयः पञ्चप्राणरक्षा इति दश । एतान् संयम-तपोनियम-योग-गुणान् घरतीत्येव आकपिअ इत्यादि-(१) गुरु के सम्मुख दोष प्रकट करने के पूर्व इस बात का भय उत्पन्न होना कि कहीं आचार्य अधिक दण्ड न दे अथवा ऐसी मुद्रा बना कर दोष कहना कि जिससे शिष्य की दयनीय अवस्था देख कर आचार्य कड़ा दण्ड न दे सकें। (२) दूसरे के द्वारा अनुमानितसंभावना में आये हुए पाप का निवेदन करना। (३) जो दोष किसी ने देख लिया हो उसी की आलोचना करना, बिना देखे दोष को आलोचना नहीं करना । (४) स्थूल दोष की आलोचना करना, सूक्ष्म दोष की नहीं। साथ ही यह भावना रखना कि जब यह स्थूल-बड़े दोष नहीं छिपाता तो सूक्ष्म दोष क्या छिपावेगा? (५) सूक्ष्म दोष की आलोचना करना, स्थल को नहीं; और साथ ही ऐसा अभिप्राय रखना कि जब यह सूक्ष्म दोषों को नहीं छिपाता तो बड़े दोषों को क्यों छिपावेगा ? (६) आचार्य के आगे अपराध को स्वयं प्रकट नहीं करना। (७) संघ आदि के द्वारा किये हए कोलाहल के समय अपने दोष प्रकट करना। (८) जिस समय पाक्षिक-चातुर्मासिक आदि प्रतिक्रमणों के समय संघ के समस्त साधु अपने अपने दोष प्रकट कर रहे हों उसी समय कोलाहल में अपने दोष प्रगट करना (९) अव्यक्त रूप से अपराध कहना अर्थात् स्वयं मुझसे यह अपराध हुआ है, ऐसा न कह कर कहना कि भगवन् ! यदि किसी से असुक अपराध हो जाय तो उसका क्या प्रायश्चित्त होगा; इस तरह अव्यक्त रूप से अपराध प्रकट कर प्रायश्चित्त लेना । (१०) और जिस पाप को गुरु के सम्मुख प्रकट कर प्रायश्चित्त लिया है उस अपराध को पुनः पुनः करना अथवा जो अपराध हुआ है उसो अपराध को करनेवाले १. आशापरस्तु 'समात्तत्सेवितं त्वंसो'। आत्मसदृशात्पाश्वंस्थात् यत्प्रायश्चित. ग्रहणं तत् तत्सेवितम्-इत्याह । For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ षट्प्राभूते [ ९.९ मवश्यं संयम सपोनियम — योग - गुणधारी । ( तस्स य दोस कहता) तस्य च दोषान् कथयन्तः आरोपयन्तः केचित्पापिष्ठाः । ( भग्गा भग्गतणं दिति) स्वयं आचार्य से प्रायश्चित लेना और साथ ही यह अभिप्राय रखना कि जब आचार्य स्वयं यह अपराध करते हैं तो दूसरे को दण्ड क्या देखेंगे ? स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु ओर कर्णं इन पाँच इन्द्रियों को जोतना तथा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय इन पाँच, प्रकार के जीवों की प्राणरक्षा करना; दश प्रकार का कायसंयम है । इस प्रकार जो कोई आत्मस्वभाव, उत्तम क्षमादि दशलक्षण, पाँच अथवा तेरह प्रकार के चारित्र, अथवा प्राणिरक्षणरूप धर्म का निरन्तर अभ्यास करता है, बारह प्रकार का संयम, बारह प्रकार का तप, यम और नियम रूप भोगोपभोग का परिमाण, वर्षादियोग अथवा आत्मध्यान रूप योग तथा चौरासी लाख उत्तरगुणों को धारण करता हुआ निर्दोष : चारित्र पालता है फिर भी मात्सर्यवश उसे यदि कोई दोष लगाते हैंउसकी निन्दा करते हैं - तो वे चारित्र से स्वयं भ्रष्ट हैं और दूसरे लोगों को भी चारित्र से भ्रष्ट कर देते हैं। [उपगूहन अङ्ग की रक्षा करता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव जब किसी के विद्यमान दोषों को भी नहीं कहना चाहता तब अविद्यमान -- कल्पित दोषों की कैसे कहेगा ? किसी के दोष कहने के पहले यदि मनुष्य आत्मनिरीक्षण कर ले अर्थात् यह दोष मुझमें तो नहीं हैं, इस प्रकार का चिन्तन कर ले तो उसकी परदोष कथन की प्रवृत्ति सहज ही छूट सकती है । आज दूसरे के दोष कहनेवाले मनुष्य अपनी ओर तो देखते ही नहीं हैं मात्र दूसरे के ही दोष देखा करते हैं । आचार्य समन्तभद्र ने ऐसे लोगों के विषय में कितना अच्छा कहा है ये परस्खलितोन्निद्राः स्वदोषेभनिमोलिनः । तपस्विनस्ते किं कुर्यु रपात्रं त्वन्मतश्रियः ' ॥ अर्थात् जो दूसरों के छोटे छोटे से दोष ढूंढने में सदा जागृत रहते हैं और अपने हाथी जैसे बड़े बड़े दोषों के प्रति नेत्र बन्द कर लेते हैं वे मोक्ष-मार्ग में क्या कर सकते हैं ? हे भगवन् ! वे आपके मत-धर्मवी २. स्वयंस्तोत्रे । For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. १०] दर्शनप्रामृतम् १९ भग्नाश्चारित्रात् पतिता भ्रष्टा अन्येषामपि प्रष्टत्वमारोपयन्ति, ते निन्दनीया इत्यर्थः ॥९॥ जह मूलम्मि विणढे दुमस्त परिवार पत्थि परिवड्ढी । तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिझति ॥१०॥ यथा मूलं विनष्टे द्रुमस्य परिवारस्य नास्ति परिवृद्धिः। तथा जिनदर्शनभ्रष्टा मूलविनष्टा न सिध्यन्ति ॥१०॥ (जह मूलम्मि विण? दुमस्त परिवार गत्यि परिवड्ढी ) यथा मूले 'पाताले गांधारे विनष्टे विनाशं प्राप्ते द्रुमस्य वृक्षस्य परिवारस्य नास्ति परिवृद्धिः शाखापत्र-पुष्प-फलादेवृदिनास्ति वृद्धिनं भवति । परिवार इत्यत्र षष्ठीलुक् “लुक्वेति" वचनात् । दृष्टान्तं दत्वा दाष्टन्तिं ददाति । (तह जिणदसणभट्ठा) तथा तेन ममूलप्रकारेण जिनदर्शनभ्रष्टा आर्हतमतात्पतिताः । (मूलविणट्ठा) श्रीमूलसङ्घात् प्रच्युताः । ( न सिमति ) न सिंखपन्ति न मोक्षं प्राप्नुवन्ति-चन्मशतसहस्रष्वपि संसारे परिप्रमन्तीति भावार्थः ॥१०॥ लक्ष्मी के अपात्र हैं। जैनधर्म का अंश भी उनकी आत्मा में जागृत नहीं हना है ||९|| ' गावा-जिस प्रकार जड़ के नष्ट हो जाने पर वृक्ष के परिवार की वृद्धि नहीं होती [उसी प्रकार सम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर चारित्ररूपी वृक्ष की वृद्धि नहीं होती] | जो मनुष्य जिनदर्शन--अर्हन्त भगवान् के मत से भ्रष्ट हैं वे मलविनष्ट हैं अर्थात् जड़ रहित हैं--सम्यग्दर्शन से शून्य हैं और ऐसे लोग मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते ॥१०॥ . विशेषार्थ-पाताल-बहुत गहराई तक नीचे फैली हुई जड़ ही वृक्ष को वृद्धि का कारण है। उसके नष्ट हो जाने पर जिस प्रकार वृक्ष में न नई नई शाखाएं निकलती हैं; न पत्ते, फूल, फल आदि की वृद्धि होती है उसी प्रकार जिनदर्शन-जिनमत अथवा जिनेन्द्र देव की गाढ श्रद्धा ही धर्म को जड़ है। जो मनुष्य इससे भ्रष्ट हैं-पतित हैं वे मूल से नष्ट ई-जड़ रहित हैं । ऐसे जीव सिद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकतेलाखों जन्मों तक संसार में हो भ्रमण करते रहते हैं। संस्कृत टीकाकार ने मूल का अर्थ मूलसंघ करते हुए लिखा है कि जो मूलसंघ से च्युत हैं अर्थात् मूलसंघ को आम्नाय से भ्रष्ट होकर नये नये पन्य चलाते हैं वे मोक्ष को प्राप्त नहीं होते, इसी संसार में लाखों जन्मों तक भटकते रहते ॥१०॥ .१. पातालगताबारे For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० षट्प्राभूते जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहुगुणो होई । तह जिणदंसणमूलो णिदिट्ठो मोक्खमग्गस्स ॥ ११॥ यथा मूलात् स्कन्धः शाखापरिवारो बहुगुणो भवति । तथा जिनदर्शनं मूलं निर्दिष्टं मोक्षमार्गस्य ॥ ११ ॥ [१.११ ( जह मूलाओ ) यथा मूलाद् 'वृक्षमूलात् कारणात् । ( खंघो ) स्कन्धः शाखा - aft प्रकाण्ड: । ( बहुगुणो होइ ) प्रचुरगुणो वृद्ध्याद्यतिशयवान् भवति । तथा : ( साहापरिवार ) शाखापरिवारश्च लतास्वरूपी कटप्रश्च बहुगुणो भवति पत्र-पुष्पफलादिमान् भवति । दृष्टान्तो गतः । इदानीं दान्तमाह - ( तह मूलो णिद्दिट्ठो मोक्खमग्गस्स ) तथा तेनैव वृक्षमूलप्रकारेणैव मोक्षमार्गस्य मूलं सम्यग्दर्शन -ज्ञानचारित्रलक्षणस्य मोक्षमार्गस्य मूलं कारणम्, ( जिणदंसणं ) जिनदर्शनं मूलं निर्दिष्टं श्रीगौतमस्वामिना कथितम् । श्रीमूलसंघो मोक्षमार्गस्य मूलं कथितम्, न तु जैनाभासादिकम् । किं तत् ? पञ्चैते जैनाभासाः - गोपुच्छिकः श्वेतवासा द्राविडो यापनीयकः । निष्पिच्छश्चेति पञ्चते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ॥ ते जैनाभासा आहारदानादिकेऽपि योग्या न भवन्ति । कथं मोक्षस्य योग्या भवन्ति ? गोपुच्छिकानां मतं यथा, उक्तञ्च गाथार्थ - जिस प्रकार मूल अर्थात् जड़ से वृक्ष का स्कन्ध और शाखाओं का परिवार वृद्धि आदि अतिशय से युक्त होता है उसी प्रकार जिनदर्शन - आर्हत मत अथवा जिनेन्द्र देव का प्रगाढ श्रद्धान मोक्षमार्ग का मूल कहा गया है । इस जिनदर्शन से ही मोक्षमार्गं वृद्धि को प्राप्त होता है ॥ ११ ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार मूल से वृक्ष का तना वृद्धि को प्राप्त होता है और मूल से ही वृक्ष की शाखाओं और उपशाखाओं का समूह पत्र, पुष्प तथा फल आदि से युक्त होता है उसी प्रकार जिनदर्शन हो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी मोक्षमार्ग का मूल कारण है - इसी से मोक्षमार्ग वृद्धि को प्राप्त होता है, ऐसा श्री गौतम स्वामी ने कहा है । संस्कृत टीकाकार ने मूलसंघ को मोक्षमार्ग का मूल कहा है तथा अन्य जैनाभासों का निषेध किया है । वे जैनाभास कौन हैं ? इस प्रश्न १. वृक्षस्य मूलात् म० । २. कि तज्जैनाभासं ? उक्तञ्च म० । For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १. ११ ] दर्शनप्राभृतम् 'इत्थीणं पुण दिक्खा खुल्लय लोयस्स वीरचरियत्तं । कक्कसकेसग्गहणं छटुं च गुणव्वदं नाम ॥ श्वेतवाससः सर्वत्र भोजनं गृह णन्ति प्रासुकम्, मांसभक्षिणां गृहे दोषो नास्तीति वर्णलोपः कृतः । तन्मध्ये श्वेताम्बराभासा उत्पन्नास्ते त्वतीव पापिष्ठाः देवपूजादिकं किल पापकर्मेदमिति कथयन्ति मण्डलवत्सर्वत्र भाण्ड प्रक्षालनोदकं पिबन्ति । इत्यादिबहुदोषवन्त: । ( द्राविडा : ) सावद्यं प्रासुकं च न मन्यन्ते, उद्भभोजनं निराकुर्वन्ति । यापनीयास्तु वेसरा गर्दभा इवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति कल्पं च वाचयन्ति; स्त्रीणां तद्भवे मोक्षम्, केवलिजिनानां कवलाहारम्, परशासने , का उत्तर देते हुए उन्होंने 'गोपुच्छिक' - गोपुच्छिक, श्वेताम्बर, द्राविड, यापनीयक और निष्पिच्छ; इन पांच को जैनाभास कहा है । ये जैनाभास आहारदान आदि के भी योग्य नहीं हैं, फिर मोक्ष के योग्य कैसे हो सकते हैं ? गोपुच्छिकों के मत का दिग्दर्शन कराते हुए उन्होंने निम्न गाथा उद्धृत की है— इत्थीणं - स्त्रियों को दीक्षा दी जाती है, क्षुल्लक लोग भी वीरचर्या करते हैं, कड़े केशों की ग्रहण किया जाता है, और छठवाँ गुणव्रत होता है ॥ २१ श्वेताम्बरों की समीक्षा करते हुए कहा है कि श्वेताम्बर सब जगह प्राक भोजन ग्रहण करते हैं । 'मांसभक्षियों के घर में भी भोजन करने 1.में. दोष नहीं है' ऐसा कह कर श्वेताम्बरों ने वर्णव्यवस्था का लोप किया है। उन्हीं श्वेताम्बरों में श्वेताम्बराभास उत्पन्न हुए हैं । वे अत्यन्त पापी हैं। वे देवपूजा आदि पापकार्य हैं, ऐसा कहते हैं तथा श्वान के समान सर्वत्र सब घरों में बर्तन धोने का पानी पीते हैं, इत्यादि अनेक दोषों से युक्त हैं। द्राविड़ों की समीक्षा में उन्होंने लिखा है कि वे सचित्त और अचित्त के भेद को नहीं मानते हैं तथा खड़े होकर भोजन करने का निषेध करते हैं। यापनीयों की समीक्षा में लिखा है कि यापनीय खच्चरों के समान दोनों को मानते हैं । वे रत्नत्रय की पूजा करते हैं, कल्प का वाचन करते [१. दर्शनसारे । २. बेसरा इवोभयं म० । For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ षट्प्राभृते [ १.१२ - सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति । निष्पिच्छिका मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते । उक्तं च ढाढसीगाथासु पिच्छे ण हु सम्मत्तं करगहिए मोरचमरडंबरये । अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा वि शायव्वो । तथा च सितपटमतम् — सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य तह य अण्णो य । समभावभावियप्पा लहेय मोक्खं ण संदेहो ॥ जैमिनि - कपिल-कणचर - चार्वाक - शाक्य - मतानि तु प्रमेयक मलमार्तण्डादिशास्त्रात् ज्ञातव्यानि ॥११॥ जे दंसणेसु भट्ठा पाए ण पडंति दंसणधराणं । ते होंति लल्ल - मूआ बोही पुण बुल्लहा तेसि ॥ १२॥ ये दर्शनेषु भ्रष्टाः पादे न पतन्ति दर्शनधराणाम् । ते भवन्ति लल्लमूका बोधिः पुनदुल्लभा तेषाम् ||१२|| हैं, स्त्रियों को उसी भव में मोक्ष होता है, केवलो भगवान् कवलाहार करते हैं तथा अन्य मत में परिग्रही मनुष्यों को मोक्ष होता है, ऐसा कहते हैं । निष्पिच्छकों की आलोचना करते हुए कहा है कि निष्पिच्छिक लोग मयूरपिच्छ आदि को नहीं मानते। जैसा कि ढाढसो गाथाओं में कहा गया है पिच्छे - हाथ में लिये हुए मयूरपिच्छ अथवा सुरा गायके बालों में सम्यक्त्व नहीं है । आत्मा ही जीव को तार सकता है, इसलिये आत्मा का ध्यान करना चाहिये || सेयंबरो - श्वेताम्बर हो चाहे दिगम्बर, बुद्ध हो चाहे अन्य धर्माव - लम्बी, जिसकी आत्मा समभाव - माध्यस्थ्य भाव — से विभूषित है वह मोक्ष को प्राप्त होता है, इसमें संदेह नहीं है । जैमिनि, सांख्य, कणाद, चार्वाक और बौद्धों के मत प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि शास्त्रों से जानना चाहिये ॥ ११ ॥ गाथार्थ - जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट होकर सम्यग्दृष्टियों के चरणों में नहीं पड़ते हैं— उन्हें नमस्कार नहीं करते हैं--वे अव्यक्तभाषो अथवा गूंगे होते हैं तथा उन्हें रत्नत्रय की प्राप्ति दुर्लभ रहतो है ॥ १२॥ For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १. १२ ] दर्शनप्राभृतम् २३ ( जे दंसणेसु भठ्ठा) ये पुरुषा दर्शनेषु भ्रष्टा निसगंजाधिगमजलक्षणाद् द्विविधात् सम्यग्दर्शनात्, औपशमिक - वेदक - क्षायिकलक्षणात् त्रिविधात्सम्यक्त्वरत्नास्प्रच्युताः । विशेषार्थ -- उत्पत्ति की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं- निसगंज और अधिगमज । पूर्वभव के संस्कार के कारण जो सम्यग्दर्शन स्वयं हो जाता है उसे निसगंज सम्यग्दर्शन कहते हैं और जो पर के उपदेश से होता है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं । अन्तरङ्ग कारण की प्रधानता से सम्यग्दर्शन के तीन भेद हैं१. औपशमिक, २. वेदक ( क्षायोपशमिक ) और ३. क्षायिक । मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धो क्रोध - मान-मायालोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यक्त्व होता है उसे औपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । यदि यह सम्यग्दर्शन अनादि मिथ्यादृष्टि के होता है तो मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध - मान-माया-लोभ इन पाँच प्रकृतियों के ही उपशम से होता है, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति की सत्ता नहीं रहती और सत्ता न रहने का कारण यह है कि दर्शनमोहकी मिथ्यात्व आदि तीन प्रकृतियों में से केवल मिथ्यात्व प्रकृति का ही बन्ध होता है, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति का नहीं । सम्यग्दर्शन के हो जाने पर उसके प्रभाव से मिथ्यात्व प्रकृति के तीन खण्ड होते हैं - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति । सादि मिथ्यादृष्टि जीव के ही सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति की सत्ता रहती है, अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के नहीं । सादि मिथ्यादृष्टि जीव के भी मिथ्यादृष्टि अवस्था में अधिक काल तक रहने पर संक्रमण आदि के हो जाने से सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति की सत्ता समाप्त हो जाती है, अतः सादि मिध्यादृष्टि जीव के पाँच या सात प्रकृतियों के उपशम से सम्यग्दर्शन होता है । मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध - मान-मायालोभ इन छह सर्वघाती प्रकृतियों के वर्तमान काल में उदय आनेवाले निषेकों का उदयाभावी क्षय तथा उन्हीं के आगामी काल में उदय आनेवाले निषेकों का सदवस्थारूप उपशम और सम्यक्त्व प्रकृति नामक देशधाति प्रकृति का उदय होने पर जो तस्त्वश्रद्धान होता है उसे क्षायोप• शमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्ययस्व प्रकृति के उदय का वेदन For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ १. १२'आशामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाभ्यां भवमव-परमावादिगाढे च ॥ इत्यार्याकथितदशविधसम्यक्त्व-रत्नात्पतिताः । अस्या आर्याया अयमर्थः सूक्ष्मं जिनोदितं वाक्यं हेतुभि व हन्यते ।। आज्ञासम्यक्त्वमित्याहुर्नान्यथावादिनो जिनाः॥ एवं जिन-सर्वज्ञ-वीतरागवचनमेव प्रमाणं क्रियते तदाज्ञासम्यक्त्वं कथ्यते (१)। निर्ग्रन्थलक्षणो मोक्षमार्गों न वस्त्रादिवेष्टितः पुमान् कदाचिदपि मोक्षं . प्राप्स्यति, एवंविधो मनोभिप्रायो निन्थलक्षणो मोक्षमार्गे रुचिर्गिसम्यक्त्वं अनुभवन करने की अपेक्षा इसी क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन को वेदक सम्यग्दर्शन भी कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन सादि मिथ्यादृष्टि के हो होता . है, अनादि मिथ्यादृष्टि के नहीं। मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ इन सात प्रकृतियों के क्षय से जो तत्त्वश्रद्धान होता है उसे क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । यह केवली या श्रुतकेवली के सन्निधान में होता है अथवा स्वयं को श्रुतकेवलो अवस्था होने पर होता है। इसका माहात्म्य सर्वोपरि है, यह होकर कभी नहीं छूटता। इसको . उत्पत्ति कर्मभूमि के मनुष्य के हो होती है। इस सम्यक्त्व का धारक जीव चार भव से अधिक भव धारण नहीं करता है। बाह्य निमित्त की प्रधानता से सम्यग्दर्शन के दस भेद होते हैं आज्ञामार्ग इत्यादि-१. आज्ञासमुद्भव, २. मार्गसमुद्भव, ३. उपदेशसमुद्भव, ४. सूत्रसमुद्भव, ५. बीजसमुद्भव, ६. संक्षेपसमुद्भव, ७. विस्तारसमुद्भव, ८. अर्थसमुद्भव, ९. अवगाढ और १० परमावगाढ | इनका स्वरूप निम्न प्रकार हैं सूक्ष्म-जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ सूक्ष्म वाक्य हेतुओं द्वारा खण्डित नहीं होता, ऐसा श्रद्धान करना आज्ञा-सम्यक्त्व है; क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् अन्यथा कथन नहीं करते ।। मोक्षमार्ग निर्ग्रन्थलक्षण है, वस्त्रादि से वेष्टित पुरुष कभी मोक्ष को १. आत्मानुशासने गुणभद्राचार्यस्य । २. यही श्लोक अन्यत्र इस प्रकार उपलब्ध होता है सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभि व हन्यते । आशामात्रेण तद् ग्राह्य नान्यथावादिनो जिनाः ॥ For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. १२ ] दर्शनप्राभूतम् २५ द्वितीयमुच्यते (२) । त्रिषष्ठिलक्षणमहापुराणसमाकर्णनेन बोधि-समाधि- प्रदानकारणेन यदुत्पन्नं श्रद्धानं तदुपदेशनामकं सम्यग्दर्शनं भण्यते (३) । मुनीनामाचारसूत्रं मूलाचारशास्त्रं श्रुत्वा यदुत्पद्यते तत्सूत्रसम्यक्त्वं कथ्यते ( ४ ) । उपलब्धिवशाद् दुर'भिनिवेशविध्वंसान्निरुपमोपशमाभ्यन्तर कारणाद्विज्ञातदुर्व्याख्येयजीवादिपदार्थबीज - भूतशास्त्राद्यदुत्पद्यते तद् बीजसम्यक्त्वं प्ररूप्यते ( ५ ) । तत्त्वार्थसूत्रादिसिद्धान्त - निरूपित जीवादिद्रव्यानुयोगद्वारेण पदार्थान् संक्षेपेण ज्ञात्वा रुचि चकार यः स संक्षेपसम्यक्त्वः पुमानुच्यते (६) । द्वादशाङ्गश्रवणेन यज्जायते तद्विस्तार सम्यक्त्वं प्रतिपाद्यते (७) । अङ्गबाह्यश्रुतोक्तात् कुतश्चिदर्थादङ्गबाह्यश्रुतं विनापि यत्प्रभवति तत्सम्यक्त्वमर्थसम्यक्त्वं निगद्यते ( ८ ) । अङ्गान्यङ्गबाह्यानि च शास्त्राण्यधीत्य यदुत्पद्यते सम्यक्त्वं तदवगाढमुच्यते ( ९ ) । यत्केवलज्ञानेनार्थानवलोक्य प्राप्त नहीं होगा; ऐसा मन का अभिप्राय रखते हुए निग्रन्यलक्षण मोक्षमार्ग में रुचि रखना सो दूसरा मार्ग - सम्यक्त्व कहा जाता है । रत्नत्रय एवं आत्मध्यान को प्रदान करनेवाले शठ शलाकापुरुष सम्बन्धी महापुराण के सुनने से जो श्रद्धान उत्पन्न होता है वह उपदेश नाम का सम्यग्दर्शन कहा जाता है । मुनियों के आचार का निरूपण करनेवाले मूलाचार आदि शास्त्रों को सुन कर जो श्रद्धान उत्पन्न होता है वह सूत्र - सम्यक्त्व कहा जाता है। काललब्धि वश मिथ्या अभिप्राय के नष्ट होने पर, दर्शनमोह के असाधारण उपशम रूप आभ्यन्तर कारण से कठिनाई से व्याख्यान करने योग्य जीवादि पदार्थों के बीजभूत शास्त्र से जो उत्पन्न होता है वह बीजसम्यक्त्व कहलाता है। तत्त्वार्थसूत्र आदि सिद्धान्त ग्रन्थों में निरूपित जीवादि द्रव्यों के प्ररूपक अनुयोग के द्वारा संक्षेप से पदार्थों को जान कर जो श्रद्धा करता है वह संक्षेप- सम्यक्त्व का धारक, पुरुष कहा जाता है । द्वादशाङ्ग के सुनने से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह विस्तारसम्यक्त्व कहलाता है । अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य श्रुत के बिना ही अङ्गबाह्य श्रुत में कहे हुए किसी पदार्थ से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह अर्थ - सम्यक्त्व कहलाता है । अङ्ग और अङ्गबाह्य शास्त्रों को पढ़ कर जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह अवगाढ़ सम्यदर्शन कहलाता है। For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभृते ' [ १. १२सदृष्टिभवति तस्य परमावगाठ सभ्यत्वं कथ्यते (१०) तथा चोक्तं गुणभद्रेक गणिना'आशासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाशयव त्यक्तग्रन्थप्रपञ्चं शिवममृतपयं श्रद्दधनमोहशान्तेः। मार्गश्रद्धानमाहुः पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता . या संज्ञानागमाब्धिप्रसृतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टिः ॥१॥ आकर्ष्याचारसूत्र मुनिचरणविधेः सूचनं श्रद्दधानः । सूक्तासौ सूत्रदृष्टिदुंरधिगमगतेरर्थसार्थस्य . बीजैः। कैश्चिज्जातोपलब्धेरसमशमवशाद् बीज दृष्टिः पदार्थान् संक्षेपेणव बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपदृष्टिः ॥२॥ केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को देख कर जो श्रद्धान होता है वह परमावगढ़-सम्यक्त्व कहलाता है। जैसा कि गुणभद्राचार्य गणी ने कहा है आज्ञासम्यक्त्व-दर्शनमोह के उपशान्त होने से ग्रन्थश्रवण के बिना मात्र वीतराग भगवान् की आज्ञा से ही जो तत्त्वश्रदान होता है वह माज्ञा-सम्यक्त्व है । दर्शनमोह का उपशम होने से ग्रन्थविस्तार के बिना ही कल्याणकारी मोक्षमार्ग का जो श्रद्धान होता है उसे मार्ग-सम्यक्त्व कहते हैं। वेशठ शलाकापुरुषों के पुराण के उपदेश से जो उत्पन्न होता है उसे सम्यग्ज्ञान उत्पन्न करनेवाले आगमरूपी समुद्र में अवगाहन करनेवाले गणधर देव ने उपदेश-सम्यक्त्व कहा है ॥ __आकाचार-मुनियों के चारित्र की विधिको सूचित करनेवाले आचारसूत्र को सुन कर जो तत्त्वश्रद्धान करता है वह सूत्र-सम्यग्दृष्टि है। जिनका जानना अतिशय कठिन है ऐसे पदार्थसमूह को किन्हीं बीजपदों से जाननेवाले भव्य पुरुष को दर्शनमोह के असाधारण उपशम से जो तत्त्वश्रद्धान होता है वह बीज-सम्यग्दर्शन है। जो पुरुष संक्षेप से ही पदार्थों को जानकर अच्छी तरह श्रद्धा को प्राप्त हुआ है वह संक्षेपदृष्टि पुरुष है। १. आत्मानुशासने श्लोकसंख्या १२. २. मात्मानुवासने लोकसंख्या १३. For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १.१२] दर्शनप्राभृतम् 'यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गीं कृतरुचिरथ तं विद्धि विस्तार दृष्टि संजातार्यात्कुतश्चित्प्रवचन वचनान्यन्तरेणायंदृष्टिः । दृष्टिः साङ्गाङ्गबाह्य प्रवचनमवगाह्योत्थिता यावगाढा कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगाढेति रूढा ॥३॥ ईदृशदर्शनेषु भ्रष्टास्त्यक्तमयूरपिच्छ- कमण्डलु - परमागमपुस्तकाः सन्तो गृहस्थवेषधारिणः संयमघराणां संयमिनां सदृष्टीनाम् । ( पाए ण पडंति) पादे चरणयुगले न पतन्ति नैव नमोऽस्त्विति कुर्वन्ति, अभिमानित्वान्मुसलवत्तिष्ठन्ति । ते किं भवन्ति ? ( ते होंति लल्लमूआ ) ते भवन्ति लल्ला अस्फुटवाचो मूका वक्तु श्रोतुमशिक्षिताः । ( बोही पुण दुल्लहा ) बोधिः खलु रत्नत्रयप्राप्तिः पुनर्जन्मशतसहस्रेष्वपि दुर्लभा कष्टेनापि लब्घुमशक्या (तेसिं) तेषां जैनाभास - तदाभासानां च मिथ्यादृष्टीनामिति शेषः ॥ १२ ॥ यः श्रुत्वा - जो पुरुष द्वादशाङ्ग को सुनकर तत्त्वश्रद्धानी होता है उसे विस्तरदृष्टि जाने । अङ्गबाह्य प्रवचनों को श्रवण किये बिना ही किसो कारण से श्रद्धा उत्पन्न होती है वह अर्थदृष्टि- अर्थ- सम्यग्दर्शन है । अङ्ग तथा अङ्गबाह्य प्रवचनों का अवगाहन करने से जो श्रद्धा उत्पन्न होती है वह अवगाढ़ - सम्यग्दर्शन है और केवलज्ञान के द्वारा देखे हुए पदार्थों की जो श्रद्धा है वह परमावगाढ सम्यग्दर्शन नाम से प्रसिद्ध है । २७ · इस प्रकार के सम्यग्दर्शनों से जो भ्रष्ट हैं तथा मयूरपिच्छ, कमण्डलु और परमागम - शास्त्रों को छोड़कर गृहस्थवेष को धारण करते हुए संयम के धारी सम्यग्दृष्टि मुनियों के चरणों में नहीं पड़ते हैं, उन्हें नमोऽस्तु नहीं करते हैं और अभिमान के वश मूसल के समान यों ही खड़े रहते हैं अस्पष्टभाष गूंगे होते हैं अर्थात् बोलने और सुनने में असमर्थ होते हैं । ऐसे लोगों को लाखों जन्म में भो रत्नत्रय की प्राप्ति दुर्लभ रहती है। 1 १. आत्मानुशासने श्लोकसंख्या १४. २. पं० जयचन्द्रजी ने 'सरल' के स्थानपर 'लुल्ल' पाठ रख कर 'झूले नहीं चल सकने वाले' अर्थ किया है। For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभृते [ १. १३ जे पि पडंति च तेसि जाणंता लज्जगारवभयेण। तेसि पि णत्थि बोहि पावं अणुमोअमाणाणं ॥१३॥ येपि पतन्ति च तेषां जानन्तो लज्जा-गर्व भयेन । तेषामपि नास्ति बोधिः पापमनुमन्यमानानाम् ।।१३।। (जे पि पडंति च तेसि ) ये सम्यग्दर्शनादभ्रष्टा अपि पुरुषाः तेस तेषपरित्यक्तजिनमुद्राणां मयूरपिच्छ-शौचोपकरण-ज्ञानोपकरणरहितानां पादे कायघरयुगले पतन्ति नमस्कारं कुर्वन्ति पूर्वमुद्राधरा इति । ( जाणंता) विदन्तोऽपि जिनहाविराधका एते इत्यवगच्छन्तोऽपि । (लज्जा-गारव-भयेण) लज्जया त्रपया, गारवेण रसद्धि-सातगण, भयेनायं राजमान्योऽस्माकं कमप्युपद्रवं कारयिष्यतीत्यादिभीत्या च । ( तेसि पि णत्थि बोही ) तेषामपि बोधिर्नास्ति ते रत्लत्रयं प्रपालयन्तोऽपि रत्नत्रयाद् भ्रष्टा इति ज्ञातव्या इति भावः । कथंभूतानां तेषाम् ? ( पावं अणुमोयमाणाणं ) जिनदर्शनभ्रशाद्यदुत्पन्नं पापं पातकं तदनुमन्यमानाना मिति शेषः । उक्तं च समन्तभद्रेण गणिना-. . गाथार्थ-जो जानते हुए भी लज्जा, गर्व और भय के कारण उन मिथ्यादृष्टियों के चरणों में पड़ते हैं उन्हें-'नमोऽस्तु' आदि करते हैं, पाप की अनुमोदना करनेवाले उन लोगों को भी रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती ॥१३॥ विशेषार्थ-जो पुरुष स्वयं सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट न होने पर भी, उन जिनमुद्रा के त्यागी एवं मयूरपिच्छ, कमण्डलु और शास्त्र से रहित कुलिङ्गियों के चरणयुगल में पड़ते हैं-उन्हें नमस्कार करते हैं और साथ ही यह जानते भी हैं कि ये साधु होनेपर भी पूर्वमुद्रा-गृहस्थवेष को ही धारण करनेवाले हैं तथा जिनमुद्रा-वीतराग निम्रन्थ मुद्रा का विघात करनेवाले हैं, अतः नमस्कार के योग्य नहीं हैं; मात्र लज्जा; रस, ऋद्धि और सात इन तीन गर्यो से अथवा 'यह राजमान्य है, नमस्कार न करने पर कुछ उपद्रव करा देगा' इत्यादि भय से नमस्कार करते हैं वे उनके उस पाप की अनुमोदना करनेवाले हैं; अतः उनके रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती अर्थात् वे रत्नत्रय के पालक होकर भी रत्नत्रय से भ्रष्ट हैं। जैसा कि स्वामी समन्तभद्र ने कहा है For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. १४ ] दर्शनप्रामृतम् 'भयाशांस्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ॥ दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि । णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होई ॥१४॥ द्विविधमपि ग्रन्थत्यागं त्रिष्वपि योगेषु संयमस्तिष्ठति । ज्ञाने करणशुद्धे उद्भशने दर्शनं भवति ॥१४॥ (दुविहं पि गथंचायं ) द्विविधोऽपि ग्रन्थत्यागः । ( तीसु वि जोएसु) त्रिष्वपि योगेषु मनोवचन-कायशुद्धिषु । ( संजमो ठादि ) संयमश्चारित्र तिष्ठति भयाशा-सम्यग्दृष्टि मनुष्य भय, आशा, स्नेह अथवा लोभ से कुदेव, कुआगम और कुलिङ्गियों को न प्रणाम करें और न उनकी विनय करें। [सम्यग्दृष्टि मनुष्य, वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी रूप लक्षण से युक्त जिनेन्द्र देव को छोड़ किसी अन्य रागी-द्वेषी देव को; वीतरागसर्वज्ञ जिनेन्द्र की आम्नाय में लिखित, स्याद्वाद सिद्धान्त से ओतप्रोत एवं अहिंसामय सिद्धान्त के समर्थक शास्त्र को छोड़ अन्य रागी-द्वेषी लोगों के द्वारा लिखित एकान्तरूप एवं हिंसादि पापों के समर्थक शास्त्र को; और विषयों की आशा से रहित एवं ज्ञान-ध्यान में लीन निर्ग्रन्थ गुरु को छोड़ कर अन्य रागी-द्वेषो गुरु को; भय, आशा, स्नेह और लोभ के वशीभूत हो स्वप्न में भी नमस्कार नहीं करता । उसको दृष्टि से मोहजन्य विकार दूर हो जाता है, अतः वह वस्तु के शुद्ध स्वरूप को समझ कर वास्तविक प्रवृत्ति करता है। . गाथार्य-जो मुनि दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करते हैं, तीनों योगों पर संयम रखते हैं अर्थात् मन वचन काय की प्रवृत्तिपर नियन्त्रण • रखते हैं, ज्ञान को इन्द्रियों के विषयों से शुद्ध रखते हैं अर्थात् इन्द्रियों के वशीभत हो ज्ञान को मलिनं नहीं करते अथवा कृत कारित अनुमोदना से ज्ञान को निर्मल रखते हैं और खड़े होकर भोजन करते हैं उन्हीं मुनियों के सम्यक्त्व होता है ॥१४॥ विशेषार्थ-बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग के भेद से परिग्रह के दो भेद हैं। मुनियों को उक्त दोनों परिग्रहों का त्याग करना आवश्यक है। मनोयोग, १. रत्नकरण्डश्रावकाचारे श्लोकसंख्या ३०. For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३० षट्प्राभूते [ १. १४ भवति । ( णाणम्मि करणसुद्धे ) सम्यग्ज्ञाने कृत-कारितानुमोदनिर्मले सति । ( उब्भसणे ) उद्भभोजने च सति । ( दंसणं होदि ) सम्यक्त्वं भवति । मुनीनामिति शेषः । अथ कोऽसौ द्विविधो ग्रन्थ इत्याह – बाह्याभ्यन्तरभेद इति । तत्र बाह्यः परिग्रहः कथ्यते— क्षेत्र वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् । 'कुप्यं भाण्डं हिरण्यं च सुवर्ण च बहिर्दश ॥ क्षेत्र सस्याधिकरणम् । वास्तु गृहम् । धनं द्रव्यादि । धान्यं गोधूमादि । द्विपदं दासी दासादि । चतुष्पदं गो-महिषी - वेसर- गजाश्वादि । कुप्यं कार्पासचन्दन - कुङ, कुमादि । भाण्डं तैल-घृतादिभृतं पात्रम् । हिरण्यं ताम्ररूप्यादि । वचनयोग और काययोग के भेद से योगके तीन भेद हैं । इन तीनों योगों में शुद्धि होने पर ही संयम अर्थात् चारित्र होता है; इसलिये मुनियों को उक्त तीनों योगों पर नियन्त्रण रखकर उनकी शुद्धि बनाये रखनो चाहिये । सम्यग्ज्ञान के कृत कारित अनुमोदना से निर्मल रहने पर तथा खड़े खड़े भोजन लेने पर मुनियों के सम्यक्त्व होता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि मुनि अपने ज्ञान को सदा निर्मल रखते हैं और खड़े-खड़े पाणिपात्र में आहार करते हैं। [ यहाँ आचार्य महाराज ने यह भाव प्रकट किया है कि जो साघु होकर भी वस्त्रादि परिग्रह रखते हैं, जिनके मन वचन काय की प्रवृत्ति मैं कोई प्रकार की शुद्धि नहीं है, जो इन्द्रियों के वशीभूत होकर अपने ज्ञान को निर्मल नहीं रख पाते हैं अर्थात् उसे विषयसामग्री की प्राप्ति के लिये आत्मस्वरूप को छोड़ अन्यत्र भ्रमाते हैं अथवा यन्त्र-मन्त्र आदि लौकिक कार्यों में उसे प्रयुक्त करते हैं और गृहस्थ के घर खड़े खड़े आहार न लेकर गोचरी द्वारा लाये हुए आहार को एक जगह बैठकर सुख-सुविधा से ग्रहण करते हैं उन्हें सम्यक्त्व नहीं है और सम्यक्त्व से हीन होने के कारण वे वन्दनीय नहीं हैं ] बाह्य परिग्रह के दश भेद इस प्रकार हैं- क्षेत्र - क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, कुप्य, भाण्ड, हिरण्य, और सुवर्ण ये बहिरङ्ग परिग्रह के दश भेद हैं। जिसमें अनाज उत्पन्न होता है ऐसे लेत को क्षेत्र कहते हैं; मकान को वास्तु कहते हैं, द्रव्य आदि को मन कहते हैं, गेहूँ आदि धान्य कहलाते हैं; दासो दास आदि विपद 6. 'यानं शय्यासनं कुप्यं भाग देहि For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.१५] पनित्रामृतम् घटितापटितं सुवर्ण श्रीनिकेतन हाटकं कनकमिति यावत् । बभ्यन्तरग्रन्थक्च तुर्दशभेदः मिथ्यात्व-वेद-हास्यादिषट्-कषायचतुष्टयम् । राग-द्वेषौ च सङ्गाः स्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश ॥ सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभाव उवलद्धी। उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि ॥१५॥ सम्यक्त्वात् ज्ञानं ज्ञानात् सर्वभावोपलब्धिः । -, उपलब्धपदार्थे पुनः श्रेयोऽश्रेयो विजानाति ॥१५॥ ( सम्मत्तादो णाणं) सम्यक्त्वाज्ज्ञानं भवति, यस्य सम्यक्त्वं नास्ति स पुमानज्ञान एवेत्यर्थः । ( णाणादो सम्बभावउवली ) ज्ञानात् सर्वपदार्थानामुपमक जीवारिकताना जीवस्य परिक्षानं भवति । ( उक्लद्धपयत्थे पुण) उपलब्ध पदार्थे पुनः उपलब्धश्चासौ पदार्थः पयस्वस्मिन्नुपलब्धपदार्थे सति । कि कहलाते हैं। गाय, भैंस, ऊँट, हाथो, घोड़ा आदि चतुष्पद कहलाते है, वस्त्र, चन्दन तथा केशर आदि कुप्य कहे जाते हैं। तैल, घी आदि से भरे हुए बर्तन पात्र कहलाते हैं, तांबा चांदी नादि धातुएं हिरण्य कहलती हैं और जेवर रूम से घड़ा हुआ अथवा बिना घड़ा हुआ सुवर्ण कहलाता है। इसी सुवर्ण को श्रीनिकेतन ( लक्ष्मीका घर ), हाटक और कनक भी कहते हैं। आभ्यन्तर परिग्रह के निम्नलिखित चौदह भेद हैं-- मिथ्यात्व-मिथ्यात्व एक, वेद एक, हास्यादि छह नोकषाय, क्रोध मादि चार कषाय, राग और द्वेष एक-एक, इस प्रकार अन्तरङ्ग परिग्रह .. के चौदह भेद हैं। . गाथार्थ-सम्यक्त्व से ज्ञान होता है, ज्ञान से समस्त पदार्थों की उपलब्धि होती है, और समस्त पदार्थों को उपलब्धि होने पर यह जीव कल्याण और अकल्याण को विशेष रूप से जानता है ॥१५॥ विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन से ज्ञान होता है, जिसके सम्यग्दर्शन नहीं है वह पुरुष अज्ञानी है। शान से हो मोक्षमार्गोपयोगी जीवादि तत्वों का परिज्ञान होता है तथा पदार्थों का परिखान होने पर यह मनुष्य पुण्य १. मिथ्यात्ववेदरागास्तव हास्यात्यात पर दोषाः । नारच बायान तुर्दताम्मतरा IImmigranल For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नामृते भवति ? ( सेयासेयं वियाणेदि ) श्रेयः पुण्यं विशिष्टतीर्थकर-नामकर्म, भश्रेयः पाप चतुर्गतिपरिभ्रमणकारणं विशेषेण जानीते । उक्तञ्च न सम्यक्त्वसमं किञ्चित् काल्ये त्रिजगत्यति । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व समं नान्यत्तनूभृताम् ॥ सेयासेयविदण्हू उद्बुददुस्सील सीलवंतो वि । सोलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं ॥१६॥ श्रेयोऽश्रेयोवेत्ता उद्धृतदुःशीलः शीलवानपि। शोलफलेनाभ्युदयं ततः पुनः लभते निर्वाणम् ॥१६॥ ( सेयासेयविदहू ) श्रेयसः पुण्यस्य, अश्रेयसः पापस्य विदण्हू वेत्ता पुमान् । : (उद्घददुस्सील ) उन्मूलित दुःशील भवति । ( सोलवंतो वि ) शीलवान्. पुमान् ( सीलफलेण ) शोलफलेन कृत्वा । ( अन्भुदयं लहइ ) अभ्युदयं सांसारिक सुखं प्राप्नोति । ( तत्तो पुण णि ण्वाणं लहइ) ततः पुननिर्वाणं लभते मोक्ष प्राप्नोति ॥१६॥ अर्थात् सातिशय तीर्थंकर नामकर्म और पाप अर्थात् चतुर्गति के परिभ्रमण के कारण को विशेषरूप से जानता है । जैसा कि कहा है नसम्यक्त्व-तीनों काल और तीनों लोकों में सम्यग्दर्शन के समान प्राणियों का दूसरा हितकारी नहीं है और मिथ्यात्व के समान अहितकारी नहीं है। गाथार्थ-कल्याण और अकल्याण को जाननेवाला मनुष्य दुष्ट स्वभाव को उन्मूलित करता है तथा उत्तम शील-श्रेष्ठ स्वभाव से युक्त होता हुआ शील के फल स्वरूप सांसारिक सुख को प्राप्त होता है और उसके बाद मोक्ष प्राप्त करता है ॥१६॥ विशेषार्थ-जिसने श्रेय-सम्यक्त्व और अश्रेय-मिथ्यात्व को समझ लिया है वह दुःशील-दुष्ट स्वभाव विषय-काषयादिरूप परिणति को उखाड़ कर दूर कर देता है और शील से-आत्मपरिणति से युक्त मनुष्य शील के फलस्वरूप पहले तो अभ्युदयदेव तथा चक्रवर्ती आदि के सांसारिक सुख को प्राप्त होता है और उसके बाद निर्वाण को प्राप्त होता है ॥१६॥ १. रलकरणश्रावकाचारे समन्तभद्रस्य श्लोकसंख्या ३४. For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. १७] दर्शनप्राभृतम् जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिवभूयं । जर-मरण-वाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥१७॥ जिनवचनमौषधमिदं विषयसुखविरेचनममृतभूतम् । जरामरणव्याधिहरणं क्षयकरणं सर्वदुःखानाम् ॥१७।। (जिणवयणमोसहमिणं ) जिनवचनमौषधमिदम् इदम् पूर्वोक्तलक्षणं जिनवचनं सर्वज्ञ-वीतरागभाषितं हेतु-हेतुमद्भावसहितं औषधं वर्तते । कथंभूतं जिनवचनं औषधम् ? (विसयसुहविरेयणं) विषयाणां पञ्चेन्द्रियार्थानां स्पर्श-रसगन्ध-वर्ण-शब्दानां सम्बन्धित्वेन यत्सुखं विषयसुखं तस्य विरेचनं दूरीकरणम् । ( अमिदभूदं ) अमृतभूतं अविद्यमानं मृतं मरणं यत्र यस्माद्वा भव्यानां तदमृतभूत ____ गाथार्थ-यह जिनवचनरूपी औषधि विषयसुख को दूर करनेवाली है, अमृतरूप है, जरा और मरण को व्याधि को हरनेपाली है, तथा सब दुःखों का क्षय करनेवाली हैं ॥१७॥ विशेषार्थ-कार्य-कारणभाव से सहित सर्वज्ञ-वीतराग की वाणी को यहाँ औषधि की उपमा दी गई है-जिस प्रकार उत्तम औषधि शरीर के भीतर विद्यमान मल का विरेचन कर व्याधि को दूर करती है तथा मनुष्य के असामयिक मरण को दूर कर उसके सब दुःखों का क्षय कर देती है उसी प्रकार कार्य-कारणभाव-मित्त नैमित्तिकभाव से सहित जिनवाणीरूपी औषधि मनुष्य की आत्मा में विद्यमान पञ्चेन्द्रियों के विषयभून स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्दों के सम्बन्ध से होनेवाले विषयसुख का विरेचन करनेवाली है; अमृतरूप है-पीयूषतुल्य है, बुढ़ापा और मरण रूपी रोग को हरनेवाली है और शारीरिक, मानसिक तथा आगन्तुक दुःखों का क्षय करनेवाली है अर्थात् जड़ से उखाड़ कर उनका विध्वंस करनेवाली है ॥१७॥ .... [ यहाँ संस्कृत-टोकाकार ने जिनवचन की व्याख्या करते हुए उसे 'सर्वज्ञ-वोतरागभाषित' और 'हेतु-हेतुमद्भाव सहित' इन दो विशेषणों से विभूषित किया है । तथा इन विशेषणों से यह अभिप्राय सूचित किया है कि चूंकि जिनवचन सर्वज्ञ-वीतराग के द्वारा प्रतिपादित हैं, अतः प्रमाणभूत हैं । अन्यथा कथन करने में अज्ञान और कषाय ये दो ही कारण होते हैं, परन्तु जिनेन्द्र भगवान् के ज्ञानावरण कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्रकट हो चुका है अतः अज्ञान के सद्भाव की अंश मात्र भो कल्पना नहीं हो सकती तथा मोह कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से कषाय For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षप्राभूते [ १. १८अमृतोपमम् । अत एव ( जरमरणवाहिहरणं ) जरा-भरणव्याधिहरणं विनाशकम् । ( खयकरणं सव्वदुक्खाणं) क्षयकरणं मूलादुन्मूलकं सर्वदुःखानां शारीर-मानसागन्तुदुःखानां विध्वंसकमित्यर्थः ॥१७॥ एक्कं जिणस्स एवं बीयं उक्किटुसावयाणं तु । अवरट्रियाण तइयं चउत्थं पुण लिंगदंसणं गत्थि ॥१८॥ एकं जिनस्य रूपं द्वितीयमुत्कृष्टश्रावकाणां तु । अवरस्थितानां तृतीयं चतुर्थं पुनः लिङ्गदर्शनं नास्ति ।।१८।। ( एक्कं जिणस्स एवं ) एकमद्वितीयं जिनस्य रूपं नग्नरूपम् । (बीयं उक्किट्ठ सावयाणं तु ) द्वितीयमुत्कृष्टश्रावकाणां तु । उक्तं च आद्यास्तु षड् जघन्याः स्युमंध्यमास्तदनु त्रयः । शेषो द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने ॥ भी-राग-द्वेषरूप परिणति भी विद्यमान नहीं है, अतः कषायजन्य अन्यथाकथन की भी अल्पतम संभावना नहीं है । इस प्रकार जिनवचन प्रमाणरूप हैं--वस्तु के सत्यस्वरूप - का प्रतिपादन करनेवाले हैं। दूसरे विशेषण से यह भाव सूचित किया है कि निमित्त को उपेक्षा कर मात्र उपादान की शक्ति से कार्य का समर्थन करनेवाले वचन जिनवचन नहीं हैं, क्योंकि कार्य की सिद्धि में उपादान और निमित्त दोनों साधक हैं। ] ॥१७॥ गाथार्थ-एक जिनेन्द्र भगवान का नग्न रूप, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों का, और तीसरा आर्यिकाओं का; इस प्रकार जिनशासन में तीन लिङ्ग कहे गये हैं। चौथा लिङ्ग जिनशासन में नहीं है ।।१८।। विशेषार्थ-सकल और विकल के भेद से चारित्र के दो भेद हैं। इनमें से सकलचारित्र मुनियों के होता है। उनका लिङ्ग अर्थात् वेष नग्न दिगम्बर मुद्रा है। परिग्रहत्याग महाव्रत के धारक होने से उनके शरीर पर एक सूत भी नहीं रह सकता है। विकलचारित्र के धारकों के दर्शनिक १, प्रतिक २, सामयिको ३, प्रोषधोपवासी ४, सचित्तत्यागी ५, रात्रिभुक्तिविरत ६, ब्रह्मचारी ७, आरम्भविरत ८, परिग्रहविरत ९, अनुमतिविरत १०, और उद्दिष्टविरत ११; ये ग्यारह भेद होते हैं । इनमें से प्रारम्भ के ६ श्रावक जघन्य श्रावक, उनके पश्चात् तीन मध्यम श्रावक, और शेष के दो उत्कृष्ट श्रावक कहे जाते हैं। जिनागम में दूसरा For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.१९] दर्शनप्राभृतम् ३५ तेन "दंसण-वय-सामाइय-पोसह सचित्त - रायभत्ते य" इति गाथाद्ध कथिताः श्रावकाः षड् जघन्याः कथ्यन्ते । " बंभारंभ परिग्गह" इति गाथापादोक्तास्त्रयः श्रावका मध्यमा उच्यन्ते । शेषौ द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने । " अणुमणमुद्दि ट्ठदेसविरदो य" अनुमतादुद्दिष्टाद्विरतो देशविरतश्च कथ्यते - उत्कृष्टः श्रावकः उच्यते इति । ( अवरट्ठियाण तइयं ) अवरस्थितानामायिकाणां तृतीयं दर्शनम् ( चउत्थं पुण लिंगदंसणं णत्थि ) चतुर्थं पुनलिङ्गदर्शनं नास्ति । त्रीण्येव जिनशासने लिङ्गदर्शनानि प्रोक्तानि न न्यूनानि नाप्यधिकानीति शेषः ॥ १८ ॥ छद्दव्व णवपयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा । सद्दहह ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयब्वो ॥१९॥ षड् द्रव्याणि नव पदार्थाः पञ्चास्तिकायाः सप्त तत्त्वानि निर्दिष्टानि । श्रदधाति तेषां रूपं स सद्दृष्टिः मन्तव्यः || १९|| ( छद्दव्व ) षड् द्रव्याणि जीव- पुद्गल - धर्माधर्म- कालाकाशाः षड् द्रव्याणि भवन्ति । वर्तमानकाले द्रवन्तीति द्रव्याणि भविष्यति काले द्रोष्यन्ति, अतीत 1 लिङ्ग उत्कृष्ट श्रावकों का बतलाया गया है। दशम प्रतिमा के धारक अनुमतिविरत श्रावक एक धोती, एक चादर तथा कमण्डलु रखते हैं । एकादश प्रतिमा के धारक उद्दिष्टविरत श्रावकों के ऐलक और क्षुल्लक को अपेक्षा दो भेद हैं। ऐलक कौपीन, पिछी और कमण्डलु रखते हैं तथा क्षुल्लक एक छोटी चादर भी रखते हैं; इस तरह जिनागम में दूसरा लिङ्ग उत्कृष्ट श्रावकों का है । आर्यिकाएँ उपचार से सकलचारित्र की धारक कहलाती हैं । वे सोलह हाथ की एक सफेद धोती तथा पिछी रखती हैं। क्षुल्लिकाएं ग्यारहवीं प्रतिमा की धारक कहलाती हैं । वे सोलह हाथ की धोती के सिवाय एक चादर भी रखती हैं। इस प्रकार जिनागम में तीसरा लिङ्ग सकलचारित्र के द्वितीय भेद में स्थित आर्यिकाओं का होता है । न तो लिङ्गों के सिवाय जिनागम में चौथा लिङ्ग नहीं है—उसमें तीन हो लिङ्ग बतलाये हैं, होनाधिक नहीं । [ इस गाथा में श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने श्वेताम्बर साधुओं के उस लिङ्ग को जिनागम से असम्मत बताया है जिसमें परिग्रहत्याग महाव्रत की प्रतिज्ञा लेकर भी वस्त्र धारण किया जाता है ] ||१८|| गायार्थ - छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय ओर सात तत्त्व कहे गये हैं । उनके स्वरूप का जो श्रद्धान करता है उसे सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये ॥ १९ ॥ For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते [१. १९कालेऽदु वनिति द्रव्याणि जीव-पुद्गल-धर्माधर्म-कालाकाशनामानि । (गव पयत्या ) नव पदार्था जीवाजीव-पुण्य-पापासव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्ष-नामानः। . (पंचत्थी ) पञ्चास्तिकाया जीव-पुद्गल-धर्माधर्माकाशनामानः पञ्चास्तिकाया उच्यन्ते ( सत्त तच्च णिट्ठिा ) सप्त तत्वानि निर्दिष्टानि कथितानि जीवाजीवालव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षनामानि । (सदहइ ताण एवं ) श्रद्दधाति तेषां स्वरूपम् । ( सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो) स पुमान् सदृष्टिरिति मन्तव्यो मातव्यः । तेषु द्रव्यादिषु जीवः सचेतनः । पुद्गलो धर्मोऽधर्मः काल आकाशश्च पञ्चा- . चेतनाः । षड्विषोऽपि पुद्गलो मूर्तः । इतरे पञ्चामूर्ताः । जीव-पुद्गलयोर्गतः कारणं धर्मः । सर्वेषां स्थितेः कारणमधर्मः सर्वेषामाधारमाकाशः । वर्तनालक्षणः कालः रत्नानां राशिवद् भिन्नपरमाणुकः । धर्माधर्माकाशा अखण्डप्रदेशाः । कालपुद्गलयोर्जीवानां च प्रदेशेषु खण्डत्वम्, नत्वेकजीवस्य प्रदेशानां खण्डत्वम् । धर्माधर्म-कालाकाशाश्चत्वारो गमनागमनरहिताः। गमनागमने जीव-पुद्गला विशेषार्थ-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये छह द्रव्य हैं । द्रव्य शब्द का निरुक्त्यर्थ इस प्रकार है-जो वर्तमान काल में गण और पर्यायों को प्राप्त हो रहे हों, जो भविष्यत् काल में गुण और पर्यायों को प्राप्त होंगे, और जो भूत काल में गुण तथा पर्यायों को प्राप्त होते थे वे द्रव्य हैं। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नो पदार्थ हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांच अस्तिकाय कहलाते हैं। जोव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व कहे गये हैं। उनके स्वरूप का जो श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है। उन द्रव्यादिक में जीव सचेतन है; पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये पांच अचेतन हैं। बादरबादर, बादर, बादर-सूक्ष्म, मूक्ष्म-बादर, सूक्ष्म और सूक्ष्म-सूक्ष्म; यह छहों प्रकारका पुद्गल मूर्तिक है; बाकी पाँच द्रव्य अमृतिक हैं। जोव और पुद्गल द्रव्य को गति का कारण धर्म द्रव्य है । सब द्रव्यों की स्थिति का कारण अधर्म द्रव्य है। सब द्रव्यों का आधार आकाश द्रव्य है। काल द्रव्य वर्तना लक्षण से युक्त है तथा रत्नों को राशि के समान भिन्न भिन्न परमाणु रूप है । धर्म, अधर्म और आकाश अखण्डप्रदेशी हैं । नाना कालाणु, पुद्गलाणु और नाना जीवों के प्रदेश सखण्ड हैं; परन्तु एक जीव के प्रदेश सखण्ड नहीं है। धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये चार द्रव्य गमनागमन से रहित हैं। गमनागमन सिद्ध जीवों को छोड़ कर सब संसारी जीवों और पुद्गल द्रव्यों में ही होते हैं, अन्य द्रव्यों में नहीं। For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.२०] दर्शनप्रामृतम् नामन्यत्र सिद्धजीवेभ्यः । धर्मा-धर्मकजीवानामसंख्येयाः प्रदेशाः। संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशः आकाशः [ पुद्गलः ] । पुद्गलो [ आकाशो ]ऽनन्तप्रदेशश्च [ शः] । सर्वाणि द्रव्याण्येकतो मिलितान्यपि निज-निजगुणान् न जहति । एवं तत्त्वास्तिकायपदार्था-नामपि स्वरूप ज्ञातव्यम् ॥१९॥ जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहि पण्णत्तं । ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ॥२०॥ जीवादीनां श्रद्धानं सम्यक्त्वं जिनवरैः प्रणीतम् । व्यवहारात् निश्चयतः आत्मनो भवति सम्यक्त्वम् ।।२०।। (जीवादीसद्दहणं) जीवादीनां श्रद्धानं रुचिः ( सम्मत्तं ) सम्यक्त्वमिति (जिणवरेहि पण्णत्त ) जिनवरः प्रणीतम् । तत्तु सम्यग्दर्शनं ( ववहार ) व्यवहाराज्जातव्यम् । ( णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्त) निश्चयतो निश्चयनयादात्मैव भवति सम्यक्त्वं रुचिसामान्यत्वादित्यर्थः ॥ धर्म, अधर्म और एक जीव द्रव्य के असंख्यात प्रदेश हैं। पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात, तथा अनन्त प्रदेश हैं; अर्थात् कोई स्कन्ध संख्यातप्रदेशी हैं, कोई असंख्यातप्रदेशो हैं, और कोई अनन्तप्रदेशी हैं। आकाश अनन्तप्रदेशी है । यद्यपि सभी द्रव्य एकरूप से मिले हुए हैं तथापि वे अपने अपने गुणों को नहीं छोड़ते हैं। इसी प्रकार तत्त्व, अस्तिकाय और पदार्थों का भी स्वरूप जानना चाहिये ॥१९॥ गावार्थ-व्यवहार नय से जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है और निश्चय नय से आत्मा का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है अथवा गुण और गुणी की अभेद विवक्षा से आत्मा स्वयं सम्यक्त्व है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥२०॥ विशेषार्थ-जीव आदि सात तत्त्वों, जीव आदि नौ पदार्थों, जीव बादि छह द्रव्यों अथवा जीव आदि पांच अस्तिकायों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह लक्षण गुण-गुणी की भेदविवक्षा से कहा गया है, अतः व्यवहार नय से जानना चाहिये; क्योंकि गुण-गुणी का भेद व्यवहार मय का विषय है। निश्चय नय अभेद को विषय करता है, अतः उसकी अपेक्षा पर पदार्थ से भिन्न आत्मा का ही श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अथवा 'आत्मा का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है' यहाँ भी गुण-गुणी का भेद दृष्टिगोचर होता है, इसलिये आत्मा ही सम्यग्दर्शन है। निश्चय नय से सम्यग्दर्शन का यहो लक्षण मानना चाहिये, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ॥२०॥ For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 षट्प्राभृते - [१. २१एवं जिणपण्णत्तं दसण-रयणं घरेह भावेण। सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥२१॥ एवं जिनप्रणीतं दर्शनरत्नं धरत भावेन । - सारं गुणरत्नत्रयेषु सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥२१॥ ( एवं ) पूर्वोक्तप्रकारेण । ( जिणपण्णत्तं ) जिनः प्रणीतम् जिनैः कथितम् ।। (दंसणरयणं) दर्शन-रत्न सम्यक्त्व-माणिक्यम् । (घरेह भावेण ) घरत यूयं .. भावेन वीतराग-सर्वज्ञस्य भक्त्या । उक्तञ्च एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं दातु मुक्तिश्रियं कृतिनः ।। कथंभूतं दर्शन-रत्नम् ? (सारम् ) उत्कृष्टम् । केषु सारम् ? (गुण-रयणत्तय) गुणेषु उत्तमक्षमादिषु तथा रत्नत्रये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रषु । उक्तञ्च 'दर्शनं ज्ञान-चारित्रात् साधिमानमुपाश्नुते दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ॥ गाथार्ष-इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को हे भव्यजीवो! भावपूर्वक धारण करो। यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न उत्तम क्षमादि गुणों तथा सम्यग्दर्शनादि तीन रत्नों में श्रेष्ठ है और मोक्ष की पहली सीढ़ी है ॥२१॥ विशेषार्थ-इस प्रकार वीतराग सर्वज्ञ देव ने जिस सम्यग्दर्शनरूपी माणिक्य का निरूपण किया है वह उत्तम क्षमा आदि गुणों में तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूपो रत्नत्रयों में उत्कृष्ट है तथा मोक्षरूपी महल की पहली सीढ़ी है। इसे आप लोग वोतराग सर्वज्ञ देव की भक्ति से धारण करो, क्योंकि कहा है एकापि-हे कुशल जन हो ! यह एक ही जिनभक्ति कुगति का निवारण करने के, पुण्य को पूर्ण करने और मुक्तिरूपी लक्ष्मी को देने के लिये समर्थ है ॥ दर्शनं-चूकि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा श्रेष्ठता को १. रत्नकरण्डश्रावकाचारे समन्तभद्रस्य ३१ । २. प्राप्नोति-सेवते (क. टि.)। ३. कीदृशं दर्शनं कर्णधारं 'कर्णधारस्तु नाविकः' इत्यमरवचनात् भववारिषी पारं प्रापयितु अदः दर्शनम् । भाषायां 'खेवटिया' इति ज्ञातव्यम् । (क. टि.) For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १.२२ ] दर्शनप्राभृतम् ३९ पुनरपि कथंभूतं दर्शन - रत्नम् ? ( सोवाणं ) सोपानं पादारोपणस्थानम् । कतिसंख्योपेतम् ? ( पढम ) प्रथमं अद्वितीयम् । कस्य ? ( मोक्खस्स ) मोक्षस्य परमनिर्वाणस्य ॥२१॥ जं सक्कइतं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं । केवलिजिणेहिं भणियं सहमाणस्स सम्मतं ॥ २२॥ यत् शक्यते तत् क्रियते यच्च न शक्येत तस्य च श्रद्धानम् । केवलजिनंर्भणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ॥२२॥ ( जं सक्कइ तं कीरइ ) यच्छक्नोति तत् क्रियते विधीयते । ( जं च ण सक्केइ ) यच्च न शक्नुयात् यत् कर्तुं न शक्नोति । ( तं च सद्दहणं) तस्य श्रद्धानं तस्य प्राप्त है, अतः उसे मोक्षमार्ग का का नाम है। अतः सम्यग्दर्शन वाला है। कर्णधार कहते हैं । कर्णधार खेवटिया संसाररूपी सागर में पार लगाने 1 गाथार्थ - जो कार्य किया जा सकता है वह किया जाता है और जिसका किया जाना शक्य नहीं है उसका श्रद्धान करना चाहिये । केवलज्ञानी जिनेन्द्र भगवान् ने श्रद्धान करनेवाले पुरुषको सम्यग्दर्शन कहा है ||२२|| विशेषार्थ - जो ज्ञानाचार अथवा चारित्राचार किया जा सकता है उसका पालन करना चाहिये, और जो नहीं किया 'सकता है अर्थात् शारीरिक संहनन और तात्कालिक परिस्थिति की अनुकूलता के अभाव में जिसका किया जाना संभव नहीं है उसकी श्रद्धा करनी चाहिये; क्योंकि श्रद्धान करनेवाले पुरुष के सम्यक्त्व होता है, ऐसा केवलज्ञानी तीर्थंकर परम देव ने कहा है । तीर्थंकर के साथ केवली विशेषण देने का खास प्रयोजन यह है कि तीर्थंकर भगवान् केवलज्ञान के बिना उपदेश नहीं करते हैं । दीक्षा लेने के बाद केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यन्त का काल छद्मस्थ काल कहलाता है । इस छद्मस्थ काल में तीर्थंकर भगवान् मौन से रहते हैं । वे केवलज्ञान प्राप्त होने पर समवसरण में ही दिव्यध्वनि द्वारा धर्मोपदेश करते हैं । तीर्थंकर केवली के सिवाय जो अन्य मुनियों का उपदेश है उसे 'अनुवाद रूप ही जानना चाहिये अर्थात् केवलज्ञानी १. अर्थ ज्ञात्वा पश्चाद्वदनम् अनुवाद:, (क० टि० ) For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभृते [१. २२ ज्ञानाचारादे रोचनं कर्तव्यम् । ( केवलिजिणेहिं भणियं ) केवलज्ञानिभिजिनणितं . प्रतिपादितम् । केवलज्ञान विना तीर्थकरपरमदेवा धर्मोदेशनं न कुर्वन्ति । अन्यमुनीमामुपदेशस्त्वनुवादरूपो ज्ञातव्यः । अथवा केवलिभिः समवसरण-मण्डितकेवलज्ञानसंयुक्त-तीर्थकर-परमदेवर्भणितं, जिनरनगारकेवलिभिर्भणितं । किं भणितं ? (सदहमाणस्स सम्मत्त) श्रद्दधानस्स पुरुषस्य रोचमानस्य जीवस्य सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनं भवति ॥२२॥ www तीर्थकर अपनी दिव्यध्वनि द्वारा जो उपदेश करते हैं अन्य मुनि उसीका कथन करते हैं । अथवा मूल गाथा में जो 'केवलिजिणेहिं पद है उसका 'केवलिनश्च ते जिनाश्च' ऐसा कर्म-धारय समास न करके 'केवलिनश्च जिनाश्च' ऐसा द्वन्द्व समास करना चाहिये उससे उक्त पदका यह अर्थ हो सकता है कि केवली अर्थात् समवसरणमें सुशोभित केवलज्ञानसे संयुक्त . तीर्थंकर परमदेव और जिन अर्थात् अनगार केवलियों-सामान्य केवालयों ने कहा है। (आज कल कितने ही मनुष्य चारित्र पालन करने में अपनी अशक्ति देख चारित्र को ढोंग या पाखण्ड आदि निन्दनीय शब्दों द्वारा व्यवहृत करते देखे जाते हैं तथा चारित्र के धारक जीवों को निन्दा करते हुए पाये जाते हैं उनके प्रति आचार्य कुन्दकुन्द महाराज का उपदेश है कि जितना आचार पालन करने की क्षमता है उसे अपनी शक्ति न छिपा कर पालन करना चाहिये क्योंकि मोक्षमार्ग में अपनी शक्ति को छिपाना आत्मवञ्चना है और जिस चारित्र का पालन करना अशक्य है उसकी श्रद्धा करना चाहिये तथा अपनी शक्तिहीनताका पश्चात्ताप करते हुए यह भावना रखना चाहिये कि हम में वह शक्ति कब प्रगट हो जिससे में भी इस चारित्रको धारण कर सकू। जो मनुष्य इस प्रकार चारित्र के प्रति अपनी श्रद्धा रखता है वह सम्यग्दृष्टि है-सम्यग्दर्शनका धारक है और उसका वह सम्यग्दर्शन उसे चारित्र को प्राप्ति में पूर्ण सहायता करता है । गाथा का उक्त भाव कविवर द्यानतराय जी ने एक सोरठा में भी व्यक्त किया है। कीजे शक्ति समान शक्ति विना सरधा धरे। धानत सरधावान अजर अमर पद भोगवे ॥ अर्थात् शक्ति के समान कार्य करना चाहिये और शक्तिके विना उसकी श्रद्धा करना चाहिये। क्योंकि श्रद्धा रखनेवाला पुरुष भी अजरअमर पदको प्राप्त होता है । ) ॥२२॥ For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. २३] दर्शनप्रामृतम् दसणणाणचरित्ते तवविणय णिच्चकाल' सुपसत्या। एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं ॥२३॥ दर्शन ज्ञान चारित्रे तपोविनये नित्यकाल सुप्रस्वस्थाः । एते तु वन्दनीया ये गुणवादिनो गुणधराणाम् ॥२३॥ (दसणणाणचरित्ते ) दर्शनज्ञानचारित्रे दर्शनं च ज्ञानं च चारित्रं च दर्शनशानचारित्रं समाहारो द्वन्द्वः तस्मिन् दर्शनज्ञानचारित्रे एतत्रितये तथा (तविणए ) तपो विनये चतुर्विधाराधनायामियेत्यर्थः ( णिच्चकाल सुपसत्था ) नित्यकालसुप्रस्वस्था नित्यमेव प्रकर्षण स्वस्था एकलोलीभावं प्राप्ताः । गाथार्य-जो मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपो विनय में सदा लीन रहते हैं तथा अन्य गुणी मनुष्योंके गुणोंका वर्णन करते हैं वे वन्दनीय है-नमस्कार करने के योग्य हैं ॥२३॥ विशेषार्थ-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके भेदसे आराधना के चार भेद हैं । जो मुनि इन चारों प्रकार को आराधनाओं में निरन्तर प्रकृष्टता से स्वस्थ रहते हैं अर्थात् मुख्यपने से इन्हीं में एक लोलीभाव *सतृष्णता को प्राप्त रहते हैं अथवा स्थिरता को प्राप्त होते हैं तथा सम्यग्दर्शनादि आराधनाओं को आराधना करने वाले अन्य गुणी मनुष्योंके गुण वर्णन करते हैं उनमें किसी प्रकारका मात्सर्यभाव नहीं रखते हैं, वे वन्दना के योग्य हैं ॥२३॥ ___ [यहाँ संस्कृत टोकाकार ने 'एक लोलीभावं प्राप्ताः' इस पदका प्रयोग किया है जिसका अर्थ "किसी पदार्थमें अत्यन्त उत्सुकताके साथ लीन होना होता है।' इसी शब्दके स्थान पर 'क' प्रति की टिप्पणी में 'एकलौल्याभावं प्राप्ताः' इस पाठ का भी संकेत किया है और उसकी संगति बैठाते हुए लिखा है कि 'एक लौल्यं चपलत्वं तस्य अभावः स एकलौल्याभाव स्तं प्राप्ता इत्यर्थः' इसका अर्थ चपलता का अभाव अर्थात् स्थिरता प्राप्त करने वाले ऐसा होता है। वास्तव में लोल शब्दके कोष में चञ्चल-चपल और सतृष्ण उत्सुक दोनों अर्थ स्वीकृत किये गये हैं। १. णिच्चकालपसत्या म०। २. कोष्ठकान्तर्गतः पाठः 'क०' पुस्तके नास्ति, म पुस्तके त्वस्ति । ३. एकलोल्याभावं प्राप्ताः कथं तद् दृश्यताम्-एक लोल्यं चपलत्वं तस्य अभावः स एक लोल्याभावः तं प्राप्ताः। .. ४. 'लोलव सतृष्णयोः' इत्यमरः । For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [१. २४___ (एदे दु वंदणीया ) एते पुरुषा महामुनयो वन्दनीया नमस्कर्तव्याः । एते के ? ( जे गुणवादी गुणघराणं ) ये मुनयः स्वयं सम्यग्दर्शनादीनामाराधका अपरेषां गुणधराणामाराधनाराधकानां । ये मुनयो गुणवादिनो गुणवर्णनशीला न मत्सरिणस्ते वन्दनीया नमस्कारणीया इत्यर्थः ॥२३॥ सहजुप्पण्णं रूवं दह्र जो मण्णए ण मच्छरिओ। सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो ॥२४॥ सहजोत्पन्नं रूपं दृष्ट्वा यो मन्यते न मत्सरिकः। स संयमप्रतिपन्नो मिथ्यादृष्टिर्भवत्येषः ॥२४॥ ( सहजुप्पण्णं एवं ) सहजोत्पन्नं स्वभावोत्पन्नं रूपं नग्नं रूपं । ( ) दृष्ट्वा विलोक्य । ( जो मण्णए ण ) यः पुमान् न मन्यते नग्नत्वेऽरुचिं करोतिनग्नत्वे किं प्रयोजनं पशवः किं नग्ना न भवन्तीति व्रते । ( मच्छरिओ) परेषां शुभ कर्माणि द्वेषी । ( सो संजम पडिवण्णो) स पुमान् संयम-प्रतिपन्नो दीक्षां प्राप्तोऽपि (मिच्छाइटठी हवइ एसो) मिथ्यादृष्टिर्भवत्येष । अपवादवेषं घरन्नपि इस गाथा में कुन्दकुन्द स्वामी ने व्यतिरेक रूपसे यह भाव प्रतिफलित किया है कि जो साधु, सम्यग्दर्शनादि चार आराधनाओं में लीन न रहकर इधर उधर की बातोंमें संलग्न रहते हैं तथा ईर्ष्या-वश अन्य गुणो मनुष्योंकी प्रशंसा न करके उल्टी निन्दा करते हैं वे साधु वन्दना करने योग्य नहीं हैं ] ॥२३॥ गाथार्य-जो स्वाभाविक नग्न रूपको देखकर उसे नहीं मानता है, उलटा ईर्ष्याभाव रखता है वह संयम को प्राप्त होकर भी मिथ्यादृष्टि है ॥२४॥ विशेषार्थ-नग्न-दिगम्बर मुद्रा सहजोत्पन्न स्वाभाविक मुद्रा है उसे देखकर जो पुरुष उसका आदर नहीं करता है प्रत्युत नग्न-मुद्रा में अरुचि करता हुआ यह कहता है कि नग्नत्व में क्या रखा है ? क्या पशु नग्न नहीं होते ? साथ ही दूसरोंके शुभ कार्य में द्वेष रखता है, वह दीक्षाको प्राप्त होने पर भी मिथ्यादृष्टि है। ऐसा पुरुष अपवाद वेष को धारण करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि है । वास्तव में मुनिमार्ग में कोई भी अपवाद वेष स्वीकार्य नहीं है, परिस्थिति-वश उसे जो धारण करता है वह अपने गृहीतचारित्र से च्युत होने के कारण मिथ्यादृष्टि ही है। वह अपवाद वेष क्या है ? इसका उत्तर देते हुए संस्कृत टीकाकार ने स्पष्ट किया है For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ -१. २५] दर्शनप्राभृतम् मिथ्यादृष्टितिव्य इत्यर्थः। कोऽपवादवेषः ? कलौ किल म्लेच्छादयो नग्न दृष्ट्वोपद्रवं यतीनां कुर्वन्ति तेन मण्डपदुर्गे श्री वसन्तकीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुन स्तन्मुञ्चन्तीत्युपदेशः कृतः संयमिनामित्यपवादवेषः । तथा नृपादिवर्गोत्पन्नः परमवैराग्यवान् लिङ्गशुद्धिरहितः उत्पन्नमेहनपुट-दोषः लज्जावान् वा शोताद्यसहिष्णुर्वा तथा करोति सोऽप्यपवाद-लिङ्गः प्रोच्यते । उत्सर्गवेषस्तु नग्न एवेति ज्ञातव्यम् । 'सामान्योक्ती विधिरुत्सर्गो विशेषोक्तो विधिरपवादः' इति परिभाषणात् ॥२४॥ अमराण वंदियाणं रूवं दळूण सोलसहियाणं । जे गारवं करंति य सम्मत्तविवज्जिया होंति ॥२५॥ अमराणां वन्दितानां रूपं दृष्ट्वा शीलसहितानाम् । ये गर्व कुर्वन्ति च सम्यक्त्वविजिता होति ॥२५।। ( अमराण वंदियाणं ) अमराणां भवनवासिव्यन्तर-ज्योतिष्क-कल्पवासिकल्पातीतदेवानां वन्दितानां तीर्थंकरपरमदेवानां ( एवं दळूण ) रूपं वेषं दृष्ट्वा कि कलिकाल में म्लेच्छ आदि पुरुष नग्न रूप देख कर मुनियों पर उपद्रव करते हैं इसलिये मण्डपदुर्ग में श्री वसन्तकीर्ति स्वामी ने संयमियों को यह उपदेश दिया कि चर्या आदि के समय चटाई आदिके द्वारा शरीरको ढक लें, बाद में चर्या आदि करके उसे छोड़ दें। दूसरा अपवाद वेष यह कि राजा आदि विशिष्ट वर्ग से उत्पन्न हुआ मनुष्य यदि उत्कृष्ट वैराग्य से युक्त होता है परन्तु लिङ्ग-शुद्धि रहित होने अथवा लिङ्गके अग्रभागमें दोष होनेके कारण नग्न होने में लज्जा का अनुभव करता है तो वह वस्त्र धारण कर सकता है अथवा कोई शोत आदिके कष्टको सहन नहीं कर सकता है तो वह वस्त्र धारण करता है। इन अपवाद वेषोंको कुन्दकुन्द स्वामी सर्वथा अस्वीकार्य मानते हैं । उनका अभिप्राय है कि मुनिका वेष सहजोत्पन्न दिगम्बर मुद्रा ही है जिसने हिंसादि पाँच पापोंका नव कोटिसे त्याग किया है वह म्लेच्छादि दुष्ट • पुरुषोंके उपसर्ग से भयभीत होकर किसी प्रकारके आवरणको स्वीकृत नहीं कर सकता । उपसर्ग आने पर समता भावसे उसे सहन करना हो मुनिका कर्तव्य है। इसी प्रकार जिसे शोत आदि का परिषह सहन नहीं होता तथा जो लिङ्गादि में विकार होने से दीक्षा धारण के योग्य नहीं है वह उत्कृष्ट श्रावक ऐलक क्षुल्लकके पद में रह कर ही संयम धारण करता है। भावनाके अतिरेक से चरणानुयोगकी व्यवस्था को भङ्ग कर For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ १.२५ विलोक्य । कथंभूतानां ? ( सीलस हियाणं ) व्रतरक्षासहितानां । ( जे गारवं कति ब) ये पुरुषा जैनाभासास्तथान्ये च गर्वं कुर्वन्ति चकारात्सेवां न कुर्वन्ति । ( सम्मत्तविवज्जिया होंति ) सम्यक्त्वरहिता भवन्ति, मिथ्यादृष्टयो भवन्ति, - सम्यक्त्वरत्नच्युता भवन्ति, महापातकिनो भवन्ति, दीर्घकाले संसारमध्ये पर्यटन्ति । उक्तं च ૪૪ ये गुरुं नैव मन्यन्ते तदुपास्ति न कुर्वते । अन्धकारो भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे ।। मुनिपद धारण नहीं करता और न अपने शिथिलाचारसे उसे कलङ्कित ही करता है । कुन्दकुन्द स्वामीने अपवाद वेषके रूप में पीछी कमण्डलु शास्त्र तथा शरीर की स्थिरताके निमित्त दिनमें एक बार शुद्ध आहार ग्रहण करना बतलाया है ॥ २४ ॥ गाथार्थ - जो देवोंसे वन्दित तथा शीलसे सहित तीर्थंकर परमदेवके ( द्वारा आचरित मुनियों के नग्न ) रूपको देखकर गर्व करते हैं वे सम्यक्त्व से रहित हैं ।। २५ ।। विशेषार्थ - तीर्थंकरका नग्नरूप भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवोंके द्वारा वन्दनीय है तथा शोल अर्थात् व्रतको रक्षासे सहित हैं। वैसे मुनियोंके नग्न रूपको देखकर जो जेनाभास अथवा अन्य धर्मी लोग गर्व करते हैं तथा उनको उपासना नहीं करते हैं वे सम्यग्दर्शन यानी सम्यक्त्वरूपी रत्नसे रहित हैं, मिध्यादृष्टि हैं, सम्यक्त्वरत्नसे च्युत हैं, महापातकी हैं और दोर्घकाल तक संसारके मध्य भ्रमण करते हैं। कहा भी है ये गुरु-जो गुरुको नहीं मानते हैं, और न उनकी उपासना करते हैं उनके सूर्योदय होने पर भी अन्धकार बना रहता है [ यहाँ मिथ्यात्व को अन्धकार कहा है। सूर्योदय होनेपर लोक का बाह्य अन्धकार नष्ट हो सकता है पर मिथ्यात्व रूप अभ्यन्तर अन्धकार नष्ट नहीं हो सकता । उसे नष्ट करने के लिये सम्यक्त्व रूपो सूर्योदय की आवश्यकता रहती है और वह तब तक नहीं हो सकता जब तक नग्न-दिगम्बर मुद्राधारी - निग्रन्थ गुरुओंके प्रति आस्था नहीं होती | ] ॥ २५ ॥ For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.२६] दर्शनप्रामृतम् 'अस्संजदंग वंदे वच्छविहीणोवि सो ग बंदिज्ज । दुणिवि होति समाणा एगो विण संजदो होदि ॥२६॥ असंयतं न वन्देत वस्त्रविहीनोऽपि स न वन्येत । द्वावपि भवतः समानौ एकोऽपि न संयतो भवति ॥२६॥ (अस्संजदं ण ) वंदे असंयतं गृहस्थवेषधारिणं संयम पालयन्तमपि न वन्देत । (बच्छविहीणो वि सो ण बंदिज्ज) वस्त्र-विहीनोऽपि नग्नोऽपि संयमरहितो न वन्धेत न नमस्क्रियेत् । ( दुण्णिवि होंति समाणा ) द्वितीयेऽपि समाना संयमरहिता भवन्ति । ( एगो वि ण संजदो होदि ) 'एकोऽपि न संयतो भवति । गृहस्थः संयम प्रतिपालयन्नप्यसंयमी ज्ञातव्य इति भावः ॥२६॥ गाचार्य--असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिये और जो वस्त्र-- रहित होकर भी असंयमी है वह भी नमस्कार के योग्य नहीं है । ये दोनों ही समान हैं, दोनोंमें एक भी संयमी नहीं है ॥ २६ ॥ विशेषा-जो सयम का पालन करता हुआ भी असंयत है अर्थात् सवस्त्र होनेसे गृहस्थ के वेष को धारण करता है उसे वन्दना नहीं करना चाहिये और जो वस्त्र-रहित अर्थात् नग्न होकर भी संयम से रहित हैमात्र द्रव्य-लिङ्ग को धारण करता है वह भी नमस्कार के योग्य नहीं है क्योंकि तत्व-दृष्टि से दोनों ही एक समान हैं, उनमें एक भी संयमी नहीं है। (जिनागम में पूज्यता संयमसे बतलाई गई है। संयम महाव्रती के होता है और महाव्रती निर्गन्य होनेसे नग्न ही रहता है। जो साधु महा. व्रत रूप संयम का नियम लेकर भी वस्त्र धारण करता है, वह गृहस्थ है, अतः असंयमी होनेसे वन्दना के योग्य नहीं है। इसी प्रकार जो नग्न होकर भी वास्तविक संयम से रहित है वह भी असंयमी है, अतः नमस्कार · · करनेके योग्य नहीं है। यद्यपि संयमासंयम के धारक ऐलक क्षुल्लक ब्रह्मचारी आदि भी गृहस्थ के द्वारा वन्दनीय होते हैं तथापि यहाँ गुरु का प्रकरण होनेसे उनकी विवक्षा नहीं को गई है। यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक अपने पदके अनुसार जो १. असंजद क०। २. वोष्णिवि म। 1. बर्य पाठः क पुस्तके नास्ति । For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभृते ६१. २७ण वि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुत्तो। . . को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेव सावओ होइ ॥२७॥ नापि देहो वन्द्यते नापि च कुलं नापि च जातिसंयुक्तः। कं वन्दे गुणहीनं न हि श्रमणो नैव श्रावको भवति ॥२७il (ण वि देहो वंदिज्जइ) नापि देहो वन्द्यते । ( ण वि य कुलो ) नापि च कुलं पितृपक्षो वन्द्यते । ( ण विय जाइसंजुत्तो ) न च जातिसंयुक्तो मातृपक्षशुद्धः पुमान् वन्द्यते । ( को वंदमि गुणहीणो) कं वन्दे गुणहीनम् अपितु गुणहीनं न नियम लेता है उसका पालन करता है अतः वस्त्र-सहित होनेपर भी उसे असंयमी नहीं कहा जाता किन्तु संयमासंयमी कहा जाता है। पर जो पंच महाव्रत का नियम लेकर भी वस्त्र धारण करता है वह अपने गृहीत संयम से च्युत होनेके कारण असंयमी कहा जाता है। इस गाथा में कुन्दकुन्द स्वामी ने द्रव्यसंयम और भावसंयम दोनों को उपादेय बतलाया है । अपनी मान्यता के अनुसार कथित संयमका धारक होनेपर भी सवस्त्र होनेसे जिसके द्रव्यसंयम नहीं है वह अवन्द्रनीय है, साथ ही वस्त्र-रहित होनेसे द्रव्य-संयम का धारक होनेपर भी जिसके भाव-संयम नहीं है वह भी अवन्दनीय है । मोक्षप्राप्तिके लिये द्रव्य-शुद्धि और भावशुद्धि दोनों ही आवश्यक हैं । ] ॥२६॥ गाथार्थ-न शरीर की वन्दना की जाती है, न कुल को वन्दना की जाती है किस गुणहीन की वन्दना करूं ? क्योंकि गुण-हीन मनुष्य न मनि है और न श्रावक ही है ॥२७॥ . ___ विशेषार्थ-न तो किसी का शरीर पूजा जाता है, न कुल-पितृपक्ष पूजा जाता है और न जाति-मातृपक्ष पूजा जाता है किन्तु संयमरूप गुण ही पूजा जाता है । जिसमें संयम नहीं है वह सुन्दर स्वस्थ शरीर, उच्चकुल और उच्चजातिवाला होकर भी अपूजनीय ही रहता है । कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि मैं किस गुण-हीन की वन्दना करूं ? अर्थात् मैं किसी भी गुणहीन को वन्दना नहीं कर सकता। क्योंकि संयम गुण से भ्रष्ट पुरुष, न मुनि ही है और न श्रावक ही है । तात्पर्य यह है कि गुणवान् मुनि ही वन्दनीय हैं-नमस्कार करने के योग्य हैं। [ इस गाथा में कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रगट किया है कि मात्र सुन्दर वस्त्र, शरीर, उच्चकुल और उच्चजाति से युक्त होनेके कारण ही किसो मनुष्यकी पूजा नहीं होती किन्तु गुणों से युक्त होनेपर ही शरीरादि पूजा For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. २८] दर्शनप्राभृतम् . ४७ 'कमपि वन्दे । ( ण हु सवणो णेव सावओ होइ ) गुणहीनः पुमान् न' श्रमणो दिगम्बरो भवति नैव श्रावको भवति देशव्रती च न भवति । 3 गुणवानेव मुनिवन्दनीय इति भाव ॥२७॥ वंदामि तवसमण्णा सोलं च गुणं च बंभचेरं च । सिद्धिगमणं च तेसिं सम्मत्तेग सुद्धभावेण ॥२८॥ वन्दे तपः समापन्नान् शीलं च गुणं च ब्रह्मचर्य च । सिद्धिगमनं च तेषां सम्यक्त्वेन शुद्धभावेन ॥२८॥ (वंदामि तवसमण्णा ) वन्देऽहं कुन्दकुन्दाचार्यः । कान् ? मुनीनित्युपस्कारः । कथंभूतान् मुनीन् ? ( तवसमण्णा ) तपः समापन्नान् । तथा तेसि तेषां मुनीनाम् (सीलं च ) पूर्वोत्त-मष्टादश-सहस्र-संख्यं शीलं च वन्दे । (गुणं च ) पूर्वोक्त चतुरशोतिलक्ष-संख्यं गुणं चाहं वन्दे । तथा तेषां मुनीनां (बंभचरं च ) पूर्वोक्तं नवविधं ब्रह्मचर्य च वन्दे । तथा तेषां मुनीमां (सिद्धिगमणं च ) आत्मोपलब्धिलक्षणं सिद्धिगमनं मुक्तिप्राप्ति वन्दे । केन कृत्वा वन्दे ? ( सम्मत्तेण ) सम्यक्त्वेन के निमित्त होते हैं इसलिये पूजा का मुख्य अङ्ग जो संयम है उसे प्राप्त करना चाहिये। उत्कृष्ट संयम को प्रतिज्ञा लेकर उससे भ्रष्ट हुआ मनुष्य न मुनि कहलाता है और न श्रावक । वह तो सोधा असंयमी है, अतः असंयमी होनेसे वन्दना के योग्य नहीं है ] ॥२७॥ गाथार्थ-मैं उन मुनियों को नमस्कार करता हूँ जो तप से सहित हैं। साथ ही उनके शीलको, गुणको, ब्रह्मचर्य को और मुक्ति-प्राप्तिको भी सम्यक्त्व तथा शुद्धभाव से वन्दना करता हूँ ॥२८॥ - विशेषार्थ-अनशन ऊनोदर आदि के भेदसे तपके बारह भेद हैं। · शीलके अठारह हजार भेद होते हैं। गुणोंके चौरासी लाख भेद हैं और ... ब्रह्मचर्य नवगाढ़ की अपेक्षा नौ प्रकारका है । जो तप शील, गुण और ब्रह्मचर्यसे सम्पन्न हैं उन मनियोंको में नमस्कार करता है। ऐसे मनि हो अपनी साधना से सिद्धि-कर्म-नोकर्म और भावकर्म से रहित स्वस्वरूप १. किमपि क०। २. श्रवणो म०। ३. गुणवान् मुनि क०। For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते [ १.२९ श्रद्धया रुचिरूपेण सम्यग्दर्शनेन वन्दे । न केवलं सम्मत्तेण वन्दे किन्तु ( सुद्धभावेण ) निर्मल परिणामेन अकुटिलतया निर्मायत्वेनेति तात्पर्यम् ॥२८॥ ४८ चउसट्ठिचमरसहिओ चउतीसहि अइसएहिं संजुत्तो । अणुवरबहुतत्तहिओ कम्मक्खय कारणनिमित्तो ॥ २९ ॥ चतुःषष्टिचमरसहितः चतुस्त्रिंशद्भिरतिशयेः संयुक्तः । अनुचरबहुसत्त्वहितः कर्म्मक्ष्यकारणनिमित्ते ॥२९॥ ( चउसट्ठिचमरसहिओ ) चतुःषष्टिचामरसहितस्तीर्थकर - परमदेवो भवति तं वन्दे इति विषमव्याख्या ज्ञातम्या ( चउतीसहि अइसएहि संजुत्तो ) चतुस्त्रिंशदतिशयैः संयुक्तस्तीर्थंकर-परमदेवो भवति, तं वन्दे । ( अणुवर बहुसत्तहिओ ) अनुचर - बहुसत्वहितः स्वामिना सह ये पृष्ठतो गच्छन्ति तेऽनुचराः सेवकाः तथा बहुसत्वा अपरेऽपि जीवास्तेभ्यो हितः स्वर्गमोक्षदायक इत्यर्थः । ( कम्मक्खयकारणनिमित्ते ) कर्मणां क्षयकारणं शुक्ल-ध्यानं तस्य निमित्ते प्राप्त्यर्थं वन्दे इति क्रियाकारकसम्बन्धः ।।२९।। की उपलब्धि को प्राप्त होते हैं। यह स्वस्वरूपोपलब्धि ही जीवनका सर्वोपरिलक्ष्य है, इसे में श्रद्धापूर्वक शुद्धभावसे नमस्कार करता हूँ ||२८|| गाथार्थ - जो चौसठ चमरों से सहित हैं, चौतीस अतिशयोंसे युक्त हैं और विहार कालमें पीछे चलने वाले सेवक तथा अन्य अनेक जीवोंके हित करने वाले हैं उन तीर्थंकर परमदेव को मैं कर्मक्षय में कारणभूत शुक्लध्यानकी प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ ||२९|| विशेषार्थ -- तीर्थंकर भगवान 'चौसठ चमर रूप प्रातिहार्य से सहित होते हैं । दश जन्मके, दश केवलज्ञान के और चौदह देव रचित इस प्रकार चौतीस अतिशयों से युक्त होते हैं। साथ ही विहार कालमें पीछे चलने वाले सेवकों तथा अन्य अनेक जीवोंको स्वर्गं मोक्षके दायक हैं । उन तीर्थंकर भगवान को नमस्कार करनेमें उस शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है जो कि कर्मक्षयका साक्षात् कारण है। उस शुक्लध्यानकी प्राप्ति के लिये ही मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २९ ॥ १. भवनवासिनः २० व्यन्तराः १६ कल्पवासिनः २४ चन्द्री सूर्यो ४ इति चतुःषष्ठि ६४ ( क० टि० ) For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.३०] दर्शनप्राभृतम् अथ कानि तानि कर्मक्षयकारणानि शुक्लध्यानहेतव इति प्रश्ने गाथामिमां चकार श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संजमगुणण । चउहि पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो ॥३०॥ ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण संयमगुणेन । चतुर्णामपि समायोगे मोक्षो जिनशासने दृष्टः (दिष्टः ) ॥३०॥ (णाणेण ) ज्ञानेन । (दसणेण य ) दर्शनेन च ( तवेण ) तपसा । ( चरियेण ) चरितेन चारित्रेण । ( संजमगुणेण ) संयमगुणेन एतच्चतुष्टयं संयमगुण उच्यते । (चउहि पि समाजोगे ) चतुर्णामपि समायोगे सति एकत्र सामग्रथाम् ( मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो) मोक्षो जिनशासने दृष्टः कथितः । समस्तेन मोक्षो भवति न तु व्यस्तेन । उक्तञ्च वीरनन्दिशिष्येण पद्मनन्दिना • 'वनशिखिनि मृतोऽन्धः संचरन् वाढमहि-(घ्रि ) द्वितय-विकलमूर्तिर्वीक्षमाणोऽपि खञ्जः। अपि सनयनपादोश्रद्दधानश्च तस्माद् दृगवगमचरित्र: संयुतैरेव सिद्धिः ॥ अब आगे कर्मक्षय के कारण तथा शुक्लध्यान के हेतु क्या क्या है ? यह प्रश्न होने पर श्री कुन्दकुन्दाचार्य निम्नलिखित गाथा लिखते हैं । गाथार्थ-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्तप और सम्यक्चारित्र ये चारों संयमगुण कहलाते हैं। इन चारों के एकत्रित होने पर ही जिनशासन में मोक्ष कहा है ॥३०॥ विशेषार्थ-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन सम्यकतप और सम्यक्चारित्र इन चारों के समायोग से ही जिन-शासन में मोक्ष की प्राप्ति बतलाई गई है। इन चारों के समायोग को संयम गुण कहा जाता है, अतः संक्षेप से संयम गुण के द्वारा मोश्न होता है, ऐसा भी कहा जा सकता है । ज्ञान, दर्शनादि मिलकर ही मोक्ष के मार्ग हैं, भिन्न भिन्न नहीं । जैसा कि श्री वोरनन्दो के शिष्य पद्मनन्दि मुनि ने कहा है बनशिखिनि-अन्धा मनुष्य अच्छी तरह चलता हुआ, दोनों पैरों से रहित लंगड़ा मनुष्य देखता हुआ और 'यह अग्नि है' इस श्रद्धा से रहित मनुष्य नेत्र और पैरों से सहित होता हुआ भी चूँकि दावानल में जल कर १. पपनन्दिपञ्चविंशतिकायाम् । Jain Education Internation For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्रामृते [१. ३१गाणं णरस्स सारो सारो वि गरस्स होइ सम्मत्तं । .. सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं ॥३१॥ ज्ञानं नरस्य सारं सारमपि नरस्य भवति सम्यक्त्वम् । सम्यक्त्वतः चरण चरणतो भवति निर्वाणम् ॥३१॥ . (णाणं णरस्स सारो ) ज्ञानं नरस्य जीवस्य सारः। ( सारोवि णरस्स होइ सम्मत्तं ) सम्यग्ज्ञानादपि जीवस्य सम्यक्त्वं सारतरं भवति । 'तस्मात् ( सम्मत्ताओं चरणं) सम्यक्त्वात् चरणं चारित्र भवति तस्मात् सम्यक्त्वं विना चारित्र मरता है इससे सिद्ध होता है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इन तीनों के मिलने पर ही मोक्ष प्राप्त होता है । [ कार्य की सिद्धि के लिये दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीनों का मिलना आवश्यक है। इनके पृथक् पृथक् रहने पर कार्य को सिद्धि नहीं होती। एक बार वन में तीन मनुष्य पहुंचे-१. अन्धा, २. पंगु और ३ संशयालु । वन में आग लगने पर अन्धा मनुष्य भागने की चेष्टा करता है परन्तु सही सही मार्ग का ज्ञान नहीं होने से भाग नहीं पाता । पंगु मनुष्य यद्यपि सही सही रास्ता देखता है परन्तु दोनों पैरों से रहित होने के कारण भाग नहीं सकता और संशयाल मनुष्य यही निश्चय नहीं कर पाया कि यह आग लग रही है या पलाश-फूल रहे हैं अतः वह भागने को चेष्टा ही नहीं करता। इस तरह तोनों मनुष्य आग में जल कर मर जाते हैं । इस दृष्टान्त से दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीनों की उपयोगिता सिद्ध है। कुन्दकुन्द स्वामी ने दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों के समा. योग को मोक्ष का कारण माना है जब कि तत्त्वार्थ-सूत्रकार उमास्वामी तथा पमनन्दी आदि आचार्यों ने दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीन के समायोग को मोक्ष का कारण माना है। इसमें सिद्धान्तभेद नहीं है क्योंकि तप चारित्र का ही विशिष्ट अङ्ग है, अतः उमास्वामो आदि आचार्यों ने उसे सम्यक्चारित्र में ही अन्तर्निहित कर दिया है। ] ॥३०॥ ____ गाथार्थ-ज्ञान जीव के सारभूत है और ज्ञान को अपेक्षा सम्यक्त्व सारभूत है क्योंकि सम्यक्त्व से ही चारित्र होता है और चारित्र से निर्वाण की प्राप्ति होती है ॥३१॥ १. कस्मात् म०। २. यस्मात् म.। For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.३२] दर्शनप्राभृतम् प्रतिपालयन्नपि पुमानचारित्रो भवति । ( चरणाओ होइ णिव्वाणं ) चरणाच्चारिवान्निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणो मोक्षो भवति । तेन सर्वेभ्यो दर्शनमुत्कृष्टमिति ज्ञातव्यम् ॥३१॥ णाणम्मि दंसणम्मि य तवेण चरिएण सम्मसहिएण। 'चउण्हंवि समाजोगे सिद्धा जीवा ण संदेहो ॥३२॥ ज्ञाने दर्शने च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन । चतुर्णामपि समायोगे सिद्धा जीवा न संदेहः ॥३२॥ ( णाणम्मि ) ज्ञाने सति । ( दंसणम्मि य ) दर्शने च सति ( तवेण ) तपसा कृत्वा । ( चरिएण ) चरितेन चारित्रण कृत्वा । ( सम्मसहिएण) सम्यक्त्वसहितेन । ज्ञानं तपश्चारित्रं च व्यथं सम्यक्त्वं विना । तेन (चरहँपि समाजोगे ) चतुर्णा समायोगे मेलापके सति । (सिद्धा जीवा ण सदेहो) जीवाः सिद्धा मुक्ति गता अत्र सन्देहो नास्ति। विशेषार्थ-गाथा में आये हुए नर शब्द से मनुष्य अर्थ न लेकर जीव सामान्य लिया है । जीवमात्र के जीवन में ज्ञान एक सार-पूर्ण गुण है, उस ज्ञान की अपेक्षा सारपूर्ण गुण सम्यक्त्व है क्योंकि सम्यक्त्व से चारित्र होता है, बिना सम्यक्त्व के चारित्र का पालन करता हुआ भी पुरुष चारित्र से रहित कहा जाता है और चारित्र से समस्त कर्म-क्षयरूप लक्षण से युक्त मोक्ष होता है । इसलिये सम्यग्दर्शन सबसे उत्कृष्ट है, ऐसा जानना चाहिये ॥३१॥ गाथार्थ-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्तप और सम्यक्चारित्र इन चारों के मिलने पर जीव सिद्ध होते हैं इसमें संदेह नहीं है ॥३२॥ . .विशेषार्य-सम्यक्त्व अर्थात् यथार्थता से सहित ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र इन चारों का समायोग-मेल होने पर ही जीव सिद्ध होते हैं मुंक्ति को प्राप्त होते हैं। सम्यक्त्व से रहित ज्ञान दर्शनादि मुक्ति के कारण नहीं हैं और न पृथक् पृथक् ही मुक्ति के कारण हैं किन्तु चारों का मेल होने पर ही मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें सन्देह नहीं है । ऐसा ही . कहा है १. गोपि म०। For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ षट्प्राभृते [ १. ३३ तथा चोक्तं हतं ज्ञानं क्रिया शून्यं हता चाज्ञानिनः क्रिया । धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पङ गुरुः ॥ तथा चार्हता : ज्ञानं पङ्गी क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थंकृद्वयम् । ततो ज्ञान-क्रिया- श्रद्धात्रयं तत्पदकारणम् ।। कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्ध सम्मत्तं । सम्मदंसण रयणं अग्घेदि सुरासुरे लोए ॥३३॥ कल्याणं परम्परया लभन्ते जीवा विशुद्धसम्यक्त्वम् । सम्यग्दर्शन - रत्नं अर्घ्यते सुरासुरे लोके ॥३३॥ ( कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्ध सम्मत्तं ) कल्याणानां गर्भावतार - जन्माभिषेक - निष्क्रमण - ज्ञाननिर्वाणानां परम्परया श्रेण्या सह जीवा भव्यप्राणिनो विशुद्ध-सम्यक्त्वं निरतिचार - सम्यक्त्वं प्राप्नुवन्ति । यदैव जीवः सदृष्टिर्भवति हतं ज्ञानं -- क्रिया अर्थात् चारित्र से शून्य ज्ञान नष्ट है और अकार्यकारी है और ज्ञान- शून्य मनुष्य की क्रिया नष्ट है --अकार्य-कारी है, अन्धा मनुष्य दौड़ता हुआ भी नष्ट होता है और लंगड़ा मनुष्य देखता हुआ भी अग्नि में नष्ट हो जाता है । ऐसा ही आर्हत- जैन कहते हैं- ज्ञानं पङ्गौ--लंगड़े मनुष्य का ज्ञान, अन्धे मनुष्य की क्रिया और श्रद्धा हीन मनुष्य की दोनों ही वस्तुएं कार्यकारी नहीं हैं । इसलिये क्रिया, ज्ञान और श्रद्धा इन तीनों की एकता ही मोक्षपद का कारण है ||३२|| गाथार्थ - भव्य जोव कल्याणों के समूह के साथ निर्दोष सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं । देवदानवों के भुवन में सम्यग्दर्शन रूप रत्न सबके द्वारा पूजा जाता है ||३३|| भी प्राप्त होते हैं । विशेषार्थ -- गर्भावतार, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक हैं । भव्य जीव निरतिचार सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं, और उसके साथ ही गर्भावतार आदि पाँच कल्याणकों को उक्त कल्याणक तीर्थंकर परम देव के होते हैं । तात्पर्य यह है कि जब तभी तीर्थंकर परमदेव होते हैं। तीर्थंकर बनने होना अत्यन्त आवश्यक है । देव और दानवों जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं के लिये दर्शन - विशुद्धि का For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. ३४] दर्शनप्राभृतम् ५३ तदैव तीर्थकर-परमदेवो भवतीति भावः । ( सम्मइंसण रयणं ) सम्यग्दर्शन-रत्नं (अग्धेदि सुरासुरे लोए ) अर्घ्यते पूज्यते बहुमूल्यं भवति देवदानवभुवने। एतद् रत्नमूल्यं कोऽपि कर्तुं न शक्नोति करोति चेन्मूल्यं तदा सद्यः कुष्ठी मुखे भवेत् ॥३३॥ ठूण य मणुयत्तं सहियं तह उत्तमेण गुत्तेण । लभ्रूण य सम्मत्तं अक्खय सुक्खं च मोक्खं च ॥३४॥ दृष्ट्वा च मनुजत्वं सहितं तथा उत्तमेन गोत्रेण । लब्ध्वा च सम्यक्त्वं अक्षयसुखं च मोक्षं च ॥३४॥ (ठूण य ) दृष्ट्वा च ज्ञात्वा । किं ? । मणुयत्त) मनुजत्वं मनुष्य-जन्म अनेकदृष्टान्तै दुर्लभं विचार्य महासमुद्रे-करच्युत-रत्नमिव । ( सहिअं तह उत्तमेण गुत्तण ) उत्तमेन गोत्रेण कुलेन सहितं संयुक्तं । ( लद्ध ण य सम्मत्तं ) सम्यक्त्वं घ लब्वा। ( अक्खय सुक्खं च मोक्खं च ) एतत्सामग्रयं प्राप्य अक्षयसौख्यं निज-शुद्ध-बुद्ध परमात्म-श्रद्धान-ज्ञानानुचरणस्वभावोत्थं परमानन्दलक्षणं सुखं भवति, न केवलमक्षयसुखं भवति मोक्षं च द्रव्यकर्मनोकर्मरहितं ऊर्ध्वगमनलक्षणं परमनिर्वाणं च चकास्ति ॥ ३४ ॥ से युक्त इस संसार में सम्यग्दर्शन, सबके द्वारा पूजा जाता है । इस रत्न का मूल्य कोई भी करने को समर्थ नहीं है। यदि उसका कोई मूल्य करता भी है तो वह मुहमें शीघ्र ही कुष्ठो हो जाता है। अर्थात् अपने उपदेश के द्वारा जो सम्यग्दर्शन के महत्व को कम करता है उसके मुख में कुष्ठ होता है ॥३३॥ गाथार्य-जो उत्तम गोत्र से सहित मनुष्य जन्मको अत्यन्त दुर्लभ विचार कर सम्यक्त्व को प्राप्त होता है वह अविनाशी सुख तथा मोक्षको प्राप्त होता है ॥३४॥ · विशेषार्थ-जिस प्रकार हाथसे छट कर महा समद्रमें गिरा हा रत्न पाना अत्यन्त दुर्लभ हो जाता है उसी प्रकार उत्तम गोत्रसे युक्त मनुष्य जन्मका पाना अत्यन्त दुर्लभ है। इस तरह अनेक दृष्टान्तोंके द्वारा मनुष्य जन्मको दुर्लभताका विचार करके जो सम्यक्त्व-सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है वह निज शुद्ध बुद्ध अर्थात् सर्वज्ञ वीतराग स्वभावसे युक्त परमात्माके श्रद्धान ज्ञान और चारित्र स्वभावसे उत्पन्न परमानन्द--लक्षण सुखको प्राप्त होता है । न केवल अविनाशी सुखको प्राप्त होता है किन्तु द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकमसे रहित ऊर्ध्वगमन लक्षणसे युक्त निर्वाणको भी प्राप्त होता है ।। ३४ ॥ For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभृते [१. ३५विहरदि जाव जिणिंदो सहसदृसुलक्खहि संजुत्तो। चउतीस अइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिया ॥३५॥ विहरति यावज्जिनेन्द्रः सहस्राष्टसुलक्षणैः संयुक्तः। चतुस्त्रिशदतिशययुतः सा प्रतिमा स्थावरा भणिता ।।३५॥ ( विहरदि जाव जिणिदो ) विहरति पर्यटति आर्यखण्डे यावत्सम्बोधनं करोति जिनेन्द्रस्तीर्थकर-परमदेवः । स कथंभूतः ( सहसट्ठसुलक्खणेहिं संजुत्तो) अष्टाधिक-सहस्रलक्षणः संयुक्तः । ( चउतीस अइसयजुदो) चतुस्त्रिशदतिशययुतः ( सा पडिमा थावरा भणिया ) सा प्रतियातना प्रतिविम्बं प्रतिकृतिः स्थावरा भणिता। इह मध्यलोके स्थितत्वात् स्थावरप्रतिमेत्युच्यते । मोक्षगमनकाले एकस्मिन् समये जिन-प्रतिमा जङ्गमा कथ्यते । व्यवहारेण तु चन्दन कनक-महामणिस्फटिकादि-घटिता प्रतिमा स्थावरा । समवसरण-मण्डिता जङ्गमा जिनप्रतिमा प्रतिपाद्यते। अथ कानि तानि जिन लक्षणानि अष्टाधिकसहस्रसंख्यानीति चेदुच्यन्ते गाथा-एक हजार आठ शुभ लक्षणोंसे युक्त तथा चौंतीस अतिशयों से सहित तीर्थकर भगवान् जब तक यहां विहार करते हैं तब तक उनको स्थावर प्रतिमा कहा गया है ॥ ३५ ॥ विशेषार्थ-तीर्थंकर परम देव श्रीवृक्ष आदि १०८ लक्षणों और तिल मसा आदि नौ सौ व्यञ्जनों से सहित होते हैं तथा दश जन्मके, दश केवलज्ञान के और चौदह देवकृत इस तरह चौंतीस अतिशयों से सहित होते हैं । इन सब से युक्त तीर्थकर जिनेन्द्र जब तक आर्यखण्ड में भव्यजीवों को संबोधते हुए विहार करते रहते हैं जब तक उन्हें स्थावर प्रतिमा कहा जाता है और जब वे समस्त कर्मोंका क्षय करके एक समय में सिद्धशिला की ओर अग्रसर होते हैं तब उन्हें जङ्गम प्रतिमा कहते हैं । प्रतिमा, प्रतियातना, प्रतिबिम्ब और प्रतिकृति ये सब प्रतिमाओं के नाम हैं । व्यव. हार की अपेक्षा चन्दन, सुवर्ण, महामणि तथा स्फटिक आदि से निर्मित प्रतिमा स्थावर प्रतिमा कहलाती है और समवसरण में सुशोभित विहार करने वाली जिन-प्रतिमा-तीर्थकर परमदेव का शरीर जङ्गम प्रतिमा कही जाती है। अब तीर्थकर के शरीर में पाये जाने वाले एक हजार आठ लक्षण कोन कोन हैं यह प्रकट करते हैं-श्रीवृक्ष, हाथ और पैरोंमें शब, कमल, For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. ३५ ] दर्शनप्राभृतम् ५५ 'श्रीवृक्षः । करचरणेषु शङ्खः। अम्भोजम् । स्वस्तिक । अङ्कुशः । तोरणं । चामरं । श्वेतातपत्रं । सिंहासनं । ध्वजः । मत्स्यौ । कुम्भौ । कच्छपः । चक्रं 1 समुद्रः । सरोवरं । विमानं । भवनं । गजः । नरनायौं । सिंहः । वाणवनुषी । मेरुः । इन्द्रः । पर्वतः । नदी । पुरं । गोपुरं । चन्द्रः । सूर्यः । जात्यश्वः । व्यजनं । वेणुः । वीणा । मृदङ्गः । पुष्पमाले द्वे । पट्टकूलं । हट्ट: । कुण्डलादि षोडशाभरणानि । स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चामर, सफेदछत्र, सिंहासन, ध्वज, दो मच्छ, दो कलश, कछुआ, चक्र, समुद्र, सरोवर, विमान, भवन, हाथी, स्त्री पुरुष, सिंह, धनुषवाण, मेरु, इन्द्र, पर्वत, नदी, पुर, गोपुर, चन्द्र, सूर्य उत्तम घोड़ा, व्यजन, बाँसुरी, वीणा, मृदङ्ग, दो पुष्पमालाएँ, रेशमोवस्त्र, बाजार, कुण्डल आदि सोलह आभूषण, फलोंसे युक्त उपवन, अच्छी तरह पका हुआ धानका खेत, रत्नद्वीप, वज्र, पृथिवी, लक्ष्मी, सरस्वती, कामधेनु, बैल, चूडामणि, महानिधि, कल्पबेल, सुवर्ण, जम्बूवृक्ष, गरुड, नक्षत्र, १. विभुः कल्पतरुच्छायां बभाराभरणोज्ज्वलः । ॥ ३७ ॥ शुभानि लक्षणान्यस्मिन् कुसुमानीव रेजिरे ॥ ३६ ॥ तानि श्री - वृक्षशङ्खाब्जस्वस्तिकांकुशतोरणम् । प्रकीर्णकसितच्छत्रसिंहविष्टरकेतनम शषौ कुम्भौ च कूर्मश्च चक्रमब्धिः सरोवरम् । विमानभवने नागौ नरनार्यों मृगाधिपः ॥ ३८ ॥ वाणवाणासने मेरुः सुरराट् सुरनिम्नगा । पुरं गोपुरमिन्द्वर्को जात्यश्वस्तालवृन्तकम् ।। ३९ ।। वेणुर्वीणा मृदङ्गश्च स्रजौ पट्टांशुकापणी । स्फुरन्तिकुण्डलादीनि विचित्राभरणानि च ॥ ४० ॥ उद्यानं फलितं क्षेत्रं सुपक्वकलमाञ्चितम् । रत्नद्वीपश्च वज्र ं च मही लक्ष्मीः सरस्वती ॥ ४१ ॥ सुरभि: सौरभेयश्च चूडारत्नं महानिधिः । कल्पवल्ली हिरण्यं च जम्बूवृक्षश्च पक्षिराट् ॥ ४२ ॥ उडूनि तारकाः सोघं ग्रहाः सिद्धार्थपादपः । प्रातिहार्याण्यहार्याणि मङ्गलान्यपराणि च ॥ ४३ ॥ लक्षणान्येवमादीनि विभोरष्टोत्तरं शतम् । व्यञ्जनान्यपराण्यासन् शतानि नव संख्यया ॥ ४४ ॥ For Personal & Private Use Only मादिपुराण पर्व १५ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभृते - [१.३५फलिनमुद्यानं । सुपक्वकलमक्षेत्रं । रत्नद्वीपः । वज्र । मही । लक्ष्मीः । सरस्वती । सुरभिः । वृषभः । चूडारत्नं । महानिधिः । कल्पवल्ली। हिरण्यं । जम्बूवृक्षः । गरुडः । नक्षत्राणि । तारकाः । राजसदनं ग्रहाः । सिद्धार्थपादपः । अष्टप्रातिहार्याणि । अष्ट मङ्गलानि । एवमादीनि अष्टोत्तरशतं लक्षणानि । तिलक मसकादीनि नवशतव्यञ्जनानि तान्यपि लक्षणशब्देनोच्यन्ते । अथ के ते चतुस्त्रिशदतिशयाः ? निःस्वेदता, निर्मलता, क्षीरगौररुधिरता, समचतुरस्रसंस्थानं, वज्रवृषभनाराचसंहननं, सुरूपता, सुगन्धता; सुलक्षणता, . अनन्तवीर्य, प्रियहित-वादित्वम्, इत्येते दशातिशया जन्मन आरभ्य भवन्ति, तथा पातिकर्म-क्षयजा दशातिशयाः सन्ति, ते के ? गुव्यूतिशतचतुष्टय-सुभिक्षता, गगनगमनं, प्राणिवधाभाव, भुक्तेरभावः उपसर्गाभावः, चतुर्मुखत्वम् , सर्वविद्या प्रभुत्वम्, प्रतिबिम्ब-रहितत्वम्, लोचनपक्ष्मनिःस्पन्दः, नखकेशानामवृद्धिः, इति घातिकर्मक्षयजा दशातिशयाः, देवोपनीताश्चतुर्दशातिशयाः, तथाहि-सर्वार्धमागधीका भाषा, कोऽयमर्थः ? अर्द्ध भगवद्भाषा 'मगधदेशभाषात्मकं अर्द्ध च सर्वभाषात्मकं, कथमेवं तारका, राजभवन, ग्रह, सिद्धार्थवृक्ष, अष्ट प्रातिहार्य तथा अष्ट मङ्गल द्रव्य इन्हें आदि लेकर एकसौ आठ लक्षण होते हैं और तिल, मसा आदि नौसी व्यञ्जन होते हैं। ये सब मिलकर एक हजार आठ लक्षण कहलाते हैं। अब चौंतीस अतिशय कहते हैंपसीना नहीं आना, मलमूत्र रहित शरीर का होना, दूधके समान सफेद रुधिर, समचतुरस्रसस्थान, वज्रषभनाराचसंहनन, सुन्दररूप, सुगन्धता, उत्तम लक्षणों युक्तपना, अनन्त वीर्य और प्रिय तथा हितकारी वचन बोलना ये दश अतिशय जन्म से ही होते हैं। इनके सिवाय घाति कर्मोके क्षयसे होनेवाले निम्नलिखित दश अतिशय और होते हैं चारसौकोश तक सुभिक्ष रहना, आकाश में गमन होना, प्राणिवधका अभाव होना, कवलाहार का अभाव, उपसर्ग का न होना, चारों दिशाओंमें मुख दिखना, सब विद्याओं का स्वामीपना, छायाका नहीं पड़ना, नेत्रोंके पलक नहीं लगना, और नख तथा केशोंका नहीं बढ़ना; ये केवलज्ञान के दश अतिशय हैं । अब देवोपनीत चौदह अतिशय कहते हैं सर्वार्थमागधी भाषाका होना। इसका अभिप्राय यह है कि दिव्यध्वनिमें अर्ध भाग तो भगवान् को भाषा है जो मगध देशकी भाषा स्वरूप १. भमकामाक्या म०। For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. ३५] दर्शनप्राभृतम् देवोपनीतत्वमिति चेत् ? मगधदेवसन्निधाने तथा परिणामतया भाषया संस्कृतभाषया प्रवर्तते ॥१॥ मैत्री च सर्वजनता-विषया सर्वे जनसमूहाः मागधप्रीतिकरदेवातिशयवशात् मागध-भाषया भाषन्ते परस्पर मित्रतया च वर्तन्ते इति द्वावतिशयो ॥२॥ सर्वनां फलस्तवकाः, सर्वप्नां पल्लवाः, सर्वनां पुष्पाणि सर्वादीना भवन्ति ॥३॥ आदर्शसदृशी रत्नमयी भूमिर्भवति, वायुः पृष्ठत आगच्छति ॥५॥ सर्वलोकस्य परमानन्दो भवति ॥६॥ अग्रेऽग्रे योजनमेकं 'सुगन्धगन्धवहा भूमिभागं प्रमार्जन्ति धूलिकण्टकखटकीटक कर्कर पाषाणादिकं च दूरीकुर्वन्ति ॥७॥ तद्भूम्युपरि मेधकुमारा गन्धोदकं वर्षन्ति ॥८॥ सुवर्णपत्रपद्मरागमणिकेसर-विराजितं योजनमेकं कमलं तादृशचतुर्दशकमलवेष्टितं स्वामिनः पादाधो भवति तादृशानि पद्मानि सप्ताग्रे भवन्ति सप्त पृष्ठतश्च भवन्ति ॥९॥ अष्टादश धान्यानि भूमी निष्पद्यन्ते ॥१०॥ दिश आकाशश्च रजोधूमिकादिग्दाहादिरहिता भवन्ति ॥११॥ होता है और आधा भाग समस्त भाषाओंका रहता है इसलिये उनको भाषाको सर्वार्थमागधी भाषा कहते हैं। भाषामें वह उक्त प्रकारका परिणमन मागधदेवोंके सन्निधानमें होता है इसलिये उसमें देवोपनीतपना बन जाता है । दूसरा अतिशय सब जनतामें मैत्रीभाव का होना है मागधदेवोंके अतिशय के कारण सब लोग परस्पर मागध भाषासे बोलते हैं और प्रीतिकर देवोंके अतिशय से सब लोग परस्परमें मित्रता से रहते हैं। इस . तरह दोनों अतिशय देवकृत अतिशय सिद्ध हैं। सब ऋतुओंके फल और फूलोंके गुच्छे प्रकट होना यह तीसरा देवकृत अतिशय है इसमें वृक्ष आदि वनस्पतियोंके सब ऋतुओंके पल्लव और सब ऋतुओंके पुष्प आदि प्रगट होते हैं । चतुर्थ अतिशयमें पृथिवी दर्पणके समान रत्नमयी हो जाती है । पांचवें अतिशयमें वायु पीठकी ओरसे बहतो है। छठवें अतिशयमें सब लोगों को परम आनन्द होता है । सातवें अतिशय में सुगन्धित वायु आगे आगे एक योजन तकको भूमिको साफ करती रहती है अर्थात् धूलो कंटक . आदिको दूर करती रहती है। आठवें अतिशय में उस साफकी हुई भूमिपर मेघकुमार देव गन्धोदक-सुगन्धित जलको वर्षा करते हैं । नौवें अतिशय में सुवर्णकी कलिकाओं और पद्मरागमणिमय केसरसे सुशोभित एक योजन विस्तार वाला कमल ऐसे हो चौदह कमलोंके साथ भगवान्के पैरके नोचे होता है अर्थात् एक कमल भगवान्के पैरके नीचे और सात सात कमल . आगे पीछे होते हैं। सात सात कमलों की ३२ पक्तियां होती हैं। तथा १. सुगन्धगन्धा वहा म०। For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ १. ३६ ज्योतिर्देवा व्यन्तरदेवा भवनवासिनश्च देवाः सौधर्मेन्द्राज्ञया सर्वेषां देवादीनां समाह्वानं कुर्वन्ति ||१२|| अग्रेऽग्रे धर्मचक्रं गगने गच्छति चक्रवतिचक्रवत् ॥१३॥ चतुर्दशोऽतिशयोऽष्टमङ्गलानि ॥ १४ ॥ भृङ्गारः - सुवर्णलुका, तालो - मञ्जीरः, कलश: कनककुम्भः, ध्वजः पताका । सुप्रीतिका - विचित्रचित्रमयी पूजाद्रव्यस्थापनार्हा स्तम्भाधारकुम्भी, श्वेतच्छत्रं, दर्पणः, चामरं च एतानि प्रत्येकमष्टोत्तर - शतसंख्यानि । एवं चतुर्दशातिशया देवोपनीताः, अष्ट प्रातिहार्याणि च भवन्ति ५८ अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिदिव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ वारसविहतवजुत्ता कम्मं खविऊण विहिबलेण स्सं । वोसट्टचत्तदेहा णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता ॥ ३६ ॥ द्वादशविध तपोयुक्ताः कर्म क्षपयित्वा विधिबलेन स्वीयम् । व्युत्सर्गं त्यक्त - देहा निर्वाणमनुत्तरं प्राप्ताः ॥ ३६ ॥ · बीच का एक कमल । इस प्रकार ३२४७ + १- २२५ कमल कुल होते हैं । दशवें अतिशयमें पृथिवी पर अठारह प्रकारके अनाज उत्पन्न होते हैं । ग्यारहवें अतिशयमें दिशाएँ और आकाश धूली, धूमिका तथा दिग्दाह आदि दोषोंसे रहित होते हैं । बारहवें अतिशय में ज्योतिष्क, व्यन्तर तथा भवनवासी देव सौधर्मेन्द्रकी आज्ञासे सब देवोंका आह्वान करते हैं । तेरहवें अतिशय में चक्रवर्तीके सुदर्शन चक्रके समान भगवान्के आगे आकाशमें धर्मचक्र चलता है और चौदहवें अतिशय मैं अष्ट मङ्गलद्रव्य दृष्टिगोचर होते हैं। सुवर्णं-मय झारी, तालपत्र, सुवर्ण कलश, पताका, सुप्रीतिका ठौना, सफेद छत्र, दर्पण और चमर ये आठ मङ्गल द्रव्य हैं प्रत्येक मङ्गल द्रव्य एकसौ आठ एक सौ आठ रहते हैं । इस प्रकार चौदह अतिशय देवोपनीत हैं । अब आठ प्रतिहार्यं कहते हैं अशोक वृक्ष - अशोक वृक्ष, देवकृत पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन, भामण्डल, दुन्दुभि और छत्रत्रय ये जिनेन्द्र देवके आठ प्रतिहार्य हैं ॥३५॥ गाथार्थ - बारह प्रकारके तपसे युक्त मुनि चारित्र के बलसे अपने कर्मोंका क्षय करके पद्मासन और कायोत्सर्गं इन दो प्रकारके व्युत्सर्गौसे शरीरका त्याग करते हुए सर्वोत्कृष्ट निर्वाणको प्राप्त हुए हैं ॥ ३६॥ For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१. ३६] दर्शनप्राभृतम् ( वारस विह तवजुत्ता ) द्वादश-विधतपो-युक्ता मुनयः । ( कम्मं खविऊण) कर्माष्टविघं क्षपयित्वा। ( वोसट्टचत्तदेहा ) पद्मासनकायोत्सर्गलक्षण-द्विविधव्युत्सर्गेण त्यक्तशरीरा मुनयः । ( णिव्वाणमणुत्तरं पत्ता ) निर्वाणं मोक्षमनुत्तरं सर्ववर्गम्य उत्तम प्राप्ता गताः सिद्धा इत्यर्थः । सम्यक्त्व-माहात्म्यमेतज्ज्ञातव्यमिति सिद्धम् । इति श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य वक्रग्रीवाचार्यलाचार्य गृद्धपिच्छाचार्य नाम पञ्चक-विराजितेन सीमन्धर स्वामिज्ञान-सम्बोधितभव्यजनेन श्री जिनचन्द्र सूरि भट्टारकपट्टाभरणभूतेनं कलिकाल सर्वज्ञेन विरचिते षट् प्राभृतग्रन्थे सर्वमुनिमण्डली मण्डितेन कलिकाल-गौतम स्वामिना श्री मल्लिभूषणेन भट्टारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जन-समाज-सम्मानितेनोभय-भाषा-कविचक्रवतिना श्री विद्यानन्दि गुर्वन्तेवासिना सूरिवर श्री श्रुतसागरेण विरचिता दर्शनप्राभृत टीका सम्पूर्णा । विशेषार्थ-अनशन, ऊनोदर, वृत्ति-परिसंख्या, रस-परित्याग, विविक्त शय्यांसन और काय-क्लेश इन छह बाह्य तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान इन छह अन्तरंगके भेदसे बारह प्रकारके तपों से युक्त मुनि, परम यथाख्यातचारित्र बलसे अपने कर्मोका क्षय करके पद्मासन या खड़े आसनसे शरीरका त्याग करते हुए सब वर्गासे उत्तम निर्वाण को प्राप्त हुए हैं। यह सब सम्यग्दर्शनका माहात्म्य जानना चाहिये ॥३६॥ ___ इस प्रकार श्री पद्मनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य इन पांच नामोंसे सुशोभित, सोमन्धर स्वामोके ज्ञानसे भव्य जीवोंको सम्बोधित करने वाले, श्री जिनचन्द्र सूरिभट्टारकके पट्टके आभरण स्वरूप, कलिकाल सर्वज्ञ कुन्दकुन्दाचार्यके द्वारा विरचित षट् पाहुडग्रन्थ में समस्त मुनियोंके समूहसे सुशोभित, कलिकाल के गौतम स्वामी श्री मल्लिभूषण भट्टारकके द्वारा अनुमत, सकल विद्वत्समाज के द्वारा सन्मानित, उभय भाषा सम्बन्धी कवियोंके चक्रवर्ती, श्री विद्यानन्द गुरुके शिष्य सूरिवर श्री श्रुतसागरके द्वारा रचित दर्शन पाहुड़की टीका सम्पूर्ण हुई। For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र प्राभृतम् चारित्र प्राभृत के प्रारम्भ में संस्कृत टीकाकार श्री श्रुतसागर सूरि मङ्गलाचरण करते हुए प्रतिज्ञा वाक्य कहते हैं सर्वार्थ-सिद्धिप्रदमहंदीशं विद्यादिनन्दं वृषसस्यकन्दम् । मन्दोऽपि नत्वा विवृणोमि भक्त्या चारित्रसारं शृणुतार्यमुख्याः ॥ सव्वण्हू सव्वदंसी णिम्मोहा वीयराय परमेट्ठी। ... वंदित्तु तिजगवंदा अरहंता भव्वजीवेहिं ॥१॥ गाणं दंसण सम्मं चारित्तं सोहि कारणं तेसिं । मुक्खाराहण-हेउं चारित्तं पाहुडं वोच्छे ॥२॥ सर्वज्ञान् सर्वदर्शिनः निर्मोहान् वीतरागान् परमेष्ठिनः । वन्दित्वा त्रिगद्वन्दितान् अर्हतः भव्यजीवैः ।। १॥ ज्ञानं दर्शनं सम्यक्चारित्रं शुद्धिकारणं तेषाम् । मोक्षाराधन-हेतु चारित्र प्राभते वक्ष्ये ॥ २ ॥ ( सव्वण्हू ) सर्वज्ञान् । ( वंदित्त ) वन्दित्वा । ( चारित्त पाहुडं बोच्छे) चारित्रं नाम प्राभृतं चारित्रप्राभृतं चारित्रसारं नाम ग्रन्थं वक्ष्ये । कः कर्ता ? अहं टीकाकारका मंगलाचरण अर्थ-हे आर्यजनों में प्रमुख पुरुष हो ! यद्यपि में मन्दबुद्धि हूँ तथापि समस्त प्रयोजनोंकी सिद्धिके दाता अर्हन्त भगवान् को तथा धर्मरूपो धान्यकी उत्पत्तिके मूल कारण विद्यानन्द गुरुको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके चरित्रमार-चारित्रप्राभृत ग्रन्थ को टोका लिखता हूँ सो श्रवण करो। अब श्री कुन्दकुन्दाचार्य ग्रन्थके प्रारम्भमें मङ्गलाचरण करते हुए प्रतिज्ञावाक्य लिखते हैं गाथार्थ-सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, निर्मोह वीतराग, परम-पदमें स्थित, तीनों जगत के द्वारा वन्दित एवं भव्य जीवोंके द्वारा वन्दनीय अरहन्त भगवान को तथा उनकी विशुद्धताके कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको नमस्कार करके मोक्ष प्राप्ति के कारणभूत चारित्र-पाहुडको कहता हूँ॥ १.२॥ For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. १-२] चारित्रप्राभृतम् कुन्दकुन्दाचार्यः । कथंभूतान् ? सर्वज्ञान् । ( सम्वदंसो ) सर्वदर्शिनो लोकालोकावलोकनशीलान्, अपरं किंविशिष्टान् ? सर्वज्ञान् । ( णिम्मोहा ) निर्मोहान् मोहनीय-कर्म-रहितान् । भूयोऽपि किंरूपान् ? ( वीयराय ) वीतरागान् वीतः क्षयं गतो रागो येषां ते वीतरागास्तान् । 'अज क्षेपणे' इति ताबद्धातु 'अजेर्वीः' इति सूत्रण वीयादेशः । निष्ठाक्त प्रत्यये वीत इति निष्पद्य ते । वीयराय इत्यत्र शस लोपः । भूयोऽपि कि विशेषणाञ्चितान् ? (परमेट्ठी ) परमेष्ठिनः । कोऽर्थः ? परमे इन्द्र चन्द्रनरेन्द्र-पूजिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठीति व्युत्पत्तेः समवसरणसम्पत्प्रमण्डितानित्यर्थः । अपरं कथंभूतान् सर्वज्ञान् ? ( तिजगवंदा ) त्रिजगद्वन्दितान् त्रिभुवनस्थितभव्यजनपूजितानित्यर्थः । पुनरपि कथंभूतान् ( अरहंता ) [अ] अरिर्मोहः, रकारेण रजो लभ्यते तत्तु ज्ञानावरण-दर्शनावरण-कर्मद्वयं लभ्यते तथा तेनैव प्रकारेण रहस्यमन्तरायः कथ्यते तेन घाति-कर्म-चतुष्टय-हननादिन्द्रादि विशेषार्थ-जो समस्त द्रव्यों और उनकी कालत्रयवर्ती समस्त पर्यायोंको एक साथ विशेषरूप से जानते हैं उन्हें सर्वज्ञ कहते हैं। जो समस्त लोक और अलोक को सामान्य रूपसे जानते हैं उन्हें सर्व-दर्शी कहते हैं। जो मोहनीय कम से रहित हैं उन्हें निर्मोह कहते हैं। जिनके राग द्वेष आदि दोष नष्ट हो गये हैं वे वोतराग कहलाते हैं। 'अज धातु का क्षेपण-नष्ट करना अर्थ होता है, निष्ठा-संज्ञक 'क्त' प्रत्यय होने पर अज धातुके स्थान में 'अजेर्वीः' इस सूत्रसे वी आदेश हो जाता है, इस तरह जिनके राग द्वेष आदि विकार नष्ट हो गये हैं वे वीतराग कहलाते हैं। जो इन्द्र चन्द्र नरेन्द्र आदिके द्वारा पूजित परम पदमें स्थित हैं उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। जो तीनों लोकोंके द्वारा वन्दनीय हैं उन्हें त्रिजगद्वन्दित कहते हैं । जिनके सम्यग्दर्शनादि गुण प्रगट होने की योग्यता है उन्हें भव्य कहते हैं । अरहन्त भगवान सर्वज्ञ आदि विशेषणोंसे विशिष्ट हैं। अरहंत शब्द का अर्थ लगाते हुए संस्कृत टोकाकारने 'अ' से अरि अर्थात् मोहनीय कर्मको लिया और 'र' से रज तथा रहस्य का ग्रहण किया है । रजका अर्थ ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म है और रहस्य से अन्तरायका बोध होता है, इस प्रकार अर अर्थात् चार घातिया कर्मोका जिन्होंने घात किया है वे अरहंत कहलाते हैं । अथवा प्राकृतका अरहन्त शब्द संस्कृतको 'अर्ह' धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ पूजाके १. विशेषेण इता गता नष्टा रागा यस्य स वीतरागः । वीत शब्दः 'वि' उपसर्य पूर्वक 'इण मतौ' धातुतः निष्ठा प्रत्यये सत्यपि सिध्यति।। For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “६२ षट्प्राभृते [२. ३कृतामनन्यसम्भविनीमहणां पूजामहन्तीत्यहन्तस्तानहतः । तया ( भन्यजीवहिं ) भव्यजीवैर्वन्द्या इति सम्बन्धः । ( णाणं दंसणं सम्म चारित्त सोहिकारणं तेंसि ) तेषां सर्वज्ञानां घाति-संघातघातनलक्षणायाः शुद्धः कारणं हेतु नं दर्शनं सम्यक्चारित्रं च कारणं । सम्मं इति शब्द एकत्र गृहीतोऽपि त्रिभिर्योज्यः तेनायमर्थः . सम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शनं सम्यक्चारित्रं च सर्वेषामपि कर्मणां क्षयकारणं मूलादुन्मूलनस्य हेतुरिति भावः । तेन ( मुक्खाराहण हेउं ) तेन कारणेन मोक्षाराधनाहेतु कारणं । किम् ? ( चारित्त) चारित्र । पाहुडं प्राभृतं सारभूतं शास्त्रमहं वक्ष्ये इति क्रिया कारकसम्बन्धः । जुगलं एतद्गाथाद्वयं युगलं युग्मं वर्तते ।। १-२॥ एए तिण्णि वि भावा हवंति जीवस्स अक्खयामेया। . तिण्हं पि सोहणत्थे जिणभणियं दुविह चारितं ॥ ३॥ एते त्रयोऽपि भावा भवन्ति जीवस्य अक्षया अमेयाः।। त्रयाणामपि शोधनार्थं जिनणितं द्विविधं चारित्रम् ॥ ३॥ . ( एए तिणि वि भावा ) एते त्रयोऽपि भावा ज्ञान-दर्शन चारित्र-पदास्त्रियः परिणामाः । ( हवंति जीवस्स ) जीवस्यात्मनः सम्बन्धिनो भवन्ति न तु पुद्गल योग्य होता है। इस तरह चार घातिया कर्मों के नष्ट होनेसे जो अन्य पुरुषों में न पाई जाने वाली अर्हणा-पूजाको प्राप्त हैं वे अरहन्त (अर्हत्) कहलाते हैं। कितनी ही जगह 'अरहंत' के स्थान पर 'अरिहंत' पाठ भी. बोला जाता है जिसका सीधा अर्थ कर्म रूप शत्रुओं का घात करने वाला होता है । अरहन्त भगवान्की इस विशुद्धता का कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है अर्थात् इनके प्रभाव से उनके घातिचतुष्क नष्ट होते हैं । चारित्र-पाहुडके प्रारम्भमें कुन्दकुन्द स्वामी अरहन्त परमेष्ठो तथा उक्त रत्नत्रयको नमस्कार कर मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख कारण जो सम्यक्चारित्र है, उसका निरूपण करने वाले भाव पाहुड ग्रन्थ को कहने की प्रतिज्ञा करते हैं ॥ १-२॥ __गाथार्थ-ये तीनों भाव जोवके अविनाशी और अपरिमेय भाव हैं। इन तीनों भावों को शुद्धिके लिये जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ दो प्रकारका चारित्र है ॥ ३॥ विशेषार्थ-ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीनों भाव जीव अर्थात् आत्मा के परिणाम हैं, पुद्गलके नहीं हैं । ये तीनों भाव अक्षय-अविनश्वर और अमेय-अमर्यादित-अनन्तानन्त हैं। यदि यहाँ कोई कहे किशानमें अनन्तपना तो ठीक है क्योंकि वह लोक और अलोकमें व्याप्त है परन्तु For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२.४] चारित्रप्राभृतम् स्येति भावः । कथंभूतास्त्रयोऽपि भावाः ? ( अक्सयामेया ) अक्षया अविनश्वराः अमेया अमर्यादीभूता अनन्तानन्ता इत्यर्थः । ज्ञानस्य तावदानन्त्यं भवत्येव लोकालोकव्यापकत्वात् । सम्यक्त्वचारित्रयोः कथमनन्तत्वं नियतात्मप्रदेश-स्थितत्वादिति चेन्न तयोरपि तत्सहचारित्वात् । यावन्मात्र ज्ञानं तावन्मात्रं सम्यग्दर्शनं सम्यक्चारित्रं च तेषामेकीभावनिश्चयात् ( तिण्हं पि सोहणत्थे ) त्रयाणामपि सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्राणां शोधनार्थे शोधननिमित्त । (जिणभणियं दुविह चारित्त) जिनैणितं प्रदिपादितं द्विविधं चारित्रं दर्शनाचार-चारित्राचार लक्षणं तद् वक्ष्यते ॥३॥ जं जाणइ तं गाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं । णाणस्स पिच्छियस्य य समवण्णा होइ चारित्तं ॥४॥ यद् जानाति तद् ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं भणितम् । ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् भवति चारित्रम् ॥ ४ ॥ (जं जाणइ तं गाणं) यज्जानाति तज्ज्ञानं । (जं पिच्छइ तंच दंसणं भणिय ) यत्पश्यति तच्च दर्शनं भणितं । "कृत्ययुटोऽन्यत्रापि च" इति सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र में अनन्तपना किस प्रकार हो सकता है ? क्योंकि वे नियत आत्म-प्रदेशों में हो स्थित रहते हैं ? तो उसका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र भी ज्ञान के ही सहचारी हैं। जितना विस्तृत ज्ञान है उतने ही विस्तृत सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र हैं, इस तरह उनमें एकीभावका निश्चय है अर्थात् तीनों एक रूप हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को शुद्धिका निमित्त जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहा हुआ दर्शनाचार और चारित्राचार यह दो प्रकार का चारित्र है। . (यहां जो ज्ञानको लोकमलोक-व्यापी कहा है उसका तात्पर्य इतना है कि ज्ञान लोक तथा अलोकके पदार्थोंको जानता है। प्रदेशों की अपेक्षा . शान आत्म-द्रव्यके विस्तार के बराबर है, आत्माको छोड़कर वह लोक अलोकमें व्याप्त नहीं हो सकता।) ___गाथार्थ-जो जानता है वह ज्ञान है और जो प्रतीति करता है वह दर्शन कहा गया है । इन दोनोंके संयोगसे सम्यक्चारित्र होता है ॥४॥ .. विशेषार्थ-कृत्य संज्ञक प्रत्यय तथा युट् प्रत्यय कारण और अधि. करण के सिवाय अन्य अर्थ में भी देखे जाते हैं इस नियमसे यहां शान .. और दर्शन का युट् प्रत्यय का अर्थ में हुआ है इसलिये शान शब्दका For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभृते [२.५वचनात् कर्तरि युट् प्रत्ययः। ( णाणस्स दसणस्स य समवण्णा होइ चारित) ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् समायोगाच्चारित्रं भवति । जिणणाणदिट्ठिसुद्धं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं। . विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि ॥५। . जिनज्ञानदृष्टिशुद्ध प्रथमं सम्यक्त्वचरणचारित्रम् । . द्वितीयं संयमचरणं जिनज्ञानसंदेशितं तदपि ॥ ५॥ ... ( जिणणाण दिट्ठिसुद्ध पढमं सम्मत्तचरण चारितं ) जिनस्य सर्वज्ञ वीतरागस्य सम्बन्धि यज्ज्ञानं दृष्टिदर्शनं च ताभ्यां शुद्धं पञ्चविंशति-दोष-रहितं प्रथमं तावदेकं सम्यक्त्वचरणचारित्र दर्शनाचारचारित्रं भवति । (विदियं संजमचरणं ) द्वितीयं संयमचरणं चारित्राचारलक्षणं चारित्रं भवति (जिणणाण सदेसियं तं पि ) जिनस्य सम्बन्धि यत्सम्यग्ज्ञानं तेन सन्देशितं सम्यङ् निरूपित तदपि चारित्रं भवति । उक्तञ्च मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥ ५॥ निरुक्त अर्थ है जो पदार्थोंको जाने और दर्शन शब्दका निरुक्त अर्थ है जो पदार्थोंको प्रतीति करे । यहाँ दर्शन शब्दसे प्रतोति अर्थ ही ग्राह्य है। जब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानका समायोग होता है तब सम्यकचारित्र प्रगट होता है ।। ४ ॥ गाथार्थ-चारित्र के दो भेद हैं उनमें से पहला जिनेन्द्र-वीतराग सर्वज्ञदेवके ज्ञान और दर्शन से शुद्ध सम्यक्त्वचरण चारित्र है और दूसरा जिनेन्द्र देवके सम्यग्ज्ञान के द्वारा निरूपित संयम चरण चारित्र है ॥५॥ विशेषार्थ-सम्यक्त्वचरण चारित्रका दूसरा नाम दर्शनाचार चारित्र है। यह दर्शनाचार चारित्र सर्वज्ञ वीतरागके द्वारा प्रतिपादित ज्ञान और दर्शन से शुद्ध है अर्थात् आगे कहे जाने वाले पच्चीस दोषोंसे रहित है। तथा संयमचरण चारित्रका दूसरा नाम चारित्राचार है । यह चारित्राचार चारित्र जिनेन्द्र देव के सम्यग्ज्ञानके द्वारा अच्छी तरह निरूपित है। पच्चीस दोष इस प्रकार हैं मढ़-त्रयम्-तीन मूढता, आठ मद, छह अनायतन और शङ्का आदि आठ दोष व सम्यग्दर्शन पच्चीस दोष हैं ॥५॥ For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२.६] चारित्रप्राभृतम् एवं चिय णाऊण य सब्बे मिच्छत्तदोससंकाई । परिहरि सम्मत्तमला जिणभणिया तिविहजोएण ॥६॥ एवं चैव ज्ञात्वा च सर्वान् मिथ्यात्वदोषान् शङ्कादीन् । परिहर सम्यक्त्वमलान् जिनभणितान् त्रिविधयोगेन । ( एवं चिय णाऊण य ) एवं चैव ज्ञात्वा च । ( सव्वे मिच्छत्तदोस संकाई ) सर्वान् मिथ्यात्वदोषान् शङ्कादीन् । (परिहरि ) परिहर हे जीव ! त्वं परित्यज । कथंभूतान् ? ( सम्मत्तमला) सम्यक्त्वमलान् पूर्वोक्तश्लोककथितान् पञ्चविशतिदोषान् । कथंभूतान् ? ( जिणभणिया) सर्वज्ञभणितान् श्रीमद्भगवदहत्सर्वज्ञवीतरागप्रतिपादितान् (तिविहजोएण) मनोवचनकायलक्षणकर्मयोगेन कृत्वा । किं तन्मूढत्रयम् ? लोकमूळे, पाखण्डिमूढं देवतामूढं चेति । तत्र लोकमूढं सूर्या? ग्रहणस्नानं संक्रान्तौ द्रविणव्ययः । सन्ध्यासेवाग्निसत्कारो देहगेहाचना ( गेहदेहार्चना ) विधिः ॥ १॥ गोपृष्ठान्तनमस्कारस्तन्मूत्रस्य निषेवणम् । रत्नवाहनभूवृक्षशस्त्रशैलादिसेवनम् ॥ २॥ 'आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । . गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ॥ ३ ॥ गाथार्थ-ऐसा जानकर हे भव्य जीवो ! जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए तथा सम्यक्त्व में मल उत्पन्न करने वाले शंका आदि मिथ्यात्व के दोषोंका तीनों योगों से परित्याग करो ॥६॥ विशेषार्थ--श्रीमान् भगवान् अरहन्त सर्वज्ञ वीतराग देव ने पूर्व श्लोक में सम्यग्दर्शनके जिन पच्चीस दोषोंका निरूपण किया है उन्हें मनोयोग, वचनयोग और काय योग इन तीनों योगोंसे छोड़ो । लोक . मूढता, पाखण्डि मूढता और देव-मूढताके भेदसे मूढताके तीन भेद हैं। उनमें से लोकमूढता का स्वरूप यह है- सूर्या?-सूर्य को अर्घ देना, ग्रहण के समय स्नान करना, संक्रान्ति में धनका खर्च करना, सन्ध्या सेवा, अग्निका सत्कार करना, देहली की पूजा करना, गाय के पृष्ठ भागको नमस्कार करना, उसके मूत्रका सेवन करना, रत्न सवारी, पृथिवी, वृक्ष, शस्त्र तथा पर्वत आदि की सेवा करना, १. रत्नकरण्डश्रावकाचारे समन्तभद्रस्य । Jain Education Internatio • For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ षट्प्राभृते 'वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥४॥ २ सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् । पाषण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषण्डिमोहनम् ॥ ५ ॥ अष्टौ मदाः के ते ? ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥ ६ ॥ नायतनानि कानि तानि ? कुदेवगुरुशास्त्राणां तद्भक्तानां गृहे गतिः । षडनायतनमित्येवं वदन्ति विदितागमाः ॥ प्रभाचन्द्रस्त्वेवं वदति - मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणि त्रीणि त्रयश्च तद्वन्तः पुरुषाः षडनायतानि । अथवा असर्वज्ञः १ असर्वज्ञायतनं २ असर्वज्ञज्ञानं ३ नदियों और समुद्र में स्नान करना, बालू और पत्थरोंका ढेर करना, पहाड़ से गिरना और अग्नि में पड़ना आदि लोकमूढ़ता कहलाती है । सग्रन्था - परिग्रह तथा आरम्भसे सहित एवं संसार रूपी भंवर में पड़े हुए पाषण्डियों – कुगुरुओं का सत्कार करना पाषण्डिमूढ़ता जानना चाहिये । • [२.६ बल, अब आठ मद कौन हैं ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं— ज्ञानं - ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, आठ को लेकर अहंकार करना सो आठ प्रकारका मद है। अब छह अनायतन कौन हैं ? इसका उत्तर कहते हैं कुदेव - कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र और उनके भक्तोंके घर जाना इन छहको आगम के ज्ञाता पुरुष छह अनायतन कहते हैं । परन्तु प्रभाचन्द्र छह अनायतनका इस प्रकार निरूपण करते हैं । मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र ये तीन तथा तोन इनके धारक पुरुष इस प्रकार छह अनायतन हैं । अथवा असर्वज्ञका आयतन, असर्वज्ञका ज्ञान, असर्वज्ञके ज्ञानसे युक्त पुरुष, असर्वज्ञका अनुष्ठान और असर्वज्ञ के अनुष्ठानसे सहित पुरुष ये छह अनायतन हैं । १. रत्नकरण्ड श्रावकाचारे समन्तभद्रस्य । २. वही । ३. वहो । ऋद्धि, तप और शरीर इन For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२.७] चारित्रप्राभृतम् असर्वज्ञानसमवेतपुरुषः ४ असर्वज्ञानुष्ठानं ५ असवज्ञा'नुष्ठानसमवेतपुरुषश्चेति ६ शङ्कादयोऽष्ट यथा-शङ्का १ कांक्षा २ विचिकित्सा ३ मूढदृष्टिः ४ अनुपगृहन ५ अस्थितीकरणं ६ अवात्सल्यं ७ अप्रभावना चेति ८ अष्टौ शङ्कादयः ॥ ६ ॥ णिस्संकिय णिक्कंखिय णिविदिगिछा अमूढदिट्ठी य । उवगृहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणाय ते अट्ठ॥७॥ निःशङ्कितं निःकांक्षितं निविचिकित्सा अमूढदृष्टिश्च ।। उपगूहनं स्थितोकरणं वात्सल्यं प्रभावना च ते अष्टौ ॥ ७ ॥ (णिस्संकिय) इत्यादि । निःशतिं निर्भयत्वं परदर्शने जैनामासे चामुक्तिमाननत्वं, अञ्जनचोरवज्जिनवधनमाननं च । (णिकक्सिय ) निष्कांक्षितं सम्यक्त्वव्रतादिफलेन राज्यदेवत्वेहभव-सुखेष्टजन-मेलापकत्वादिनिदानस्याकरणं । सीता. नन्तमतिसुतारादिवद् व्रतदाढ्यं च ( णिविदिगिछा) निर्विचिकित्सा रत्नत्रय शङ्कादिक आठ दोष निम्न प्रकार हैं-१. शङ्का २. कांक्षा ३. विचिकित्मा ४. मूढदृष्टि ५. अनुपगृहन ६. अस्थितीकरण ७. अवात्सल्य और अप्रभावना ॥ ६॥ गाथार्थ-निःशङ्कित १. निःकांक्षित २. निर्विचिकित्सा ३. अमूढ-दृष्टि ४ उपगृहन ५. स्थितीकरण ६. वात्सल्य ७. और प्रभावना ८. ये आठ सम्यक्त्व के गुण हैं ॥७॥ विशेषार्थ-सम्यक्त्वका पहला गुण निःशङ्कित है । सप्तभयसे रहित होना अथवा बौद्ध आदि अन्य दर्शन और जैनाभास मतसे मुक्तिको नहीं मानना तथा अञ्जन चोरके समान जिनेन्द्र देवके वचनोंमें दृढ प्रतीति रखना निःशङ्कित गुण कहलाता है। दूसरा गुण निःकांक्षित है। सम्यक्त्र और व्रत आदिके फल स्वरूप राज्य, देवपर्याय, ऐहलौकिक सुख तथा इष्ट जनोंके मिलने आदिका निदान नहीं करना एवं सीता, अनन्नमति तथा सुतारा आदिके समान व्रतमें दृढ़ता रखना निकांक्षित - गुण कहलाता है। तीसरा गुण निविचिकित्सा है। रत्नत्रयसे पवित्र मुनि जनों के शरीर सम्बन्धो मल आदिके देखने से उद्दायन महाराजके समान ग्लानि नहीं करना निर्विचिकित्सा कहलाती है। चौथा गुण अमढ दृष्टि है। रेवती महादेवी के समान जिनेन्द्र भग. वान्के वचनोंमें शिथिलता नहीं करना अमूढदृष्टि गुण कहलाता है। १. सर्व मानानुजन म। For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [२.८पवित्रपात्रजन-शरीरमलादिदर्शनेन शूकाया अकरणं उद्दायन-महाराजवत् । ( अमूढदिट्ठी य ) अमूढदृष्टिश्च जिनवचनेऽशिथिलत्वं रेवती महादेवीवत् । ( उव- . गृहण ) उपगृहनं जिनधर्मस्थ-बालाशक्तजनदोषझम्पनं जिनेन्द्रभक्त-श्रेष्ठिवत् । (ठिदिकरणं ) स्थितोकरणं सम्यक्त्वव्रतादेभ्रंश्यज्जनस्य तत्र स्थापनं पुष्पदन्तविप्रस्य वारिषेणवत् । ( वच्छल्ल ) वात्सल्यं धर्मस्थजनोपसर्गनिवारणं अकम्पनादेविष्णुकुमारमुनिवत् (पहावणा य ) प्रभावना च जिनधर्मोद्योतनं परधर्मप्रभावविध्वंसनं च वज्रकुमारविद्याधरमुनिवत् । ( ते अट्ठ ) ते सम्यक्त्वगुणा अष्टः भवन्ति ॥ ७॥ तं चेव गुणविसुद्धं जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय। जं चरइ गाणजुत्तं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं ॥ ८॥ तं चैव गुणविशुद्धं जिनसम्यक्त्वं सुमोक्षस्थानाय । यच्चरति ज्ञानयुक्तं प्रथमं सम्यक्त्वचरणचारित्रम् ।। ८ ॥ . (तं चेव गुण विसुद्ध) तच्चैव सम्यक्त्वं मुणविशुद्ध निःशङ्कितादिभिरष्टगुणविशुद्ध निर्मलं । ( जिणसम्मत्तं) जिन सम्यक्त्वं जगत्पतिश्रीमद्भगवदर्हत्सपाँचवाँ गुण उपगूहन है । जिनेन्द्र भक्त सेठके समान जिनधर्म में स्थित बालक तथा वृद्ध आदि असमर्थ जनोंके दोष छिपाना उपग्रहन गुण कहलाता है । छठवां गुण स्थितोकरण है । जिस प्रकार पुष्पदन्त ब्राह्मण को वारिषेण ने दृढ़ किया था उसी प्रकार सम्यक्त्व और व्रत आदि से भ्रष्ट होते हुए मनुष्यको फिरसे उसीमें स्थिर कर देना स्थितिकरण गुण कहा है । सातवाँ गुण वात्सल्य है। जिस प्रकार अकम्पन आदि मुनियों का उपसर्ग विष्णुकुमार मुनि ने दूर किया था उसी प्रकार धर्मात्मा मनुष्य का उपसर्ग दूर करना वात्सल्य गुण कहलाता है । आठवाँ गुण प्रभावना है । वजकुमार नामक विद्याधर मुनिके समान जिनधर्मका उद्योत करना तथा अन्य धर्मके प्रभावका विध्वंस करना प्रभावना गुण कहलाता है । इस तरह निःशङ्कित आदि सम्यक्त्व के आठ गुण हैं ।। ७ ।। ___ गाथार्थ-निःशङ्कितादि गुणोंसे विशुद्ध वह सम्यक्त्व ही जिनसम्यक्त्व कहलाता है तथा जिन-सम्यक्त्व ही उत्तम मोक्ष रूप स्थान की प्राप्तिके लिये निमित्तभत है। ज्ञान सहित जिन-सम्यक्त्व का जो मुनि आचरण करते हैं वह पहला सम्यक्त्व-चरण नामका चारित्र है ॥ ८॥ विशेषार्थ-ऊपर के श्लोक में सम्यग्दर्शन के जिन निःशङ्कित आद आठ गुणों का वर्णन किया गया है उनसे सम्यग्दर्शन निर्मल होता है। For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२.९] चारित्रप्राभृतम् जवीतरागस्य सम्बन्धिनी श्रद्धा रुद्रादिश्रद्धान-रहितं जिनसम्यक्त्वमुच्यते । रुद्रादिसम्यक्त्वं किम् ? तदुक्तं अग्निवत्सर्वभक्ष्योऽपि भवभक्तिपरायणः । भुक्ति जीवन्नवाप्नोति मुक्ति तु लभते मृतः ॥ भवभक्ति-परायणो रुद्रभक्तिपरायणः । ( सुमुक्खठाणाय ) सुमोक्षस्थानाय तीर्थकरपरमदेवो भूत्वा सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षस्थानं प्राप्नोति सुमोक्षस्थानं तस्मै सुमोक्षस्थानाय परमनिर्वाण-प्राप्त्यर्थमित्यर्थः। ( जं चरइ ) यच्चरति यत्प्रतिपाल यतिः । ( णाणजुत्तं ) ज्ञानयुक्तं सम्यक्त्वं ज्ञान-सहितं सम्यक्त्वं । अथवा क्रियाविशेषणमिदं । तेनायमर्थः ज्ञानयुक्तं यथा भवत्येवं चरति । ( पढमं सम्मत्त-चरणचारित्तं ) द्वयोर्दर्शनाचारचारित्राचारयोर्मध्ये सम्यक्त्वाचारचारित्रं पढमं प्रथम भवति ॥ ८॥ सम्मतचरणसुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा। णाणी अमूढदिट्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं ॥९॥ यह निर्मल सम्यग्दर्शन ही जिन-सम्यक्त्व कहलाता है। जिन-सम्यक्त्व में जगत्पति-श्रीमान्-भगवान्-अरहन्त-सर्वज्ञ वीतराग देव की ही श्रद्धा रहती है। रुद्र आदि देवोंकी श्रद्धा नहीं रहती। जिसमें रुद्र आदि देवोंको श्रद्धा रहती है वह रुद्रादि-सम्यक्त्व कहलाता है। रुद्र-सम्यक्त्वका धारक जीव ऐसा मानता है- अग्निवत्-भव अर्थात् रुद्रकी भक्तिमें तत्पर रहने वाला मनुष्य अग्निके समान सर्वभक्षी होने पर भी जीवित रहता हुआ सब प्रकारके भोगोंको प्राप्त होता है और मरने पर मुक्ति को प्राप्त होता है । जिनसम्यक्त्वका धारक पुरुष तीर्थंकर परमदेव होकर समस्त कर्मोंके क्षय रूप मोक्ष स्थानको प्राप्त होता है। सम्यक्त्वके साथ ज्ञान अवश्य होता है । उस ज्ञान सहित जिनसम्यक्त्व का जो आचरण होता है वह दर्शनाचार और चारित्राचार इन दो प्रकारके चारित्रों में पहला सम्यक्त्वाचार नामका चारित्र होता है । अथवा 'ज्ञानयुक्त' यह क्रियाविशेषण है। इस पक्ष में गाथाके उत्तरार्ध का ऐसा अर्थ समझना चाहिये-जो ज्ञान-पूर्वक जिन-सम्यक्त्वका आचरण करता है वह पहला सम्यक्त्वचारित्र है ॥८॥ मावार्थ-जो सम्यक्त्व-चरण से शुद्ध हैं अर्थात् निर्दोष सम्यग्दर्शन के धारक हैं, संयमवरण से अतिशय प्रसिद्ध है अर्थात् अत्यन्त निर्दोष For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [२. १०-११सम्यक्त्वचरणशुद्धाः संयमचरणस्य यदि वा सुप्रसिद्धाः। ज्ञानिनः अमूढदृष्टयः अचिरं प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् ॥९॥ ( सम्मत्तचरण सुद्धा ) सम्यक्त्वचरणे सम्यक्त्वचारित्रे ये सूरयः शुखाः . सम्यक्त्वदोषरहिताः सम्यक्त्वगुणसहिताश्च भवन्ति । ( संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा ) संयमचरणस्य यदि वा सुप्रसिद्धाः चारित्राचारे च सुप्रसिद्धाः सुष्ठु अतिशयेन प्रकर्षण सिद्धं चारित्रं येषां ते सुप्रसिद्धा सर्वलोक विदिता वा सम्यक्त्वपूर्वकचारित्रप्रतिपालका इत्यर्थः ( णाणी अमूढदिट्ठी ) ज्ञानिनोऽमूढ़दृष्टयश्च । (अचिरे पावंति णिव्वाणं ) अचिरे स्तोककाले निर्वाणं प्राप्नुवन्ति । अत्र चारित्रस्य मुख्यत्वेऽपि सम्यक्त्वज्ञानयोरपि सामग्रयमुक्तमिति भावः ॥९॥ वच्छल्लं विणएण य अणुकंपाए सुदाणदच्छाए। ... मग्गणगुणसंसणाए अवगृहण रक्खणाए य ॥१०॥ एएहिं लक्खणेहिं य लक्खिज्जइ अज्जवहिं भावेहिं । जीवो आराहतो जिणसम्मत्तं अमोहेण ॥११॥ वात्सल्यं विनयेन च अनुकम्पया सुदानदक्षया। मार्गगुणसंशनया उपगृहनं रक्षणेन च ॥१०॥ एतैः लक्षणः च लक्ष्यते आजवैः भावः । जीव आराधयन् जिनसम्यक्त्वममोहेन ॥११॥ चारित्र के धारक हैं, सम्यग्ज्ञानी हैं और अमूढदृष्टि हैं अर्थात् विवेकपूर्ण दृष्टिसे युक्त हैं, वे शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त होते हैं ॥९॥ विशेषार्थ-जो पुरुष ऊपर कहे हुए सम्यक्त्व के पच्चीस दोषोंसें रहित हैं तथा निःशङ्कित आदि आठ गुणों से सहित हैं। संयमाचरण अर्थात् चारित्राचार के विषयमें अतिशय प्रसिद्ध हैं अथवा सर्वलोकमें विख्यात हैं, सम्यग्दर्शन-पूर्वक चारित्रके पालन करने वाले हैं, ज्ञानी हैं अर्थात् स्वपर-भेद-विज्ञान से सहित हैं और अमूढदृष्टि हैं वे अल्प समय में निर्वाण को प्राप्त होते हैं । यद्यपि इस गाथामें चारित्र को मुख्यता बतलाई है तथापि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी समग्रता भी प्रकट की गई है। मोक्ष प्राप्ति के लिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनोंकी अनिवार्यता आवश्यक है ॥९|| गाचार्य-अमोह-मोह रहित अथवा अमोघ यानी-सफल जन्मका धारक मनुष्य, वात्सल्य, विनय, उत्तमदान देनेमें समर्थ अनुकम्पा, मोक्ष. For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. १०-११] . चारित्रप्राभृतम् (एएहि लक्खणेहिं य ) एतलंक्षणः । जिनसम्यक्त्वम् । ( आराहतो ) आराघयन् । ( जीवो लक्खिज्जइ ) जीव आत्मा लक्ष्यते ज्ञायते । न केवलमेतर्भावरपितु ( अज्जवेहिं भावहिं ) आजवैभविश्चाकुटिलपरिणामश्चोपलक्ष्यते । केन कृत्वा लक्ष्यते ? ( अमोहेण ) अमोहेनानज्ञानतया ज्ञानेन विचक्षणतया । विचक्षणं विना सम्यक्त्वाराधकं पुरुषं कोऽपि न जानाति सम्यक्त्वपरिणामस्यातिसूक्ष्मत्वात् । अथवा अमोहेण अमोघेन सफलजन्मना पुरुषेण । एतैः कैरित्याह-विच्छल्लं) एकं तावद्वात्सल्यं धर्मिष्ठजनेषु स्नेहलत्वं सद्यः प्रसूतगौरिव वत्से वत्सलत्वेन सद्दृष्टिविचक्षणैर्जायते । ( विणएण य ) विनयेन च विनयगुणेन गुरुजनेष्वभ्युत्थानसम्मुखगमन-करमोटनपादवन्दनादिभिगुणैः सदृष्टिविचक्षणयिते । (अणुकंपाए) अनुकम्पया दुखितं जनं दृष्ट्वा कारुण्यपरिणामोऽनुकम्पा तया सदृष्टिविचक्षणयिते । कथंभूतयानुकम्पया ? ( सुदाणदच्छाए ) शोभनदान दक्षया दुःखितजनयोग्यदान-विशिष्टया । ( मग्गगुण संसणाए ) मार्गगुणशंसनया निर्ग्रन्थ-लक्षणो मार्ग के गुणोंको प्रशंसा, उपगृहन, स्थितीकरण और अकुटिल परिणाम; इन लक्षणों के द्वारा जिनप्रतिपादित सम्यक्त्वकी आराधना करनेवाले पुरुष को पहिचानता है ॥१०-११।। विशेषार्थ-इन गाथाओं में कुन्दकुन्द स्वामी ने जिन-प्रतिपादित सम्यक्त्व को आराधना करने वाले जोव को पहिचान बताते हुए लिखा है कि सम्यक्त्वरूप परिणाम अत्यन्त सूक्ष्म हैं, अतः उन्हें अमोह-अज्ञान से रहित विचक्षण-चतुर मनुष्य ही जान सकता है अथवा प्राकृत में घ के स्थान में ह होजाने के कारण अमोहेन का पर्याय अमोघेन लिया जाता है, अतः अमोघ-सफल जन्म वाला मनुष्य ही सम्यग्दृष्टि जीवको जान सकता है । जिन लक्षणों के द्वारा सम्यग्दृष्टि जीव की पहिचान होती है उनमें वात्सल्य, विनय, उत्तमदान देने में दक्ष, अनुकम्पा, मार्गगुण प्रशंसा, उपगृहन, रक्षण और आर्जव भावोंका उल्लेख किया है। इन वात्सल्य आदिका स्वरूप इस प्रकार है-जिसप्रकार तत्काल प्रसूता गाय अपने बछड़े पर स्नेह रखती है उसी प्रकार धर्मात्मा जीवों पर स्नेह रखना वात्सल्य है। गुरुजनों के आनेपर उठ कर खड़े होना, सम्मुख जाना, हाथ जोड़ना, चरण-वन्दना करना आदिको विनय कहते हैं। दुखी मनुष्यको देखकर करुणाभाव उत्पन्न होना अनुकम्पा कहलाती है। यह अनुकम्पा दुखी मनुष्योंके योग्य दान देनेमें तत्पर रहती है। निग्रन्थता ही मोक्षमार्ग है, परिग्रह सहित एवं वस्त्रादि से वेष्टित कोई भी मनुष्य मोक्षको प्राप्त 'For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [२. १२मोक्षमार्गः सग्रन्थो वस्त्रादिवेष्टितः कोऽपि मोक्षं न गच्छति इति मोक्षमार्गस्तवनेन सदृष्टिविचक्षणैर्ज्ञायते । ( अवगृहण ) उपगूहन बालाशक्त जन जनित दोषाच्छादनेन सदृष्टिविचक्षणैर्ज्ञायते ( रक्खणाए य ) मार्गाद्मश्यज्जनस्थितिकरणेन सद् दृष्टिविचक्षणयिते इति क्रियाकारकसम्बन्धः । उच्छाहभावणा संपसंससेवा कुदंसणे सद्धा। अण्णाणमोहमग्गे कुव्वंतो जहदि-'जिणसम्म ॥१२॥ उत्साहभावना संप्रशंसासेवाः कुदर्शने श्रद्धां । अज्ञानमोहमार्गे कुर्वन् जहाति जिनसम्यक्त्वम् ।।१२॥ (उच्छाहभावणा संपसंससेवा ) मिथ्यादृष्टिकथिताचारे योऽसावुत्साह उद्यमस्तं, संपसंस-सम्यङ्मनसा वचसा च प्रशंसनं स्तुतिवचनं, सेवा-मिथ्यादृष्टेः करादिना स्पर्शनं (कुदसणे सद्धा) मिथ्यादर्शने श्रद्धां रुचि । ( अण्णाणमोहमग्गे ) न विद्यते ज्ञानं येषां तेऽज्ञानास्तेषां मोघो निष्फलो मोहो वा संशयादि रूपं योऽसौ मार्गः नहीं होता; इस प्रकार मोक्षमार्गकी स्तुति करना मार्गगुण-प्रशंसा है । बालक तथा असमर्थ मनुष्यों के द्वारा उत्पन्न दोषों को छिपाना उपग्रहन है, मार्गसे भ्रष्ट होते हए मनुष्योंका स्थितीकरण करना रक्षण है और सरल परिणामी होना आर्जव भाव है। इन वात्सल्य आदि लक्षणों से सम्यग्दृष्टि जीव को पहिचान होती है ।।१०-११॥ .. गाथार्थ-जो मनुष्य मिथ्यात्वाचरण में उत्साह रखता है, उसीकी भावना करता है, मन वचन से उसकी प्रशंसा करता है, हाथ आदिसे मिथ्यादृष्टि की सेवा करता है, तथा अज्ञानी जोवोंके मोघ-निष्फल अथवा मोह-संशयादि-पूर्ण मार्गमें श्रद्धा करता है वह जिन-सम्यक्त्व को छोड़ देता है ।।१।। विशेषार्थ-कौन जीव जिनसम्यक्त्व को छोड़ देता है इसका निरूपण करते हुए कहा गया है कि जो मिथ्यादृष्टि के कथित आचार में उत्साह अथवा उद्यम करता है, मन और वचन से उसकी स्तुति करता है, मिथ्यादृष्टि गुरु आदि की हाय आदि से सेवा करता है, मिथ्यादर्शन में रुचि रखता है, तथा ज्ञान-हीन जीवोंके मोघ अर्थात् निष्फल अथवा मोह अर्थात् संशयादिरूप मार्गमें श्रद्धा करता है, वह जिनसम्यक्त्व को १. जिणमग्गं क० । For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ —२. १३ ] चारित्रप्राभृतम् ७३ संसारदुःखकारी धर्मस्तस्मिन्नज्ञानमोहमार्गे श्रद्धां रुचि कुर्वन् । ( जहदि जिणसम्मं ) जिनसम्यक्त्वं जहाति मुञ्चति ॥ १२ ॥ उच्छाहभावणा संपसंससेवा सुदंसणे सद्धा । ण जहदि जिणसम्मत्तं कुव्वंतो णाणमग्गेण ॥ १३॥ उत्साहभावनासं प्रशंसासेवाः सुदर्शने श्रद्धाम् । न जहाति जिनसम्यक्त्वं कुर्वन् ज्ञानमार्गेण ॥ १३ ॥ ( उच्छाहभावणा संपसंससेवा सुदंसणे सद्धा ण जहदि जिणसम्मत्त ) - उत्साह - उद्यमस्तं कुर्वन्निति सम्बन्धः । भावणा शरीरात्कर्मणश्चात्मा पृथग्वर्तते इति भेदभावना तां । संपसंस-सम्यक् प्रकारेण मनोवचनकर्मभिः प्रशंसामर्हदादीनां स्तुति कुर्वन् तया सेवां स्नपन पूजन स्तवन जपनादि गुर्वादि पाद संवाहनादिकं च कुर्वन् सुदंसणे सम्यग्दर्शने रत्नत्रयलक्षणमोक्षमार्गे तत्वार्थे च श्रद्धां रुचि कुर्वन् जिनसम्यक्त्वं न जहाति न त्यजति उत्साहादिकं । केन कृत्वा कुर्वन् ? ( णाणमग्गेण ) ज्ञानमार्गेण सम्यग्ज्ञानद्वारेण ।। १३ ।। छोड़ देता है । अर्थात् जिन प्रतिपादित सम्यक्त्वसे भ्रष्ट हो जाता है ॥ १२ ॥ गाथार्थ - जो ज्ञान-मार्ग अर्थात् सम्यग्ज्ञान के द्वारा सम्यक्त्व-चरणमें उत्साह रखता है, उसीकी भावना करता है, आत्माको शरीर और कर्म - से पृथक् समझता है, अर्हन्त आदि की स्तुति करता है, सुगुरु आदिकी सेवा करता है, और सम्यग्दर्शन में रुचि रखता है वह जिन सम्यक्त्वको नहीं छोड़ता है ॥ १३ ॥ विशेषार्थं - कोन जीव जिनसम्यक्त्व को नहीं छोड़ता है इसकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि जो सम्यग्ज्ञानके द्वारा सम्यग्दृष्टि जीवके आचारमें उत्साह रखता है, शरीर और कर्म से आत्मा पृथक है, ऐसी भावना करता है, सम्यक् प्रकारसे मन वचन और काय की चेष्टाके द्वारा अर्हन्त आदिकी स्तुति करता है, स्नपन, पूजन, स्तवन, जपन तथा गुरु आदिके पादमर्दन आदिसे उनकी सेवा करता है और सम्यग्दर्शन, रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग अथवा तत्त्वार्थकी श्रद्धा करता है, वह जिन सम्यक्त्व को नहीं छोड़ता है ॥ १३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ षट्प्राभृते [ २. १४-१५अण्णाणं मिच्छत्तं वज्जहि गाणे विसुद्धसम्मत्ते। अह मोहं सारम्भं परिहर धम्मे अहिंसाए ॥१४॥ अज्ञानं मिथ्यात्वं वर्जय ज्ञाने विशुद्धसम्यक्त्वे । अथ मोहं सारम्भं परिहर धर्मेऽहिंसायाम् ।। १४ ॥ ( अण्णाणं मिच्छत्तं वजहि णाणे विसुद्धसम्मते ) अज्ञानं वर्जय दुरीकुरु, कस्मिन् सति ? णाणे ज्ञाने सम्यग्ज्ञाने सति, अज्ञानस्य ज्ञानं प्रत्यनीकं ततः। मिथ्यात्वं वर्जय, कस्मिन् सति ? सम्यक्त्वे सति, मिथ्यात्वस्य सम्यग्दर्शनं प्रतिबन्धकं यतः । ( अह ) अथानन्तरं । ( मोहं परिहर ) परित्यज । कथंभूतं मोहं ? (सारंभ ) सेवाकृषिवाणिज्याद्यारम्भसहितं । कस्मिन् सति ? (धम्मे ) धर्मे सति चारित्रे सति । तथारम्भं परिहर । कस्यां सत्याम् ? ( अहिंसाए ) अहिं- .. सायां सत्यां पञ्चमहाव्रतानि रात्रिभोजनवजंनषष्ठानि, सर्वाण्यहिंसानिमित्त कथितानि यतः ॥ १४ ॥ पव्वज्ज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे । होइ सुविसुद्धमाणं णिम्मोहे वीयरायत्ते ॥१५॥ प्रव्रज्यायां सङ्गत्यागे प्रवर्तस्व सुतपसि सुसंयमे भावे । भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे वीतरागत्वे ॥ १५ ॥ गाथार्य- हे भव्य ! सम्यग्ज्ञानके होने पर अज्ञानको, विशुद्ध सम्यग्र्शनके होने पर मिथ्यात्वको और अहिंसा धर्मके होनेपर आरम्भ सहित मोहको छोड़ो ॥ १४ ॥ विशेषार्थ--सम्यग्ज्ञान अज्ञानका विरोधी है अतः सम्यग्ज्ञान के होने पर अज्ञान को दूर करो। सम्यग्दर्शन मिथ्यात्वका प्रतिबन्धक है अतः सम्यग्दर्शन के होने पर मिथ्यात्वका परित्याग करो और अहिंसा-धर्म चारित्र रूप है अतः उसके होने पर सेवा, कृषि, वाणिज्य आदिके आरम्भसे सहित मोहको छोड़ो। अहिंसाके होने पर पांच महाव्रत तथा रात्रिभोजन-त्याग नामक छठवां अणुव्रत स्वयं हो जाते हैं क्योंकि ये सब अहिंसा के निमित्त कहे हैं ॥ १४॥ गाथार्थ- हे जीव ! तू वस्त्रादि परिग्रहका त्याग होने पर दीक्षामें प्रवृत्त हो और उत्तम संयम भावके होने पर सुतप में प्रवृत्ति कर । जो मनुष्य निर्मोह होता है उसीके वीतरागताके होने पर उत्तम विशुद्ध ध्यान होता है ॥ १५॥ For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. १५ ] चारित्रप्रामृतम् ( पव्वज्ज संगचाए पयट्ट ) हे जीव ! त्वं प्रव्रज्यायां प्रक्तस्व, कस्मिन् सति ? संगचाए-संगस्य वस्त्रादिपरिग्रहस्य त्यागे सति । तथा हे आत्मन् ! स्वं (सुतवे पयट्ट ) सुतपसि प्रवर्तस्व । कस्मिन् सति ? (सुसंजमे भावे ) शोभनसंयमपरिणामे सति । असंयमिनो मासोपवासादि-युक्तस्यापि सुतपोऽसद्भावात् । तथा ( होइ सुविसुद्धशाणं णिम्मोहे वोयरायत्ते ) भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे पुत्रकलबमित्रधनादिव्यामोहवजिते पुरुषे, यस्तु पुत्रादिमोहसहितो भवति तस्य विशिष्टं धर्म्यध्यानं शुक्लध्यान लेशोऽपि न भवति यतः तथा वीतरागत्वे सति सुविशुद्धध्यान भवतीति तात्पर्यम् । उक्तं च योगीन्द्रदेव नाम्ना भट्टारकेण जसु हरिणच्छी हियवडइ तासु न बंभु विचारि । एक्कहि केम समंति बढ वे खंडा षडियारि ॥ विशेषार्य-यहाँ दीक्षा, सुतप और विशुद्धध्यान की उत्पत्तिके मूल कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि हे जीव ! तू वस्त्रादि परिग्रहका त्याग होनेपर मुनिदीक्षा में प्रवृत्त हो क्योंकि वस्त्रादिके रहते हुए मुनि दीक्षा संभव नहीं है। इसी प्रकार अन्तरङ्ग में उत्तम संयमरूप परिणामकें होने पर ही सुतप धारण कर क्योंकि असंयमी पुरुषके मासोपवास आदिसे युक्त होने पर भी सुतपका सद्भाव नहीं रहता। सांसारिक भोगोंको आकांक्षासे रहित होकर केवल कर्म-निर्जरा के उद्देश से जो तप होता है वह सुतप कहलाता है । ऐसा सुतप संयम भावके प्रगट होने पर हो हो सकता है। विशिष्ट धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानका प्रारम्भिक अंश सुविशुद्धध्यान कहलाता है। यह निर्मोहपूत्र स्त्री मित्र तथा धन आदिके व्यामोह से रहित पुरुषके होता है, इसके विपरीत जो पुरुष पुत्रादि के मोहसे सहित होता है उसके वह संभव नहीं है। निर्मोह मनुष्य के होने वाला वह सुविशुद्ध ध्यान भी वीतराग भावके होने पर ही होता है। यद्यपि पूर्ण वीतरागता दशम गुणस्थानके बादमें होती है तथापि आपेक्षिक वीतरागता छठवें गुण-स्थानसे हो स्वीकृत की गई है। रागी मनुष्यके सुविशुद्धध्यान नहीं होता। इस विषय में योगीन्द्र देव भट्टारक ने परमात्म-प्रकाश में कहा है जसु-अरे मूर्ख ! जिसके हृदयमें मृगनयनी स्त्री विद्यमान है उसके ब्रह्म-आत्मध्यान नहीं हो सकता, ऐसा विचार कर, क्योंकि एक म्यानमें दो तलवारें कैसे रह सकती हैं ? For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [२. १६-१७'मूढस्य नालिय बढौ' इति प्राकृतव्याकरणसूत्रम् । मिच्छादसणमग्गे मलिणे अण्णाणमोहदोसेहिं । बझंति मूढजीवा मिच्छत्ता बुद्धिउदएण ॥१६॥ मिथ्यादर्शनमार्गे मलिनेऽज्ञानमोहदोषाभ्याम् । . . वध्यन्ते मूढजीवाः मिथ्यात्वाबुद्धि-उदयेन ॥ १६ ॥ .. ( मिच्छादसणमग्गे मलिणे) मिथ्यादर्शनमार्गे मलिने पापरूपे सति । कैः कृत्वा ? ( अण्णाणमोहदोसेहिं ) अज्ञानं पञ्चमिथ्यात्व-लक्षणं, मोहः पंच जैनाभास- ' लक्षणः, अज्ञानं च मोहश्चाज्ञानमोहौ तावेव दोषौ ताभ्यामज्ञानमोहदोषाभ्यां ( बझंति ) बध्यन्ते पापैः वेष्ट्यन्ते । के ते ? ( मूढ जीवा ) अज्ञानिनः । केन कृत्वा ? (मिच्छत्ताबुद्धिउदएण) मिथ्यात्वस्याबुद्धश्चाज्ञानस्योदयेन प्रादु-.. भर्भावेन ॥ १६ ॥ सम्मइंसण पस्सदि जाणदि गाणेण दव्वपज्जाया। सम्मेण य सहदि य परिहरदि चरित्जे दोसे ॥ १७ ॥ सम्यग्दर्शनेन पश्यति जानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् । सम्यक्त्वेन च श्रद्दधाति च परिहरति चारित्रजान् दोषान् ॥१७।। www दोहा में जो बढ शब्द आया है उसका अर्थ मूर्ख होता है क्योंकि 'मुढस्य नालिय बढौ' इस प्राकृत व्याकरणके सूत्रसें मूढ शब्दके स्थान में मालिय और बढ आदेश होते हैं ॥ १५ ॥ गाथार्थ-अज्ञान और मोहरूपी दोषों से मलिन मिथ्यामार्गमें विचरण करने वाले मढजीव-अज्ञानी प्राणी, मिथ्यात्व और अज्ञानके उदयसे बन्धको प्राप्त होते हैं ।। १६ ॥ विशेषार्थ-एकान्त, विपरीत, संशय, अज्ञान और वैनयिक यह पांच प्रकारका मिथ्यात्व अज्ञान कहलाता है तथा पाँच प्रकारके जैनाभासों की प्रवृत्ति करानेवाले विकारभावको मोह कहते हैं। इन दोनों दोषों से मिथ्यादर्शन रूपी मार्ग मलिन हो रहा है। इसमें विचरण करनेवाले अज्ञानी जीव मिथ्यात्व और अबुद्धि-अज्ञान रूप दोषों के उदय होनेके कारणे पापोंसे बद्ध होते हैं ॥१६॥ गाथार्थ-सम्यग्दृष्टि मनुष्य, दर्शन और ज्ञानके द्वारा द्रव्य तथा उनकी पर्यायोंका अच्छी तरह देखता और जानता है । सम्यक्त्व गुणसे उनको श्रद्धा करता है और चारित्र सम्बन्धी दोषोंको दूर करता है।॥ १७॥ For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. १७] चारित्रप्राभृतम् ७७ ( सम्मइंसण गस्सदि ) सम्यग्दर्शनेन सत्तावलोकन-रूपेण विशेषमकृत्वा । निराकाररूपेण पश्यति विलोकते । ( जाणदिणाणेण ) ज्ञानेन विशेषरूपेण साकाररूपेण ज्ञानेनात्मा जानाति । कान् पश्यति ? कान् जानाति ? (दव्व पज्जाया ) द्रव्याणि जीवपुद्गल-धर्माधर्मकालाकाशांस्तथा पर्यायांश्च । जीवस्य नरनारकादयः क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, स्नेह पुण्यपापादयश्च पर्यायास्तान् पश्यति जानाति च । तथा पुद्गम्य द्वयणुकत्र्यणुकचतुरणुकपञ्चाणुकादिमहास्कन्धत्रैलोक्यपर्यन्ताः पर्यायास्तान् पश्यति जानाति च । धर्मस्य येन रूपेण जीवपुद्गलौ गति कुरुतस्तद्रूपाः पर्यायाः । तथाऽधर्मस्य पर्यायाः स्थितिरूपा जीवादीनां ज्ञातव्याः । कालस्य समयावलिप्रभृतयः पर्यायाः, उक्तञ्च 'आवलिअसंखसमया संखेज्जावलिहिं होइ उस्सासो। __ सत्तुस्सासा थोओ सत्तत्थोओ लवो भणिओ ॥१॥ विशेषार्थ-इस गाथामें सम्यग्दृष्टि मनुष्यके दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुणके कार्योंका उल्लेख किया गया है । यह घट है, यह पट है, इस प्रकारकी विशेषता न करके निराकार रूपसे सत्ता मात्रके अवलोकन को दर्शन कहते हैं । यह घट है, यह पट है इस प्रकार की विशेषता को लिये हुए साकार सविकल्प रूपसे पदार्थको जानना ज्ञान है। सम्यग्दृष्टि मनुष्य अपने दर्शन और ज्ञान गुणके द्वारा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश इन द्रव्योंको तथा उनकी पर्यायोंको अच्छी तरह जानता है। जाव की नर नारकादिक तथा क्रोध मान माया लोभ मोह स्नेह पुण्य और पाप आदि पर्याय हैं। सम्यग्दृष्टि मनुष्य उन्हें सामान्य और विशेष रूपसे देखता तथा जानता है। द्वयणुक, त्र्यणुक और पञ्चाणक को आदि लेकर तीन लोकरूप महास्कन्ध-पर्यन्त अनेक पर्याय हैं सम्यग्दृष्टि उन सबको अच्छी तरह देखता और जानता है । धर्मद्रव्यके जिस रूपसे जीव और पुद्गल गमन करते हैं, वह धर्म द्रव्यकी पर्याय हैं, सम्यग्दष्टि उन्हें अच्छी तरह देखता और जानता है। जीव आदिक द्रव्योंका जो स्थिति रूप परिणमन है वह अधर्म द्रव्यकी पर्याय हैं । सम्यरदृष्टि जीव उन्हें अच्छी तरह जानता है । समय तथा आवलि आदि काल द्रव्यको पर्याय है । जैसा कि कहा गया है आवलि-असंख्यात समयकी एक आलि हाती है, संख्यात आवलियोंका एक उच्छ्वास होता है, सात उच्छ्वासका एक स्तोक होता है, १. जोवकाण्डे ५७३, ५७४ तमौ श्लोको । For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [२. १८'अठ्ठत्तीसद्धलवा नालो दो नालिया मुहत्तं तु । .. समऊणं तं भिण्णं अंतमुहुत्तं अणेयविहं ॥२॥ एकेन समयेन न्यूनो मुहूर्तो भिन्नमूहूर्तः कथ्यते । अन्तर्मुहर्तस्त्वनेकप्रकारः । के तेऽनेकप्रकारा अन्तर्मुहूर्तस्येत्याह-आवल्युपरि एकःसमयोऽधिको यदा भवति तदा जघन्याऽन्तर्मुहूर्तो भवति । एवमावल्युपरि यादयः समयाश्चटन्ति ते सर्वेऽप्यन्तर्मुहूर्ता भवन्ति यावत्समयोनो मुहूर्तः। एवमहोरात्रपक्षमासत्वयनवर्ष पूर्वपल्योपमसागरोपमावसपिण्युत्सपिण्यादयः कालस्य पर्याया ज्ञातव्याः । आकाशस्य तु पर्याया । घटाकाशः पटाकाशः स्तम्भाकाश इत्यादय । ( सम्मेण सद्दहदि य परिहरदि चरित्तजे दोसे ) सम्यक्त्वेन च श्रद्दधाति रोचते, न केवलं श्रद्धत्त परिहरदि यपरिहरति च । कान् ? चरित्तजे दोसे चारित्रजान् दोषानिति संबन्धः ॥१७॥ एए तिणि वि भावा हवंति जीवस्स मोहरहियस्स । णियगुणमाराहतो अचिरेण वि कम्म परिहरइ ॥१८॥ ~~~rrammmmmmm सात स्तोक का एक लव होता है, साढ़े अड़तोस लवकी एक नाली होती है, दो नालियोंका एक मुहूर्त होता है, एक समय कम मुहूर्तको भिन्नमुहूर्त कहते हैं । अन्तर्मुहूर्त अनेक प्रकार का होता है। __वे अन्तमहूर्तके अनेक प्रकार कौन हैं ? इस बातका स्पष्टीकरण करते हुए संस्कृत टीकाकार कहते हैं कि जब आवलि के ऊपर एक समय अधिक होता है तब जघन्य अन्तमूहूर्त होता है। इसी प्रकार आवलिके ऊपर दो आदि समय चढ़ते हैं वे सभी अन्तमुहर्त कहलाते हैं । यह क्रम एक समय कम एक मुहूर्त तक चलता रहता है । इस प्रकार दिन, रात, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, पूर्व, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी आदि काल द्रव्यके पर्याय जानना चाहिये। आकाश के पर्याय घटाकाश, पटाकाश तथा स्तम्भाकाश आदि हैं। सम्यग्दृष्टि जोव अपने सम्यक्त्व गुणके द्वारा इन द्रव्य तथा पर्यायों की श्रद्धा करता है तथा चारित्र में लगे हुए दोषोंका परिहार भी करता है ॥ १७ ॥ गावार्थ-ये तीनों भाव-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप परिणाम मोह रहित जीवके होते हैं। निज गुणकी आराधना करने वाला पुरुष अल्प कालमें ही कर्मों का क्षय कर देता है ।। १८॥ १. जीवकाण्डे ५७३, ५७४ तमौ श्लोकी । For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. १९] चारित्रामृतम् एते त्रयोऽपि भावा भवन्ति जीवस्य मोहरहितस्य । निजगुणमाराधयन् अचिरेणापि कर्म परिहरति ॥ १८ ॥ (एए तिणि वि भावा हवंति जीवस्स मोहरहियस्स ) एते त्रयोऽपि भावाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणाः परिणामा भवन्ति जीवस्यात्मनः । कथंभूतस्य जीवस्य ? मोहरहितस्य चारित्रमोहात्पञ्चविंशतिभेदादहितस्य वर्जितस्य । ( णियगुणमाराहतो अचिरेण वि कम्म परिहरइ ) निजगुणं शुद्धबुद्ध कस्वभावमात्मगुणं शानध्यानस्वरूपमाराधयन्नचिरेण स्तोककालेन कर्म परिहरति सिद्धो भवति ॥१८॥ संखिज्जमसंखिज्जगुणं च संसारिमेरुमित्ता णं। सम्मत्तमणुचरंता करति दुक्खक्खयं धीरा ॥ १९ ॥ संख्येयामसंख्येयगुणां सर्षपमेरुमात्रां णं। सम्यक्त्वमनुचरन्तः कुर्वन्ति दुःखक्षयं धीराः ॥१९॥ ( संखिज्ज) संख्येयगुणां निर्जरां सम्यक्त्वं प्रतिपालयन्तो धीरो योगीश्वराः प्राप्नुवन्तीति । ( असंखिज्जगुणं ) असंख्येयगुणां निर्जरां ( अणुचरंता ) चारित्र पालयन्तो धोरा योगीश्वराः । (करंति ) कुर्वन्ति तदनंतरं ( दुक्खक्खयं करंति ) विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों आत्माके स्वभाव हैं तथा तोन प्रकार के दर्शन-मोह और पच्चीस प्रकारके चारित्र-मोहसे रहित जीवके होते हैं। जो पुरुष अपने एक शुद्ध बुद्ध स्वभावको लिये हुए जानध्यान स्वरूप आत्मगुण की आराधना करता है वह शीघ्रको कर्मोका क्षय करके सिद्ध होता है ।। १८॥ गाथार्य-सम्यक्त्वका पालन करने वाले धोर वीर योगीश्वर कोको संख्यात-गुणी निर्जरा करते हैं और चारित्रका पालन करनेवाले धीरवीर योगोश्वर कर्मोको असंख्यात गुणी निर्जरा करते हैं। इस निर्जराके बाद वे दुःखोंका क्षय करते हैं । संख्यात-गुणी निर्जरा सरसों के बराबर है तो असंख्यात गुणो निर्जरा मेरु पर्वत के बराबर है ॥१९॥ विशेषार्थ-गुणश्रेणी निर्जराके कारण सम्यग्दर्शन तथा चारित्र गुण हैं । सातिशय मिथ्यादृष्टि जोवके जितनो निर्जरा होती है उससे संख्यात-गुणी निर्जरा सम्यग्दृष्टि जीवके होतो है और इससे असंख्यात गुणो निर्जरा चारित्र गुणके प्रतिपालक धोर वीर यागीश्वरोंके होती है। पारित्र गुणके प्रतिपालक जोवोंके श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धो की विसंयोजना करने वाले, दर्शनमोहका क्षय करनेवाले, असन श्रेणीवाले, For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते " [२. २०सर्वकर्मक्षयादनन्तरं मोक्षं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । कथंभूतां संख्येयगुणामसंख्येयगुणां च निर्जरां ( सासारिमेरु मित्ताणं ) सर्षपमेरुमात्राम् । सम्यक्त्वनिर्जरायाः सकाशात चारित्रनिर्जरा बहुतरेति भावः । णं इति वाक्यालंकारे ॥ १९॥ दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं । सायारं सग्गंथे परिग्गहा-रहिय खलु णिरायारं ॥२०॥ . द्विविधं संयमचरणं सागारं तथा भवेत् निरागारम् । .. सागार सग्रन्थे परिग्रहाद्रहिते निरागारम् ॥ २०॥ ( दुविहं संजमचरणं ) द्विविधं संयमचरणं द्विप्रकारश्चारित्राचारः । को तो द्वौ प्रकारो ? ( सायारं तह हवे निरायारं) सागारं तथा भन्निरागारं । सागारं कुत्र भवति ? ( सागारं सग्गंथे ) सागार चारित्र सग्रन्थे गृहस्थे भवति । तर्हि निरागारं चारित्रं कस्मिन् भवति ? ( परिग्गहारहिय खलु निरायारं ) परिग्रहाद्रहित निग्रन्थे निरम्बरे निरागारं चारित्र वेदितव्यमित्यर्थः । उपशान्त मोह, क्षपकश्रेणी वाले, क्षीणमोह और जिन;, इसप्रकार अनेक भेद हैं। इन सब स्थानों में उत्तरोत्तर असंख्यात गणी निर्जरा होती है। इस निर्जराके प्रभावसे योगीश्वर समस्त कर्मोका क्षय कर दुःखोंका क्षय करते हैं अर्थात् मोक्ष प्राप्त करते हैं। संख्यातगुणो और असंख्यात गुणी निर्जरा का अनुपात बतलाते हुए कहा है कि संख्यात गुणी निर्जरा सरसों के बराबर है और असंख्यात गुणी निर्जग मेरुके बराबर है अर्थात् सम्यग्दर्शनके प्रभाव से होने वाली निर्जराकी अपेक्षा चारित्रसे होने वाली निर्जरा बहुत है । गाथामें आया हुआ 'ण' शब्द वाक्यालंकार में प्रयुक्त हुआ है ॥ १९॥ ___ गाथार्थ-चारित्राचार के दो भेद हैं सागार और निरागार । सागार चारित्राचार परिग्रह-सहित गृहस्थ के होता है और निरागार चारित्राचार परिग्रह-रहित मुनिके होता है ॥ २० ॥ विशेषार्थ-हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापोंसे विरक्ति होनेको संयम कहते हैं। यह विरक्ति एक देश और सर्वदेशके भेदसे दो प्रकार की होती है। एक देश विरक्तिसे विकल संयम प्रकट होता है और सर्व-देश विरक्तिसे सकल संयम। विकल संयम परिग्रहके धारक गृहस्थके होता है और सकल संयम परिग्रहके त्यागी मुनि के होता है ॥ २०॥ For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. २१] चारित्रप्राभृतम् अथ सागारचारित्राचारं निरूपयन्ति श्रीकुन्दकुन्दाचार्याःदसण वय सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य । बंभारंभ परिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदो य ॥२१॥ दर्शनं व्रतं सामायिकं प्रोषधं सचित्तं रात्रिभुक्तिश्च । ब्रह्मचर्य आरम्भः परिग्रहः अनुमतिः उद्दिष्टः देशविरतश्च ॥२१॥ अष्टौ मूलगुणाः । 'के ते ? वट फलानामभक्षणं १ पिप्पलफलवर्जनं २ 'प्लक्षो जटी पर्कटी स्यात्' तत्फलनिवारणं ३ उदुम्बरो जघनेफलामलयुः ‘गूलर' इति देश्यात् तत्फल-निषेधः ४ कठंजर कठुम्बर 'अजोर' इति देश्यात् तत्फलानामभक्षणं ५ मद्य-मांस-मधुनिषेध ६-७-८ इत्यष्टौ मूलगुणाः । अथवा अब आगे श्री कुन्दकुन्दाचार्य सागार चारित्राचारका निरूपण करते हैं.. गाथार्थ-दर्शन १ व्रत २ सामायिक ३ प्रोषध ४ सचित्त त्याग ५ रात्रिभुक्तित्याग ६ ब्रह्मचर्य ७ आरम्भ त्याग ८ परिगृहत्याग ९ अनुमतित्याग १० उद्दिष्टत्याग ११ यह सब देशविरत अथवा सागार चारित्राचार हैं ।। २१ ॥ विशेषार्थ-अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम की हीनाः धिकतासे देशविरत अथवा सागार चारित्राचारके दर्शन आदि ग्यारह भेद हैं । इन्हीं को श्रावककी ग्यारह प्रतिमाएं कहते हैं । सामान्यरूपसे दर्शन प्रतिमा-धारी श्रावकको आठ मूल-गुण धारण करने पड़ते हैं, सात व्यसनोंका त्याग करना होता है और सम्यग्दर्शन की भले प्रकार रक्षा करनी होती है । आठ मूल गुण कौन हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए संस्कृत टीकाकार ने दो मतोंका उल्लेख किया है प्रथम मतके अनुसार बड़, पीपल, पाकर, ऊमर और अंजीर इन पाँच फलोंका तथा मद्य, मांस और मधु इन तीन मकारोंका त्याग करना आठ मूलगुण हैं। और द्वितीय मलके अनुसार मद्यपानका त्याग १ मांसत्याग २ मधुत्याग ३ रात्रिभोजनत्याग ४ पञ्चफलोत्याग ५ पञ्चपरमेष्ठी की नुति-देवदर्शन ६ जोवदया ७ और पानी छानना ८; ये आठ मूल गुण बतलाये हैं। सात व्यसनोंका उल्लेख करते हुए लिखा है १. ते० के० म०। . २. बटफल नामफलं क० । For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ षट्प्राभृते मद्यपलमधुनिशाशनपञ्चफली विरति पंचकाप्तनुती:' । जीवदया लगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः ॥ १ ॥ सप्तव्यसनवर्जनं । उक्तं च द्यूतमांससुरावेश्याखेटचौर्यपराङ्गनाः महापापानि सप्तैव व्यसनानि त्यजेद् बुधः ॥ २ ॥ सम्यक्त्वप्रतिपालनं परशास्त्राणामश्रवणमिति विशुद्धमतिः । मूलकनालिका - पद्मिनीकन्द लशुनकन्द-तुम्बकफलकुसुम्भ- शाक-कलिङ्गफल-सूरणकन्दं-त्यागश्च । अरणी - पुष्पं वरणपुष्पं शोभाञ्जन कुसुमं करीरपुष्पं काञ्चनार पुष्पमिति पञ्चपुष्पत्यागः । लवणतैलघृतयुक्तं फलं सन्धानकं मुहूर्तद्वयोपरि नवनीतं त्याज्यम् । मांसादिसेविनां भाण्डभाजनवर्जनं, चर्म स्थितजल-स्नेह- हिगुपरिहारः । अस्थि - [ २.२१ द्यूतमांस - जुआ, मद्य, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री सेवन ये महापाप रूप सात व्यसन हैं, विद्वान् को इनका त्याग करना चाहिये । सम्यक्त्वको रक्षा करने के लिये अन्य मत-मतान्तरों के शास्त्रोंका श्रवण न करके अपनी बुद्धिको विशुद्ध-निर्मल रखना चाहिये । ऊपर कहे हुए सामान्य आचरण के अतिरिक्त दर्शन प्रतिमान्धारी श्रावक को निम्नलिखित बातोंपर भो ध्यान रखना आवश्यक होता है - मूली, नाली, मृणाल, लहसुन, तुम्बीफल, कुसुम्भकी शाक, तरबूज और सूरणकन्दका भी त्याग करना चाहिये। अरणी, वरण, सोहजना, करीर और कंचनार, इन पाँच प्रकारके फलोंका त्याग होता है। नमक, तेल, और घृतमें रखे हुए फल, आचार-मुरब्बा, दो मुहूर्तके बादका मक्खन, तथा मांसादिका सेवन करने वाले लोगोंके बनाने और खाने के वर्तनों का त्याग करना पड़ता है। चमड़े में रखे हुए जल, तेल और हींगका त्याग होता है । भोजन करते समय हड्डी, मदिरा, चमड़ा, मांस, खून, पीव, मल, मूत्र और मृत प्राणीके देखनेसे, त्यागी हुई वस्तुके सेवनसे, चाण्डालादि के देखने और उनके शब्द सुननेसे भोजन का त्याग करना चाहिये । घुने, भकू डे ( फूलनसे युक्त ) और चलित स्वादवाले अन्नका त्याग करना १. नुतो म० । २. कन्दो क० । ३. लवणतैलघृतघृतफलसन्धानकमूहूर्तद्वयोपरि नवनीतमांसादिसेविभाण्डभाजन वर्जनं म० । For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १.२१] चारित्रप्राभृतम् बुराचर्ममांसरक्तपूयमलमूत्रमूताङ्गिदर्शनतः प्रत्याख्यातान्नसेवनाच्चाण्डालादिदर्शनात्तच्छन्दश्रवणाच्च भोजनं त्यजेत् । सुललित - पुष्पित-स्वादचलितमन्तं त्यजेत् । षोडश प्रहरादुपरि तक्रं दधि च त्यजेत् । द्विदलान्नमिश्रं दघि तक्र स्वादितं सम्यक्त्वमपि मलिनयेत् । ताम्बूलौषवजलं रात्री त्यजेत् । एष सर्वोऽपि ( दंसण ) दर्शन - प्रतिमाचारः । ( वय ) द्वादशव्रतानि, अहिंसा स्थूलवघाद्विरमणं, सत्यं; स्थूलसत्यवचनं, स्थूलमचौर्य, ब्रह्मचर्यं स्वदार संतोषः परदारनिवृत्तिः, कस्यचित् सर्व स्त्रीनिवृत्तिः परिग्रहपरिमाणव्रतं दिग्विदिक्परिमाणविरतिः, अनर्थदण्डपरिहारः, भोगोपभोगपरिमाणमिति गुणव्रतत्रयम्, सामायिकं प्रोषधोपवासः, अतिथिसंविभागः, सल्लेखनामरणं चेति शिक्षाव्रतचतुष्टयम् । ( सामाइय ) त्रिकालसामा ८३ चाहिये । सोलह प्रहरके बादके तक्र और दहीका त्याग करना चाहिये । द्विदलान्नके साथ मिलाकर खाये हुए दही और तक्र सम्यग्दर्शन को भी मलिन कर देते हैं अतः इनका त्याग करना चाहिये । पान, औषध और पानीका भी रात्रि में त्याग करना चाहिये। यह सभी दर्शन प्रतिमाका आचार है। दूसरी प्रतिमाका नाम व्रत प्रतिमा है इसमें निम्न लिखित बारह व्रतोंका पालन करना होता है । पाँच अणुव्रत - अहिंसाणुव्रत अर्थात् स्थूलहंसा का त्याग करना, सत्याणुव्रत अर्थात् स्थूल सत्य वचन बोलना, अचौर्याणुव्रत अर्थात् स्थूल चोरीका त्याग करना, ब्रह्मचर्याणुव्रत अर्थात् अपनी एक स्त्री में संतोष रखना, अथवा अपनी अनेक स्त्रियोंमें संतोष रखते हुए परस्त्रीका त्याग करना, अथवा गृहविरत श्रावक की अपेक्षा सब प्रकार की स्त्रियोंका त्याग करना, परिग्रह परिमाणाणुव्रत अर्थात् आवश्यकतानुसार परिग्रहकी सीमा निश्चित करना । तोनगुणव्रतदिग्व्रत अर्थात् दिशाओं और विदिशाओं में आने जाने की सीमा निर्धारित करना, अनर्थ - दण्ड- परिहार अर्थात् अपध्यान, दुःश्रुति, हिंसादान, पापोपदेश और प्रमाद - चर्या इन पाँच निरर्थक कार्योंसे विरत रहना और भोगोपभोग परिमाण अर्थात् भोग तथा उपभोग की संख्या निश्चित करना और चार शिक्षाव्रत - सामायिक, अर्थात् निश्चित समय तक पञ्च पापोंका स्याग करके समताभाव धारण करना, प्रोषधोपवास अर्थात् अष्टमी चतुर्दशीके दिन उपवास करना अतिथिसंविभाग अर्थात् अतिथियोंके लिये चार प्रकार का दान देना, और सल्लेखनामरण अर्थात् अन्तिम समय सल्लेखना धारण करना तथा निरन्तर उसकी भावना रखना । For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते [ २. २२ यिकं । ( पोसह ) पर्वोपवासः । ( सचित ) सचित्तस्या भक्षणं, ( रायभत्ते य ) रात्रिभोजन परिहारो दिवा ब्रह्मचर्य, ( बंभ ) सर्वथा ब्रह्मचर्यं । ( आरंभ ) सेवाकृषिवाणिज्यादिपरिहारः । ( परिग्गह ) वस्त्रमात्रपरिग्रह स्वीकारः सुवर्णादिवर्जनं । ( अणुमण ) विवाहादिकर्मानुपदेशः । ( उद्दिट्ठ ) उदृष्टाहार परिहारः । ( देस विरदो य ) एवं सागार चारित्रम् ॥ २१ ॥ ८४ पंचैवणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तह तिष्णि । सिक्खावय चत्तारि संजमचरणं च सायारं ॥ २२ ॥ पञ्चैवाणुव्रतानि गुणव्रतानि भवन्ति तथा त्रीणि ॥ शिक्षाव्रतानि चत्वारि संयमचरणं च सागारं ।। २२ ।। ( पंचेवणुव्वयाइ ) पंचैवाणुव्रतानि भवन्ति । ( गुणव्वयाई हवंति तह तिष्णि ) गुणव्रतानि भवन्ति तथा त्रीणि । ( सिक्खावय चत्तारि ) शिक्षाव्रतानि तीसरी सामायिक प्रतिमामें प्रतिदिन प्रातः मध्याह्न और सायंकाल : सामायिक करना चाहिये । चौथी प्रोषध प्रतिमा में प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशो को शक्तिअनुसार उपवास करना चाहिये । पाँचवीं सचित्त त्याग प्रतिमा में सचित वस्तुओं के भक्षणका त्याग होता है। छठवीं रात्रिभक्ति-विरति प्रतिमामें रात्रिके समय भोजन करनेका त्याग करना अथवा दिनमें ब्रह्मचर्य की रक्षा करना आवश्यक है । सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमामें स्त्री मात्रका त्याग होता है । आठवीं आरम्भ-त्याग प्रतिमा में सेवा, कृषि तथा व्यापार आदिका परित्याग होता है । नौवीं परिग्रह त्याग प्रतिमा में वस्त्रमात्र परिग्रह रखा जाना है तथा सुवर्णादिक धातुका त्याग होता है। दशवीं अनुमति त्याग प्रतिमा में विवाह आदि कार्यों को अनुमतिका त्याग होता है । ग्यारहवीं उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा में अपने उद्देश्य से बनाये हुए आहारका परित्याग होता है । इस प्रकार यह देशविरत अर्थात् सागार चारित्रका वर्णन है ॥ २१ ॥ गाथार्थ - - पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारहव्रत गृहस्थ के संयमाचरण हैं ॥ २२ ॥ For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. २२-२४] বলিসমূহ चत्वारि भवन्ति । ( संजमचरणं च सायारं ) संयमचरणं च सागारं भवति । एतानि द्वादशवतानि पूर्वमेव सूचितानि ॥ २२ ॥ थूले तसकायवहे थूले मोसे तितिक्खथूले य। परिहारो परपिम्मे परिग्गहारंभपरिमाणं ॥ २३ ॥ स्थूले त्रसकायवधे स्थूलायां मृषायां तितिक्षास्थूले च । परिहारः परप्रेम्णि परिग्रहारम्भपरिमाणम् ।। २३ ॥ (थूले तसकायवहे ) स्थूले त्रसकायवधे । परिहार इति शब्दश्चतुष सम्बध्यते । ( थूले मोसे ) स्थूलमृषावादे परिहारः । ( तितिक्खथूले य ) तितिक्षास्थूले चौर्यस्थूले परिहारः । ( परिहारो परपिम्मे ) परिहारः क्रियते, कस्मिन् ? परप्रेम्णि परदारे। (परिग्गहारम्भपरिमाणं ) परिग्रहाणां सुवर्णादीनामारम्भाणां सेवाक षि-वाणिज्यादीनां परिमाणं क्रियते । दिसिविदिसिमाण पढम अणत्थदंडस्स वज्जणं विदियं । भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिणि ॥२४॥ . • विशेषार्थ-पाँच पापोंसे विरत होना व्रत है । वह व्रत एक देश और सर्व देशको अपेक्षा दो प्रकारका होता है। लोक में जिन्हें पाप समझा जाता है ऐसे हिंसा आदि स्थूल पापोंसे विरत होनेको अणुव्रत कहते हैं वे पांच होते हैं। जो अणुव्रतोंका उपकार करें उन्हें गुणव्रत कहते हैं । गुणव्रत तीन होते हैं। जिनसे मुनिव्रत धारण करनेकी शिक्षा मिले उन्हें शिक्षावत कहते हैं। सब मिलाकर गृहस्थ के बारह व्रत होते हैं इनका स्वरूप पहिले कह चुके हैं ॥२२॥ .. गाथार्थ-स्थूल वसवध, स्थूल असत्य कथन, स्थूल चोरी और परस्त्रोका परिहार तथा परिग्रह और आरम्भका परिमाण ये पांच अणुव्रत हैं ।। २३॥ विशेषार्थ-स्थूल रूपसे त्रस जीवों की हिंसाका त्याग करना अहिंसाणुव्रत है । स्थूलरूपसे असत्य कथनका त्याग करना सत्याणुव्रत है। स्थूल रूपसे चोरीका त्याग करना अचौर्याणुव्रत है। पर-प्रियाका त्याग करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है और सुवर्णादि परिग्रह तथा सेवा, खेती और व्यापार ... आदिका परिमाण करना परिग्रह परिमाणाणुव्रत है ॥२३॥ गाथार्थ-दिशाओं और विदिशाओंका प्रमाण करना पहला गुणवत है। अनर्थदण्डका त्याग करना दूसरा गुणवत है और भोग तथा उपभोग For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ २. २५दिग्विदिग्माणं प्रथमं अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीयम् । ... भोगोपभोगपरिमाणं इदमेव गुणव्रतानि त्रीणि ॥२४॥ (दिसिविदिसिमाण पढमं ) दिग्विदिङ्मानं परिमाणं प्रथमं गुणवतं ज्ञातव्यम् । ( अणत्थदंडस्स वज्जणं विदियं ) अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीयं गुणवतं भवति । ( भोगोपभोग-परिमा ) भोगोपभोगपरिमाणं तृतीयं गुणवतं भवति । भोजनाविक भोगः । वस्त्रस्त्रीप्रमुखमुपभोग इत्यर्थः । ( इयमेव गुणव्वया तिण्णि ) इदमेवाचरणं त्रीणि गुणव्रतानि भवन्ति ॥ २४ ॥ सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेहणा अंते ॥२५॥ सामायिकं च प्रथम द्वितीयं च तथैव प्रोषधो भणितः । तृतीयमतिथि-पूज्यं चतुर्थ सल्लेखना अन्ते ॥ २५ ॥ ( सामाइयं च पढम) सामायिकं च प्रथमं शिक्षावतं। चैत्यपञ्चगुरुभक्तिसमाधिलक्षणं दिन प्रति एक वारं द्विवारं त्रिवार वा व्रत-प्रतिमायां सामायिक भवति । यत्तु सामायिकप्रतिमायां सामायिक प्रोक्तं तत्त्रीन् वारान् निश्चयेन करणीयमिति का परिमाण करना तीसरा गुणव्रत है। इस प्रकार ये तीन गुणवत हैं ॥ २४ ॥ विशेषार्य-पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर ये चार दिशाएं हैं तथा ऐशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ऊर्ध्व और अधो ये छह विदिशाएँ हैं। इनमें आने जानेकी सीमा निश्चित करना सो पहला दिग्वत नामका गुणवत है। दूसरे गुणवतका नाम अनर्थदण्ड त्यागवत है इसमें अपध्यान, दुःश्रुति, पापोपदेश, हिंसादान और प्रमादचर्या इन पांच निरर्थक कार्यों का त्याग करना होता है। भोगोपभोगपरिमाण नामका तीसरा गुणव्रत है । जो वस्तु एक बार भोगने में आती है उसे भोग कहते हैं जैसे भोजन आदिक तथा जो वस्तु बार-बार भोगनेमें आती है उसे उपभोग कहते हैं जैसे वस्त्र तथा स्त्री आदि । इनकी सीमाएं निर्धारित करना भोगोपभोगपरिमाणवत है । ये तीन गुणव्रत हैं ॥ २४ ॥ गाथार्थ-पहला सामायिक, दूसरा प्रोषध, तीसरा अतिथि-पूज्य और चौथा मरण कालमें सल्लेखना धारण करना ये चार शिक्षाव्रत हैं ॥२५॥ विशेषार्थ-सामायिक नामका पहला शिक्षावत है। इसमें चैत्यभक्ति, पञ्चपरमेष्ठी भक्ति और समाधि भक्ति करना चाहिये । व्रत For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. २५] चारित्रप्राभूतम् ज्ञातव्यम् । ( विदियं च तवेह पोसहं भणियं ) द्वितीयं च तथैव प्रोषधोपवासं शिक्षाव्रतं भणितं प्रतिपादितं अष्टम्यां चतुर्दश्यां च । तदपि त्रिविधं, चतुविधाहारपरिवर्जनमुत्कृष्टं, जल-सहितं मध्यमं, आचाम्लं जघन्यं प्रोषधोपवासं भवति यथाशक्ति कर्तव्यम् । ( तइयं च अतिहिपुज्ज) तृतीयं चातिथिपूज्यं, न विद्यते तिथिः प्रतिपदादिका यस्य सोऽतिथिः अथवा 'संयम-यात्रार्थमतति गच्छति उद्दण्डचयाँ प्रतिमा में जो सामायिक होता है वह दिनमें एक बार, दो बार अथवा तीन बार होता है। परन्तु सामायिक प्रतिमामें जो सामायिक कहा गया है, वह नियमसे तीन बार करना चाहिये । दूसरा शिक्षा-व्रत प्रोषधोपवास कहा गया है। प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशोको यह व्रत करना पड़ता है। प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारका कहा गया है। अन्न-पानखाद्य और लेह्य इन चारों प्रकारके आहारका त्याग करना उत्कृष्ट प्रोषधोपवास है। जिसमें पर्वके दिन जल लिया जाता है, वह मध्यम प्रोषघोषवास है और जिसमें आचाम्लाहार किया जाता है वह जघन्य प्रोष धोपवास है। तीसरा शिक्षाव्रत अतिथिपूज्य अथवा अतिथि संविभाग है। जिसे प्रतिपदा आदि तिथियोंका विकल्प न हो उसे अतिथि कहते हैं अथवा संयमको प्राप्तिके लिये जो भ्रमण करते हैं अर्थात् अनुद्दिष्ट आहार की प्राप्तिके लिये जो श्रावकोंके घर चर्या करते हैं उन मुनियोंको अतिथि कहते हैं। जिसमें नवधा भक्ति और सात गुणोंसे सहित श्रावक के द्वारा उक्त अतिथि की पूजा की जाती है-उसे आहारादिसे सन्तुष्ट किया जाता है, वह अतिथि पूज्य नामका शिक्षावत है। चौथा शिक्षाबत सल्लेखना है । मरण समय काय और कषायको कृश · करना सल्लेखना है। .. [गुणवत और शिक्षाव्रतके नामोंमें विभिन्न मत पाये जाते हैं । सर्व प्रथम कुन्दकुन्द स्वामी ने दिग्व्रत, अनर्थदण्डवत और भोगोपभोगपरिमाण इन तोनको गुणव्रत माना है। इसी मतका उल्लेख समन्तभद्र स्वामी ने १. संयमलाभार्थ म० । २. प्रतिग्रह, उच्चासन, चरणप्रक्षालन, पूजन, प्रणाम, मन-वचन-काय-भोजन की शुद्धि। For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ २. २६ करोतीत्यतिथिः यति स पूज्यो नव 'पुण्य - सप्तगुण - समन्वितेन श्रावकेण यस्मिन् शिक्षाव्रते तदतिथि - पूज्यं । ( चउत्थ सल्लेहणा अन्ते ) चतुथं शिक्षाव्रतमन्ते मरणकाले सल्लेखना कायकषायतनूकरणमिति तात्पर्यम् ॥ २५ ॥ एवं सावयधम्मं संजमचरणं उदेसियं सयलं । सुद्धं संजमचरणं जइधम्मं णिक्कलं बोच्छे ॥ २६ ॥ एवं श्रावकधर्मं संयमचरणं उपदेशितं सकलम् । शुद्धं संयमचरणं यतिधर्मं निष्कलं वक्ष्ये ॥ २६ ॥ ( एवं सावयधम्मं संजमचरणं उदेसियं सयलं ) एवममुना प्रकारेण श्रावकधर्मलक्षणं संयमचरणं चारित्राचारः, उपदेशितं भवन्तः कुर्वन्त्विति प्रतिपादित, सकलं समग्रं परिपूर्णं, किंचिद् विशेषरूपं तु न प्रतिपादितमित्यर्थः । उक्तञ्च - किया है परन्तु तत्वार्थ सूत्रकार उमास्वामी ने दिग्व्रत देशव्रत और अनर्थtus - व्रतको गुणव्रत माना है । प्रायः यही मान्यता उत्तरवर्ती आचार्योंने स्वीकृत की है। श्री कुन्दकुन्द स्वामी के मतानुसार चार शिक्षाव्रतोंके नाम इस प्रकार हैं - सामायिक - प्रोषधोपवास, अतिथि संविभाग और सल्लेखना । समन्तभद्र स्वामी ने देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्यको शिक्षाव्रत माना है । तथा उमास्वामी महाराज ने सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण और अतिथि संविभागको शिक्षाव्रत कहा है । कुन्दकुन्द स्वामी ने देशव्रत का उल्लेख गुणव्रतों में किया है और कुन्दकुन्द स्वामीकी सल्लेखनाको शिक्षाव्रत सम्बन्धी मान्यता अन्य आचार्यों को सम्मत नहीं हुई क्योंकि सल्लेखना मरण काल ही धारण की जा सकती है और शिक्षाव्रत सदा धारण करना पड़ता है । इस दृष्टि से अन्य आचार्योंने सल्लेखना का बारह व्रत के अतिरिक्त वर्णन किया है । इसके स्थान पर उमास्वामीने अतिथिसंविभाग को और समन्तभद्र स्वामी ने वैयावृत्यको शिक्षाव्रत स्वीकार किया है । वैयावृत्य शब्द अतिथि संविभागका ही विस्तृत रूप है । ] गाथार्थ - इस प्रकार समस्त श्रावकधर्म-सम्बन्धी संयमाचरण चरित्राचारका कथन किया, अब शुद्ध और निष्कलङ्क मुनिधमं सम्बन्धी चारित्राचार का कथन करूंगा ॥ २६ ॥ १. नव गुण म० । For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२: २६ ] चारित्रप्राभृतम् विल्वालाबुफले च त्रिभुवनविजयी शिलीध्रकं न सेवेत'। आ पञ्चदशतिथिभ्यः पयोऽसि वत्सोद्भवात्समारभ्य ॥१॥ तथा च दृतिप्रायेसु पानीयं स्नेहं च कुतुपादिषु । व्रतस्थो वर्जयेन्नित्यं योषितश्चावतोचिताः ॥२॥ त्रिभुवनविजयोति भंगा तदुपलक्षणं सूक्ष्मकणत्वचाहिफेनादीनाम् । शिलोध्रक गोमयच्छत्रं केतकीपुष्पदण्डिका च । चर्मतुलादिधृतं गुडादिकं नादेयम् । अभ्यु विशेषार्थ-यहां श्रावकके बारह व्रतोंका सामान्य वर्णन किया है विशेषरूप से वर्णन नहीं किया है। श्रावक-सम्बन्धी विशेष क्रियाओं को इस प्रकार जानना चाहिये विल्बालाबु-श्रावकको बेल, तुम्बीफल, भांग, शिलोध्रक-बरसातमें गोबरके ऊपर उत्पन्न होने वाली छत्राकार वनस्पति जिसे कुकरमुत्ता कहते हैं, नहीं खाना चाहिये । इसी प्रकार बछडा उत्पन्न होनेके दिनसे पन्द्रह दिन तक भैंस आदिका दूध भी नहीं पीना चाहिये त्रिभुवन-विजयो भांगको कहते हैं उसे यहाँ उपलक्षण मात्र समझना चाहिये इसलिये खस खस दानेके वकल तथा अफीम आदि नशीली वस्तुओंका सेवन श्रावक को नहीं करना चाहिये । केतकी केवडा के फूल भो श्रावकको वर्जनीय हैं । ___ दृति-चमड़ेकी मशक आदि में रखा हुआ पानी, और चमड़ेकी छोटी छोटी कुप्पियों में रखा हुआ तेल भी व्रती मनुष्यको छोड़ना चाहिये । व्रती मनुष्य अव्रती मनुष्यों के योग्य धर्महीन स्त्रियोंका सेवन भी नहीं कर सकता है । चमड़े की तराजूसे तोला हुआ गुड़ आदि भी व्रती मनुष्य को ग्राह्य नहीं है । व्रती पुरुष को सामायिक या पूजा आदिके प्रारम्भमें अन्य लोगोंके समान अभ्युक्षण अर्थात् अपने ऊपर जलके छींटे देना तथा आचमन अर्थात् चुल्लू में जल भर कर चाटना आदि क्रियाएं नहीं करनी चाहिये । - अभ्युक्षण और आचमन आदिका व्याख्यान विशेष शास्त्रोंसे जानना चाहिये। इस प्रकार श्रावक का धर्म-श्रावक-सम्बन्धी चारित्राचारका वर्णन करनेके बाद श्री कुन्दकुन्द स्वामी परिपूर्ण विशुद्धिसे सहित एवं निष्कलङ्क १. सेवते म०। २. कुतपादिषु क० म० 'कुत्ः कृतेः स्नेहपात्रं सवाल्पा कुतुपः पूमान्' इत्यमरः । For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नामृते २ २७क्षणाच मनादिकं च विशेषशास्त्रोक्तं ज्ञातव्यम् । ( सुद्धं संजमचरण जइधर्म णिक्कलं बोच्छे ) शुद्ध परिपूर्णविशुद्धिसहितं यतिधर्म निष्कल वक्ष्ये कथ. यिष्यामि इति वचनाच्छ्रावकधर्मस्य च तारतम्येनोत्कृष्टता सूचिता भवतीति ज्ञातव्यम् ॥२६॥ पंचिदियसंवरणं पंचवया पंचविंसकिरियास। पंचसमिदि तयगुत्ती संजमचरणं निरायारं ॥ २७॥ पञ्चेन्द्रियसंवरणं पञ्चव्रताः पञ्चविंशतिक्रियासु। पञ्चसमितयः तिस्रो गुप्तयः संयमचरणं निरागारम् ॥ २७ ॥ (पंचिदियसंवरणं) पञ्चानामिन्द्रियाणां संवरणं कूर्मवत्संकोचनं । (पंचवया) पञ्चव्रताः। व्रत शब्दस्य पुन्नपुंसकत्वमुक्तमस्ति तेनात्र पुंस्त्वं सूचितं । तांस्तु विवरिष्यति । ( पंचविंस किरियासु ) पञ्चविंशतो क्रियासु सतीषु । ते पञ्च व्रता भवन्तीति भावः । ( पंच समिदि ) पंच समितयो भवन्ति । ( तय गृत्ती ) तिस्रो गुप्तयः ( संजम चरणं निरायारं ) निरागारमनगारं चारित्राचारो भवतीति द्वारगावा वेदितव्या ॥ २७ ॥ मुनिधर्मके कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं। उनके इस कथनसे श्रावक तथा मुनिधर्मका तारतम्य-होनाधिकभाव अनायास प्रकट हो जावेगा ॥ २६ ।। आगे पंचेन्द्रियसंवरका स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-पञ्चेन्द्रियोंको वश में करना, पच्चीस क्रियामोंके रहते हुए पञ्च महाव्रत धारण करना, पञ्च समितियोंका पालन करना और तीन गुप्तियोंको धारण करना मुनियोंका संयम-चारित्र है ।। २७ ।। विशेषार्थ-स्पर्शन आदि पञ्च इन्द्रियोंको कछुएकी तरह संकुचित करना अर्थात् जिस तरह विपत्ति देख कछुआ अपने सब अवयवों को संकुचित कर पोठके नीचे कर लेता है उसी प्रकार मुनि भी अपनी स्पर्शनादि इन्द्रियोंको सब ओर से हटा कर आत्म-स्वरूप में संकुचित कर लेते हैं। पच्चीस क्रियाओं, पाँच महाव्रत तथा तीन गुप्तियोंका वर्णन कुन्दकुन्द स्वामी स्वयं आगेकी गाथाओं में करेंगे॥२७॥ For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. २८-२९] चारित्रप्राभृतम् अमणुग्णे य मणुणे सजीवदव्वे अजोवदव्वे य । ण करेइ रायदोसे पंचेदियसंवरो भणिओ ॥२८॥ अमनोज्ञे च मनोजे सजीवद्रव्ये अजोवद्रव्ये च | न करोति रागद्वेषो पंचेन्द्रियसंवरो भणितः ॥ २८ ॥ ( अमणुण्णे य ) अमनोज्ञे चासुन्दरे च ( मणुण्णे ) मनोज्ञे मनोहरे । ( सजीव दब्वे ) इष्टवनितादी । ( अजीव दन्वे य ) अजीव द्रव्ये चाचेतनद्रव्ये अशन-वसनकनक काचादिके (ण करेइ रायदोसे ) न करोति रागद्वेषे। मनोज्ञे रागं न करोति । अमनोज्ञे द्वेषं न करोति । (पंचिदियसंवरो भणिओ) पंचेन्द्रियसंवरो भणितः प्रतिपादितः ॥ २८॥ अथ पंचवया इत्येतत्पदविवरणार्थमाहहिंसाविरइ अहिंसा असच्चविरई अदत्तविरई य । तुरियं अबंविरई पंचम संगम्मि विरई य ॥२९॥ हिंसाविरतिरहिंसा असत्यविरतिरदत्तविरतिश्च । तुरीयमब्रह्मविरतिः पञ्चमं संगे विरतिश्च ॥२९॥ गाचार्य-मनोज्ञ और अमनोज्ञ चेतन तथा अचेतन पदार्थोंमें रागद्वेष नहीं करना पञ्चेन्द्रिय-संवर कहा गया है ।। २८॥ विशेषार्य-स्पर्शनेन्द्रिय के विषय-आठ प्रकार के स्पर्श हैं-१ शीत २ उष्ण ३ स्निग्ध ४ रुक्ष ५ कोमल ६ कड़ा ७ लघु और ८ भारी । रसना इन्द्रियके विषय पांच प्रकारके रस हैं। १ खट्टा २ मोठा ३ कडुआ ४ कषायला और ५ चपरा। घ्राणेन्द्रियके विषय दो गन्ध हैं-१ सुगन्ध और २ दुर्गन्ध | चक्षुरिन्द्रियके विषय पाँच प्रकारके वर्ण हैं-१ काला २ पीला ३ नीला ४ लाल और ५ सफेद । कर्णेन्द्रियके विषय सात प्रकारके स्वर हैं१षड्ज २ ऋषभ ३ गान्धार ४ मध्यम ५ पञ्चम ६ धैवत और ७ निषाद। ये सब विषय इष्ट अनिष्ट के भेदसे दो दो प्रकारके हैं। इष्ट विषयों में राग नहीं करना और अनिष्ट विषयोंमें द्वेष नहीं करना; पञ्चेन्द्रिय संवर अथवा पञ्चेन्द्रियदमन कहलाता है ।। २८ ।। आगे पाँचवतोंका वर्णन करते हैं गाथार्थ-हिंसाविरति अर्थात् अहिंसा, असत्यविरति, अदत्तविरति, बब्रह्मविरति और सङ्गविरति ये पांचव्रत हैं ।।२९॥ For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [२. ३०-. ( हिंसाविरइ अहिंसा ) हिंसाविरतिरहिंसा प्राणातिपातविरतिभवति । (अस- . च्चविरई) असत्यविरतिद्वितीयं महाव्रतं भवति । ( अदत्तविरई य ) अदत्त विरतिश्चादत्ताद्विरतिरदत्तविरतिस्तृतीयं महाव्रतं भवति । ( तुरियं अबंभविरई ) अब्रह्मविरति मैथुनाद्विरमणं तुरियं-चतुर्थं महाव्रतं ज्ञातव्यम् । “चतुरो यदीयौ चलोपश्चेति" सूत्रसाधुत्वात् । (पंचमसंगम्मि विरई य ) पंचमं महाव्रतं भवति । का ? सङ्ग परिग्रहे विरतिश्च परिग्रहाद्विरमणमित्यर्थः ॥२९॥ ... साहति ज महल्ला आयरियं जं महल्लपुव्वेहिं । जं च महल्लाणि तदो महल्लया इत्तहे ताई ॥३०॥ साधयन्ति यन्महान्तः आचरितं यन्महत्पूर्वैः । यच्च महान्ति ततः महाव्रतानि एतस्माद्धेतोः तानि ॥३०॥ ( साहति ज महल्ला ) साधयन्ति यद्यस्मात्कारणात् प्रतिपालयन्ति । के ते? . महल्ला-महान्तो गुरूणामपि गुरवः पुरुषः । ( आयरियं जं महल्लपुव्वेहि ) आचरितमादृतं वा यद्यस्मात् कारणात् महल्लपुव्वेहि-महद्भिः गुरुभिः पूर्वैः चिरन्तनाचार्यः वृषभादिभिमहावीर-पर्यन्तैः वृषभसेनादिगौतमात्त-गणधरश्च जम्बू विशेषार्थ-त्रस और स्थावर-दोनों प्रकारके जीवोंके प्राणघातसे विरत होना सो अहिंसा महाव्रत है। असत्य वचन से विरत होना सो सत्यमहावत है। विना दी हुई वस्तुके ग्रहण से विरत होना अदत्तत्याग अथवा अचौर्य महाव्रत है। स्त्रीसेवन से विरति होना सो अब्रह्मत्याग अथवा ब्रह्मचर्य महावत है और परिग्रह का सर्वथा त्याग होना सो परिग्रहत्याग महाव्रत है ॥२९॥ आगे महाव्रत नामकी सार्थकता बतलाते हैं गाथार्थ-चूंकि महापुरुष इनका साधन करते हैं, पूर्ववर्ती महापुरुषों ने इनका आचरण किया है, और स्वयं ही ये महान् हैं अतः उन्हें महाव्रत कहते हैं ॥३०॥ विशेषार्थ-अहिंसा आदिको महाव्रत क्यों कहते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर देते हुए कुन्दकुन्दस्वामीने तोन हेतु दिये हैं । प्रथम हेतु में उन्होंने कहा है कि चूंकि महापुरुष अर्थात् गुरुओं के भी गुरु श्रेष्ठ जन इनका साधन करते हैं इसलिये इन्हें महाव्रत कहते हैं। दूसरे हेतु में उन्होंने कहा है कि चूंकि पूर्ववर्ती बड़े बड़े आचार्यों ने, भगवान् वृषभदेव को आदि For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२.३१] चारित्रप्राभृतम् स्वामि-पर्यन्तश्च । ( जं च महल्लाणि ) यच्च यस्मात्कारणात् महल्लाणि-स्वयं महान्ति गुरुतराणि । ( तदो महल्लया इत्तहे ) ततस्तस्मात्कारणात् इत्तहेएतस्माद्धेतोः ( ताई ) तानि महाव्रतानीत्युच्यन्ते ।।३०॥ वयगुत्ती मणगुत्ती इरियासमिदी सुदाणणिक्खेवो। अवलोयभोयणाए हिंसाए भावणा होति ॥३१॥ वचोगुप्तिः मनोगुप्तिः ईर्यासमितिः सुदाननिक्षेपः । अवलोक्य भोजनेन अहिंसाया भावना भवन्तिः ॥३१॥ ( वयगुत्ती ) वचोगुप्तिरेका। (मणगुत्ती ) मनोगुप्तिद्वितीया भावना। (इरियासमिदी ) ईर्यासमितिस्तृतीया भावना । ( सुदाणणिक्खेवो ) आदाननिक्षेपः पुस्तककमण्डल्वादिकमुपकरणं पूर्व विलोक्य मृदुना मयूरपिच्छेन प्रतिलिख्य गृह्यते प्रियते च सुदान-निक्षेप उच्यते । ( अवलोयभोयणाए ) अवलोक्य पुनः पुनः दृष्ट्वा भोजनं क्रियतेऽवलोक्य भोजनं तेन विलोक्य भोजनेन । प्राकृते लिङ्गभेदः नपुसकस्य स्त्रोत्वं एता अहिंसामहाव्रतस्य पंचभावना भवन्तीति वेदितव्यम् ॥३१॥ mimmmmmmmmmmmmmm लेकर महावीर पर्यन्त तीर्थंकरों ने, वृषभसेन को आदि लेकर गौतमान्त गणधरों ने तथा जम्बूस्वामी पर्यन्त सामान्य केवलियों ने इनका आचरण किया है, इनका आदर किया है इसलिये इन्हें महाव्रत कहते हैं। और तीसरे हेतु में कहा है कि वे स्वयं महान् हैं-अत्यन्त श्रेष्ठ हैं इसलिये महाव्रत कहे जाते हैं ॥३०॥ गाथार्थ-वचन-गुप्ति, मनो-गुप्ति, ईर्या-समिति आदान-निक्षेप · समिति और आलोकित-पान ये पाँच अहिंसाव्रत की भावनाएं हैं ॥३१॥ ___विशेषार्थ-वचन गुप्ति अर्थात् वचनको रोकना, मनोगुप्ति अर्थात् मनको रोकना, ईर्या समिति अर्थात् चार हाथ भूमि देखकर चलना, सुदाननिक्षेप अर्थात् पुस्तक कमण्डलु आदि उपकरणों को पहले देख कर . तथा मयूरपिच्छी से साफ कर उठाना धरना और अवलोक्य भोजन अर्थात् बार बार देख कर भोजन ग्रहण करना ये पाँच अहिंसा महाव्रत की भावनाएं हैं ॥३१॥ For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ षट्प्राभृते आगे सत्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ कहते हैंकोहभयहास लोहामोहा विवरीयभावणा चैव । विदियस्स भावणाए ए पंचेव य तहा होंति ||३२|| क्रोधभयहासलोभमोहा विपरीतभावनाः चैव । द्वितीयस्य भावना इमाः पञ्चैव च तथा भवन्ति ॥ ३२ ॥ ( कोहभयहास लोहामोहा ) क्रोधश्च भयंच हासश्च लोभश्च मोहश्च क्रोधभयहासलोभमोहा: । ( विवरीय भावणा चेव ) विपरीतभावनाश्चैव । एतेषां पञ्चानां विपरीतभावनाः अक्रोधनः, अभयः, अहासः, अलोभः अमोहरचेति । उक्तं च गौतमेन भगवता - [ २.३२ कोण अोहो भयहस्सविवज्जिदो । अणुवीची भासकुसलो विदियं वदमस्सिदो || १ || अत्रामोह - शब्देनानुवीची भाषाकुशल इति लभ्यते । वीची वाग्लहरी तामनुकृत्य या भाषा वर्तते सानुवीचीभाषा, जिनसूत्रानुसारिणी भाषा अनुवीचीभाषा पूर्वाचार्यसूत्र परिपाटीमनुल्लङ्घय भाषणीयमित्यर्थः । उक्तं उमास्वामिभट्टारकेण - गाथार्थ - अक्रोध, अभय, अहास, अलोभ और अमोह ये द्वितीय-सत्य महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं ॥ ३२ ॥ विशेषार्थं -असत्य बोलने के कारण निम्न प्रकार हैं- कोध, भय, हास्य लोभ और मोह । इनसे विपरीत अक्रोध, अभय, अहास्य, अलोभ और अमोह की भावना होना सत्य महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं। भगवान गौतम ने भी ऐसा ही कहा है। अकोहण - द्वितीय सत्य महाव्रत को धारण करने वाला पुरुष अक्रोधन - क्रोध से रहित, अलोभ- लोभ रहित, भय-विवर्जित, हास्य विवर्जित और अनुवीची भाषा में कुशल होता है। मूल गाथा में जो अमोह शब्द है उसी से अनुवोची - भाषा - कुशल यह अर्थ प्राप्त होता है । वीची पूर्वाचार्यों को वचन रूप तरङ्ग को कहते हैं उसका अनुसरण करते हुए जो भाषा बोली जाती है वह अनुवीची भाषा कहलाती है । अनुवीचि - भाषाका स्पष्ट अर्थ यह है कि जिनागमके अनुसार वचन बोलना । सत्य महाव्रत के धारक पुरुषको सदा पूर्वाचार्योंके द्वारा लिखित शास्त्र - परम्परा का. उल्लङ्घन न करके ही वचन बोलना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रप्राभूतम् ९५ “क्रोघलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीची भाषणं च पञ्च" ( विदियस्स भावणा ) द्वितीयस्य महाव्रतस्य भावनाः । ( ए पंचैव ) इमा: पंचभावनाः । ( होंति ) भवन्ति ||३२|| आगे आचर्यमहाव्रत की पाँच भावनाएँ कहते हैंसुण्णायारणिवासो विमोचितावास जं परोषं च । एसणसुद्धिसउत्तं साहम्मी संविसंवादो ॥३३॥ शून्यागारनिवासो विमोचितावासो यत् परोधं च । सधर्म समविसंवादः ॥३३॥ एषणाशुद्धिसहितं ( सुष्णायारनिवासो ) शून्यागारेषु गिरिगुहात रुकोटरादिषु निवासः क्रियते तथा सति अचौर्य व्रतभावना प्रथमा भवति । ( विमोचितावास ) उद्वसग्रामादिषु विमोचितावासेषु घाट्यादिभिरुद्वसेषु कृतेषु निवासः क्रियतेऽचर्यव्रतस्य भावना द्वितीया भवति । ( जं परोधं च ) परेषामुपरोधो न क्रियते भाटकाद्यधिकं 'स्वामिनोवत्वां स्वयं न निरुष्यतेऽचौयंव्रत -भावना तृतीया भवति परोपरोधस्याकरणमित्यर्थः ( एसणसुद्धिसं उत्तं) एषणाशुद्धिमंयुक्तं सहितं, आगमानुसारेण -२.३४ ] उमास्वामी भट्टारक ने भी कहा है क्रोष — क्रोधत्याग, लोभत्याग, भयत्याग, हास्यत्याग, और अनुवीचीभाषण ये पाँच सत्यव्रत की भावनाएं हैं ॥ ३२ ॥ गाथार्थ - शून्यागार निवास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, एषणाशुद्धि सहितत्व और सधर्माविसंवाद ये पाँच अचीर्यं महाव्रत की भावनाएँ हैं ॥ ३३ ॥ विशेषार्थ - शून्यागार अर्थात् पर्वतों की गुफाओं और वृक्षों की कोटरों आदि में निवास करना अचौर्यंव्रत की पहली भावना है। जो गाँव राजाओं के आक्रमण आदिसे उजड़ हो जाते हैं - वहाँ के निवासी लोग अपना स्वामित्व छोड़ अन्यत्र चले जाते हैं उन्हें विमोचितावास कहते हैं, ऐसे आवासों में निवास करना अचौर्यमहाव्रत को दूसरी भावना है। परोपरोधाकरण ठहरते समय दूसरों को रुकावट नहीं करना, मालिक को अधिक भाड़ा आदि देकर स्वयं किसी स्थानको न घेरना यह अचौर्य महाव्रत की तीसरी भावना है एषणाशुद्धिसे सहित होना अर्थात् चरणानुयोग के अनुसार भिक्षा की शुद्धि रखना उसमें किसी प्रकार के दोष नहीं लगाना अचौर्यमहाव्रत को चौथो भावना है। और सहर्षमयोंके सम्मुख १. स्वामिना म० । For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [२. ३५भैक्ष्यशुद्धिरचौर्यव्रतभावना चतुर्थो भवति । ( साहम्मीसंविसंवादो) सधर्माणां संमुखो भूत्वा सम्यकप्रकारेण विसंवादो विगतसंवादो विवादो न क्रियतेऽचौर्यव्रतभावना पञ्चमी भवति ॥३३॥ आगे ब्रह्मचर्य महाव्रतकी पाँच भावनाएँ कहते हैं महिलालोयणपुव्वरइ सरणससत्तवसहि विकहाहि । पुट्टियरसेहिं विरओ भावण पंचावि तुरियम्मि ॥३४॥ महिलालोकनपूर्वरतिस्मरणसंसक्तवसति विकथाभिः । पुष्टरसैः विरतः भावनाः पञ्चापि तुर्ये ।।३४॥ (महिलालोयण ) महिलाया आलोकन स्त्री-मनोहराङ्ग-निरीक्षणं तस्माद्विरतः पराङ्मुखः । ( पुव्वरइसरण ) पूर्वरत स्मरणं पूर्व या स्त्रीभिः क्रीड़ा तस्याः स्मरणं चिन्तनं तस्माद्विरतः । ( संसत्तवसहि ) स्त्रीणां समीपतरे या वसतिनिवासः तस्माद्विरतः निजशरीरसंस्कार-रहित इत्यर्थः । ( विकहाहि ) विकथाया विरतः स्त्रीरागकथा विवर्जित इत्यर्थः ( पुठ्ठिय रसेहिं विरओ ) पुष्टिकररसस्य सेवा-रहितः वृष्यरसस्यानास्वादक इत्यर्थः यस्मिन् रसे सेविते 'वृषवत् शण्डवत् कामी भवति स रसो वृष्यः कथ्यते वाजीकरणरसं न सेवते । ( भावण पंचावि तुरियम्मि ) एताः पंचापि भावनास्तुरीये चतुर्थ ब्रह्मचर्यव्रते भवन्ति ॥३४॥ होकर सम्यक् प्रकारसे विसंवाद का अभाव करना अर्थात् 'यह वस्तु हमारी है' 'यह तुम्हारी है' इस प्रकार विवाद नहीं करना अचौर्यमहाव्रत की पांचवीं भावना है ॥३३॥ गाथार्थ-महिलालोकन विरति, पूर्वरतिस्मरणविरति, संसक्तवसति विरति, विकथा विरति और पुष्टिरस सेवन-विरति ये पांच ब्रह्मचर्य महाव्रतकी भावनाएं हैं ॥३४॥ विशेषार्थ-स्त्रियोंके मनोहर अङ्गोंके देखने से विरत होना, पहले स्त्रियोंके साथ जो क्रीडा की थी उसके स्मरणसे विरत रहना, स्त्रियों के अत्यन्त निकटवर्ती वसतिका में रहनेका त्याग करना और अपने शरीरकी सजावटसे दूर रहना, स्त्रियों में राग बढ़ाने वालो कथाओंका त्याग करना, और जिस रसके सेवन करने पर वृष अर्थात् सांडके समान मनुष्य कामी हो उठता है ऐसे पुष्टि-कारक रस रसायन आदिके सेवनका त्याग मनाहान की भावना For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ -२. ३५-३६ ] चारित्रप्राभृतम् आगे परिग्रह त्याग महाव्रत की पांच भावनाएं कहते हैंअपरिग्गह समणुण्णेसु सद्दपरिसरसरूवगंधेसु । रायद्दोसाईणं परिहारो भावणा होति ॥३५॥ अपरिग्रहे समनोज्ञषु शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु । रागद्वेषादीनां परिहारो भावना भवन्ति ॥३५।। ( अपरिग्गहसमणुण्णेसु ) अपरिग्रहव्रते, अत्र लुप्तविभक्तिक पदम् । समणुण्णेसु-समनोज्ञेषु मनोज्ञसहितेषु अमनोज्ञेषु चेति शेषः । ( सद्दपरिसरसरूवगंधेसु ) शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु पञ्चेन्द्रियविषयेषु । (रायबोसाईणं) रागद्वेषादीनां रागस्य द्वेषस्य च । आदिशब्दात्पादपूरणमेव । मनोज्ञेषु विषयेषु रागो न क्रियतेऽमनोज्ञेषु विषयेषु द्वेषो न क्रियते । इति रागद्वेषपरिहारः पञ्च भावना भवन्तीति ज्ञातव्यम् ॥३५॥ आगे पांच समितियोंका वर्णन करते हैंइरियाभासा एसण जा सा आदाण चेव णिखेवो। संजमसोहिणिमित्ते खंति जिणा पंच समिदीओ ॥३६॥ ईर्या भाषा एषणा या सा आदानं चैव निक्षेपः । संयमशोधिनिमित्तं ख्यान्ति जिनः पञ्च समितीः ॥३६॥ ( इरिया ) ईर्या समितिः चतुर्हस्तवीक्षितमार्गगमनम्। ( भासा ) भाषासमितिः आगमानुसारेण वचनं ( एसण ) एषणा समितिः चर्मणाऽस्पृष्टस्योद् गाथार्थ-मनोज्ञ और अमनोज्ञ भेदसे युक्त शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध इन पञ्च इन्द्रियोंके विषयोंमें राग-द्वेषका त्याग करना परिग्रह त्यागवतकी पांच भावनाएं हैं ॥३५॥ ' विशेषार्थ-शब्द आदि पञ्च इन्द्रियोंके इष्ट विषयों में राग नहीं करना और अनिष्ट विषयोंमें द्वेष नहीं करना ये पांच अपरिग्रह व्रतकी भावनाएं हैं। गाथामें आया हुआ 'अपरिग्गह' शब्द लुप्तविभक्ति वाला पद है, इसलिये उसका सप्तम विभक्ति रूप अर्थ करना चाहिये। इसी प्रकार 'रायदोसाईणं' में जो आदि पद है वह पाद-पूर्तिका ही कारण है ॥३५॥ पापा-जिनेन्द्र भगवान् ने संयम की शुद्धिके निमित्त ईर्या, भाषा, एषणा, आदान और निक्षेप इन पांच समितियोंका वर्णन किया है ।।३६।। For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षप्रांभृते [ २. ३५-३६गमात्पादिदोष-रहितस्य भोजनस्य पुनः पुनः शोधितस्य प्रासुकस्य भोजनस्य .. ग्रहणं या समितिर्भवति सा तृतीया समितिः । ( आदाण चेव ) आदानं चैव यत्पुस्तककमण्डलुप्रभृतिकं गृह्यते तत्पूर्व निरीक्ष्यते पश्चान्मृदुना मयूरपिच्छेन प्रतिलिख्यते पश्चात् गृह्यते चतुर्थी समितिर्भवति । (णिखेवो ) यत्किचिद् वस्तु पुस्तककमण्डलुमुख्यं क्वचिन्निक्षिप्यते मुच्यते ध्रियते तन्निक्षेप-स्थानं दृष्ट्वा तथैव प्रतिलिख्य च प्रियते । मयूर--पिच्छस्यासन्निधाने मृदुवस्त्रेण कदाचित्तथा क्रियते निक्षेपणा नाम्नी पंचमी समितिर्भवति । ( संजम सोहि णिमित्ते ) एतत्स- . मितिपंचकं संयमस्य महाव्रत-पञ्चकस्य शोधिनिमित्तं भवति । यो मयूरपिच्छं वर्जितः साधुः स मासोपवासादिकं कुर्वन्नपि न शुद्धयतीति श्री कुन्दकुन्दभगवदभिप्रायः । (खंति जिणा पंच समिदीओ ) ख्यान्ति प्रकथयति के ? जिणा-तीर्थंकर परमदेवाः सामान्यकेवलिनः श्रुतकेवलि नश्चेति भावः । किं ख्यान्ति ? पंच समि विशेषार्थ-चार हाथ तक देखे हुए मार्ग में गमन करना ईर्यासमिति है। आगमके अनुसार वचन बोलना भाषासमिति है । चमड़ेसे विना छुए : तथा उद्गम और उत्पादादि दोषोंसे रहित प्रासुक आहारको बार बार शोधकर ग्रहण करना एषणासमिति है। पुस्तक कमण्डलु आदि जिस उपकरण को ग्रहण करना है उसे पहले अच्छी तरह देखा जाता है और फिर बादमें मयूर-पीछोसे उसका मार्जन किया जाता है, यह चौथी आदानसमिति है। और पुस्तक कमण्डलु आदि जो वस्तु छोड़ी तथा रखी जाती है उसे रखनेका स्थान देखकर तथा मयूरपोछीसे मार्जन कर रखना पाँचवीं निक्षेपणासमिति है। कदाचित् मयूरपोछी पासमें न हो तो ( समीपमें विद्यमान क्षुल्लक के ) कोमल वस्त्रसे भी परिमार्जन होता है परन्तु यह कादाचित्क अर्थात् किसी खास परिस्थिति में है । सामान्य रूपसे साधुको मयूर पिच्छीसे युक्त होना ही चाहिये । जो साधु मयूर पिच्छीसे रहित है वह मासोपवास आदि करता हुआ भी शुद्ध नहीं होता है, यह कुन्दकुन्द भगवान् का अभिप्राय है । ये पाँच समितियां, पांच महाव्रतों की शुद्धि के निमित्त हैं इसलिये जिन अर्थात् तीर्थंकर परमदेव, सामान्य केवली और श्रुत केवली इनका कथन करते हैं। यहां पांच समितियोंका संक्षेप से वर्णन किया है, इनका विस्तार श्री वट्टकेर तथा वीरनंदो आदि आचार्योंके द्वारा विरचित आचार ग्रन्थोंमें--मूलाचार, चारित्रसार आदि ग्रन्थोंमें जानना चाहिये । (अन्य ग्रन्थोंमें ईर्या १ भाषा २ एषणा ३ आदाननिक्षेपण ४ और उत्सर्ग ५ इस प्रकार पांच समितियां बतलाई हैं परन्तु यहाँ कुन्द कुन्द For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. ३७ ] चारित्रप्राभृतम् ९९ दीओ पञ्चसमितीरिति तात्पर्यार्थः । विस्तरस्तु वट्टकेर 'वीरनन्द्यादिविरचिता - चार ग्रन्थेषु ज्ञातव्यः ।। ३६॥ आगे 'ज्ञानरूप आत्मा है' यह कहते हैं भव्वजण बोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेह जह भणियं । गाणं णाणसरूवं अप्पाणं तं वियाणेहि ॥३७॥ भव्यजन बोधनार्थं जिनमार्गे जिनवरैर्यथा भणितम् । ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं आत्मानं तं विजानीहि ॥३७॥ ( भव्वजण बोहणत्थं ) सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र - रत्नत्रयप्राप्ति-योग्या ये ते भव्यजनास्तेषां बोघनार्थं सम्बोधननिमित्तं । ( जिणमग्गे ) जिनस्य श्रीमद्भगवदहंत्सर्वज्ञस्य मार्गे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणोपलक्षिते मोक्षमार्गे । ( जिणवरेह जह भणियं ) श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञैर्यथा भणितं प्रतिपादितं । किं तद्भणितम् ? ( गाणं णाणसरूवं ) ज्ञानं व्यवहारनयेन सम्यग्ज्ञानं तथा ज्ञानस्य स्वरूपं स्वभावः । उक्तं च समन्तभद्रेण कविना ज्ञानस्य स्वरूपम् - स्वामी ने आदान और निक्षेप को पृथक् पृथक् समिति मानकर उसने समितिको निक्षेप समिति में गर्भित कर दिया है । गाथार्थ - भव्य जीवों को समझानेके लिये जिन-मार्ग में जिनेन्द्र देवने ज्ञानका जैसा स्वरूप कहा है उस ज्ञान स्वरूप आत्माको जाने ||३७|| विशेषार्थ - ज़ो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नकी प्राप्ति के योग्य होते हैं, वे भव्य कहलाते हैं । उन भव्य जीवों को समझाने के लिये श्रीमान् भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञदेव के मार्ग में अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप लक्षणसे युक्त मोक्षमार्ग में श्रीमान् सर्वज्ञ भगवान् ने व्यवहार नयसे सम्यग्ज्ञानका जैसा स्वरूप कहा है उस ज्ञानस्वरूप आत्मा का हे भव्य ! तू अच्छी तरह विचार कर । सम्यग्ज्ञानका स्वरूप कवि श्री समन्तभद्र स्वामी ने कहा है १. वट्टकेरल म० । २. महाकविना म० । Jain Education' International For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० षट्प्राभृते 'अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् । वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः ।। निःसन्देहं ईदृग्विधं ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं च निश्चयनयेन ( अप्पाणं तं वियाणेह ) आत्मानं तज्ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं च हे भव्य ! त्वं विजानीहि सम्यग्विचारयेति क्रियाकारकसम्बन्धः ।। ३७।। आगे सम्यग्ज्ञानी का लक्षण कहते हैंजीवाजीवविहत्ती जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी । रायादिदोसर हिओ जिणसासणे मोक्खमग्गुत्ति ॥ ३८॥ जीवाजीवविभक्ति यो जानाति स भवेत्संज्ज्ञानः रागादिदोषरहितो जिनशासने मोक्षमार्ग इति ||३८|| [ २.३८ ( जीवाजीव विहत्ती ) जीवस्यात्मद्रव्यस्य, अजीवस्य पुद्गल - धर्माधर्मं कालाकाशलक्षणस्य पञ्चभेदस्य विभक्त विभञ्जनं विचनमिति देश्यात् । ( जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी ) यो जानाति स भवेत् सज्ज्ञान: । ( रायादिदोस रहिओ ) स ज्ञानी कथंभूतः ? रागादिदोषरहितः रागद्वेषमोहादिदोषरहितः । ( जिणसासणेमोक्ख मग्गुत्ति ) जिनशासने मोक्षमार्ग इति ||३८|| अन्यून – जो पदार्थको न्यूनता रहित, अधिकता-रहित, ज्योंका त्यों विपरोत भाव तथा सन्देह के विना जानता है उसे आगमके ज्ञाता सम्यज्ञान कहते हैं । निश्चय नयसे गुण और गुणीमें अभेद रहता है अतः आत्मा उक्त सम्यग्ज्ञान रूप ही है ऐसा जानना चाहिये ||३७|| गाथार्थ - जो जीव और अजीवके विभागको जानता है वह सम्यम्ज्ञानी है, रागादि दोषोंसे रहित है और जिन शासन में मोक्षमार्ग रूप कहा गया है ॥३८॥ विशेषार्थ - आत्मद्रव्यको जीव द्रव्य कहते हैं, पुद्गल तथा धर्म, अधर्म, काल और आकाशके भेदसे अजीव पाँच प्रकार का है। जो इन दोनोंके भेद--पार्थक्यको जानता है वह सम्यग्ज्ञानी है । वह सम्यग्ज्ञानी राग, द्वेष और मोह आदि दोषोंसे रहित है तथा अभेद नयसे वह स्वयं मोक्षमार्ग है ||३८|| १. २० क० समन्तभद्रस्य । For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. ३९.४०] चारित्रप्राभृतम् १०१ दंसणणाणचरित्तं तिण्णिवि जाणेह परमसद्धाए। जं जाणिऊण जोई अइरेण लहंति णिव्वाणं ॥३९॥ दर्शनज्ञानचारित्रं त्रीण्यपि जानीहि परमश्रद्धया। यद्ज्ञात्वा योगिनो अचिरेण लभन्ते निर्वाणम् ॥३९॥ (दसणणाणचरितं ) दर्शनज्ञानचारित्रं ( तिण्णिवि जाणेह परमसद्धाए ) त्रीण्यपि जानीहि परमश्रद्धया प्रकृष्टरुच्या। ( जं जाणिऊण जोई ) यद्ददर्शनज्ञानचारित्रं ज्ञात्वा योगिनः। ( अइरेण लहंति णिवाणं ) अचिरेण स्तोककालेन लभन्ते प्राप्नुवन्ति । किं तत् ? निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षमिति ।।३९।। पाऊण णाणसलिलं णिम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता । होति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा ॥४०॥ प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मलसुविशुद्धभावसंयुक्ताः । भवन्ति शिवालयवासिनः त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः ॥४०॥ (पाऊण णाणसलिलं) प्राप्य ज्ञानसलिलं लब्ध्वा सम्यग्ज्ञानपानीयं ( णिम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता) निर्मलो निरतिचारः, सुविशुद्धो रागद्वेषमोहादिरहितः, भावो निजात्मपरिणामस्तेन संयुक्ताः सहिताः पुरुषः । ( होति सिवालयवासी ) भवन्ति शिवालयवासिनः सर्वकर्मक्षयलक्षणनिर्वाणपदनिवासिनो भवन्ति । (तिहुवणचूडा - गाथार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंको परमश्रद्धा से जानो। क्योंकि इन्हें जानकर योगी शीघ्र ही निर्वाणको प्राप्त हो जाते हैं ।।३९॥ विशेषार्थ-कुन्दकुन्द स्वामी भव्यजीवोंको प्रेरणा करते हैं कि हे भव्य जीवो! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंको उत्कृष्ट रुचि-पूर्वक जानो क्योंकि इन्हें जानकर योगी-मुनिराज थोड़े ही समयमें सर्व कर्म क्षयरूप मोक्षको पा लेते हैं ॥३९॥ . गावार्थ--सम्यग्ज्ञान रूपी जलको पाकर निर्मल और विशुद्धभाव से सहित पुरुष मोक्ष-महलके वासी, त्रिभुवनके चूडामणि सिद्ध होते हैं ॥४०॥ विशेषार्थ-जो मनुष्य सम्यग्ज्ञान रूपी बलको पाकर निरतिचार एवं रागद्वेष मोहादिसे रहित स्वकीय आत्म परिणामसे युक्त होते हैं वे समस्त कोका क्षयकर निर्वाण रूपी प्रासाद में निवास करते हैं। तीन For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते _ [२.४१मणी सिद्धा) त्रिभुवनचूडामणयस्त्रैलोक्यशिरोरत्नानि ते पुरुषाः सिद्धा भवन्तिआत्मोपलब्धिवन्तो भवन्ति ॥ ४० ॥ णाणगुहिं विहीणा ण लहंते ते सुइच्छियं लाहं। इय गाउं गुणदोसं तं सण्णाणं वियाणेहि ॥४१॥ ज्ञानगुणैविहीना न लभन्ते ते स्विष्टं लाभम् । .. . इति ज्ञात्वा गुणदोषौ तत् सज्ज्ञानं विजानाहि ॥ ४१ ॥ ( णाण गुणेहि विहीणा ) ज्ञानमेव गुणो जीवस्योपकारकः पदार्थस्तेन विहीना रहिताः । ( ण लहंते ते सुइच्छियंलाहं ) न लभन्ते न प्राप्नुवन्ति ते सुष्ठु इष्ट लाभं मोक्षं । उक्तञ्च २णाणविहीणहं मोक्खपउ जीव म कासु वि जोइ । बहुयई सलिलविरोलियई कल चोप्पडउ न होइ ॥ १॥ . ( इय गाउं गुणदोसं ) इतिपूर्वोक्तप्रकारेण गुणं दोषं च ज्ञात्वा ज्ञानस्य गुणं, अज्ञानस्य दोषं विज्ञाय । (तं सण्णाणं वियाणेहि ) तत्तस्मात्कारणात्, सत् समीचीनं, ज्ञानं विजानीहीति तात्पर्यार्थः ॥ ४१ ॥ लोकके अग्रभागमें निवास करनेसे चूडामणिके समान जान पड़ते हैं और आत्मोपलब्धिसे युक्त होनेके कारण सिद्ध कहलाते हैं ।। ४०॥ गाथार्थ-ज्ञान गुणसे हीन जीव अत्यन्त इष्ट लाभको प्राप्त नहीं कर सकते । इस प्रकार गुण और दोषको जानकर उस सम्यग्ज्ञानको अच्छी तरह जानो ।। ४१ ॥ विशेषार्य-ज्ञान गुण ही जीवका उपकारक पदार्थ है उससे रहित मनुष्य अतिशय इष्ट जो मोक्ष रूपी लाभ है उसे नहीं प्राप्त कर सकते । जैसा कि कहा है__णाण-ज्ञानसे हीन मनुष्य मोक्षको प्राप्त नहीं हो सकते सो ठीक ही है क्योंकि पानीके विलोने से हाथ चीकना नहीं होता। इस प्रकार ज्ञानके गुण और अज्ञानके दोष जानकर सम्यग्ज्ञानको अच्छी तरह जानो। १. 'सिद्धिः स्वात्मोपलल्धिः प्रगुणगुणगणोच्छादिदोषापहरात् । योग्योपादानयुक्त्या दृषद इह यथा हेमभावोपलिब्धः ।'-सिद्धभक्ती पूज्यपादः । २. परमात्मप्रकाशे योगीन्द्रदेवस्य । For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२. ४२-४३] चारित्रप्राभृतम् चारित्तसमारूढो अप्पासु परं ण ईहए णाणी। पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो ॥४२॥ चारित्रसमारूढ आत्मनः परं न ईहते ज्ञानी। प्राप्नोत्यचिरेण सुखमनुपमं जानीहि निश्चयतः ॥४२॥ ' ( चारित्तसमारूढो ) चारित्रसमारूढश्चारित्र प्रतिपालयन् पुमान् । ( अप्पासु परं ण ईहए णाणो) आत्मनः सकाशात् परमिष्टं स्रग्वनितादिकं न ईहते न वाञ्छति, कोऽसौ ? ज्ञानी ज्ञानवान् पुमान् । उक्तञ्च , समसुख शोलितमनसामशनमपि द्वेषमेति किमु कामाः । स्थलमपि दहति झषाणां किमङ्ग पुनरङ्गमङ्गाराः ॥१॥ ( पावइ अइरेण सुहं ) प्राप्नोत्यचिरेण स्तोककालेन सुखमनन्तसौख्यम् । ( अणोवमं जाण णिच्छयदो) कथंभूतं सुखम् ? अनुपममुपमारहितं जानीहि हे भव्य ! त्वं णिच्छयदो-निश्चयतः निःसन्देहान्निश्चयनयाद्वा ॥ ४२ ॥ एवं संखवेण य भणियं णाणेण वीयरायेण । सम्मत्तसंजमासयदुण्हं पि उदेसियं चरणं ॥४३॥ गाथार्थ-जो ज्ञानी पुरुष चारित्र का पालन करता हआ आत्मा के सिवाय अन्य पदार्थ की इच्छा नहीं करता वह शीघ्र ही अनुपम सुख को प्राप्त होता है, ऐसा निश्चय से जानो ॥ ४२ ॥ विशेषार्य-चारित्र पर आरूढ हुआ अर्थात् चारित्रका पालन करता हुआ ज्ञानी पुरुष आत्मासे अतिरिक्त माला तथा स्त्री आदि अन्य इष्ट पदार्थों की इच्छा नहीं करता सो ठोक ही है क्योंकि कहा है समसुख-जिनका मन समता भावरूपी सुखसे सुवासित हो रहा है उन्हें भोजन भी रुचिकर नहीं होता फिर कामभोग कैसे रुचिकर हो सकते हैं। जैसे कि मछलियों के शरीरको जब खाली जमीन भी जलाती है तब 'अङ्गारोंका तो कहना ही क्या है ? ऐसा ज्ञानी जीव थोड़े ही समय में . अनुपम सुख को प्राप्त होता है यह निश्चयसे-सन्देह रहित अथवा निश्चय नयसे जानो ।। ४२॥ .. गाथार्य-इसप्रकार ज्ञानस्वभावसे युक्त सर्वज्ञ वीतराग देवने सम्यक्त्व और संयमके आश्रयसे सहित दोनों आचारों-दर्शनाचार और चारित्राचारका चारित्र संक्षेप से कहा है ॥४३॥ For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते एवं संक्षेपेण च भणितं ज्ञानेन वीतरागेण । सम्यक्त्वसंयमाश्रयद्वयोरपिउद्देशितं चरणम् ||४३|| ( एवं संखेवेण य) एवममुना प्रकारेण संक्षेपेण च । ( भणियं णाणेण वीयराएण ) भणितं प्रतिपादितं णाणेण ज्ञानेन ज्ञानरूपेण ज्ञानस्वभावेन केवलज्ञानिना सर्वज्ञेन वीतरागेण रागद्वेषमोहादिभिरष्टादशदोष रहितेन । किं भणितं ? ( सम्मत्त संजमासय-. दुहं पि) सम्यक्त्वसंयमाश्रययोर्द्वयोरपि दर्शनाचारचारित्राचारयोर्द्वयोरपि । ( उद्देसियं चरणं ) उद्देशितमुद्दे शमात्र संक्षेपेण चारित्र प्रतिपादितं । विस्तरेण'वट्टकेरादी ज्ञातव्यम् ॥४३॥ १०४ भावेह भावसुद्धं फुडु रइयं चरणपाहुडं चेव । लहु चउगइ चइऊणं अचिरेणऽपुणन्भवा होई ||४४ || भावयत भावशुद्ध स्फुटं रचितं चरणप्राभृतं चैव । लघु चतुगतस्त्यक्त्वा अचिरेणापुनर्भवा भवत ||४४ || ( भावेह भावसुद्धं ) भावयत भावनाविषयीकुरुत यूर्य हे भव्याः । ( फुडु रइयं चरणपाहुडं चेव ) स्फुटं प्रकटार्थं रचितं चरणप्राभृतं चारित्रसारं । चैव विशेषार्थ - चारित्र - प्राभृतका उपसंहार करते हुए श्री कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार ज्ञानस्वभावसे संपन्न केवलज्ञानी - सर्वज्ञ और राग द्वेष मोह आदि अठारह दोषोंसे रहितं वीतराग देवने यहाँ सम्यक्त्व और संयमका आश्रय रखनेवाले दोनों आचारों का - दर्शनाचार और चारित्राचारका उद्देश रूप - नामोल्लेख रूप चारित्रका संक्षेपसे वर्णन किया है। इनका विस्तार वट्टकेर आदिके मूलाचार आदि ग्रन्थों में जानना चाहिये ||४३|| [ २. ४४ गाथार्थ - हे भव्य जीवो ! शुद्धभाव से स्पष्ट रचे हुए चरणप्राभृत तथा दर्शन प्राभृतका खूब चिन्तन करो और उसके फल-स्वरूप शीघ्र ही चतुर्गतियों का त्याग कर स्वल्प कालमें पुनर्भव से रहित सिद्ध हो जाओ ॥ ४४ ॥ विशेषार्थ - कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि हे भव्य जीवो ! हमने चरणप्राभृत ग्रन्थ को रचना शुद्धभाव से को है - रूपाति-लाभ-पूजादि को इच्छासे रहित होकर की है तथा इसमें प्रतिपाद्य पदार्थोंका स्पष्ट निरूपण किया है । अतः इसकी अच्छी तरह भावना करो - इसका खूब १. वट्टकेरलादी म० । For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२.४४] चारित्रामृतम् १०५ शब्दाद्दर्शनावरणं चोद्देशितं । ( लहु चउगइ चइऊणं ) लघु शीघ्र चतुर्गतीस्त्यवत्वा नरकतिर्य मनुष्यदेवगतीश्चतस्रः परिहाय । ( अचिरेण पुणब्भवा होह ) अचिरेण स्तोककालेन इतस्तृतीये भवेऽपुनर्भवाः सिद्धा भवत यूयम् । सिद्धिगति पञ्चमों गतिं प्राप्नुत यूयमिति भद्रम् ॥४४॥ इति श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य वक्रप्रोवाचार्यलाचार्यगृद्धपिच्छाचार्य नामपञ्चकविराजितेन सीमन्धरस्वामि ज्ञानसम्बोषित-भव्य-जीवेन श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारक-पट्टाभरणभूतेन कलिकाल-सर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृते ग्रन्थे सर्वमुनिमण्डलीमण्डितेन कलिकाल गौतमस्वामिना श्रीमल्लिभूषणेन भट्टारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभयभाषा-कवि-चक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दिगुर्वन्तेवासिना सूरिवरश्रीश्रुतसागरेण विरचिता चरणप्राभृतटीका द्वितीया' । सम्पूर्णा चिन्तन-मनन करो और इसके फलस्वरूप नरक-तिर्यञ्च-मनुष्य तथा देव इन चारों गतियोंको छोड़कर इस भवसे तीसरे भवमें ही पुनर्जन्मसे रहित हो जाओ ॥४४॥ इस प्रकार श्री पद्मनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य इन पांच नामोंसे सुशोभित, सीमन्धर स्वामीके ज्ञानसे भव्यजीवोंको सम्बोधित करने वाले श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारक के पट्टके आभरणस्वरूप, कलिकाल सर्वज्ञ कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा विरचित षट्पाहुड ग्रन्थमें समस्त मुनियोंके समूहसे सुशोभित, कलिकालके गौतमस्वामी श्री मल्लिभूषण भट्टारक के द्वारा अनुमत, सकल विद्वत्समाजके द्वारा सन्मानित, उभय-भाषा-सम्बन्धी कवियोंके चक्रवर्ती श्री विद्यानन्द गुरुके शिष्य सूरिवर श्रीश्रुतसागर के द्वारा विरचित चारित्र-पाहुड की टीका सम्पूर्ण हुई। -- १. म प्रती 'द्वितीया' नास्ति । २. समाप्ताम। For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रप्राभृतम् अरहंतभासिय त्थं गणहरदेवेहि गंथियं सम्मं । सुत्तत्थमग्गणत्थं सवणा साहंति परमत्थं ॥ १ ॥ अर्हदुभाषितार्थं गणधर देवैर्ग्रथितं सम्यक् । सूत्रार्थमार्गणार्थं श्रमणाः साधयन्ति परमार्थम् ॥१॥ 1 ( अरहंतभासियत्थं ) अर्हद्भिस्तीर्थकरपरमदेवैर्भाषितोऽर्थः सूत्र भवति । ( गणहरदेवेह गंथियं सम्मं ) गणधरदेवैश्चतुर्भिर्ज्ञानैः सम्पूर्णैरष्टमहाप्रातिहार्य सहितैस्तीर्थकर युवराजः गंधियं पदं रचितं सम्मं सम्यक् पूर्वापर - विरोधरहितं शास्त्रं सूत्रं भवति । ( सुत्तत्थमग्गणत्थं ) सूत्रार्थमार्गणं सूत्रार्थं विचारः सोऽर्थः प्रयोजनं यस्मिन् सूत्रे तत्सूत्रार्थमागंणार्थं । तेन शुक्लध्यानद्वयं भवति । तेन ( सवणा साहंति परमत्थं ) सूत्रार्थेन श्रवणा ( श्रमणाः ) सदृदृष्टयो दिगम्बराः गाथार्थ -- जिसका अर्थ अरहन्त भगवानके द्वारा प्रतिपादित है, गणधर देवों ने जिसका अच्छी तरह गुम्फन किया है तथा शास्त्र के अर्थका खोजना ही जिसका प्रयोजन है, उसे सूत्र कहते हैं। ऐसे सूत्रके द्वारा सम्यग्दृष्टि दिगम्बर साधु अपने परमार्थको साधते हैं ॥१॥ विशेषार्थ - अरहन्त तीर्थंकर परमदेव ने जिसका अर्थं रूपसे प्रतिपादन किया है और चार ज्ञानके धारी, आठ महाऋद्धियों से सहित, तीर्थङ्करों के युवराज स्वरूप समस्त गणधरों ने जिसकी द्वादशाङ्ग रूप रचना की है उसे सूत्र कहते हैं । यह सूत्र अर्थात् शास्त्र पूर्वा-पर विरोधसे रहित होता है । सूत्र- प्रतिपादित अर्थ की खोज करना ही शास्त्रका प्रयोजन है । इसके चिन्तन से पृथक्त्व - वितर्क - वीचार और एकत्व - वितर्क ये दो शुक्लध्यान होते हैं । सूत्रार्थंके चिन्तन से सम्यग्दृष्टि निर्ग्रन्थ साधु परमार्थं रूप मोक्षको साधते हैं, अपने वश करते हैं । इस तरह सूत्र मोक्षका कारण है । यद्यपि इस गाथा में 'सूत्र' इस विशेष्य पदका ग्रहण नहीं है तथापि ऊपर से उसकी योजना कर लेनी चाहिये ॥ १ ॥ ( भाव-सूत्र और द्रव्य-सूत्र की अपेक्षा सूत्रके दो भेद हैं, इस गाथामें कुन्दकुन्द स्वामी ने दोनों के लक्षण कहे हैं। तीर्थङ्कर परमदेव के द्वारा प्रतिपादित जो अर्थ है वह भावसूत्र अथवा भावश्रुत है और गणधर देवोंके For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३.२ ] सूत्रप्राभृतम् १०७ परमार्थं मोक्षं साधयन्ति - आत्मवशे कुर्वन्ति, तेन कारणेन सूत्र मोक्ष हेतुरिति भावार्थः ॥ १॥ सुत्तम्मिजं सुदिट्ठे आयरियपरंपरेण मग्गेण । णाऊण दुविहसुत्तं वट्ट सिवमग्ग जो भव्वो ॥ २ ॥ सूत्रे यत् सुदृष्टं आचार्य परम्परेण मार्गेण । ज्ञात्वा द्विविधसूत्र ं वर्तते शिवमार्गे यो भव्यः ||२|| ( सुत्तम्मि जं सुदिट्ठ ) सूत्रे यत् सुष्ठु अतिशयेनावाघिततया वा दृष्टं प्रतिपादितं । ( आइरिय परम्परेण मग्गेण ) आचार्याणां परम्परा श्रेणियंत्र मार्गे स आचार्यपरम्परः आचार्यप्रवाहमुक्तो मार्गस्तेन मार्गेण । कोऽसौ मार्ग इति चेदुच्यते - श्रीमहावीरादनन्तरं श्रीगोतमः सुधर्मो जम्बूश्चेति त्रयः केवलिनः । विष्णुः नन्दिमित्रः अपराजितः गोवर्धनः भद्रबाहुश्चेति पञ्चश्रुतकेवलिनः। तदनन्तरं, विशाखः प्रोष्ठिलः क्षत्रियः जयसेनः नागसेनः सिद्धार्थः धृतिषेण: विजयः बुद्धिलः गङ्गदेवः धर्मसेनः इत्येकादश दशपूर्विण: । नक्षत्र: जयपालः पाण्डुः ध्रुवसेनः कंसाश्चेतिपञ्चैका दशाङ्गघराः । सुभद्रः यशोभद्रः भद्रबाहुः लोहाचार्यः एते चत्वार एकाङ्गधारिणः । जिनसेनः अर्हद्वलिः द्वारा द्वादशाङ्ग रूप जो रचना हुई है वह द्रव्य सूत्र अथवा द्रव्यश्रुत है । दोनों प्रकारके श्रुतों का प्रयोजन परमार्थ साधन अर्थात् मोक्ष प्राप्ति है | ) गाथार्थ - आगम में जिसका अच्छी तरह प्रतिपादन किया गया है। ऐसे द्विविध सूत्र - द्रव्यश्रुत और भाव श्रुतको जो आचार्योंकी परम्परा से युक्त मार्गके द्वारा जान कर मोक्ष - मार्ग में प्रवृत्त होता है, वह भव्य है ||२|| विशेषार्थ - शास्त्रमें अत्यन्त अवाधितरूप से जिस द्रव्य - श्रुत और भावश्रुत का प्रतिपादन किया गया है उसे आचार्य - परम्परासे प्राप्त मार्गके द्वारा अच्छी तरह जानकर जो मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होता है वह भव्य है । आचार्य परम्परासे प्राप्त मार्ग क्या है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि भगवान् महावीर स्वामीके अनन्तर तीन केवली हुए १ श्री गौतम स्वामी २ सुधर्माचार्य और जम्बू स्वामी । इनके बाद १ विष्णु, २ नन्दिमित्र, ३ अपराजित ४ गोवर्धन और ५ भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली हुए । तदनन्तर १ विशाख २ प्रोष्ठिल ३ क्षत्रिय ४ जयसेन ५ नागसेन ६ सिद्धार्थं ७ धृतिषेण ८ विजय ९ बुद्धिल १० गङ्गदेव और For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Poe षट्प्राभृते [३. ३माधनन्दी धरसेनः पुष्पदन्त भूतबलि: जिनचन्द्रः कुन्दकुन्दाचार्यः उमास्वामी समन्तभद्रस्वामी शिवकोटिः शिवायनः पूज्यपादः एलाचार्यः वीरसेनः जिनसेनः नेमिचन्द्रः रामसेनश्चेति -प्रथमाङ्गपूर्वभागज्ञाः । अकलङ्कः अनन्तविद्यानन्दी माणिक्यनन्दो प्रभाचन्द्रः रामचन्द्र एते सुताकिकाः । वासवचन्द्रः गुणभद्र एतौ नग्नौ अन्ते वीराङ्गजश्च । ( णाऊण दुविहसुत्त) ज्ञात्वा द्विविधं सूत्रं अर्थतः शब्दतश्च द्विविधं सूत्रं । ( वट्टाइ सिवमग्गे जो भब्वो) वर्तते शिवमार्गे यो मुनिः स भव्यो रत्नत्रययोग्यो भवति मोक्षं प्राप्नोतीति भावः ॥२॥ सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुदि। सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा गोवि ॥३॥ सूत्रं हि जानानोऽभवस्य भवनाशनं च स करोति । ... सूत्री यथा असूत्रा नश्यति सूत्रेण सह नापि ॥ ३ ॥ ( सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स ) सूत्रं शास्त्रानुक्रमं हि निश्चयेन जानानो जानन्, कस्य सूत्रं, ( अ ) भवस्स-'अभवस्य सर्वज्ञवीतरागस्य । (भवणासणं च ~~~~~~~~~~~~~~~~~ ११ धर्मसेन ये ग्यारह दशपूर्वके धारक हुए। तदनन्तर १ नक्षत्र २ जयपाल ३ पाण्डु ४ ध्रुवसेन और ५ कंस ये पाँच ग्यारह अंग के धारक हुए। तदनन्तर १ सुभद्र २ यशोभद्र ३ भद्रबाहु और ४ लोहाचार्य ये चार एक अंम धारक हुए । तदनन्तर जिनसेन, अहंद्वलि, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, जिनचन्द्र, कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वामी, समन्तभद्रस्वामी, शिवकोटि, शिवायन, पूज्यपाद, एलाचार्य, वीरसेन, जिनसेन, नेमिचन्द्र और रामसेन ये प्रथम अंगके पूर्वभागके ज्ञाता हए। अकलङ्क, अनन्त विद्यानन्दो, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र और रामचन्द्र ये सब उत्तम तार्किक अर्थात् न्यायशास्त्रके उच्च कोटिके विद्वान हए हैं। वासवचन्द्र और गुणभद्र ये दो दिगम्बर साधु हए और अन्तमें वीरांगज नामक साधु हुए* | जो अर्थ और शब्दकी अपेक्षा दो प्रकारके सूत्रको जानता है तथा मोक्षमार्गमें प्राप्ति करता है वह मुनि भव्य है रत्नत्रय के योग्य है तथा मोक्ष प्राप्त करता है ॥२॥ गाथार्थ-जो मनुष्य यथार्थमें सर्वज्ञ देवके शास्त्रको जानता है वह संसारका नाश करता है। जिस प्रकार सूत्र अर्थात् डोरासे रहित सुई नष्ट हो जाती है-गुम जाती है, उसी प्रकार सूत्र अर्थात् शास्त्रसे २. न विद्यते भवो जन्म यस्य तस्य । *आचार्यों के ये नाम कालक्रम से नहीं हैं। For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३. ४ ] सूत्रप्राभृतम् १०९ सो कुर्णादि ) भवस्य संसारस्य नाशनं विनाशं स पुमान् करोति विदधाति तीर्थंकरो भूत्वाऽऽत्मानं प्रकटयति मुक्तो भवतीत्यर्थः । अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन दृढयति - ( सूई जहा असुत्ता णासदि) सूची लोहसूचिका वस्त्रदरका रिका असूत्रा दवरकरहिता नश्यति न लभ्यते । ( सुत्ते सहा णो वि) सूत्रेण सह वर्तमाना सूत्रेण दोरेण सहिता णो विनापि नश्यति हस्ते चटति ॥ ३ ॥ पुरिसो वि जो ससुत्तो ण विणासह सो गओ वि संसारे । सच्चयणपच्चक्रवं णासदि तं सो अविस्समाणो वि ॥४॥ पुरुषोऽपि यः ससूत्रः न विनश्यति स गतोऽपि संसारे । स्वचेतनाप्रत्यक्षेण नाशयति तं सोऽदृश्यमानोऽपि ॥ ४ ॥ ( पुरिसो वि जो ससुत्तो ) पुरुषोऽपि जीवोऽपि यः ससूत्रो जिनसूत्रसहितः । ( णविणासह सो गओ वि संसारे ) न विनश्यति स पुमान् गतोऽपि नष्टोऽपि संसारे. पतितोऽपि पुनरुज्जीवति मुक्तो भवति । ( सच्चेयणपच्चवखं ) आत्मानुभवप्रत्यक्षेण । ( णासदि तं सो अदिस्समाणो वि ) णासदि - नश्यति, अन्तरनर्थोऽयं रहित मनुष्य भी नष्ट हो जाता है— चतुर्गति रूप संसार में गुम जाता है ॥ ३ ॥ विशेषार्थ - जो भव अर्थात् पुनर्जन्म से रहित हैं वे अभव अर्थात् सर्वज्ञ जिनेन्द्र कहलाते हैं । उन सर्वज्ञ- वीतराग जिनेन्द्रके सूत्र - आगमको जो जानता है वह भव अर्थात् संसारका नाश करता है - तीर्थङ्कर होकर अपने आपको प्रगट करता है - मोक्ष को प्राप्त होता है । इसी बात को सुईके दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं। जिस प्रकार वस्त्रमें छेद करने वाली लोहे - की सुई असूत्रा- डोरासे रहित होनेपर नष्ट हो जाती है उसी प्रकार सूत्र - शास्त्र से रहित मनुष्य नष्ट हो जाता है || ३ || गाथार्थ - जो पुरुष ससूत्र है - जिनागमसे सहित है वह संसारमें पड़ कर भी नष्ट नहीं होता है - शीघ्र मुक्तिको प्राप्त हो जाता है । वह स्वयं अप्रसिद्ध होनेपर भी आत्मानुभव के प्रत्यक्षसे उस संसारको नष्ट कर देता है ॥ ४ ॥ विशेषार्थ - जो जीव जिनागम की श्रद्धा और ज्ञानसे युक्त है वह यदि कदाचित् बद्धायुष्क होनेसे नरक तिर्यञ्च आदि गति रूप संसार में पड़ भी जाता है अथवा सम्यक्, दर्शनसे भ्रष्ट होकर अर्धंपुद्गलपरिवर्तन काल तक नाना गतियों में परिभ्रमण भी करता रहता है तो भी वह नष्ट For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० षट्प्राभृते [३. ५-६ प्रयोगः तेनायमर्थः नाशयति तं संसारं स आसन्नभव्यजीवः । कथंभूतः ? अदिस्समाणोवि-अदृश्यमानोऽपि चतुर्विधसंघमध्येऽप्रकटोऽप्यप्रसिद्धोऽपि ॥ ४ ॥ 'सुत्तत्थं जिण भणियं जीवाजीवादि बहुविहं अत्थं । हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सट्ठिी ॥५॥ सूत्रार्थं जिनभणितं जीवाजीवादि बहुविधं अर्थम् ।। हेयाहेयं च तथा यो जानाति स हि सदृष्टिः ।। ५ ।। ( सुत्तत्थं जिणभणियं ) सूत्रस्याथ जिनेन भणितं प्रतिपादितं । ( जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं ) जीवाजीवादिकं बहुविधमर्थ कर्मतापन्नं वस्तु । ( हेयाहेयं च तहा ) हेयं पुद्गलादिकं पञ्चप्रकारं, अहेयमादेयं निजात्मानं तथा तेनैव षड्वस्तुप्रकारेण । ( जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी ) यः पुमान् जानाति वेत्ति स पुमान् हु-.. स्फुटं सदृष्टिः सम्यग्दृष्टिर्भवति ॥ ५ ॥ जं सुत्तं जिणउत्तं ववहारो तह य जाण परमत्यो। तं जाणिऊण जोई लहइ सुहं खवइ मलपुंजं ॥६॥ नहीं होता, पुनः सुमार्गपर आकर मोक्षको प्राप्त करता है। जो मनुष्य अदृश्यमान है-चतुर्विध संघमें अप्रकट अथवा अप्रसिद्ध है वह भी आत्मानुभवके प्रत्यक्ष द्वारा उस संसारको नष्ट कर देता है.।। ४ ।। गाथार्थ-जो जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए सूत्रके अर्थको, जीव अजीव आदि नाना प्रकारके पदार्थ को तथा हेय और उपादेय तत्वको यथार्थरूपसे जानता है वह सम्यग्दृष्टि है ॥ ५॥ . विशेषार्थ-सर्वज्ञ वीतराग जिनेन्द्र ने आगम का जैसा अर्थ प्रतिपादित किया है, जीव अजीव आदि पदार्थोंका जैसा स्वरूप बतलाया है तथा हेय-छोड़नेयोग्य पुद्गलादि पाँच द्रव्योंका तथा अहेय-ग्रहण करने योग्य निज-आत्माका जैसा स्वरूप कहा है उसे जो वैसा ही जानता है वह स्पष्ट ही सम्यग्दृष्टि है ।। ५ ॥ गाथार्थ-जिनेन्द्र भगवान् ने जो सूत्र कहा है उसे व्यवहार और निश्चय रूप जानो । उसे जानकर योगी आत्मसुख को प्राप्त होते हैं तथा पाप-पुञ्जको नष्ट करते हैं ।। ६॥ १. सूतत्वं । २. सूतं म०। For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३.६] सूत्रप्राभृतम् यत् सूत्रं जिनोक्तं व्यवहारं तथा च जानीहि परमार्थम् । तत् ज्ञात्वा योगी लभते सुखं क्षिपते मलपुञ्जम् ॥ ६॥ (जं सुत्तं जिणउत्त) यत्सूत्रं जिनोक्तं । ( ववहारो तह य जाण परमत्यो ) तत्सूत्र व्यवहार जानीहि तथा परमार्थं निश्चयरूपं च जानीहि हे भध्य ! त्वं चेत्थं 'जानीहि । ( तं जाणिऊण जोई ) तत्सूत्र व्यवहार निश्चयरूपं ज्ञात्वा योगी ध्यानी पुमान् । ( लहइ सुहं खवइ मलपुंज ) लभते सुखं निजात्मोत्थं परमानन्दलक्षणं क्षिपते-निर्मूलकाषं कषते मलस्य पापस्य पुज राशि त्रिषष्टिप्रकृतिसमूहं । घातिसंघातघातनं कृत्वा केवलज्ञानमुत्पादयतीति भावः । यथा [ नटो] वंशावष्टम्भं कृत्वाऽभ्यासवशेन रज्जूपरि चलति पश्चादत्यभ्यास वशेन वंशं त्यक्त्वा निराधारतया रज्जूपरि गच्छति तथा व्यवहारावष्टम्भेन निश्चयनयमवलम्बते । तदनन्तरं व्यवहारमपि त्यक्त्वा निश्चयमेवालम्बते इति भावः ॥ ६ ॥ विशेषार्थ-जिनेन्द्र भगवान् ने जिस आगमका वर्णन किया है वह व्यवहार और निश्चयनय रूप है अर्थात् दोनों नयोंके द्वारा पदार्थका निरूपण करने वाला है। जो योगी उस उभयनयात्मक आगमको जानता है वह निजात्मा से उत्पन्न होने वाले परमानन्दरूप सुखको प्राप्त होता है तथा वेसठ प्रकृतियों के समूह को नष्ट कर केवलज्ञानको उत्पन्न करता है। जिस प्रकार नट पहले बांसका सहारा लेकर अभ्यास करता हुआ रस्सीके ऊपर चलता है पीछे पूरा अभ्यास हो जाने पर वह बांस छोड़कर निराधार हो रस्सीपर चलने लगता है, उसी प्रकार से यह मनुष्य पहले व्यवहार नयके आलम्बन से निश्चयनयका आलम्बन करता है, पीछे व्यवहार को भी छोड़कर एक निश्चयका ही आलम्बन करता है ।।६॥ . . [जिनागमका उपदेश व्यवहार और निश्चय दोनों नय-रूप है, अतः पात्रकी योग्यताको देखते हुए जहां जिसकी आवश्यकता दोखे उसको मुख्य करके उपदेश देना चाहिये। जिस समय एक नयको मुख्य किया जाता है उस समय दूसरे नयको गौण तो किया जा सकता है परन्तु अपरमार्थ समझ कर सर्वथा त्याज्य नहीं माना जा सकता।] १. वेत्य म०। २. निर्मूल म०। ३. सूतत्य For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ षट्प्राभृते [ ३.७ 'सुत्तत्थपय विणट्ठो मिच्छादिट्ठी हु सो मुणेयव्वो । खेडेवि ण कायव्वं पाणिप्पत्तं सचेलस्स ॥ ७ ॥ सूत्रार्थ पद विनष्टो मिध्यादृष्टिः हि स ज्ञातव्यः । खेलेऽपि न कर्तव्यं पाणिपात्रं सचेलस्य ॥ ७ ॥ ( सुत्तत्थ पय विट्टो ) सूत्रार्थपद विनष्टः पुमान् । (मिच्छादिट्ठी हु सो मुणेयव्वो ) मिथ्यादृष्टिरिति हु स्फुटं स पुमान् मुनितव्यो (?) ज्ञातव्यः । ( खेडे ). गाथार्थ - जो आगमके पद और अर्थसे विनष्ट है अर्थात् द्रव्यश्रुत की श्रद्धासे रहित है उसे मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये । वस्त्रधारी - गृहस्थको क्रीडामें भी पाणि--पात्रसे आहार नहीं करना चाहिये और न साधु समझ - कर उसे पाणिपात्र आहार देना चाहिये ||७|| 1 विशेषार्थ - जो जिनागमके अर्थ और पद दोनोंसे भ्रष्ट है अर्थात् उनकी श्रद्धासे रहित है वह स्पष्ट ही मिथ्यादृष्टि है । जिनागम की आज्ञा का अनादर कर इच्छानुसार वस्त्रादि धारण करते हुए भी अपने आपको जो मुनि मानता है वह आगम की श्रद्धासे रहित तथा गृहस्थके तुल्य है । १. 'व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थ - प्रतिपादकत्वादपरमार्थोऽपि तीर्थ प्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव । तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेद - दर्शनात् त्रस - स्थावराणां भस्मन इव निःशङ्कमुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद्भवत्येव बन्धस्याभावः । तथा रक्तो द्विष्टो विमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः' । - आत्मख्याति समयसार, गाथा ४६ । 'यद्यप्ययं व्यवहारनयो बहिर्द्रव्यावलम्बनत्वेनाभूतार्थस्तथापि रागादिबहिव्यावलम्बनरहितविशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावस्वावलम्बनसहितस्य परमार्थस्य प्रति-पादकत्वाद्दर्शयितुमुचितो भवति । यदा पुनव्र्व्यवहारनयो न भवति तदा शुद्धनिश्चयनमेन सस्थावरजीवा न भवन्तीति मत्वा निःशङ्कोपमर्दनं कुर्वन्ति जनाः । ततश्च पुण्यरूप - धर्माभाव इत्येकं दूषणं तथैव शुद्धनयेन रागद्वेषमोहरहितः पूर्वमेव मुक्तो जीवस्तिष्ठतीति मुक्त्वा मोक्षार्थमनुष्ठानं कोऽपि न करोति ततश्च मोक्षाभाव इति द्वितीयं च दूषणं । तस्माद् व्यवहारनयव्याख्यानमुचितं भवतीत्यभिप्रायः । - श्री जयसेनाचार्य-कृत तात्पर्यवृत्ति टीका समयसार, गाथा ४६ । For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३.८ ] सूत्रप्राभृतम् ११३ खेलेऽपि क्रीडायामपि ( ण कायव्वं पाणिप्पत्तं ) न कर्तव्यं पाणिपात्रेण भोजनं न विघातव्यम् । कस्य ? ( सचेलस्य ) गृहस्थस्य ॥७ ॥ हरिहरतुल्लो वि णरो सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी । तहवि ण पावइ सिद्धि संसारत्थो पुणो भणिदो ॥ ८ ॥ हरिहरतुल्योऽपि नरः स्वर्गं गच्छति एति भवकोटीः । तथापि न प्राप्नोति सिद्धि संसारस्थः पुनर्भणितः ॥ ८ ॥ ( हरिहरतुल्लो वि णरो ) हरिश्च नारायणो हरश्च रुद्रस्ताभ्यां तुल्यः समानः ऋद्धिमानित्यर्थः । नरः प्राणी मनुष्यः । ( सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी ) दानपूजोपवासादिकं कृत्वा स्वगं देवलोकं गच्छति पश्चाद्भवान्तराणां कोटीरसंख्यानि - भवान्तराणि अनन्तानि वा भवान्तराणि प्राप्नोति दुःखी भवति संसारी स्यात् । ( तह वि. पाव सिद्धि ) तथापि भवकोटी : पर्यटनप्रकारेणापि न प्राप्नोति सिद्धि मोक्षं न लभते । . किं तर्हि भवतीत्याह ( संसारत्थो पुणो भणिदो ) संसारस्थः संसारी पुनर्भणितः सिद्धान्ते प्रतिपादितः । जिनसूत्राभावान्मिथ्यादृष्टिः सन् संसारदुःखं सहते सुखी न भवतीति भावः ॥ ८ ॥ उसे पाणिपात्र आहार नहीं करना चाहिये और न विवेकी मनुष्योंको उसे मुनि समझकर - - कौतूहल बुद्धिसे भी पाणिपात्र आहार देना चाहिये ॥ ॥ गाथार्थ – सूत्र के अर्थ और पदसे भ्रष्ट हुआ मनुष्य विष्णु और रुद्रके तुल्य हाने पर भी — उनके समान ऋद्धिमान् होनेपर भी स्वर्ग जाता है वहाँसे आकर करोड़ों भव धारण करता है परन्तु मोक्षको प्राप्त नहीं कर सकता, वह संसारी ही कहा गया है ॥८॥ विशेषार्थ - जिनागमकी श्रद्धासे रहित मनुष्य हरि हर आदिके समान कितनी ही ऋद्धियों - सम्पत्तियोंका स्वामी क्यों न हो वह दान पूजा उपवास आदि करके पहले स्वर्ग जाता है पीछे असंख्यात अथवा अनन्त भवोंको धारण करता हुआ संसार में दुखी होता रहता है । यद्यपि वह असंख्यात या अनन्त भवोंको प्राप्त होता है तथापि मोक्षको प्राप्त नहीं हो सकता, संसारी ही कहलाता रहता है ॥८॥ ८ For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ षट्प्राभृते [ ३.९ उक्किसीहचरियं बहुपरियम्मो य गुरुयभारो य । जो विहरइ सच्छंद पावं गच्छेदि होदि मिच्छतं ॥ ९ ॥ उत्कृष्टसिहचरितः बहुपरिकर्मा च गुरुकभारश्च । यः विहरति स्वच्छंद पापं गच्छति भवति मिथ्यात्वम् ॥ ९ ॥ ( उक्किट्ठसोहचरियं ) उत्कृष्टं सर्वयतिभ्योऽधिकं सिंहवन्निर्भयत्वेन चरितं चारित्रं यस्य स पुमानुत्कृष्टसिहचरितः । प्राकृतत्वादत्र नपुंसकत्वं । अथवा विहरतीति क्रियाविशेषणत्वाद् द्वितीयैकवचनं नपुंसकत्वं च । ( बहुपरियम्मो य गुरुय भारो य ) बहुपरिकर्मा चानेकतपोविधान- मण्डित-शरीरसंस्कारश्च मुनिगुरुतरभारश्च राजादिभयनिवारकः शिष्याणां पठनपाठनसमर्थो यात्रा - प्रतिष्ठादीक्षादानायुर्वेदज्योतिष्कशास्त्र निर्णयकारकः षडावश्यककर्मकर्मठो धर्मोपदेशनसमर्थः सर्वेषां यतीनां च नैश्चिन्त्यकारको गुरुभार उच्यते ईदृग्विधोऽपि गच्छनायको यतिः । ( जो विहरइ सच्छंद ) यो यतिः स्वच्छन्दं विहरति - जिनसूत्रं न प्रमाणयति (पार्व गच्छेदि होइ मिच्छतं ) स मुनिः पापं गच्छति प्राप्नोति - मिथ्यात्वं तस्य भवतीति तात्पर्यार्थः ॥ ९ ॥ गाथार्थ - जो मुनि सिंहके समान निर्भय रह कर उत्कृष्ट चारित्र धारण करते हैं, अनेक प्रकारके परिकर्म व्रत उपवास आदि करते हैं, तथा आचार्य आदि पदका गुरुतर भार संभालते हैं परन्तु स्वच्छन्द प्रवृत्ति करते हैं, आगम की आज्ञा का उल्लङ्घन करके मनचाही प्रवृत्ति करते हैं, वे पापको प्राप्त होते हैं एवं मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं ||९|| विशेषार्थ - जो सिंहके समान निर्भय रहकर सब मुनियोंसे उत्कृष्ट चारित्र धारण करते हैं, अनेक प्रकारके तपोंसे जिनका शरीर मण्डित है, जो गुरुतर भारको धारण करते हैं, अर्थात् राजा आदिके भयका निवारण करते हैं, शिष्योंके पठन पाठनमें समर्थ हैं, यात्रा-प्रतिष्ठा दीक्षा-दान आयुर्वेद और ज्योतिष शास्त्र के निर्णय करने वाले हैं, छह आवश्यक कार्योंमें कर्मठ हैं, धर्मोपदेश देने में समर्थ हैं, सब मुनियों को निश्चिन्तता प्रदान करने वाले हैं। ऐसे गच्छके नायक होकर भी जो मुनि स्वच्छन्द विहार करते हैं अर्थात् जिनसूत्रको प्रमाण नहीं मानते, वे पापको प्राप्त होते हैं तथा उनकी मिथ्यात्व अवस्था होती है ||९|| १. गरुम म० । For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३. १०-११] सूत्रप्राभृतम् ११५ णिच्चेलपाणिपत्तं उवइटुं परम जिणवारदेहि । एक्को हि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे ॥१०॥ निश्चेलपाणिपात्रमुपदिष्ट परमजिनवरेन्द्रैः। -- एको मोक्षमार्गः शेषाश्च अमार्गाः सर्वे ॥ १० ॥ ( णिच्चेलपाणिपत्त) निश्चलस्य मुनेः पाणिपात्रं करयोः पुटे भोजनमुक्तं । ( उवइठें परम जिणवरिदेहिं ) उपदिष्टं परमजिनवरेन्द्रैस्तीर्थकरपरमदेवैः । ( एक्को हि मोक्खमग्गो ) एक एव मोक्षमार्गो निग्रन्थलक्षणः ( सेसा य अमग्गया सव्वे ) शेषा मृग चर्म वल्कल-कर्पासपट्ट कूल-रोमवस्त्र-तट्ट-गोणीतृण-प्रावरणादिसर्वे, रक्तवस्त्रादि पीताम्बरादयश्च विश्वे, अमार्गाः संसारपर्यटन हेतुत्वान्मोक्षमार्गा न भवन्तीति भव्यजनातव्यम् ॥१०॥ जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि । सो होइ बंदणोओ ससुरासुरमाणुसे लोए ॥११॥ यः संयमेषु सहितः आरम्भपरिग्रहेष विरतः अपि । स भवति वन्दनीयः ससुरासुरमानुषे लोके ॥११॥ (जो संजमेसु सहिओ ) यो मुनिर्न तु गृहस्थः संयमेषु सहितः इन्द्रियप्राणन संयमवान् भवति । ( आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि ) आरम्भाः सेवाकृषिवाणिज्य गावार्थ-तीर्थकर परमदेव ने नग्नमुद्राके धारी निग्रन्थ मुनिको ही पाणिपात्र आहार लेनेका उपदेश दिया है। यह एक निग्रन्थ-मुद्रा ही मोक्षमार्ग है, इसके सिवाय सब अमार्ग हैं-मोक्षक मार्ग नहीं हैं ॥१०॥ विशेषार्थ - तीर्थंकर परमदेव ने निश्चेल-वस्त्र मात्रके त्यागी-निर्ग्रन्थ मुनिको ही कर-पुटमें आहार लेनेका उपदेश दिया है। जिसमें मुनि नग्न . .म्हकर करपुट में ही आहार करते हैं, वह एक निर्ग्रन्थ-वेष ही मोक्षमार्ग है। इसके सिवाय मृगचर्म, वृक्षोंके वल्कल, कपास, रेशम और रोमसे बने वस्त्र, टाट तथा तृण आदिके आवरण ( चटाई आदि ) को धारण करने वाले सभी साधु, तथा लाल वस्त्र और पीले वस्त्रको धारण करने वाले सभी लोग अमार्ग हैं-संसार, परिभ्रमणके हेतु होनेसे मोक्षमार्ग नहीं हैं, ऐसा भव्य जीवों को जानना चाहिये ॥१०॥ . गाथार्ष-जो मुनि संयम से सहित है तथा आरम्भ और परिग्रह से विरत है वही सुर असुर और मनुष्यों से युक्त लोकमें वन्दनीय है ॥११॥ For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [३. १२प्रमुखाः, परिग्रहाः क्षेत्रवास्त्वादयस्तेषु विरतो विरक्तो भवति । अपि शब्दः समुच्चये वर्तते । तेन ब्रह्मचर्यादयो गृह्यन्ते तस्माद् 'ब्रह्मचर्यधरो यति' रिति । वचनात् । ( सो होइ वंदणीओ) स मुनिर्वन्दनीयो भवति । क्व वन्दनीयो भवति ? ( ससुरासुरमाणुसे लोए) लोके त्रिभुवने वन्दनीयो भवति । कथंभूते लोके ? ससुरासुरमानुषे देवदानवमानवसहिते ॥११॥ जे वावोसपरीसह सहति सत्तीसएहिं संजुत्ता। ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू ॥ १२॥ ये द्वाविंशतिपरीषहान् सहन्ते शक्तिशतैः संयुक्ताः । ते भवन्ति वन्दनीयाः कर्मक्षयनिर्जरासाधवः ॥१२|| (जे वावीसपरीसह सहति ) ये द्वाविंशति परीषहान् सहन्ते । ( सत्तीसएहि संजुत्ता ) शक्तीनां शतैः संयुक्ताः । ( ते होंति वंदणीया ) ते भवन्ति वन्दनीया नमोऽस्तु शब्द-योग्याः । ( कम्मक्खयं निज्जरासाहू ) कर्मक्षयनिर्जरासाघवः ये कर्मक्षये निर्जरायां च साधवः कुशला भवन्ति योग्या भवन्तीति भावः ॥१२॥ विशेषार्थ-इन्द्रिय-संयम और प्राण-संयमके भेदसे संयमके दो भेद . हैं। सेवा, कृषि, वाणिज्य आदिको आरम्भ कहते हैं तथा क्षेत्र, मकान आदिको परिग्रह कहते हैं । जो मुनि इन्द्रियसंयम और प्राणो-संयम से सहित है तथा आरम्भ और परिग्रहों से विरत है। साथ ही ब्रह्मचर्य आदि गुणों से यक्त है वही देव दानव और मनुष्यों से सहित लोक में वन्दना करने के योग्य हैं। इसके सिवाय असंयमी, आरम्भ और परिग्रह के जालमें फंसे हुए अन्य साधु सम्यग्दृष्टि के द्वारा वन्दना करने योग्य नहीं है ।।११॥ गाथार्थ-जो बाईस परिषह सहन करते हैं, सैकड़ों शक्तियों से सहित हैं, तथा कर्मोंके क्षय और निर्जरा करने में कुशल हैं, ऐसे मुनि वन्दना करने योग्य हैं ॥ १२ ॥ विशेषार्थ क्षुधा-तृषा-शोत-उष्ण-दंशमशक नाग्न्य-अरति-स्त्री-चर्यानिषद्या-शय्या-आक्रोश-वध-याचना-अलाभ-रोग-तृणस्पर्श- मल-सत्कारपुरस्कार-प्रज्ञा-अज्ञान और अदर्शन ये बाईस परिषह हैं। जो मनि समता भावसे इन बाईस परिषहों को सहते हैं, पक्षोपवाम मासोपवास आदि उग्र तपश्चरण की शक्ति से युक्त हैं और कर्मोंके क्षय तथा निर्जरा में कुशल हैं, वे मुनि वन्दनीय हैं अर्थात् उन्हें 'नमोऽस्तु' कहकर नमस्कार करना चाहिये ॥१२॥ For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३. १३-१४ ] सूत्रप्राभतम् अवसेसा जे लिंगी दंसणणाणेण सम्मसंजुत्ता । चेलेण य परिगहिया ते भणिया इच्छणिज्जाय ॥१३॥ अवशेषा ये लिङ्गिनो दर्शनज्ञानेन सम्यक्संयुक्ताः । चेलेन च परिगृहीतास्ते भणिता इच्छाकारयोग्याः ॥ १३॥ ( अवसेसा जे लिंगी) अवशेषा ये लिङ्गिनः क्षुल्लकगुरवः । ( दंसणणाणेण सम्मसंजुत्ता ) दर्शनज्ञानेन सम्यक्संयुक्ताः । ( चेलेण य परिगहिया ) वस्त्र काराः सकौपीनाश्च, वस्त्रमपि सीवित न भवति, किं तहि ? खण्डवस्त्र घरन्ति ते वस्त्रपरिगृहीताः । ( ते भणिया इच्छणिज्जाय ) ते भणिता इच्छाकारयोग्या नमस्कारयोग्याः ॥१३॥ ११७ इच्छायारम हत्थं सुत्तठिओ जो हु छंडए कम्मं । ठाणे द्वियसम्मत्तं परलोयसुहंकरो होई ॥१४॥ इच्छाकारमहार्थं सूत्रस्थितः यः स्फुटं त्यजति कर्म । स्थाने स्थितसम्यक्त्वः परलोकसुखकरो भवति ||१४|| ( इच्छायारं महत्थं ) इच्छाशब्देन नम उच्यते । कारशब्दस्तु अधःस्थः क्रियते, तेन नमस्कार इति भवति । क्षुल्लकानां वन्दनम् । ( सुत्तठिओ जो हु गाथार्थ - मुनिमुद्रा के सिवाय जो अन्य लिङ्गी हैं, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे सहित हैं, तथा वस्त्रके धारक हैं ऐसे क्षुल्लक-ऐलक इच्छाकारके योग्य कहे गये हैं अर्थात् उन्हें 'इच्छामि' कहकर नमस्कार करना चाहिये ।। १३ ।। विशेषार्थ - दिगम्बर मुनि मुद्रा के सिवाय अन्यलिङ्गधारी-ऐलक क्षुल्लक, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे संयुक्त हैं । ऐलक एकवस्त्रकोपीन धारक हैं और क्षुल्लक कोपीनके सिवाय एक वस्त्र अतिरिक्त भी रखते हैं । इनका यह वस्त्र सिला हुआ नहीं होता, खण्डवस्त्र कहलाता है अर्थात् इतना छोटा होता है कि शिर ढके तो पैर नहीं ढकॅ और पैर ढकें तो शिर नहीं ढके । ऐसे ऐलक और क्षुल्लक इच्छाकर के योग्य कहे ये हैं अर्थात् उन्हें नमस्कार करते समय 'इच्छामि' या इच्छाकार' शब्द का उच्चारण करना चाहिये ॥ १३ ॥ गाथार्थ - जो इच्छाकार के महान् अर्थको जानता है, सूत्र- आगम स्थित होता हुआ आगमको जानता हुमा गृहस्वके आरम्भ आदि कार्यो For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ षप्राभृते [३. १५छंडए कम्मं ) सुत्तढिओ-सूत्रस्थितः समयं जानन् यः पुमान् कर्म त्यजतिगृहस्थकर्म न करोति-वैयावृत्यं विना स्वयं रन्धनादिकं न करोति । (गणे (ट्ठियसम्मत्त) एकादशस्वपि स्थानेषु सम्यकत्वपूर्वको भवति । ( परलोयसुहंकरो होइ ) स्वर्गसौख्यं साधयति-षोडशसु स्वर्गेष्वन्यतमस्वर्गे उत्पद्यते ततश्च्युत्वा निग्नन्थो भूत्वा मोक्ष गच्छति ॥१४॥ अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माई करेदि निरवसेसाई। तहवि ण पावदि सिद्धि संसारत्यो पुणो भणिदो ॥१५॥ अथ पुनरात्मानं नेच्छति धर्मान् करोति निरवशेषाषान् । तथापि न प्राप्नोति सिद्धि संसारस्थः पुनर्भणितः ॥१५॥ (अह पुण अप्पा णिच्छदि ) अथ अथवा पुनरात्मानं नेच्छति आत्मभावनां न करोति । (धम्माई करेइ निरवसेसाई) धर्मान् करोति निरवशेषान् दानपूजा । को छोड़ता है और श्रावकके ग्यारहवें स्थानमें सम्यक्त्व-पूर्वक स्थित है। वह परलोकमें सुखको करने वाला होता है ।।१४। विशेषार्थ-इच्छा शब्द से नमः अर्थ कहा जाता है । कार शब्द उससे नीचे प्रयुक्त होता है अर्थात् कार शब्दका प्रयोग इच्छा शब्दके आगे किया जाता है, इसलिये समस्त इच्छाकार शब्दका अर्थ नमस्कार होता है । इसप्रकार गाथा का अर्थ यह हुआ कि जो इच्छाकार शब्दके महान् अर्थको जानता हुआ क्षुल्लक-ऐलक आदिको इच्छाकार करता हैइच्छामि या इच्छाकार करता हुआ वन्दना करता है, शास्त्रको जानता हुआ पद के विरुद्ध आरम्भ आदि कार्यों का स्पष्ट रूपसे त्याग करता है अर्थात् वैयावृत्यको छोड़कर स्वयं रसोई आदि नहीं बनाता, तथा श्रावकके ग्यारहवें स्थानमें सम्यग्दर्शन के साथ स्थित है अर्थात् सम्यग्दर्शन-पूर्वक श्रावकके ग्यारह स्थानोंका पालन करता है, वह स्वर्गके सुखको साधता है अर्थात् सोलह स्वर्गों में से किसी एक स्वर्गमें उत्पन्न होता है और वहाँ से च्युत हो निम्रन्थ होकर मोक्षको प्राप्त होता है ।। १४ ।। गाथार्थ-जो आत्मा को नहीं इच्छता अर्थात् आत्मा को भावना नहीं करता है, वह भले ही समस्त धर्म कार्योंको करता हो तो भी मुक्ति को प्राप्त नहीं होता । वह संसारी हो कहा गया है ।। १५ ।। विशेषार्थ-'इच्छाकार' शब्द का प्रधान अर्थ आत्मा की इच्छा करना है अर्थात् पर पदार्थसे भिन्न शुद्ध आत्म-तत्त्वकी उपलब्धि मुझे हो ऐसी भावना करना है। जो पुरुष उक्त प्रकारसे आत्माको इच्छा नहीं For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३. १६ ] सूत्रप्राभृतम् तपः-शीलादिकानि निरवशेषाणि समस्तानि पुण्यानि करोति । ( तह विग पावदि सिद्धि ) तथापि पुण्य कर्म प्रकारेणापि सिद्धि मुक्ति न प्राप्नोति । ( संसारत्थो पुणो भणिदो ) संसारस्थः पुनर्भणितः संसारी भवतीति सिद्धान्ते प्रतिपादितम् । उक्तञ्च देवसेनेन भगवता अइ कुणउ तवं पालेउ संजमं पढउ सयलसत्थाई। जाम ण झावई अप्पा ताम ण मोक्खं जिणो भणई ॥ १॥ एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण । जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जइ पयत्तेण ॥१६॥ एतेन कारणेन च तमात्मानं श्रदत्त त्रिविधेन । येन च लभेध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ॥ १६ ॥ (एएण कारणेण य ) एतेन प्रत्यक्षीभूतेन कारणेन हेतुना । चकार उक्तसमुच्चयार्थः, बहिस्तत्वभूतपञ्चपरमेष्ठिकारणसूचनार्थ इत्यर्थः। (तं अण्या सद्दहेह तिविहेण ) तमात्मानं शुद्धबुद्ध कस्वभावमात्मतत्वं श्रद्धत्त यूयं रोचत यूयम्, करता वह दान पूजा तपशील आदि समस्त पुण्य कार्य करता हुआ भी सिद्धिको प्राप्त नहीं होता। उसे आगम में संसारी ही कहा गया है। ऐसा ही भगवान् देवसेन ने कहा है बइ कुणह-अतिशय तप करो, संयम पालो और समस्त शास्त्र पढो परन्तु जब तक आत्माका ध्यान नहीं किया जाता है तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं होता, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं। (आत्म श्रद्धानके बिना दान पूजा तप शील आदि समस्त पुण्य कार्य शुभबन्धके कारण हैं जिनके फलस्वरूप यह जीव देव आदि गतियों में परिभ्रमण करता है। अतः मुक्ति प्राप्त करनेके लिये सर्वप्रथम आत्मस्वरूपकी प्राप्तिका पुरुषार्थ करना चाहिये ) ॥ १५ ॥ ..गायायं-इस कारण उस आत्माका मन वचन कायसे श्रद्धान करो तथा उसीको प्रयत्न पूर्वक जानो जिससे कि मोक्ष प्राप्त कर सको ॥१६॥ . विशेषार्थ-गाथामें आये हुए 'एएण कारणेण' इस पदसे पूर्व गाथाओं में प्रयुक्त संसारभ्रमण आदिका उल्लेख किया गया है। तथा चकारसे बाह्य तत्वभूत पञ्चपरमेष्ठी रूप कारण को सूचना दी गई है इसलिये गाथाका अर्थ यह हुआ कि चूंकि आत्म श्रद्धान के बिना दान पूजा आदि समस्त पुण्य कार्य करने पर भी तथा पञ्चपरमेष्ठी आदि बाब निमित्त मिलने पर भी यह जीव सिद्धिको प्राप्त नहीं होता, संसारी ही कहलाता. For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [३. १७ त्रिविधेन मनोवचनकायप्रकारेण । ( जेण य लहेह मोक्खं ) येन चात्मतत्वेन लभेध्वं मोक्ष सर्व-कर्म-क्षय-लक्षणं परमनिर्वाणं प्राप्नुत यूयम् । अत्रापि चकार उक्त समुच्चयार्थः । तेन स्वर्गसौख्यं यथासंभवं सर्वार्थसिद्धिपर्यतं पूर्व लब्ध्वा पश्चान्मोक्ष लभेध्वम् । (तं जाणिज्जह पयत्तण ) तमात्मानं न केवलं श्रद्धत्त अपि तु जानीत विदांकुरुत चेति । कथम् ? प्रयत्नेन सावधानतया सर्वतात्पर्येणेत्यर्थः ॥ १६ ॥ वालग्गकोडिमित्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं । भुजेइ पाणिपत्ते दिण्णणं इक्कठाणम्मि ॥१७॥ वालाग्रकोटिमात्रं परिग्रहग्रहणं न भवति साधूनाम् । भुञ्जीत पाणिपात्रे दत्तमन्नं एक स्थाने ॥१७॥ ( वालग्गकोडिमत्त) वालस्य रोम्णोऽनकोटिमात्र अग्राग्रमात्र अतीवाल्पमपि । (परिगहगहणं ण हो साहूणं ) परिग्रहस्य ग्रहणं स्वीकारो न भवति साधूनमं रहता है, अतः शुद्ध-वीतराग और बुद्ध-सर्वज्ञ रूप प्रमुख स्वभावसे युक्त उसी आत्मा की मन वचन कायसे श्रद्धा करो, तथा पूर्ण प्रयत्नसे सावधानता-पूर्वक पूर्ण लगनसे उसी आत्माको जानो जिससे सर्व कर्म-क्षय रूप लक्षणसे युक्त परम निर्वाणको प्राप्त कर सको। यहाँ जेण य-येन च शब्दके साथ जो चकारका प्रयोग किया है वह ऊपर कही हई बातका समुच्चय करनेके लिये है। उससे यह अर्थ ध्वनित होता है कि पहले सर्वार्थसिद्धि तकके स्वर्ग सुखको प्राप्त कर पश्चात् मोक्ष को प्राप्त कर सको। [ आत्म-श्रद्धान होने पर भी जब तक चारित्र मोह-जन्य रागका सद्भाव रहता है तब तक यह जीव देवायका बन्ध करके प्रथम स्वर्गसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि तकके सुख भोगता है और पीछे कर्मभूमिज मनुष्य पर्यायमें उत्पन्न होकर चारित्र मोह-जन्य रागका अभाव होने पर समस्त कर्मोका क्षय करके मोक्ष प्राप्त करता है ] || १६ ॥ __गाथार्थ-निग्रन्थ साधुओंके रोमके अग्रभाग की अनीके बराबर भी परिग्रह का ग्रहण नहीं, अतः उन्हें योग्य श्रावकके द्वारा दिये हुए अन्नका हस्तरूप पात्र में भोजन करना चाहिये और वह भी एक ही स्थान पर ॥ १७॥ १. स्वीकारो न करोति न भवति क० । For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३. १८] सूत्रप्राभृतम् १२१ निरम्बर यतीनाम् । ( भुंजेइ पाणिपत्ते ) भुञ्जीत भोजनं कुर्वीत कुर्यात् पाणिपात्रे निजकरपुटे । ( दिण्णणं इक्कठाणम्मि) श्रावकेण दत्त नत्वव्रतीना दत्त भुजीत, प्रासुकभोजनं किल सर्वत्र गृह्यते इति जैनाभासा ब्र वन्ति तदनेन विशेषव्याख्यानेन 'परित्यक्तं भवतीति भावितव्यम् । इक्कठाणम्मि-उद्भो भूत्वा एकवारं भुञ्जीतेति, यो बहुवारं भुङ्क्ते स वन्दनीयो न भवतीति भावार्थः ॥१७॥ जहजायख्वसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्थेसु । जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ॥१८॥ यथाजातरूपसदृशः तिलतुषमात्रं न गृह णाति हस्तयोः। यदि लाति अल्पबहुकं ततः पुनर्याति निगोदम् ॥१८॥ ( जहजाइरूवसरिसो ) यथाजातरूपः सर्वज्ञवीतरागस्तस्य रूपसदृशो नग्नशरीरः । ( तिलतुसमेत्तण गिहदि हत्थेसु ) तिलस्य पितृप्रियकणस्य तुषस्त्वङ्मात्र न गृह णाति हस्तयोरित्युत्सर्गव्याख्यानं प्रमाणमेव किन्तु विशेषार्य-दिगम्बर मुद्राके धारी साधुओंके वालके अग्रभाग की अनीके बराबर अत्यन्त अल्प भी परिग्रह नहीं होता, अतः उन्हें अपने कर-पुटमें ही आहार ग्रहण करना चाहिये। वह आहार भी श्रावक के द्वारा दिया हुआ, न कि अव्रती मनुष्य के द्वारा दिया हुआ, और वह भी एक स्थान पर खड़ा होकर एक ही बार, न कि अनेक बार । श्वेताम्बर कहते हैं कि प्रासुक आहार सब जगह लिया जाता है, चाहे वह व्रतीश्रावक के द्वारा दिया हुआ हो और चाहे अव्रती के द्वारा। परन्तु इस विशेष व्याख्यान से ऐसे आहार का त्याग होता है, ऐसा समझना चाहिये । मुनि खड़े होकर एक ही बार भोजन करते हैं, बार-बार नहीं। जो जैनाभास घर-घर से भिक्षा लाकर अनेक बार खाता है वह वन्दना के योग्य नहीं है ॥ १७ ॥ - गाथार्थ-नग्न-मुद्राके धारक मुनि तिलतुष मात्र भी परिग्रह अपने हाथोंमें ग्रहण नहीं करते । यदि थोड़ा बहुत ग्रहण करते हैं तो निगोद जाते हैं ॥ १८॥ विशेषार्थ-'यथा-जात' तत्काल उत्पन्न हुए बालक को कहते हैं उसके समान जिनका रूप है वे सर्वज्ञ वीतराग हैं। उनके सदृश नग्न शरीरको धारण करने वाले निर्गन्थ साधु अपने हाथोंमें तिलको भुसी १. प्रत्युक्तं म०॥ For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ षट्प्राभृते [३. १८क्वचित्कालानुसारेण सूरिद्रव्यमुपाहरेत् । . गच्छपुस्तकवृद्धयर्थमयाचिंतमथाल्पकम् ॥ इतीन्द्रनन्दिभगवतोक्तं त्वपवाद व्याख्यानम्। तत्रापि स्वहस्तेन न स्पृश्य किन्तु श्रावकादिहस्तेन स्थापनीयम । ( जइ लेइ अप्पबहुयं ) यदि लाति बराबर भी परिग्रह नहीं रखते। यदि कदाचित् अपने उदर पोषण की बुद्धिसे थोड़ा बहुत रखते हैं तो उसके फलस्वरूप निगोद को प्राप्त .. होते हैं। यहाँ संस्कृत टीकाकार ने लिखा है कि यह उत्सर्ग व्याख्यानसामान्य कथन प्रमाण रूप ही है किन्तु इन्द्रनन्दी भगवान् ने जो यह उल्लेख किया है कि क्वचित्-"कहीं आचार्य कालकी परिस्थिति के अनुसार गच्छ तथा पुस्तकों की वृद्धिके लिये उस द्रव्यको भी ग्रहण करते हैं जो बिना याचना के प्राप्त हुआ हो तथा अत्यन्त अल्प हो।" यह अपवाद व्याख्यान है। इस अपवाद मार्गका कथन करते हुए उन्होंने कहा है कि आचार्य उस अयाचित और अल्प द्रव्यको अपने हाथ से न छुए, श्रावक आदि के हाथ में ही रक्खें। अर्थात् उसके स्वामित्व के भागी न बनें ॥ १८॥ [प्रश्न-जब कि मुनि के शरीर है, आहार है, कमण्डलु है, पोछी है, शास्त्र है, तब तिल-तुष मात्र परिग्रह का अभाव किस प्रकार संभव है ? समाधान-मिथ्यात्व-सहित रागभाव से, अपना मानकर विषय कषायको पुष्टि के लिये जिस वस्तुको रखा जाता है उसे परिग्रह कहते हैं। ऐसे परिग्रह का अल्प या बहुत रखनेका निषेध किया है। संयम, शुचि और ज्ञानके उपकरणों का निषेध संभव नहीं है। शरीर, इच्छा करने पर भी आयुपर्यन्त छूट नहीं सकता है इसलिये उसके ममत्व भावके त्यागका ही उपदेश दिया है । यही शरीर रूप परिग्रह का छोड़ना है। जब तक शरीर है तब तक उसकी स्थिरता के लिये आहार आवश्यक है, अतः उसका सर्वथा त्याग नहीं हो सकता। संयम का साधन शरीर से होता है और शरीर की स्थिरता आहार से होती है, अतः चरणानुयोगके अनुसार शुद्ध आहार मुनि ग्रहण करते हैं। मयूर-पिच्छ संयमका उपकरण है उसके बिना जीव जन्तुओं की रक्षा नहीं हो सकती, अतः उसे ग्रहण करना आवश्यक बताया है। कमण्डलु शुचिता का कारण है उसके बिना मल मूत्रादि विसर्जन के समय शरीर की शुद्धि नहीं हो सकती For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३. १८] सूत्रप्राभृतम् १२३ गृह्णात्यल्पंबहुकं वा निजोदरपोषणबुद्धया च। ( तत्तो पुण जाइ निग्गोदं ) ततः पुनति निगोदं प्रशंसनीयगति न गच्छतीत्यर्थः ॥ १८ ॥ और शरीरको शद्धि के बिना शास्त्रका स्पर्श वर्जित होने से स्वाध्याय भी नहीं बन सकता, अतः कमण्डलु रखना मुनिके लिये आवश्यक है। अब रहा शास्त्र सो यह ज्ञानका उपकरण है, अतः इसे मुनि साथ रखते हैं इतना अवश्य है कि स्वाध्याय पूर्ण हो जाने पर वे उसे बिना किसी ममत्व भावके छोड़ देते हैं तथा एक दो-सोमित शास्त्र ही साथ रखते हैं । विशिष्ट अध्ययन के लिये मन्दिर या सरस्वती भवन आदिके अनेक शास्त्रोंका भी उपयोग होता है परन्तु उनके प्रति स्वामित्वका भाव न होने से वे परिग्रह की कोटि में नहीं आते। प्रश्न-मुनि के लिये परिग्रह त्यागका जो उपदेश है, वह उत्सर्ग मार्ग है परन्तु अपवाद मार्गमें वस्त्रादिक उपकरण रखे जा सकते हैं, ऐसा जैनाभास का कहना है । वे कहते हैं कि जिस प्रकार पीछी कमण्डलु और शास्त्र धर्मोपकरण हैं उसी प्रकार वस्त्रादिक भी धर्मोपकरण हैं । जिस प्रकार आहारके द्वारा क्षधाकी बाधा मेटकर शरोर द्वारा संयमका साधन किया जाता है उसी प्रकार वस्त्रादिके द्वारा शीत आदिकी बाधा दूर कर संयमका साधन किया जाता है, अतः वस्त्र और आहारादि परिग्रहमें कोई विशेषता नहीं है ? समाधान-विशेषता क्यों नहीं है ? शरीर की स्थिरताके लिये जिस प्रकार आहार अपरिहार्य है उस प्रकार वस्त्रादि अपरिहार्य नहीं है। वस्त्रादिकके बिना मनुष्य जीवित रह सकता है परन्तु आहार के बिना नहीं रह सकता, अतः वस्त्रादिक और आहारको समानता नहीं है। वस्त्रका ग्रहण मनुष्य अपना विकार भाव छिपाने के लिये करता है, अतः जिसके विकार भावकी संभावना है उसे वस्त्र धारण कर गृहस्थके वेषमें ही रहना चाहिये परिग्रह-त्यागीका उत्कृष्ट वेष रख कर अपनी दुर्बलता को छिपाने के लिये अपवाद मार्ग की कल्पना करना उचित नहीं है। फिर अपवाद मार्ग तो वह है जिसके अपनाने पर भी मुनिपद की रक्षा बनी रहे किन्तु इसके विपरीत जिसके अपनाने पर मुनि पद ही छूट जाय वह अपवाद मार्ग कैसा ? जिनागम में सब प्रवृत्ति को छोड़ ध्यानस्थ हो शुद्धोपयोग में लीन होने को उत्सर्ग मार्ग कहा है और दिगम्बर मुद्रा रख कर पीछी कमण्डलु सहित आहार विहार तथा उपदेशादिक में प्रवृत्ति For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते [ ३. १९ जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स । सो गरहिउ जिण वयणे परिगहरहिओ निरायारो ॥ १९ ॥ यस्य परिग्रहग्रहणमल्पं बहुकं च भवति लिंगस्य । सगर्हणीयो जिनवचने परिग्रहरहितो निरागारः || १९|| ( जस्स परिग्गह गहणं ) यस्य मुनेः श्वेताम्बरादेः परिग्रहग्रहणं शासने भवति ( अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स ) अल्प- अर्द्ध फालिकादिक 'बहुयं - चतुर्विंशत्या - वरणादिकं भवति लिङ्गस्य कपटकपटसितपटादेर्वेषे । ( सो गरहिउ जिणवयणे ) तल्लिङ्गं स वेषो निन्दितोऽप्रशंसनीयो भवति । क्व ? ( जिणवयणे ) - श्रीवर्द्धमानगौतमादिप्रतिपादित सिद्धान्तशास्त्रे । तथा चोक्तं समन्तभद्रेण गुरुणा त्वमसि सुरासुरमहितो ग्रन्थिकसत्वाशयप्रणामा महितः । लोकत्रयपरमहितोऽनाव रणज्योतिरुज्ज्वलधामहितः || १२४ करने को अपवाद मार्ग बतलाया है। इसके विपरीत अन्य अपवाद मार्गकी कल्पना करना शास्त्र सम्मत नहीं है । ] ॥ १८ ॥ गाथार्थ - जिस वेष में थोड़ा या बहुत परिग्रह का ग्रहण होता है वह निन्दनीय है क्योंकि जिनवचन में परिग्रह रहित को ही मुनि बताया है ॥ १९ ॥ विशेषार्थ - जिस श्वेताम्बर आदि मुनिके परिग्रहका ग्रहण बताया है तथा जिस कपट कर्पट या श्वेताम्बर आदिके वेष में अर्द्धफालादिक अल्प तथा चतुर्विंशतिआवरणादिक अधिक परिग्रहं पाया जाता है वह वेष श्री भगवान् महावीर और गौतम आदि गणधरों के द्वारा प्रतिपादित शास्त्रमें निन्दनीय कहा गया है। जैसा कि समन्तभद्र गुरु ने कहा है । त्वमसि हे वीर जिन ! आप सुरों तथा असुरोंसे पूजित हैं, किन्तु परिग्रही प्राणियो के हृदय से प्राप्त होने वाले प्रणाम से पूजित नहीं हैं। आप तीनों लोकोंके प्राणियोंके लिये परम हित रूप हैं, आवरण-रहित केवलज्ञान रूप ज्योति से सहित हैं तथा दैदीप्यमान तेज से हितकारी हैं। यहाँ 'ग्रन्थिकसत्व' शब्दसे श्वेताम्बरों का ग्रहण करना चाहिये क्योंकि प्रभाचन्द्र ने क्रियाकलाप की टीका में ऐसी ही व्याख्या की है । उन श्वेताम्बरों में श्वेताम्बराभास लौंका गच्छ के साघु अत्यन्त निन्द्य हैं १. बहुयं च म० । २. स्वयंभस्तो समन्तभद्रस्य । For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ -३. २०] सूत्रप्राभृतम् अत्र ग्रन्थिकसत्वाः सितपटाः प्रभाचन्द्रेण क्रियाकलापटीकायां व्याख्याताः, सितपटाभासास्तु -'लौकायतिका अतीव निन्द्या अशौचव्यवहारोछिष्टान्नभोजित्वात् । ( परिगहरहिओ निरायारो) परिग्रहरहितो हि मुनिनिरागारोऽनगारो यतिर्भवति यस्मात्कारणादिति शेषः ॥१९॥ पंचमहव्वयजुत्तो तिहिं गुत्तिहिं जो स संजदो होई। णिगंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जो य ॥२०॥ पञ्चमहाव्रतयुक्तः तिसृभिगुप्तिभिर्यः स संयतो भवति । निग्रन्थमोक्षमार्गः स भवति हि वन्दनीयश्च ॥२०॥ ( पंचमहन्वयजुत्तो) पञ्चमहाव्रतयुक्तः प्राणातिपातानृतादत्तपरिग्रहरहितः पुमान् पञ्चमहाव्रतयुक्त उच्यते । यस्तु स्तोकमपि परिगृहीतं करोति सोऽणुव्रतः क्योंकि वे नीच लोगोंके भी उच्छिष्ट अन्नको ग्रहण कर लेते हैं । यथार्थ में परिग्रहरहित मुनि ही मुनि कहलाते हैं । [भगवान् महावीर स्वामी स्वयं निर्ग्रन्थ थे तथा साधुओंके लिये उन्होंने निग्रन्थ वेषका ही प्रतिपादन किया था परन्तु कालदोष से मुनियों के निर्ग्रन्थ वेष में धीरे-धीरे ग्रन्थ-परिग्रह का प्रवेश होता गया। सर्व प्रथम अर्द्धफालिक रूप से मुनियों में परिग्रहका प्रवेश हुआ अर्थात् कुछ मनि आहार के लिये जब नगरों में जाते थे तब कटिसे नीचे का भाग एक वस्त्र से आच्छादित कर लेते थे, आहार के बाद उसे अलग कर देते थे। इन साधुओं को कपटकपट कहा है। इसके अनन्तर कुछ मुनि स्पष्ट रूप से श्वेत वस्त्र धारण करने लगे, वे सितपट या श्वेताम्बर कहे जाने लगे। ये साधु होकर भी वस्त्र पात्र तथा दण्ड आदि परिग्रह रखने लगे। आगे चल कर इन्हीं श्वेताम्बरों में लौका गच्छ के साधु हए जो सितपटाभास या श्वेताम्बराभास कहलाते थे इनका आचार प्रशस्त नहीं था। श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने परिग्रही जीवों का सामान्य उल्लेख करते हुए कहा है कि जिस लिङ्ग-साधु के वेष में थोड़ा या बहुत परिग्रहका ग्रहण है वह वेष गर्हणीय है अप्रशंसनीय है क्योंकि जिनागम में साधु को परिग्रह रहित ही बताया है। ] ॥ १९ ।। ___ गाथार्थ-जो पाँच महाव्रत और तीन गुप्तियोंसे सहित है वही संयत-सयमो-मुनि होता है और जो निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग को मानता है वही वन्दना करनेके योग्य है ॥ २० ॥ १. लोकायतिकाः म०। For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ षट्प्राभृते [३. २१ सागारोऽवतो वा कथ्यते । तेन वस्त्रादौ परिग्रहे सति तत्र यूकालिक्षादयस्त्रीन्द्रिया जीवा उत्पद्यन्ते । यदि ततोऽपनीयान्यत्र क्षिप्यन्ते ततो नियन्ते कथं प्राणातिपातकरहितो निरागारो भवति । अलमिति विस्तरेण, परिग्रहवान् महाव्रती न भवति । ( तिहि गुत्तिहि जो स संजदो होइ ) तिसृभिगुप्तिभियुक्तो यो मुनिः स संयतः संयमवान् भवति । (णिग्गंथ मोक्खमग्गो) निम्रन्थमोक्षमार्ग या मन्यते । ( सो होदि हु वंदणिज्जो ) स भवति हु-स्फुटं वन्दनीयः । ( यः ) सग्रन्थमोक्षमार्ग मन्यते स मिथ्यादृष्टिजेंनाभासश्चावन्दनीयो भवतीति भावार्थः ।। २० ॥ दुइयं च उत्तलिगं उक्किटु अवरसावयाणं च । भिक्खं भमेइ पत्तो समिदिभासेण मोणेण ॥ २१ ॥ द्वितीयं चोक्तं लिङ्गमुत्कृष्टमवरश्रावकाणाञ्च । भिक्षां भ्रमति पात्रः समितिभाषेण मौनेन ॥ २१ ॥ . . विशेषार्थ-जो पुरुष, प्राणातिपात-हिंसा, अनृत-असत्यभाषण, अदत्त-चोरी, सुरत-स्त्रीसंभोग और परिग्रह-अन्तरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रह इन पाँच पापों से सर्वथा विरत होता है वह पञ्चमहाव्रतका धारी कहलाता है। इसके विपरीत जो थोड़ा भी परिग्रह स्वीकृत करता है वह अणुव्रती गृहस्थ अथवा अवतो कहलाता है। जब साधु वस्त्र आदि परिग्रहको स्वीकृत करता है तब उन वस्त्र आदि में चीलर तथा जुएं आदि त्रीन्द्रिय जीव उत्पन्न हो जाते हैं। यदि उन जीवोंको वस्त्र आदि से अलग करके दूसरे स्थान पर डाला जाता है तो वे मर जाते हैं और उनके मरने पर साधु हिंसासे रहित कैसे हो सकता है ? अधिक विस्तार से क्या लाभ है, संक्षेपसे यही समझना चाहिये कि परिग्रही मनुष्य महाव्रती नहीं हो सकता। कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति ये तीन गुप्तियाँ हैं । जो मुनि ऊपर कहे हुए पाँच महाव्रतों तथा तीन गुप्तियोंसे युक्त होता है वह संयमी कहलाता है। साथ ही जो मुनि निम्रन्थनिष्परिग्रह अवस्था को ही मोक्षमार्ग मानता है वह स्पष्ट रूप से वन्दना करनेके योग्य है । इसके विपरीत जो सग्रन्थ-सपरिग्रह अवस्थाको मोक्षमार्ग मानता है वह मिथ्यादृष्टि है, जैनाभास है तथा वन्दना के अयोग्य है ॥ २० ॥ गाथार्थ-दूसरा लिङ्ग उत्कृष्ट श्रावकोंका कहा गया है। यह उत्कृष्ट श्रावक भिक्षाके लिये भ्रमण करता है, पात्र सहित होता है १. पंडित जयचन्द्रजी ने अपनी भाषा वचनिकामें पत्ते पाठ स्वीकृत किया है । For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ —३. २१ ] सूत्रप्राभृतम् ( दुइयं च वुत्तलिंगं ) द्वितीयं चोक्तं लिङ्ग वेषः । ( उक्किट्ठे अवरसावयाणं च ) उत्कृष्टं लिङ्गमवरश्रावकाणां चागृहस्थश्रावकाणाम् । सोऽवरश्रावकः । ( भिक्खं भमेइ पत्तो ) भिक्षां भ्रमति पात्रसहितः कम्भोजी वा । ( समिदिभासेण मोणेण ) ईयासमितिसहितः मौनवांश्च, उत्कृष्टश्रावको दश मैकादशप्रतिमाः प्राप्तः । उक्तञ्च समन्तभद्रेण यतिना । आद्यास्तु षड्जघन्याःस्युर्मध्यमास्तदनु त्रयः । शेषो द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने ॥ १ ॥ एकादशके स्थाने ह्य ुत्कृष्टः श्रावको भवेद् द्विविधः । वस्त्र घरः प्रथमः कौपीनपरिग्रहोऽन्यस्तु ॥ २ ॥ अथवा हाथ में भी भोजना करता है और भिक्षाके लिये भ्रमण करते समय भाषासमिति रूप बोलता है अथवा मौन रखता है ॥ २१ ॥ विशेषार्थ – मुनिलिङ्ग के सिवाय दूसरा लिङ्ग उत्कृष्ट श्रावकका कहा गया है । प्रतिमाओं की अपेक्षा श्रावकों के ग्यारह भेद हैं उनमें प्रारम्भ की छह प्रतिमाओं के धारक मनुष्य गृहस्थ श्रावक कहलाते हैं और आगे की पाँच प्रतिमाओंके धारक अगृहस्थ श्रावक माने जाते हैं । अगृहस्थ श्रावकों में दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाके धारक उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं । परन्तु दशमप्रतिमाधारी श्रावकका कोई लिङ्ग-वेषनहीं होता अतः यहाँ उत्कृष्ट श्रावक से ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक का ही ग्रहण समझना चाहिये । ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक उत्कृष्ट श्रावक क्षुल्लक अथवा ऐलक भिक्षा के लिये भ्रमण करता है यह पात्र से सहित होता है अर्थात् पात्र में भोजन करता है और ऐलक की अपेक्षा हस्त पुटमें ही भोजन करता है। मूल गाथा के अनुसार भाषा समितिसे बोलता है अथवा मौन पूर्वक भ्रमण करता है । परन्तु संस्कृत टीका के अनुसार यह उत्कृष्ट श्रावक ईर्या समिति से चलता है और मौन रख कर ही भ्रमण करता है । श्रवकों के भेदों का वर्णन करते हुए श्री महाकवि समन्तभद्र ( ? ) सोमदेव ने कहा भी है · आद्यास्तु - जिन शासन में प्रारम्भ के छह श्रावक जघन्य, उसके बादके तीन श्रावक मध्यम तथा अन्त के दो श्रावक उत्तम कहे गये हैं ॥ १ ॥ एकादशके - यारहवें स्थान में जो उत्कृष्ट श्रावक है वह दो प्रकार १. अस्म स्वावे सोमदेवेनेति युक्तं भाति (म० टि० ) For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभृते [३. २२कोपीनोऽसौ रात्रिप्रतिमायोगं करोति नियमेन । लोचं पिच्छं धृत्वा भुङ क्ते ह्य पविश्य पाणिपुटे ॥ ३ ॥ वीरचर्या च सूर्यप्रतिमा त्रैकाल्ययोगनियमश्च । सिद्धान्तरहस्यादिष्वध्ययनं नास्ति देशविरतानाम् ॥ ४ ॥ लिंग इत्थीणं हवदि भुजइ पिडं सुएयकालम्मि । अज्जिय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुजेइ ॥२२॥ लिङ्ग स्त्रीणां भवति भुङ क्ते पिंड स्वेककाले। आर्यापि एकवस्त्रा वस्त्रावरणेन भुङ्क्ते ॥ २२ ॥ (लिंग इत्थीणं हवदि ) तृतीयं लिङ्ग वेषः स्त्रीणां भवति । ( भुंजइ पिउँ सुएयकालम्मि ) भुक्ते पिण्डमाहारं सुष्छु निश्चलतया एककाले दिवसमध्ये एकवारम् । ( अज्जिय वि एक्कवत्था ) आर्यापि एकवस्त्रा भवति अपि शब्दात् ।। का होता है १ क्षुल्लक और ऐलक । पहला एक वस्त्र तथा कौपीन को धारण करता है और दूसरा कोपोनमात्र ही रखता है ॥ २ ॥ कोपीनोऽसौ-मात्र कोपीन को धारण करने वाला ऐलक रात्रि में प्रतिमा योग धारण करता है, नियम से केशलोंच करता है, पीछी रखता है और बैठ कर हस्त-पुटमें आहार करता है ॥ ३ ॥ बोरचर्या–वीर चर्या-मुनियों की तरह च के लिये निकलना, सूर्य प्रतिमा-दिन में नग्न होकर प्रतिमायोग धारण करना, शीत, उष्ण और ग्रीष्म ऋतुमें योगधारण करना और सिद्धान्त तथा प्रायश्चित्त आदि शास्त्रोंका अध्ययन करना श्रावकों के लिये निषिद्ध है ॥ ४ ॥॥२१॥ गाथार्थ-तीसरा लिङ्ग स्त्रियों का है इस लिङ्ग को धारण करने वाली स्त्री दिनमें एक ही बार आहार ग्रहण करती है। वह आर्यिका भी हो तो एक हो वस्त्र धारण करे और वस्त्र के आवरण सहित भोजन करे॥२२॥ विशेषार्थ--स्त्रियोंमें उत्कृष्ट वेषको धारण करने वाली आर्थिका और क्षुल्लिका दो हैं। दोनों ही दिन में एक बार आहार लेती हैं। आर्यिका मात्र एक वस्त्र-सोलह हाथ की एक सफेद साड़ी रखती है और अपि शब्दसे ध्वनित होता है कि क्षुल्लिका एक साड़ी के सिवाय एक ओढ़ने की चद्दर भी रखती हैं। भोजन करते समय एक साड़ी रख कर For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३. २३ ] सूत्रप्राभृतम् १२९ क्षुल्लिकापि संव्यानवस्त्रेण सहिता भवति । ( वत्थावरणेण भुजेइ ) भोजनकाले एक शाटकं धृत्वा भुङ्क्ते संव्यानमुपरितनवस्त्रमुतायं भोजनं कुर्यादित्यर्थः ॥२२॥ ण वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो । णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥ नापि सिध्यति वस्त्रधरो जिनशासने यद्यपि भवति तीर्थकरः । नग्नो विमोक्षमार्गः शेषा उन्मार्गकाः सर्वे ॥ २३॥ ( ण वि सिज्झइ वत्थधरो ) नापि सिद्धयति नैव सिद्धिमात्मोपलब्धिलक्षणं मुक्ति लभते वस्त्रधरो मुनिः । ( जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो ) जिनशासने श्रीवर्धमान स्वामिनो मते यद्यपि भवति तीर्थंकरः तीर्थंकरपरमदेवोऽपि यदि भवति । गर्भावतारादिपञ्चकल्याणवानपि सिद्धो न भवति, आस्तां तावदन्योSaगार केवल्यादिकः । ( णग्गो विमोक्खमग्गो ) नग्नो वस्त्राभरणरहितो विमोक्ष ही दोनों भोजन करती हैं । अर्थात् आर्यिका के पास तो एक साड़ी है पर क्षुल्लिका ऊपर का वस्त्र ( चद्दर) उतार कर भोजन करती है ॥२२॥ गाथार्थ - जिन शासन में कहा है कि वस्त्रधारी पुरुष सिद्धि को प्राप्त नहीं होता भले ही वह तीर्थंकर भी क्यों न हो ? नग्न वेष ही मोक्ष - मार्ग है शेष सब उन्मार्ग हैं, मिथ्या मार्ग हैं ||२३|| विशेषार्थ - श्री अन्तिम तीर्थंकर श्रीवर्धमान स्वामी के मत में कहा गया है कि यदि तीर्थंकर भी हो अर्थात् गर्भावतरण आदि पञ्च कल्याणकों के धारक तीर्थंकर परम देव भी हों तो भी वस्त्र के धारक मुनि स्वात्मोपलब्धि रूप लक्षणसे मुक्त - सिद्धि को प्राप्त नहीं हो सकते। जब तीर्थंकर भी सवस्त्र अवस्था में सिद्ध नहीं हो सकते तब अन्य अनगार केवली आदिकी बात तो दूर हो रही । वस्त्राभूषणसे रहित नग्न वेष ही विशिष्ट मोक्षका मार्ग है ऐसा जानना चाहिये । शेष श्वेताम्बरादिकों के मत उन्मार्ग रूप हैं, निन्दनीय हैं और मिथ्या रूप हैं, ऐसा विद्वानोंको जानना चाहिये ॥२३॥ [ तीर्थंकर भगवान् नियम से मोक्षगामी हैं परन्तु जब तक वे गृहस्थ अवस्था में रहते हैं - वस्त्राभूषण आदि परिग्रह धारण करते हैं तब तक मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते। जब तीर्थंकर जैसे महापुरुषों को भी मोक्षप्राप्ति के उद्देश्य से नग्न होना पड़ता है - समस्त परिग्रह का त्याग करना पड़ता है, तब साधारण पुरुषों की तो बात ही क्या है ? नग्न होना बाह्याभ्यन्तर परिग्रह के त्याग का उपलक्षण है, अतः परिग्रह के रहते For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते १३० [३. २४मार्गः ज्ञातव्यः । ( सेसा उम्मगया सव्वे ) शेषाः सितपटादीनां मार्गाः सर्वेऽपि उन्मार्गकाः कुत्सिता मिथ्यारूपा मार्गा -'जानीया विद्वद्भि रित्यर्थः ॥ २३॥ . लिगम्मि य इत्थीणं यथणंतरे णाहिकक्खदेसेसु। . भणिओ सुहुमो काओ तासं कह होइ पव्वज्जा ॥२४॥ . लिङ्गे च स्त्रोणां स्तनान्तरे नाभिकक्षादेशेषु । भणितः सूक्ष्मः कायस्तासां कथं भवति प्रव्रज्या ॥२४॥... (लिंगम्मि य इत्थीणं ) लिङ्ग योनिमध्ये स्त्रीणां योषिताम् । ( थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु ) स्तनान्तरे द्वयोः स्तनयोर्मध्ये वक्षः प्रदेशे, नाभिकक्षादेशेषु नाभी तुन्दिकायां, कक्षादेशयोर्बाह्याः मूलयोर्द्वयोः स्थानयाः ( भणिो सुहुमो काओ) भणित आगमे प्रतिपादितः, कोसो भणितः ? सूक्ष्मः कायः सूक्ष्मजीवशरीर लोचनाधगोचरः सूक्ष्मः पञ्चेन्द्रियपर्यन्तो जीववर्गः ( तासं कह होइ पव्वज्जा) तासां स्त्रीणां कथं भवति प्रव्रज्या दीक्षा अपि तु न भवति । यदि प्रव्रज्या म भवति तहिं कथं पञ्च महाव्रतानि दीपन्ते ? सत्यमेतत् सज्जाति ज्ञापनार्थ महाप्रतानि उपचर्यन्ते स्थापना न्यासः क्रियते इत्यर्थः । तथा चोक्तं शुभचन्द्रेण महाकविना हुए मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इतना स्पष्ट होते हुए भी जो श्वेता. म्बर, सवस्त्र सुक्ति मानते हैं उनका वैसा मानना उन्मार्ग हो है ।] गाथार्थ-स्त्रियों की योनि में, स्तनों के बीच में, नाभि और कांख में सूक्ष्म शरीर के धारक जीव कहे गये हैं अतः उनके दीक्षा कैसे हो सकती है ॥२४॥ विशेषार्थ-स्त्रियों के लिङ्ग अर्थात् योनि में, दोनों स्तनोंके बीच वक्ष-स्थलमें, नाभि और बहुमूल में सूक्ष्म-दृष्टि-अगोचर पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त तक के जीव आगम में कहे गये हैं । अतः उनके दीक्षा नहीं हो सकती है। प्रश्न-यदि स्त्रियोंके दीक्षा नहीं होती तो उन्हें पञ्च महाव्रत क्यों दिये जाते हैं ? उत्तर-यह सत्य है किन्तु सज्जाति को बतलाने के लिये महाव्रतोंका उपचार होता है, यथार्थ में महाव्रत न होने पर भी उनकी स्थापना की जाती है। १. मार्गा शेया जानीया म०। For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३. २५ ] सूत्रप्रामृतम् १३१ -'मैथुनाचरणे मूढ ! प्रियन्ते जन्तुकोटयः । योनिरन्ध्रसमुत्पन्ना लिङ्गसंघट्टपीडिताः ॥१॥ कियन्तो जन्तवो म्रियन्त इति चेत् ? घाते घाते असंख्येयाः कोटयः । “पाए घाए असंखेज्जा" इति वचनात् । जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सा वि संजुत्ता। घोरं चरिय चरित्तं इत्थीसु ण पव्वया भणिया ॥२५॥ यदि दर्शनेन शुद्धा उक्ता मार्गेण सापि संयुक्ता । घोरं चरित्वा चारित्रं स्त्रीषु न प्रव्रज्या भणिता ।।२५॥ जैसा कि महाकवि शुभचन्द्र ने कहा है मैथुनाचरणे-अरे मूर्ख प्राणी ! स्त्रियों के साथ मैथुन करने में उनके योनिरूप छिद्र में उत्पन्न हुए करोड़ों जीव लिङ्गके आघात से पीड़ित होकर मरते हैं। . प्रश्न-कितने जीव मरते हैं ? उत्तर-प्रत्येक आघात में असंख्यात करोड़। क्योंकि आगमका वचन है 'घाए घाए असंखेज्जा' अर्थात् लिङ्ग के प्रत्येक आघात में असंख्यात करोड़ जीव मरते हैं ॥२४॥ ___ गावार्थ-यदि स्त्री सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है तो वह भी मार्ग से युक्त १. ज्ञानार्णवे शुभचन्द्रस्य । २. ग प्रती एवं टिप्पणी वर्तते–'यदि दर्शनेन सम्यक्त्वेन शुद्धा निर्मला सा स्त्री मार्गे संयुक्ता उक्ता कथिता घोरं उन चरित्र चरित्वा आश्रयित्वा, स्त्रीषु निःपापा भणिता'। . पं० जयचन्द जी ने भी हिन्दी वचनिकामें 'पावया' को छाया 'पापका' स्वीकृत कर गाथाका यह अर्थ किया हैस्त्रीनि विषं जो स्त्री, दर्शन कहिये यथार्थ जिनमत की श्रद्धा करि शद्ध है सो भी मार्गकर संयुक्त कही हैं। जो घोर चारित्र तीव्र तपश्चरणादिक आचरण कर पापते रहित होय है तातें पाप-युक्त न कहिये। भावार्थस्त्रीनि विर्षे जो स्त्री सम्यक्त्व करि सहित होय और तपश्चरण कर तो पाप-रहित होय स्वर्ग • प्राप्त होय तातै प्रशंसा योग्य है अर स्त्री पर्याय मोक्ष माहीं। For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ षट्प्राभृते [३. २५(जइ दंसणेण सुद्धा ) यदि दर्शनेन सम्यक्त्वरत्नेन शुद्धा निर्मला भवति । (उत्ता मग्गेण सा वि संजुता ) तदा मार्गेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणेन सापि . स्त्री च संयुक्ता भवति-पञ्चमगुणस्थानं प्राप्नोति, स्त्रीलिङ्ग छित्वा स्वर्गाने देवो भवति, ततश्च्युत्वा मनुष्यभवमुत्तमं प्राप्य मोक्षं लभते । उक्तं च । सम्यग्दर्शनसंशुद्धमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरोजसम् ।। अवि य वधो जीवाणं मेहुणसण्णाए होदि बहुगावं । तिलणालीए तत्तायसप्पवेसो व्व जोणीए ॥३५॥ त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति ४० हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । बहवो जीवा योनी हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ॥१०॥ पुरुषार्थ कही गई है। वह कठिन चारित्रका आचरण करके स्वर्ग में उत्पन्न होती है, अतः स्त्रियों के दीक्षा नहीं कही गई है ॥२५॥ .. विशेषार्थ-यदि स्त्री सम्यग्दर्शन रूपी रत्न से शुद्ध है तो वह सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी मार्ग से युक्त होती हुई पञ्चम गुणस्थान को प्राप्त होती है तथा स्त्रीलिङ्ग छेद कर स्वर्ग के अग्रभाग में देव होती है, वहां से च्युत होकर उत्तम मनुष्य भव प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होती है । जैसा कि कहा है सम्यग्दर्शन-सम्यग्दर्शन से शुद्ध चाण्डालको भी गणधरादिक देव, भस्म से छिपे हुए अङ्गार के समान अभ्यन्तर तेजसे युक्त देव कहते हैं। स्त्री यदि स्वर्ग भी जाती है तो स्त्री लिङ्ग को प्राप्त नहीं होती। यह भी महाकवि समन्तभद्र ने कहा है ३. 'यमिभिर्जन्म निविण्णर्दूषिता यद्यपि स्त्रियः । तथाप्येकान्ततस्तासां विद्यते नाघसंभवः ॥५६॥ ननु सन्ति जीवलोके काश्चिच्छमशीलसंयमोपेताः । निजवंशतिलकभूताः श्रुतसत्यसमान्विता नार्यः ॥५७॥ सतीत्वेन महत्वेन वृत्तने विनयेन च । विवेकेन स्त्रियः काश्विद् भूषयन्ति धरातलम् ॥५४॥ भावार्णके शुभचन्द्रस्य For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ -३. २६] सूत्रप्राभृतम् स्वर्गेऽपि गताः पुनः स्त्रीलिङ्ग न लभते । तदप्युक्तं समन्तभद्रेण महाकविना 'सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यङ्नपुंसक स्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुदरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यवतिकाः ॥१॥ (घोरं चरिय चरित्त ) घोरं कातरजनभीतिजनकं चरित्रं चरित्वा षोडशसु स्वर्गेष्वन्यतमं स्वर्ग यान्ति अहमिन्द्रत्वमपि स्त्रीभवे न लभन्ते कथं मोक्षं स्त्रीभवे प्राप्नुवन्ति । तेन कारणेन ( इत्थीसु ण पावया भणिया ) स्त्रीषु न प्रव्रज्या निर्वाणयोग्या दीक्षा भणिता । इत्यनया गाथया सितपटानां मतं स्त्रीमुक्तिप्राप्तिलक्षणं - परित्यक्तं भवति । मरुदेवी-ब्राह्मी-सुन्दरी-यशस्वती-सुनन्दा-सुलोचना सीता-राजीमती-चन्दना-अनन्तमति द्रौपदीत्यादिकाः स्त्रियः स्वर्गं गता न तु मोक्षमिति । चित्तासोहि ण तेसि ढिल्लं भावं तहा सहावेण । विजदि मासा तेसि इत्थीसु ण संकया साणं ॥२६॥ चित्ताशोधिन तासां शिथिलो भावस्तथा स्वभावेन । विद्यन्ते मासास्तासां स्त्रीषु नाशङ्कया ध्यानम् ॥२६॥ सम्यग्दर्शन शुखा-सम्यग्दर्शन से शुद्ध मनुष्य व्रत-रहित होने पर भी मरक, तिर्यञ्च नपुसक, स्त्री-पर्याय, नीच-कुल, विकलाङ्ग-अवस्था, अल्प वायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होते। स्त्री, भोरु-मनुष्य को भय उत्पन्न करने वाले चारित्रका आचरण करके सोलह स्वर्गों में से किसी स्वर्ग को प्राप्त होती है। स्त्रियां स्त्रीभव में जब अहमिन्द्रपद को प्राप्त नहीं कर सकतीं तब मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकती हैं ? इसी कारण से स्त्रियों में निर्वाण प्राप्ति के योग्य दीक्षा नहीं कही गई है। इस गाथा से श्वेताम्बरीय स्त्री-मुक्तिमत का निराकरण हो जाता है । मरुदेवी, ब्राह्मी, सुन्दरी, यशस्वती, सुनन्दा, 'सुलोचना, सीता, राजीमति, चन्दना, अनन्तमति तथा द्रौपदी आदि स्त्रियाँ स्वर्ग गई हैं, मोक्ष नहीं गई हैं ॥२५॥ - गावार्थ-स्त्रियोंके चित्तकी शुद्धता नहीं है, उनके परिणाम स्वभावसे ही शिथिल रहते हैं, प्रत्येक मासमें उनके रुधिरस्राव होता है और निर्भयता पूर्वक उनके ध्यान नहीं होता ॥२६॥ १. रलकरणश्रावकाचारे। २. प्रत्युक्तं म.क. For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ षट्प्राभृते [ ३.२७ ( चित्तासोहि तसि ) चित्तस्य मनसः आ समन्ताच्छोर्धिनिर्मलता न विद्यते ताषां स्त्रीणाम् । ( ढिल्लं भावं तहा सहावेण ) शिथिलो भाव: परिणामस्तथा स्वभावेन प्रकृत्यैव, कस्मिश्चिद् व्रतादावतिदाढर्यं न वर्तते । ( विज्जदि मासा तेसि ). विद्यन्ते मासा - मासे मासे रुधिरस्रावस्तासां स्त्रीणाम् । ( इत्थीसु ण संकया झाणं ) स्त्रीषु न वर्तते, किं तत् ? अशङ्कया निर्भयतया ध्यानमेकाग्र चिन्तानिरोध लक्षणमिति भावः । " लुक्च" इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेणाकारलोपः । माहेण अप्पगाहा समुद्दसलिले सचेलअत्थेण । इच्छा जाहु णियत्ता ताह णियत्ताइं सव्वदुक्खाई ॥ २७॥ ग्राह्येण अल्पग्राहाः समुद्रसलिले स्वचेलार्थेन । इच्छा येभ्यो निवृत्ता तेषां निवृत्तानि सर्वदुःखानि ||२७|| (गाहेण अप्पगाहा ) ग्राह्येण आहारादिना ये मुनयोऽल्पग्राहाः स्तोकं गृह णन्ति । ( समुद्दसलिले सचेलअत्थेण ) यथा समुद्रसलिले प्रचुरजलाशये सत्यपि स्वचेल विशेषार्थ - यहाँ स्त्रीको दीक्षा क्यों नहीं है । इसके कुछ अन्य कारणों पर प्रकाश डाला गया है । स्त्रीके मनमें सब ओर से शुद्धता का अभाव रहता है अर्थात् निर्मलता का पूर्ण अभाव रहता है। उसके परिणामों में स्वभाव से ढीलापन रहता है अर्थात् किसी व्रत आदि में उसके अत्यन्त दृढ़ता नहीं रहती है । प्रत्येक मासमें रुधिरस्स्राव होता है तथा भीरु प्रकृति होनेके कारण निःशङ्करूपसे एकाग्रचिन्तानिरोध रूप लक्षणसे युक्त ध्यान भी नहीं होता । गाथा में जो 'ण संकया' पाठ है वहाँ ण अशङ्कया ऐसा पाठ समझना चाहिये क्योंकि 'लुक्च' इस प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'असंकया' यहाँ पर अकारका लोप हो गया है ||२६|| गाथार्थ - जिस प्रकार समुद्रके समान बहुत भारी जलके विद्यमान रहने पर भी अपने वस्त्रको धोने की इच्छा करने वाला मनुष्य थोड़ा ही जल ग्रहण करता है उसी प्रकार मुनि भी गृहस्थों के घर बहुत भारी सामग्री रहने पर भी आवश्यकताके अनुसार आहारा दिकी अपेक्षा अल्प ही ग्रहण करते हैं । यथार्थ में जिनकी इच्छा दूर हो गई है उनके सब दुःख दूर हो गये हैं ||२७|| विशेषार्थ - जिस प्रकार प्रचुर जलाशयके रहते हुए भी अपने वस्त्रको धोनेके लिये थोड़ा ही जल लिया जाता है, अधिक जल ग्रहण से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ नहीं । उसी प्रकार मुनि भी श्रावकों से आहार For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ -३. २७] सूत्रप्राभृतम् प्रक्षालनार्थमल्पमेव जलं गृह्यते किं क्रियतेऽधिकजलग्रहणेन । ( इच्छा जाहु णियत्ता) इच्छा तृष्णा लोभलक्षणा येभ्यो मुनिभ्यो निवृत्ता गता। (ताह णियत्ताई सब्वदुःखाई ) तेषां निवृत्तानि नष्टानि सर्वदुःखानि शारीरमानसागन्तूनि कष्टानि नष्टान्येव' समीपतरसिद्धि-सुखसंभवादिति भावः ॥२७॥ इति श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य वक्रग्रीवाचार्यलाचार्य गुद्धपिच्छाचार्य नामपञ्चकविराजितेन श्री सीमन्धरस्वामि-ज्ञानसम्बोधित-भव्यजनेन श्री जिनचन्द्रसूरि-भट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्नाभृत ग्रन्थे सर्वमुनिमण्डल-मण्डितेन कलिकालगौतस्वामिना श्री मल्लिभूषणेन भट्टारकानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभयभाषाकविचक्रवर्तिना श्री विद्यानन्दि-गुर्वन्तेवासिना सूरिवर श्री श्रुतसागरेण विरचिता सूत्रप्राभृतटोका समाप्तः । आदि अल्प पदार्थ ही ग्रहण करते हैं, अधिक नहीं। वास्तव में जिनकी लोभ रूप इच्छा नष्ट हो चुकी है उनके शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक समस्त दुःख नष्ट ही हो जाते हैं तया मोक्ष सुखकी प्राप्ति अत्यन्त समोप हो जाती है ॥२७॥ इस प्रकार श्री पद्मनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रोवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य इन पांच नामोंसे सुशोभित, सीमंधरस्वामीके ज्ञानसे भव्यजीवोंको सम्बोधित करने वाले, श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारकके पट्टके आभरणभूत, कलिकालके सर्वज्ञ कुन्दकुन्दाचार्यके द्वारा विरचित षट्पाहुड ग्रन्यमें समस्त मुनियोंके समूह से सुशोभित कलिकाल के गौतमस्वामी श्री मल्लिभूषण भट्टारक के द्वारा अनुमत, सकल विद्वत्समाज के द्वारा सम्मानित, उभय भाषा सम्बन्धी कवियों के चक्रवर्ती श्री विद्यानन्द गुरुके शिष्य सूरिवर श्री श्रुतसागर के द्वारा विरचित सूत्रप्रामृत को टोका सम्पूर्ण हुई। For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतम् बहुसत्थ अत्थजाणे संजमसम्मत्तसुद्धतवयरणे। वंदित्ता आयरिए कसायमलवज्जिदे सुद्धे ॥१॥ ... सयलजणबोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेहि जहभणियं। वुच्छामि समासेण य -'छक्कायहियंकरं सुणसु ॥२॥ बहुशास्त्रार्थज्ञायकान् संयमसम्यक्त्वशुद्धतपश्चरणान् । . वन्दित्वाचार्यान् कषायमलवर्जितान् शुद्धान् ॥१॥ सकलजनबोधनार्थ जिनमार्गे जिनवैरर्यथा भणितम् । वक्ष्यामि समासेन च षट्कायहितंकरं शृणु ॥२॥ (बुच्छामि ) वक्ष्यामि कथयिष्यामि । कः ? कर्ता अहं श्री कुन्दकुन्दाचार्यः । किं तत् कर्मतापन्नं ? ( छक्कायहियंकरं ) षट्कायहितंकरं पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायहितकारक शास्त्रं बोधप्राभृताभिधानं शास्त्र। केन कृत्वा वक्ष्यामि ? ( समासेण ) संक्षेपेण । ( सुणषु ) शृगु त्वं हे भव्य ! "विध्यादिसु त्रयाणामेकत्र - गाथार्थ--में अनेक शास्त्र तथा उनके अर्थके ज्ञाता, सयम सम्यक्त्व और शुद्ध तपश्चरण के धारक, कषाय रूपी मलसे रहित तथा निर्मल आचार्यों को नमस्कार करके समस्त मनुष्यों को संबोधने के लिये जिनमार्ग में जिनेन्द्रभगवान् के द्वारा कहे अनुसार संक्षेप से छह कायके जीवोंका हित करने वाला "बोधप्राभूत" नामक ग्रन्थ कहंगा, हे भव्य जीवो! उसे सुनो ॥१२॥ विशेषार्थ-बोधप्राभृत नामक ग्रन्यके मङ्गलाचरण ओर प्रतिज्ञावाक्यको कहते हुए कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि मैं उन आचार्योंको १. सकाय सुहंकरं क० ख० ग००। For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. १-२ ] बोधप्राभृतम् १३७ दुसुयुश्च" इत्यनेन प्राकृतव्याकरणसूत्रेण हि स्थाने सुरादेशः, बहुवचने तु पञ्चम्याः सुणह इत्येवं भवति मध्यमस्य । कथंभूतं बोधप्राभृतं ? ( जिणमग्गे जिणवरेह जह भणियं ) जिनमार्गे जिनशास्त्रे जिनवर : केवलिभिर्यथा येन प्रकारेणायतनादिभिर्भणितं प्रतिपादितं । किमर्थं जिनैर्भणितं ? (सयलजणबोहणत्थं ) सर्वभव्यजीव - सम्बोधननिमित्तं । किं कृत्वा पूर्वं वुच्छामि ? ( वंदित्ता आयरिए ) वन्दित्वाऽऽचार्यान् तृतीयपरमेष्ठिपदस्थान् गुरून् । कथंभूतानाचार्यान् बहु सत्थ अत्थ जाणे अनेक शास्त्र ज्ञायकान् । पुनः कथंभूतानाचार्यान् ( संजम सम्मत्तंसुद्ध तवयरणे ) संयमश्च चारित्र, सम्यक्त्वं च सम्यग्दर्शनं शुद्धं निरतिचारं तपश्चरणं च द्वादशविधं तपो येषां ते संयमसम्यक्त्वशुद्धतपश्चरणास्तान् संयमसम्यक्त्वशुद्धतपश्चरणान् । भूयोऽपि कथंभूतानाचार्यान् ? ( कसायमलवज्जिदे ) क्रोध, मान, माया, लोभ, लक्षणचतुष्कषायमलवर्जितान् कषायोत्पन्नपापरहितानित्यर्थः । अपरं कथंभूतानाचार्यान् ? (सुद्धे ) शुद्धान् षट्त्रिंशद्गुणप्रतिपालनेन निर्मलान् निष्पापान् । के ते षट्त्रिंशद्गुणा इत्याह , नमस्कार करके जो कि अनेक शास्त्र तथा उनके अर्थ के ज्ञाता हैं, सम्यकचारित्र, सम्यग्दर्शन और निरतिचार बारह प्रकारके तपके धारक हैं, क्रोध मान माया लोभ नामक चार कषाय रूपी मलसे रहित हैं और छत्तीस गुणोंके पालक होनेसे निर्मल हैं - निष्पाप हैं; समस्त भव्य जीवों को संबोधने के लिये बोधप्राभृत नामक ग्रन्थको संक्षेप से कहूंगा। यह ग्रन्थ पृथिवी, जल, अग्नि वा और वनस्पति इन पांच स्थाबरों तथा एक त्रस इस प्रकार छहकाय के जीवोंके लिये हितकारी है, तथा जिनमार्ग - जिनशास्त्र में केवलज्ञान से युक्त जिनेन्द्रभगवान् ने जैसा कहा है उसीके अनुसार कहा गया है । आचार्योंके छत्तीसगुण इस प्रकार हैं 'आचारवत्वादि आठ, स्थितिकल्प दश, तप बारह और आवश्यक छह, इस प्रकार कुल मिलाकर आचार्यके छत्तीस गुण माने गये हैं । संस्कृत टीकाकार ने 'आचारवान्' आदि श्लोकोंमें उन्हीं का नामोल्लेख किया है १. अष्टावाचारवत्वाद्यास्तपांसि द्वादश स्थितेः । कल्पा वशावश्यकानि षट् षत्रिशद्गुणाः गुराः ॥ ७६ ॥ For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ षट्प्राभूते आचारवान् श्रुताघारः प्रायश्चित्तासनादिदः । आयापायकथी दोषाभाषकोऽस्रावकोऽपि च ॥१॥ आचारवान् - 'आचार्य को आचारवान् श्रुताधार, प्रायश्चित्तद, आसवादिद, आयापाय कथी, दोषाभाषक, अस्रावक और संतोषकारी होना चाहिये अर्थात् आचार्य में आचारवत्त्व, श्रुताधारत्व, प्रायश्चित्त-दातृत्व, आसनादि- दातृत्व, आयापायकथित्व, दोषाभाषकत्व, अस्रावकत्व और संतोषकारित्व ये आठ गुण होते हैं । इनका खुलासा इस प्रकार है १. आचारवत्व-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्यं इन पाँच आचारों का स्वयं पालन करना तथा दूसरों से कराना आचारवत्व गुण है । २. श्रुताधारवत्य - जिसकी श्रुतज्ञान रूपी संपत्ति की कोई तुलना न कर सके उसे श्रुतधारी अथवा श्रुतज्ञानी कहते हैं। नौ पूर्व, दशपूर्व या चौदह पूर्व तक श्रुत ज्ञानको अथवा कल्प व्यवहार के धारण करने को आधारवत्त्व कहते हैं । ३. प्रायश्चित्तव - प्रायश्चित्त विषयक ज्ञानके रखने वाले को प्रायश्चित्तद कहते हैं जिन्होंने अनेकबार प्रायश्चित्त को देते हुए देखा है और जिन्होंने स्वयं भी अनेक बार उसका प्रयोग किया हो, स्वयं प्रायश्चित्त ग्रहण किया हो अथवा दूसरेको दिलवाया हो वह प्रायश्चित्तद अर्थात् प्रायश्चित्तको देने वाला है। दूसरे ग्रन्थोंमें इस गुणको व्यवहारपटुता कहा है। ४. आसनाविद – समाधि-मरण करने में प्रवृत्त हुए साधक साधुओं को आसन आदि देकर जो उनकी परिचर्या करते हैं वे आसनादिद-आसनादिको देनेवाले कहलाते हैं । इन्हें परिचारी अथवा प्रकारी कहते हैं । ५. आयापायकथी - आलोचना करने के लिये उद्यत हुए क्षपकसमाधि-मरण करने वाले साधु के गुण और दोषों के प्रकाशित करने वाले को आय पायकथी कहते हैं । अर्थात् जो क्षपक किसी प्रकार का अतिचार आदि न लगाकर सरल भावोंसे अपने दोषों की आलोचना करता है उसके गुण को प्रशंसा करते हैं और आलोचना में दोष लगाने वाले के दोष बतलाते हैं, वे आय-लाभ और अपाय-हानि का कथन करने वाले हैं । १. आचारी सूरिराधारी व्यवहारी प्रकारकः । आयापार्यादिगुत्पीडोsपरिस्रावी सुखावहः ॥७७॥ [ ४. १-२ -धननारधर्मामृत अध्याय ९ For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. १-२ ] बोधप्राभृतम् सन्तोषकारी साधूनां निर्यापक इमेऽष्ट च । 'दिगम्बरवेष्यनुद्दिष्टभोजी ( ज्य) शय्याशनोति च ॥ २ ॥ ६. दोषाभाषक - दोष छिपाने वाले शिष्य से दोष कहलवाने की सामर्थ्यं रखने वाले आचार्य को दोषाभाषक कहते हैं । इसका दूसरा नाम उत्पीडक है । जिस प्रकार चतुर चिकित्सक ब्रण के भीतर छिपे हुए विकार को पोडित कर बाहर निकाल देता है उसी प्रकार आचार्य भी शिष्य के छिपाये हुए दोषको अपनी कुशलतासे प्रगट करा लेता है। ७. अस्रावक - जो किसी के गोप्य दोष को कभी प्रगट नहीं करता वह अस्रावक है । जिस प्रकार संतप्त तवे पर पड़ी पानी की बूँद वहीं शुष्क हो जाती है इसी प्रकार शिष्य द्वारा कहे हुए दोष जिसमें शुष्क हो जाते हैं अर्थात् जो किसी दूसरे को नहीं बतलाते हैं, वे अस्रावक हैं । ८. संतोषकारी - जो साधुओं को सन्तोष उत्पन्न करने वाला हो अर्थात् क्षुधा, तृषा आदि की वेदना के समय हितकर उपदेश देकर साधुओं को संतुष्ट करता हो उसे संतोषकारी कहा है। इसका दूसरा नाम सुखावह भी है। १३: इस प्रकार निर्यापक अर्थात् सल्लेखना करानेवाले आचार्यमें ये आठ गुण होते हैं । अब आगे स्थिति-कल्प रूप दश गुणों को कहते हैं ९. दिगम्बर - आचेलक्य - ' अथवा नग्न मुद्राको धारण करने वाले हों उन्हें दिगम्बर कहते हैं । यह निष्परिग्रहता और निर्विकारता की परिचायक मुद्रा है। १०. अनुद्दिष्ट भोजी - मुनियों के उद्देश्य से बनाये हुए भोजन पान को जो ग्रहण नहीं करता है वह अनुद्दिष्ट भोजी है । ११. अशय्याशनी -- वसतिका बनवाने वाला और उसका संस्कार करने वाला तथा वहाँ पर व्यवस्था आदि करनेवाला ये तीनों ही शय्या १. दिगम्बरोऽत्यनुद्दिष्ट म० ग० । २. आचेलक्योद्देशिकशय्याघर राजकीयपिण्डोज्झाः । कृतिकर्शन तारोपणयोग्यत्वं ज्येष्ठता प्रतिक्रमणम् ॥८०॥ मासैकवासिता स्थितिकल्पो योगश्च वार्षिको दशमः । तनिष्ठः पृथुकीर्तिः क्षपकं निर्यापको विशोधयति ॥ ८१ ॥ — अनगारधर्मामृत अध्याय ९ For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [४. १-२'अरागभुक् [अराजभुक्] क्रियायुक्तो व्रतवान् ज्येष्ठसद्गुणः । प्रतिक्रमी च षणमासयोगी तद्विनिषद्यकः ॥३॥ धर शब्द से कहे जाते हैं । जो शय्या अर्थात् शय्याधारके अशन-भोजनको ग्रहण नहीं करते उन्हें अशय्याशनो कहते हैं । १२. 'अराजभुक्--जो राजाओं के घरमें भोजन ग्रहण न करता हो । अथवा राजपिण्ड का त्यागी हो उसे अराजभुक् कहते हैं। ... १. आरोगभुक् म । २. आरोगभुक् म० । आरागभुक्क० ।। ३. राजपिण्ड त्यागका अभिप्राय अनगारधर्मामृत में इस प्रकार स्पष्ट किया है- . . -ऐसे घरोंमें जहां नाना प्रकार के भयंकर कुत्ते आदि जानवर स्वच्छन्द रूपसे फिरते रहते हैं उनके द्वारा उन घरों में प्रवेश करने पर संयमीका अपघात हो सकता है । मुनि के स्वरूप को देखकर वहां के घोड़े गाय भैंस आदि पशु विजुक सकते हैं और विजुक कर स्वयं त्रासको प्राप्त हो सकते हैं अथवा दूसरों को भी त्रास दे सकते हैं । यद्वा संयमी को भी उनसे त्रास हो सकता है। गर्व से उद्धत हुए वहां के नौकर चाकरों के द्वारा साधुका उपहास हो सकता है। अथवा महलों में रोककर रखी हुई और मैथुन संज्ञा-रमण करने की इच्छा से पीडित रहने वाली, यद्वा पुत्र आदि संतति की अभिलाषा रखने वाली स्त्रियां अपने साथ उपभोग करने के लिये उस संयमी को जबर्दस्ती अपने घरमें ले जा सकती है। सुवर्ण रत्न अथवा उनके बने हुए भूषण जो इधर उधर पड़े हों उनको कोई स्वयं चुराकर ले जाय और हल्ला कर दे कि यहां पर मुनि आये थे और तो कोई आया नहीं। ऐसी अवस्था में मुनिके ऊपर चोरी का आरोप उपस्थित हो सकता है। यहां पर ये साधु आते हैं सो कहीं ऐसा न हो कि महाराज इन पर विश्वास कर बैठे और इनकी बातों में आकर राज्यको नष्ट कर दें, ऐसे विचारों से क्रोधादिक के वशीभूत हुए दीवान-मंत्री आदिके द्वारा संयमीका वध बंधादिक भी हो सकता है । इनके सिवाय ऐसे स्थानों में आहारकी विशुद्धि मिलना कठिन है, दूध आदि विकृति का सेवन और लोभवश अमूल्य रल आदि की चोरी तथा पर-स्त्रियों को देखकर रागभाव का उद्रेक एवं वहां की लोकोत्तर विभूतिको देखकर उसके लिये निदान भावका हो जाना भी संभव है इत्यादि अनेक कारण हैं । कि जिनके निमित्त से राजपिण्डको वयं बताया है। अत एव जहां पर ये दोष संभव न हों अथवा दूसरी जगह आहार का For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. १-२] बोधप्रामृतम् १३. क्रियायुक्त-जो कृतिकर्मसे युक्त हो उसे क्रिया-युक्त कहते हैं। छह आवश्यकों का पालन करना अथवा गुरुजनोंका विनय कर्म करना कृति-कर्म कहलाता है। १४. व्रतवान् जो व्रत धारण करने की योग्यता से सहित हो उसे ब्रतवान् कहते हैं। जो आचेलक्य-नग्न-मुद्रा को धारण करने वाला हो, औद्देशिक आदि दोषों को दूर करने वाला हो, गुरुभक्त हो तथा अत्यन्त नम्र हो वही साधु व्रत धारण के योग्य माना गया है। . १५. ज्येष्ठ सद्गुण-जिनमें उत्कृष्ट सद्गुणों का निवास हो उन्हें ज्येष्ठ-सद्गुण कहते हैं। जो जाति और कुल की अपेक्षा महान् हों, जो वैभव, प्रताप और कीर्ति की अपेक्षा गृहस्थोंमें भी महान् रहे हों, जो ज्ञान और चर्या आदिमें उपाध्याय तथा आर्यिका आदि से भी महान हैं एवं क्रिया-कर्म के अनुष्ठान द्वारा भी जिनमें श्रेष्ठता पाई जाती है वे ज्येष्ठता गुण से युक्त हैं। १६. प्रतिक्रमी-जो विधिपूर्वक देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुसिक और वार्षिक प्रतिक्रमण करते-कराते हों उन्हें प्रतिक्रमी कहते हैं। ... १७. षणमासयोगी-जो वसन्त आदि छह ऋतुओं में एक एक मास तक एक स्थान पर योग धारण करते हैं, अन्य समय विहार करते हैं वे षणमास-योगी कहलाते हैं। इसका दूसरा नाम मासिक-वासिता भी है। जो वर्षमें दो बार सिद्धक्षेत्रकी यात्रा करने वाला हो। १८. तद्विनिषषक-इसका दूसरा नाम अन्यत्र पाद्य दिया है जिसका अर्थ वर्षा ऋतु के चार मास में एक स्थान पर चतुर्मास योग धारण करना होता है। लाभ संभव न हो, तो श्रुत में विच्छेद न पड़े इसके लिये राजपिण्ड का भी ग्रहण किया जा सकता है अर्थात् ऐसी अवस्था में संयमी जन अपने तप संयम और ध्यान स्वाध्याय आदि के साधन को कायम रखने के लिये राजपिण्ड को भी ग्रहण कर सकते हैं क्योंकि उसको वयं जो माना है सो उपयुक्त दोषोंकी संभावना से ही माना है । अध्याय ९ श्लोक ८०-८१ । १. आचेलक्के य ठिदो उद्देसादीय परिहरदि दोसे । गुरुभत्तिमं विणीदो होदि वदाणं स अरिहो दु । -अनगार० अ०९ २. वर्ष वर्ष दो वारी तितिक्षेत्रयात्रां करोति (१० टि०) For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभृते [४. ३-४- द्विषट्तपास्तथा षट् चावश्यकानि गुणा गुरोः । आयदणं विहरं जिणपडिमा दंसणं च जिबिबं । भणियं सुवीयरायं जिणमुद्दा गाणमदत्थं ॥३॥ अरहतेण सुदिढ़ जं देवं तित्थमिह य अरहतं। . पावज्ज गुणविसुद्धा इय णायव्वा जहाकमसो ॥४॥ आयतनं चैत्यगृहं जिनप्रतिमा दर्शनं च जिनबिम्बम् । ... भणितं सूवीतरागं जिनमुद्रा ज्ञानमात्मस्थम् ॥३॥ अर्हता सुदिष्टं यो देवः तीर्थमिह च अर्हन् । प्रव्रज्या गुणविशुद्धा इति ज्ञातव्या यथाक्रमशः ॥४॥ (आयदणं ) आयतनं ज्ञातव्यम् । ( चेदिहरं ) चैत्यगृहं द्वितीयं ज्ञातव्यम् । (जिणपडिमा ) जिन प्रतिमा ततीयोऽधिकारो बोधप्राभते ज्ञातव्यः । (दसणं च) दर्शनं च चतुर्थोऽधिकारो बोधकरो मन्तव्यः । ( जिणबिंबं) जिनविम्बं पञ्चमोऽधिकारो बोषजनको विज्ञ यः। कथंभूतं जिनविम्बं? ( भणियं सुवीयरायं) भणितमागमे प्रतिपादितं सुष्छु अतिशयेन वीतरागं न तु लक्ष्मीनारायणवद्रामसहितम् । (जिणमुद्दा ) जिनमुद्रा बोधकरी षष्ठोऽधिकारो वेदितव्यः । ( णाणमादत्थं ) ज्ञानमात्मस्थं सप्तमी नियोगो बोधप्रामृतस्य बोद्धव्यः । ( अरहतेण ) १९-३०. द्विषट्तपाः-अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्याशन और कायक्लेश ये छह बाह्य तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह अन्तरङ्ग इस प्रकार बारह तप धारण करने वाला हो। ३१-३६. षडावश्यक-समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यकों का पालन करने वाला हो । आगे बोधप्राभृत के ग्यारह अधिकारों के नाम लिखते हैं । गाथार्थ-आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, अत्यन्त वीतराग जिनविम्ब, जिनमुद्रा, आत्मसम्बन्धी ज्ञान, अरहन्त भगवान् के द्वारा प्रतिपादित देव, तीर्थ, अरहन्त और गुणोंसे विशुद्ध प्रव्रज्या ये ग्यारह अधिकार क्रमसे इस बोधप्राभूतमें जानना चाहिये । ३-४। विशेषार्थ-पहला आयतन, दूसरा चैत्यगृह, तीसरा जिनप्रतिमा, चौथा दर्शन, पांचवां आगम में प्रतिपादित अत्यन्त वीतराग जिनविम्ब, छठवां जिनमुद्रा, सातवां आत्मस्थ शान, आठवां अरहन्त-वीतराग सर्वत्र For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोषप्राभृतम् सुदिटुंजं देवं अर्हता सर्वज्ञवीतरागेण -'सुदिष्टमवाधं प्रतिपादित जं देवः यो देवः प्राकृते लिङ्गभेदत्वादत्र देवशब्दस्य नपुसकत्वं, सोऽयं देवाधिकारो बोषजनकोऽष्टमोऽवगन्तव्यः । (तित्थमिह य ) तीर्थमिह च नवमो धिकारस्तीर्थमिह बोधप्राभृतेश्वेतव्यः । ( अरहतं ) अर्हत्स्वरूप-निरूपकोऽधिकारो दशमः प्रत्येतव्यः । ( पावज्ज गुणविसुद्धा ) प्रव्रज्या एकादशोऽधिकारो बोधप्राभृतस्य स्मर्तव्यः । कथंभूता प्रव्रज्या ? गुणविशुद्धा गुणरुज्ज्वला । ( इय णायव्वा जहाकमसो ) एते एकादशाधिकारा बोधप्राभृतस्य चिन्तनीयाः । __ गाथाद्वयेन द्वारं बोधप्राभृतस्य कृतम् । इदानों तद्विवरण कुर्वन्ति श्रीमन्तो गृद्धपिच्छाचार्यास्तत्रायतनं निरूपयन्ति मणवयणकायदव्वा आसत्ता जस्स इंदिया विसया। आयदणं जिणमग्गे णिद्दिष्टुं संजयं एवं ॥५॥ मनोवचनकायद्रव्याणि आसक्ता यस्य ऐन्द्रिया विषयाः । आयतनं जिनमार्ग निर्दिष्टं सांयतं रूपम् ॥५॥ ( मणवयणकायदव्वा ) मनोवचनकायद्रव्याणि हृदयमध्येऽष्टदलकमलाकारं मानसद्रव्यं यस्य मनो भवति । उरःप्रभृत्यष्ट स्थानाश्रितं यस्य वचनं वचनशक्तिकं वारद्रव्यं भवति । अष्टावङ्गानि अनेकोपाङ्गानि यस्य मुनेः कायद्रव्यं देवके द्वारा अच्छी तरह प्रतिपादित देव, नौवां तीर्थ, दशवां अर्हत्स्वरूप का निरूपण करने वाला अरहंत, और ग्यारहवाँ गुणोंसे उज्ज्वल प्रब्रज्या इस प्रकार इस बोध प्राभृत में ग्यारह अधिकार जानना चाहिये ॥३-४॥ - गाथार्थ-मन वचन काय रूप द्रव्य तथा इन्द्रियोंके विषय जिससे सम्बन्ध को प्राप्त हैं अथवा जिसके अधीन हैं, ऐसे संयमी मुनि का शरीर जिनागम में आयतन कहा गया है ॥५॥ १. सुदह म० क०। २. पं० जयचन्दजी ने अपनी भाषा वचनिका में 'आयत्ता' पाठ स्वीकृत किया है। ग०। ३. कमलाकार मानस-द्रव्यं म०, कमलाकारं मांसद्रव्यं ख० । ४. अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः, इचुयशानां तालुः, उपूपाध्मानीयानामोष्ठी, ऋटुरषाणां मूर्धा, लुतुलसानां दन्ताः, जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम्, अनुस्वारस्य नासिका, एवैतीः कण्ठतालु, ओदौतोः कण्ठोष्ठम्, वकारस्य दन्तोष्ठी (क० टि०). For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ षट्प्राभृते [४.६भवति । ( आसत्ता जस्स इंदिया विसया) आसक्ताः सम्बन्धमायाता यस्य मुने ऐन्द्रिया विषयाः, इन्द्रियेषु स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रलक्षणेषु ह्रषीकेषु भवा ऐन्द्रिया. ते च ते विषयाः स्पर्शरसगन्धरूपशब्दलक्षणा यथासंभवं शक्तिरूपा व्यक्तिरूपाश्च भवन्ति । ( आयदणं जिणमग्गे ) आयतनं जिनमार्गे । ( णिद्दिष्टुं संजयं रूवं ) निर्दिष्टमागमे प्रदिपादितं सांयतं रूपं संयमिनः सचेतनं शरीरम् ॥५॥ मय राय दोस मोहो कोहो लोहो य जस्स आयत्ता। पंच महव्यधारी आयदणं महरिसी भणियं ॥६॥ . मदो रागो द्वेषो मोहः क्रोधो लोभश्च यस्यायत्ताः। . . पञ्चमहाव्रतधरा आयतनं महर्षयो भणिताः ॥६॥ (मय राय दोस मोहो ) मदोऽष्टविधः । उक्तं समन्तभद्रेण महाकविना ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धि तपो वपुः । । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥१॥ विशेषार्थ-हृदय के मध्य में आठ पांखुरी के कमल के आकार वस्तुस्वरूपके विचार में सहायक जो मानस द्रव्य है वह मन कहलाता है। हृदय आदि आठ स्थानोंके आश्रित जो वचन हैं अथवा वचन-शक्ति से युक्त जो पुद्गल है वे वचन द्रव्य कहलाते हैं आठ अङ्ग और अनेक उपाङ्गों से युक्त मुनिका जो शरीर है वह काय द्रव्य है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच इन्द्रियाँ हैं इनके स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द ये पांच विषय हैं। ये विषय यथासंभव शक्ति-रूप तथा व्यक्तिरूप होते हैं। इस प्रकार मन वचन काय रूप द्रव्य तथा स्पर्श आदि इन्द्रियसम्बन्धी जिनके अपने आपके सम्बन्ध को प्राप्त हैं अर्थात् पर-पदार्थ से हट कर आत्मा से सम्बन्ध रखते हैं अथवा 'आयत्ता' पाठ को अपेक्षा ये सब जिनके स्वाधीन हैं, ऐसे संयत अर्थात् संयमो मुनिका सचेतन शरीर जिनागम में आयतन कहा गया है ।।५।। गाथार्थ-मद रागद्वेष मोह क्रोध और लोभ जिसके अधीन हैं तथा जो पञ्च महाव्रतोंको धारण करने वाले हैं, ऐसे महर्षि आयतन कहे गये हैं ॥६॥ विशेषार्थ-मद आठ प्रकारका होता है जैसा कि श्री समन्तभद्र महाकविने कहा है झान-ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋषि, तप और शरीर इन आठका आश्रय कर अहंकार करने को निर्मद ऋषि मद कहते हैं। राग For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्रामृतम् रागः प्रीतिलक्षणः । दोषोऽप्रीतिस्वभावः । मोहः कलत्रपुत्रमित्रादि-स्नेहः । (कोहो लोहो य जस्स आयत्ता ) क्रोधो रोषस्वभावः लोभो मूर्छा परिग्रहग्रहणस्वभावः, चकारात्परवञ्चनप्रकृतिर्माया। एते पदार्था यस्य महर्षेस्त्रिविधमुनि समूहस्यायत्ता निग्रहपरिग्रहनाथवन्तो भवन्ति । (पंच महम्वधारा ) पञ्चमहाव्रतघरा अहिंसा सत्याचौर्यब्रह्मचर्याकिञ्चन्यानि रात्रिभोजनवर्जनषष्ठानि प्रतिपालयन्तः । ( आयदणं महरिसी भणियं ) आयतनं महर्षयो भणिताः । एतेऽभिगमनयोग्या भवन्ति दर्शनस्पर्शन-वन्दनाश्चि भवन्ति । अन्ये विलिङ्गिनो जटिनः पाशुपताः, एकदण्डत्रिदण्डधरा मिथ्यादृष्टिमुडिनः शिखिनः पञ्चचूलाः भस्मोठूलना नग्नाण्डका चरकनामानो दिगम्बरसंज्ञकाः हंसपरमहंसाभिधानाः पशुयाज्ञिकाः दीक्षिता अध्वर्यवः उद्गातारो होतार आथर्वणाः व्यासाः स्मार्ता जैनाभासाश्च नाभिगम्या न दर्शनीया नाभिवादनीयाश्च भवन्ति । अथ के ते जैनाभासाः ? पूर्वमप्युक्ताः . प्रीतिको कहते हैं । द्वेष अप्रीति स्वभावको कहते हैं। स्त्री पुत्र तथा मित्र आदि के स्नेह को मोह कहते हैं। रोष रूप स्वभावको क्रोध कहते हैं, मूळ रूप परिणाम अर्थात् परिग्रह को ग्रहण करनेका जो स्वभाव है उसे लोभ कहते हैं। चकार से माया का ग्रहण होता है, दूसरे को ठगनेका जो स्वभाव है, उसे माया कहते हैं । ये सब मद आदि विकार जिस महर्षि के-आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन भेद रूप मुनिके अधीन हैंस्वीकार अथवा अस्वीकार करनेके योग्य हैं। जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतोंको अथवा रात्रिभोजन त्याग के साथ छह महाव्रतों को धारण करने वाले हैं, ऐसे महर्षि आयतन कहे गये हैं। ये महर्षि ही संमुख-गमन करने के योग्य हैं, तथा दर्शन, स्पर्शन, और वन्दना के योग्य हैं। . ... इनके सिवाय अन्य लिङ्गों को धारण करने वाले जटाधारी, पाशुपत, . एकदण्ड अथवा तीन दण्डको धारण करनेवाले, मिथ्यादृष्टि होकर - शिर मुड़ानेवाले, एक शिखा रखने वाले, पांच चोटियां रखने वाले, शरीर में भस्म रमाने वाले, अण्डकोषोंको खुला रखने वाले, चरक नामधारी, दिगम्बर नामधारी, हंस, परमहंस नामके धारक, पशुयज्ञ करनेवाले, दोलित, अध्वयु, उद्गाता, होता, अथर्ववेदके ज्ञाता, व्यास, स्मार्त तथा नाभास आदि साधु न सागने जानेके योग्य हैं, न दर्शन करनेके योग्य है और न अभिवादन नमस्कार करने योग्य हैं For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते मोपुच्छिक: श्वेत 'वासो द्राविडो यापनीयकः । निष्पिच्छश्चेति पञ्चैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ॥१ ॥ मयूरपिच्छरा अपि न वन्दनीयाः संशयमिथ्यादृष्टित्वात् । तथा च बौद्धमते आयतनलक्षणम् ૪૬ पञ्चेन्द्रियाणि शब्दाद्या विषयाः पञ्च मानसम् । धर्मायत्तनमेतापि द्वादशायतनानि च ॥१॥ धर्मायतनं शरीरम् । सिद्धं जस्स सदत्थं विसुद्धझाणस्स णाणजुत्तस्स । सिद्धायदणं सिद्धं मुणिवरवसहस्स मुणिदत्थं ॥७॥ सिद्धं यस्य सदर्थं विशुद्धध्यानस्य ज्ञानयुक्तस्य । सिद्धायतनं सिद्ध मुनिवरवृषभस्य ज्ञानार्थम् ||७|| ( सिद्ध ं जस्स सदत्थं ) सिद्ध लब्धिमायातं यस्य मुनिवरवृषभस्य । कि सिद्धम् ? सदत्थं—निजात्म–स्वरूपम् । कथंभूतस्य ? ( विसुद्धझाणस्स गाण [ ४.७ प्रश्न - जैनाभास कौन है ? उत्तर - यद्यपि इन्हें पहले कह आये थे, तथापि फिर भी कहते हैंगोपुच्छिक - गोपुच्छिक, शेतवासस्, द्राविड, [यापनीयक और निष्पच्छ—ये पाँच जैनाभास कहे गये हैं । यद्यपि ये मयूरपिच्छ के धारक हैं तो भी संशय मिध्यादृष्टि होनेके कारण नमस्कार करनेके योग्य नहीं हैं। क्योंकि संशय मिथ्यादृष्टि होनेके कारण मिथ्यादृष्टि ही माने जाते हैं। बौद्धमत में आयतन का लक्षण इस प्रकार है पञ्चेन्द्रियाणि – स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियां, शब्द आदि पाँच विषय, मन तथा धर्मायतन--शरीर ये बारह आयतन कहे जाते हैं ॥६॥ आयदणं — इत्यायतनस्वरूपं समाप्तम् ||७|| गाथार्थ - विशुद्धध्यान से सहित एवं केवलज्ञानसे युक्त जिस श्रेष्ठ मुनिके निजात्मस्वरूप सिद्ध हुआ है, अथवा जिन्होंने छहद्रव्य, साततत्व, नवपदार्थं अच्छी तरह जान लिये हैं उन्हें सिद्धायतन कहा है। विशेषार्थ - विशुद्धध्यान से सहित अर्थात् आतं और रौद्र इन दो ध्यानोंसे रहित और धर्म्यं तथा शुक्ल इन दो ध्यानों से सहित, एवं ज्ञानसे १. श्वेतवासो म० । For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ७ ] बोधप्राभृतम् मृतस्स ) विशुद्धध्यानस्य आतंरौद्रध्यानद्वयरहितस्य धम्यंशुक्लध्यानद्वयसहितस्य गणधरकेवलिनो 'मूढ-केवलिनस्तीर्थंकरपरमदेवकेवलिनो वा । कथंभूतस्यैतत्त्रयस्य ? ज्ञान युक्तस्य सकलविमल केवलज्ञान युक्तस्य । ( सिद्धायदणं सिद्ध ) सिद्धायतनं सिद्ध ं सिद्धायतनं प्रतिपादितम् । कस्य ? ( मुणिवरवसहस्स ) मुनिवरवृषभस्य मुनिवराणां मध्ये वृषभस्य श्रेष्ठस्य । कथंभूतमायतनम् ? ( मुणिदत्थं ) मुनिता ( ?) यथावद्विज्ञाता अर्थाः षड्द्रव्याणि पञ्चास्तिकायाः सप्ततत्वानि नव पदार्थाः । जीवपुद्गलधर्माधर्म कालाकाशा इति षड्द्रव्याणि । कालरहितानि षद्रव्याणि पञ्चास्तिकाया भवन्ति । जीवाजीवास्रव बन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वानि । सन्त तान्येव पुण्यपापद्वयसहितानि नव पदार्था वेदितव्याः । युक्त अर्थात् समस्त पदार्थोको विषय करनेवाले निर्मल केवलज्ञानसे युक्त गणधर केवली, सामान्य केवली अथवा तीर्थंकर परम देव केवलीस्वरूप जिम श्रेष्ठ मुनिवर को सदर्थ - निजात्मस्वरूप सिद्ध हुआ है—उपलब्ध हुआ है, उसके सिद्धायतन कहा गया है। श्रेष्ठ मुनिका यह सिद्धायतन रूप ज्ञातार्थ है अर्थात् छह द्रव्य, पञ्चास्तिकाय, सात तत्व और नव पदार्थों को जाननेवाला है । जीव पुद्गल धर्मं अधर्मं आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं । इन्हीं में से काल को छोड़कर शेष पांच द्रव्य पञ्चास्तिकाय हैं। जोव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व हैं। पुण्य और पाप इन दो को मिला देने पर सात तत्व ही नव पदार्थ कहलाते हैं। इसप्रकार आयतन अधिकार समाप्त हुआ ||७| १४७ [ यहाँ तीन गाथाओं में आयतन का स्वरूप कहा है। पहली गाथामें मन, वचन, काय इन तीन योगों तथा पञ्च इन्द्रियों और उनके विषयोंको स्वाधीन रखनेवाले सामान्यमुनियों के रूप को आयतन कहा है । दूसरी गाथा में क्रोधादि विकारों पर पूर्ण विजय प्राप्त करने वाले, पञ्च महाव्रतों के धारक महर्षियों ऋद्धिधारक मुनियों को आयतन का - है और तीसरी गाथा में निर्मलध्यान से सहित केवलज्ञान से युक्त गणधर केवली, सामान्य केवली अथवा तीर्थंकर केवली को सिद्धायतन कहा है । आयतन स्थानको कहते हैं । जो सद्गुणोंका स्थान है वही जिनागम में आयतन नामसे प्रसिद्ध है । परम वैराग्य से युक्त सद्गुरुओंके सिवाय १. मुण्ड - म०, मूढ क०, गणधरकेवलज्ञानयुक्तस्य ख० अस्यां प्रती गणधर - इत्यग्र े ( केवलिनो मूढ - केवलिन स्तीथंकरपरमदेवकेवलिनो वा, कथंभूतस्यैतत्त्रयस्य ज्ञानयुक्तस्य सकलचिमल ) इति पाठो नास्ति । For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४.८ १४८ षट्नाभृते अथेदानी चैत्यस्वरूपं निरूपयन्ति श्री कुन्दकुन्दाचार्याः बुद्धं जं वोहंतो अप्पाणं चेइयाइं अण्णं च । पंचमहव्वयसुद्धं गाणमयं जाण चेदिहरं ॥ ८॥ बुद्धं यत् बोधयन् आत्मानं चैत्यानि अन्यच्च । पञ्चमहाव्रतशुद्धं ज्ञानमयं जानीहि चैत्यगृहम् ॥ ८॥ .. - ( बुद्धं जं वोहतो ) बुद्धं कर्ममलकलंकरहितं केवलज्ञानमयं, ज-यत्, बोहंतो . बोधयन् । ( अप्पाणं चेइयाई अण्णं च ) आत्मानं शुद्धबुद्ध कस्वभावं निजजीव-' स्वरूपं बोधयन्नयं आत्मा चैत्यगृहं भवति । हे जीव ! तं चैत्यगृहं जानीहि । न केवलं आत्मानं बोधयन्तं आत्मानं चैत्यगृहं जानीहि किन्तु चेइयाई-चैत्यानि कर्मयं. तापन्नानि भव्यजीववृन्दानि बोधयन्तमात्मानं चैत्यगृहं निश्चयचैत्यालयं हे जीव! त्वं जानीहि निश्चयं कुरु न केवलमात्मानं चैत्यगृहं जानीहि किन्तु अण्णं चव्यवहारनयेन निश्चयचंत्यालयप्राप्तिकारणभूतेनान्यच्च दुषदिष्टिका-काष्ठादिरचितं श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञ-चीतरागप्रतिमाधिष्ठितं चैत्यगृहं हे आत्मन् ! नाना वेषों को धारण करने वाले पाखण्डी साधु 'आयतन नहीं है, वे नमस्कारके योग्य नहीं हैं। ] अब आगे श्रीकुन्दकुन्दस्वामी चैत्य-स्वरूपका निरूपण करते हैं गाथार्य-जो ज्ञानयुक्त आत्माको जानता हो, दूसरे भव्य जीवोंको उसका बोध कराता हो, पाँच महाव्रतोंसे शुद्ध हो तथा स्वयं ज्ञानमय हो ऐसे मुनिको चैत्यगृह जानो । ८। विशेषार्थ-कमल कलङ्कसे रहित केवलज्ञानमय आत्माको बुद्ध कहते हैं । इस तरह एक शुद्ध बुद्ध स्वभाववाले निज स्वरूपको जाननेवाला आत्मा चैत्यगृह है, ऐसा हे भव्य जीव ! तू जान । न केवल आत्मस्वरूप. को जाननेवाला चैत्यगृह है किन्तु भव्य जीवोंके समूहको भी जो निज आत्माका बोध कराता है उसे भी तू निश्चय चैत्यगृह जान । न केवल आत्माको चैत्य-गृह जान, किन्तु निश्चय चैत्यगृहको प्राप्तिके कारणभूत व्यवहार नयसे पत्थर ईंट तथा काष्ठ आदिसे रचित श्रीमान् अर्हन्त सर्वज्ञ वीतरागकी प्रतिमासे युक्त जो जिन मन्दिर हैं उन्हें भी तू चैत्यगृह जान । वह चैत्य-गृह रूप आत्मा पञ्च महाव्रतोंसे शुद्ध है अर्थात् अहिंसा आदि १. दृषदिष्टका म०। २. श्रीमद्भगवत्सर्वज्ञमः । For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ८ ] बोधप्रामृतम् हे जीव ! त्वं जानीहि । कथंभूतं चैत्यगृहं ? ( पंचमहव्वयसुद्ध ) पञ्चभिर्महाव्रतैः कृत्वा शुद्ध समूलकाषं कषित कर्ममलकलङ्कसमूहं । अपरं कथंभूतं चैत्यगृहं ? ( णाणमयं ) केवलज्ञान - केवलदर्शनाभ्यां निर्वृत्तं निष्पन्नमित्यर्थः । व्यवहार चैत्यगृहं तु स्थापनान्यासेन पञ्चमहाव्रतशुद्ध स्थापनान्यासबलेन केवलदर्शनमयमित्यर्थः स व्यवहारनयो मुख्यो निश्चयनयस्त गौण इति ज्ञातव्यम् । ये तु लौङ्कार्यातकादिमतानुसारिणो दुरात्मानः श्वेतपटाभासा निश्चयचैत्यमस्पृशन्तोऽपि व्यवहारचैत्यगृह न मानयन्ति 'ते उभयतोऽपि भ्रष्टाः सर्वत्र भोजनभिक्षाग्राहका जिनधर्मविराधकाः पूर्वाचार्योपदिष्टजिनपूजादिकममानयन्तो न जाने कां निन्दितां गतिं गमिष्यन्ति ॥ ८ ॥ पाँच महाव्रतोंके द्वारा कर्ममल रूपी कलङ्कके समूहको समूल नष्ट कर शुद्ध हुआ है तथा ज्ञानमय है केवलज्ञान और केवलदर्शनसे तन्मय है । व्यवहार नयके आलम्बनसे जब जिन मन्दिरको चैत्यगृह कहते हैं तब 'पञ्च महाव्रतशुद्ध' और 'ज्ञानमयं' इन दोनों विशेषणों की संगति स्थापना निक्षेपके बलसे बैठानी चाहिये। इस पक्षमें व्यवहार नय मुख्य है और निश्चय नय गौण है। लौंकागच्छके मतका अनुसरण करनेवाले जो दुष्ट श्वेताम्बराभास निश्चय चैत्यका स्पर्श न करते हुए भी व्यवहार चैत्यगृहजिनमन्दिरको नहीं मानते हैं वे दोनों ओरसे भ्रष्ट हैं, सब जातियोंके घर भोजनके लिए भिक्षा ग्रहण करते हैं, जिनधर्मकी विराधना करते हैं। पूर्वाचार्योंके द्वारा उपदिष्ट जिन-पूजा आदिको न माननेवाले ये लोग न जाने किस दुर्गति को प्राप्त होंगे ? ॥ ८ ॥ १. निश्चयम बुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते । नाशयति करणचरणं स बहिःकरणालसो बालः ॥ १४९ पिच्छयमालम्बता णिच्छयदो णिच्छ्यं अयाणंता । णासंति चरणकरणं बाहरिचरणलसा होई ॥ - पञ्चास्तिकाये उद्धृता प्रा० गा० । २. येऽपि केवलनिश्चयनयावलम्बिनः सन्तोऽपि रागागिविकल्परहितं परमसमाधिरूपं शुद्धात्मानमलभमाना अपि तपोधना चरणयोग्यं षडावश्यकाद्यनुष्ठानं श्रावकाचरणयोग्यं दानपूजाद्यनुष्ठानं च दूषयन्ते तेऽप्युभयभ्रष्टाः सन्तो निश्चयव्यवहारानुष्ठानयोग्यावस्थान्तरमजानन्तः पापमेव बघ्नन्ति । पञ्चास्तिकाये तात्पर्यवृत्तिः । - गाथा १७२ । For Personal & Private Use Only - पुरुषार्थ० । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० षट्प्राभृते [ ४.९ चेइय बंधं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स । चेइहरं जिणमग्गे छक्काय हियंकरं भणियं ॥ ९ ॥ चेत्यं बन्धं मोक्षं दुःखं सुखं च अर्पयतः । चैत्यगृहं जिनमार्गे षट्कार्याहितंकरं भणितम् ।। ९ ।। ( चेइय बंधं मोक्खं ) चैत्यं चैत्यगृहं बन्धं अष्टकर्मबन्धं करोति । पापकर्मोपार्जनं कारयति । पुनश्च किं करोति ? मोक्षं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षं च करोति । ( दुक्खं सुक्खं च अप्पयंतस्स ) चैत्यं चैत्यगृहं दुःखं शारीरमानसागन्तुलक्षणं दुःखमसातं बन्धफलं करोति । सुक्खं च सुखं च मोक्षफलं परमानन्दलक्षणं करोति कस्यैतद्वयं करोति ? अप्पयंतस्स - अर्पयतः पुरुषस्य । यः चैत्यगृहस्य दुष्टं करोति तस्य पापबन्ध उत्पद्यतेयश्चैत्यगृहस्य सुष्ठु करोति शोभनं विदधाति तस्य पुष्प - मुत्पद्यते तदाधारेण मोक्षो भवति, तत्फले यथासंख्यं दुःखं सुखं च भवतीति भावनीयम् । ( चेइहरं जिणमग्गे ) चैत्यगृहं जिनमांगें श्रीमद्भगवदहंत्सर्वज्ञ- वीत गायार्थ - जो चैत्यगृहके प्रति दुष्ट प्रवृत्ति करता है उसे वह बन्ध तथा उसके फल स्वरूप दुःख उत्पन्न करता है और जो चैत्यगृहके प्रति उत्तम प्रवृत्ति करता है उसे वह मोक्ष तथा उसके फलस्वरूप सुख प्रदान करता है । जिन मार्गमें चैत्यगृहको षट्कायिक जीवोंका हितकारी कहा गया है ॥ ९ ॥ विशेषार्थ - अब व्यवहार नयसे चैत्यगृहका अर्थ कहते हैं चेत्यका अर्थ उपलक्षणसे चैत्यगृह है । यह चैत्यगृह बन्ध अर्थात् अष्टकर्मोके बन्धको करनेवाला है । मोक्ष अर्थात् अष्ट कर्मोके क्षयको करनेवाला है तथा उसके फलस्वरूप दुःख अर्थात् शारीरिक मानसिक और आगन्तुक इन तीन प्रकारके दुःखोंको करता है एवं सुख अर्थात् मोक्ष के फलस्वरूप परमानन्दको उत्पन्न करता है । भाव यह है कि जो मनुष्य चैत्यगृहके प्रति दुष्टभाव करता है उसको पाप-बन्ध होता है और जो चैत्यगृहके प्रति उत्तम भाव रखता है उसके पुण्य उत्पन्न होता है तथा उसीके आधार पर वह मोक्षको प्राप्त होता है । बन्धके फलस्वरूप दुःख और मोक्षके फलस्वरूप सुखको प्राप्त होता है, ऐसी भावना करनी चाहिये। जिनमार्गभगवान् अरहन्त सर्वज्ञ वीतराग देवके मार्ग में चैत्यगृह - जिनमन्दिर है ही, अत्यन्त पापी कौन मिथ्यादृष्टि उसका लोप करता है ? जो प्रतिमा For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ९ ] बोधप्राभूतम् १५१ रागशासने वर्तते एव, को मिथ्यादृष्टिः पापीयांस्तल्लोपयति ? यश्चैत्य चैत्यगृहं च न मानयति स महापातकी भवति । अतएव चोक्तं गौतमेन भगवता - यावन्ति जिनचैत्यानि विद्यन्ते भुवनत्रये । तावन्ति सततं भक्त्या त्रिः परीत्य नमाम्यहम् ॥ ( छक्का हियंकरं भणियं ) चैत्यगृहं षट्कायानां हितङ्करं स्वर्गमोक्षकारकं भणितं जिनागमे प्रतिपादितम् । चैत्यगृहार्थं या मृत्तिका खन्यते सा काययोगेनोपकारं चैत्यगृहस्य कृत्वा शुभमुपार्जयति तेन तु पारम्पर्येण स्वर्गमोक्षं लभते । यज्जलं चैत्यगृहस्य कार्यमायाति तद्वत्तदपि शुभभाग् भवति । यत्तेजोऽग्निः चैत्यगृहनिमित्तं प्रज्वाल्यते तदपि तद्वच्छुभं लभते । यो वायुश्चैत्यगृह - निमित्तं वह्निसंधुक्षणाद्यर्थं विराध्यते धूपाङ्गारहविः पाकार्थं चोत्क्षेपनिक्षेपणं प्राप्यते सोऽपि तद्वच्छुभं प्राप्नोति । यो वनस्पतिः पुष्पादिकश्चैत्यगृहपूजाद्यर्थं लूयते सोऽपि काययोगेन पुण्यमुपार्जयति तस्यापि शुभं भवति । उक्तञ्च - • फुल्ल पुकारइ वागियहि कहियो जिणहं चडेसि | धम्मी को विन आवियउ कंपिय धरणि पडेसि ॥ १ ॥ और जिनमन्दिर को नहीं मानता है वह महान् पापी है । इसलिये भगवान गौतम ने कहा है यावन्ति - तीनों लोकों में जितने चैत्यालय हैं मैं सदा भक्ति - पूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार करता हूँ । चैत्यगृह -- जिनमन्दिर को जिनागम में षट्कायिक जीवों का हितकारक -स्वर्ग और मोक्षको प्राप्त कराने वाला कहा है। चैत्यगृह के निर्माण के लिये जो मिट्टी खोदी जाती है वह काययोग के द्वारा चैत्यगृह का उपकार करके पुण्य कर्मका उपार्जन करती है और उस पुण्यकर्म के द्वारा परम्परासे स्वर्गं तथा मोक्षको प्राप्त होती है। जो जल चैत्यगृह के काम आता है वह भी मिट्टी की तरह पुण्यको प्राप्त होता है । जो अग्नि चैत्यगृहके निमित्त जलाई जाती है वह भी उसी तरह पुण्यको प्राप्त होती है । जो वायु चैत्यगृह के निमित्त अग्नि को प्रदीप्त करने के लिये विराधित होती है अथवा धूपके अङ्गार और नैवेद्य के पाकके लिये उत्क्षेप - निक्षेपको प्राप्त होती है ऊँची-नीची को जाती है वह भी उसी तरह पुण्य को प्राप्त होती है। जो पुष्प आदि वनस्पति चेत्यगृह की पूजाके लिये छेदी जाती है वह भी काय योगके द्वारा पुण्य उपार्जन करती है, अतः उसका भी भला होता है। कहा भी गया है फुल्क — बागवान् फूलसे कहता है कि फूल ! तुम जिनेन्द्र भगवान् For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अन्यञ्च - षट्प्राभृते केrय वाडी वाईया केणय वीणिय फुल्ल । hra जिगह चडाविया ए तिष्णि व समतुल्ल ॥ २॥ ' तथा सानामपि यथासंभवं पुण्योपार्जनममुया दिशा ज्ञातव्यम् । चेइयहरं — चैत्यगृहाधिकारः समाप्त इत्यर्थः ॥ ३ ३॥ - को कैसे चढाये जाओगे क्योंकि कोई धर्मात्मा जीव नहीं आ रहा है, तुम यू ही कंपित होकर पृथिवी पर गिर जाओगे । और भी कहा है hणय - किसी ने वाटिका लगवाई, किसी ने फूल चुने और किसी ने जिनेन्द्र भगवान् को चढाये । ये तीनों ही पुरुष एक समान हैं—एक समान ही पुण्यको प्राप्त होते हैं । [ ४. ९ इसी पद्धति से सजीवों के भी यथासम्भव पुण्यका उपार्जन होता है ऐसा जानना चाहिये । इस प्रकार चैत्यगृह नामका दूसरा अधिकार समाप्त हुआ । २ षट् प्राभृत की एक संस्कृत टोका अन्य संक्षिप्त है आदि अन्त पत्र न होने से आचार्य कृत है, जो अत्यन्त कर्ता का नाम विदित नहीं हो १. म० प्रती अयं पाठो नास्ति । २. इस गाथाके पूवा में आये हुए 'अप्पयंतस्स' पाठ की छाया पं० जयचन्द्र जी ने 'आत्मकं तस्य' ऐसा स्वीकृत कर गाथा का अर्थ निम्न प्रकार किया है— 'जाकै बंघ अर मोक्ष बहुरि सुख और दुःख ये आत्मा के होंय, जाके स्वरूप में होंय सो चैत्य कहिये जातै चेतना स्वरूप होय ताही के बंध मोक्ष सुख दुःख संभव ऐसा जो चैत्य का गृह होय सो चैत्यगृह है । जो जिनमार्ग विषै ऐसा चैत्यगृह छह कायका हित करने वाला होय, सो ऐसा मुनि है, सो पाँचथावर अरस में विकलत्रय अर असैनी पंचेन्द्रिय तांई केवल रक्षा ही करने योग्य हैं तातें तिनकी रक्षा करने का उपदेश करे है, तथा आप तिनिका घात न करें हैं तिनिका यही हित है, बहुरि सैनी पञ्चेन्द्रिय जीव हैं तिनिकी रक्षा भी करें हैं, तथा तिनकू संसार ते निवृत्ति रूप मोक्ष होनेका उपदेश करें हैं, ऐसे मुनिराज को चैत्यगृह कहिये । For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४. १० ] बोधप्राभृतम् आगे जिन - प्रतिमा का वर्णन करते हैं सपरा जंगमदेहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं' । णिग्गंथ वीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा ॥ १० ॥ स्वपराऽजङ्गमदेहा दर्शनज्ञानेन शुद्धचरणानाम् । निर्ग्रन्थवीतरागा जिनमार्गे ईदृशी प्रतिमा ॥ १० ॥ ( सपरा जंगमदेहा) स्वकीया अहंच्छासन सम्बन्धिनी । परा परकीयशासनसम्बन्धिनी प्रतिमा भवति । स्वकीयशासनस्य या प्रतिमा सा उपादेया ज्ञातव्या । या परकीया प्रतिमासा हेया, न वन्दनीया । अथवा सपरा स्वकीयशासनेऽपि या १५३ का है। श्री अतिशय क्षेत्र चांदखेडी को प्रति है, संपादन की प्रतियों में 'ग' नामसे उपयुक्त है । उसमें इस गाथा की टीका इस प्रकार दी हुई है 'चैत्यं 'बधं मोक्षं दुःखं च पुनः सौख्यं अल्पकं तस्य जिनमार्गे चैत्यगृहं षट्कार्याहितकरं भणितं कथितं " इसका अर्थ ऐसा जान पड़ता है कि जिस मुनि के बन्ध, बन्धन, मोक्षछूटना अल्प है अत्यन्त तुच्छ है, हर्षं विषादके कारण नहीं हैं, उस समभावी -मुनि की आत्मा चैत्यगृह है यह चैत्यगृह जिनागम में छह काय के जीवोंका हितकारी कहा गया है । मेरी बुद्धिमें 'अप्पयं तस्स' को छाया 'अप्रयातः' आती है और उसके आधार पर गाथा का अर्थ ऐसा जान पड़ता है ' बन्धन और मोक्षके प्रति विषाद और हर्ष को प्राप्त न होने वाले मुनि की आत्मा चैत्यगृह है । चैत्यगृह जिनागम में छह कायके जीवोंका हितकारक कहा गया है | गाथार्थ - सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके द्वारा शुद्ध-निर्दोष चारित्रको धारण करनेवाले तीर्थंकरकी प्रतिमा स्वशासन और पर - शासनकी अपेक्षा दो प्रकारको है, अजङ्गम रूप है— गतिरहित है, निर्ग्रन्थ तथा वीतराग है । जिनमार्ग में ऐसी प्रतिमा मानो गई है ॥ १० ॥ विशेषार्थ - व्यवहार नयसे जिन प्रतिमाका निरूपण करते हैं-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के द्वारा शुद्ध चारित्र को धारण करने वाले तीर्थ १. सुद्धचरणेण ग० । For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ षट्प्राभृते [ ४. १० प्रतिमा परा उत्कृष्टा भवति सा वन्दनीया, न तु अनुत्कृष्टा । का उत्कृष्टा का वाऽनुत्कृष्टा इति चेदुच्यन्ते'१ – या पञ्चजनाभासैरञ्चलिकारहितापि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता भवति सा न वन्दनीया, न चार्चनीया च । या तु जैनाभासरहितैः साक्षादार्हतसंधैः प्रतिष्ठिता चक्षुः स्तनादिषु विकार - रहिता नन्दिसंघ -सेनसंघ - देवसंघ-सिंहसंधे समुपन्यस्ता सा वन्दनीया । तथा चोक्तं इन्द्रनन्दिना भट्टारकेण - चतुः संघसंहिताया जैन - विम्बं प्रतिष्ठितम् । नमेन्नापरसंघीयं यतो न्यासविपर्ययः ॥ १॥ कर परमदेव की प्रतिमा 'स्वपरा' स्व और परके भेदसे दो प्रकार की है | उनमें अर्हन्त भगवान् के शासन से सम्बन्ध रखने वाली प्रतिमा स्व प्रतिमा है और श्वेताम्बर आदि पर शासन से सम्बन्ध रखने वाली प्रतिमा पर प्रतिमा है । जो प्रतिमा स्व-शासन की है वह उपादेय है-भक्ति वन्दना आदि करने के योग्य है और जो पर-शासन से सम्बन्ध रखने वाली है वह हेय है— छोड़ने योग्य है, वन्दना करनेके योग्य नहीं है । अथवा स्वपरा शब्दका यह भी अर्थ हो सकता है कि जो प्रतिमा स्व अर्हन्तदेव के शासन में परा उत्कृष्ट है, प्रतिष्ठा सिद्धान्त के अनुसार निर्मित है, वही वन्दना करनेके योग्य है, अनुत्कृष्ट प्रतिमा वन्दना करने योग्य नहीं है। कौन प्रतिमा उत्कृष्ट है और कौन अनुत्कृष्ट ? इसका उत्तर यह है कि पाँच प्रकारके जैनाभासों ने जो प्रतिमा प्रतिष्ठित की है वह अञ्चलिका-लंगोटी से रहित नग्नरूप होने पर भी न वन्दनीय है और न अर्चनीय । किन्तु इसके विपरीत जैनाभासों से रहित साक्षात् आर्हतसंघ के लोगोंके द्वारा जो प्रतिष्ठित है, नेत्र और स्तन आदि में विकार से रहित है अर्थात् इन स्थानों में जिसमें कोई विकार नहीं किया गया है, नन्दिसंघ, सेनसंघ, देवसंघ, और सिंहसंघके द्वारा जो प्रतिष्ठापित है वह वन्दनीय है। जैसा कि भट्टारक इन्द्रनन्दीने कहा है चतुः - चार संघ की संहिता से जिस जैनबिम्ब की प्रतिष्ठा हुई है उसे ही नमस्कार करना चाहिये अन्यसंघ की प्रतिमा को नहीं क्योंकि उसके न्यास - स्थापना निक्षेप में विपरीतता है ॥ १ ॥ १. दुच्यन्ते म० ० २. चतुः संघ म० । ३. नापरसंघाया मं० । For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्रामृतम् १५५ 'चतुःसंध्यां नरो यस्तु विदध्याभेदभावनाम् । । सम्यग्दर्शनातीतः संसारे संसरत्यरम् ॥ २॥ न्यासविपर्ययस्तु गुरुवचनादेवावगन्तव्यः । तथा चोक्तं श्री वीरनन्दिशिष्यैः श्रीपद्मनन्दिभिराचार्यः । विम्बादलोन्नतियवोन्नतिमेव भक्त्या ये कारयन्ति जिनसद्म जिनाकृति च । पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्ता . वक्तु परस्य किमु कारयितु यस्य ॥ १॥ चतुःसंध्या-जो मनुष्य उक्त चार सवों में भेद भावना करता है वह सम्यग्दर्शन से रहित है तथा शोघ्र ही संसार में परिभ्रमण करता है ॥२॥ न्यास स्थापना की विपरीतता गुरुके वचनसे जानना चाहिये। जैसा कि श्रीवोरनन्दिके शिष्य श्री पद्मनन्दि आचार्य ने कहा है विवादलो-जो मनुष्य भक्तिपूर्वक [ अधिक नहीं तो कम से कम] बिम्बादल कुन्दरू के पत्रके समान ऊंचे जिन मन्दिर और जो के बराबर ऊँची जैन प्रतिमा को बनवाता है उसके पुण्यका कथन करने के लिये सरस्वती भी समर्थ नहीं हैं फिर जो अधिक ऊँचे जिन-मन्दिर और जिनप्रतिमाको बनवाता है उसके पुण्यका तो कहना ही क्या है। १. श्री भद्रबाहुपट्टे गुप्तिगुप्ताचार्यस्तस्य त्रीणि नामानि गुप्तिगुप्ताचार्यः, अहं द्वल्पाचार्यः विशाखाचार्यः । तस्य चत्वारः शिष्याः येन सिंहगुहायां वर्षायोगो घृतः स सिंहकीतिः तेन सिंहसंघः स्थापितः । नन्दिवृक्षमूले येन वर्षायोगो धृतः स माघनन्दी, तेन नन्दिसंघः स्थापितः । येन सेन नाम तृणतले वर्षायोगो घृतः स वृषसेनः तेन सेनसंघः स्थापितः । यो देवदत्ता वेश्यागृहे वर्षायोगं स्थापितवान् स देवचन्द्रः देवसंघ चकार । सिंहसंघे चन्द्र कवाटगच्छे 'काणूरगणे चत्वारि नामानि-सिंहः कुम्भः आस्रवः सागरः। नन्दिसंघे पारिजातमुच्छे बलात्कारगणे चत्वारि नामानि-नन्दि, चन्द्रः, कीतिः, भूषणः, तथा नन्दि-संधे सरस्वती-गच्छे सेनसंघे पुष्करगच्छे सूरस्थगणे चत्वारि नामानि___ सनः, राजः, वीरः, भद्रः, देवसंधे पुस्तकगच्छे देशीगणे चत्वारि नामानि देवः, दत्तः, नागः, तुङ्गः । (क० टि०) १. कारयितुंम। For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ षट्नाभृते [४. १०ये तु प्रतिमायां वस्त्राभरणादि कुर्वन्ति प्रतिष्ठावेलायां दघिसक्तुमुखे बघ्नन्ति तन्मतनिरासार्थ श्री गौतमेन महामुनिना पृथ्वीवृत्तमुक्तम्निराभरणभासुरं विगतरागवेगोदया निरम्बरं मनोहरं प्रकृतिरूपनिर्दोषतः। निरायुधसुनिर्भयं विगतहिस्य-हिसाक्रमा निरामिषसुतृप्तिमद्विविधवेदनानां क्षयात् ॥१॥ इक्कहि फुल्लहि माटिदेइ जु सुर नर रिद्धडी। एही करइ कुसाटिवपु भोलिम जिणवर तणी ॥ १॥ .. एक्कहिं फुल्लहिं फुल्लसउ वीए फुल्ल सहासु । जिबजिब जिणवर पुज्जियइ तिम्बतिम्ब दुरियह नासु ॥ २॥ तथा चोक्तं समन्तभद्रस्वामिना मुनिवरेण आर्याद्वयम् देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिहरणम् । कामदुहि कामदाहिनि परिचिनुयादादृतो नित्यम् ॥ १॥ और जो प्रतिमा के ऊपर वस्त्र तथा आभूषणादि धारण करते हैं तथा प्रतिष्ठा के समय दही और सत्तू प्रतिमा के मुख में रखते हैं उनके मतका निराकरण करनेके लिये महामुनि श्री गौतम ने पृथ्वी छन्द कहा है निराभरण-रागके वेगका उदय दूर हो जानेसे जिनेन्द्र देवका शरीर आभरणोंके बिना ही देदीप्यमान रहता है, स्वाभाविक रूपकी निर्दोषता के कारण वस्त्रके बिना ही मनोहर दिखता है, हिंस्य और हिंसाका क्रम नष्ट हो जानेसे शस्त्रों के बिना ही अत्यन्त निर्भय है और नाना प्रकार को वेदनाओं का क्षय हो जानेसे भोग्य वस्तुओं के बिना ही तृप्तिसे युक्त रहता है। जैसा जिनेन्द्र देवका शरीर होता है वैसी ही उनकी प्रतिमा होती है। __ इक्कहि-जिनेन्द्र भगवान् को एक फूल चढ़ाना देव और मनुष्यों की ऋद्धि को देता है तथा क्षुद्र-होनपर्यायों को दूर करता है ॥१॥ एक्कहि-जो भगवान् को एक फूल चढ़ाता है उसे समवशरण में अनेक फूल प्राप्त होते हैं अर्थात् वह पुष्पवृष्टि नामक प्रातिहार्य को प्राप्त होता है। यह जीव ज्यों-ज्यों जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करता है त्यों-त्यों उसके पाप नष्ट होते जाते हैं ॥२॥ इसी प्रकार मुनिवर समन्तभद्र स्वामी ने दो आर्या कहे हैंदेवाधिदेव-मनोरथों को पूर्ण करने वाले एवं कामको भस्म करने For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ -४. १०] बोधप्राभृतम् अहंच्चरणसपर्या महानुभावं महात्मनामवदत् । भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनकेन राजगृहे ॥ २ ॥ अजंगमदेहा-सुवर्णमरकतमणिघटिता, स्फटिकमणिघटिता, इन्द्रनीलमणिनिर्मिता, पद्मरागमणिरचिता, विद्रुम-कल्पिता, चन्दन-काष्ठानुष्ठिता वा अजङ्गमा प्रतिमा कथ्यते । ईदृशी प्रतिमा केषां भवति ? ( दसणणाणेण सुद्धचरणाणं ) दर्शनेन ज्ञानेन निर्मलचारित्राणां तीर्थंकरपरमदेवानाम् । कथंभून्ता प्रतिमा ? ( णिग्गंथवीयराया ) निर्ग्रन्था वस्त्राभरणजटामुकुटायुधरहिता, वीतरागो-रागरहितभावेऽवतारिता । ( जिगमग्गे एरिसा पडिमा ) जिनमार्गे सर्वज्ञवोतरागमते ईदृशी प्रतिमा भवति ॥ १० ॥ M वाले देवाधिदेव-जिनेन्द्र देवके चरणोंको शुश्रूषा समस्त दुःखोंको हरने वाली है, इसलिये निरन्तर उसे करना चाहिये ॥१॥ अर्हच्चरण-राजगृह नगर में हर्ष से मत्त हुए मेंढक ने महात्माओं के आगे एक फल के द्वारा अर्हन्त भगवान के चरणों की पूजाका माहात्म्य प्रगट किया। भगवानकी वह प्रतिमा अजङ्गमदेह होती है-चलने फिरने की क्रिया से रहित होती है । सुवर्ण और मरकतमणि से बनी स्फटिक मणिसे रचित, इन्द्रनीलमणि से निर्मित, पद्मरागमणि से रचित, मंगे से बनी तथा चन्दन की लकड़ी से निर्मित प्रतिमा अजंगम प्रतिमा कहलाती है। ऐसी प्रतिमा किनकी होती है ? इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं-वह प्रतिमा दर्शन और ज्ञान के द्वारा निर्मल चारित्र को धारण करने वाले तीर्थंकर परमदेव की होती है। यह प्रतिमा निर्ग्रन्य अर्थात् वस्त्र आभूषण, जटा, मुकुट तथा शस्त्रोंसे रहित होती है और वीतराग अर्थात् राग रहित भावके उत्पन्न करने में समर्थ रहती है। सर्वज्ञ वोतरागके मत में ऐसी ही प्रतिमा होती है। * रलकरण्ड श्रावकाचारे* श्री पं० जयचन्द्र जी ने इस गाथा की वचनिका इस प्रकार लिखी हैदर्शन ज्ञान करि शुद्ध निर्मल है चारित्र जिनकै तिन की स्वपरा कहिये अपनी अर परकी चालती देह है सो जिनमार्ग विर्षे जंगम प्रतिमा है। अथवा स्व परा कहिये आत्मा ते पर कहिये भिन्न है ऐसी देह है, सो कैसी है निर्ग्रन्थ स्वरूप है, जाकै किछु परिग्रहका लेश नांही ऐसी दिगम्बरमुद्रा, बहुरि कैसी है-वीतराग For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ षट्प्राभूते [४.११आगे जङ्गम प्रतिमा का वर्णन करते हैंजं चरदि सुद्धचरणं जाणइ पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं । सा होइ वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा ॥११॥ यश्चरति शुद्धचरणं जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम् । सा भवति वन्दनीया निर्ग्रन्था सांयता प्रतिमा ॥११॥ (जं चरदि सुद्धचरणं ) यो मुनिश्चरति प्रतिपालयति । किम् ? शुद्धचरणं . निरतिचार-चारित्रम् । ( जाणइ पिच्छेहे सुद्धसम्मत्तं ) जिनश्रुतं जानाति स्वयोग्यं वस्तु पश्यति च । शुद्ध पञ्चविंशति-दोष-रहितं यस्य सूरेः सम्यक्त्वं भवति । ( सा होइ वंदणीया ) सा भवति वन्दनीया नमस्करणीवा । ( णिग्गंथा संजदा पडिमा ) निन्था चतुर्विंशति-परिग्रह-रहिता संयतानां मुनीनां दिसम्बराणां प्रतिमा आकारः, जंगमा प्रतिमा मुनयो भवन्तीत्यर्थः ॥११॥ mmmmmmmmmmmmwwwwww गाथार्थ-जो निरतिचार चारित्र का पालन करते हैं, जिनश्रुत को जानते हैं, अपने योग्य वस्तुको देखते हैं, तथा जिनका सम्यक्त्व शुद्ध है, ऐसे मुनियोंका निन्थ शरीर जंगम प्रतिमा है। वह वन्दना करनेके योग्य है ॥११॥ विशेषार्थ-जो चरणानुयोग के अनुसार शुद्ध निरतिचार चारित्रका पालन करते हैं । जो जिनेन्द्र-प्रणीत शास्त्र-जिनागम को जानते हैं, अपने योग्य वस्तुको देखते हैं और जिनका सम्यक्त्व पच्चीस दोषों से रहित है, ऐसे संयमी मुनियों के चौबीस प्रकार के परिग्रह से रहित जो शरीर हैं वे जंगम-चलती फिरतो प्रतिमा है । तथा वन्दना-नमस्कार करने के योग्य है ।।११॥ स्वरूप है, जाकै काहू वस्तु सौं रागद्वेष मोह नाही, जिनमार्ग विर्षे ऐसी प्रतिमा कही है। दर्शन ज्ञान कर निर्मल चारित्र जिनके पाइये ऐसे मुनिनि की गुरु शिष्य अपेक्षा अपनी तथा पर की चालती देह निम्रन्थ वीतराग मुद्रा स्वरूप है सो जिनमार्ग विष प्रतिमा है, अन्य कल्पित है। अर धातु-पाषाण आदि करि दिगम्बर मुद्रा स्वरूप प्रतिमा कहिये सो व्यवहार है सो भी बाह्य प्रकृति ऐसी ही होय सो व्यवहार में मान्य है ॥१०॥ १. शङ्का आदि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढताएं ये सम्यग्दर्शन के २५ दोष हैं। For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४ १२] बोषप्राभृतम् अब सिद्धप्रतिमा का वर्णन करते हैंदसण अणतणाणं अणंतवोरिय अणंतसुक्खाय । सासयसुक्ख अदेहा मुक्का कम्मट्ठबंधेहिं ॥१२॥ दर्शनानन्तज्ञानं अनन्तवीर्या अनन्तसुखाश्च । शाश्वतसुखा अदेहा मुक्ताः कर्माष्टबन्धः ॥१२।। ( सण अणंत णाणं) दर्शनमनन्तं केवलदर्शनं सत्ताविलोकनमात्रलक्षणं । काकाक्षिगोलकन्यायेनानन्तशब्द उभयत्राभिसम्बन्धते । तेनानन्तज्ञानं वस्तु यथावत्स्वरूपग्राहक केवलज्ञानं लोकालोकव्यापकं द्वयम् । तद्योगाद्दर्शनानन्तज्ञानं अनन्तदर्शनमनन्तज्ञानं च सिद्धा भवन्ति । उक्तं चाशाघरेण महाकविना सत्तालोचनमात्रमित्यपि निराकारं मतं दर्शनसाकारं च विशेषंगोचरमिति ज्ञानं प्रवादीच्छया । ते नेत्रे क्रमवतिनी सरजसां प्रादेशिके सर्वतः स्फूर्जन्ती युगपत्पुनविरजसां युष्माकमङ्गातिगाः तथा च नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवतिना चोक्तम् दसणपुव्वं गाणं छदुमत्थाणं ण दोणि उवओगा । जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि ॥१॥ गापार्य-जो अनन्त दर्शन तथा अनन्तज्ञान-रूप हैं, अनन्तवीर्य और अनन्त सुख से युक्त हैं, अविनाशी सुखसे सहित हैं शरीर-रहित हैं और आठ कर्मोके बन्धनसे छूट चुके हैं, ऐसे सिद्ध परमेष्ठी सिद्ध प्रतिमा हैं ॥१२॥ विशेषार्थ-वस्तुकी सत्तामात्रके अवलोकन को दर्शन कहते हैं । यहाँ अनन्त दर्शन से केवल दर्शनका ग्रहण होता है। काकाक्षिगोलकन्याय से अनन्त शब्दका दर्शन और ज्ञान दोनोंके साथ सम्बन्ध होता है इसलिये अनन्त दर्शन और अनन्त ज्ञान ये दोनों शब्द सिद्ध होते हैं। यहां अनन्त ज्ञानका अथं वस्तुके यथार्थ स्वरूप को ग्रहण करनेवाला केवलज्ञान है। केवलदर्शन और केवलज्ञान ये दोनों ही लोक तथा अलोक में व्यापक हैं । उन दोनों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध होनेसे सिद्ध परमेष्ठी अनन्तज्ञान और अनन्त दर्शन रूप हैं । जैसा कि महाकवि आशाधर ने कहा है सत्ता-जो सत्ता मात्रका अवलोकन करता है ऐसा दर्शन निराकारघटपटादिके विकल्प से रहित माना गया है और जो घटपटादि विशेषको १. हे सियाः (० टि) For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० षट्प्राभृते [ ४ १२ ( अनंतवीरिय अनंतसुक्खा य) अनन्तवीर्याश्च सिद्धा भवन्ति लोकालोकस्वरूपावलोकने ज्ञातृत्वे च या शक्तिस्तदनन्तवीर्यं ज्ञातव्यम् । अनन्तसौख्याश्च सिद्धा भवन्ति । सर्ववस्तु स्वरूपपरिज्ञाने सति तेषां सुखमुत्पद्यते । तथा चोक्तं नेमिचन्द्रेण त्रिलोकसारग्रन्थे वैमानिकाधिकारपर्यन्ते - एयं सत्यं सव्वं सत्यं वा सम्ममेत्य जाणंता । तिव्वं तुस्संतिणरा किं ण समत्थत्थ तच्चण्हा ॥ १ ॥ चक्कि कुरुफणिसुरिदेसहमिदे जं सुहं तिकालभवं । तत्तो अनंतगुणिदं सिद्धाणं खणसुहं होदि ||२|| विषय करता है ऐसा ज्ञान साकार - सविकल्पक माना गया है। ये ज्ञान और दर्शन नेत्रके समान हैं तथा छद्मस्थज्ञानावरण-दर्शनावरण से युक्तं जीवों के क्रमसे प्रवृत्त होते हैं । छद्यस्थ जीवोंके ज्ञान और दर्शन प्रादेशिक हैं अर्थात् सीमित स्थान की बातको जानते हैं परन्तु हे शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी ! यतश्च आप ज्ञानावरणादि रज से रहित हैं अतः आपके ये दोनों लोक- अलोक में सर्वत्र व्याप्त हैं तथा एक साथ प्रकाशमान हैं ॥१॥ ऐसा ही श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने कहा है दंसण - छद्मस्थ जीवोंका ज्ञान, दर्शन-पूर्वक होता है उनके दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते परन्तु केवली जिनेन्द्र में दोनों एक साथ होते हैं । अनन्तज्ञान और अनन्तदर्शन के समान सिद्ध परमेष्ठी अनन्त वीयं और अनन्त सुख से युक्त भी हैं। लोक और अलोकका स्वरूप देखने तथा जानने की जो शक्ति है उसे अनन्त वीर्यं जानना चाहिये | समस्त वस्तुओं के स्वरूपका परिज्ञान होनेपर सिद्ध परमेष्ठी को सुख उत्पन्न होता है इसलिये वे अनन्त सोख्य से युक्त कहे जाते हैं । जैसा कि श्री नेमिचन्द्राचार्य ने त्रिलोकसार ग्रन्थ के वैमानिकाधिकार के अन्तमें कहा है एयं सत्यं - जब कि लोक में एक शास्त्र अथवा समस्त शास्त्रों को यथार्थ रीति से जानने वाले मनुष्य अत्यधिक सन्तुष्ट होते हैं-सुखी होते हैं तब समस्त पदार्थोंके स्वरूप को जानने वाले मनुष्यों की तो बात ही क्या है ? चक्कि — चक्रवर्ती, भोगभूमिजआयं, धरणेन्द्र, सुरेन्द्र तथा अहमिन्द्र For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. १३] बोधप्राभृतम् ( सासय सुक्ख अदेहा ) शाश्वतसुखा अविनश्वरसुखाः, अदेहा देहरहिताः मानमयामूर्तय इत्यर्थः । ( मुक्का कम्मट्ठबंधेहि ) मुक्ताः कर्माष्टबन्धनैः ॥१२॥ आगे इन्हीं सिद्धोंका और भी वर्णन करते हैंणिरुवममचलमखोहा निम्मिविया जंगमेण स्वेण । सिद्धठाणम्मि ठिया वोसरपडिमा धुवा सिद्धा ॥१३॥ निरुपमा अचला अक्षोभा निर्मापिता अजङ्गमेन रूपेण । सिद्धस्थाने स्थिता व्युत्सर्गप्रतिमा ध्रुवाः सिद्धाः ॥१३॥ (णिरुखममचलमखोहा) निरुपमा उपमारहिताः। इदृशः पुमान् कोऽपि नास्ति येन सिद्धा उपमीयन्ते अचलाः स्वस्थानादासुरोकोटितमं भागमपि न परतो गच्छन्ति । अखोहा-अक्षोभाः न क्षोभं प्राप्नुवन्ति । उक्तं च समन्तभद्रेणोत्सर्पिणीकाले आगामिनि भविष्यतीर्थकरपरमदेवेन-- काले कल्पशतेऽपि च गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या। उत्पातोऽपि यदि स्यात्वलोक्यसंभ्रान्तिकरणपटुः ॥१॥ को तीन काल में जितना सुख होता है सिद्धपरमेष्ठी के एक क्षणका सुख उससे अनन्तगुणा होता है। सिद्ध परमेष्ठी शाश्वत--सुख हैं-अविनाशी सुख से सहित हैं, शरीर रहित हैं ज्ञानमयमूर्ति के धारक हैं और आठ कर्मोके बन्धन से युक्त हैं। ऐसे सिद्ध भगवान् सिद्ध प्रतिमा कहलाते हैं ॥१२॥ गावाचे सिद्धपरमेष्ठी निरुपम हैं, अचल हैं, क्षोभ रहित है, (संसारावस्था के अन्तिमक्षणरूप उपादान से ) निर्मापित हैं, अजंगमस्म से सिद्धस्थान में स्थित हैं, कायोत्सर्ग अथवा पद्मासन मुद्रा में स्थित हैं और शाश्वत हैं ॥१३॥ विशेषार्य-सिद्ध भगवान् निरुपम हैं-उपमारहित हैं। ऐसा कोई पुरुष नहीं जिससे सिद्धोंकी उपमा को जा सके । अचल हैं-अपने स्थान से सरसोंकी अनी के एक भाग भी इधर उधर नहीं जाते हैं । अक्षोभ हैंक्षोभसे रहित हैं । जैसा कि आगामी उत्सर्पिणी कालमें तीर्थकर परमदेव होने वाले समन्तभद्राचार्य ने कहा है काले यदि तीनों लोकों में हल-चल मचा देने में समर्थ उत्पात भी , हो तो भी सैकड़ों कल्पकाल व्यतीत हो जाने पर भी मुक्त जीवोंमें विकार दृष्टिगोचर नहीं होता। वे सिद्ध भगवान स्थिर रूपसे निर्मापित हैं, For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ षट्प्राभृते [४. १४(निम्मिविया जंगमेण रूवेण ) स्थिररूपेण निर्मापिताः संसारान्त्यक्षणे निष्पादिता एकसमयेन त्रैलोक्यशिखरं प्राप्ता धर्मास्तिकायाभावात्परतो न गच्छन्ति । अजङ्गमेन रूपेण स्थिररूपेण तिष्ठन्ति निश्चयस्थिरप्रतिमाभिधानाः । ( सिद्धट्टाणम्मि ठिया ) सिद्धानां मुक्तात्मनां स्थाने त्रिभुवनाने तनुवातवलये स्थिताः मुक्तिशिलामीषदूनगव्यू तिमधो मुक्त्वा आकाशे निराधाराः स्थिताः (वोसरपडिमा धुवा सिद्धा) व्युत्सर्गप्रतिमाः कायोत्सर्गेण पद्मासनेन वा स्थिता ध्रुवाः शाश्वताः सिद्धाः प्रतिमा भवन्ति । तेऽपि वन्दनीया भवन्ति ॥१३॥ .. पडिमा--प्रतिमाधिकारस्तृतीयः समाप्तः ॥३॥ अब श्री कुन्दकुन्दाचार्य दो गाथाओं द्वारा दर्शनाधिकार कहते हैंदंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तं संजमं सुधम्म च । णिग्गंथं णाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं ॥१४॥ दर्शयति मोक्षमार्ग सम्यक्त्वं संयमं सुधर्म च । निर्ग्रन्थं ज्ञानमयं जिनमार्गे दर्शनं भणितम् ॥१४॥ ( दंसेइ मोक्खमग्गं ) दर्शयति प्रकटयति मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्रलक्षणं यत्तदर्शनम् । "कृत्ययुटोऽन्यत्रापोति" वचनात् कर्तरि युट् प्रत्ययः । संसारावस्था के अन्तिम क्षणरूप उपादान से सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए हैं और एक समय में तीन लोक की शिखर को प्राप्त हुए हैं, धर्मास्तिकाय का अभाव होने से आगे नहीं जाते हैं किन्तु अजंगम-स्थिर रूपसे वहीं स्थिर हो जाते हैं । सिद्धस्थान-तीन लोकके ऊपर तनु वात-वलय में स्थित रहते हैं। सिद्धशिला को कुछ कम गव्यूति प्रमाण नीचे छोड़कर आकाश में निराधार स्थित हैं । व्युत्सर्गप्रतिमा रूप हैं-कायोत्सर्ग अथवा पद्मासनसे स्थित हैं क्योंकि मोक्ष जाने वालों के यही दो आसन निश्चित हैं । ध्रुव हैं-अपनी इस सिद्धत्व-पर्याय से ध्रुव हैं, शाश्वत हैं। पूर्व तथा इस गाथा में बताये हुए विशेषणों से युक्त सिद्ध परमेष्ठी सिद्ध प्रतिमायें हैं, इन्हीं को स्थिर प्रतिमा भी कहते हैं ॥१३॥ ____ इस प्रकार प्रतिमा नामक तृतीय अधिकार समाप्त हुआ ।।३।। ....गाथार्थ-जो सम्यक्त्व, संयम और सुधर्म रूप मोक्षमार्ग को दिखलाता है तथा स्वयं निर्ग्रन्थ-परिग्रह-रहित और ज्ञानमय है वह जिनमार्ग में दर्शन कहा गया है ॥ १४ ॥ .. विशेषार्थ-जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप - मोक्षमार्ग को दिखलाता है वह दर्शन है। यहाँ "कृत्ययुटोऽन्यत्रापि" For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. २६ ] बोधप्रामृतम् १६३ कोऽसौ मोक्षमार्गो यं दर्शनं कर्तृतया दर्शयति । ( सम्मत्तं ) सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं। तथा ( संजम) चारित्रं पञ्चमहाव्रत-समिति-त्रिगुप्ति-लक्षणं दर्शयति ( सुधम्मच ) सुधर्म चानशनादिद्वादशविधं तपश्च दर्शयति । कथंभूत दर्शनं ? (णिग्गंथं ) बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितं । भूयोऽपि कथंभूतं दर्शनं ? ( णाणमयं ) सम्यग्ज्ञानेन निवृत्तम् । (जिणमग्गे दंसणं भणियं ) जिनमार्गे सर्वज्ञवीतरागप्रतिपादिते मार्ग दर्शनं भणितं यतिश्रावकाधारं प्रतिपादितं, अविरतसम्यग्दृष्ट्याधारभूतं च ॥१४॥ जह फुल्लं गंधमयं भवदि हु खोरं स घियमयं चावि । तह दंसणं हि सम्मं गाणमयं होई रूवत्यं ॥१५॥ यथा पुष्पं गन्धमयं भवति स्फुटं क्षोरं तघृतमयं चापि । तथा दर्शनं हि सम्यग्ज्ञानमयं भवति रूपस्थम् ॥१५॥ (जह फुलें गंधमयं ) यथा पुष्पं गन्धमयं भवति । ( भवदि हि खीरं सं घियमयं चावि ) भवति हु-स्फुटं क्षीरं दुग्धं, स-तत् घृतमयं घृतयुक्तं चापि । - व्याकरण के इस वचन से कर्तृवाच्य में युट् प्रत्यय होकर दर्शन, शब्द सिद्ध हुआ है । वह मोक्षमार्ग क्या है जिसे दर्शन कर्ता बन कर दिखलाता है ? इस प्रश्न के उत्तर स्वरूप मोक्षमार्ग को दिखलाते हैं। तत्वार्थ-श्रद्धान रूप सम्यक्त्व, पांच महाव्रत, पाँच समिति और तोन गुप्तियों रूप चारित्र, तथा अनशनादि बारह प्रकार के तप रूप सुधर्म, यह मोक्षमार्ग है। वह दर्शन निग्रंन्य है-बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह , से रहित है, तथा ज्ञानमय है-सम्यग्ज्ञान से रचा हुआ है। जिनमार्गसर्वज्ञ वीतराग देवके द्वारा प्रतिपादित मार्गमें दर्शनको सम्यक्त्व रूप कहा है। यह सम्यक्त्व रूप दर्शन, मुनि और श्रावकों का तथा अविरत सम्यग्दृष्टि का आधारभूत कहा गया है ॥ १४ ॥ - गाथार्थ-जिसप्रकार फूल गन्धमय और दूध घृतमय होता है उसी प्रकार दर्शन भी निश्चयसे सम्यग्ज्ञानमय होता है। यह सम्यग्दर्शन यति श्रावक और असंयत सम्यग्दृष्टिके रूप में स्थित है ।। १५ ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार पुष्प गन्धमय होता है अर्थात् पुष्पके प्रत्येक कणमें गन्ध विद्यमान रहता है और दूध घृतमय होता है अर्थात् दूधके प्रत्येक कणमें घृठ व्याप्त रहता है उसीप्रकार दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व भी For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ षट्प्राभृते [ ४. १६ अपि शब्दादन्येऽपि कनक- पाषाण - काष्ठाग्नि-प्रभृतयो दृष्टान्ता ज्ञातव्याः । ( तह दंसणं हि सम्मं ) तथा दर्शनं सम्यक्त्वं हि निश्चयेन ( णाणमयं होइ ) सम्यग्ज्ञानमयं भवति । रूवत्थं यतिश्रावका संयतसदृष्टिमूर्तिस्थितं दर्शनं ज्ञातव्यमित्यर्थः । दर्शनाधिकार एकादशाधिकरेषु बोघप्राभृते चतुर्थः समाप्तः ॥ १५ ॥ अथेदानीं जिनविम्बस्वरूपं निरूपयन्ति श्रीगृद्धपिच्छाचार्या भगवन्तःजिणविम्बं णाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च । जं देह दिक्खसिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा ॥ १६ ॥ जिनविम्बं ज्ञानमयं संयमशुद्धं सुवीतरागं च । यद् ददाति दीक्षाशिक्षे कर्मक्षयकारणे शुद्धे ॥ १६ ॥ ( जिणबिम्बं णाणमयं ) जिनस्य विम्बमाकारी ज्ञानमयं मतिज्ञानश्रुतज्ञानंयथा-संभवावधिज्ञान यथासंभव - मन:पर्यय-ज्ञानमयं भवति, तृतीयः परमेष्ठी आचार्यसंशको जिनविम्बं ज्ञातव्य इत्यर्थः । ( संजमसुद्ध सुवीयराय च ) तदुक्तलक्षणं जिनविम्बं कथंभूतं भवतीत्याह -- संयमयुद्ध संयमेन निरतिचारचारित्रेण शुद्ध निर्मल, सुष्ठु अतिशयेन वीतरागं वीतः क्षयगतो रागः प्रीतिलक्षणो यस्मादिति निश्चय से सम्यग्ज्ञान होता है । यहाँ 'घियमयं चावि' में जो अपि शब्द दिया है उससे सुवर्ण पाषाण तथा काष्ठाग्नि आदि अन्य दृष्टान्त भी जानने योग्य हैं यह दर्शन रूपस्थ है अर्थात् मुनि श्रावक और असंयत सम्यग्दृष्टिके रूप में स्थित है ॥ १५ ॥ इस प्रकार बोधप्राभृत के ग्यारह अधिकारों में दर्शनाधिकार समाप्त हुआ ।। ४ ।। अब इस समय श्री कुन्दकुन्दाचार्य भगवान् जिनविम्ब का स्वरूप दिखलाते हैं गाथार्थ - जो ज्ञानमय है, संयम से शुद्ध है, अत्यन्त वीतराग है तथा कर्मक्षय में कारणभूत शुद्ध दीक्षा और शिक्षा देते हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी जिनबिम्ब हैं ॥ १६ ॥ विशेषार्थ - तीसरे आचार्य परमेष्ठी जिनविम्ब हैं - जिनके आकारको धारण करने वाले हैं । वे मतिज्ञान श्रुतज्ञान और यथासंभव अवधिज्ञान तथा यथासंभव मन:पर्ययज्ञान से युक्त होने के कारण ज्ञानमय हैं। संयम - १. सुद्ध घ० । For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. १७ ] बोधप्राभृतम् १६५ वीतरागं । 'अज क्षेपणे' इति धातोः प्रयोगात् । "अजेर्वी : " इति चनादजेर्धातोवरादेशः चकारात्तद्गुणाधिकारोपणा निषेधिका च जिनविम्बं भवति । ( जं देह दिवख सिक्खा ) यज्जिनविम्बमाचार्यः ददाति दीक्षां व्रतारोपणलक्षणां, शिक्षां च द्वादशानुप्रेक्षा लक्षणां ददाति । ( कम्मक्खय-कारणे सुद्धा ) कर्मक्षयकारणे शुद्धां निर्मलां । जीवन्मुक्तजिनवदाचार्यो' - माननीय इति भावार्थः । उक्तं च सोमदेवेन सूरिणा - ज्ञानकाण्डे सूरिर्देव इवाराध्यः तस्स य करह पणामं सव्वं पुज्जं च विणय वच्छल्लं । जस्स य दंसण गाणं अस्थि धुवं चेयणाभावो ॥ १७॥ तस्य च कुरुत प्रणामं सर्वां पूजां विनयं वात्सल्यं । यस्य च दर्शनं ज्ञानं अस्ति ध्रुवं चेतनाभावः ॥ १७ ॥ ( तस्स य करह पणामं ) तस्य च जिनविम्बस्य जिनविम्बमूर्ते राचार्यस्य प्रणामं नमस्कारं पञ्चाङ्गमष्टाङ्ग वा कुरुत यूयं हे भव्यजीवाः ! चकारादुपा क्रियाकाण्डे चातुर्वर्ण्यपुरःसरः । संसाराब्धितरण्डकः ॥ १ ॥ निरतिचार चारित्र से शुद्ध हैं और अतिशय वीतराग हैं - प्रीतिरूप रागसे रहित हैं । यहाँ 'सुवीयरायं च' पद में जो चकार दिया है उससे आचार्य परमेष्ठी के गुणों को अधिक रूपसे बढ़ाने वाली सिद्ध भूमिको भी जिनविम्ब जानना चाहिये | आचार्य परमेष्ठी कर्मक्षय में कारण निर्मल व्रतधारण रूप दीक्षा और बारह अनुप्रेक्षा रूप शिक्षाको देते हैं । तात्पर्य यह है कि आचार्य जीवन्मक्त हैं अतः जिनेन्द्रके समान माननीय हैं। जैसा कि सोमदेव सूरि ने कहा है ज्ञानकाण्डे - जो ज्ञानकाण्ड और क्रियाकाण्ड में शिक्षा और दीक्षा में ऋषि, यति, मुनि और अनगार इन चार प्रकार के मुनियों के अग्रसर हैं तथा संसाररूपी समुद्रसे पार करने के लिये नौका के समान हैं ऐसे आचार्यं परमेष्ठी देवके समान आराधना करने के योग्य हैं ॥ १ ॥ गाथार्थ - उन जिनविम्बरूप आचार्य परमेष्ठी को प्रणाम करो, सब प्रकार की पूजा करो उनके प्रति विनय और वात्सल्य भाव प्रगट करो जिनके कि सम्यग्दर्शन तथा निश्चित रूपसे चेतनाभाव विद्यमान है ॥१७॥ विशेषार्थ - यहाँ जिनविम्ब शब्दसे जिनविम्बके समान मुद्राके धारक आचार्य परमेष्ठीका ग्रहण है । हे भव्य जीवो ! तुम उन्हें पञ्चाङ्ग १. जीवन्मुक्तजिनवरा म० । For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ षट्प्राभृते [ ४. १७ ध्यायस्य सर्वसाघोश्च प्रणामं कुरुत तयोरपि जिन विम्बस्वरूपत्वात् ( सव्वं पुज्जं च विजय वच्छल्लं ) सर्वां पूजामष्टविधमर्चनं च कुरुत यूयमिति, तथा विनयं हस्तयोटनं पादपतनं सन्मुखगमनं च कुरुत, वात्सल्यं भोजनं पानं पादमर्दनं शुद्धतैलादिनाङ्गाभ्यञ्जनं तत्प्रक्षालनं चेत्यादिकं कर्म सर्व तीर्थङ्कर नाम कर्मोपार्जन - हेतुभूतं वैयावृत्यं कुरुत यूयम् । उक्तं च समन्तभद्रेण महामुनिना - 'व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥ १ ॥ तथा चकारात्पाषाणादिघटितस्य जिनविम्बस्य पञ्चामृतैः स्नपनं, अष्टविधैः पूजाद्रव्यैश्च पूजनं कुरुत यूयम् । वन्दनां भक्तिं च कुरुत । यदि तथाभूतं जिनविम्बं न मानयिष्यथ गृहस्था अपि सन्तस्तदा कुम्भीपाकादिनरकादी पतिष्यथ यूयम् । तथा चोक्तं सोमदेवेन स्वाभिना - अथवा अष्टाङ्ग प्रणाम करो । 'च' शब्द से सूचित होता है कि उपाध्याय और सर्वं साधु को भी प्रणाम करो। क्योंकि वे दोनों भी जिनविम्ब स्वरूप ही हैं । सब प्रकार की अथवा अष्ट द्रव्य से होने के कारण अष्ट प्रकार की पूजा करो, इसके सिवाय विनय हाथ जोड़ना, पैर पड़ना तथा सम्मुख जाना आदि भी करो । वात्सल्य स्नेह, भोजन, पान, पादमर्दन, शुद्ध तेल आदि के द्वारा शरीर का मालिश करना, तथा धोना आदि सब कार्य तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध में कारणभूत वैय्यावृत्य भावना में शामिल हैं सो इन्हें भी करो । जैसा कि महामुनि समन्तभद्र स्वामो ने कहा हैव्यापत्ति—संयमी जनोंकी व्यापत्ति-विघ्न बाधाको दूर करना, पैर दाबना तथा गुणों में राग होनेके कारण उनका जितना भी उपकार है वह सब वैयावृत्य है । 1 मूल गाथा में 'तस्स' पदके आगे जो चकार का ग्रहण किया है उससे यह अर्थ सूचित होता है कि आप लोग पाषाण आदि से निर्मित जिन प्रतिमा का पञ्चामृत से अभिषेक और आठ प्रकारकी पूजा सामग्रीसे पूजा करो, वन्दना तथा भक्ति भी करो । यदि तुम लोग गृहस्थ होते हुए भी तथाभूत जिनप्रतिमा की मान्यता नहीं करोगे तो कुम्भीपाक आदि नरकों में पड़ोगे। जैसा कि सोमदेव स्वामी ने कहा है १. रत्नकरण्ड श्रावकाचारः । २. सोमदेव सूरिस्वामिना क० । For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. १८ ] बोधप्राभृतम् 'अपूजयित्वा यो देवान् मुनीननुपचर्य च । यो भुञ्जीत गृहस्थः सन् स भुञ्जीत परं तमः ।। १ ।। परं तम इति कोऽर्थः ? कुम्भीपाकनरकः, सप्तमे नरके पञ्च विलाति तेषां नामानि यथा - रौरवमहारौरवासिपत्रकूटशाल्मलो कुम्भीपाका इति सप्तमे नरके यानि चतुर्दिक्षु चत्वारि विलानि वर्तन्ते तान्यर्धं रज्जुप्रमाणानि सन्ति, तेषां मध्ये यत्कुम्भीपाकसंज्ञकं पञ्चमं विलमस्ति तदेकयोजन-लक्ष-प्रमाणं वर्तते पञ्चभिरपिरज्जुरेका भूमी रुद्धा वर्तते । ( जस्स य दंसण णाणं ) यस्य पूर्वोक्तलक्षणस्य जिन विम्बस्य दर्शनं ज्ञान च वर्तते । ( अस्थिधुवं चेयणाभावों ) अस्ति विद्यते ध्रुवं निश्चयेन चेतनाभाव आत्मस्वरूपं स्थापनान्यासेनापीति तात्पर्यम् । तववयगुणेह सुद्धो जाणदि पिच्छे सुद्धसम्मत्तं । अरहंतमुद्द ऐसा दायारी दिक्खसिक्खा य ॥ १८ ॥ तपोव्रतगुणैः शुद्धः जानाति पश्यति शुद्ध सम्यक्त्वम् । अर्हन्मुद्रा एषा दात्रो दीक्षा शिक्षाणां च ॥ १८ ॥ १६७ अपूजयित्वा - जो मनुष्य गृहस्थ होता हुआ भी देवों की पूजा और मुनियों को परिचर्या किये विना भोजन करता है वह परम तम को प्राप्त होता है । प्रश्न - परम तम, इसका क्या अर्थ है ? उत्तर -- कुम्भीपाक नरक । सातवें नरक के पाँच बिल हैं उनके नाम इस प्रकार हैं १ रौरव २ महारौरव ३ असिपत्र ४ कूट शाल्मली और ५ कुम्भीपाक । सातवें नरक की चारों दिशाओं में जो चार बिल हैं वे आधी रज्जु प्रमाण हैं और उन चारों बिलोंके बीच में जो कुम्भीपाक नामका पाँचवाँ बिल है वह एक लाख योजन प्रमाण है । इन पाँचों बिलों के द्वारा एक राज प्रमाण भूमि रुकी हुई है । जिसका लक्षण पहले कहा जा चुका है ऐसे जिन - विम्ब रूप आचार्य परमेष्ठी के दर्शन तथा ज्ञान विद्यमान रहता है और निश्चय से चेतना भाव अर्थात् आत्मस्वरूपकी उपलब्धि रहती है । पाषाण आदि से निर्मित जिनविम्बमें चेतनाभाव स्थापना- निक्षेप से होता है ॥ १७ ॥ 1 गाथार्थ - जो तप व्रत और गुण से शुद्ध हैं, वस्तु स्वरूप को जानते १. यशस्तिलके । For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ षट्प्राभृते [४. १९ (तप वयगुणेहिं सुद्धो ) तपोभिर्वादशभेदः, व्रतरहिंसासत्यास्तेयब्रह्मापरिग्रहैः पञ्चभिः गुणैः पूर्वोक्तलक्षणैश्चतुरशीतिलक्षः शुद्धो निष्कलङ्कः। ( जाणदि पिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं) जानाति सम्यग्ज्ञानवान पश्यति स्वरूपं वेत्ति, कस्य ? शुद्धसम्यक्त्वस्य पञ्चविंशतिमलरहितस्य ( अरहंतमुद्द ऐसा ) श्रीमद्भगवर्हत्सर्वशवीतरागस्य मुद्रा आकार एषा धर्माचार्यलक्षणा पाषाणघटित-विम्बस्वरूपा यन्त्रमन्त्राराधनगम्या च जिनविम्बं भवति । ( दायारी दिक्खसिक्खा य) कथंभूता मुद्रा ? दात्री दायिका, कासाम् ? दीक्षाशिक्षाणाम् । चकाराद्यात्राप्रतिष्ठादि- . कर्मणां च प्रवर्तिका। जिणविवं-इति श्री बोधप्राभृतेः जिनबिंवाधिकारः पंचमः समाप्तः ।।५।। अथेदानीमेकया गाथया जिनमुद्रां निरूपयन्ति श्रीमदेलाचार्यः- .. दढसंजममुद्दाए इदियमुद्दा कसायदढमुद्दा।। मुद्दा इह णाणाए जिणमुद्दा एरिसा भणिया ॥१९॥ हैं, तथा शुद्ध सम्यक्त्व के स्वरूप को देखते हैं ऐसे आचार्य ही अरहन्त मुद्रा है-जिनविम्ब है । यह अरहन्त मुद्रा दीक्षा और शिक्षा को देनेवाली है ॥१८॥ विशेषार्थ-तपके अनशन आदि बारह भेद हैं, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के भेदसे व्रतके पांच भेद हैं तथा गुणोंके चौरासीलाख भेद पहले कहे जा चुके हैं जो इन तप आदिसे शुद्ध हैंनिष्कलङ्क हैं-जिनके तप आदिमें कभी दोष नहीं लगते, जो वस्तु-स्वरूपको जानते हैं-सम्यग्ज्ञान से युक्त हैं, तथा जो पच्चीस मल से रहित सम्यक्त्व के स्वरूप को देखते हैं-जानते हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी अरहन्त मुद्रा हैं, सर्वज्ञ वीतराग अर्हन्त भगवान की मुद्रा-आकृति को धारण करने वाले हैं। इनके सिवाय यन्त्र और मन्त्र से जिनकी आराधना होती है ऐसी पाषाण निर्मित प्रतिमाएं भी जिनविम्ब कहलाती हैं। यह अरहन्त मुद्रा दीक्षा और शिक्षा को देनेवाली है और चकार से यात्रा तथा प्रतिष्ठा आदि कार्योंको प्रवर्ताने वाली है ॥१८॥ इसप्रकार बोधप्रामृत में जिनविम्ब नामका पांचवा अधिकार समाप्त हुमा ॥५॥ गावार्थ-जो संयम की दृढमुद्रा से सहित है, जिसमें इन्द्रियोंका For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ —४. १९ ] बोधप्राभृतम् दृढसंयममुद्रय इन्द्रियमुद्रा कषायदृढमुद्रा । मुद्रा इह ज्ञानेन जिनमुद्रा ईदृशी भणिता ॥ १९ ॥ ( दढ संजममुद्दाए) दृढया वच्चघटितप्रायया संयममुद्रया षड्जीवनिकाय - रक्षण - लक्षणया षड़िन्द्रियसंकोचस्वरूपया च मुद्रया वेषेण जिनमुद्रा भवति । ( इंदियमुद्दा कषायदढमुद्दा ) इन्द्रियाणां स्पर्शन - रसन-प्राण-चक्षुः श्रोत्राणां द्रव्ये - न्द्रियाणां यत्र मुद्रणं कूर्मवत्करण' - संकोचनमिन्द्रियमुद्रोच्यते सा जिनमुद्रा भवति । ( कसायदढ मुद्दा ) कषायाणां दृढं गाढं मुद्रणां कषायदृढमुद्रा । ( मुद्दा इइ णाणाए ) मुद्रा इह जिनशासने ज्ञानेन भवति, अर्हनशं पठनपाठनादिना जिनमुद्रा भवति । ( जिणमुद्दा एरिसा भणिया ) जिनमुद्रेदृशी भणिता । मुनीनामाकारो जिनमुद्रा । ब्रह्मचारिणामाकारश्चक्रवर्तिमुद्रा ते उभये अपि माननीये । यदि कश्चिद्दुरभि - निवेशेन तां न मानयति स पुमान् जिनमुद्राद्रोहो विशिष्टे दण्डनीय इति भावार्थः । १६९ मुद्रण - संकोच है, जिसमें कषायोंका दृढ़ मुद्रण- नियन्त्रण है और जो सम्यग्ज्ञानसे सहित है, ऐसो मुनिमुद्रा ही जिनमुद्रा है । जिन शासन में यहो जिनमुद्रा कही गई है। विशेषार्थ - छहकार्य के जीवोंकी रक्षा करना तथा छह इन्द्रियों को संकुचित करना संयम मुद्रा है । जिसमें यह संयममुद्रा वज्र से निर्मित के समान अत्यन्त दृढ होती है वह मुनि-मुद्रा जिन-मुद्रा कहलाती है । जिस मुनिमुद्रा में स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु और श्रोत्र इन द्रव्येन्द्रियोंका कछुए के समान संकोच किया जाता है तथा क्रोधादि कषायोंका अच्छी तरह नियन्त्रण होता है वह जिनमुद्रा कहलाती है। जिस मुनिमुद्रा में रात दिन पठन पाठन आदि के द्वारा ज्ञान का प्रचार होता है वह जिनमुद्रा है। जिनशासन में जिनमुद्रा ऐसी कही गई है। मुनियों के आकारको जिनमुद्रा और ब्रह्मचरियों के आकारको चक्रवर्ति मुद्रा कहते हैं । ये दोनों ही मुद्राएं माननीय हैं - पदके अनुकूल आदर के योग्य हैं। यदि कोई दुष्ट अभिप्राय उस जिनमुद्राका सन्मान नहीं करता है तो वह जिनमुद्राका द्रोही है तथा विशिष्ट जनों के द्वारा दण्डनीय है । शिर दाढ़ी और T मूछ के केशोंका लोंच करना, मयूर-पिच्छ धारण करना, कमण्डलु हाथ में रखना और नीचे के बाल रखना यह जिनमुद्रा मुनि-मुद्रा है । १. करचरणसंकोचनं म०, ङ० प्रती 'कूर्मवत्करणं संकोचनमिन्द्रियमुद्रोच्यते सा जिनमुद्रा भवति इति पाठो नास्ति' । For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० षट्प्राभूते [ ४. २० शिरः - कूचंश्मश्रुलाचा मयूरपिच्छघरः कमण्डलुकरोऽधः केशरक्षणं इति जिनमुद्रा सामान्यते । तदुक्तमिन्द्रनन्दिना प्रतिष्ठाचार्येण मुद्रा सर्वत्र मान्या स्यान्निर्मुद्रो नैव मान्यते । राजमुद्राघरो ऽत्यन्तहीन वच्छास्त्रनिर्णयः जिणमुद्दा - इति श्री बोधप्राभृते जिनमुद्राधिकारः षष्ठः समाप्तः । . अथेदानीं ज्ञानाधिकारः प्रारभ्यते संजमसंजुत्तस्स य सुझाणजोयस्स मोक्खमग्गस्स । गाणेण लहदि लक्खं तम्हा जाणं च णायव्वं ॥ २० ॥ संयमसंयुक्तम्य च सुध्यानयोगस्य मोक्षमार्गस्य । ज्ञानेन लभते लक्ष्यं तस्मात् ज्ञानं च ज्ञातव्यम् ॥२०॥ ( संजम संजुत्तस्स य ) संयमेनेन्द्रियजयप्राणरक्षणलक्षणेन संयुक्तस्य सहितस्य । ( सुझाणजोयस्स मोक्खमग्गस्स ) सुष्ठु -ध्यान-योगस्य आर्त- रौद्र ध्यानद्वय रहितस्य ध्यानस्य धर्म्यध्यानशुक्लध्यान द्वयस्य योगेन संयोगेन सहितस्य, एवं विशेषणद्वयविशिष्टस्य मोक्षमार्गस्य सम्बन्धित्वेन । ( णाणेण लहदि लक्खं ) ज्ञानेन करण ॥ १ ॥ www इसका सम्मान किया जाता है । जैसा कि इन्द्रनन्दी प्रतिष्ठाचार्य ने कहा है मुद्रा - सब जगह मुद्रा माननीय होती है, मुद्रा-रहितका सन्मान नहीं होता । जिस प्रकार राजमुद्रा को धारण करने वाला अत्यन्त हीन मनुष्य भी मान्य होता है । शास्त्रका यही निर्णय है ||१९|| इस प्रकार श्री बोधप्राभृत में जिनमुद्राधिकार नामका छठवाँ अधि-कार समाप्त हुआ । अब आगे ज्ञानाधिकार प्रारम्भ किया जाता है । गाथार्थ - संयमसे सहित और उत्तमध्यान के योग से युक्त मोक्षमार्गका लक्ष्य ज्ञान से ही प्राप्त होता है, अतः ज्ञानको जानना चाहिये ॥ २० ॥ विशेषार्थ - जो मोक्षमार्ग इन्द्रिय-संयम तथा प्राणिसंयम से युक्त है। एवं आर्तरौद्र रूप खोटे ध्यानों से रहित होकर धयं और शुक्ल नामक उत्तम ध्यानोंसे सहित है, उसके लक्ष्य निजात्म-स्वरूपको यह जव For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. २१ ] बोधप्राभृतम् १७१ भूतेन लभते । किं कर्मतापन्नं ? लक्ष्यं निजात्म स्वरूपम् । ( तम्हा णाणं च णायव्वं ) तस्मात्कारणाज्ज्ञानं च ज्ञातव्यं, न केवलमायतनादि'-षट्कं ज्ञातव्यं किन्तु ज्ञानं च ज्ञातव्यं । च शब्दः परस्परसमुच्चयार्थः ।।। जह णवि लहदि हु लक्खं रहिओ कंडस्स वेज्जयविहीणो। तह गवि लक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्खमग्गस्स ॥२१॥ यथा नापि लक्षयति स्फुट लक्ष्यं रहितः काण्डस्य वेध्यकविहीन । तथा नापि लक्षति लक्ष्यं अज्ञानी मोक्षमार्गस्य ||२१|| (जह ण वि लहदि हु लक्खं ) यथा येन प्रकारेण नापि नैव लभते, हु-स्फुटं, लक्ष्यं वेध्यं । कोऽसो वेध्यं न लभते ? ( रहिओ कंडस्स वेज्जयविहीणो) रहितोऽभ्यासरहितः, काण्डस्स वाणस्य, वेध्यकविहोनोऽनभ्यस्तवेध्यव्यधनः पुमान् । ( तह ण वि लक्खदि लक्खं ) तथा तेन प्रकारेण नापि लक्षयति जानाति लक्ष्यं परमात्मानं । ( अण्णाणो मोक्खमग्गस ) अज्ञानी ज्ञानरहितः पुमान् मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणस्य लक्ष्यं निजात्मस्वरूपं न लक्षयति ॥ २१ ॥ ज्ञानके द्वारा प्राप्त करता है इसलिये ज्ञानको जानना चाहये। साधुके मात्र आय-न आदि छह पदार्थों को हो नहीं जानना चाहिये किन्तु ज्ञानको भी जानना चाहिये। च शब्द परस्पर समुच्चय करने वाला है ॥२०॥ गाथार्थ-जिस प्रकार निशाना वेधने के अभ्यास से रहित पुरुष वाण के लक्ष्य निशानाको नहीं प्राप्त करता है उसी प्रकार . अज्ञानी पुरुष मोक्षमार्गके लक्ष्य निजात्म-स्वरूप को नहीं प्राप्त करता है ॥२१॥ विशेषार्थ-निशाना वेधने के अभ्यास से रहित पुरुष जिस प्रकार वाणके निशाना को नहीं प्राप्त कर पाता है, उसी प्रकार अज्ञानी-आत्मस्वरूप के चिन्तनके अभ्यास से रहित पुरुष मोक्षमार्ग के लक्ष्य-निज आत्मस्वरूप को नहीं प्राप्त कर सकता है। मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप है ॥ २१ ॥ १. आयतनाभिषटकं क० । For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ षट्प्राभूते [४. २२णाणं पुरिसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो वि विणयसंजुत्तो। णाणेण लहदि लक्खं लक्खंतो मोक्खमग्गस्स ॥२२॥ ज्ञानं पुरुषस्य भवति लभते सुपुरुषोऽपि विनयसंयुक्तः । ज्ञानेन लभते लक्ष्यं लक्षयन् मोक्षमार्गस्य ॥२२॥ . (गाणं पुरिसस्स हवदि ) ज्ञानं श्रुतज्ञानं पुरुषस्यासन्नभव्यजीवस्य भवति संतिष्ठते । (लहदि सुपुरिसो वि विणयसंजुत्तो) लभते प्राप्नोति ज्ञानं सुपुरुषोऽ-. त्यासन्नभव्यजीवः । अपि शब्दाद् ब्राह्मी-सुन्दरी राजमति' चन्दनादिवत् एकादशाङ्गानि लभन्ते, मृगलोचना अपि स्त्रीलिङ्ग छित्त्वा स्वर्गसुखं भुक्त्वा राजकुलादिषूत्पध मोक्षं तृतीयेऽपि भवे लभन्ते । पुरुषास्तु । सकलं श्रुतं लब्ध्वा तद्भवेऽपि मोक्षं यान्ति । ईदृशं ज्ञानं कः प्राप्नोति ? विणय-संजुतो-विनयसंयुक्तो गुरुचरणरेणुः रञ्जितभालस्थल इति भावार्थः ( णाणेण लहदि लक्खं ) ज्ञानेन श्रुतज्ञानेन लभते लक्ष्यं निजात्मस्वरूपं । ( लक्खंतो मोक्खमग्गस्स ) लक्षयन् ध्यायन् लक्ष्यं लभते, कस्य लक्ष्यं ? मोक्षमार्गस्य रत्नत्रयस्य ॥ २२ ॥ गाथार्थ-ज्ञान पुरुष के होता है, अर्थात् विनय से संयुक्त सत्पुरुष ही ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञानके द्वारा चिन्तन करता हुआ वहो सत्पुरुष मोक्षमार्गके लक्ष्य निजात्मस्वरूप को प्राप्त होता है ॥२२॥ विशेषार्थ-यहां ज्ञान से श्रुतज्ञान विवक्षित है वह श्रुतज्ञान निकटभव्य जीवके होता है तथा विनय से संयुक्त निकट-भव्य जीव ही उस श्रुतज्ञानको प्राप्त होता है । 'सुपुरुषोऽपि' के साथ जो अपि शब्द दिया है उससे यह सूचित होता है कि ब्राह्मी, सुन्दरी राजिमती तथा चन्दना आदिके समान स्त्रियाँ भी ग्यारह अङ्ग तक श्रुतज्ञान प्राप्त करती हैं और वे भी स्त्रीलिङ्ग छेदकर स्वर्ग सुखका उपभोग कर राजकुल आदि में उत्पन्न हो तृतीयभव में मोक्ष को प्राप्त होती हैं। परन्तु पुरुष सम्पूर्ण श्रुतज्ञान प्राप्त कर उसी भव में मोक्ष जा सकते हैं। प्रश्न-ऐसे ज्ञानको कोन पुरुष प्राप्त होता है ? । उत्तर-विनय से सहित अर्थात् गुरुओं की चरण-रज से जिसका मस्तक रंगा हुआ है ऐसा सत्पुरुष ही प्राप्त होता है। वह विनयी मनुष्य, श्रुतज्ञान के द्वारा रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग का चिन्तन करता हुआ लक्ष्यनिजात्मस्वरूपको प्राप्त होता है। १. राजिमति म० ० ०। For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४.२३] बोधप्राभृतम् मइधणु जस्स थिरं सद्गुण बाणा सुअत्थि रयणत्तं । परमत्यबद्धलक्खो ण वि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स ॥ २३॥ मतिधनुर्यस्य स्थिरं श्रुतगुणो वाणाः सुसन्ति रत्नत्रयम् । परमार्थवद्धलक्ष्यो नापि स्खलति माक्षमार्गस्य || २३ || मुनेर्धनुश्चापं स्थिरं निश्चलं । ( मइघणु जस्स थिरं ) मतिर्मतिज्ञानं यस्य ( सद्गुण ) श्रुतज्ञानं गुणः प्रत्यञ्चा | ) ( बाणा सुअत्थि रयणत्तं ) वाणाः शराः सुष्ठु अतिशयवन्तः सन्ति विद्यन्ते कि ? रत्नत्रयं भेदाभेदलक्षणं रत्नत्रयं । ( परमत्थबद्धलक्खों) परमार्थे निजात्म-स्वरूपे बद्धलक्ष्यः । निश्चलीकृतात्मस्वरूपो मुनिः । ( ण वि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स ) न स्खलति मोक्षमार्गस्य लक्ष्ये इति सम्बन्धः । तथा चोक्तं श्रीवीरनन्दिशिष्येण पद्मनन्दिनाचार्येण - , प्रेरिताः श्रुतगुणेन शेमुषीकामु केण शरवद्द्गादयः । बाह्यवेध्यविषयेऽकृतश्रमाश्चिद्रणे प्रहतकर्मशत्रवः ॥ १ ॥ तथा च सोमदेवस्वामिनापि श्रुतज्ञानस्य गुणस्तुतिः कृता wwww १७३ गाथार्थ - मतिज्ञान जिसका मजबूत धनुष है, श्रुतज्ञान जिसकी डोरी है, रत्नत्रय जिसके वाण हैं और परमार्थ में जिसने निशाना बाँध रक्खा है, ऐसा पुरुष मोक्षमार्ग में नहीं चूकता है || २३ ॥ विशेवार्थ - जिस मुनिके पास मतिज्ञान रूपी निश्चल धनुष है, श्रुतज्ञान रूपी डोरी है, भेदाभेद रत्नत्रय रूप वाण हैं, और निजात्मस्वरूप परमार्थमें जिसने अपना लक्ष्य बाँध रक्खा है, ऐसा मुनि मोक्षमार्गके लक्ष्य में कभी नहीं चूकता। जैसा कि श्री वोरनन्द के शिष्य पद्मनन्द आचार्य ने कहा हैं- प्रेरिता- जिन्होंने श्रुतज्ञान रूपी डोरी से युक्त मतिज्ञान रूपी धनुष के द्वारा वाणों की तरह सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय को प्रेरित किया हैचलाया हैं और जो बाह्य पदार्थ रूप निशाने के विषय में अकृतश्रम - अनभ्यस्त हैं अर्थात् निजात्मस्वरूप रूपी लक्ष्य के वेधने में ही जिन्होंने श्रम किया है, ऐसे मुनि आत्मरण में कर्म-रूपी शत्रुओं को नष्ट कर पाते हैं। इस प्रकार सोमदेव स्वामीने भो श्रुतज्ञान के गुणोंकी स्तुति की है For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ षट्प्राभृते [४. २४अत्यल्पायतिरक्षजा मतिरियं बोधोऽवधिः सावधिः, साश्चर्यः क्वचिदेव योगिनि स च स्वल्पो मनःपर्ययः। दुष्प्रापं पुनरद्य केवलमिदं ज्योतिः कथागोचरं, माहात्म्यं निखिलार्थगे तु सुलभे कि वर्णयामः 'श्रुते ॥१॥ णाणं-इति श्री बोधप्राभृते ज्ञानाधिकारः सप्तम समाप्तः । ७ ॥ अथेदानी गाथाद्वयेन देवस्वरूपं निरूपयन्ति श्रीकुन्दकुन्दाचार्या :सो देवो जो अत्थं धम्म कामं सुदेइ गाणं च । . . . सो देइ जस्स अत्थि दु अत्थो धम्मो य पव्वज्जा ॥२४॥ . स देवो योऽथं धर्म कामं सुददाति ज्ञानं च। . स ददाति यस्य अस्ति तु अर्थः धर्मश्च प्रब्रज्या ॥ २४ ॥ (सो देवो जो अत्यं) स देवो योऽर्थ धनं निधि-रलादिक ददाति । (धम्म कामं सुदेइ गाणं च ) धर्म चारित्रलक्षणं दयालक्षणं वस्तु-स्वरूपमात्मोपलब्धिलक्षणमुत्तमक्षमादिदशभेदं सुददाति सुष्छु अतिशयेन ददाति । काम-अधंमण्डलिक मण्डलिक महामण्डलिक बलदेव वासुदेव चक्रवतीन्द्र-धरणेन्द्र भोगं तीर्थंकर अत्यल्पा-इन्द्रियोंसे होने वाला यह मतिज्ञान अत्यन्त अल्प है, अवधिज्ञान अवधि-सीमा से सहित है, आश्चर्य से युक्त मनःपर्ययज्ञान किसी मुनिके होता है फिर भी अत्यन्त अल्प है और यह केवल ज्ञानरूप ज्योति इस समय अत्यन्त दुर्लभ होने से मात्र कथा का विषय है परन्तु श्रुतज्ञान समस्त पदार्थों को. विषय करता है तथा सुलभ भी है अतः उसके माहात्म्य का क्या वर्णन करें? अर्थात् उसका माहात्म्य वर्णनातीत है। इस प्रकार बोध-प्राभृत में सातवाँ ज्ञानाधिकार समाप्त हुआ ॥ ७ ॥ ... गाथार्थ-देव वह है जो अर्थ, धर्म, काम और ज्ञानको अच्छी तरह देता है। लोक में यह न्याय है कि जिसके पास जो वस्तु होती है वही उसे देता है। देवके पास अर्थ है, धर्म है ( चकार से ) काम है और प्रव्रज्या-दीक्षा अथवा ज्ञान है ॥२४॥ . विशेषार्थ-अर्थ, निधि-रल आदि धनको कहते हैं। धर्मका लक्षण चारित्र, दया, वस्तु-स्वभाव, आत्मोपलब्धि, अथवा उत्तम क्षमा आदि दशभेद हैं । कामका अर्थ अर्धमण्डलिक, मण्डलिक-महामण्डलिक, बलभद्र, १. श्रुतेः म०प०७०। For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४.२५ ] बोधप्राभृतम् १७५ भोगं च यो ददाति स देवः । सुष्ठु ददाति ज्ञान च केवलं ज्योतिः ददाति । ( सो देइ जस्स अत्थिदु ) स ददाति यस्य पुरुषस्य यद्वस्तु वर्तते असत्कथं दातुं समर्थः । ( अत्थो धम्मो य पव्वज्जा ) यस्यार्थो वर्तते सोऽर्थं ददाति यस्य धर्मो वर्तते स धर्मं ददाति यस्य प्रव्रज्या दीक्षा वर्तते स केवलज्ञानहेतुभूतां प्रव्रज्यां ददाति यस्य . , , सर्व सुखं वर्तते स सर्व-सौख्यं ददाति । उक्तं च गुणभद्रेण गणिना"सर्व: प्रेप्सति सत्सुखाप्तिमचिरात्सा सर्वकर्मक्षयात् सद्वृत्तास्स च तच्च - बोघनियतं सोऽप्यागमात्स श्रुतेः । सा चाप्तात् स च सर्वदोषरहितो रागादयस्तेऽप्यत - स्तं युक्त्या सुविचार्य सर्वसुखदं सन्तः श्रयन्तु श्रिये ॥ १ ॥ धम्मो दयाविसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता । देवो ववगयमोहो उदययरो भव्वजीवाणां ॥ २५ ॥ 'धर्मो दयाविशुद्धः प्रब्रज्या सर्वसङ्गपरित्यक्ता । देवो व्यपगत मोहः उदयक से भव्यजीवानाम् ||२५|| नारायण, चक्रवर्ती, इन्द्र, धरणेन्द्र और तीर्थंकर के भोग हैं और ज्ञानका अर्थ केवलज्ञान रूप ज्योति है । जो इन अर्थ धर्म आदि को देता है वह देव हैं । जिस पुरुष के पास जो वस्तु होती है उसे ही वह देता है । अविद्यमान वस्तु को देने के लिये कोई कैसे समर्थ हो सकता है। इस तरह यह सिद्ध हुआ कि जिसके पास अर्थ--धन है वह देता है जिसके पास धर्म है वह धर्म देता है, जिसके पास प्रव्रज्या दोक्षा है वह केवलज्ञान की प्राप्ति में कारणभूत प्रव्रज्या को देता है और जिसके पास सब सुख है वह सब सुख प्रदान करता है । जैसा कि गुणभद्राचार्य ने कहा है सर्वः प्रप्सति - समस्त प्राणी शीघ्र ही समीचीन सुख प्राप्तिको इच्छा करते हैं, सुखकी प्राप्ति समस्त कर्मों के क्षय से होती है समस्त कर्मों का क्षय सदवृत्त - सम्यक् चारित्रसे होता है, सद्वृत्त सम्यक्चारित्र ज्ञानके अधीन है, ज्ञान आगम से होता है, आगम श्रुतिसे होता है, श्रुति आप्त होत है, आप्त समस्त दोषों से रहित होता है और दोष रागादि हैं अतः सत्पुरुष लक्ष्मी के लिये युक्तिपूर्वक विचार कर सर्व सुखदायी उस आप्तकी उपा सना करें। गाथार्थ - दया से विशुद्ध धर्म, सर्वपरिग्रह से रहित प्रब्रज्या १. आत्मानुशासने । For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ षट्प्राभृते [४. २५. (धम्मो दयाविसुद्धो ) धर्मो दयया विशुद्धो निर्मलः, यो दयां कुर्वन्नपि चर्मजलं . पिबति, अजिन-तैलमास्वादयति, कुतुपघृतं भुक्त, भूतनाशनमत्ति, तस्य पुसो धों विशुद्धी न भवति स -'यतिवेषधार्यापि म्लेच्छो ज्ञातव्यः । ( पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता) प्रव्रज्या सर्वसङ्गपरित्यक्ता भवति, यो दण्डं करे करोति, कम्बलमुपदधाति, शङ्खकरनारीस्पृष्टमन्नमश्नाति स कथं प्रव्रज्यावान् भवति । ( देवो ववगयमोहो ) देवो व्यपगतमोहः, या देवोऽर्धागे वनितां दधाति, यो देवो हृदयस्थले लक्ष्मीमुपवेशयति, यो देवो दण्डं धरति, यो देवो वेश्यां चोपभुंक्ते, वशिष्ठपिता भवति स कथं देवः । ( उदययरो भव्वजीवाणं ) भव्य-जीवानामुदयकरः उत्कृष्टतीर्थकरनामशुभदायकः स देवो ज्ञातव्यः ॥२५॥ देवं इति श्री बोधप्राभृते देवाधिकारोऽष्टमः समाप्तः ॥८॥ और मोह से रहित देव, ये तीनों भव्य जीवोंका कल्याण करने वाले. हैं ॥२५॥ विशेषार्थ-धर्म दया से विशुद्ध-निर्मल होता है। जो दया करता हा भी चमड़े के पात्रका जल पीता है, चमड़े के पात्रका तेल खाता है, चमड़े के वर्तनका घी खाता है, तथा भांग खाता है उस पुरुषका धर्म विशुद्ध नहीं होता, उसे मुनिवेष का धारी होने पर भी म्लेच्छ जानना चाहिये । प्रवज्या सर्वपरिग्रह से रहित होती है, जो हाथ में दण्ड रखता है, कम्बल रखता है, तथा शूद्रा स्त्रोके हाथका छुआ अन्न खाता है वह प्रव्रज्या दीक्षाका धारक कैसे हो सकता है ? देव मोहसे रहित होता है । जा देव अर्धाङ्ग में स्त्रीको रखता है, जो देव हृदय स्थल पर लक्ष्मी को बैठाता है, जो देव हाथ में दण्ड धारण करता है, जो देव वेश्याका उपभोग करता है, और जो वसिष्ठका पिता होता है वह देव कैसे हो सकता है ? दयासे विशद्ध धर्म, सर्वपरिग्रहसे रहित प्रब्रज्या और मोह से रहित देव ये तीनों भव्य जीवोंके उदयको करने वाले हैं अर्थात् उत्कृष्ट तीर्थंकर नामक शुभ पदके देने वाले हैं ॥२५॥ ___ इस प्रकार श्री बोधप्राभृत में देवाधिकार नामका आठवां अधिकार समाप्त हुआ ||८|| १. स यतिवेष म०००। । For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. २६ ] बोधप्राभृतम् १७७ अथेदानी गाथाद्वयेन तीर्थ निरूपयन्ति श्रीपद्मनन्दिदेवाःवयसम्मत्तविसुद्धे पाँचदियसंजदे णिरावेखे । व्हाएउ मुणी तित्थे दिक्खासिक्खासुण्हाणेण ॥२६॥ व्रतसम्यक्त्वविशुद्धे पञ्चेन्द्रियसंयते निरपेक्षे । स्नातु मुनिस्तीर्थे दीक्षाशिक्षासुस्नानेन ॥२६|| ( वयसम्मत्तविसुद्धे ) व्रतैरहिंसासत्यास्तेयब्रह्मापरिग्रहलक्षणः पञ्चभिर्महावत: सम्यक्त्वेन च पञ्चरहिविंशतिमलहरीहितेन तत्वार्थश्रद्धानलक्षणेन, विशुद्ध विशेषेण निर्मले चर्मजलाद्यास्वादनरहिततयाष्कश्मले तीर्थे । (पचिदियसंजदे णिरावेवखे ) पचेन्द्रियसंयते पंचेन्द्रियाणि स्पर्शनरसन्घ्राणचक्षुःश्रोत्रलक्षणानि संयतानि बद्धानि अब आगे श्री कुंदकुंद देव दो गाथाओं द्वारा तीर्थ का निरूपण करते हैं। ___ गाथार्थ-मुनि, व्रत और सम्यक्त्व से विशुद्ध, पञ्चेन्द्रियों से नियन्त्रित और बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से रहित शुद्धात्मस्वरूप तीर्थमें दीक्षा तथा शिक्षा रूप उत्तम स्नान से स्नान करे ॥२६॥ ___ विशेषार्थ-यहाँ जिस शुद्ध बुद्धकस्वभाव रूप लक्षण से युक्त एवं संसार समुद्रसे तारनेमें समर्थ निजात्मस्वरूप तीर्थ-जलाशय में मुनिको स्नान करनेको प्रेरणा की गई है, वह व्रत तथा सम्यक्त्व से विशुद्ध है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच व्रत अथवा महा. व्रत हैं शङ्का, कांक्षा, विाचकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगृहन, अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना नामक आठ दोष, ज्ञानमद आदि आठ मद. लोकमूढ़ता आदि तीन मूढताएं और कुदेव आदि छह अनायतन इन पच्चीस मलोंसे रहित तत्त्वार्थका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इन दोनों • के द्वारा वह तीर्थ विशुद्ध है-अत्यन्त निर्मल है, साथ ही चर्मपात्र में रखे हुए जके सेवन आदि से रहित हानेके कारण अकश्मल है-उज्ज्वल है। • वह तीथ पञ्चेन्द्रियों से संयत है-स्पर्शन रसन घ्राण चक्षु और श्रोत्र ये पाँचों इन्द्रियाँ जिसमें संयत हैं-बद्ध हैं-स्पर्श रस गन्ध रूप और शब्द इन पांच विषयोंसे रहित हैं, इसके सिवाय वह तीर्थ निरपेक्ष है-बाह्य वस्तुओं की अपेक्षासे रहित है ख्याति, लाभ आदिको आकांक्षाओंसे रहित है और माया मिथ्यात्व तथा निदान इन तीन शल्योंसे वर्जित है । इसो तीर्थ में प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान से युक्त, महात्मा, महानुभाव मुनि को स्नान For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . षट्नाभते १७८ [४. २६स्पर्श-रसगन्धरूपशब्दलक्षणपंचविषयरहितानि यस्मिस्तीर्थे तत्तथोक्तस्तस्मिन् पंचेन्द्रियसंयते । पुनः कथंभूते तीर्थे ? निरपेक्षे बाह्यवस्तत्वपेक्षारहिते आकांक्षारहिते माया-मिथ्यानिदान शल्यत्रयाविवर्जिते । ( हाएउ मुणी तित्थे ) स्नातु स्नानं करोतु-अष्ट-कर्ममलकलङ्क-प्रक्षालनं करोतु-केवलज्ञानाद्यनन्त चतुष्टय संयुक्तो भवतु । कोऽसौ ? मुनिः प्रत्यक्षपरोक्षज्ञानसंयुक्तो महात्मा महानुभावो जीवः, तोर्थे शुद्धबुझेकस्वभावलक्षणे निजात्मस्वरूपे संसार-समुद्रतारणसमर्थे. तीर्थे स्नातु विशुद्धो भवतु । केन कृत्वा स्नातु ? ( दिक्खा-सिक्खा-सुव्हाणेण ) दीक्षा पंचमहाव्रत-पंचसमिति-पंचेन्द्रियरोघलोच-षडावश्यक-क्रियादयोऽष्टाविंशतिमूलगुणा उत्तमक्षमामर्दवार्जवसत्यशौचसंयम तपस्त्यागाकिचन्यब्रह्मचर्याणि दशलक्षिको धर्मोऽष्टादशशीलसहस्राणिचतुरशीतिलक्षगुणास्त्रयोदशविधं चारित्रं द्वादशविष तपश्चेति सकलसम्पूर्णदीक्षा भवति, स्त्रीप्रसङ्गवर्जनं द्वादशानुप्रेक्षाचिन्तनं शिक्षा जिननाथस्य, सुस्तानेन कर्मकिट्टिकरण किट्टिनिर्लोपनलक्षणेन स्नानेन स्नातु ॥२६॥ करना चाहिये अर्थात् अष्ट कर्म मल रूप कलङ्कका प्रक्षालन करना चाहिये अथवा केवलज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय से संयुक्त होना चाहिये। प्रश्न-किसके द्वारा स्नान करना चाहिये ? उत्तर-दीक्षा और शिक्षारूप उत्तम स्नान के द्वारा। प्रश्न-दीक्षा क्या है ? उत्तर-पांचमहाव्रत, पाँचसमिति, पञ्चेन्द्रियरोध, लोच, तथा षडा. वश्यक क्रिया आदि अट्ठाइस मूलगुण, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म, अठारह हजारशीलके भेद, चौरासीलाख गुण, तेरह प्रकारका चारित्र और बारह प्रकार का तप ये सब मिलकर दोक्षा कहलाती है। प्रश्न-शिक्षा क्या है ? उत्तर-स्त्री प्रसङ्गका त्याग करना और अनित्य आदि बारह भावनाओंका चिन्तन करना जिनेन्द्रदेव को शिक्षा है। प्रश्न-सुस्नान क्या है ? . उत्तर-जिसमें कर्म रूपी किट्टि-कालिमाका अभाव हो जाय ॥२६।। १. किट्टिकर क० । For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभूतस् जं णिम्मलं सुघम्मं सम्मत्तं संजमं तवं गाणं । तं तित्यं जिण मग्गे हवेइ जबि संतिभावेण ॥ २७॥ -४.२७ ] यन्निर्मलं सुधमं सम्यक्त्वं संयमस्तपः ज्ञानम् । तत्तीर्थं जिनमार्गे भवति यदि शान्तभावेन ||२७| ( जं णिम्मलं सुधम्मं ) यन्निर्मलं निरतिचारं सुषमं सुष्ठु शोभनं चारित्र तत्तीर्थ ज्ञातव्यम् | ( सम्मत्तं संजमो तवं णाणं ) सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं तीर्थं भवति । संयम इन्द्रियाणां मनसश्च संकोचनं पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायस्थावरजीव - रक्षणमविराधनम् । द्वीन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियत्रसजीवदया करणं क्वचित् गाथार्थ - जो निरतिचार, धर्मं, सम्यक्त्व, संयम, तप और ज्ञान है वह जिनमार्ग में तीर्थ है, वह भी यदि शान्तभाव से सहित हों । [ यदि यह धर्म सम्यक्त्व आदि भाव क्रोध से सहित हैं तो तीर्थ नहीं कहलाते हैं ।] १७९ विशेषार्थ – निर्मल - अतिचार से रहित जो उत्तम धर्म -- चारित्र है यह तीर्थ है, तत्त्वार्थं श्रद्धान रूप सम्यक्त्व तीर्थ है, इन्द्रियों और मन को वश में करना, पृथिवी जल अग्नि वायु और वनस्पति इन पाँच स्थावर जीवों की रक्षा करना अर्थात् निराधना नहीं करना और द्वीन्द्रियादि पञ्चेन्द्रियान्त त्रस जीवों की दया करना, यदि कहीं प्रमाद के दोष से विराधना हो भी जाय तो शास्त्रोक्तविधि से प्रायश्चित्त करना संयम कहलाता है। यह संयम भी संसार समुद्रसे तारने वाला होनेसे तीर्थ है। तपका लक्षण इच्छाओं का निरोध करना है, वह अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान के भेद से बारह प्रकारका होता है । तत्वार्थ सूत्र - मोक्षशास्त्र के नवम अध्याय में विस्तार से तप का निरूपण किया गया है वहाँसे उसे जानना चाहिये। यह तप तीर्थ है । इसके सिवाय ज्ञान भी तीर्थ है। जिनमार्ग में निश्चयनयसे यहाँ सब तीर्थ कहलाते हैं । व्यवहार नयसे जगत् प्रसिद्ध, निश्चयतीर्थ की प्राप्ति में कारण तथा मुक्त अवस्थाको प्राप्त हुए मुनियों के चरणों से स्पृष्टऊर्जयन्त ( गिरनार ) शत्रुञ्जय, लाटदेशका पावागिरि आमीर देश की १. निम्मलं क० घ० म० । २. हीन्द्रियाणि (?) क० घ० ४० ॥ For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते १८० [४. २७प्रमाददोषेण विराधनायां शास्त्रोक्त-प्रायश्चित्त-करणं संयम उच्यते सोऽपि संसारसमुद्रतारकत्वातीथं भवति । तप इच्छा-निरोधलक्षणं द्वादशविधं तत्त्वार्थमोक्ष-शास्त्र-नवमाध्याये विस्तरेण निरूपितत्वाज्ज्ञातव्यम् । ज्ञानं च तीर्थ भवति । ( तं तित्थं जिणमग्गे ) तज्जगत्प्रसिद्धं निश्चयतीर्थप्राप्ति-कारणं मुक्तमुनिपादस्पृष्टं तीर्थं ऊर्जयन्त शत्रुञ्जयलाटदेश-पावागिरि-आभीरदेशतुंगोगिरिनासिक्यनगर समीपवतिगजध्वजगजपन्थ-सिद्धकूट-तारापुर-कैलाशाष्टापद-चम्पापुरीपावापुर-वाराणसी-नगरक्षेत्र हस्तिनाग पत्तन सम्मेदपर्वत-सह्याचलमेढगिरि-हिमाचल ऋषिगिरि-अयोध्या-कौशाम्बी विपुलगिरि-वैभारगिरि रूप्यगिरि-सुवर्णगिरि-रत्नगिरि-शौर्यपुर-चूलाचल-नर्मदातट-द्रोणगिरि-कुन्थुगिरि-कोटिक-शिलागिरि जम्बूकवन चलनानदीतट तीर्थकरपञ्चकल्याणस्थानानि चेत्यादि 'जिनमार्गे यानि तीर्थानि वर्तन्ते तानि कर्मक्षयकारणानि वन्दनीयानि ये न वन्दन्ते ते मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः । तीर्थभ्रमणं विनाऽनन्ते संसारे प्रमिष्यन्ति, अनुमोदनाच्च तं तरन्ति । उक्तं च पूज्यपादेन भगवता इक्षोविकार रसपृक्त गुणेन लोके पिष्टोऽधिकं मधुरतामुपयाति यद्वत् । तद्वच्च पुण्यपुरुषरुषितानि नित्यं - जातानि तानि जगतामिह पावनानि ॥१॥ तुङ्गीगिरि नासिक नगर के समीप में स्थित गजकी पताकाओंसे युक्त गजपन्था, सिद्धवरकूट, तारापुर, कैलाश, अष्टापद, चम्पापुगे, पावापुर, बाराणसी नगरका क्षेत्र, हस्तिनागपुर; सम्मेदशिखर, मुक्तागिरि, हिमाचल, ऋषिगिरि, अयोध्या, कौशाम्बो, विपुलगिरि, वैभारगिरि, रूप्यगिरि, सुवर्णगिरि, रत्लगिरि, शौर्यपुर, चूलगिरि, नर्मदानदीका तट, द्रोणगिरि, कुन्थुगिरि, कोटिशिलागिरि, जम्बूकवन, चेलना नदीका तट, तथा तीर्थंकरोंके पञ्चकल्याणकों के स्थानको आदि लेकर जिनमार्ग में जो तीर्थ क्षेत्र प्रसिद्ध हैं वे कर्मक्षय के कारण हैं तथा वन्दना करनेके योग्य हैं, जो इन तीर्थोंकी वन्दना नहीं करते हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये । तीर्थ-भ्रमणके बिना वे अनन्त संसारमें भ्रमण करेंगे और तीर्थभ्रमणकी अनुमोदनासे संसारको पार करेंगे । जैसा कि भगवान् पूज्यपादने कहा है-- इक्षोर-जिस प्रकार लोकमें गुड़ या शक्कर के रससे चूर्ण अधिक १. भार्गे म०। For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. २७ ] बोधप्राभृतम् १८१ जिनमार्ग- बाह्य' यत्तीर्थं जलस्थानादिकं तन्न माननीयं । तत्किम् ? गङ्गायमुना-सरयू-नर्मदातापी-मागधीगोमतीकपीवतीरवश्यागंभीराकालतोया कौशिकी कालमही तो ग्राऽरुणा' निभुरा लोहित्य समुद्र कन्धुकाशोणनद बीजामेखलोदुम्बरी पनसातमसा प्रभृशा शुक्तिमती पम्पास रश्छत्रवती चित्रवती माल्यवती वेणुमती विशालानालिका सिन्धुपारा निष्कुन्दरी बहुवचारम्या सिकतिनीकुहासमतोयाकञ्जा कपिवती निविन्ध्या जम्बूमती - वसुमत्यश्वगामिनी - शर्करावती - सिप्राकृतमाला परिञ्जापनसाऽवन्तिकामा हस्तपानीका गन्धुनी व्याघ्री चर्मण्वती शतभागानन्दाकरभवेगिनी-क्षुल्लतापीरेवा-सप्तपारा - कौशिकी पूर्वदेशनद्यः । उक्तं च ब्राह्मणमते प्रागुदीच्ची विभजते हंसः क्षीरोदकं यथा । विदुषां शब्दसिद्धयर्थं सा नः पातु शरावती ॥ अथ दक्षिणे - तैला - इक्षुमती नक्ररवा चङ्गा स्वसना वैतरणी भाषवती महिन्द्रा शुष्कनदी सप्तगोदावरं गोदावरी मानससरः सुप्रयोगा कृष्णवर्णा सन्नीरा प्रवेणी कुब्जा धैर्या चूर्णी वेला शूकरिका अम्बर्णा । मधुरता को प्राप्त होता है उसी प्रकार पुण्य पुरुषों से निरन्तर अधिष्ठित तीर्थ जगत् को पवित्र करने वाले होते हैं। जिनमार्गसे बाह्य जो जलस्थान - नदी सरोवर आदि तीर्थस्थान हैं वे माननीय नहीं हैं । जैसे गङ्गा, यमुना, सरयू, नर्मदा, ताप्ती, मागधी, गोमती, कपीवती, अवश्या, गम्भीरा, कालतोया, कौशिकी, कालमही, तोग्रा, अरुणा, निभुरा, लोहित्य, समुद्र, कन्धुका शोणनद, बीजा, मेखला, उदुम्बरी, पनसा तमसा प्रभृशा, शुक्तिमती, पम्पासरोवर, छत्रवती, चित्रवती, माल्यवती, वेणुमती, विशाला, नालिका, सिन्धु पारा, निष्कुन्दरी, बहुवज्जा, रम्या, सिकतिनी, ऊहा, समतोया, कज्जा, कपीवती, पिविन्ध्या, जम्बूमती, वसुमती, अश्वगामिनी, शर्करावती, सिप्रा, कृतमाला, परिज्जा, पनसा, अवन्तिकामा, हस्तिपानी, कागंधुनी, व्याघ्री, चर्मण्वती, शतभागा, नन्दा करभवेगिनी, क्षुल्लतापी, रेवा, सप्तपारा, . कौशिकी आदि पूर्वदेश की नदियाँ । ब्राह्मणमत में कहा भी है प्रागु- जिस प्रकार हंस दूध और पानीका विभाग करता है उसी प्रकार जो पूर्व और उत्तर देशों का विभाग करती है तथा जो विद्वानों की शब्दसिद्धिका कारण है वह शरावती नदी हम सबकी रक्षा करे । १. तोग्वा म० । २. सिकतनीम्यूहा म० । ३. हस्ति म० । For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ षट्प्राभृते [४. २७ अथ पश्चिमे देशे-भैमरथी दारणा नीरा मूला बाणा केता स्वाकरीरी प्रहरा मुररा मदना गोदावरी तापी लाङ्गला खातिका कावेरी तुङ्गभद्रा साभ्रवती महीसागरा सरस्वतीत्यादयो नद्यो न तीर्थं भवन्ति पापहेतुत्वात्, तन्मतेऽपि विरुद्धत्वात् । गङ्गाद्वारे कुशावर्ते विल्वके नीलपर्वते । . स्नात्वा कनखले तीर्थे संभवेन्न पुनर्भवे ॥१॥ किमत्र विरोधः ? दुष्टमन्तर्गतं चित्त तीर्थस्नानान्न शुद्धयति । शतशोऽपि जलंधीतं सुराभाण्डमिवाशुचि ॥ १॥ तित्यं इति श्रीबोधप्रामृते तीर्थाधिकारो नवमः समाप्तः ॥ ९ ॥ अब दक्षिण दिशाको नदियां बतलाते हैं-तैला, इक्षुमती, नकरवा, चाङ्गा, श्वसना, वैतरणी, माषवती, महिन्द्रा, शुष्कनदी, सप्तगोदावर, गोदावरी, मानससर, सुप्रयोगा, कृष्णवर्णा, सन्नीरा, प्रवेणी, कुब्जा, धेर्या, चूर्णी, वेला, शूकरिका, अम्बर्णा। ___ अब पश्चिम देशकी नदियां कहते हैं-भेमरथी, दारुवेणा, नोरा, मूला, केता, स्वाकरीरी, प्रहरा, मुररा, गोदावरी, तापी, लाङ्गला, खातिका, कावेरी, तुङ्गभद्रा, साभ्रवती, महीसाग़रा, सरस्वती आदि नदियाँ तीर्थ नहीं हैं क्योंकि ये पापके कारण हैं। साथ ही इस विषय को लेकर ब्राह्मण मतमें विरुद्ध कथन भी पाया जाता है। जैसे एक स्थान पर कहा है गङ्गा-गङ्गाद्वार, कुशावर्त, विल्वक, नीलपर्वत, और कनखल तीर्थमें स्नान कर मनुष्य पुनः संसार में उत्पन्न नहीं होता अर्थात् मुक्त हो जाता है। तो दूसरे स्थान पर कहा है दुष्ट-जिस प्रकार मदिरा का वर्तन सैकड़ों बार जलसे धोने पर भी अशुद्ध ही रहता है उसी प्रकार मनुष्य का अन्तर्वर्ती चित्त दुष्ट ही रहता है, तीर्थ स्नानसे शुद्ध नहीं होता ॥२७॥ इस प्रकार श्री बोध-प्राभूत में तीर्थाधिकार नामका नौवां अधिकार समाप्त हुआ ॥९॥ For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. २८ ] बोषप्राभृतम् १८३ अथेदानीं चतुर्दशभिर्गाथाभिरहंत्स्वरूपमहाधिकारं प्रारभन्ते श्री कुन्दकुन्दा चार्या:-- णामे ठवणे हि य संव्वे भावेहि सगुणपज्जाया । चउणादि संपदिमं भावा भावंति अरहंतं ॥२८॥ नाम्नि स्थापनायां हि च द्रव्ये भावे च स्वगुणपर्यायाः । च्यवनमार्गतिः संदिमं भब्या भावयन्ति अर्हन्तम् ||२८|| ( णामे ) नामन्यासे सति । ( ठवणे ) स्थापनान्यासे सति । (हि) स्फुटं । चकारः पादपूरणार्थ: । ( संदव्वे ) समीचीने द्रव्यन्यासे सति ( भावे ) य भावन्यासे च सति ( सगुणपज्जाया ) स्वगुणा अनन्तज्ञानानन्तवीर्यानन्तसुखसंज्ञा अर्हन्तो भवन्तीत्युपस्कारः । स्वपर्यायाः दिव्यपर मौदारिकशरीराष्टमहाप्रातिहार्थसमवशरणलक्षणा: पर्याया अर्हन्तो भवन्तीत्युपस्कर्तव्यः । ( चउणं ) स्वर्गान्नरकाद्वा च्यवनं । ( आर्गादि . ) भरतादिक्षेत्रेष्वागमनं ( संपत् ) गर्भावतारात्पूर्वमेव षण्मासान् रत्न अब आगे चौदह गाथाओं द्वारा श्री कुन्दकुन्दाचार्य अहंत्स्वरूप नामक महाधिकारका प्रारम्भ करते हैं गाथार्थ – नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार निक्षेप, स्वकीयगुण, स्वकीयपर्याय, च्यवन, आर्गात, और संपदा इन नौ बातोंका आश्रय करके भव्य जीव अरहंत भगवान् का चिन्तन करते हैं ||२८|| विशेषार्थये - गुण जाति क्रिया और द्रव्य की अपेक्षा न रखकर किसी वस्तु के नाम रखने को नाम निक्षेप कहते हैं । तदाकार और अतदाकार वस्तु में किसी की कल्पना करनेको स्थापना निक्षेप कहते हैं। भूत भविष्यत् कालकी मुख्यता से पदार्थ के वर्णन करनेको द्रव्य निक्षेप कहते हैं और जो पदार्थ वर्तमान में जिसरूप है उसी रूप उसके कथन कहने को भाव निक्षेप कहते हैं। इन चारों निक्षेपों की अपेक्षा अरहन्तका कथन होता है । अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्यं और अनन्तसुख ये अहंत के स्वकीय गुण हैं। दिव्य परमोदारिक शरीर, अष्ट महाप्रातिहार्यं और समवशरण ये अरहन्त भगवान् को स्वकीय पर्याय हैं । अर्हन्त भगवान — तीर्थंकर भगवान स्वर्ग अथवा नरक गतिसे च्युत होकर उत्पन्न होते हैं । भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्र में उनका आगमन होता है अर्थात् स्वर्ग या नरक से च्युत होकर इन क्षेत्रों में उत्पन्न होते हैं। उनके गर्भावतरण के छहमास १. संपदिये ग० । For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [४. २९सुवर्णपुष्पगन्धोदकवर्षणं मातुरङ्गणे भवति, अवतीर्णे सति नवमासपर्यन्तं सुवर्णरत्नवृष्टि मातुरङ्गणे सौधर्मेन्द्रादेशात्कुवेरः करोति कनकमय-पत्तनं भवति । एत. त्सर्वं महापुराणात्सम्पद्विवरणमहतो ज्ञातव्यम् । ( इमं ) अर्हन्तं । ( भावा ) भव्यजीवा आसन्नतरभव्यवर-पुण्डरीकाः । ( भावंति ) भावयन्ति निजहृदय-कमले निश्चलं धरन्ति । कम् ? ( अरहतं ) श्रीमद्भगवत्सर्वज्ञवीतरागं । तथा चोक्त . णामजिणा जिणणामा ठवणजिणा तह य ताह पडिमाओ। दव्वजिणा जिणजीवा भावजिणा समवसरणत्था ॥१॥ ... दसण अणंतणाणे मोक्खो गट्टकम्मबंधेण। णिरुवमगणमारूढो अरहंतो एरिसो होई ॥२९॥ दर्शने अनन्तज्ञाने मोक्षो नष्टाष्टकर्मबन्धेन । 'निरुपमगुणमारूढः अर्हन् ईदृशो भवति ॥२९॥ पूर्व लगातार माता के अङ्गण में सुवर्ण और रत्नों की वर्षा होती है तथा गर्भावतरण हो चुकने पर नौ मास पर्यन्त माताके अङ्गण में सौधर्मेन्द्र की आज्ञासे कुवेर सुवर्ण और रत्नोंकी वर्षा करता है तथा उनका नगर सुवर्णमय हो जाता है, अरहन्त भगवान् को इस समस्त संपत्तिका वर्णन महापुराण से जानना चाहिये। इन नौ बातों का आश्रय लेकर अत्यन्त निकट श्रेष्ठ भव्य जीव अरहन्त भगवान की भावना करते हैं अर्थात् उन्हें अपने हृदय-कमल में निश्चल रूपसे धारण करते हैं। जैसा कि कहा है णामजिणा-अरहन्तभगवान के जो नाम हैं वे नामजिन हैं, उनको प्रतिमाएं स्थापना जिन हैं, अर्हन्त भगवानका जीव द्रव्य जिन है । और समवशरण में स्थित भगवान भावजिन हैं ॥१॥ इस श्लोक में नामादि चार निक्षेपोंकी अपेक्षा अरहन्त का वर्णन किया गया है ॥२८॥ गाथार्थ-जिनके अनन्तदर्शन और अनन्तज्ञान विद्यमान हैं, 'आठों कर्मोका बन्ध नष्ट हो जाने से जिन्हें भावमोक्ष प्राप्त हुआ है तथा जो अनुपम गुणोंको प्राप्त हैं ऐसे अरहन्त होते हैं ॥२९॥ १. अरहन्त भगवान् के सातावेदनीय का बन्ध विद्यमान रहने से यद्यपि आठों कर्मोके बन्धका अभाव सिद्ध नहीं होता तथापि सातावेदनीय में स्थिति अनुभाग बन्ध न पड़ने से अबन्ध को ही विवक्षा की गई है। For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ -४. २९] बोधप्रामृतम् (दसण अणतणाणे मोक्खो ) अनन्तदर्शने सत्तावलोकनमात्रलक्षणे सति । तथा अनन्तज्ञाने विशेषगोचरसाकारे सति मोक्षो भवतीति तावद्वेदितव्यम् । केन कृत्वा ? ( णट्टकम्मबंधेण ) नष्टाष्टकर्मबन्धेन । ननु 'मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरणां• तरायक्षयाच्च केवलम्' इत्युमास्वामिवचनात् चत्वार्येव कर्माण्यर्हते नष्टानि कथं नष्टाष्टकर्मबन्धेनेत्युच्यते ? साधूक्तं भवता, यथा सैन्यनायके पतिते सति जीवत्यपि शत्रुवृन्दे तन्मृतवत्प्रतिभासते विकृतिकारकत्वभावाभावात्तथा सर्वेषां कर्मणां मुख्यभूते मोहनीयकर्मणि नष्टे सति वेदनीयायुर्नामगोत्रकर्मचतुष्टये सत्यपि भगवतो विविध-फलोदयाभावादघातीन्यपि कर्माणि नष्टानीत्युच्यते । (णिरुवम गुणमारूढो) निरुपमं गुणमनन्तचतुष्टय-लक्षणमारूढोऽहनष्ट-कर्मरहित उच्यते । ( अरहंतो एरिसो होइ ) अर्हन्नीदृशो भवतीति मुक्त एवोपचयंत इति भावार्थः ॥२९॥ विशेषार्थ-पदार्थकी सत्ता मात्रका अवलोकन होना दर्शन है और विशेषताको लिये हुए विकल्प-सहित जानना ज्ञान कहलाता है । ज्ञानावरण के क्षय से अनन्तज्ञान और दर्शनावरण के क्षय से अनन्तदर्शन अरहन्त भगवानके प्रगट होता है। इन दोनों गुणोंके रहते हुए उनके आठों कर्मोका बन्ध नष्ट हो जाने से मोक्ष--भावमोक्ष होता है। प्रश्न-'मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्' मोहनीय तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के क्षय से केवलज्ञान होता है-उमास्वामी के इस वचन से सिद्ध है कि अरहन्त भगवान के चार कर्म ही नष्ट हुए हैं फिर उन्हें 'नष्टाष्टकर्म-बन्ध' क्यों कहा जाता है ? उत्तर-आपने ठीक कहा है, परन्तु जिस प्रकार सेनापति के नष्ट हो जाने पर शत्रुसमूह के जीवित रहते हुए भी वह मृत के समान जान पड़ता है क्योंकि विकार उत्पन्न करने वाले भाव का अभाव हो जाता है उसी प्रकार सब कर्मों के मुख्यभूत मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने पर यद्यपि अरहन्त भगवान के वेदनीय आयु नाम और गोत्र ये चार अधाति कर्म विद्यमान रहते हैं तथापि नाना प्रकार के फलोदय का अभाव होने से वे भी नष्ट हो गये, ऐसा कहा जाता है । उपमा-रहित अनन्त-चतुष्टय रूप गुणोंको प्राप्त हुए अरहन्त अष्ट कर्म से रहित कहे जाते हैं । ऊपर कही विशेषताओं से युक्त पुरुष होता है तथा उपचार से उसे मुक्त ही कहते हैं ॥२९॥ For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्रामृते [४. ३०जरवाहिजम्ममरणं चउगइगमणं च पुण्णपावं च । हंतूण दोसकम्मे हुंउ णाणमयं च अरहंतो ॥३०॥ जराव्याधिजन्ममग्णं चतुर्गतिगमनं च पुण्यपापं च । हत्वा दोषकर्माणि भूतः ज्ञानमयोऽर्हन् ॥३०॥ ( जर ) जरां हत्वा । ( वाहि ) व्याधि हत्वा, एतेन पदेन यत्महावीरस्वामिनः षण्मासिकमतीसारं रोग केवलिनः कथयन्ति तन्मतं निरस्तं भवति । (जम्म) जन्म गर्भवासं हत्वा, इदमपि पदमेतत् सूचयति यद्देवनन्दाया ब्राह्मण्या उदराद्वीर निष्कास्य क्षत्रियाया उदरे प्रवेशितवानिन्द्रस्तदप्ययुक्तं । गतिदाता इन्द्रएवेति (चेत् ? न ) जीवस्य कर्माधीनत्वं वृथा भवतीति दोष-सद्भावात् । तथा ( मरणं ) हत्वा । ( चउगइ गमणं च ) चतुर्गतिगमनं च हत्वा । ( पुण्णपावं . गाथार्थ-बुढापा, रोग, जन्म, मरण, चतुर्गति-गमन, पुण्य-पाप, अठारह दोष, तथा घातिया कर्मों को नष्ट करके जो ज्ञानमय हुए हैं वे अरहन्त हैं ॥३०॥ विशेषार्य-जरा का अर्थ बुढापा है, व्याधि बीमारी को कहते हैं। इन्हें नष्ट करने से हो अरहन्त-अवस्था प्राप्त होती है अर्थात् अरहन्त भगवान के परमौदादिक शरीर में न बुढापा प्रगट होता है और न कोई बीमारी हो । यहाँ खास कर व्याधि को नष्ट करके अरहन्त होते हैं, इस कथन से श्वेताम्बरोंके उस मतका खण्डन हो जाता है जिसमें वे कहते हैं कि भगवान महावीर स्वामीको केवलज्ञानी अवस्थामें छह मासके लिये अतीसार नामक बीमारी हो गई थी। जन्मका अर्थ गर्भवास है, अरहन्त भगवान् इसे नष्ट करके अरहन्त होते हैं अर्थात् अरहन्त भगवान् अरहन्त बनने के बाद मोक्ष ही प्राप्त करते हैं, गर्भवासको प्राप्त नहीं करते । इस पद से भी यह सूचित होता है कि "भगवान महावीर पहले तो देवनन्दा नामकी ब्राह्मणीके गर्भ में अवतीर्ण हुए थे बाद में इन्द्र ने उन्हें ब्राह्मणी के उदर से निकाल कर क्षत्रिया के मभं में प्रविष्ट कराया था" श्वेताम्बरों का यह कथन अयुक्त है। यदि यह कहा जाय कि इन्द्र ही जीव को गति देता है तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर जीव की कर्माधीनता व्यर्थ हो जाती है । अरहन्त भगवान मरण को तथा चारों गतियों के गमनको नष्ट कर अरहन्त बनते हैं अर्थात् अरहन्त भगवान का न मरण होता है और न नरकादि चारों गतियों में उनका For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४.३० ] बोप्राभृतम् १८७ च) पुण्यं पापं च हत्या | ( हंतूण दोसकम्मे ) हत्वा विनाश्य दोषानष्टा दश-दोषान् । के ते ?-- -'क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तक भयस्मयाः । न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीत्यंते ॥ चकाराच्चिन्तारति--निद्रा-विषादस्वेद - खेद - विस्मया गृह्यन्ते । कम्मे घातिकर्माणि तूण हत्वा ( उ णाणमयं च अरहंतो ) भूतः संजातः । कीदृश: ? णाणमयं-ज्ञानमयः केवलज्ञानवान् । अर्हन्, इन्द्रादिकृतामर्हणां पूजामनन्यसंभविनीमहंतीत्यर्हन् सर्वज्ञः वीतरागः ॥ ३०॥ गमन होता है । वे पुण्य पापको भी नष्ट कर चुकते हैं, कषायोदय की मन्दता में होने वाले शुभ परिणाम पुण्य और कषायोदय की तोव्रता में होने वाले अशुभ परिणाम को पाप कहते हैं कषायोदयका अभाव होने से अरहन्त भगवान के पुण्य और पाप दोनोंका अभाव रहता है | अरहन्त भगवान दोषों तथा कर्मोंको नष्ट करके अरहन्त बनते हैं । प्रश्न-दोषसे क्या अभिप्राय है ? उत्तर - अठारह दोष । जैसे— क्षुत्पिपासा - क्षुधा, प्यास, बुढापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह और चकारसे चिन्ता, अरति, निद्रा, विषाद, स्वेद, खेद, और विस्मय ये अठारह दोष हैं जिस पुरुष में ये अठारह दोष नहीं होते हैं, वह आप्त कहलाता है । प्रश्न - कर्मसे क्या अभिप्राय है ? उत्तर - घातिया कर्म 1 ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों को नष्ट करने से ही अरहन्त अवस्था प्रगट होती है । इन सब जरा, व्याधि आदिको नष्ट करके जब यह जीव ज्ञानमय -- केवलज्ञान रूप हो जाता है तब अरहन्त कहलाता है। इसे प्राकृत भाषामें 'अरहंत' और संस्कृत भाषा में 'अर्हत्' कहते हैं । अर्हत् शब्द 'अहं' धातु सिद्ध होता है । उसका निरुक्तार्थ है— जो दूसरे जीवों में न पाई जाने वाली इन्द्रादिकृत अर्हणा -- पूजाको प्राप्त करनेकी योग्यता रखता हो वह 'अर्हत्' है । समस्त पदार्थों के ज्ञाता होने से इन्हें सर्वज्ञ तथा रागद्वेष से रहित होने के कारण वीतराग भी कहते हैं ||३०|| १. रत्नकाण्ड श्रावकाचारे । For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ ४. ३१ गुणठाणमग्गणेहिं य पज्जत्तीपाणजीवठार्णोह । ठावण पंचविहेहि पणयव्वा अरुहपुरिसस्स ॥ ३१ ॥ गुणस्थानमार्गणाभिश्च पर्याप्तिप्राणजीवस्थानैः । स्थापना पञ्चविधः प्रणतव्या अर्हत्पुरुषस्य ||३१|| ( गुणठाणमग्गणे हि य) गुणस्थानेनार्हन् प्रणेतव्यो योजनीयः । कानि तानि - गुणस्थानानि ? तन्निर्देशो गाथाद्वयेन क्रियते - १८८ 'मिच्छा सासण मिस्सो अविरयसम्मो य देसविरओ य । विरया पमत्त इयरो अपुत्र अणियट्टि सुमो य ॥ १ ॥ उवसंतखीणमोहो सजोग केवलिजिणो अजोग्री य । चउदस गुणठाणाणि य कमेण सिद्धाय णायव्वा ॥२॥ मागंणाश्चतुर्दश निर्देक्ष्यति । ( पज्जत्ती ) षड्भिः पर्याप्तिभिरर्हन् प्रणेतव्यः । ता अपि निर्देक्ष्यति । ( पाणजीवठाणेह ) प्राणैर्दशभिरर्हन् प्रणेतव्यः । तानपि निर्देक्ष्यति । जीवस्थानानि चतुर्दशसु गुणस्थानेषु जीवा ये सन्ति तानि जीवस्था - नानि । तानि गुणस्थान निर्देशेन ज्ञातव्यानि । ( ठावण पंचविहेहि ) एवं गुणस्थानमार्गणा पर्याप्ति प्राणजीवस्थान-स्थापना पंचविधः स्थापना योजना गाथार्थ - गुणस्थान, मार्गणा, पर्याप्ति, प्राण और जीवस्थान इन पाँच प्रकारों से अरहंत भगवान् की स्थापना करना चाहिये ||३१|| विशेषार्थ - गुणस्थान के द्वारा अरहन्त की योजना करना चाहिये । वे गुणस्थान कौन हैं ? इसका निर्देश दो गाथाओं द्वारा किया जाता है मिच्छा -१ मिथ्यादृष्टि २ सासादन ३ मिश्र ४ अविरतसम्यग्दृष्टि ५ देशविरत ६ प्रमत्तविरत ७ अप्रमत्तविरत ८ अपूर्वकरण ९ अनिवृत्तिकरण १० सूक्ष्मसाम्पराय ११ उपशान्तमोह १२ क्षीणमोह १३ सयोग केवलि जिन और १४ अयोगकेवलिजिन । मार्गणा के द्वारा अरहन्त की योजना करना चाहिये । मार्गणाएँ चौदह हैं उनका निर्देश आगे करेंगे। छह पर्याप्तियोंके द्वारा अरहन्त का निरूपण करना चाहिये। उन पर्याप्तियों का भी आगे निर्देश करेंगे । दश प्राणोंके द्वारा अरहन्त भगवान् का वर्णन करना चाहिये। उन प्राणों का भी आगे निर्देश करेंगे। जीवस्थानों के द्वारा अरहन्तकी योजना करना चाहिये । चौदह गुणस्थानों में जो जीव रहते हैं वही जीवस्थान हैं । १. जीवकाण्डे नेमिचन्द्रस्य । For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ३२] बोधप्राभृतम् १८९ पंचप्रकारैः । (पणयव्वा अरुह पुरिसस्स ) प्रणेतव्या योजनीया अर्हत्पुरुषस्य अर्हज्जीवस्येति ॥३१॥ तेरहमे गुणठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहंतो। चउतीस अइसयगुणा होति हु तस्सद पडिहारा ॥३२॥ त्रयोदशे गुणस्थाने सयोगकेवलिको भवति अर्हन् । चतुस्त्रिशदतिशयगुणा भवन्ति हु तस्याष्ट प्रातिहार्याणि ॥३२॥ ( तेरहमे गुणठाणे ) त्रयोदशे गुणस्थाने । ( सजोय केवलिय होइ अरहंतो ) सयोग-केवलिको भवत्यहन् । ( चउतीसगइसयगुणा ) चतुस्त्रिशदतिशयगुणाः । (होति हु तस्सटु पडिहारा ) भवन्ति हु-स्फुटं तस्याहत्परमेश्वरस्याष्टप्रातिहार्याणि । के ते चतुस्त्रिशदतिशया इति चेदुच्यन्ते-नित्यं निःस्वेदत्वं, निर्मलता मलमूत्ररहितता, तत्पितुस्तन्मातुश्च मलमूत्रं न भवति । उक्तं च मुणस्थानोंका निर्देश ऊपर कर आये हैं उसीसे जोवस्थानोंको जानना चाहिये । इसप्रकार गुणस्थान-मार्गणा-पर्याप्ति-प्राण-और जीवस्थान; स्थापनाके इन पांच प्रकारों से अरहन्तको योजना करना चाहिये।॥३१॥ अब आगे गुणस्थानकी अपेक्षा अरहन्त का वर्णन करते हैं गाथार्थ-तेरहवें गुणस्थान में विद्यमान सयोगकेवलि जिनेन्द्र अरहन्त कहलाते हैं उनके चौंतीस अतिशय और आठ प्रतिहार्य होते हैं ॥३२॥ विशेषार्थ-इस जीवकी अरहन्त अवस्था तेरहवें गुणस्थानमें प्रकट होती है । उस गुणस्थानका नाम सयोगकेवली है। यहाँ केवलज्ञान प्रकट हो जाता है और साथ में योग विद्यमान रहते हैं इसलिये इस गुणस्थान- वर्ती जीवको सयोग-केवलो कहते हैं। जो मनुष्य तीर्थंकर होकर अरहंत बनते हैं उनके चौंतीस अतिशय तथा आठ प्रतिहार्य होते हैं और जो • सामान्य अरहंत होते हैं उनके यथा-संभव कम भी अतिशय होते हैं । अब यहां चौंतीस अतिशय कौन हैं ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिये उनका वर्णन किया जाता है। चौंतीस अतिशयों में दश जन्म के, दश केवलज्ञान के और १४ देवकृत अतिशय होते हैं । जन्मके दश अतिशय इस प्रकार हैं नित्य निःस्वेदता अर्थात् कभी पसीना नहीं आना। २ निर्मलता अर्थात् मलमूत्रसे रहित शरीर का होना । न केवल तीर्थंकर अरहन्तके मलमूत्र का अभाव होता है किन्तु उनके माता पिता के भी मलमूत्र का अभाव होता है । जैसा कि कहा गया है For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभृते [४.३२तित्थयरा तप्पियरा हलहर चक्की य अद्धचक्की य । देवा य भूयभूमा आहारो अस्थि पत्थि णीहारो। तथा तीर्थकराणां श्मश्रुणी कूर्चश्च न भवति, शिरसि कुन्तलास्तु भवन्ति । तथा चोक्तम् देवा वि य नेरइया हलहरचक्की य तह य तित्थयरा । सब्वे केसवरामा कामा निक्कुंचिया होति ॥ क्षीरगौररुधिरमांसत्वं, समचतुरस्रसंस्थानं, वर्षभनाराच-सहननं, सुरूपता, सुगन्धता, सुलक्षणत्वम्, अनन्तवीर्य, प्रियहितवादित्वं, चेति दशातिशया जन्मतोऽपि स्वामिनः शरीरस्य । ___ गव्यूतिशत-चतुष्टयसुभिक्षता । गगनगमनम् । अप्राणिवधः । कवलाहारो न भवति-भोजनं नास्ति । उपसर्गों न भवति । केवलिनामुपसर्ग भुक्ति च ये कथयन्ति ते -'प्रत्युक्ता भवन्ति । चतुर्मुखत्वम् । सर्वविद्यानां परमेश्वरत्वम् । अच्छायत्वंदर्पणे मुख-प्रतिविम्बं न भवति शरीरच्छाया च न भवति । चक्षुषि मेषोन्मेषो न भवति । नखानां केशानां च वृद्धिनं भवति । एते दशातिशया पातिकर्मक्षयजा भवन्ति । तित्थयरा-तीर्थकर उनके माता पिता, बलभद्र, चक्रवर्ती, अद्धचक्रवर्ती, देव और भोगभूमिया इनके आहार तो होता है परन्तु नोहार नहीं होता। इसी प्रकार तीर्थंकरोंके डाढो और मूछ नहीं होती किन्तु शिर पर धुन्धुराले बाल होते हैं । जैसा कि कहा गया है देवावि य-देव, नारकी, हलधर-बलभद्र, चक्रवर्ती, अर्धचक्रवर्ती, सब नारायण और कामदेव ये डाढ़ी मूछ से रहित होते हैं। __३ दूधके समान सफेद खून और मांसका होना ४ समचतुरस्र-संस्थान का होना ५ वज्रर्षभनाराच संहननका होना ६ सुन्दर रूपका होना ७ सुगन्धित शरीरका होना ८ उत्तम लक्षणोंका होना ९ अनन्त बल होना और १० प्रिय तथा हितकर वचन बोलना। ये दश अतिशय तीर्थंकर भगवान्के शरीर में जन्मसे ही होते हैं। अब केवलज्ञान-सम्बन्धी दश अतिशय कहते हैं १ चारसौ गव्यूति पर्यन्त सुभिक्षका होना २ आकाश में गमन होना ३ प्राणीका वध नहीं होना ४ कवलाहार का न होना ५ उपसर्ग नहीं होना। १. क प्रती 'प्रत्यक्ता' इति संशोधित केनापि । For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ३२] बोधप्राभृतम् सर्वार्धमागधीया भाषा भवति । कोऽर्थः ? अर्घ भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मकं, अर्घ च सर्वभाषात्मकं, कथमेवं देवोपनीतस्वं तदतिशयस्येति चेत् ? मगध देव-सन्निधाने तथा परिणतया भाषया संस्कृतभाषया प्रवर्तते । सर्वजनता-विषया मैत्री भवति सर्वे हि जनसमूहा मागध-प्रीतिकर-देवातिशयवशान्मागधभाषया भाषन्तेऽन्योन्यं मित्रतया च वर्तन्ते द्वातिशयो। सर्वतूंनां फलग्लुच्छाः प्रवालाः पुष्पाणि च भूमौ तरवो भवन्ति । आदर्शतलसदृशो भूमिमनोहरा रत्नमयो भवति । वायुः पृष्ठत आगच्छति शीतो मन्दः सुरभिश्च । सर्वलोकानां परमानन्दो भवति । एक योजनमग्रेऽये वायवो भूमि सम्माजयन्ति स्वयं सुगन्ध मिश्रा धूलिकण्टक-तृणकोटकान् ककरान् पाषाणांश्च प्रमार्जन्ति । स्तनितकुमारा गन्धोदकं वर्षन्ति । पादाघोऽम्बुजमेकं, अग्रतः सप्तकमलानि, पृष्ठतश्च सप्तपमानि योजनेक-प्रमाणानि, (जो मनुष्य केवलियों के उपसर्ग तथा कवलाहार का वर्णन करते हैं उनका इस कथन से निराकरण हो जाता है।) ६ चारों दिशाओं में मुख दिखना ७ सब विद्याओं का ईश्वरपना ८ छायाका अभाव, (दर्पण में तीर्थंकर के मुखका प्रतिविम्ब नहीं पड़ता है और न उनके शरीरकी छाया पड़ती है) ९ नेत्रोंके पलक नहीं झपकना और १० नख तथा केशोंकी वृद्धि नहीं होना; ये दश अतिशय घातिया कर्मोके क्षयसे उत्पन्न होते हैं। अब देवकृत चौदह अतिशय कहते हैं १ सर्वार्धमागधीया भाषा-भगवान को सर्वाध मागधी भाषा होती है। प्रश्न-इसका क्या अर्थ है ? उत्तर-भगवान् की भाषा में आधा भाग भगवान् की भाषाका होता है जो कि मगध देशकी भाषा रूप होता है और आधा भाग सर्वभाषा रूप होता है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो उस अतिशयमें देवोपनीतपना किस प्रकार सिद्ध होता है ? उत्तर-मगध देवोंके सन्निधान में संस्कृत भाषा उस भाषा रूप परिणमन करती है इसलिये अतिशयका देवोपनीतपना सिद्ध हो जाता है । . सब जनता में मंत्री-भाव होता है अर्थात् समस्त जन-समूह मागध और प्रीतिकर देवोंके अतिशय के वश मागधी भाषा में बोलते हैं और परस्पर में मित्रता से रहते हैं-ये दो अतिशय हैं । ३ पृथिवी पर ऐसे वृक्ष For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ षट्प्राभृते [४.३२प्रत्येकं सहस्रपत्राणि पद्मरागमणिकेसराणि अर्धयोजनकानि भवन्ति । सर्वसस्य - निष्पत्तियुता भूमिर्भवति । शरत्कालसरोवरसदृशमाकाशं निर्मलं भवति । दिशः सर्वा अपि तिमिरकां धूम्रतां त्यजन्ति तमो मुञ्चन्ति शलभा अपि दिशो नाच्छादयन्ति धूलिनॊड्डीयते । ज्योतिष्कान् व्यन्तरान् कल्पवासिदेवान् भवनवासिन आह्वयन्ति महापूजार्थं त्वरितमागच्छन्तु भवन्त इति । अरसहस्रं रत्नमयं रवितेजस्तिरस्कारकं धर्मचक्रं अग्रेऽग्रे गगने निराधारं गच्छति । अष्ट मङ्गलानि भवन्ति । तानि कानि ? छत्र-ध्वज-दर्पण-कलशचामर भृङ्गार-ताल-सुप्रतिष्टक इत्यष्टमङ्गलानि चतुर्दशोऽतिशयाः । एते चतुर्दशातिशया देवोपनीता भवन्ति । तथाष्टप्रातिहार्याणि भवन्ति । कानि तानीत्याह प्रकट होते हैं जिनमें सब ऋतुओंके फलोंके गुच्छे, किसलय और फूल दिखाई देते हैं। ४ भूमि दर्पणतल के समान मनोहर और रत्नमयी हो जाती है ५ पीछेको ओरसे शीतल मन्द और सुगन्धित वायु आती है । सब लोगोंको परम आनन्द होता है। ७ आगे आगे एक योजन तक सुगन्ध से मिश्रित वायु पृथिवी को स्वयं झाड़ती है और धूलि, ,कण्टक, तृण, कोड़े, कंकड़ और पत्थरोंको साफ करती रहती है। ८ स्तनित कुमार देव गन्धोदक की वर्षा करते हैं, ९ भगवान् के पांवके नीचे एक, आगे सात और पीछे सात । ये कमल एक योजन प्रमाण होते हैं। ये सब कमल पमराग मणिमय केशरसे युक्त तथा आधायोजन विस्तार वाले होते हैं। १० भूमि सब प्रकारके अनाजोंकी उत्पत्ति से सहित होती है। ११ आकाश शरद् ऋतुके सरोवरके समान निर्मल होता है । १२ सब दिशाएं तिमिरिकाधुन्द, धम्रता और अन्धकार को छोड़कर निर्मल हो जाती हैं, टिड्डियां भी दिशाओं को आच्छादित नहीं करती और न धलि ही उड़ती है। सब दिशाएं ज्योतिष्क, व्यन्तर, कल्पवासी और भवनवासो देवोंको यह कहकर बुलाती हैं कि आप लोग शीघ्र ही भगवान् की महापूजाके लिये आवें । १३ आगे-आगे आकाश में हजार आरोंसे युक्त, रत्नमय, तथा सूर्यके तेजको तिरस्कृत करनेवाला धर्म-चक्र आकाशमें निराधार चलता है। १४ छत्र, ध्वजा, दर्पण, कलश, चामर, झारी, तालपत्र, और ठौना ये आठ मङ्गल द्रव्य होते हैं, यह चौदहवां अतिशय है। ये चौदह अतिशय देवोपनीत होते हैं । इनके सिवाय तीर्थकर-अरहन्त भगवान्के आठ प्रतिहार्य होते हैं। प्रश्न-वे आठ प्रतिहार्य कौन हैं ? उत्तर-कहते हैं For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४.३३ ] बोधप्रामृतम् अशोकवृक्षः सुरपुष्पधृष्टिदिव्यध्वनिश्यामरमासनं च । . भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ अब मागंणा की अपेक्षा अरहन्तका वर्णन करते हैंगइईदियं च काए जोए वेए कसायणाणे य। संजमदंसणलेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ॥३३॥ गतौ इन्द्रिये च काये योगे वेदे कषाये ज्ञाने च । .. संयमे दर्शने लेश्यायां भव्यत्वे सम्यक्त्वे संज्ञिनि आहारे ॥३३॥ __ ( गइ ) नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवगतीनां मध्येऽर्हतो मनुष्यगतिः । ( इंदियं च ) स्पर्शन-रसन-घ्राण चक्षुःश्रोत्र पञ्चेन्द्रिय-जातीनां मध्येऽर्हन् पञ्चेन्द्रियजातिः । ( काए ) पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायानां मध्येऽहंन् त्रसकायः । ( जोए ) सत्यमनोयोगासत्यमनोयोगोभयमनोयोगानुभयमनोयोगानामहंतः सत्यानुभयमनोयोगी, सत्यवचनयोगासत्यवचनयोगोभयवचनयोगानुभयवचनयोगानां मध्येऽर्हतः सत्यानु mmi __अशोक-१ अशोक वृक्ष, २ देवोंके द्वारा पुष्प-वृष्टि होना, ३ दिव्यध्वनि, ४ चामर, ५ सिंहासन, ६ भामण्डल, ७ दुन्दुभि बाजा ८ छत्रत्रय; ये जिनेन्द्रदेवके आठ प्रातिहार्य हैं ॥३२॥ __गायार्थ-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, संज्ञित्व, और आहारक इन चौदह मार्गणाओं में यथासंभव अग्हन्त की योजना करना चाहिये ॥३३॥ विशेषार्थ-गति मार्गणा की अपेक्षा गति के नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ये चार भेद हैं, इनमें से अरहन्त के मनुष्य गति है। इन्द्रियमार्गणा की अपेक्षा इन्द्रियों के स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इस प्रकार पाँच भेद हैं, इन पांच जातियों में अरहन्त भगवान पञ्चेन्द्रिय जाति हैं। कायमार्गणा के पृथिवी-कायिक, जल-कायिक, अग्नि-कायिक, वायुकायिक, वनस्पति-कायिक और त्रस कायिक इस प्रकार छह भेद हैं इनमें से अरहन्त भंगवान त्रसकायिक हैं। योगमार्गणामें मनोयोगके सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, और अनुभय मनोयोग ये चार भेद हैं इनमेंसे अरहन्त के सत्य मनोयोग और अनुभयमनोयोग ये दो मनोयोग हैं। वचन-योगके सत्यवचनयोग, असत्य वचनयोग, उभयवचन योग और अनुभंय वचन-योग ये चार भेद हैं, इनमेंसे अरहन्तके सत्यवचन योग और अनुभंय वचनयोग ये दो वचन योग हैं । काय-योगके औदारिक काय-: : योग, औदारिक मिश्रकार्ययोग, वैक्रियिक कार्ययोग वैक्रियिकमिश्र काय For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ षट्प्राभृते . [४. ३३भयवचनयोगी, औदारिककाययोगौदारिकमिश्रकाययोग-वैक्रियिककाययोगवैक्रियिकमिश्रकाय-योगाहारके-काययोगाहारक-मिश्रकाययोग-कार्मणकाययोगानां मध्ये हतः औदारिककाययोगौदारिकमिश्रकाययोग-कार्मणकाययोग इति त्रियोगाः । सत्यमनोयोगोऽनुभयमनोयोगः सत्यवचनयोगोऽनुभयवचनयोग औदारिककाययोग औदारिकमिश्रकाययोगः कार्मणकाययोगश्चेति सप्तयोगाः। ( वेए ) स्त्रीन्नपुसकवेदत्रयमध्येऽहंतः कोऽपि वेदो नास्ति । ( कसाय ) पञ्चविंशतिकपायाणां मध्ये:हंतः कोऽपि कषायो नास्ति । ( णाणे य ) पञ्चज्ञानानां मध्येऽर्हतः केवलज्ञानमेकम् । ( संजम ) सप्तानां संयमानां मध्येऽर्हतः संयम एक एव यथाख्यातचीरित्रम् । । दंसण ) चतुर्णा दशनानां मध्ये दर्शनमेकमेव केवलदर्शनम् ( लेस्सा) षण्णां लेश्यानां मध्येऽहतो लेश्या एककशुक्ललेश्या । ( भविया ) भव्याभव्यद्वयमध्येऽहन् भव्य एव । ( सम्मत्त ) षण्णां सम्यक्त्वानामहंतः सम्यक्त्वमेकमेव योग, आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग और कार्मण काययोग ये सात भेद हैं इसमें से अरहन्त के औदारिक काययोग तथा समुद्घातको अपेक्षा औदारिक मिश्रकाययोग और कार्मण काययोग ये तीन काययोग हैं। इस तरह अरहन्त के सब मिलाकर सातयोग होते हैं जो इस प्रकार हैं-१ सत्यमनोयोग २ अनुभयमनोयोग, ३. सत्यवचनयोग ४ अनुभय वचन योग ५ औदारिककाययोग ६ औदारिकमिश्रकाययोग और ७ कार्मणकाय योग। वेदमार्गणाके स्त्री वेद, पुरुषवेद और नपुसक वेद ये तीन भेद हैं,, इनमें से अरहन्तके कोई भी वेद नहीं है. । कषायके अनन्तानुबंधी आदि पच्चीस भेद हैं उनमें से अरहन्तके कोई भी कषाय नहीं है। ज्ञानके मतिज्ञान आदि पाँच भेद हैं इनमें से अरहन्तके एक केवलज्ञान है। संयम मार्गणा के सायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यात, संयमासंयम और असंयम को अपेक्षा सात भेद हैं, इनमें से अरहन्तके एक यथाख्यात चारित्र है । दर्शन के चक्षुर्दर्शन, अचक्षु. दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये चार भेद हैं इनमें से अरहन्तके एक केवलदर्शन हो हैं । लेश्याके कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये छह भेद हैं इनमें से अरहन्त के एक शुक्ल लेश्या ही है। भव्यत्व मार्गणाके भव्य और अभव्य ये दो भेद हैं इनमें से अरहन्त भव्य ही हैं | सम्यक्त्व मार्गणाके औपशमिक सम्यक्त्व,क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, मिश्र, सामादन और मिथ्यात्व इस प्रकार छह भेद हैं इनमेंसे अरहन्तके एक क्षायिक सम्यक्त्व ही होता है। संज्ञी मार्गणा के संज्ञी और असंज्ञी ये दो भेद हैं इनमें से अरहन्त एक संधी ही हैं। और माहार मार्गणा के For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ३४ ] बोधप्रामृतम् १९५ क्षायिकसम्यक्त्वम् । ( सण्णि ) संज्ञिद्वयमध्येऽर्हन् संज्ञी ह्येक एव । ( आहारे ) आहारकानाहारकद्वयमध्येऽर्हत आहारकानाहारकद्वयम् ॥३३॥ आहारो य सरीरो' तह इंदिय आणपाणभासा य । पज्जत्तिगुणसमिद्धो उत्तमदेवो हवइ अरहो ॥ ३४ ॥ आहारश्च शरीरं तथा इन्द्रियानप्राणभाषाश्च । पयाप्तिगुणसमृद्धः उत्तम देवो भवति अर्हन् ||३४|| ( आहारो य सरीरो ) आहार: समयं समयं प्रत्यनन्ताः परमाणुवोऽनन्यजनसाधारणाः शरीरस्थिति हेतवः पुण्यरूपाः शरीरे सम्बन्धं यान्ति, नोकरूपा अहंत आहार उच्यते नत्वितर मनुष्यवद्भगवति कवलाहारो भवति तस्मान्निद्रा ग्लानिरुत्पद्यते कथं भगवानर्हन् देवता कथ्यते । कवलाहारं भुञ्जानो मनुष्य एव । तथा चोक्तं समन्तभद्रेण भगवता - आहारक अनाहारक की अपेक्षा दो भेद हैं इनमें से अर्हन्त के दोनों भेद सम्भव हैं | तेरहवें गुणस्थान में सामान्यरूप से आहारक हैं और समुद्घात की अपेक्षा अनाहारक हैं तथा चौदहवें गुणस्थान में अनाहारक ही हैं ।। ३३ ।। आगे पर्याप्ति की अपेक्षा अरहन्त का वर्णन करते हैं गाथार्थ - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ हैं । अरहन्त भगवान इन पर्याप्तियों के गुण से समृद्ध तथा उत्तम देव हैं || ३४ ॥ विशेषार्थ - दूसरे मनुष्यों में न पाये जाने वाले शरीर की स्थिति के कारण, पुण्य रूप, नोकर्म वर्गणा के अनन्त परमाणु प्रतिसमय अरहन्त . भगवान् के शरीर के साथ सम्बन्धको प्राप्त होते हैं वही आहार कहलाता है, ऐसा आहार ही अरहन्त भगवान के होता है अन्य मनुष्यों के समान कवलाहार नहीं होता क्योंकि उससे निद्रा और ग्लानि उत्पन्न होती है । यदि भगवान अरहन्त कवलाहार ग्रहण करते हैं तो वे देवता कैसे कहे जा सकते हैं क्योंकि कवलाहार खाने वाला मनुष्य ही होता है। जैसा कि भगवान् समंतभद्र ने कहा है Gend १. सरीरो इन्द्रियमण आग ग० । For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ षट्प्राभृते 'मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः । तेन नाथ परमाऽसि देवता श्रेयसे जिनवृष ! प्रसीद नः ॥ क्षुद्वेदनायां कवलाहारं भुञ्जानो भगवान् कथमनन्तसौख्यवानुच्यते वेदनायां सुखच्छेदत्वादित्यादि प्रमेयकमलमार्तण्डादिषु कवलाहारस्य निषिद्धत्वात् स्त्रीमुक्तेरपि । शरीर-पर्याप्तिः । ( तह इंदिय आणपाण भासा य ) तथा इन्द्रियपर्याप्तिः, आनप्राण पर्याप्तिः कोऽथः ? उच्छ्वास निःश्वासपर्याप्तिः भाषा, पर्याप्तिः चकारान्मनः पर्याप्तिः, एवं कायवाङ्मनसां सत्तायां सत्यामपि भगवतः कर्मबन्धो नास्ति जीवन्मुक्तत्वात्तस्य । तथा चोक्तम् — २कायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो नाभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर ! तावक मचिन्त्यमीहितम् ॥ मानुषीं - हे नाथ ! हे जिनेन्द्र ? आप चूंकि ( आहार आदि के विषय में ) मनुष्य की प्रकृति का उल्लंघन कर चुके हैं, अतः देवताओं में भी देवता हैं । आप उत्कृष्ट देवता हैं, इसलिये हमारे कल्याण के लिये प्रसन्न हूजिये । [ ४. ३४ क्षुधा की वेदना होने पर यदि भगवान कवलाहार करते हैं तो वे अनन्तसुखसे सहित क्यों कहे जाते हैं ? क्योंकि वेदना होने पर सुख का घात हो जाता है । इत्यादि रूपसे प्रमेय-कमल-मार्तण्ड आदि ग्रन्थों में कवलाहार का निषेध किया गया है तथा स्त्रीमुक्ति का भी खण्डन किया गया है। , आहार पर्याप्ति के सिवाय शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासो - च्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और चकार से मनःपर्याप्ति भी अरहन्त के होती हैं। इस प्रकार काय वचन और मनकी सत्ता रहते हुए भी भगवान् के कर्मबन्ध नहीं होता क्योंकि वे जोवन्मुक्त हो चुके हैं। जैसा कि कहा गया है कायवाक्य - मुनीन्द्र ! आपके शरीर वचन और मनकी प्रवृत्तियाँ करने की इच्छा से प्रवृत्त नहीं होती हैं, किन्तु स्वयं होतो हैं, यह ठोक है, फिर भी आपकी प्रवृत्तियाँ वस्तुरूपको यथावत जाने बिना नहीं होती। इस तरह हे धोर वीर भगवन् ! आपकी चेष्टा अचिन्त्य है । १. बृहत्स्वयंम्भू स्तोत्रे । २. बृहत्स्वयंभू स्तोत्रे । For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ३५ ] बोधप्राभृतम् १९७ ( पज्जत्तिगुणसमिद्धो ) षट्पर्याप्तिगुणसमृद्धः संयुक्तः । ( उत्तमदेवो हवइ अरहो ) उत्तमदेवो भवत्यर्हन् न तु हरिहरहिरण्यगर्भादय उत्तमदेवा भवन्ति तेषां दोषसद्भावात् । उक्तञ्च द्रुहिणाघोक्षजे शानशाक्यसूरपुरःसराः । यदि रागाद्यधिष्ठानं कथं तत्राप्तता भवेत् ॥ १ ॥ रागादिदोषसंभूतिर्ज्ञेयामीषु तदागमात् । असतः परदोषस्य गृहोतौ पातकं महत् ॥ २ ॥ अजस्तिलोत्तमाचित्तः श्रीरतः श्रीपतिः स्मृतः । अर्धनारीश्वरः शम्भुस्तथाप्येषु किलाप्तता ॥ ३ ॥ आगे प्राणों की अपेक्षा अरहन्त का वर्णन करते हैं - पंचवि इंदियपाणा मणवयकाएण तिष्णि बलपाणा । आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दह पाणा ॥ ३५ ॥ पञ्चापि इंन्द्रियप्राणा मनोवचः कायैः त्रयो बलप्राणाः । आनपानप्राणाः आयुष्कप्राणेन भवन्ति दश प्राणाः ॥ ३५ ॥ ( पंच वि इंदियपाणा ) इंद्रियप्राणाः पञ्च भवन्ति । ( मणवयकाएण तिष्णि बलपणा ) मनोवचः कायैर्बलप्राणास्त्रयो भवन्ति । ( आणप्पाणपाणा ) अरहन्त भगवान ऊपर कही हुई आहार आदि छह पर्याप्तियों के गुणसे समृद्ध हैं - संयुक्त हैं तथा उत्तम देव हैं । हरिहर ब्रह्मा आदि उत्तमदेव नहीं हैं क्योंकि उनमें दोषोंका सद्भाव है । जैसा कि कहा है दुहिणा - ब्रह्मा, विष्णु, महेश बुद्ध तथा सूर्य आदि देव यदि राग आदिके आधार हैं अर्थात् इनमें यदि राग आदि दोष पाये जाते हैं तो • उनमें आप्तपना कैसे हो सकता है ? रागादि - इन सबमें राग आदि दोषोंका सद्भाव उनके शास्त्रों से जानने योग्य है क्योंकि दूसरे के अविद्यमान दोष के ग्रहण करने में महान पाप है । अजस् - ब्रह्मा का चित्त तिलोत्तमा में लगा था, विष्णु लक्ष्मी में आसक्त थे और शम्भु अर्धनारीश्वर थे फिर भी इनमें आप्तपना हैइन्हें आप्त माना जाता है यह आश्चर्य की बात है ||३४| गाथा - पाँच इन्द्रिय प्राण, मन, वचन और कार्यके भेदसे तीन बल प्राण, श्वासोच्छ्वास प्राण तथा आयुप्राण ये दश प्राण हैं । अरहन्त के ये दशों प्राण होते हैं ||३५|| For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ षट्प्राभृते [ ४. ३६ आनप्राणप्राणा उच्छ्वासनिः श्वासलक्षण एकः प्राणः । ( आउगपाणेण होंति दहपाणा ) आयुकप्राणेन कृत्वा दश प्राणा भवन्ति । यथा चायुः शब्दः सान्तो नपुंसक - लिंगे वर्तते तथा आयु इत्युकारान्तोऽपि नपुंसके वर्तते । एवं दश प्राणा भवन्तीति ज्ञातव्यम् ।। ३५ ।। आगे जीवस्थान की अपेक्षा अरहन्तका वर्णन करते हैं मणुयभवे पाँचदिय जीवट्ठाणेसु होइ चउदसमें । एदे गुणगणजुत्तो गुणमारूढो हवह अरहो ॥ ३६ ॥ मनुजभवे पञ्चेन्द्रियो जीवस्थानेषु भवति चतुर्दशे । एतद्गुणगणयुक्तो गुणमारूढो भवति अर्हन् || ३६ || ( मणुयभवे पंचिदिय) मनुजभवेऽर्हन् कथ्यते पञ्चेन्द्रियोऽहंन्नुच्यते । ( जीवट्ठाणेसु होड़ चउदशमे ) जीवस्थानेषु मध्ये चतुर्दशे स्थानेऽर्हन् भवति । विशेषार्थ - इन्द्रिय प्राण पाँच हैं। मन-वचन-कायके भेदसे बल प्राण तीन होते हैं। श्वास का खींचना और छोड़ना यह अनिप्राण नामका प्राण है । इन सबको आयुप्राण के साथ मिलाने पर दश प्राण होते हैं । जिस प्रकार सकारान्त आयुष् शब्द नपुंसक लिङ्गमें विद्यमान है उसी प्रकार 'आयु' यह उकारान्त शब्द भी नपुंसक लिङ्ग में विद्यमान है । इस प्रकार अरहन्त के दश प्राण होते हैं, यह जानना चाहिये ।। ३५ ।। गाथार्थ - 'जीवस्थान की अपेक्षा अरहन्त, पञ्चेन्द्रिय मनुष्य कहलाते हैं । अरहन्त पद चौदहवें जीवस्थान - गुणस्थान में भी होता है । इन सब गुणों के समूह से युक्त मनुष्य जब तक गुणस्थानों में आरूढ़ रहता है तब तक अरहन्त कहलाता है, गुणस्थानों से पार होने पर सिद्ध कहलाता है ।। ३६ ।। विशेषार्थ - मनुष्य भव में ही अरहन्त कहलाता है और वह भो पञ्चेन्द्रिय ही । जीवस्थान के जो चौदह भेद पहले बताये गये हैं उनमें से चौदहवें जीवस्थान में भी अरहन्त होता है । अर्थात् तेरहवें गुणस्थान में विद्यमान सयोगकेवली तो अरहन्त हैं ही चौदहवें गुणस्थान -वर्ती १. मनुष्यभवे पञ्चेन्द्रियजीवे चतुर्दशमं गुणस्थानं भवति । एतैगुणगणैः समूहैः युक्त गुणं न भवति ( ख x टी ) । २. इस गाथाका अर्थ पण्डित जयचन्द्र जी को वचनिकामें अन्य प्रकार किया गया है । For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ३७ ] बोधप्राभृतम् १९९ अयोगकेवल्यप्यर्हन् भवतीति भावः । ( एदे गुणागणजुत्तो ) एतद्गुणगणयुक्तः । ( गुणामारूढो हवइ अरहो ) गुणस्थानमारुढोऽर्हन् भवति गुणस्थानात्परतः सिद्ध उच्यते इति भावः ॥ ३६ ॥ आगे द्रव्य की अपेक्षा अरहन्त का वर्णन करते हैं जरवाहिदुक्खरहियं आहारणिहारवज्जियं विमलं । सिंहाण खेल सेओ णत्थि दुगंछा य दोसो य ॥३७॥ जराव्याधिदुःख रहितः आहारनोहारवर्जितो विमलः । सिंहाण: खेल: स्वेदो नास्ति दुर्गन्धश्च दोषश्च ॥ ३७॥ ( जर वाहिदुक्ख र हियं ) जरारहितो व्याधिरहितः शारीरमानसागन्तुदु.खरहितोऽर्हन् भवति । प्राकृते लिङ्गभेदत्वात् जरवाहिदुक्खर हियं इति नपुंसकलिङ्ग अयोग-केवली भी अरहन्त होते हैं। इन सब गुणों के समूह से युक्त मनुष्य यदि गुणस्थान में आरूढ है अर्थात् तेरहवें चौदहवें गुणस्थान में विद्यमान है तो अरहन्त होता है और यदि गुणस्थानोंसे परे हो गया है तो सिद्ध कहलाने लगता है । [ श्री पं० जयचन्द्र छावड़ा ने इस गाथाका अर्थ यों किया है— अर्थ – 'मनुष्य भव विषै पञ्चेन्द्रिय नामा चौदमां जीवस्थान कहिये जीवसमास ता विषै इतने गुणनि के समूह करि युक्त तेरहमें गुणस्थान कू प्राप्त अरहंत होय है । भावार्थ - जीव समास चौदह कहे हैं एकेन्द्रिय सूक्ष्म, वादर, २ बे इन्द्रिय तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय ऐसे विकलत्रय ३, पञ्चेन्द्रिय असैनी, सैनी २ ऐसें सात भये ते पर्याप्त अपर्याप्त करि चौदह भये तिनि में चौदहमां सैनी पञ्चेन्द्रिय जीवस्थान अरहन्त के है । गाथा में सैनो का नाम न लिया अर मनुष्य भवका नाम लिया सो मनुष्य सेनी ही होय है, असैनी न होय तातें मनुष्य कहने तैं सैनी ही जानना ||३६|| ] गाथार्थ - अरहन्त भगवान बुढापा व्याधि और दुःख से रहित हैं, आहार और नीहारसे रहित हैं, मल-रहित हैं । अरहन्त भगवान में नाक का मल, थूक, पसीना, ग्लानि उत्पन्न करने वाली घृणित वस्तु तथा वात वित्त कफ आदि दोष नहीं हैं ||३७|| विशेषार्थ – अरहन्त भगवान बुढापा से रहित हैं, श्वास कास आदि बीमारियों से रहित हैं, शारीरिक मानसिक और आगन्तुक दुःखों से For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० षट्प्राभृते [४. ३८निर्देशो ज्ञातव्यः, एवमुत्तरत्रापि । ( आहारणिहारवज्जियं ) आहारनिहारवर्जितः कवलाहाररहितोऽहंन भवति नीहार-रहितो बहिर्भूमिवाधारहितः । अनेन वाक्येन श्वेतपटमतं निराकृतम् । ( विमलं ) शरीरे मलमहतो न भवति । ( सिंहाण खेल सेओ ) सिंहाणः नासायां मलो न भवति । खेलो निष्ठीवनमर्हति नास्ति, स्वेदश्च शरीरे प्रस्वेदोऽर्हति न वर्तते । ( णत्थि दुगंछा य दोसो य ) अन्यदपि जुगुप्साहेतुभूतं किमपि पिटकादिकं अर्हति न वर्तते दोषश्च वातपित्तश्लेष्माणोऽहंति न वर्तन्ते ॥३७॥ दस पाणा पज्जत्ती अट्ठसहस्सा य लक्खणा भणिया । गोखीरसंखधवलं मंसं रुहिरं च सव्वंगे ॥३८॥ दश प्राणाः पर्याप्तयोऽष्टाधिकसहस्राणि च लक्षणानि भणितानि । गोक्षीरशङ्खधवलं मां रुधिरं च सर्वाङ ।३८।। ( द पाणा पज्जत्ती ) दश प्राणाः पूर्वोक्तलक्षणा अर्ह ति भवन्ति, षट् पर्याप्तयश्चाहति भवन्ति । ( अट्ठसहस्सा य लक्खणा भणिया ) अष्टाधिकं सहस्र मेकं marawww रहित हैं । प्राकृत में लिङ्ग भेद होने से 'जरवाहि दुक्खरहियं, यहाँ नपुसकलिङ्गका निर्देश जानना चाहिये। इसी प्रकार का लिङ्ग भेद आगे भी जानना चाहिये। अरहन्त भगवान आहार और निहार से रहित हैं अर्थात् उनके कवलाहार नहीं होता और न नीहार-मलमूत्र की बाधा होती है। इस वाक्य से श्वेताम्बर मतका निराकरण हो जाता है । अरहन्त के शरीर में मैल नहीं होता है। नाकका मल, थूक तथा पसाना उनके शरीर में नहीं होता है। इसके सिवाय ग्लानि के कारण भूत अन्य पात्र आदि भी अरहन्त के नहीं होते हैं। वात पित्त और कफ ये दोष भी अरहन्त में नहीं रहते हैं ॥३॥ गाथार्थ-अम्हन्त भगवान के दश प्राण, छह पर्याप्तियाँ और एक हजार आठ लक्षण कहे गये हैं। उनके समस्त शरीर में गाय के दूध और शङ्ख के समान सफेद मांस और रुधिर होता है ।।३८॥ विशेषार्थ-अरहन्त भगवान के पाँच इन्द्रिय, तोन बल, आयु और श्वासोच्छवास इस प्रकार दश प्राण, आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ तथा एक हजार आठ लक्षण कहे गये हैं । इन एक हजार आठ लक्षणों में तिल मसक आदि नौ सौ For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ३८ ] बोधप्राभृतम् २०१ लक्षणानां भणितम् । तत्र नवशतानि तिलमसकादीनि व्यञ्जनानि भवन्ति, अष्टाधिकं शतं लक्षणानां भवति । तथा चोक्तम्- 'प्रसिद्धाष्टसहखेद्धलक्षणं त्वां गिरां पतिम् । नाम्नामष्टसहस्रेणतोष्टुमोऽभीष्टसिद्धये 11211 J तेषां लक्षणानां मध्ये कानिचिदुच्यन्ते । तथाहि - श्रीवृक्षः, शङ्खः, अब्जं, स्वस्तिकः, अंकुशः, तोरणं, चामरं, श्वेतच्छत्रं, सिंहासनं, ध्वजः झषौ, कुम्भौः, कूर्मः, चक्र, समुद्रः, सरोवरं विमानं भवनं, नागः, नर-नार्यो, सिंहः, वाणः, धनु:, मेरुः इन्द्रः, गङ्गा, पुर, गोपुरं चन्द्रसूर्यौ, जात्यश्वः, व्यंजनं, वेणुः, वीणा, मृदङ्गः, स्रजौ, पट्टांशुकं, आपणः, कुण्डलादीनि विचित्राभरणानि, उद्यानं फलिनं, सुपक्व कलमक्षेत्र, रत्न द्वीप:, वज्र, मही, लक्ष्मी, सरस्वती, सुरभिः, सौरभेयः, चूडारत्नं महानिधिः कल्पवल्ली, हिरण्यं जम्बूवृक्षः, गरुडः, नक्षत्राणि, तारकाः, सौधः, ग्रहाः, सिद्धार्थपादपाः, प्रातिहार्याणि, मङ्गलानि एवमादीनि अष्टोत्तरं शतं लक्षणानि । ( गोखीर संख धवलं ) गोक्षीरवच्छङ्खधवलमुज्ज्वलं । ( मंसं रुहिरं च सव्वंगे ) मांसं गोक्षीर वद्धवलं, रुधिरं गोक्षीर बद्धवलं सर्वाङ्ग सर्वस्मिन् शरोरे ||३८|| " व्यञ्जन होते हैं और एक सौ आठ लक्षण होते हैं । जैसा कि कहा गया है प्रसिद्धाष्ट - हे भगवन् ! आपके एक हजार आठ देदीप्यमान लक्षण प्रसिद्ध हैं तथा आप वचनों के स्वामी हैं । अभीष्ट सिद्धि के लिये हम एक हजार आठ नामोंके द्वारा आपकी स्तुति करते हैं । उन लक्षणों के मध्य में कुछ लक्षण कहे जाते हैं । जैसे श्रीवृक्ष, शङ्ख, कमल, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चामर, सफेदछत्र, सिंहासन, ध्वजा, दो मीन, दो कलश, कछुआ चक्र, समुद्र, सरोवर, विमान, भवन, नाग, स्त्रीपुरुषका युगल, सिंह, वाण, धनुष, मेरु, इन्द्र, गङ्गा, पुर, गोपुर, चन्द्रमा और सूर्य, कुलीन घोड़ा, पङ्खा, वांसुरी, वीणा, मृदङ्ग, दो मालायें पाटका वस्त्र, दुकान, कुण्डल आदि नाना आभूषण, फला हुआ बगीचा, पके धान का खेत, रत्नद्वीप, वज्र, पृथिवी, लक्ष्मी, सरस्वती, कामधेनु, बैल, चूडामणि, महानिधि, कल्पलता, सुवर्ण, जम्बूवृक्ष, गरुड़, नक्षत्र, तारा, पक्का महल, ग्रह, सिद्धार्थवृक्ष, प्रातिहार्य और मङ्गलद्रव्य इत्यादि एकसौ आठ लक्षण होते हैं । भगवान के समस्त शरीर में गाय दूध और शङ्ख के समान सफेद मांस और रुधिर रहता है ||३८|| १. महापुराणान्तर्गते सहस्रनामस्तोत्रे । For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [४: ३९-४०एरिसगुणेहि सव्वं अइसयवंतं सुपरिमलामोयं । ओरालियं च कायं णायव्वं अरहपुरिसस्स ॥३९॥ ईदृशगुणः सर्वः अतिशयवान् सुपरिमलामोदः । औदारिकश्च कायः ज्ञातव्यः अर्हत्सुरुषस्य ॥३९॥ (एरिसगुणेहिं सव्वं ) ईदृशगुणैः संयुक्तः सर्वः कायोऽर्हत्पुरुषस्य ज्ञातव्य इति सम्बन्धः । ( अइसयवंतं सुपरिमलामोयं ) अतिशयवान् सुष्ठ अतिशयेन परि... मलेन विमर्दोत्थगन्धेन कर्पूरादिना सदृश आमोदो गन्धविशेषो यत्र काये स सुपरिमलामोदः । ( ओरालियं च कायं ) परमौदारिकः कायः शरीरमहत्पुरुषस्य भवति स्थिरः स्थूलरूपश्चक्षुर्गम्य औदारिक उच्यते । ( णायव्वं अरहपुरिसस्स ) ज्ञातव्यो वेदितव्यः कायोऽर्हत्पुरुषस्य श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागस्य शरीरं. ज्ञातव्यमित्यर्थः ॥३९॥ आगे भाव-निक्षेप की अपेक्षा अरहन्त का वर्णन करते हैंमयरायदोसरहिओ कसायमलवज्जिओ य सुविसुद्धो। चित्तपरिणामरहिदो केवलभावे मुणेयव्वो ॥४०॥ मदरागदोषरहितः कषायमलवजितश्च सुविशुद्धः । चित्तपरिणामरहितः केवलभावे ज्ञातव्यः ।।४०॥ ___ गाथार्थ-अरहत भगवान् का औदारिक शरीर ऐसे गुणोंसे युक्त, अतिशयों से सहित और उत्तम सुगन्धि से परिपूर्ण जानना चाहिये। द्रव्य-निक्षेप की अपेक्षा उक्त गुणविशिष्ट औदारिक शरीर ही अरहन्त हैं ।।३९।। विशेषार्थ-श्रीमान् भगवान् अरहन्त सर्वज्ञ वीतराग देवका परमो. दारिक शरीर पूर्वोक्त गुणोंसे संयुक्त, अतिशयों से सहित तथा संमदनमोड़ने से उत्पन्न होने वाली कपूर आदि के समान उत्तम गन्ध से परिपूर्ण जानना चाहिये। उनका यह शरीर स्थिर, स्थूलरूप तथा नेत्रोंके द्वारा गम्य होता है-दिखाई देता है। [३७, ३८ और ३९ वीं माथा में अरहन्त भगवान के शरीर का वर्णन किया गया है । यहाँ द्रव्यनिक्षेप की अपेक्षा शरोर को ही अरहन्त कहा है। ] ॥३९॥ ___ गाथार्थ-भाव-निक्षेप की अपेक्षा अरहन्त भगवान् को मदरहित, राग-रहित, दोष-रहित, कषाय-रहित, नो-कषाय--रहित अतिशय विशुद्ध, मनोव्यापार-रहित और क्षायिक भावोंसे युक्त जानना चहिये । For Personal & Private Use Only - Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ४१] बोधप्राभृतम् २०३ (मयरायदोसरहिओ) मदरहितो रागरहितो दोषरहितः । ( कषायमलवज्जिओ य सुविसुद्धो ) कषायाः क्रोधमानमायालोमाः, मला हास्यरत्यरति-शोकभयजुगुप्सास्त्रीपुन्नपुंसक-लक्षणा नोकषायास्तैर्वजितो रहितः, सुविशुद्धः शान्तमूर्तिः । ( चित्तपरिणामरहिदो ) मनो-व्यापार रहितः। ( केवलभावे मुणेयम्वो) क्षायिकभावे मुनितव्यो ( १ ) ज्ञातव्योऽर्हन्निति ॥४०॥ सम्मइंसणि पस्सइ जाणदि गाणेण दव्वपज्जाया। सम्मत्तगुणविसुद्धो भावो अरहस्स णायव्वो ॥४१॥ सम्यग्दर्शनेन पश्यति जानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् । सम्यक्त्वगुणविशुद्धो भावः अर्हतः ज्ञातव्यः ।।११।। ( सम्मइंसणि पस्सइ ) सम्यग्दर्शनेन पश्यति सम्य निस्तुषतया दर्शनेन सत्तारूपलक्षणेन पश्यति वस्तुस्वरूपं गृह्णाति । ( जाणदि णाणेणे दव्यपज्जाया) जानाति ज्ञानेन केवलज्ञानेन विशेषगोचरेण साकाररूपेण सम्यग्जानाति द्रव्याणि जीवपुद्गलधर्माधर्मकालाकाशलक्षणानि । ( सम्मत्त गुणविसुद्धो) सम्यक्त्वगुणेन विशेषार्थ-अरहन्त भगवान ज्ञान आदि आठ मदोंसे रहित हैं, ममता परिणाम रूप रागसे रहित हैं, क्षुधा तृष्णा आदि अठारह दोषोंसे रहित हैं, क्रोध मान माया लोभ रूप कषायों तथा हास्य रति अति शोक भये जुगुप्सा स्त्रीवेद पुरुषवेद नसक वेद रूप नो-कषायों से रहित हैं, अत्यन्त विशुद्ध-शान्तमूर्ति हैं, मनके व्यापार से रहित हैं और केवलज्ञान आदि क्षायिकभावोंसे युक्त हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥४०॥ . गाथार्थ--जो केवलदर्शन के द्वारा समस्त द्रव्य और उनकी पर्यायों को अच्छी तरह देखता है, केवलज्ञान के द्वारा उन्हें भलीभांति जानता है, तथा सम्यक्त्व गुणसे विशुद्ध है । उस आत्माको हो अरहन्त का भावस्वरूप जानना चाहिये अथवा भाव निक्षेप की अपेक्षा वह आत्मा हो अरहन्त है, ऐसा जानना चाहिये ॥४६।। विशेषार्थ-जो सत्ता मात्र रूप पदार्थ को ग्रहण करने वाले दर्शनकेवल दर्शन गुण के द्वारा निष्तुषरूपसे-निर्मल रूपसे वस्तु-स्वरूपको ग्रहण करता है, जो विशेषको ग्रहण करने वाले साकाररूप केवलज्ञान के द्वारा जोव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्यों को अच्छी तरह जानता है और क्षायिक सम्यग्दर्शन से जो विशुद्ध है-निर्मल है For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ ४. ४२ क्षायिकसम्यक्त्वेन विशुद्धो निर्मल: । ( भावो अरहस्स णायव्वो ) भावः स्वरूपः अर्हतः सर्वज्ञस्य ज्ञातव्यो वेदितव्यः ॥ ४१ ॥ अरहंत - इति श्री बोधप्राभूतेऽर्हदधिकारो दशमः समाप्तः ॥ १० ॥ अब आगे श्रीकुन्दकुन्दाचार्य सत्तरह गाथाओं द्वारा प्रव्रज्या - दीक्षाके स्वरूपका निरूपण करते हैं - २०४ सुष्णहरे तरुहिट्ठे उज्जाणे तह मसाणवासे वा । गिरिगुहगिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा ॥४२॥ शून्यगृहे तरुमूले उद्याने तथा मशानवासे वा । गिरिगुहागिरिशिखरे वा भीमवने अथवा वसती वा ॥ ४२॥ ( सुष्णहरे तरुहिट्ठे ) शून्यगृहे निवासः कर्तव्यः प्रव्रज्यावतेत्युपस्कारः । तरु हिट्ठे- वृक्षमूले स्थातव्यम् ( उज्जाणे ) उद्याने कृत्रिमवने स्थातव्यम् । ( तह मसाणवासे वा ) तथा श्मशानवासे वा पितृवनस्थाने स्थातव्यम् । ( गिरिगुहगिरिसिहरे वा ) गिरिगुह गिरेगुहायां स्थातव्यम्, गिरिशिखरे वा पर्वतोपरि स्थातव्यम् । ( भीमवणे अहव वसिते वा ) भीमवने भयानकायामटव्यां स्थातव्यम् । अथवा वसिते वा ग्रामनगरादी वा स्थातव्यं, नगरे पञ्चरात्रे स्थातव्यं, ग्रामे विशेषेण न स्थातव्यम् ।। ४२ ।। वह आत्मा हो अरहन्त सर्वज्ञ देवका भाव स्वरूप है अथवा भावनिक्षेप से वह आत्मा ही अरहन्त है, ऐसा जानना चाहिये ॥ ४१ ॥ इस प्रकार बोधप्राभृतमें अर्हदधिकार नामका दशवाँ अधिकार समाप्त हुआ ।। १० ।। गाथार्थ - दीक्षा के धारक मुनिको शून्यघर में, वृक्षके मूलमें, उद्यानमें, श्मशान में, पर्वत की गुफा में, पर्वतकी शिखर पर, भयंकर वनमें अथवा वसतिका में निवास करना चाहिये । ४२ ॥ विशेषार्थ - गाया में 'प्रव्रज्यावता निवासः कर्तव्य:' इन पदोंका ऊपर से सम्बन्ध मिलाना चाहिये । इस तरह गाथाका यह अर्थ हुआ कि प्रव्रज्या - दीक्षा के धारक मुनिको शून्यगृह में – स्वामिहीन उजड़े मकानमें, वृक्षके नीचे, उद्यान - कृत्रिमवन- बगीचा में, श्मशानवास- मरघट में, पर्वत की गुफा में, अथवा पर्वत की शिखर पर, भयानक अटवी में, अथवा वसतिकामें-नगरके बाहर बने हुए मठ आदिमें या ग्राम नगर आदिमें रहना चाहिये नगर में मुनिको पाँच रात तक रहना चाहिये। ग्राम में अधिक निवास न करना चाहिये ॥ ४२ ॥ For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ -४. ४३] बोधप्रामृतम् सवसा सत्तं तित्थं वचचइदालत्तयं च वृत्तॊहैं। जिणभवणं अह वेझं जिणमग्गे जिणवरा विति ॥४३॥ स्ववशाः सत्वं तीर्थं वचञ्चैत्यालयश्च उक्तैः । जिनभवनं अथ वेध्यं जितमार्गे जिनवरा विदन्ति ॥४३॥ ( सवसा सत्तं तित्थं ) एते प्रदेशाः स्ववशाः पराधीनत्वरहिताः स्वाध्यायध्यानयोग्याः । तत्र स्थित्वा कि कर्तव्यमित्याह-सत्त-छिद्यमाने भिद्यमानेऽपि शत गाथार्थ--शून्यघर आदि स्थान स्ववश हैं-स्वाधीन हैं। इनमें रह कर मनिको सत्त्व, तीर्थ, जिनागम और जिनमन्दिर इनका ध्यान करना चाहिये; ऐसा जिनमार्ग में जिनेन्द्रदेव जानते हैं-कहते हैं ॥ ४३ ।। विशेषार्थ-४२ वो गाथा में शन्य घर आदि स्थानों में मनियों को निवास करने का आदेश दिया गया है, उसका कारण बताते हुए कहते हैं कि ये प्रदेश स्ववश हैं पराधीनता से रहित हैं, मुनिके स्वाध्याय और अध्ययन के योग्य हैं । इस गाथा में कहते हैं कि उक्त स्थानों में स्थित रह कर क्या करना चाहिये? मुनियोंको उक्त स्थानोंमें स्थित रह कर सत्व, तीर्थ, वचश्चैत्यालय-जिनागम और जिनभवन-अकृत्रिमचैत्यालयों का ध्यान करना चाहिये। अब सत्व आदि का स्वरूप स्पष्ट करते हैंअपने शरीर के छिदजाने भिदजाने अथवा सौ टुकड़े किये जाने पर भी व्रतको खण्डित नहीं करना, चारित्र को निश्चल रखना और ब्रह्मनर्य की रक्षा रखना हमारा कर्तव्य है, इस प्रकारके साहस को सत्व कहते हैं। द्वादशाङ्ग को तीर्थ कहते हैं अथवा ऊर्जयन्त-गिरनार आदि क्षेत्र तीर्थ कहलाते हैं। वचश्चैत्यालय का अर्थ परमागम, शब्दागम और १. अहवोझं ग० । ( अहव उज्झं त्याज्यं विति कथयन्ति, यत् स सर्वैरपि ... कुमतिकः आसक्तं व्याप्तं ) ग० टि. २. पं० जयचन्द्रजी ने 'वच चइदा लत्तयं च' की छाया 'वचश्चत्यालत्रिकं च' मानकर ऐसा अर्थ किया है-'बहुरि वच, चैत्य, आलय ऐसा त्रिक जे पूर्व उक्त कहिये आयतन आदिक परमार्थरूप, संयमी मुनि अरहन्त सिद्ध स्वरूप तिनिका नामके अक्षर रूप मन्त्र तथा तिनिकी आज्ञा रूप वाणी सो तो वच, अर तिनिके आकार धातु पाषाण को प्रतिमा स्थापन सो चैत्य, अर सो प्रतिमा तथा अक्षर मंत्र वाणी जामें स्थापिये ऐसा आलय मन्दिर यन्त्र पुस्तक ऐसा वच चैत्य आलय का त्रिक' । For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ . षट्प्राभृते [४.४३खण्डं क्रियमाणेऽपि निजशरीरे सत्वमखण्डितव्रतत्वं निश्चलचारित्र ब्रह्मचर्यत्वं रक्षणीयमिति सत्वं साहसः वेध्यं भवति, तथा तीर्थं द्वादशाङ्ग ऊर्जयन्तादि वेध्यं ध्यानीयं ध्यातव्यं ज्ञातव्यम् । ( वच चइदालत्तयं च बुत्तेहिं ) वचश्चत्यालयश्च परमागम-शब्दागमयुक्त्यागमपुस्तकं च वेध्यं ध्यातव्यं भवति । तथा चोक्तं वारह अंगगिज्जा दंसणतिलया चरित्त वच्छहरा। चउदस पुवाहरणा ठावेदव्वा य सुअदेवी ।। उक्त-जिनवचनप्रमाणतया । ( जिणभवणं अहवेज ) जिणभवनं जिनचंत्यालयः, अथ मंगलभूतं सर्वभव्यजीवमङ्गलकरं कृत्रिममाकृत्रिम च वेध्यं ध्यातव्यम् । तथा चोक्तं नेमिचन्द्रेण चामुण्डरायराजमल्ल-देवगुरुणा त्रिलोकसारग्रन्थे - भववितरजोइस विमाणणरतिरियलोय जिणभवणे । सव्वामरिदणरवइ संपूजिय वंदिए वदे ॥ सर्वाकृत्रिमचैत्यालयसंख्यापरिज्ञानार्थ श्री पूज्यदेवरायर्या चक्रे युक्त्यागम रूप जिन शास्त्र है। (सिद्धान्त शास्त्रको परमागम, व्याकरण साहित्यको शब्दागम और न्यायशास्त्र को युक्त्यागम कहते हैं । ) जैसा कि कहा है वारह-द्वादशाङ्ग जिसका शरीर है, सम्यग्दर्शन जिसका तिलक है, चारित्र जिसका वस्त्र है, और चौदह पूर्व जिसके आभरण हैं, ऐसी श्रुत देवीको स्थापना करना चाहिये। जिनभवन शब्द से मङ्गलभूत तथा समस्त भव्य जीवोंका मङ्गल करने वाले कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय समझना चाहिये । जिन वचन प्रमाण हैं और उनमें अकृत्रिम चैत्यालयोंका वर्णन है इसलिये वर्तमान में दृष्टि-गोचर न होते हुए भी उनका अस्तित्व स्वीकार्य है जैसा कि चामुण्डराय और राजमल्ल देवके गुरु नेमिचन्द्राचार्य ने त्रिलोकसार ग्रन्थ में कहा है भवण-भवन-वासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक देव तथा निरतियंग्लोक-मध्यलोक में समस्त इन्द्रों और राजाओंके द्वारा पूजित और वंदित जो जिनभवन हैं, मैं उनकी वन्दना करता हूँ। समस्त अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्याका परिज्ञान करानेके लिये श्री . पूज्यपाद स्वामीने आर्या छन्द लिखा है For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधप्राभृतम् नवनवचतुःशतानि च सप्त च नवतिः सहस्रागुणिता षट् च 1 पंचाशत्पचवियत्प्रहृताः पुनरत्र कोटयोऽष्टौ प्रोक्ताः ॥ -8.88] अकृत्रिम चैत्यालयानां संख्या यथा -- एकाशीत्यधिक चत्वारि शतानि सप्तनवतिसहस्राणि षट्पञ्चाशल्लक्षाणि अष्टौ कोटयो भवन्ति । एकैकचैत्यालयेऽष्टाधिकं शतं प्रतिमानां भवति । तासां संख्या यथा raकोडिसया पणवीसा लक्खा तेवण्ण सहससगवीसा । नवतिसय तह अडयाला जिणपडिम अकिट्टिमं वंदे || २०७ नवशतकोटयः पंचविशति कोटयश्च त्रिशल्लक्षा सप्तविंशतिसहस्राश्चवारि शतानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि भवन्ति । ज्योतिषां व्यन्तराणां च चैत्यालयानां संख्या नास्ति । ( जिणमग्गे जिणवरा विति ) जिनमार्गे जिनशासने जिन - वरा विदन्ति जानन्ति । सत्वं, तीथं, शास्त्रं, पुस्तकं, जिनभवनं, प्रतिमाश्च एतत्सवं वेध्यं मुनीनां श्रावकाणां च सम्यग्दृष्टोनां वेध्यं ध्यानावलम्बनीयं वस्त्वर्हन्तः कथयन्ति । तद्ये न मानयन्ति ते मिथ्यादृष्टयो भवन्तीति भावार्थः ॥ ४३ ॥ पंचमहव्वयजुत्ता पंचिदियसंजया णिरावेक्खा । सज्झायझाणजुत्ता मुणिवरवसहा णिइच्छन्ति ॥ ४४ ॥ पञ्च महाब्रतयुक्ता पञ्चेन्द्रियसंयता निरपेक्षाः । स्वाध्यायध्यानयुक्ता मुनिवरवृषभा नोच्छन्ति ॥४४॥ नवनव-आठ करोड़ तिरेपन लाख संत्तानवे हजार चारसौ इक्यासी अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्या है। एक एक चेत्यालय में एकसो आठ, कसौ आठ प्रतिमाएँ होती हैं सब चैत्यालयोंकी प्रतिमाओं की संख्या इस प्रकार है- . नवकोडि - नौ सौ पच्चीस करोड़ छप्पन लाख सत्ताईस हजार चार सो अड़तालीस । ज्योतिषी और व्यन्तर देवोंके चैत्यालयोंकी संख्या नहीं है क्योंकि उनके यहाँ असंख्यात चैत्यालय आगममें बतलाये हैं । जिनमार्ग - जिनशासन में अरहन्त देव ऐसा कहते हैं कि सत्व, तीर्थ, शास्त्र, पुस्तक, जिनभवन और जिन प्रतिमा ये सब, मुनियों, श्रावकों और अविरत सम्यग्दृष्टि जोवोंके ध्यानके आलम्बन हैं अर्थात् वे इनका ध्यान करते हैं । जो इन्हें नहीं मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं ॥ ४३ ॥ गाथार्थ - जो पाँच महाव्रतोंसे सहित हैं, जिन्होंने पाँच इन्द्रियोंको वश कर लिया है, जो प्रत्युपकार की वाञ्छासे रहित हैं और जो स्वा For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ षट्प्राभूते [ ४. ४४ ( पंचमहन्वयजुत्ता) पञ्च महाव्रतयुक्ताः पूर्वोक्तपञ्च महाव्रतयुक्ताः सर्वजीवदया - प्रतिपालका ऋषयः सत्यवचसोऽचौर्यव्रतधारिणः ब्रह्मचर्यव्रतोपेता निष्परि: ग्रहा 'आश्रवण - प्रायोग्य - परिग्रहपरित्यक्ता रजनिभोजनवजिन एतद्वेध्यं वस्तु निश्चयेनेच्छन्ति मानयन्ति जिनवचनप्रमाण - कारित्वात् ( पंचिदिय संजया गिरा - वेक्खा ) पञ्चेन्द्रियाणि संयतानि बद्धानि निज-विषयेषु प्रवर्तितु व्यावृत्तानि निषिद्धानि यैस्ते पञ्चेन्द्रियसंयताः । निरपेक्षाः प्रत्युपकारवाञ्छा रहिता भव्यजीव-सम्बोधनपरा एतद् वेध्यं नीच्छन्ति । ( सज्झाय झाणजुत्ता ) स्वाध्याय-. ध्यानयुक्ताः । स्वाध्यायः पञ्चप्रकारः, वाचना - शिष्याणां व्युत्पत्तिनिमित्तं शास्त्रार्थकथनं पृच्छना अनुयोगकरणं, अनुप्रेक्षा - पठितस्य व्याकृत्य च शास्त्रस्य पुनश्चेतसि चिन्तनम्, आम्नायः -शुद्ध पठनं, धर्मोपदेशः -- महापुराणादिशास्त्रस्य मुनीनां श्रावकादीनामग्रतो व्याख्यानविधानं । ध्यानं आर्तध्यान रौद्रध्यानद्वयं परि ध्याय तथा ध्यानसे सहित हैं, ऐसे श्रेष्ठ मुनिराज उपर्युक्त सत्व-तीर्थं आदि वेयोंकी अत्यन्त इच्छा करते हैं ॥ ४४ ॥ विशेषार्थं - जो पहले कहे हुए पाँच महाव्रतों से सहित हैं अर्थात् सब जीवोंकी दया पालते हैं, सत्य वचन बोलते हैं, अचौर्यव्रतको धारण करते हैं, ब्रह्मचर्यव्रत से सहित हैं, निष्परिग्रह हैं, आस्रव के योग्य परिग्रह से रहित हैं और रात्रिभोजन के त्यागी हैं ऐसे ऋषि ध्यान करने योग्य सत्त्व तीर्थं आदि वस्तुओं को निश्चयसे मानते हैं क्योंकि वे जिनवचनको प्रमाणभूत स्वीकृत करते हैं । जिन्होंने स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों को संयत कर लिया है अर्थात् अपने अपने विषयों में प्रवृत्त होनेसे रोक लिया है तथा जो प्रत्युपकार की इच्छा से रहित हो भव्य जीवों के सम्बोधने में सदा तत्पर रहते हैं ऐसे ऋषि उक्त वेध्यों की अत्यधिक इच्छा रखते हैं । इसी प्रकार जो स्वाध्याय तथा ध्यान से युक्त हैं । स्वाध्याय पाँच प्रकारका होता है - १ वाचना, २ पृच्छना, ३ अनुप्रेक्षा, ४ आम्नाय और ५ धर्मोपदेश । शिष्यों की व्युत्पत्ति के लिये शास्त्र के अर्थका कथन करना वाचना है। अज्ञात वस्तुको समझने के लिये अथवा ज्ञात वस्तुको दृढ़ करने के लिये प्रश्न पूछना पृच्छना है । पठित अथवा व्याख्यात शास्त्रका चित्तमें पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। शुद्ध पाठ करना आम्नाय है और मुनियों तथा श्रावकों के आगे महापुराणादि शास्त्रों का व्याख्यान करना १. अश्रवणप्रायोग्य क० म० क० प्रती अपि पश्चात् केनचित् आश्रवण इति संशोषितम् For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोषत्रामृतम् २०९ हत्य धम्य॑ध्यानशुक्लध्यानद्वये प्रवर्तनं विधिनिषेधरूपं । (मुणिवरवसहा णिइच्छंति) मुनिवरवृषभाः सर्वपाषण्डिन्योऽधिकश्रेष्ठाः सर्वलोक-प्रशंसनीयाः परमार्थयतयः दिगम्बरा नि-अतिशये नेच्छन्ति वेध्यं वाञ्छन्ति पुनः पुनरम्यासं कुर्वन्ति ॥४४॥ गिहगंथमोहमुक्का वावीसपरीसहा जियकसाया। पावारंभविमुक्का पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥४५॥ गृहग्रन्थमोहमुक्ता द्वाविंशतिपरीषहजितकषाया। पापारम्भविमुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४५॥ ( गिहगंथमोहमुक्का ) गृहस्य निवासस्य, ग्रन्थस्य परिग्रहस्य बाह्मस्य दशप्रकारस्य मोहेन मुक्ता ममेदंभावरहिता प्रव्रज्या दीक्षा भवति। के ते दश बाह्म परिग्रहाः ? क्षेत्र सस्याधिकरणं । वास्तु गृहं । हिरण्यं रूप्य' द्रध्यादि । सुवर्ण काञ्चनं । धनं गोमहिष्यादि । धान्यं व्रीह्यादि । दासी कर्मकरी । दासः पुनपुंसकवर्गः कर्मकरः । कुप्यं क्षौम-कार्पास-कौशेय-चन्दनागुर्वादि । चतुर्दशाभ्यन्तरपरिग्रहरहिता' के ते चतुर्दशाभ्यन्तरपरिग्रहाः ? धर्मोपदेश है। आर्तध्यान और रौद्रध्यान को छोड़कर धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यान में प्रवृत्ति करना इस तरह विधि निषेध रूप ध्यान है। ऐसे दिगम्बर साधु, सब साधुओंसे अधिक श्रेष्ठ हैं, सब लोगों के द्वारा प्रशंसनीय हैं तथा परमार्थ यति हैं वास्तविक साधु हैं, वे इन वेध्यों-ध्यानयोग्य वस्तुओं की अतिशय इच्छा रखते हैं-बार बार इनका अभ्यास करते हैं । ४४॥ गाथार्थ-जो निवास स्थान और परिग्रह के माहसे रहित है, बाईस परीषहोंको जीतनेवाली है, कषायसे रहित है तथा पापके आरम्भ से अथवा पापपूर्ण खेती आदिके आरम्भ से मुक्त है ऐसी दीक्षा कही गई है ॥४५॥ ' विशेषार्थ-गृहग्रन्थमोहमुक्ता-गृह का अर्थ निवास-स्थान है, ग्रन्थ परिग्रह को कहते हैं, वह परिग्रह बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का है। उनमें बाह्य परिग्रहके दश भेद हैं-१ क्षेत्र-जहाँ अनाज पैदा होता है, २ वास्तु-मकान, ३ हिरण्य-चांदी से निर्मित पदार्थ, ४ सुवर्णसोना ५ धन-गाय भैंस आदि, ६ धान्य-धान गेहूँ आदि अनाज ७ दासीकाम करने वाली स्त्री ८ दास कार्य करने वाला पुरुष अथवा नपुसकों १. परीसहाजि अकसाया म०। २. रूप्यद्रम्मादि क० म० । रूप्यद्रुमादि उ० । ३. रहिता क.स. ग. ० ० म०। For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० षट्प्राभूते [४.४५मिथ्यात्ववेदी हास्यादिषट् कषायचतुष्टयम् । .. रागद्वेषौ च सङ्गाः स्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश ॥ ( वावीसपरीसहजियकषाया) द्वाविंशति-परिषहजित् प्रव्रज्या भवति । के ते द्वाविंशति परीषहाः ? क्षुधाजयः, पिपासा-तृषाजयः, शीतजयः उष्णजयः, दंशमशक सर्वोपघातसहनं, नग्नत्वसहनं, अरतिजयः, स्त्रीपरिषहजयः, चर्या-गमनं तस्य जयः, निषद्या-उपवेशनं तस्य जयः, शथ्यासहनं, आक्रोशजयः, अनिष्टवचनसहनं, वधसहन, याचनसहनं-न किमपि याचते, अलाभसहनमन्तराय-सहनं . . रोगसहन, तृणस्पर्श सहनं, मलसहनं, लोचसहनं च, सत्कारपुरस्कारः-पूजाया का वर्ग, ९ कुप्य-रेशमी सूती कोशा आदिके वस्त्र तथा १० चन्दन अगुरु आदि सुगन्धित पदार्थ । अभ्यन्तर परिग्रह के चौदह भेद हैं मिथ्यात्व-मिथ्यादर्शन, वेद हास्यादि छह नो-कषाय, क्रोधादि चार कषाय-राग और द्वेष ये चौदह अन्तरङ्ग परिग्रह हैं। जिन दीक्षा, निवास स्थान और बाह्याभ्यन्तर भेदवाले चौबीस प्रकारके परिग्रह से रहित हैं। बाईस परीषहों को जीतने वाली है तथा कषाय से रहित हैं। वे बाईस परोषह कौन हैं ? इसके उत्तर में बाईस परोषहों के नाम गिनाते हैं क्षुधाजय-भूखकी बाधाको जीतना, २ पिपासाजय-प्यास की बाधाको जोतना, ३ शीतजय-शीतको बाधा को जीतना, ४. उष्णजय-गर्मी की बाधा को जीतना, ५ दंशमशक सर्वोपघात सहनडांस मच्छर आदिके सब उपद्रव सहन करना, ६ नग्नत्व-सहन-नग्न रह कर विकारीभाव नहीं लाना, ७ अरतिजय-अप्रीति को सहन करना, ८ स्त्रीपरिषहजय-स्त्रियों के द्वारा किये हुए हाव भाव आदि उपद्रवों के होते हुए निर्विकार रहना, ९ चर्या-पैदल चलनेका दुःख सहन करना, १० निषद्या-बहुत देर तक एक ही आसन से बैठने का दुःख सहन करना, ११ शय्या-ककरीली पथरीली शय्या पर शयन करने का दुःख सहन करना, १२ आक्रोश जय-अनिष्ट वचनोंको सहन करना, १३ वध सहन-मारपीट आदिका दुःख सहन करना, १४ याचन सहन-याचना नहीं करना, १५ अलाभ सहन-आहार आदि में अन्तराय आने पर दुःख नहीं करना, १६ रोग सहन-रोगोंकी पीड़ा सहन करना, १७ तृणस्पर्शसहन-कांटे आदिका दुःख सहन करना, १८ मलसहन-लोचसहन-शरीरपर लगे हुए मलका सहन करना तथा केशलोंच का दुःख उठाना, १९ सत्कारपुरस्कार-पूजा न करने और सन्मान पूर्वक अग्रासन न देनेका दुःख सहन करना, २० प्रज्ञापरीषहजय-ज्ञानका गर्व दूर करना, २१ अज्ञानपरीषह जय-यह For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -] बोधप्राभूतस् २११ अकरणस्य सन्मानाग्रासनादानस्य च सहनं सत्कार - पुरस्कारजयः, प्रज्ञापरीपहजयो, ज्ञानमदनिरासः, अज्ञानोऽयमिति वचनसहनमज्ञानपरीषहजयः, अदर्शनपरीषहजयोः लब्ध्यभावसहनं । तथा चोक्तमुमास्वामिना - क्षुप्ति पासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रोचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवघया चनालाभ रोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानादर्शनानि । अकसाया - कषायरहिता प्रव्रज्या भवति । ( पावारंभ विमुक्का ) पापारम्भ - विमुक्ता सेवा कृषिवाणिज्यादिपापारम्भस्तस्माद्विमुक्ता । एतेन किमुक्तं भवति ? यद् द्राविडसंघा जैनाभासा वदन्ति तत्प्रत्युक्तम्वीएसु णत्थि जीवो उन्भसणं णत्थि फासुगं णत्थि । सावज्जं ण हु मष्णइ ण गणइ गिह कप्पियं अट्ठ ॥ १ ॥ कच्छं खेत्तं वसह वाणिज्जं कारिऊण जीवंतो । व्हंतो सीयलनीरें पावं पउरं समज्जेदि ॥ २ ॥ ( पब्वज्जा एरिसा भणिया ) प्रव्रज्या - दीक्षा ईदृशी भणिता ॥ ४५ ॥ अज्ञानी है, इस प्रकारके वचनोंका सहन करना, और २२ अदर्शन परीषह जय - ऋद्धि आदिके न होने पर भी गृहीत मार्गके प्रति अश्रद्धा न होने देना । जैसा कि उमास्वामी महाराज ने कहा है I क्षुत्-सुधा, पिपासा, शोत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ये बाईस परीषह हैं । अकसाया - जिनदीक्षा कषायसे रहित होती है। इसके सिवाय पापारम्भ विमुक्का - सेवा, कृषि तथा व्यापार आदि पापके आरम्भसे रहित होती है । इस विशेषण से द्राविड - संघके जैनाभास जो यह कहते हैं कि बोए - बीजों में जीव नहीं हैं, खड़े होकर भोजन करना आवश्यक नहीं है, प्रासु का विकल्प नहीं है, सावध - पापपूर्ण क्रियाके त्यागको धर्म नहीं मानते, गृह कार्यों में जो आत्तंध्यान होता है वह नहीं गिना जाता, इसका निराकरण हो जाता है । कछं - द्राविड संघोय जैनाभास कछवाड़ा, खेत, वसतिका तथा व्यापार कराकर जीवित रहते हैं, ठण्डे पानी में नहाते हैं, इस तरह प्रचुर पापका संचय करते हैं। 7 जिनशासन में दीक्षा ऐसी कही गई है ॥४५॥ For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ षटुप्राभूते [ ४.४६ घणघण्णवत्थदाणं हिरण्णसयणासणाइ छत्ताई । कुद्दाणविरहरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ४६ ॥ धनधान्यवस्त्रदानं हिरण्यशयनासनादि छत्रादि । कुदानविरहरहिता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ||४६ || ( घणघण्णवत्थदाणं ) घनं गवादि, धान्यं गोधूमादि वस्त्र पट्टाम्बरादि, एतेषां दानं विश्राणनं मुनयो न कुर्वन्ति । ( हिरण्णसयणासणाइ छत्ताइ ) हिरण्यं रूप्यघटितं नाणकं सुवर्णघटितं नाणकं ताम्ररूप्य मिश्र-घटितं नाणकं केवलताम्रादिघटितं नाणकं हिरण्यमुच्यते, तद्दानं मुनयो न कुर्वन्ति । शयनं अष्टशल्या खट्वा पल्यङ्कः तद्दान मुनयो न कुर्वन्ति । आसनं पीठं आदिशब्दात् पट्टलं, छत्रमातपत्रं आदिशब्दाद् ध्वजाचामरादिकं मुनयो न ददाति । ( कुद्दाणविरहरहिया ) कुत्सितदानस्य विशेषेण रहस्त्यागस्तेन रहिता ( पव्वज्जा एरिसा भणिया ) प्रब्रज्या दीक्षेदृशी भणिता श्रीगौतम - स्वामिना वीरेण तीर्थं कृता प्रतिपादिता । इत्यनेन येऽनन्त-सरस्वती- नरसिंह--भारती - वासुदेव सरस्वती - प्रभृतयः सांन्यासिका अपि सन्तः कुत्सितानि दानानि ददति तन्मतं निराकृतमिति भावः ॥ ४६ ॥ गाथार्थ - धन धान्य तथा वस्त्रका दान, चाँदी सोना आदिका सिक्का तथा शय्या आसन और छत्र आदि खोटी वस्तुओंके दानसे जो रहित है, ऐसी दीक्षा कही गई है ॥४६॥ विशेषार्थ- - गाय आदिको धन कहते हैं, गेहू आदि को धान्य कहते हैं, पाट आदि के वस्त्रको वस्त्र कहते हैं, मुनि इनका दान नहीं करते हैं । चाँदी से बना सिक्का, सुवर्ण से बना सिक्का, तांबा और चाँदोके मेल से बना सिक्का और केवल ताम्बा आदिसे बना सिक्का हिरण्य कहलाता है, मुनि इनका दान नहीं करते हैं । आठ लकड़ियों को सलाकर बनाई हुई खाट तथा पलंग को शय्या कहते हैं, मुनि इसका दान नहीं करते हैं । पोठ तथा आदि शब्दसे पाटला आदिको आसन कहते हैं । घाम से रक्षा करने वाला छत्र तथा आदि शब्द से ध्वजा और चामर आदिका दान मुनि नहीं देते हैं । इस प्रकार जो उपर्युक्त खोटो वस्तुओंके नाना प्रकारके दान से रहित हैं, वह दीक्षा है, ऐसा श्री गौतम स्वामी तथा तीर्थंकर वीर भगवान ने कहा है । इस कथन से जो अनन्त सरस्वती नरसिंह, भारती, और वासुदेव सरस्वती आदि संन्यासी होते हुए भी कुत्सित दान देते हैं उनके मतका निराकरण हो जाता है ॥ ४६ ॥ For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४ ४७-४८] बोधप्रामृतम् २१३ सत्तमित्ते व समा पसंसणिदा अलद्धिलद्धिसमा । तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥७॥ शत्रुमित्रे च समा प्रशंसानिन्दाऽलब्धिलब्धिसमा । तृणकनके समभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४७॥ ( सत्तूमित्ते व समा) शत्रौ वैरिणि, मित्रे सुहृदि समा रागद्वेष-रहिता । (पसंसणिंदा अलद्धिलद्धिसमा ) प्रशंसायां गुणस्तुती, निन्दायामवर्णवादे, लब्धी निरन्तराय-भोजने, अलब्धौ भोजनाद्यन्तराये च समा सदृशी प्रव्रज्या भवति । (तणकणए समभावा) तृणे कनके सुवर्णे च समभावा अनादरादर-रहिता । (पव्वज्जा एरिसा भणिया ) प्रव्रज्या ईदृशी भणिता चिरन्तनाचार्यः प्रतिपादिता ॥ ४७ ॥ . उत्तममज्झिमगेहे दारिदे ईसरे णिरावेक्खा । सम्वत्थ गिहिपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥४८॥ उत्तममध्यमगेहे दरिद्रे ईश्वरे निरपेक्षा । सर्वत्र गृहीतपिण्डा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ ४८ ॥ ( उत्तममज्झिमगेहे ) उत्तमगृहे उत्तुङ्गतोरणादि-सहिते राजसदनादौ, मध्यमगेहे नीचहे, तृणपर्णादिनिर्मिते, निरपेक्षा उचर्गृहं गच्छामि नीचैगृहं अहं न गाथार्थ-जो शत्रु और मित्र में सम है, प्रशंसा, निन्दा, अलाभ और लाभ में सम है, तथा तृण और सुवर्ण में समभाव रखती है, ऐसी दीक्षा कही गई है ।।४७|| विशेषार्थ-शत्रु और मित्र में जो सम है अर्थात् राग द्वेष से रहित है, प्रशंसा अर्थात् गुणों की स्तुति, निन्दा अर्थात् अवर्णवाद-मिथ्यादोष कहना, लब्धि निरन्तराय भोजन होना और अलब्धि अर्थात् भोजन आदि में अन्तराय हो जाना इनमें जो सम है, तथा तृण और सुवर्ण में जो समभाव है-अनादर और आदर से रहित है, ऐसी जिनदीक्षा प्राचीन आचार्यों के द्वारा कही गई है ॥४७|| गाथार्थ-जो उत्तम मध्यम घरों एवं निर्धन और धनवान् के विषय में निरपेक्ष है, तथा जिसमें समस्त योग्य घरोंमें आहार ग्रहण किया जाता है ऐसी दीक्षा कही गई है ॥४८॥ विशेषार्थ-ऊचे तोरण आदि से सहित राजमहल उत्तमुग्रह कहलाते हैं, और तृण तथा पत्ते आदिसे निर्मित गृह नीचगृह कहलाते हैं। बीचके । For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ षट्प्राभृते [ ४. ४८ व्रजामि, न प्रविशामीत्यपेक्षा रहिता प्रव्रज्या भवति ( दारिद्दे इसरे णिरावेक्खा ) दरिद्रस्य निर्घनस्य गृहं न प्रविशामि, ईश्वरस्य धनवतो गृहे प्रविशाम्यहं निवेशे इत्यपेक्षारहिता प्रव्रज्या भवति । ( सम्वत्थ गिहिदपिंडा ) सर्वत्र योग्यगृहे गृहीतपिण्डा स्वीकृताहारा प्रव्रज्या ईदृशी भवति । कि तदयोग्यं गृहं यत्र भिक्षा न गृह्यते इत्याह 'गायकस्य तकारस्य नीचकर्मोपजीविनः । मालिकस्य विलिङ्गस्य वेश्यायास्तै लिकस्य च ॥ १ ॥ अस्यायमर्थ:- : - गायकस्य गन्धर्वस्य गृहे न भुज्यते । तलारस्य कोटपालस्य, नीचकर्मोपजीविनः 'धर्मजलशकटादेर्वाहकादेः श्रावकस्यापि गृहे न भुज्यते । मालिकस्य पुष्पोपजीविनः, विलिङ्गस्य भरटस्य, वेश्याया गणिकायाः, तैलिकस्य मांचिकस्य । दीनस्य सूतिकायाश्च छिम्पकस्य विशेषतः । मद्यविक्रयिणो मद्यपायिसंसर्गिणश्च न ॥ २ ॥ मध्यम गृह हैं जो दीक्षा इनके विषय में निरपेक्ष रहती है अर्थात् साधु ऐसा विकल्प नहीं करता है कि मैं भिक्षा के लिये उच्चगृह में जाता हूँ और नींचगृह में प्रवेश नहीं करता हूँ। जो दीक्षा दारिद्रय और धनसम्पन्नता के विषय में निरपेक्ष रहती है अर्थात् कभी ऐसा अभिप्राय नहीं रखती है कि मैं भिक्षाके लिये दरिद्र निर्धन के घर में प्रवेश नहीं करूं और ईश्वर - धनाढ्य के घर में प्रवेश करूँ, जो समस्त योग्य गृहोंमें महार करती है वह प्रव्रज्या - दीक्षा है । प्रश्न – वह अयोग्य गृह कौन हैं जिनमें भिक्षा नहीं ली जाती है ? उत्तर- गायक - गाने बजाने वाले गंधर्व, तलार - कोटवार, नीचकर्मोपजीवी, चमड़े की मशक से जल भरने वाले, मालिक-फूलोंका काम करने वाले, विलिंग-भरट-भाड़ चलाने वाले, वेश्या और तैलिक-तेली के घर मुनिभिक्षा ग्रहण नहीं करते हैं ॥१॥ बोनस्य - दीन - जो श्रावक होकर भी दीन भाषण करता है, सूतिकाजो बालकों का जन्म कराती है, छिपक- जो कपड़े छापता है, मद्यविक्रयी १. नीतिसारे इन्द्रनन्दिनः । २. धानिकस्य म० । ३. मोतिसारे इन्द्रनन्दिनः । For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ बोषप्रामृतम् दीनस्य श्रावकोपि सन् यो दीनं भाषते । सूतिकायाः-या बालकानां जननं कारयति । अन्यत्सुगमम् । 'कोलिको मालिकश्चैव कुम्भकारस्तिलंतुदः । नापितश्चेति विज्ञेयाः पञ्चते पञ्चकारवः ॥३॥ रजकस्तभकश्चैव अयःसुवर्णकारकः । दषत्कारादयश्चेति कारवो बहवः स्मृताः ॥ ४॥ क्रियते भोजनं गेहे यतिना मोक्तुमिच्छुना । एवमादिकमप्यन्यच्चिन्तनीयं स्वचेतसा ॥५॥ वरं स्वहस्तेन कृतः पाको नान्यत्र दुर्दशाम् । मन्दिरे भोजनं यस्मात् सर्वसावद्यसंगमः ॥ ६ ॥ णिग्गंथा णिस्संगा णिम्माणासा अराय णिहोसा। णिम्मम जिरहंकारा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥४९॥ निर्ग्रन्था निस्सङ्गा निर्मानाशा अरागा निर्दोषा । निर्ममा निरहङ्कारा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४९॥ जो मदिरा बेचता है, और मद्यपायीसंसर्गी-जो मदिरा पीने वालोंके साथ संसर्ग रखता है, उसके घर खास कर साधु आहार नहीं लेते हैं ॥२॥ ____ कोलिको-कोलिक-कपड़ा बुनने वाला-जुलाहा मालाकार, कुम्भकार, तेली और नाई ये पांच स्पृश्य कारु कहलाते हैं ॥३॥ रजकस्-धोबी, बढ़ई, लोहार, सुनार और सिलावट इत्यादि बहुतसे कार माने गये हैं ॥४॥ क्रियते-मोक्षका अभिलाषी मुनि इनके घर भोजन नहीं करता है। इन्हींके समान अन्य लोगोंका भी अपने मनसे विचार कर लेना चाहिये ।।५।। ..' वर स्वहस्तेन अपने हाथसे रसोई पका लेना अच्छा है परन्तु मिथ्यादृष्टियों के घर भोजन करना अच्छा नहीं है क्योंकि उससे समस्त सावधोंपापोंका संगम होता है ॥६॥ गाथार्थ-जो निर्ग्रन्थ हो-परिग्रह से रहित हो अथवा निग्रन्थ हो नि-अतिशयपूर्ण ग्रन्थों से सहित हो, निःसङ्ग हो-स्त्री आदिके संपर्क से १. नीतिसारे इन्द्रनन्दिनः। २. शासिका म०। For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ षट्प्राभृते [ ४. ४९ ( णिग्गंथा ) परिग्रह - रहिता, अथवा नि- अतिशयवद्भिः ग्रन्थैः शास्त्रैः सहिता निर्ग्रन्था ( णिस्संगा ) स्त्रीप्रमुख संगरहिता, अथवा निश्चितैः शोभनैः अंगैर्द्वादशांगैः संयुक्ता निस्सङ्गा, अथवा निश्चितैरंगैरष्टभिः शरीरैरुपांगैश्च सहिता । 'प्राज्ञेन ज्ञातलोकव्यवहृतिमतिना तेन मोहोज्झितेन । प्राग्विज्ञातः सुदेशो द्विजनृपतिवणिग्वर्ण वङ्गपूर्णः ।। रहित हो अथवा निश्चितशोभमान बारह अङ्गों से सहित हो अथवा निश्चित आठ अङ्गों और उपाङ्गों से सहित हो, निर्मानाशा हो - निर्मानाआठ में से रहित हो तथा निराशा आशासे रहित हो, अथवा निरश्वाघोड़ा हाथी बैल आदि वाहन से रहित हो, अरागा-राग रहित हो अथवा अराजा-राजा आदिके साथ स्नेहसे रहित हो, निर्दोषा हो -द्वेषसे रहित हो अथवा वात पित्तादि दोषोंसे रहित हो, निर्मम हो - ममता भावसे रहित हो, अथवा म- तीन मकार और मा-लक्ष्मी से रहित हो और निरहंकारा - अहंकार से रहित हो अथवा निष्पाप होकर निज शुद्ध स्वरूप के निकट हो - उसमें लीन हो वह दीक्षा कही गई है || ४९|| सहित हों विशेषार्थ प्राकृत के 'णिग्गंथा' शब्द की संस्कृत छाया निर्ग्रन्था अथवा निग्रन्था होती है अतः दोनों रूपोंको दृष्टिमें रखकर अर्थ किया गया है कि जो ग्रन्थेभ्यो निर्गता अर्थात् परिग्रहों से रहित हो, अथवा नि- नितरां अतिशयपूर्ण ग्रन्थों - शास्त्रों से ( नितरां अतिशय - पूर्णाः ग्रन्थाः शास्त्राणि यस्यां सा ) । प्राकृत के 'णिस्संगा' शब्दकी निस्सङ्गा, निःस्वङ्गा अथवा निःस्वाङ्गा छाया है उसके आधार पर उसका अर्थ है कि जो निस्सङ्गा - स्त्री आदिके संसर्गसे रहित हो, अथवा निश्चित उत्तम अङ्गों - द्वादशाङ्गों से सहित हो - जिसमें द्वादशांगों का पठन पाठन होता हो ( निश्चितानि सुष्ठु - शोभनानि अंगानिद्वादशांगानि यस्यां सा) अथवा शरीर के निश्चित आठ अंगों और उपांगोंसे सहित हो ( निश्चितानि स्वस्य स्वशरीरस्य अङ्गानि यस्यां सा ) । दीक्षा कौन ले सकता है ? इसका वर्णन आचारसार में श्री वोरंनन्दो आचार्य ने इस प्रकार किया है प्राज्ञेन - लोकव्यवहार और लोक बुद्धिके ज्ञाता, निर्मोह आचार्य जिसे - १. आचारसारे । २. वर्माङ्ग म० । For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधामृतम् भूभृल्लोकाविरुद्धः स्वजनपरिजनोन्मोचितो वीतमोह"श्चिन्तापस्माररोग द्यपगत इति च ज्ञातिसंकीर्तनाद्यः ॥ इति वीरनन्दिभिरुक्तत्वात् । अथ कानि तान्यष्टावङ्गानीति चेत् ? या बाहूय तहाणियंबपुठ्ठी उरं च सीसं च । अट्ठेव दु अंगाई सेस उवंगाइ देहस्स || कुरूपिणो हीनाधिकाङ्गस्य कुष्ठादिरोगिणश्च प्रव्रज्या न भवति । ( णिमाणासा) निर्माना अष्टमद रहिता, निराशा आशा रहिता । उक्तञ्च --४. ४९ ] ' आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य कि कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ॥ पहलेसे जानते हों, जो उत्तम देशका रहने वाला हो, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में से किसी वर्णका हो, अङ्गोंसे पूर्ण हो - विकलाङ्ग अथवा अधिकाङ्ग न हो, राजाका अपराधी न हो, स्वजन और परिजन के लोगोंने जिसे छोड़ दिया हो- दीक्षा लेने की अनुमति दे दी हो, मोहरहित हो, चिन्ता तथा अपस्मार ( मूर्च्छाविशेष ) आदि रोगोंसे रहित हो । अब वे आठ अङ्ग कौन हैं जिनकी पूर्णता साधुको आवश्यक है । इसका उत्तर देते हैं जलया - दो पैर, दो भुजा, नितम्ब, पृष्ठ, छाती और शिर ये शरीर के आठ अङ्ग हैं और शेष उपाङ्ग कहलाते हैं । २१७ कुरूपी होनाङ्ग, अधिकाङ्ग और कुष्ठादिरोगसे युक्त मनुष्य की दीक्षा नहीं होती है। प्राकृत के 'णि माणासा' शब्दकी निर्मानाशा और निर्मानाश्वा ये दो संस्कृत छाया होती हैं अतः दोनों को दृष्टिमें रखते हुए अर्थ किया गया है कि जो निर्माना-आठ मदसे रहित हो, और निराशा तृष्णासे रहित हो ( मानश्च आशा च मानाशे, निर्गते मानाशे यस्याः सा निर्मानाशा ) । आशा बहुत दुःखदायी है जैसा कि कहा गया है - आशागर्तः - प्रत्येक प्राणीके सामने ऐसा आशा रूपी गड्ढा खुदा हुआ है जिसमें समस्त संसार अणुके समान है । फिर किसके लिये कितना १. श्चिता म० । २. कर्मकाण्डे नेमिचन्द्रस्य । ३. आत्मानुशासने गुणभद्रस्य । For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ षट्प्राभूते [४. अथवा आशा दासीकृता येन तेन दासीकृतं जगत् । आशाया यो भवेद्दासः स दासः सर्वदेहिनाम् । निरश्वा अश्वरहिता तदुपलक्षणं गजवृषादीनाम् । (अराय) रागरहिता, अथवा प्रव्रज्यायां राजभिः सह स्नेहादिकं न कर्तव्यम् । तदुपलक्षणं मन्यादीनां प्रत्यक्षनरकपातवद्व्याख्यातत्वात् । केचिच्च जिनधर्मप्रभावनाथं मुनीनां सुस्थित्यथं च तन्निषेधं न कुर्वन्ति, म्लेच्छादि पीडानिराकरणहेतुत्वात् । (गिद्दोसा) अप्रीति प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् सबकी मनोऽभिलाषा पूर्ण नहीं हो सकती, इसलिये हे संसारी प्राणियों ! तुम्हारी विषयोंकी इच्छा करना व्यर्थ है। और भी कहा हैमाशा-जिसने आशाको दास बना लिया उसने संसारको दास बना लिया और जो आशाका दास है, वह सब प्राणियोंका दास है। _ 'निर्मानाश्वा' छायाके पक्षमें अर्थ इस प्रकार है कि जो निर्माना-आठ मदसे रहित हो तथा निरश्वा-अश्व आदिसे रहित हो । यहाँ अश्व शब्द हाथी तथा बैल आदिका उपलक्षण है। दिगम्बर साधुदीक्षा इन घोड़ा हाथी आदि वाहनोंके परिकरसे रहित होती है। ___ 'अराय' इस प्राकृत शब्दकी संस्कृत छाया अरागा और अराजा होती है । 'अरागा' का अर्थ है जो रागसे रहित हो और 'अराजा' का अर्थ है जो राजासे रहित हो। साधुदीक्षामें राजाओंके साथ स्नेह नहीं करना चाहिये । यहाँ राजा शब्द उपलक्षण है इसलिये मन्त्री आदिका भी ग्रहण समझना चाहिये। साधुओंके लिये राजा तथा मन्त्री आदिका सम्पर्क प्रत्यक्ष नरकपातके समान बतलाया गया है। कोई लोग जिनधर्मकी प्रभावनाके लिये तथा मुनियोंकी अच्छी स्थिति बनी रहे इस उद्देश्यसे इसका निषेध नहीं करते हैं। क्योंकि म्लेच्छ आदिके द्वारा मुनियोंको पीड़ा पहुंचाई जानेपर उसके निराकरण करनेके लिये राजा तथा मन्त्री आदिका सम्पर्क आवश्यक होता है। - 'णिदोषा' प्राकृत शब्दकी संस्कृत छाया निर्वृषा और निर्दोषा होती है जिनका अर्थ इस प्रकार है-जो निषा-अप्रीति रूप द्वेषसे रहित हो अथवा निर्दोषा-वात पित्त कफ आदि दोषोंसे रहित हो। . 'णिम्मम' प्राकृत शब्दकी छाया निर्ममा है जिसकी व्याख्या इस प्रकार है 'मम' यह ममता वाची अव्यय शब्द है (निर्गतं मम यस्या सा निर्ममा) For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ४९ ] बोधप्राभूतम् २१९ लक्षण द्वेषरहिता अथवा वातपित्तश्लेष्मादिदोषरहितस्य प्रव्रज्या भवतीति निर्दोषा । ( णिम्मम ) निर्ममा ममेति शब्दोऽव्ययः निर्गतं ममेति यस्यां प्रव्रज्यायां सा निर्ममा, अथवा मश्च मा च ममे निर्गते ममे द्वेयस्याः सा निर्ममा मद्यमांसमधु मकारत्रयरहिता लक्ष्मीस्वोकाररहिता चेत्यर्थः । तथा चोक्तम् — अकिञ्चनोऽहमित्यास्स्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः । योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥ १ ॥ ( णिरहंकारा) अहंकाररहिता कर्मोदयप्रधाना सुखं वा दुःखं वा जीवस्य कर्मोदयेन भवति मयेदं कृतमित्यहङ्कारो न कर्तव्य इत्यर्थः । तथाचोक्तं समन्तभद्रेण ताकिकशिरोमणिना - जिसमें से मम ममता भाव निकल गया हो वह निर्ममा है। जिन दीक्षा में किसी बाह्य पदार्थ के साथ ममता नहीं रहती है। अथवा नामके एक देशसे सर्व देशका ग्रहण होता है इसलिये 'म' से मद्यमांस और मधु इन तीनों काका ग्रहण होता है और 'मा' का अर्थ लक्ष्मी है इसलिये म और मा शब्दका द्वन्द्व समास कर निर् शब्दके साथ वहुव्रीहि समास करने पर निर्माका अर्थ होता है कि जो तीन मकारके सेवन तथा लक्ष्मी के स्वीकार से रहित हो ( मश्च मा च ममे, निगते ममे यम्याः सा निर्ममा ) । जिन दीक्षा में रञ्चमात्र लक्ष्मीका स्वीकार करना सर्वथा निषिद्ध है । जैसा कि कहा है अकिंचनोऽह - 'मैं अकिञ्चन हूँ' - मेरा कुछ परिग्रह नहीं, ऐसी भावना करता हुआ तू चुपचाप बैठ । इस भावनासे तू तीन लोकका अधिपति बन सकता है । हे साधो ! मैंने तेरे लिये परमात्माका वह रहस्य बतलाया है जिसे योगी ही जान सकते हैं। 'णिरहंकारा' इस प्राकृत पदकी छाया 'निरहङ्कारा' और 'निरघं 'कारात्' की है इसलिये इसका अर्थ इस प्रकार है जो निरहङ्कारा अहंकार से रहित है । जिन दीक्षा कर्मोदयको प्रधान मानती है अर्थात् जीवको जो सुख अथवा दुःख होता है वह कर्मोदय से ही होता है इसलिये 'मैंने यह किया' इस प्रकारका अहंकार नहीं करना चाहिये। जैसा कि तार्किक - शिरोमणि श्री समन्तभद्राचार्य ने कहा है १. आत्मानुशासने गुणभद्रस्य । २. कर्तव्यमित्यर्थः म० । For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्रामृते [४.४९'अलङ्कपशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा । अनीश्वरो जन्तुरहक्रियातः संहत्य कार्येष्वितिं साध्वस्वादि ॥१॥ . संहत्य कार्येष्विति कोऽर्थः ? सुखादि-कार्योत्पादकेषु मन्त्र-तन्त्रादि-सहकारिकारणेषु मिलित्वा । अथवा णिरहंकारा-णिरह-निरह-निरघं निष्पापं सर्वसावद्ययोगरहितत्वं यथा भवत्वेवं-कारात् । कस्य शुद्धबुद्धकस्वभावस्य निजात्मस्वरूपस्य आरात्समीपतो वर्तते कारात्, चिच्चमत्कार-लक्षण-ज्ञायकैक-स्वभावटकोत्कीर्णनिजात्मनि तल्लीना प्रव्रज्या भवतीति ज्ञातव्यम् । 'पापक्रियाविरमणं चरणं । अलय-अन्तरंग और वहिरंग-उपादान और निमित्त दोनों कारणों से प्रगट हुए कार्य ही जिसकी पहिचान है, ऐसी यह भवितव्यता-होनहार अलङ्घयशक्ति है, इसकी सामर्थ्यको कोई लाँघ नहीं सकता है। अहंकार से पीड़ित हुआ यह प्राणी मिलकर भी कार्योंके विषयमें असमर्थ रहता हैजब तक जिस कार्यको भवितव्यता नहीं आ पहुंची है तब तक यह प्राणी अकेला नहीं अनेक के साथ मिलकर भी कार्य करनेमें असमर्थ ही रहता है। हे भगवन् ! ऐसा आपने ठीक ही कहा है। ' प्रश्न-'संहत्य कार्येषु' इस पदका क्या अर्थ है? उत्तर-सुख आदि कार्योंके उत्पादक मन्त्रतन्त्र आदि सहकारी कारणोंमें मिल कर। अब 'निरघं कारात्' छायाके अनुसार व्याख्या करते हैं । प्राकृत में 'घ' के स्थान में 'ह' हो जाता है इसलिये 'णिरह' की छाया 'निरघ' की गई है । और कारात् शब्दके अन्त हलका प्राकृतमें लोप कर कारा शब्द बना था उसे संस्कृतमें 'कारात्' स्वीकृत किया गया। इस तरह निरघं और कारात् ये दो शब्द हैं इनमें निरघं शब्द क्रिया-विशेषण है जिसका अर्थ होता है निरघं अर्थात् निष्पाप । 'क' शब्दका अर्थ है शुद्धबुद्ध-वीतराग और सर्वज्ञता स्वभावको लिये हए निज आत्माका स्वरूप । आरात् अव्यय समीप अर्थमें आता है इसलिये 'कस्य आरात् कारात्' इस समास के अनुसार कारात् का अर्थ हुआ आत्मस्वरूपके समीप-वर्ती । इस तरह निरघं कारात् शब्दका सामूहिक अर्थ यह हुआ कि जो समस्त पाप सहित योगोंका त्यागकर आत्मस्वरूप के निकट है अर्थात् आत्मस्वरूप की प्राप्ति का प्रमुख कारण है। जिनदीक्षा, चिच्चमत्कार लक्षण मात्र ज्ञायक १. वृहत्स्वयंभूस्तोत्रे। २. साध्ववादीः क०। For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ५९ ] बोधप्राभृतम् २२१ किलेति' वचनात् । ( पव्वज्जा ) प्रव्रज्या दीक्षा । ( एरिसा ) ईदृशी उक्तलक्षणा । ( भणिया ) गौतमस्वामिना प्रतिपादिता ॥ ४९ ॥ णिण्णेहा जिल्लोहा णिम्मोहा णिव्वियार णिक्कलुसा । णिब्भय णिरासभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ५० ॥ निःस्नेहा निल्लभा निर्मोहा निर्विकारा निष्कलुषा । निर्भया निराशभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ ( णिणेहा ) निःस्नेहा पुत्रकलत्रमित्रादिस्नेहरहिता, अथवा तैलाद्यभ्यङ्गरहिता निःस्नेहा । ( णिल्लोहा ' ) हे मुने ! हे तपस्विन् ! तवेदं वस्तु वस्त्रादिकं दास्यामि मम गृहे भिक्षा गृह्यतां भवतेति लोभरहिता, अथवा सुवर्णरजतताम्रायस्त्रपुरांगादिभाजनविवर्जिता निर्लोभा । ( णिम्मोहा ) दर्शन मोहो मिथ्यात्वं स्वभाव से निरन्तर युक्त निजस्वरूप में लोन होती है । शास्त्रों में ऐसा कहा भी है कि 'पापक्रिया से विरत होना चारित्र है " गौतमस्वामी ने जिन -दीक्षा का स्वरूप ऐसा कहा है ||४९|| गाथार्थ - जो स्नेह रहित हो, लोभ रहित हो, मोह रहित हो, अथवा निश्चित प्रमाण के तर्कसे सहित हो, विकार रहित हो अथवा निश्चित विचार से सहित हो, कलुषता-रहित हो, निर्भय हो और निराश भाव से सहित हो, आगामी आशा से रहित हो वह जिनदीक्षा कही गई है ॥५०॥ विशेषार्थ - स्नेहका अर्थ पुत्र स्त्री तथा मित्र आदिका प्रेम और तैल आदिका मर्दन है | जिनदीक्षा निःस्नेह होती है - पुत्र स्त्री मित्र आदिके स्नेह से रहित होती है अथवा तेल आदि सचिक्कण पदार्थों के मालिशसे शून्य होती है । जिनदीक्षा निर्लोभ - लोभ रहित होती है अर्थात् हे मुनिराज ! हे तपस्विन्! मैं तुम्हारे लिये यह वस्त्रादिक दूंगा आप हमारे घर पर भिक्षा ग्रहण कीजिये, इस प्रकार के लोभ से रहित है अथवा सोना, चाँदी, ताम्बा, लोहा राँगा आदिके पात्रोंसे हित होनेके कारण निर्लोभ है। जिनदीक्षा निर्मोह है- मोहसे रहित है। दर्शन-मोहको १. नि० टी० । २. हिसानृतचीर्येभ्यो पापप्रणालिकाको विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥ मैथुन से वापरिग्रहाभ्याञ्च । - रत्नकरण्ड श्रावकाचरे समन्तभद्रस्य For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ षट्प्राभूते [ ४.५० त्रविधं चारित्र मोहः पंचविंशतिप्रकारस्तद्वाभ्यामपि रहिता निर्मोहा, अथवा निश्चिताया अकलंकदेव समन्तभद्रविद्यानन्दिप्रभाचंद्रादिभिस्ताकिकनिर्धारिताया माया प्रत्यक्ष परोक्षलक्षणोपलक्षिताया प्रमाणद्वयस्य ऊहो वितक विचारणा यस्यां प्रव्रज्यायां सा निर्मोहा । ( णिब्वियार) निर्विकारा वस्त्राभरणादिवेषविकाररहिता निर्विकारा, अथवा निश्चितो विचारो विवेको भेदज्ञानं यस्यां सा निर्विचारा आत्मा पृथक् कर्म पृथक् इति विवेकोपेता उक्तं च मानुष्यं सत्कुले जन्म लक्ष्मीबुद्धिः कृतज्ञता । विवेकेन विना सर्व सदप्येतन्न किंचन ॥ १ ॥ अन्यञ्च - आत्मा भिन्नस्तदनुगतिमत्कर्म भिन्नं तयोर्या प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः सापि भिन्ना तथैव । कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्तं मतं मे । भिन्नं भिन्नं निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत् ॥१॥ मिथ्यात्व कहते हैं उसके गृहीत अगृहीत और सांशयिकके भेदसे तीन भेद हैं अथवा मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिके भेद से तीन भेद हैं । चारित्र मोह पच्चीस प्रकारका है जिनदीक्षा दोनों प्रकारके मोहों से रहित है । अथवा 'निश्चिता मा निमा, तस्या ऊहो यस्यां सा निमोहा' इस समास के अनुसार अकलंक देव समन्तभद्र, विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र आदि तार्किक विद्वानोंके द्वारा निर्धारित प्रत्यक्ष परोक्ष भेदों से युक्त दोनों प्रमाणोंके ऊह-वितर्क अथवा विचारणासे सहित है। निर्विकार हैवस्त्र आभूषण आदिसे निर्मित वेषके विकारसे रहित है अथवा 'निश्चितो विचारो यस्यां सा' इस समास के अनुसार निश्चित विचार - विवेक अथवा भेदज्ञानसे सहित है। क्योंकि जिन-दीक्षा 'आत्मा पृथक् है और कर्म पृथक् है।' इस विवेक से सहित होती है। कहा भी है मानुष्यं - मनुष्य पर्याय, उत्तमकुल में जन्म, लक्ष्मी, बुद्धि और कृतज्ञता ये सब रहते हुए भी एक विवेक के बिना कुछ नहीं है । और भी कहा है आत्मा - आत्मा भिन्न है, उसके साथ लगा हुआ कर्म भिन्न है, दोनोंकी निकटता से जो विकार होता है वह भी भिन्न है, काल क्षेत्र आदि जो कुछ है वह भी भिन्न है, तथा अपने अपने गुणोंकी कला से प्रलंकृत यह सब कुछ भिन्न-भिन्न है । For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ -४.५१] बोषप्रामृतम् (णिक्कलुसा ) निष्कलुषा निष्पापा। (णिन्भय ) निर्भया सप्तभयरहिता । (णिरासभावा ) निराशभावा आशारहितस्वभावा । ( पव्वज्जा एरिसा भणिया) प्रव्रज्या ईदृशी भणिता श्रीबृषभनाथेनेति शेषः । जहजायख्वसरिसा अवलंबियभुअ णिराउहा संता। परकियणिलयणिवासा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥५१॥ यथाजातरूपसदृशा अवलम्बितभुजा निरायुधा शान्ता । परकृतनिलयनिवासा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता॥ ( जहजायरूवसरिसा ) यथाजातरूपसदृशा नग्नरूपा इत्यर्थः। ( अवलंबियभुअ ) अवलम्बितभुजा प्रायेण कायोत्सर्गस्थिता पद्मासनादिस्थिता वा । पद्मासनं कि ? 'संन्यस्ताभ्यामधोऽह्निभ्यामूर्वोरुपरि युक्तितः । भवेच्च समगुल्फाम्यां पद्मवीरसुखासनं ॥१॥ जिनदीक्षा निष्कलुष है-पाप से रहित है। निर्भय है-ऐहलौकिक, पारलौकिक, वेदना, मरण, अत्राण, अगुप्ति और आकस्मिक इन सात भयों से रहित है। और निराशभाव-आशारहित स्वभावसे युक्त है। इस प्रकार भगवान् वृषभ नाथ ने जिन दीक्षाका स्वरूप कहा है ॥५०॥ ' जहजाय-गाथार्थ-जो तत्काल उत्पन्न हुए बालक के समान नग्न सहित रूपसे है, जिसमें भुजाएँ नीचे की ओर लटकी रहती हैं, जो शस्त्र से रहित है अथवा प्रासूक प्रदेशों पर जिसमें गमन किया जाता है, जो शान्त है तथा दूसरे के द्वारा बनाये हुए उपाश्रय में जिसमें निवास किया जाता है, वह जिनदीक्षा कही गई है ॥५१॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार तत्काल का उत्पन्न हुआ बालक निर्विकार और नग्न रहता है उसी प्रकार जिन दोक्षामें निर्विकार नग्न रूप धारण किया जाता है। जिनदीक्षामें भुजाएँ नीचे को ओर लटकी रहती हैं अर्थात् ध्यानके लिये प्रायः कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ा हुआ जाता है और पपासन आदि आसनों से भी बैठा जाता है। .. प्रश्न-पपासन क्या है ? उत्तर-संन्यस्ताभ्यां पैरोंको जांघोंके नीचे रखने पर पद्मासन, जाँघों १. पक्षस्तिलकाम्यां सोमदेवस्य । For Personal & Private Use Only . Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ तत्र सुखासनस्येवं लक्षणं- षट्काभूते 'गुल्फो तानकरांगुष्ठ रेखारोमालिनासिकाः । समदृष्टिः समाः कुर्यान्नातिस्तब्धो न वामनः २ ॥१॥ ( णिराउहा ) निरायुधा दण्डाद्यायुघरहिता, अथवा निरायुह प्रासुकान् प्रदेशान् हन्ति गच्छतीति निरायुर्हा । ( संता ) शान्तरूपा अक्रूरस्वभावा । ( पर [ ४,५१ के ऊपर रखने पर वीरासन और उस तरह मिलाकर रखने पर जिसमें कि दोनों को गाँठें समभाग रहे सुखासन होता है ||१|| उनमें सुखासन का यह लक्षण है गुल्फोत्तान - सुखासन से बैठा हुआ मनुष्य न ज्यादा तानकर बैठे और न ज्यादा झुककर | किन्तु समदृष्टि होता हुआ पैरों की गांठों पर रखे हुए उत्तान (चित्त) हाथ के अंगूठे की रेखाओं को नाभिके नीचे स्थित रोमावली को और नासिका को सम रखे अर्थात् हाथके अँगूठे को वक्र न करे, अधिक झुककर रोमावली को वक्र न करे और न ऊपर नीचे तथा आजू देख कर नासिका को विषम करे ॥१॥ जिन दीक्षा निरायुधा होती है - दण्ड आदि आयुधों से रहित होती है अथवा 'निरायुर्हा' संस्कृत छाया मान कर यह अर्थ भी हो सकता है कि जिनदीक्षा निरायुः-निर्जीव प्रासुक स्थानों पर ही गमन करती है। संस्कृत व्याकरण में 'हन्' धातुका हिंसा और गति इन दोनों अर्थों में प्रयोग होता है। जिन दीक्षा शान्त है - क्रूर स्वभावसे रहित है और जिनदीक्षा में किसी दूसरे के द्वारा बनाये हुए उपाश्रय में निवास किया जाता है । जिस प्रकार सर्प अपना बिल स्वयं नहीं बनाता, अपने आप बने हुए अथवा किसी के द्वारा बनाये हुए बिलमें निवास करता है उसी प्रकार जिनदीक्षा का धारक साधु अपना उपाश्रय स्वयं न बनाकर पर्वतकी १. यशस्तिलकचम्प्वां सोमदेवस्य । २. आराघनासारटीकायां भासनानां लक्षणानि यथा - "स्याज्जङ्घयो रघोभागे पादोपरि कृते सति । पर्यङ्को नाभिगोत्तान दक्षिणोत्तरपाणिकः ।। " अयमेवैकजंङ्घाया अधोभागे पादोपरि कृतेऽर्धपर्यङ्कः “वामोऽङ्घ्रि दक्षिणोरूर्ध्वं वामोरूपरि दक्षिणः । म्रियते यत्र तद्वीरोचितं वीरासनं स्मृतम् ॥” जङ्घायामध्यभागेषु संश्लेषो यत्र जङ्घया । पद्मासनमिति प्रोक्तं तदासनविचक्षणः ॥ " For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ -४.५२] बोषप्रामृतम् कियानलयनिवासा) परेण केनचिकृते निलये उपाश्रये निवासः स्थितियस्यां सा पररुतनिलयनिवासा सर्पवत् । ( पवजा एरिसा भणिया) प्रज्या दीक्षेदशी भणिता प्रतिपादिता प्रियकारिणीपुत्रेणेति शेषः । उवसमखमदमजुत्ता सरीरसक्कारवज्जिया रुक्खा । मयरायदोसरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥५२॥ उपशमक्षमादमयुक्ता शरीरसंस्कारवजिता रुक्षा । मदरागदोषरहिता प्रव्रज्या। ईदृशी भणिता॥ ( उसमखमदमजुत्ता) उपशमेन कर्मक्षयेण निर्जरया संवरेण अक्रूरपरिपामेन वा युक्ता, क्षमया उत्तमक्षमया युक्ता । उक्तं च शुभचन्द्रेण योगिना 'आकृष्टोऽहं हतो नैव हतो वा न द्विधाकृतः । मारितो न हतो धर्मो मदीयोऽनेन बन्धुना ॥१॥ दमेन युक्ता जितेन्द्रिया व्रतोपपन्ना वा। ( सरीरसक्कारवज्जिया) शरीरसंस्कारवजिता दन्तनखकैशमुखाद्यवयशृङ्गाररहिता। (रुक्खा) तैलाद्यभ्यंग गुफा तथा वृक्षको कोटर आदि अपने आप बने हुए अथवा किसी अन्य धर्मात्मा के द्वारा बनवाये हुए मठ आदि में निवास करता है। प्रियकारिणी के पुत्र भगवान् महावीर ने जिनदीक्षा का स्वरूप ऐसा कहा है ॥ ५१ ॥ गाचार्य-जो उपशम, क्षमा और दम से सहित है, शरीरके संस्कार से रहित है, रुक्ष है, और मद, राग, द्वेष अथवा दोषोंसे रहित है, वह जिनदीक्षा कही गई है ॥५२॥ विशेषा--जिन-दोक्षा, उपशम अर्थात् कर्मोके क्षय, निर्जरा, संवर अथवा दया रूप परिणाम तथा उत्तम क्षमा से युक्त है । जैसा कि शुभचन्द्र योगी ने कहा है बाकृष्टोऽहं-किसी दूसरेके द्वारा उपसर्ग किये जानेपर मुनिराज इस प्रकार विचार करते हैं कि इस भाईने मुझे खींचा ही तो है मारा नहीं है, अथवा मारा ही तो है मेरे दो टुकड़े तो नहीं किये, अथवा दो टुकड़े कर मारा ही तो है मेरा धर्म तो नहीं नष्ट किया ॥१॥ · दमका अर्थ इन्द्रियोंको जीतना अथवा व्रत धारण करना है । जिनदीक्षा दमसे सहित है-इन्द्रियों को जीतने वाली अथवा अहिंसा आदि १. यशस्ति लकचम्प्याम् । For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ षट्प्राभूते [४.५३रहिता । ( मयरायदोसरहिया ) मदरहिता मायारहिता वा, प्रीतिलक्षगरागरहिता, अप्रीतिलक्षणद्वेष' रहिता दोषो वा व्रतादिष्वतीचारस्तेन रहिता । . (पव्वज्जा एरिसा भणिया ) प्रव्रज्या दीक्षेदृशी भणिता प्रतिपादिता सिद्धार्थनन्दने नेति शेषः। विवरीयमूढभावा पणटुकम्मद गटुमिच्छत्ता। सम्मत्तगुणविसुद्धा पन्वज्जा एरिसा भणिया ॥५३॥ विपरीतमूढभावा प्रणष्टकर्माष्टा नष्टमिथ्यात्वा। ।' सम्यक्त्वगुणविशुद्धा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता॥ (विवरीयमूढभावा ) विपरीतमूढभावा विशेषेण परि समन्तात् इतो गतो नष्टो मूढभावो जडतास्वरूपं यस्याः सा विपरीतमूढभावा। ( पणट्टकम्मट्ठ गट्ठमिच्छत्ता') प्रणष्टानि कर्माण्यष्टौ यस्यां सा प्रणष्टकर्माष्टा नष्टमिथ्यात्वा पंचमिथ्यात्वरहिता । उक्तं च 'एयंत बुद्धदरिसी विवरीओ बंभ तावसो विणयो। इंदो वि य संसयिदो मक्कडियो चेत्र अण्णाणी ॥१॥ व्रतों से युक्त है । जिनदीक्षा, शरीर के संस्कार से रहित है अर्थात् दन्त, नख, केश और मुख आदि अवयवों को सजावट से रहित है । तेल आदिके मर्दन से रहित होनेके कारण रुक्ष है, मद अथवा माया से रहित है, अप्रोति रूप द्वेष से रहित है अथवा व्रत आदिमें अतिचार लगने रूप दोष से रहित है। राजा सिद्धार्थ के पुत्र-भगवान् महावीर ने जिनदीक्षा का ऐसा स्वरूप कहा है ॥५२॥ गाथार्य-जिसमें मूढताएं नष्ट हो चुकती हैं, जिसमें आठ कर्म नष्ट हो जाते हैं, जिसमें मिथ्यात्व नष्ट हो चुकता है और जो सम्यक्त्वरूप गुणसे विशुद्ध है, वह जिनदीक्षा कही गई है ॥५३॥ .. - विशेषार्थ-जिनदोक्षा में मूढभाव-जड़ता विशेष रूप से नष्ट हो चुकती है, ज्ञानावरणादि आठ कर्म नष्ट हो जाते हैं और एकान्त आदि पांच प्रकारका मिथ्यात्व नष्ट हो चुकता है। पांच प्रकार के मिथ्यात्व और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों का उल्लेख करते हुए कहा गया है एयंत-एकान्त मिथ्यात्व में बौद्ध, विपरीत मिथ्यात्व में ब्रह्मवादी, १. दोष म। २. जीवकाण्ड मेमिचन्द्रस्य । For Personal & Private Use Only . Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ५३ ] बोषप्राभूतम् २२७ अस्या अयमर्थः सर्वथा क्षणविनाशवादी बुद्धः । ब्रह्मवादी विपरीत; आत्मनं शाश्वतमेवैकान्तेन मन्यते । तापसो वैनयिकः सर्वविनयेन मोक्षं मन्यते गुणदोषविचारणा तन्मते नास्ति । इन्द्र चन्द्रनागेन्द्रवादी संशयमिध्यादृष्टिः चतुरपरजैनाभासाश्च । संशयवादी किलेवं मन्यते ExYout "सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य तह य समभावभावियप्पा लहेइ मोक्खं ण मस्करपूरणः खल्वेवं वदति - अण्णोय । अण्णाणादो मोक्खं गाणं णत्यित्ति मुक्कजीवाणं । पुणरागमणं भ्रमणं भवे भवे णत्थि जीवाणं ॥ १ ॥ ( सम्मत्त गुणविसुद्धा ) सम्यक्त्वमेव गुणस्तेन विशुद्धा निर्मला, अथवा सम्यक्त्वगुणैनः शंकितनिष्कांक्षितनिर्विचिकित्सितामूढदृष्टिउपगूहन स्थितीकरणवात्सल्यप्रभावनालक्षणैरष्टभिः सम्यक्त्वगुणैविशुद्धा विशेषेण निर्मला पंचविशतिदोषरहिता मस्करपूरण ऐसा कहता हैअण्णाणादो संदेहो ॥१॥ वेनयिक मिध्यात्व में तापस, संयम मिथ्यात्व में इन्द्र नामका श्वेताम्बर गुरु और अज्ञान मिथ्यात्व में मस्करी प्रसिद्ध हुआ है ||१|| इस गाथाका स्पष्ट अर्थ यह है - 'समस्त पदार्थों का सब प्रकार से क्षणक्षण में विनाश होता है' इसप्रकार एकान्तसे समस्त पदार्थोंको क्षणिक मानने वाला बुद्ध एकान्त मिथ्यादृष्टि है । ब्रह्मवादी विपरीत मिथ्यादृष्टि है वह आत्माको एकान्त से नित्य हो मानता है। तापस- वैनयिक मिथ्यादृष्टि है वह सब को विनय से मोक्ष मानता है उसके मतमें गुण दोषका विचार नहीं है । इन्द्रचन्द्र 'नागेन्द्र' नामका वादो संशय मिथ्यादृष्टि है, इसो प्रकार शेष चार जैनाभास भी संशय मिथ्यादृष्टि हैं । संशय-वादी मिथ्यादृष्टि ऐसा मानता है कि सेयंबरो - श्वेताम्बर हो चाहे दिगम्बर, बुद्ध हो चाहे अन्य कोई, यदि उसकी आत्मा समभावसे सुसंस्कृत है तो वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है, इसमें संशय नहीं है ॥१॥ - अज्ञान से मोक्ष होती है, मुक्त जीवोंके ज्ञान नहीं है । मुक्त जीवों का पुनरागमन और भवभव में भ्रमण नहीं होता है । जिन दीक्षा सम्यक्त्व रूप गुणसे विशुद्ध रहती है अथवा सम्यग्दर्शन के निःशङ्कन निःकांक्षित, निर्विचिकित्सित, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थिति - करण, वात्सल्य और प्रभावना इन आठ गुणोंके द्वारा विशुद्ध-विशेषरूप १-२. जी काण्डे नेमिचास्य । For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રર૮ षट्नामृत सम्यक्त्वगुणविशुद्धा । ( पन्चज्जा एरिसा भणिया ) प्रव्रज्या दीक्षा ईदृशी भणिता प्रतिपादिता चतुर्विशतितमेन तीर्थकृतेति शेषः । जिणमग्गे पव्वजा छहसंघयणेसु भणिय णिग्गंथा। भावंति भव्वपुरिसा कम्मक्खयकारणे भणिया ॥५४॥ जिनमार्गे प्रव्रज्या षट्सहननेषु भणिता निम्रन्था। भावयन्ति भव्यपुरुषाः कर्मक्षयकारणे भणिता || (जिणमग्गे पव्वज्जा ) जिनमार्गे आहेतशासने प्रव्रज्या दीक्षा । (छहसंघयणेसु) षटसंहननेषु वर्षभनाराचवजनाराचनाराचार्धनाराचकीलिकाप्राप्तासृपाटिकनामसु षट्सु संहननेषु । ( भणिय णिग्गंथा ) भणिता प्रतिपादिता श्रीन्द्रभूतिनामगणधरदेवेनेति शेषः । कथंभूता भणिता, -निग्रन्था यथाजातरूपधारिणी यतोऽस्मिन् क्षेत्रेऽन्त्यो निम्रन्थो वीराङ्गजो यो भविष्यति पंचमकालस्यान्ते स किलाप्राप्तासपाटिको संहननो भविष्यति तेन षष्ठेऽपि. संहनने निग्रन्थप्रव्रज्या ज्ञातव्या । ( भावंति भम्वपुरिसा) भावयन्ति मानयन्ति एतद्वचनं, के ? भव्यपुरुषा आसन्नभव्यजीवाः । ( कम्मक्खयकारणे भणिया ) पारम्पर्येण कर्मक्षयकारणे मोक्षप्राप्तिनिमित्त भणिता प्रतिपादिता। से निर्मल होती है। तीनमूढता, छह अनायतन, शङ्कादि आठ दोष और आठमद इन पच्चीस दोषों से रहित होनेसे विशुद्ध है। चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी ने जिन दीक्षाका इस प्रकार स्वरूप बतलाया है ॥५३॥ . गाथार्थ-अरहन्त भगवान् के शासन में जिनदोक्षा छहों संहननों में कही गई है। जिन-दीक्षा निम्रन्थ है-परिग्रह-रहित है और कर्मक्षय के कारणों में कही गई है, ऐसा भव्य पुरुष चिन्तन करते हैं ॥५४॥ विशेषार्थ-जिन मार्ग-अरहन्त भगवान के शासन में जिनदीक्षा बर्षभनाराच, बजनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कोलक और असंप्राप्तासपाटिका इन छह संहननोंके धारक जीवोंके कही गई है। क्योंकि इस क्षेत्र में पञ्चम कालके अन्तमें जो वीराङ्गज नामका अन्तिम निर्ग्रन्थमुनि होगा वह असंप्राप्तासृपाटिका संहनन का धारो होगा इससे छठे संहनन में भो निर्गन्थ-दीक्षा होती है, यह जानना चाहिये । जिन दोक्षा निनन्य होती है समस्त परिग्रहों से रहित हातो है, तथा कर्मक्षय कारणों में कही गई है अर्थात् जिनदोक्षा परम्परा से मोक्ष प्राप्तिका निमित्त है, ऐसा निकट-भव्य जीव. मानते हैं ॥५४॥ १. निग्रन्था क० म०। For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ५५-५६] बोषप्रामृतम् २२९ तिलओसत्तनिमित्तं समवाहिरगंथसंगहो पत्थि।। पावज्ज हवइ एसा जह भणिया सव्वदरिसीहि ॥५५॥ तिलकोशत्वमात्र समबाह्यग्रन्थसंग्रहो नास्ति । प्रव्रज्या भवति एषा यथा भणिता सर्वदर्शिभिः ॥ (तिल ओसत्तनिमित्तं ) तिलस्य पितृप्रियबीजस्य कोशत्वमानं तिरुतुषमात्रमपि अश्रमणपरिग्रहः । ( समबाहिरगंथसंगहो णत्यि ) तिलतुषमात्रसमोऽपि बाह्यग्रन्थस्य संग्रहो नास्ति न विद्यते । ( पावज्ज हवइ एसा ) प्रव्रज्या भवत्येषा । (जह भणिया सव्वदरिसीहिं ) यथा भणिता सर्वदर्शिभिः सर्वज्ञदेवैरिति । उवसग्गपरिसहसहा णिज्जणदेसे हि णिच्च अत्येइ । सिल कडे भूमितले सव्वे आरहइ सम्वत्थ ॥५६॥ उपसर्गपरीषहसहा निर्जनदेशे हि नित्यं तिष्ठति । शिलायां काष्ठे भूमितले सर्वाणि आरोहति सर्वत्र ॥५६॥ ( उवसग्गपरिसहसहा) उपसर्गाश्च तिर्यग्मानवदेवाचेतनभवाश्चतुःप्रकाराः, परीषहाश्च पूर्वोक्ता द्वाविंशतिः उपसर्गपरीषहास्तान् सहते तेषु वा सहा समर्षा उपसर्गपरीषहसहा । ( णिज्जणदेसे हि णिच्च अत्थेइ ) निर्जनदेशे मनुष्यरहित , गाथार्थ-जिसमें तिल तुषके अग्रभागके बराबर भी बाह्य परिग्रह का संग्रह नहीं है वही जिन दीक्षा है, ऐसा सर्व-दर्शी-जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ॥५५॥ :: विशेषार्थ-तिलका दाना अत्यन्त छोटा होता है उसके तुषके अग्र• भागके बराबर भी बाह्य परिग्रह का संग्रह मुनिके नहीं होता है ऐसा सर्वज्ञ देवने कहा है ॥५५॥ . गाथार्थ--जिन दीक्षा उपसर्ग और परीषहों को सहन करती है, इसके धारक निरन्तर निर्जन स्थान में रहते हैं तथा सर्वत्र शिला, काष्ठ अथवा भूमितल पर आरूढ होते हैं-बैठते अथवा शयन करते हैं ॥५६॥ विशेषार्थ-तिर्यञ्च, मनुष्य, देव और अचेतन पदार्थोसे उत्पन्न होनेके कारण उपसर्गके चार भेद हैं। परीषहके बाईस भेद पहले कहे जा चुके हैं। जिन दीक्षा उन उपसर्ग और परीषहोंके सहन करने में समर्थ हैं। जिन दीक्षा-जिन दोक्षाके धारक मुनि निश्चयसे निरन्तर निर्जन देश मनुष्यरहित वनमें रहते हैं और सर्वत्र शिला काठके पाटे, भूमितल अथवा · तृण-समूह पर आरव होते हैं-बैठते हैं तथा शयन करते हैं। यहां For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० षट्नाभूते _ [४.५७प्रदेशे वने हि स्फुटं नित्यं तिष्ठति । (सिल कट्टे भूमितले ) शिलायां दृषदि, काळे दारुफलके, भूमितले भूमौ 'तृणायां वा । ( सम्बे आल्हइ सव्वत्य ) एतानि सर्वाणि, आरोहति उपविशति शेते च सर्वत्र वने ग्रामनगरादौ वा ॥ ५६ ॥ पसुमहिलसंढसंगं कुसीलसंगं ण कुणइ विकहाओ। समायमाणजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥५७ ॥ पशुमहिलाषण्ठसंग कुशीलसंगं न करोति विकथाः। स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ||५७॥ (पसुमहिलसंढसंगं ) यत्र पशवो भवन्ति तत्र न 'स्थीयते, यत्र महिला . भवन्ति, यत्र पंढा नपुंसकानि भवन्ति तत्र न स्थीयते । (कुसोलसंगं ण कुमार विकहानो) कुशीलस्य कुत्सिताचारस्य साधुलोकशिक्षापराङ्मुखस्य संगं न करोति-तत्संगतो दुर्ध्यानमुत्पद्यते, न करोति विकथाश्च राजकथास्त्रीकथाभोजनकथाचोरकथाश्चेति । (सज्झायमाणजुत्ता ) स्वाध्यायेन वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशलक्षणेन पंचविधेन युक्ता प्रव्रज्या भवति, ध्यानेन घHध्यानशुक्लध्यानयेन युक्ता आर्तरौद्रदुर्ध्यानद्वयरहिता। (पब्वज्जा एरिसा भणिया) प्रव्रज्या सव्वत्थ ( सर्वत्र ) शब्दसे सूचित होता है कि मुनियोंका निवास वन अथवा ग्राम नगर आदिमें भी होता है । ५६ ॥ गाथार्य-जो पशुओं, महिलाओं, नपुंसकों और कुशील मनुष्योंका संग नहीं करती है, विकथाएं नहीं करती है तथा स्वाध्याय और ध्यानमें युक्त रहती है वह जिन दीक्षा कही गई है ।। ५७ ॥ विशेषा-जिसमें, जहां पशु होते हैं वहां नहीं बैठा जाता है, जहाँ स्त्रियां तथा नपुंसक रहते हैं वहाँ भी नहीं बैठा जाता है, खोटे आचारके धारक अथवा मुनिजनोंकी शिक्षासे पराङ्मुख मनुष्यकी संगति नहीं की जाती है क्योंकि उसकी संगति में खोटा ध्यान उत्पन्न होता है। जिसमें राजकथा, स्त्री कथा, भोजन कथा और चोर कथा ये विकथाएँ नहीं की जाती हैं और जो वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश इन पांच प्रकारके स्वाध्याय से युक्त रहती हैं तथा धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान इन दो ध्यानोंसे सहित एवं आतं और रौद्र इन दो खोटे १. तृणायां म०। २. सत्संगते म०। For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४.५८] बोषप्रामृतम् जैन दीक्षा ईदृशी एतल्लक्षणविराजमानां भणिता प्रतिपादिता अकलकुदेवेनेति शेषः ॥ ५७॥ तववयगुणेहि सुद्धा संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य । सुद्धा गुहिं सुद्धा पव्वन्जा एरिसा भणिया ॥५८॥ तपोव्रतगुणैः शुद्धा संयमसम्यक्त्वगुणविशुद्धा च । शुद्धा गुणैः शुद्धा प्रव्रज्या ईदृशो भणिता ॥५८।। ( तववयगुणेहिं सुद्धा ) तपोभिरिच्छानिरोधलक्षणैदशभिः, व्रतैरहिंसादिभिः पंचभिः रात्रिभोजनपरिहारबतषष्ठः, गुणश्चतुरशीतिलक्षलक्षणैः शुद्धा उज्वला । ( संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य ) संयमा इन्द्रियप्राणसंयमलक्षणा द्वादश, सम्यक्त्वानि दशप्रकाराणि द्वित्रिप्रकाराणि च, ते च ते गुणा आत्मोपकारकाः परिणामविशेषास्तविशुद्धां निर्मला प्रवज्या भवति । निसर्गजमधिगमजं सम्यक्त्वं द्विविधं, उपशमवेदकक्षायिकभेदात्सम्यक्त्वं त्रिविधं । ध्यानोंसे रहित होती है वह जिन दीक्षा है, ऐसा अकलङ्क देव-वोतराग जिनेन्द्र देवने कहा ।। ५७ ॥ गाथार्य-जो तप, व्रत और गुणोंसे शुद्ध है, संयम और सम्यक्त्व - रूपी गुणोंसे विशुद्ध है और मूलगुणों से निर्दोष है वही शुद्ध दीक्षा कही गई है ।।५८॥ विशेषार्थ-इच्छा-निरोध रूप लक्षण से युक्त तपके अनशन-अवमौदर्य आदि बारह भेद हैं, व्रतके अहिंसा आदि पांच और रात्रिभोजन त्याग नामका छटवां इस प्रकार छह भेद हैं, गुणोंके चौरासी लाख भेद हैं। संयमके छह इन्द्रिय-संयम और छह प्राणसंयम इस प्रकार बारह भेद हैं। सम्यक्त्व के दश, दो अथवा तीन भेद हैं। निसर्गज और अधिगमज की अपेक्षा सम्यक्त्व दो प्रकारका है। उपशम, वेदक और क्षायिक के भेदसे तीन प्रकारका है तथा 'आज्ञामार्ग' इस आर्यामें कहे हुए १ आज्ञासमुद्भव, २मार्गसमुद्भव, ३ उपदेशभव, ४ सूत्रभव, ५ बीजभव, ६ संक्षेपभव, ७ विस्तारभव, ८ अर्थभव, ९ अवगाढ और १० परमावगाढके भेदसे दश प्रकारका है । इन दश भेदोंके स्वरूप का वर्णन करने वाले तीन पद्य इस प्रकार है For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते “आशामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात्' । विस्तारार्थाभ्यां भवमवपरमावादिगाढं च" इत्यार्याकथिताः सम्यक्त्वस्य दशप्रकारा ज्ञातव्याः । तद्विवरणं वृत्तत्रयं यथाआज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाज्ञयैव त्यक्तग्रन्थप्रपंचं शिवममुतपथं श्रद्दधन्मोहशान्तेः । मार्गश्रद्धानमाहुः पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाताया सद्ज्ञानागमाब्धिप्रसृतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टिः ॥ १ ॥ आकर्ण्यचारसूत्रं मुनिचरणविधेः सूचनं श्रद्दधानः सूक्तासौ सूत्रदृष्टिर्दुरधिगमगतेरर्थ सार्थस्य बीजैः । कैश्चिज्जातोपलब्धेरसमशमवशाद्द्बीजदृष्टिः पदार्थान् सक्षेपेणैव बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपदृष्टिः ॥ २ ॥ यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गीं कृतरुचिरिह तं विद्धि विस्तारदृष्टि संजातार्थात्कुतश्चित्प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टिः । दृष्टिः साङ्गाङ्गबाह्य प्रवचनमवगाह्योत्थिता याऽवगाढा कैवल्यालोकितार्थे रूचिरिह परमावादिगाढेति रूढा ॥ ३ ॥ २३२ आज्ञासम्यक्त्व - १ वीतराग सर्वज्ञ देव की आज्ञा मात्रसे जो श्रद्धा होती है उसे आज्ञा सम्यक्त्व कहते हैं । २ ग्रंथोंके विस्तार को छोड़कर दर्शन मोह-कर्मके उपशमसे आनन्ददायी मोक्षमार्ग की जो श्रद्धा होती है उसे मार्ग-सम्यक्त्व कहते हैं । ३ शलाका पुरुषोंके पुराणकें उपदेश से जो सम्यक्त्व होता है उसे सम्यग्ज्ञानके वर्धक आगम रूप सागरका प्रसार करने वाले मुनि उपदेश सम्यक्त्व कहते हैं । ४ मुनियों के चारित्र की विधिका वर्णन करने वाले आचार सूत्रको सुनकर जो श्रद्धा होती है उसे सूत्र सम्यक्त्व कहते हैं । ५ अनुपम प्रशम गुणके कारण किन्हीं बीजों के द्वारा दुर्ज्ञेय अर्थ को जो श्रद्धा होती है उसे बोज दृष्टि कहते हैं । ६ संक्षेप से ही पदार्थों को जानकर जो श्रद्धाको प्राप्त होता है वह संक्षेप दृष्टि है । ७ द्वादशाङ्ग को सुनकर जो श्रद्धाको प्राप्त होता है उसे विस्तार दृष्टि कहते हैं । ८ जो शास्त्र के वचनके बिना किसी अर्थसे श्रद्धान होता है वह अर्थ सम्यक्त्व है । ९ अङ्ग तथा अङ्ग बाह्य शास्त्रोंका अवगाहन करनेसे जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसे अवगाढ सम्यक्त्व कहते हैं और १० केवलज्ञानके द्वारा देखे हुए पदार्थों में जो श्रद्धा होती है उसे परमावगाढ सम्यक्त्व कहते हैं ।. १-२. आत्मानुशासने गुणभद्रस्य । [ ४.५८ For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ५९ ] बोषप्राभृतम् -२३३ ( सुद्धा गुणेहि सुद्धा ) या प्रव्रज्या गुणैः कृत्वा शुद्धा सा शुद्धा कथ्यते न तु वेषमात्रेण शुद्धोच्यते । ( पव्वज्जा एरिसा भणिया ) प्रव्रज्या दीक्षेदृशी भणिता प्रतिपादिता शान्तिनाथेनेति शेषः || ५८ || एवं आयत्तणगुणपज्जत्ता बहुविसुद्ध सम्मत्ते । णिग्गंथे जिनमग्गे संखेवेणं जहाखादं ॥ ५९॥ एवं आत्मतत्वगुणपर्याप्ता बहुविशुद्धसम्यक्त्वे । निग्रन्थे जिनमार्गे संक्षेपेण यथाख्यातम् ||१९|| ( एवं ) पूर्वोक्तप्रकारेण । ( आयत्तणगुणपज्जत्ता ) ' आत्मतत्वगुणपर्याप्ता परिपूर्णा, आत्मगुणभावनारहितेयं प्रव्रज्या परिपूर्णा न भवति, आत्मगुणभावनासहिता तु स्तोकापि प्रव्रज्या पर्याप्ता सम्पूर्णा भवतीति भावार्थ: । ( बहुविसुद्ध - सम्म) बहुविशुद्ध सम्यक्त्वे मुनौ प्रव्रज्या पर्याप्ता भवति मिथ्यात्वदूषिते तु नग्नेऽपि मुनो दीक्षा अदीक्षा भवति संसारविच्छेदरहितत्वात् । उत्कृष्टतया इस प्रकार जो अनशनादि बारह तपों, अहिंसा आदि छह व्रतों और चौरासी लाख उत्तर गुणोंसे शुद्ध है। बारह संयमों, तथा दो तीन अथवा दश प्रकारके सम्यग्दर्शन रूपी गुणोंसे विशुद्ध है और अट्ठाईस मूलगुणों से 'शुद्ध है -- निरतिचार है वही जिनदीक्षा है ऐसा श्री शान्तिनाथ भगवान् ने कहा है । यहाँ यह भाव स्पष्ट किया गया है कि जो दीक्षा गुणोंसे शुद्ध है वही शुद्ध दीक्षा कहलाती है, मात्र वेषसे दीक्षा शुद्ध नहीं कही जाती ॥ ५८ ॥ गाथार्थ — इस प्रकार अत्यन्त विशुद्ध सम्यक्त्वसे युक्त मुनि में प्रव्रज्या आत्मगुणों की भावना से परिपूर्ण होती है । [ कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि मैंने] निर्ग्रन्थ जैन मार्ग के विषय में जो कहा है वह संक्षेप से ही कहा है ॥५९॥ विशेषार्थ - पूर्वोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जो प्रव्रज्या आत्मतत्व के गुणोंसे परिपूर्ण है वही पूर्णं प्रव्रज्या है । जो प्रव्रज्या आत्म- गुणों की भावना से रहित है वह परिपूर्ण नहीं होती। इसके विपरीत जो प्रव्रज्या आत्मगुणों की भावना से सहित है वह छोटी होनेपर भी परिपूर्ण होती है। यह प्रव्रज्या अत्यन्त विशुद्ध सम्यक्त्व से युक्त मुनि में पूर्णताको प्राप्त १. आत्मत्व म० घ० । २. आत्मभावना गुण क० म० । For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ षट्प्राभूते [ ४.५९० 'नवमग्र वैयकपदं लब्ध्वापि मिथ्यादृष्टयस्तपस्विनः पुनः संसारे पतन्तीति ज्ञात्वा पुनः पुनः भणामि सम्यक्त्ववता मुनिना भवितव्यं । उक्तं चानेनैव भगवता कुन्दकुन्दाचार्येण सम्मं चेव य भावे मिच्छाभावे तहेव बोद्धव्या । चऊण मिच्छभावे सम्मम्मि उवट्ठिदे वंदे ॥ १ ॥ ( णिग्गंथे ) निग्रन्थे । ( जिणमग्गे) जैनमार्गे नग्ने जिनमार्गे, वस्त्रसहितस्तु मोक्षं प्राप्नोतीति मिथ्यादृष्टिमार्ग: । ( संखेवेण ) संक्षेपेण समासेन । ( जहाबाद यथा मया कथित प्रव्रज्यालक्षणं स सर्वोऽपि संक्षेप इति ज्ञातव्यमिति भावः । विस्तरस्तु गौतमस्वामिसूत्रे बोद्धव्यः । पव्वज्जा -- प्रव्रज्यास्वरूपं निरूपितम् । प्रव्रज्या कोऽर्थः ? परिव्राज्यं तस्य सूत्रपदानि सप्तविंशतिजिनसेनाचार्यै - रुक्तानि । तथा हि होती है । मिथ्यात्वसे दूषित मुनि भले ही नग्न रहता हो उसकी दीक्षा' दीक्षा नहीं होती क्योंकि वह संसारके विच्छेद से रहित है । यद्यपि मिथ्यादृष्टि मुनि उत्कृष्ट रूपसे नवम ग्रैवेयकके पदको भी प्राप्त करलेते हैं तो भी पुनः संसार में ही पड़ते हैं ऐसा जानकर में बार-बार कहता हूँ कि मुनिको सम्यग्दृष्टि होना चाहिये। जैसा कि इन्हीं भगवान् कुन्दकुन्दा चार्य ने कहा है सम्मं - जिस प्रकार सम्यक्त्व रूप भाव हैं उसी प्रकार मिथ्यात्व रूप भी भाव होते हैं । उनमें से मिथ्यात्व रूप भावोंको छोड़कर जो सम्यक्त्व भाव को प्राप्त हुए हैं, मैं उन्हें वन्दना करता हूँ । जिनमार्ग परिग्रह से रहित है-नग्न रूप है। 'वस्त्र सहित मनुष्य मोक्षको प्राप्त होता है' यह मिथ्यादृष्टियों का मार्ग है। इस जैनमार्ग में जैसा कुछ प्रव्रज्या का लक्षण मैंने कहा है वह संक्षेप से ही कहा है, ऐसा जानना चाहिये । इसका विस्तार श्री गौतम स्वामीके परमागम में जानना चाहिये । इस प्रकार प्रव्रज्या के स्वरूपका निरूपण किया । प्रश्न – प्रव्रज्या इसका क्या अर्थ है ? उत्तर - प्रव्रज्या का अर्थ पारिब्रज्य है। उसके सत्ताईस सूत्र श्री जिनसेनाचार्यंने कहे हैं । जो इस प्रकार हैं १. नववैवेयक घ० । For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ -४.५९] बोधप्रामृतम् जातिमूर्तिश्च तत्रस्थं लक्षणं सुन्दराङ्गता । प्रभामण्डलचक्राणि तथाभिषवनाथते ॥१॥ सिंहासनोपघाने च छत्रचामरघोषणाः । अशोकवृक्षनिधयो गृहशोभावगाहने ॥२॥ क्षेत्राज्ञे तत्समा कोतिवंधता वाहनानि च । भाषाहारसुखानीति जात्यादिः सप्तविंशतिः ॥३॥ इति त्रिभिः श्लोकैः सप्तविंशतिः प्रव्रज्यासूत्रपदानि ज्ञातव्यानि । एतेषां विवरणं तैरेव कृत वर्तते तथा हि जात्यादिकानिमान् सप्तविंशति परमेष्ठिनाम् । गुणानाहु जेदीक्षां स्वेषु तेष्वकृतादरः ॥१॥ जातिमानप्यनुसिक्तः संभजेदहतां क्रमौ । यतो जात्यन्तरे जात्यां याति जाति चतुष्टयीं ॥२॥ जाती भवा जात्या तां जात्यां उत्तमां जाति मुनिर्याति । कस्मिन् जात्यन्तरे चतुःप्रकारजातिभेदे । किं कुर्वाणः ? अहत्क्रमो भजमानः । ___ जाति-जाति, मूर्ति, उसमें रहने वाले लक्षण, शरीरको सुन्दरता, प्रभा, मण्डल, चक्र, अभिषेक, नाथता, सिंहासन, उपधान, छत्र, चामर, घोषणा, अशोक वृक्ष, निधि, गृहशोभा, अवगाहन, क्षेत्रज्ञ, आज्ञा, सभा, कोति, वन्दनीयता, वाहन, भाषा, आहार और सुख ये जाति आदि .. सत्ताईस सूत्रपद कहलाते हैं ॥१-३॥ इन तीन श्लोकोंके द्वारा प्रव्रज्या के सत्ताईस सूत्र पद जानना चाहिये। इनका वर्णन उन्हीं जिनसेनाचार्य ने किया है जो इस प्रकाराहै.. जात्याविका-ये जाति आदि सत्ताईस सूत्र पद परमेष्ठियों के गुण कहलाते हैं। उस भव्य पुरुष को अपने जाति आदि गुणोंसे आदर न करते हुए दीक्षा धारण करना चाहिये। (ये जाति आदि गुण जिस प्रकार परमेष्ठियों में होते हैं उसी प्रकार दीक्षा लेने वाले शिष्य में भी यथासंभव रूपसे होते हैं परन्तु शिष्यको अपने जाति आदि गुणों का सन्मान १. क्षेत्रसाशासभाः महापुराणे । २. महापुराणे पर्व ३९ । ३. स्तेषु म०। ४. महापुराणे १६६-१६७ पर्व ३९ For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४.५९ ...पट्नाभूते 'जातिरन्द्री भवेदिव्या चक्रिणां विजवाश्रिता । परमा जातिराहंन्त्ये स्वत्मोत्या सिद्धिमीयुषाम् ॥ ३॥ मूादिष्वपि नेतव्या कल्पनेयं चतुष्टयो । पुराणहरसंमोहात्क्वचिच्च त्रितयी मता ॥४॥ कर्शयन् मूतिमात्मीयां रक्षन् मूर्तीः शरीरिणां । तपोऽधितिष्ठेद्दिव्यादिमूर्तीराप्तुमना मुनिः ॥ ५॥ स्वलक्षणमनिर्देश्यं मन्यमानो जिनेशिनां । लक्षणान्यभिसंधाय तपस्येत्कृतलक्षणः ॥ ६ ॥ म्लापयन् स्वाङ्गसौन्दयं मुनिरुग्र तपश्चरेत् । वाञ्छन् दिव्यादिसौन्दर्यमनिवार्य परं परं ॥ ७ ॥ नहीं कर परमेष्ठियों के ही जाति आदि गुणोंका सन्मान करना चाहिये क्योंकि ऐसा करने से वह शिष्य अहंकार आदि दुगुणों से बचकर अपने : आपका उत्थान शीघ्र ही कर सकता है)। स्वयं उत्तम जाति वाला होनेपर भी अहंकार-रहित होकर अरहन्त देवके चरणों को सेवा करनी चाहिये क्योंकि ऐसा करनेसे वह भव्य दूसरे जन्म में उत्पन्न होनेपर दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा इन चार उत्तम जातियों को प्राप्त होता है ॥१-२॥ __जातिरेन्द्री-इन्द्रके दिव्या जाति होती है, चक्रवतियों के विजयाश्रिता, अरहन्त देवके परमा और मोक्षको प्राप्त हुए जीवोंके अपने आत्मा से उत्पन्न होनेवाली स्वा जाति होती है ॥३॥ . . इन चारों को कल्पना मूर्ति आदि में कर लेनी चाहिये अर्थात् जिसप्रकार जातिके दिव्या आदि चार भेद हैं उसी प्रकार मूर्ति आदिके भी समझ लेना चाहिये । परन्तु पुराणों को जानने वाले आचार्य मोह-रहित होनेसे किसी-किसी जगह तीन ही भेदोंकी कल्पना करते हैं अर्थात् सिद्धोंमें स्वा मूर्ति नहीं मानते हैं ॥४॥ जो मुनि दिव्य आदि मूर्तियोंको प्राप्त करना चाहता है उसे अपना शरीर कृश करना चाहिये तथा अन्य जीवों के शरीरों की रक्षा करते हुए तपश्चरण करना चाहिये ॥५॥ इसी प्रकार अनेक लक्षण धारण करने वाला वह पुरुष अपने लक्षणों को निर्देश करने के अयोग्य मानता हआ जिनेन्द्र देवके लक्षणोंका चिन्तवन कर तपश्चरण करे ॥६।। जिनको परम्परा अनिवार्य है ऐसे दिव्य आदि सौन्दर्यो की १. महापुराणे । पर्व ३९ श्लोक १६८-२०० । For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोषनामृतम् २३७७ मलीमसाङ्गो व्युत्सृष्टस्वकायप्रभवप्रभः। .. प्रभोः प्रभां मुनिया॑यन् भवेत्क्षिप्रं प्रभास्वरं ॥८॥ स्वं मणिस्नेहदीपादितेजोऽपास्य जिनं भजन् । . तेजोमयमयं योगी स्यात्तेजोवलयोज्वलः ॥ ९॥ त्यक्त्वाऽस्त्रवस्त्रशस्त्राणि प्राक्तनानि प्रशान्तभाक् । जिनमाराध्य योगीन्द्रो धर्मचक्राधिपो भवेत् ॥ १० ॥ त्यक्तस्नानादिसंस्कारः संश्रित्य स्नातकं जिनं । मनि मेरोरवाप्नोति परं. जन्माभिषेचनं ॥ ११ ॥ स्वं स्वाम्यमैहिकं त्यक्त्वा परमस्वामिनं जिनं । .. सेवित्वा सेवनीयत्वमेष्यत्येष जगज्जनः ॥ १२ ॥ स्वोचितासनभेदानां त्यागात्त्यक्ताम्बरो मुनिः । सिंह विष्टरमव्यास्य तीर्थप्रख्यापको भवेत् ॥ १३ ॥ स्वोपधानाद्यनादृत्य योऽभून्निरुपधिमुनिः । .... शयानः ‘स्थण्डिले बाहुमात्रार्पितशिरस्तटः ॥ १४ ॥ इच्छा करता हुआ वह मुनि अपने शरीर के सौन्दर्य को मलिन करता हुआ कठिन तपश्चरण करे ॥७॥ जिसका शरीर मलिन हो गया है, जिसने अपने शरीरसे उत्पन्न होनेवाली प्रभाका त्याग कर दिया है और जो अरहन्त देवकी प्रभा का ध्यान करता है ऐसा साधु शीघ्रही देदीप्यमान हो जाता है अर्थात् दिव्य-प्रभा आदि प्रभाओं को प्राप्त करता है ||८|| जो मुनि अपने मणि और तेल के दीपक आदिका तेज छोड़कर तेजोमय जिनेन्द्र भगवान् की आराधना करता है वह प्रभामण्डल से उज्ज्वल हो उठता है ॥९॥ जो पहले के अस्त्र, वस्त्र और शस्त्र आदिको छोड़कर अत्यन्त शान्त होता हुआ जिनेन्द्र भगवान् की आराधना करता है वह योगिराज धर्मचक्रका अधिपति होता है ॥१०॥ जो मुनि स्नान आदिका संस्कार छोड़कर केवली जिनेन्द्र का आश्रय लेता है अर्थात् उनका चिन्तवन करता है वह मेरु पर्वतके मस्तक पर उत्कृष्ट जन्माभिषेक को प्राप्त होता है॥११॥ जो मुनि अपने इस लोक-सम्बन्धी स्वामीपनेको छोड़कर परमस्वामी श्री जिनेन्द्र देवको सेवा करता है वह जगत् के जीवोंके द्वारा सेवनीय होता है अर्थात् जगत् के सब जीव उसको सेवा करते हैं ॥१२॥ जो मुनि अपने योग्य अनेक आसनों के भेदोंका त्याग करके दिगम्बर हो जाता है वह सिंहासन पर आरूढ होकर तीर्थको प्रसिद्ध करने वाला ... अर्थात् सोधकर होता है ।।१३।। जो मुनि अपने तकिया आदिका अनादर För Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ षट्प्राभूते स महाभ्युदयं प्राप्य जिनो भूत्वाऽऽप्तसत्क्रियः । देवविरचितं दीप्रमास्कन्दत्युपधानकं ।। १५ ॥ ॥ १८ ॥ त्यक्तशीतातपत्राणसकलात्मपरिच्छदः 1 त्रिभिश्छत्रः समुद्भासिरत्नैरुद्भासते स्वयं ।। १६ ।। विविधव्यजनत्यागादनुष्ठिततपोविधिः 1 चामराणां चतुःषष्ट्या वीज्यते जिनपर्यये ॥ १७ ॥ उज्झितानकसंगीतघोषः कृत्वा तपोविधं । स्याद्युदुन्दुभिनिर्घोषैषु ष्यमाणजयोदयः उद्यानादिकृतां छायामपास्य स्वां तपो व्यघात् । यतोऽयमत एवास्य स्यादशोकमहाद्रुमः ॥ १९ ॥ स्वं स्वापतेयमुचिनं त्यक्त्वा निर्ममतामितः । स्वयं निषिभिरभ्येत्य सेव्यते द्वारि दूरतः ॥ २० ॥ गृहशोभां कृतारक्षां दूरीकृत्य तपस्यतः । श्रीमण्डपादिशोभास्य स्वतोऽभ्येति पुरोगतां ॥ २१ ॥ कर परिग्रहरहित हो जाता है और केवल अपनी भुजा पर सिरका किनारा रखकर पृथिवी के ऊँचे नीचे प्रदेश पर शयन करता है वह महा - अभ्युद को पाकर जिन होजाता है । उस समय सब लोग उसका आदर-सत्कार करते हैं और वह देवोंके द्वारा बने हुए देदीप्यमान तकिया को प्राप्त होता है ।। १४-१५।। जो मुनि शीतल छत्र आदि अपने समस्त परिग्रह का त्याग कर देता है वह स्वयं देदीप्यमान रत्नोंसे युक्त तीन छत्रोंसे सुशोभित होता है || १६ || अनेक प्रकारके पङ्खाओंके त्यागसे जिसने तपश्चरण की विधिका पालन किया है ऐसा मुनि जिनेन्द्र पर्याय में चौंसठ चमरोंसे वीजित होता है अर्थात् उस पर चौंसठ चमर ढुलाये जाते हैं ||१७|| जो मुनि नगाड़े तथा संगीत आदि की घोषणा का त्यागकर तपश्चरण करता है उसके विजयका उदय स्वर्ग के दुन्दुभियों के गंभीर शब्दोंसे घोषित किया जाता है ||१८|| चूँकि पहले उसने अपने उद्यान आदिके द्वारा की हुई छाया का परित्याग कर तपश्चरण किया था इसलिये ही अब उसे ( अरहन्त अवस्था में ) महा अशोक वृक्ष की प्राप्ति होती है ॥१९॥ जो अपना योग्य धन छोड़कर निर्ममत्वभाव को प्राप्त होता है वह स्वयं आकर दूर दरवाजे पर खड़ी हुई निधियोंसे सेवित होता है अर्थात् समवसरण भूमि में निधियाँ दरवाजे पर खड़े रहकर उसकी सेवा करती हैं ॥२०॥ जिसकी रक्षा. सब ओरसे की गई थी ऐसी घरकी शोभाको छोड़ [X43 For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ -४.५९] बोधप्रामृतम् तपोऽविगाहनादस्य गहनान्यधितिष्ठतः । त्रिजगज्जनतास्थानसहं स्यादवगाहनं ॥ २२ ॥ क्षेत्रवास्तुसमुत्सर्गात्क्षेत्रज्ञत्वमुपेयुषः । स्वाधीनं त्रिजगत्क्षेत्रमेश्यमस्योपजायते ॥ २३ ॥ आज्ञाभिमानमुत्सृज्य मौनमास्थितवानयं । प्राप्नोति परमामाज्ञां सुरासुरशिरोधृतां ॥ २४ ॥ स्वामिष्टभृत्यबन्ध्वादिसभामुत्सृष्टवानयं । परमात्मपदप्राप्तावघ्यास्ते त्रिजगत्सभां ॥ २५ ॥ स्वगुणोत्कीर्तनं त्यक्त्वा त्यक्तकामो महातपाः। स्तुतिनिन्दासमो भूपः कीर्त्यते भुवनेश्वरैः ॥ २६ ॥ वन्दित्वा वन्द्य महन्तं यतोऽनुष्ठितवांस्तपः । ततोऽयं वन्द्यते वन्द्यैरनिन्द्यगुणसन्निधिः ॥ २७ ॥ कर इसने तपश्चरण किया इसीलिये श्रीमण्डप की शोभा अपने आप इसके सामने आती है ॥२१॥ जो तप करनेके लिये सघन वनमें निवास करता है उसे तीनों जगत् के जीवोंके लिये स्थान दे सकनेवाली अवगाहन शक्ति प्राप्त होजाती है अर्थात् उसका ऐसा समवसरण रचा जाता है जिसमें तीनों लोकोंके जीव सुखसे स्थान पा सकते हैं ॥२२॥ जो क्षेत्र मकान आदिका परित्याग करके शुद्ध आत्माको प्राप्त होता है उसे तीनों जगत्के क्षेत्रको अपने अधीन रखने वाला ऐश्वर्य प्राप्त होता है ।।२३।। जो मुनि आज्ञा देनेका अभिमान छोड़कर मौन धारणा करता है उसे सुर और असुरोंके द्वारा शिर पर धारण की हुई उत्कृष्ट आज्ञा प्राप्त होती है अर्थात् उसकी आज्ञा सब जीव मानते हैं ॥२४॥ चूंकि इस मुनिने अपने इष्ट सेवक तथा भाई आदिको सभाका त्याग किया था इसलिये उत्कृष्ट अरहन्त पदकी प्राप्ति होनेपर वह तीनों लोकों की सभा अर्थात् समवसरण भूमिमें विराजमान होता है ॥२५।। जो सब प्रकार की इच्छाओं का परित्याग कर अपने गुणोंकी प्रशंसा करना छोड़ देता है और महातपश्चरण करता हुआ स्तुति तथा निन्दा में समान भाव रखता है वह तीनों लोकोंके इन्द्रोंके द्वारा प्रशंसित होता है अर्थात् सब लोग उसकी स्तुति करते हैं ॥२६॥ चूंकि इस मुनिने वन्दना करने योग्य अरहन्त देवकी वन्दनाकर तपश्चरण किया था इसीलिये यह वन्दना करने के योग्य पूज्य पुरुषों के द्वारा वन्दना किया जाता है तथा प्रशंसनीय उत्तम गुणोंका भण्डार हुआ है ॥२७॥ For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० षट्प्राभूते पादचारी विवाहनः । तपोऽयमनुपानत्कः कृतवान् पद्मगर्भेषु चरणन्यासंमर्हति ॥ २८ ॥ वाग्गुप्तो हितवाग्वृत्या यतोऽयं तपसि स्थितः । ततोऽस्य दिव्यभाषा स्यात्प्रीणयन्त्यमखिलां सभां ॥ २९ ॥ अनाश्वान्नियताऽहारपारणोऽतप्तयत्तपः 1 तदस्य दिव्यविजयपरमामृततृप्तयः ॥ ३० ॥ त्यक्तकामसुखो भूत्वा तपस्यस्थाच्चिरं यतः । ततोऽयं सुखसाद्भूतः परमानन्दथु भजेत् ।। ३१ ।। किमत्र हुनोक्तेन यद्यदिष्टं यथाविधं । त्यजेन्मुनिरसंकल्पस्तत्तत् सूतेऽस्य तत्तपः ॥ ३२ ॥ प्राप्तोत्कर्षं तदस्य स्यात्तपश्चिन्तामणेः फलं । यतोऽहंज्जाति मूर्त्यादिप्राप्तिः सैषानुवर्णिता ॥ ३३ ॥ जैनेश्वरीं परमाज्ञां सूत्रोद्दिष्टां प्रमाणयेन् । तपस्यां यदुपादत्ते पारिव्राज्यं तदाञ्जसं ॥ ३४ ॥ जो जूता और सवारीका परित्याग कर पैदल चलता हुआ तपश्चरण करता है वह कमलों के मध्यमें चरण रखने के योग्य होता है अर्थात् अरहन्त अवस्था में देवलोग उसके चरणोंके नीचे कमलोंकी रचना करते हैं ||२८|| चूंकि यह मुनि वचन गुप्तिको धारण कर अथवा हित मित वचन रूप भाषा समितिका पालन कर तपश्चरण में स्थित हुआ था इसलिये ही इसे समस्त सभा को संतुष्ट करने वाली दिव्यध्वनि प्राप्त हुई है ||२९|| इस मुनिने पहले उपवास धारणकर अथवा नियमित आहार और पारणाएं कर तप तपा था इसलिये ही इसे दिव्य तृप्ति, विजय तृप्ति परमतृप्ति और अमृत तृप्ति ये चारों ही तृप्तियाँ प्राप्त हुई हैं ॥ ३० ॥ चूंकि यह मुनि काम जनित सुखको छोड़कर चिर काल तक तपश्चरण में स्थिर रहा था इसलिये ही यह सुखस्वरूप होकर परमानन्द को प्राप्त हुआ है ||३१|| इस विषय में बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? संक्षेपमें इतना ही कह देना ठीक है कि मुनि संकल्प - रहित होकर जिस जिस वस्तुका परित्याग करता है उसका तपश्चरण उसके लिये वही वही वस्तु उत्पन्न कर देता है ||३२|| जिस तपश्चरण रूपी चिन्तामणिका फल उत्कृष्ट पदकी प्राप्ति आदि मिलता है और जिससे अरहन्त देवकी जाति तथा मूर्ति आदिकी प्राप्ति होती है ऐसी इस पारिव्रज्य नामकी क्रिया का वर्णन किया ||३३|| जो आगम में कही हुई जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाको प्रमाण मानता [ ४.१९ For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ६० ] बोधप्राभृतम् अन्यच्च बहुवाग्जाले निबद्धं युक्ति बाधितं । पारिव्राज्यं परित्याज्यं ग्राह्यं चेदमनुत्तरं ।। ३५ ।। पंचत्रिशच्छ्लोकैः प्रव्रज्या वर्णिता । इति श्रीबोधप्राभृते प्रव्रज्याधिकार एकादशः समाप्तः ॥ ११ ॥ अथेदानीं बोधाप्राभृतस्य चूलिकां गाथात्रयेण निरूपयन्ति — रूवत्थं सुद्धत्थं जिणमग्गे जिणवरेह जह भणियं । भव्वजणबोहणत्थं छक्का हियंकरं उत्तं ॥ ६० ॥ हुआ तपस्या धारण करता है अर्थात् दीक्षा ग्रहण करता है उसीके वास्तविक पारिव्रज्य होता है ||३४|| अनेक प्रकार के वचनों के जाल में निबद्ध तथा युक्ति से बाधित अन्य लोगोंके पारिव्रज्य को छोड़कर इसी सर्वोत्कृष्ट पारिव्रज्य को ग्रहण करना चाहिये || ३५ || इस प्रकार पैंतीस श्लोकों के द्वारा प्रव्रज्या का वर्णन किया गया है* ॥ ५९ ॥ इस तरह श्री बोधप्राभृत में प्रव्रज्याधिकार नामका ग्यारहवाँ अधिकार समाप्त हुआ । आगे तीन गाथाओंके द्वारा बोधप्राभृतकी चूलिकाका निरूपण करते हैं गाथार्थ - जिनमार्ग में जिनेन्द्र देवने जिस प्रकार वर्णन किया है उसी २४१ * पं० जयचन्द्रजी ने 'आयत्तण गुणपज्जत्ता' की छाया 'आयतनगुणपर्याप्ता' स्वीकृत की है तथा 'बहुविसुद्ध सम्मत्त' इसे 'जिणमग्गे' का विशेषण माना है । ऐसा मान कर उन्होंने इस गाथाका अर्थ निम्न प्रकार किया हैऐसे पूर्वोक्त प्रकार आयतन जो दीक्षा का ठिकाना निग्रन्थ मुनि ताके गुण जे ते हैं तिनकरि पज्जत्ता कहिये परिपूर्ण, बहुरि अन्य भी जे बहुत दीक्षा में चाहिये ते गुण जामें होंय ऐसी प्रव्रज्या जिनमार्ग में जैसे ख्यात कहिये प्रसिद्ध है तैसे संक्षेप करि कही, कैसा है जिनमार्ग, विशुद्ध है सम्यक्त्व जा अतिचार रहित सम्यक्त्व जामें पाइये है, बहुरि कैसा है जिनमाग निर्ग्रन्थरूप है मैं बाह्य अन्तरपरिग्रह नही है । भावार्थ - ऐसी पूर्वोक्त प्रव्रज्या निर्मल सम्यक्त्व सहित निर्ग्रन्थ रूप जिनमार्ग विषै कही है, अन्य नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, मीमांसक, पातंजलि बौद्ध आदिक मतमें नांही है, बहुरि काल दोष तैं जैनमत तैं च्युत भये अर जैनी कहावें ऐसे श्वेताम्बर आदिक तिनिमें भी नहीं हैं ॥ १५९ ॥ १६ For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ षट्प्राभृते रूपस्थं शुद्धयर्थं जिनमार्गे जिनवरेयथा भणितम् । भव्यजनबोधनार्थं षट्कार्याहितंकरं उक्तम् ॥ ( रूवत्थं सुद्धत्थं ) रूपस्थं निर्ग्रन्थरूपस्थितमाचरणं मयोक्तमिति सम्बन्धः । किमर्थं भणितं, सुद्धत्थं शुद्धयर्थं कर्मक्षयनिमित्तं । ( जिणमग्गे जिणवरेहि जह भणियं ) जिनमार्गे जिनशासने जिनवरैर्तीर्थ करपरमदेवैर्गौतमान्तगणधर देवैश्च यथा येन प्रकारेण भणितं । ( भव्वजण बोहणत्थं ) आसन्न भव्य जीव सम्बोधनार्थं । ( छक्काय हियंकरं उत्त ) षटुकाय हितंकरं सर्वजीवदयाप्रतिपालनार्थ उक्तं निरूपितम् ।। ६० ।। सुत्तेसु जं जिणे कहियं । सीसेण य भद्द बाहुस्स ॥ ६१॥ सद्द वियारो हुओ भासा सो तह कहियं णायं शब्दविकारो भूतः भाषासूत्रेषु यत् जिनेन कथितम् । तत् तथा कथितं ज्ञातं शिष्येण च भद्रबाहोः ॥ ( सद्दवियारो हूओ ) शब्दविकारो भूतोऽर्हध्वनिर्गतः ( भासामुत्तेसु जं जिणे कहियं ) सर्वार्धमागधीभाषासूत्रेषु यज्जिनेन कथितं श्रीवीरेणार्थरूपं शास्त्रं [ ४. ६१ प्रकार छह काय के जीवोंका हित करने वाला यह निग्रन्थ रूपका आचरण कर्मक्षय के निमित्त मैंने भव्यजीवोंको संबोधने के लिये कहा है ॥ ६० ॥ विशेषार्थ - जिन शासन में तीर्थंकर परमदेव अपना गौतमान्त गणधरों ने जिस प्रकार कहा है उसी प्रकार निकट भव्य जीवोंको सम्बोधने के लिये छहकाय के जीवोंका हित करने वाला यह निर्ग्रन्थमुद्राधारी मुनिका आचरण मैंने कर्मक्षय रूप शुद्धिके प्रयोजन से कहा है || ६० || गाथार्थ - शब्द विकार रूप परिणत भाषा सूत्रों में जिनेन्द्र भगवान् ने जो कहा था भद्रबाहुके शिष्य ने उसे वैसा ही कहा तथा जाना है ।। ६१ ।। विशेषार्थ - अरहन्त भगवान् की दिव्यध्वनि से जो पदार्थ निकला था वह शब्द विकार रूप परिणत हुआ अर्थात् गणधरों ने उसकी शास्त्र रूप रचना की । भगवान् की दिव्यध्वनि सर्वार्धमागधी भाषा रूप थी । उसमें जिनेन्द्र भगवान् ने ( वर्तमान की अपेक्षा अन्तिम तीर्थंकर श्री महा १. कुत्ते ग० । २. मार्ण म० । For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४. ६२ ] बोधप्राभृतम् २४३ कथितं । ( सो तह कहियं णायं ) तत्तथा कथितं ज्ञातमवगतं । ( सीसेण य भद्दबाहुस्स ) केन ज्ञातं ? शिष्येणान्तेवासिना भद्रबाहुशिष्येण अद्वलिगुप्तिगुप्ता परनामद्वयेन विशाखाचार्य नाम्ना दशतुर्वचारिणामेकादशानामाचार्याणां मध्ये प्रथमेन ज्ञातं । वारसअंगवियाणं चउदसपुब्वंगविउलवित्थरणं । सुयाणिभद्दबाहू गमयगुरूभयवओ जयओ ॥६२॥ द्वादशाङ्गविज्ञान: चतुर्दशपूर्वाङ्गविपुलविस्तरणः । श्रुतज्ञानिभद्रबाहुः गमकगुरुः भगवान् जयतु ॥ ( वारसअंगवियाणं ) द्वादशाङ्गविज्ञानयुक्तः । चउदसपुब्वंगवि उलवित्थ रणं चतुर्दशानां पूर्वाङ्गानां विपुलं पृथु विस्तरणं यस्य स चतुर्दशपूर्वाङ्गविपुलविस्तरणः । ( सुयणाणिभद्दबाहू ) पंचानां श्रुतकेवलिनां मध्येऽन्त्यो भद्रबाहुः । ( गमयगुरूभयवओ जयओं ) यादृशः सूत्रेऽर्थस्तादृशो वाक्यार्थस्तं जानन्तीति गमकास्तेषां गुरुरुपाध्यायो भगवान् इन्द्रादीनामाराध्यो जयतु सर्वोत्कर्षेण वर्ततां तस्मायस्माकं नमस्कार इत्यर्थः । वीर भगवान् ने ) जो अर्थ रूप शास्त्र जिसप्रकार कहा था उसे भद्रबाहु के शिष्य ने उसी प्रकार कहा तथा जाना है । यहाँ भद्रबाहुके शिष्यसे विशाखाचार्य का ग्रहण है । इन विशाखाचार्य के 'अर्हद्वलि और 'गुप्ति गुप्त' ये दो नाम और भी हैं, तथा ये दश पूर्वके धारक ग्यारह आचार्यों के मध्य प्रथम आचार्य थे || ६१ ॥ गाथार्थ - जो द्वादशाङ्ग के ज्ञानसे युक्त थे, जिन्होंने चौदह पूर्वोका अत्यन्त विस्तार किया था तथा जो गमकों व्याख्याकारोंके a भगवान श्रुतज्ञानी भद्रबाहु जयवंत हों || ६२ || गुरु विशेषार्थ - इस पद्य में श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने अन्तिम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु प्रति विनय प्रगट करते हुए कहा है कि जो बारह अंगों के ज्ञाता थे, चौदह पूर्वोका जिन्होंने बहुत विस्तार किया था, जो पूर्ण श्रुतज्ञानी थे - पाँच श्रुत केवलियों में अन्तिम श्रुतकेवली थे, जो गमकोंके गुरु अर्थात् उपाध्याय थे और इन्द्र आदिके द्वारा आराधना के योग्य होने से भगवान् थे, वे भद्रबाहु महाराज जयवंत रहें उनके लिये हमारा नमस्कार है । शास्त्रके शब्द और उसके अनुरूप अर्थको जो जानते हैं वे गम कहलाते हैं ॥ ६२ ॥ For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते इति श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचार्यैलाचार्यगृद्धपिच्छाचार्यनामपंचक विराजितेन श्रीसीमन्धरस्वामिज्ञान संबोधितभव्यजनेन श्री जिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृतग्रन्ये सर्वमुनिमण्लीमण्डितेन कलिकालगौतमस्वामिना श्रीमल्लिभूषणेन भट्टारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभयभाषा कविचक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दिगुर्वन्तेवासिना सूरिवरश्रीश्रुतसागरेण विरचिता बोघप्राभृतस्य टीका परिसमाप्ता । २४४ इस प्रकार श्री पद्मनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य इन पाँच नामोंसे विराजित, श्रीसीमन्धर स्वामीके ज्ञानसे भव्यजनों को सम्बोधित करने वाले, श्रीजिनचन्द्र सूरि भट्टारक के पट्टके आभूषण, कलिकालसर्वज्ञ श्री कुन्दकुन्दके द्वारा विरचित षट्प्राभृत ग्रन्थ में समस्त मुनियों की मण्डली से सुशोभित, कलिकाल के गौतमस्वामी, श्रीमल्लिभूषण भट्टारकके द्वारा अनुमत, समस्त विद्वज्जनके समूहसे सन्मानित उभयभाषा के कवियों में श्रेष्ठ श्रीविद्यानन्द गुरुके शिष्य सूरिवर श्री श्रुतसागर के द्वारा विरचित, बोधप्राभृत की टीका समाप्त हुई । [ ४. ६२ For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव प्राभृतम् अथेदानीं भावप्राभृतं कुर्वन्तः श्री कुन्दकुन्दाचार्या इष्टदेवतां नमस्कुर्वन्ति - णमिऊण जिणर्वारिंदे णरसुरभर्वाणदबंदिए सिद्धे । वोच्छामि भावपाहुडमवसेसे संजदे सिरसा ॥१॥ नमस्कृत्वा जिनवरेन्द्रान् नरसुरभवनेन्द्रवन्दितान् सिद्धान् । वक्ष्यामि भावप्राभृतं - अवशेषान् संयतान शिरसा ॥१॥ ( णमिऊण जिणवरिंदे ) नमस्कृत्य, कान् ? जिनवरेन्द्रान सप्तप्रकृतिक्षयेण कृत्वैकदेशेन जिनाः सदृष्टयः श्रावकादय एकादशगुणस्थानवर्तिनः क्षीणकषायाच सयोगकेवलिपर्यन्त जिना उच्यन्ते गणधरदेवाश्च तेषां मध्ये वराः श्रेष्ठा अपरकेवलिनश्च तेषामिन्द्राः स्वामिनस्तीर्थंकरपरमदेवा जिनवरेन्द्राः कथ्यन्ते तान् नत्वा । कथंभूतान् जिनवरेन्द्रान् ( णर सुरभवणिदवंदिए ) नरेन्द्र सुरेन्द्र भावने - न्द्रवंदितान् । ( सिद्ध े ) तादृग्विशेषणविशिष्टान् सिद्धाश्च नत्वा ( वोच्छामि भावपाहुडे वक्ष्यामि ) कथयिष्यामि किं तद्भावप्राभृतं । न केवलमर्हत्सिद्धान् अब इस समय भाव प्राभृत की रचना करते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्यं इष्ट देवताको नमस्कार करते हैं गाथार्थ - मनुष्य, देव और भवनवासियोंके इन्द्रोंसे वन्दित तीर्थंकर परमदेव, सिद्ध परमेष्ठी तथा अन्य संयमी मुनियोंको शिरसे नमस्कार कर मैं भावप्राभृतको कहूँगा ॥१॥ विशेषार्थ - मिथ्यात्व, सम्य मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ- इन सात प्रकृतियोंके क्षय की अपेक्षा से अविरत सम्यग्दृष्टि, श्रावक पञ्चम गुणस्थानको आदि लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के जीव, क्षीणकषाय, संयोगकेवली और गणधर देव जिन कहलाते हैं । इनमें वर-श्रेष्ठ अपर केवली हैं, उनके इन्द्रस्वामी तीर्थंकर परमदेव जिनवरेन्द्र कहे जाते हैं । ये जिनवरेन्द्र नरेन्द्र सुरेन्द्र और भावनेन्द्रों के द्वारा वन्दित होते हैं । जिनके समस्त कर्मोंका क्षय हो चुका है वे सिद्ध कहलाते हैं, सिद्ध भी नरेन्द्र सुरेन्द्र और भावनेन्द्रों के द्वारा बन्दित हैं । इन अरहन्त और सिद्धके सिवाय आचार्य उपाध्याय और सर्व साधु नामक तीन प्रकारके संयमी और हैं। इस तरह इन पांचों परमेष्ठियों For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ षट्प्राभृते [ ५.२ वन्दित्वाऽपि तु ( अवसेसे संजदे ) अवशेषान् संयतान् आचार्योपाध्याय सर्वसाधून् त्रिविधान् मुनीन् नत्वा केन, (सिरसा) उत्तमांगेन जानुकूर्परशिरः पंचकेन - प्रणिपत्येत्यर्थः । भावो य पढमलिगं ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं । भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा विति ॥ २ ॥ भावश्च प्रथमलिंगं न द्रव्यलिंगं च - जानीहि परमार्थम् । भावः कारणभूतः गुणदोषाणां जिना विदन्ति ॥ २॥ ( भावो य पढमलिंग ) भावश्च प्रथमलिंगं दीक्षाचिन्हं भावो भवति । चकाराद्द्रव्यलिंगं धृत्वा भावलिगं प्रगटं क्रियते यथाऽपत्योत्पादनेन पुरुषशक्तिः प्रकटीभवति तथा द्रव्यलिंगिनो मुनेर्भावलिगं प्रकटं भवति पुरुषशक्तेर्भावस्य च लोचनानामगोचरत्वात् । उक्तं चेन्द्रनन्दिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचनेद्रव्यलिंगं समास्थाय भावलिंगी भवेद्यतिः । विना तेन न वन्द्यः स्यान्नानाव्रतधरोऽपि सन् ॥ १ ॥ ने को शिरसे अर्थात् दो घुटने दो कोहनी और शिर इन पाँच अङ्गों से नमस्कार कर मैं भावप्राभृत ग्रन्थको कहूँगा । ऐसा श्रीकुन्दकुन्द स्वामी मङ्गलाचरण के साथ प्रतिज्ञा वाक्य को प्रगट किया है ॥ १ ॥ आगे भाव-लिङ्गकी प्रमुखता का वर्णन करते हैं - गाथार्थ - भाव ही प्रथम लिङ्ग है, द्रव्य-लिङ्ग परमार्थं नहीं है, अथवा भावके बिना द्रव्यलिङ्ग परमार्थ की सिद्धि करने वाला नहीं है, गुण और दोषोंका कारण भाव ही है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् जानते हैं ॥ २ ॥ विशेषार्थ - भाव प्रथम लिङ्ग है अर्थात् दीक्षाका प्रथम चिह्न है । 'भावो य' भावश्च' यहाँ 'च' शब्द से यह सूचित किया है कि द्रव्य-लिङ्ग धारण करके भावलिंग प्रगट किया जाता है। जिस प्रकार सन्तान की उत्पत्ति से मनुष्य की पुरुषत्व शक्ति प्रगट होती है उसी प्रकार दिव्यलिंगी मुनिके भावलिङ्ग प्रकट होता है क्योंकि मनुष्य की पुरुषत्व शक्ति और भाव नेत्रों के विषय नहीं हैं - आँखों से दिखाई नहीं देते हैं । जैसा कि श्रीइन्द्रनन्दी भट्टारक ने समयभूषण प्रवचन में कहा है द्रव्यलिङ्ग – मुनि द्रव्यलिङ्ग धारण कर भावलिङ्गी होता है क्योंकि नाना व्रतों का धारक होने पर भी मुनि द्रव्यलिङ्ग के बिना वन्दनीय नहीं - नमस्कार करनेके योग्य नहीं है ॥ १ ॥ इस द्रव्यलिङ्गको भावलिङ्ग For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.२] भावप्राभृतम् द्रव्यलगमिदं ज्ञेयं भावलिंगस्य तदध्यात्मकृतं स्पष्टं न नेत्रविषयं कारणं । यतः ॥ २॥ मुद्रा सर्वत्र मान्या स्यान्निमुद्रो नैव मान्यते । राजमुद्राधरोऽत्यन्तहीनवच्छास्त्र निर्णयः ॥३॥ ( ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं ) द्रव्यलिंगे सति भावं विना परमार्थसिद्धिनं भवति तेन कारणेन द्रव्यिलंगं परमार्थसिद्धिकरं न भवति मोक्षं न प्रापयति, तेन कारणेन द्रव्यलिंगपूर्वकं भावलिंगं घर्तव्यमिति भावार्थः । ये तु गृहस्थवेषधारिणोऽपि २४७ का कारण जानना चाहिये क्योंकि भावलिङ्ग आत्मा के भीतर होने से स्पष्ट ही नेत्रोंका विषय नहीं है ॥ २ ॥ सब जगह मुद्रा मान्य होती है, मुद्रा - हीन मनुष्य की मान्यता नहीं होती । जिस प्रकार राजमुद्रा ( चपरास) को धारण करने वाला अत्यन्त हीन व्यक्ति भी लोक में मान्य होता है, उसी तरह द्रध्यलिङ्ग नग्नदिगम्बर मुद्राको धारण करने वाला साधारण पुरुष भी मान्य होता है, यह शास्त्रका निर्णय है || ३ || द्रव्य - लिंग होनेपर भी यदि भाव-लिंग नहीं है तो वह द्रव्य - लिंग पर - मार्थ की सिद्धि करने वाला नहीं है इसलिये द्रव्य-लिंग पूर्वक भाव-लिंग धारण करना चाहिये । इसके विपरीत जो गृहस्थ वेषके धारक होकर भी 'हम भावलिगी हैं क्योंकि दोक्षाके समय हमारे अन्तःकरण में मुनिव्रत धारण करने का भाव था' ऐसा कहते हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये, क्योंकि वे विशिष्ट जिन लिंगके विरोधी हैं-उससे द्वेष रखनेवाले हैं युद्ध की इच्छा करते हुए कायर की तरह स्वयं नष्ट होते हैं और दूसरों को भी नष्ट करते हैं । मुख्य व्यवहार धर्मके लोपक होनेके कारण वे विशिष्ट पुरुषों द्वारा दण्डनीय हैं। केवल ज्ञान आदि गुणोंका और नरकपात आदि दोषोंका कारण भाव ही है । यदि कोई मुनि द्रव्यलिंग-नग्नमुद्रा को धारण करके रागद्वेष मोह आदि में पड़ता है तो उसका वह भाव संसार का कारण होता है । और यदि द्रव्यलिंग धारण कर में 'नीराग हूँ' - राग रहित हूँ, निद्वेष हूँ- द्वेष रहित हूँ एवं निर्मोह हूँमोह रहित हूँ ऐसी भावना भाता है तो वह केवल ज्ञान आदि गुणोंको उत्पन्न करता है तथा मुक्तिको प्राप्त होता है । इस अर्थको केवलीजिनेन्द्र जानते हैं ॥ २॥ [ यहाँ कुन्दकुन्द स्वामीने प्रकट किया है कि भावलिंग ही प्रमुख लिंग है । भावलिंग के बिना मात्र द्रव्य-लिंग परमार्थ नहीं है । जिसके भाव For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभृते [५.२वयं भावलिंगिनो वर्तामहे दीमायामन्तर्भावत्वात्ते मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्या विशिष्टजिनलिंगविद्वेषित्वात्, योद्धमिच्छवः कातरवत्स्वयं नश्यन्ति, अपरानपि नाशयन्ति, ते मुख्यव्यवहारधर्मलोपकत्वाद्विशिष्टदण्डनीयाः। ( भावो कारणभूदो ) भावः परममुक्तिकारणभूतः । ( गुणदोसाणं ) गुणानां केवलज्ञानादीनां, दोषाणां नरकपातादीनां च कारणभूतो भाव एव । यदि द्रव्यलिंगं धृत्वा रागद्वेषमोहादिषु पतति लिंग होता है उसके द्रव्य लिंग होता.ही है पर जिसके द्रव्य-लिंग है उसके । भावलिंग होता भी है और नहीं भी होता है। जिनेन्द्र भगवान् ने मोक्षप्राप्ति के लिये दोनों लिंगों को आवश्यक बतलाया है । द्रव्य-लिंग के बिना मात्र भावलिंग से मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता और भाव-लिंगके बिना मात्र . द्रव्य-लिंग से आत्माका कल्याण नहीं हो सकता। यहाँ भाव-लिंग पहले होता है । इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिये कि सप्तम गुणस्थानका भाव पहले होता है और वस्त्र-त्याग रूप द्रव्यलिंग पीछे होता है क्योंकि ऐसा मानने से सवस्त्र अवस्थामें सप्तम गुणस्थान मानना पड़ेगा, पर ऐसा मानना शास्त्र-सम्मत नहीं है। इसलिये प्रथम भावलिंग होता है, इसका अर्थ यह है कि संसार की मोह-ममतामें लीन प्राणी प्रथम उससे विरक्ति का दृढ़ निश्चय करता है-मैं परिग्रह त्याग कर दैगम्बरी दीक्षा धारण करूँ, ऐसा भाव हृदय में उत्पन्न करता है। इस भावना से प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय उत्तरोत्तर मन्दसे मन्दतर होता जाता है, उसी मन्द मन्दतर अवस्थामें वह केशलोंच तथा वस्त्र-त्याग आदिकी क्रिया करता है और उसके बाद सप्तम गुणस्थान को प्राप्त होता है। तदनन्तर सप्तम गुणस्थान से गिरकर छठवें गणस्थान में होता है। इसका यह छठवें सातवें गुणस्थानका क्रम हजारों बार चलता रहता है। संस्कृत टीकाकार ने जो यह लिखा है कि 'द्रव्यलिंग धारण कर भावलिंग प्रकट किया जाता है' वह इसी अभिप्राय से लिखा है कि केशलोंच तथा वस्त्र-त्याग आदिकी क्रिया पहले हातो है, सप्तम गुणस्थान का भाव पीछे होता है । करणानुयोम की अपेक्षा भावों की गति का पहिचानना प्रत्येक व्यक्तिके लिये शक्य नहीं है, अतः मुनि या श्रावकके आचारको व्यवस्था चरणानुयोगके आधार पर ही शास्त्रकारों ने की है, करणानुयोग के आधार पर नहीं। इस स्थिति में जो अन्य साधु वस्त्र धारण कर गृहस्थ के वेष में रहते हुए भी यह कहते हैं कि हम भाव-लिंग की अपेक्षा मुनि हैं, द्रव्य-लिगको अपेक्षा नग्न नहीं हुए. तो क्या हुआ ? सो उनका वैसा For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ —५. ३-४ ] भावप्राभृतम् २४९ मुनिस्तदा स तस्य भावः संसारकारणं भवति । यदि द्रव्यलिगं धृत्वा नीरागनिर्दोषनिर्मोहभावनां भावयति तदा केवलज्ञानादीनां गुणानुत्पादयति मुक्ति गच्छति : एतदर्थं ( जिण विति) केवलिनो जानन्ति । भावविसुद्धिणिमित्तं वाहिरगंथस्स कोरए चाओ । वाहिरचाओ विहलो अब्भन्तरगंथजुत्तस्स ॥३॥ भावविशुद्धिनिमित्तं बाह्यग्रन्थस्य क्रियते त्यागः । बाह्यत्यागो विफलः अभ्यन्तरग्रन्थयुक्तस्य || ३ || ( भावविसुद्धिनिमित्तं ) भावस्थात्मनो विशुद्धिनिमित्तं कारणं । ( बाहिर - गंथस कीरए चाओ ) बाह्यग्रन्थस्य क्रियते त्यागः वस्त्रादेर्मोचनं विधीयते । ( बाहिरचाओ. विहलो ) बाह्यत्यागो विफलोऽन्तर्गडुर्भवति । ( अब्भंतरगंथ जुत्तस्स ) अभ्यन्तरपरिग्रहयुक्तस्य नग्नस्यापि वस्त्रादेराकांक्षायुक्तस्येति भावः । तथा चोक्तं - बाह्यग्रन्थविहीना दरिद्रमनुजाः स्वपापतः सन्ति । यः पुनरन्तः संगत्यागी लोके स दुर्लभः साधुः ॥१॥ भावरहिओ न सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ । जम्मंतराई बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो ॥ ४ ॥ कहना ठीक नहीं है वे जिन-लिङ्ग के द्वेषी हैं तथा कर्म रूपी शत्रुओं से युद्धके इच्छुक होते हुए भी कायर मनुष्यों को तरह स्वयं नष्ट होते हैं और अपने शिथिलाचार से दूसरों को भी नष्ट करते हैं । विवेकी मनुष्य भावलिंगके अनुसार व्यवहार धर्मका अवश्य पालन करते हैं । ] गाथार्थ - भावोंकी विशुद्धि के लिये बाह्य परिग्रहका त्याग किया जाता है । जो अन्तरङ्ग परिग्रह से सहित है उसका बाह्य त्याग निष्फल है ॥ ३ ॥ विशेषार्थ - भाव - आत्माकी विशुद्धता के निमित्त वस्त्र और बाह्य परिग्रहका त्याग किया जाता है, पर जो बाह्य में नग्न होकर भो अन्तरङ्गपरिग्रह से युक्त है - वस्त्र आदि की आकांक्षा रखता है उसका वह बाह्यत्याग निष्फल है। कहा भी है बाह्य - दरिद्र मनुष्य अपने पापके कारण बाह्य परिग्रह के स्थागी तो स्वयं है परजो अन्तरङ्ग का त्यागी है, ऐसा साधु लोकमें दुर्लभ है ॥ १ ॥ गाथार्थ - भावरहित साधु यद्यपि कोटी कोटी जन्मतक हाथोंको नीचे For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० षट्प्राभूर्ते [५.५० भावरहितो न सिद्ध्यति यद्यपि तपश्चरति कोटकोटी । जन्मान्तराणि बहुशः लम्बितहस्तो गलितवस्त्रः ॥४॥ ( भावरहिओ न सिज्झइ ) भावरहित आत्मस्वरूपभावनारहितो विषयकषायभावनासहितस्तपस्वी अपि न सिद्धयति न सिद्धि प्राप्नोति । ( जइ वि तवं चरs कोडिकोडीओ ) यद्यपि तपश्चरति करोति कोट कोटी ( जम्मंतराई ) जन्मान्तराणि । ( बहुसो ) बहुशोऽनेक कोटीकोटीजन्मान्तराणि । कथंभूतः सन् ( लंबियहत्थो ) अधोमुक्त बाहुद्वय: ( गलियवत्थो ) नग्नमुद्राघरोऽपि सन् । परिणामम्मि असुद्ध गंधे मुच्चेइ बाहरे य जई । बाहिरगंथच्चाओ भावविहणस्स कि कुणइ ॥५॥ परिणामे अशुद्धे ग्रन्थान् मुञ्चति बाह्यान् च यदि । बाह्यग्रन्थत्यागो भावविहीनस्य किं करोति ॥५॥ ( परिणामम्मि असुद्धे ) परिणामे मनोव्यापारेऽशुद्धेऽपि विषयकषायादिभि:-- लिने सति । (गंधे मुच्चे बाहिरे य जई ) ग्रन्थान् मुञ्चति परिग्रहान् वस्त्रादीन् त्यजति यतिजिनलिंगधारी मुनिः । ( बाहिर गंथच्चाओ ) बाह्यग्रन्थत्यागो वस्त्रादित्यजनं । ( भावविहणस्स कि कुणइ ) भावविहीनस्यात्मभावनारहितस्य बहि लटका कर तथा वस्त्रका परित्याग कर तपश्चरण करता है तो भी सिद्धिको प्राप्त नहीं होता है ॥ ४ ॥ विशेषार्थ - भाव - आत्म-स्वरूपकी भावना से रहित और विषय कषाय की भावना से सहित साधु तपस्वी होनेपर भी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता है भले ही वह अनेक कोटी कोटी जन्म तक दोनों भुजाओंको नीचेकी ओर लटका कर तथा नग्न मुद्राका धारी होकर तपश्चरण भी करता रहा हो ॥४॥ गाथार्थ - भावके अशुद्ध रहते हुए यदि कोई बाह्य परिग्रह का त्याग करता है तो उस भावविहीन मनुष्यका वाह्य परिग्रह त्याग क्या कर देगा ? अर्थात् कुछ नहीं ॥५॥ विशेषार्थ --- परिणाम अर्थात् मनोव्यापार के अशुद्ध होनेपर भी विषय कषाय आदि से मलिन रहने पर भी यदि कोई जिन-लिङ्ग धारी मुनि वस्त्रादि बाह्य परिग्रहका त्याग करता है तो उसका वह बाह्य त्याग भाव-विहीन अर्थात् आत्मा की भावना से रहित बहिरात्मा जीवका क्या For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ६-७ ] भावप्राभृतस् २५१ रात्मनो जीवस्य किं करोति, न किमपि कर्मसंवरनिर्जरालक्षणं कार्य करोतीति भावार्थः । जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण । पंथिय सिवउरिपंथं जिणउवइट्टु पयत्तेण ॥६॥ जानीहि भावं प्रथमं कि ते लिंगेन भावरहितेन । पथिक ! शिवपुरीपथः जिनोपदिष्टः प्रयत्नेन ||६|| ( जाणहि भावं पढमं ) जानीहि भावमात्मस्वरूपभावानां प्रथमं मुख्यं । (fi ते लिंगेण भावरहिण ) किं तव लिंगेन भावरहितेन किं न किमपि संवरनिर्जरादिलक्षणं कार्यं, अपि तु न किमपि कार्यं भवति लिगेन वस्त्रादित्यजनलक्षणेनात्मस्वरूपभावनारहितेन । ( पंथिय ) हे पथिक ! मोक्षमार्गमार्गक ! (सिवरिपंथ ) मोक्षनगरीमार्गः । ( जिणउवइट्ठ ) जिनोपदिष्ट: । ( पयत्तेण ) प्रयत्नेन यतः कारणादिति शेषः । भावरहिएण सउरिस अणाइकालं अनंत संसारे । गहिउज्झियाइं बहुसो बाहिरनिग्गंथरूवाई ||७|| भावरहितेन सत्पुरुष ! अनादिकालं अनन्तसंसारे । गृहोतोज्झितानि बहुशः बाह्यनिग्रन्थरूपाणि ||७|| कर सकता है ? अर्थात् कर्मोंके संवर और निर्जरा रूप कुछ भी कार्य नहीं कर सकता है ॥५॥ गाथार्थ - भावको प्रमुख जान, भाव-रहित लिङ्ग से तुझे क्या प्रयोजन है-उससे तेरा कौनसा कार्य सिद्ध होनेवाला है ? हे पथिक ! मोक्ष नगरका मार्ग जिनेन्द्र भगवान्ने बड़े प्रयत्न से बताया है ||६|| विशेषार्थ - भाव - आत्मस्वरूप की भावना को प्रमुख जानो अथवा सबसे पहले भावको पहिचानो, भाव-रहित लिङ्ग से - मात्र द्रव्य-लिङ्गसे तुझे क्या प्रयोजन है ? उससे संवर निर्जरा आदि रूप कुछ भी कार्य नहीं • होता है । है पथिक ! तू मोक्षमार्ग की खोज कर रहा है । सो मोक्षपुरी का मार्ग जिनेन्द्र भगवान् ने बड़े प्रयत्न से - बतलाया है । तू उसी मागं पर चल ||६|| गाथार्थ - हे सत्पुरुष ! तू ने भाव-रहित होकर अनादि काल से इस अनन्त संसार में बहुत बार बाह्य निर्ग्रन्थ मुद्रा को ग्रहण किया तथा छोड़ा है ||७|| For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ षट्प्राभूते [ ५.८ ( भावरहिएण सउरिस ) भावरहितेन सत्पुरुष ! भावविवर्जितेनात्मरूपभावनारहितेन त्वया । ( अणाइकालं अनंतसंसारे ) अनादिकालमनन्तसंसारे । ( गहिउज्झियाइ' बहुसो ) गृहीतान्युज्झितानि च बहुशोऽनेकवारान् । ( बाहिरनिग्गंथख्वाइ' ) बहिर्निर्ग्रन्थरूपाणि आत्मरूपभावनारहितानीति भावार्थ: । भोसणणरयगईए तिरियगईए कुदेवमणुगइए । पत्तोसि तिव्वदुक्खं भावहि जिणभावणा जीव' ॥८॥ भीषण नरकगतौ तिर्यग्गती कुदेवमनुष्यगतौ । प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं भावय जिनभावनां जीव ॥८॥ ( भीषणण रयगईए) भीषणा भयानका या नरकगतिस्तस्यां भीषण नरकगत्यां । ( तिरियगईए ) तिर्यग्गत्यां ( कुदेवमणुगइए ) कुत्सितदेवकुत्सित मनुष्यगत्योर्विषये । ( पत्तोसि तिव्वदुक्खं ) प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं एकान्तेन दुःखं । ( भावहि जिणभावणा जीव ) यया विना त्व तीव्रं दुःखं प्राप्तश्चतुर्गतिषु तां भावय जिनभावनां जिनसम्यक्त्वभावनां हे जीव ! हे आत्मन ! बहिरात्मत्वं मिध्यादृष्टित्वं परित्यज्य सम्यग्दृष्टिर्भव त्वं । तेन तव चतुर्गतिदुःखं विनंक्ष्यति स्तोकेन कालेनाल्पभवान्तरेण तीर्थंकरो भूत्वा मुक्ति यास्यसि । तथा चोक्तं विशेषार्थ - हे सत्पुरुष ! आत्मस्वरूप को भावना से रहित होकर तू ने अनादि कालसे इस अनन्त संसार में अनेकों बार बाह्य निग्रन्थ मुद्रा को धारण किया तथा छोड़ा पर उससे तेरा कुछ भी कल्याण नहीं हुआ ||७|| गाथार्थ - हे जीव ! जिस जिन भावना के बिना तू भयंकर नरक गतिमें, तिर्यञ्च गति में, कुदेवगति में और कुमानुष गति में तीव्र दु:ख को प्राप्त हुआ है, अब उस जिनभावना का चिन्तन कर ||८|| विशेषार्थ - भयानक नरक गति, तिर्यञ्च गति, भवनत्रिक आदि कुत्सित देवगति तथा कुत्सित मनुष्यगति में तू ने एकान्त रूप से तीव्र दुःख, जिस जिन - भावना - जिन सम्यक्त्व भावना ने बिना प्राप्त किये हैं, हे जीव ! हे आत्मन् ! अब तो उस जिनभावना का चिन्तन कर अर्थात् बहिरात्मा-मिथ्यादृष्टि अवस्था का परित्याग कर, सम्यग्दृष्टि हो जा । उससे तेरे चतुर्गति के दुःख थोड़े ही समय में नष्ट हो जायेंगे और तू थोड़े ही भावों के बाद तीर्थंकर होकर मोक्षको प्राप्त कर लेगा । जैसा कहा है १. जीवा ग । जीवो घ० । For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५.८ ] भावप्राभृतम् एकापि समर्थेयं जिनभक्तिदु गति निवारयितुं । पुण्यानि च पूरयितुं दातु मुक्ति श्रियं कृतिनः ॥ १ ॥ कासी जिनभावना ? लोकप्रसिद्ध दोधकमिदम् जिण पुज्जहि जिणवरु थुणहि जिणहं म खंडहि आण | जे जिणघम्मिसु रत्तमण ते जाणिज्जइ जाण ॥ एक्कहि फुल्लाह माटिदेइ जु सुरनररिद्धडी । एही करइ कुसाटिवपु भोलिम जिणवरतणी ॥ अन्यच्च -- "सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु । कुलमिवं गुणभूषा कन्यका संपुनीता - जनपतिपदपद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः ॥ १ ॥ एकापि समर्थेयं - यह एक ही जिन भक्ति, दुर्गति को दूर करने, पुण्य को पूर्ण करने तथा कुशल मनुष्यको मोक्ष-लक्ष्मी प्रदान करने के लिये समर्थ है ||१|| प्रश्न - वह जिन भावना क्या है ? उत्तर- इस लोक प्रसिद्ध दोहा में जिनभावना का स्वरूप स्पष्ट है । जिणपुज्जहि- जिनेन्द्र भगवान्को पूजा करो, जिनेन्द्र देव की स्तुति करो, जिनेन्द्र देवकी आज्ञा का खण्डन न करो। जो जिन धर्मके धारकों में रक्तचित्त हैं-सह-धर्मी जनों से वात्सल्य भाव रखते हैं वे ही ज्ञानी हैं, ऐसा जान । २५३ एक्कहि-जो भगवान्को एक फूल चढ़ाता है उसे समवसरणमें अनेक फूल प्राप्त होते हैं अर्थात् वह पुष्पवृष्टि नामक प्रातिहार्य को प्राप्त होता है। वह जीव ज्यों ज्यों जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करता है त्यों त्यों 'उसके पाप नष्ट होते जाते हैं । और भी कहा है - सुखयतु - जिस प्रकार वैषयिक सुखकी भूमि-स्वरूप स्त्री अपने पति सुखी करती है उसी प्रकार आत्म-जन्य सुखकी भूमि, जिनेन्द्र देवके चरण कमलों का अवलोकन करने वाली सम्यग्दर्शन रूपी लक्ष्मी मुझे सुखी की। जिस प्रकार शुद्धशोला -- पातिव्रत्य धर्मसे युक्त माता पुत्र की १. रत्नकरण्ड श्रावकाचारे समन्तभद्रस्य । For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ षट्प्राभृते एवमर्थ ज्ञात्वा ये जिनपूजनस्नपनस्तवननवजीर्णचैत्यचैत्यालयोद्धारणयात्राप्रतिष्ठादिकं महापुण्यं कर्मविध्वंसकं तीर्थंकरनामकर्म दायकं विशिष्टं निदानरहितं प्रभावनाङ्ग ं गृहस्थाः सन्तोऽपि निषेधन्ति ते पापात्मनो मिथ्यादृष्टयो नरकादिदुःखं चिरकालमनुभवन्ति अनन्तसंसारिणो भवन्तीति भावार्थः । [ ५.९ सत्तसु नरयावासे दारुणभीसाइं असहनीयाई । भुताई सुइरकालं दुक्खाई' निरंतरं सहियाई ॥ ९ ॥ सप्तसुनरकवासे दारुणभीष्माणि असहनीयानि । भुक्तानि सुचिरकालं दुःखानि निरन्तरं स्वहित ||१९|| . ( सत्तसुनरयावा से ) सप्तानां सुनरकाणां महानरकाणां वासे निवासे सति हे जीव ! ( दारुणभीसाई ) दारुणानि तीव्राणि, भीष्माणि भयानकानि । ( असहणीयाई ) असहनीयानि असह्यानि सोढुमशक्यानि । ( भुत्ताइ ) भुक्तानि अनुभूतानि । ( सुइरकालं ) सुष्ठु अतीव चिरकालं दीर्घकालं एकसागरमारभ्य। रक्षा करती है उसी प्रकार शुद्धशीला निरतिचार शीलव्रतों से युक्त सम्यग्दर्शन रूपी लक्ष्मी मेरी रक्षा करे और जिस प्रकार गुणभूषा--गुणरूपी आभूषणों से युक्त कन्या कुलको पवित्र करती है उसी प्रकार मूलगुण अथवा प्रशम संवेग आदि गुणोंसे युक्त सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मुझे पवित्र करो ॥ १॥ इस तरह अर्थ को जानकर जो जिन पूजन जिनाभिषेक, जिनस्तवन, नवीन अथवा जीर्ण मूर्ति और मन्दिरों का निर्माण अथवा जीर्णोद्वार, यात्रा तथा प्रतिष्ठा आदि महान् पुण्य कर्मका और कर्मोंको नष्ट करने वाले, तीर्थंकर नाम कर्म के दायक, निदान रहित विशिष्ट प्रभावना अङ्गका गृहस्थ होते हुए भी निषेध करते हैं, वे पापी मिथ्यादृष्टि चिर काल तक नरकादि दुःख को भोगते हैं और अनन्त संसारी होते हैं अर्थात् अनन्त कालतक संसारमें भ्रमण करते रहते हैं ||८|| गाथार्थ - हे स्वहित ! हे आत्म-हित के वाञ्छक भव्य पुरुष ! तूने सात नरकोंके निवास में अत्यन्त कठोर भयंकर असहनीय दुःख चिरकाल तक निरन्तर भोगे हैं ||९|| विशेषार्थ - हे जीव ! तूने सात महानरकोंके निवासमें तीव्र भयानक, असहनीय दुख दीर्घकाल तक अर्थात् उत्कृष्ट आयुकी अपेक्षा एकसागरसे १. महापुण्यं कर्म म० । For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५.१० ] भावप्राभृतम् २५५ श्रयस्त्रिशत्सागरोपमपर्यन्तमुत्कृष्टायष्कं । ( दुक्खाई निरन्तरं ) दुःखान्यसातानि कष्टानि भुक्तानि निरन्तरमविच्छिन्नं । ( सहिय ) हे स्वहित ! हे आत्महित ! किं त्वया आत्मनो हितं कृतमित्याक्षेपः । खणणुत्ता वणवालणवेयणविच्छेयणाणिरोहं च । पत्तोसि भावरहिओ तिरियगईए चिरं कालं ॥ १० ॥ खननोत्तापनज्वालनव्यजनविच्छेदना निरोधं च । प्राप्तोऽसि भावरहितः तिर्यग्गतौ चिरं कालम् ||१०|| ( खणण ) पृथिवीकायस्त्वं यदा जातस्तदा खननं कुद्दालादिनाऽवदारणदुःखं त्वया सोढं । ( उत्तावण ) अष्कायस्त्वं यदाभूतस्तदाऽग्न्युपर्यु तापनदुःखं त्वया क्षमितं । ( वालण ) अग्निकायिको जीवो यदा त्वं जातस्तदा ज्वालनदुःखं त्वया - भूतं । (वेण ) वायुकायिको जीवो यदा त्वं जातस्तदा व्यजनादिनावीजनदुःखं त्वया तितिक्षितं । ( विच्छेयणा ) हे जीव ! वनस्पतिकायिको जीवो यदा त्वं उत्पन्नस्तदा विच्छेदना कुठारादिना - 'कर्तनं दुःखं त्वया मृषितं । ( गिरोहं च ) शङ्खशुक्तिवृश्चिकगोमिभ्रमर मक्षिकावलीवर्दमहिषादिकस्त्वं समुत्पन्नस्तदा निरोधादिदुःखं त्वया भुक्तं । इति स्थावरत्रसदुःखानि अनुक्रमेण सूचितानि भवन्तीति ज्ञातव्यं । ( पत्तोसि भावरहिओ ) प्राप्तोऽसि भावरहितो जिनभक्तिभ्रष्ट आत्म लेकर तेतोस सागर तक निरन्तर - लगातार भोगे हैं । हे स्वहित ! हे आत्महित अभिलाषी प्राणी ! तूने अपना हित क्या किया ? || ९ || गाथार्थ - हे जीव ! तू भाव -- रहित होकर तिर्यञ्च गति में चिरकाल तक खोदा जाना, तपाया जाना, जलाया जाना, पङ्खाका झला जाना, छेदा जाना तथा रोका जाना आदिके दुःखको प्राप्त हुआ है ॥ १०॥ विशेषार्थ – हे जोव ! जब तू पृथिवो- कायिक हुआ तब तूने कुदाली आदिके द्वारा खोदे जानेका दुःख सहा । जब जलकायिक हुआ तब अग्नि ऊपर तपाये जानेका दुःख सहा । जब अग्निकायिक हुआ तब जलाये जानेका दुःख भोगा । जब वायुकायिक हुआ तब पंखा आदि के द्वारा प्रेरित होनेका दुःख सहा । जब वनस्पति कायिक जीव हुआ तब कुठार आदिके द्वारा छेदे जानेका दुःख सहन किया और जब शंख, शुक्ति, विच्छु, गोभी, भ्रमर, मक्खी, बैल तथा भैंसा आदिक त्रस में उत्पन्न हुआ तब निरोध-रोका जाना आदिका दुःख तूने भोगा है । इस प्रकार जिन १. घर्षणं म० । For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ षट्प्राभूते [५.११भावनादूरीकृतश्च । ( तिरियगईए चिरं कालं ) तिर्यग्गती दीर्घ कालं असंख्यातवर्षपर्यन्तं वनस्पतिकायापेक्षयानन्तकालं चेत्यागमानुसारेण ज्ञातव्यम् । आगंतुक माणसियं सहजं सारीरियं च चत्तारि । दुक्खाइ मणुयजम्मे पत्तोसि अणंतयं कालं ॥११॥ आगन्तुकं मानसिकं सहजं शारीरिकं च चत्वारि। दुःखानि मनुजजन्मनि प्राप्तोसि अनन्तकं कालम् ॥११॥ ( आगंतुक ) आगन्तुकं दुःखं विद्युत्पातादिकं । ( माणसियं ) मानसिकदुःख स्त्रीकटाक्षादिताडने सति तदप्राप्तौ भवति । तथा चोक्तं संसारे नरकादिषु स्मृतिपथेऽप्युद्वेगकारीण्यलं, दुःखानि प्रतिसेवितानि भवता तान्येवमेवासताम् । तत्तावत्स्मरमि स्मरस्मित-सितापाङ्गरनङ्गायुध र्वामानां हिमदग्धमुग्धतरुवद्यत्प्राप्तवान्निर्धनः ॥१॥ ( सहजं ) व्याधिवेदनोत्पन्नं दुःखं । ( सारीरियं ) छेदनभेदनादिकं दुःखं । भक्ति से भ्रष्ट होकर अर्थात् आत्मा की भावना से दूर रहकर तूने तिर्यञ्च गतिमें दीर्घ काल तक-असख्यात वर्षों तक अथवा वनस्पति-कायिक की अपेक्षा अनन्त कालतक दुःख प्राप्त किये हैं ।।१०॥ गाथार्थ-आगन्तुक, मानसिक, सहज और शारीरिक इस तरह चार प्रकारके दुःख तूने मनुष्य जन्म में अनन्त काल तक प्राप्त किये हैं ॥११॥ विशेषार्थ-बिजली-वज्र आदिके गिरने से जो दुख प्राप्त होता है से आगन्तुक दुःख कहते हैं । स्त्री के कटाक्ष आदिसे ताड़न होने तथा उसकी प्राप्ति न होनेपर जो दुःख होता है वह मानसिक दुःख है । जैसा कि कहा गया है संसारे संसार में, नरकादि गतियोंके काल में स्मरण आते ही अत्यन्त उद्वेग करने वाले जो दुःख आपने सेवन किये हैं वे इसी तरह रहें उनका इस समय स्मरण नहीं है किन्तु निर्धन अवस्था में स्त्रियोंके कामसे खिले सफेद कटाक्ष रूपी कामके वाणों से तुषार से जलकर मूछित खड़े वृक्षकी भांति जो दुःख प्राप्त किया है उसका स्मरण तो है । ___ बीमारी की वेदनासे जो दुःख उत्पन्न होता है वह सहज दुःख है और छेदन भेदन आदिका दुःख शारीरिक दुःख है। यहाँ 'चकार' शब्द उक्त १. शिता म०। For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १२] भावनामृतम् २१७ कार उक्तसमुच्चयार्थस्तेन खलजनोक्तमिथ्याक्चनश्रवणे यदुःखं भवति तत् केनापि सोढुं न शक्यते । तदुक्तं रुद्रटेन महाकविना शल्यमपि स्खलदन्तः सोढुं शक्येत हालाहालदिग्धं । धीरैर्न पुनरकारणकुपितखलालीकदुर्वचनं ॥१॥ (चत्तारि) एतानि चत्वारि । ( दुःखाई) दुःखानि । ( मणुयजम्मे ) मनुजजन्मनि मनुष्यभवे । ( पत्तोसि ) प्राप्तोऽसि हे जीव ! त्वं प्राप्तवानसि भवसि । ( अणंतयं कालं ) अनन्तकं कुत्सितमनन्तं कालं समयमिति । सुरनिलएसु सुरच्छरविओयकाले य माणसं तिव्वं । संपत्तोसि महाजस दुःखं सुहभावणारहिओ ॥१२॥ सुरनिलयेषु सुराप्सरावियोगकाले च मानसं तीव्रम् । संप्राप्तोऽसि महायशः ! दुःखं शुभभावनारहितः ॥१२॥ ( सुरनिलएसु ) स्वर्गेषु । ( सुरच्छरविओयकाले ) देवीवियोगावसरे (य) चकारात्वं देवी जाता तदा देववियोगकाले । ( माणसं तिव्वं ) इन्द्रविभूतिं दृष्ट्वा समुच्चयार्थक है अर्थात् कहने से जो शेष रह गया है उसका संग्रह करने वाला है, इसलिये दुष्ट मनुष्योंके द्वारा कहे हुए मिथ्यावचन सुनने से जो । दुःख होता है वह किसीके द्वारा नहीं सहा जा सकता । जैसा कि महाकवि रुद्रट ने कहा है... शल्यमपि धैर्यशाली मनुष्योंके द्वारा भीतर गड़ी हुई विषलिप्त . शल्य भी-वाणको अनी भी सही जा सकती है परन्तु अकारण क्रुद्ध दुष्ट मनुष्योंका मिथ्या दुर्वचन नहीं सहा जा सकता। इन आगन्तुक आदि चारों प्रकार के दुःखों को हे जीव ! तू मनुष्य भवमें अनन्त काल तक प्राप्त हुआ है । यहाँ नाना भवोंकी अपेक्षा अनन्त काल कहा है, एक भव को अपेक्षा नहीं। अनन्तकं शब्दमें जो 'क' प्रत्यय हुआ है वह कुत्सित अर्थमें हुआ है ॥११॥ ___ गाथार्य हे महायशके धारक जीव ! तूने शुभ-भावनासे रहित होकर स्वर्गामें देव अथवा देवाङ्गनाओंके वियोगके समय अथवा अन्य कालमें तीव्र मानसिक दुःख प्राप्त किया है ॥१२॥ विशेषा-स्वर्गोमें यदि देव हुआ तो देवीके वियोगके समय और देवी हुआ तो देवके वियोगके समय हे जीव ! तूने तीव्र मानसिक दुःख For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ षट्प्राभृते [५१२ मानसं मनसि भवं दुःखं त्वं प्राप्तः, तद्दुःखं तीव्रमत्युत्कृष्टं, हा ! मया मनुष्यभवे प्राप्तेऽपि निर्मलं चारित्रं न पालितं अनेन तू निरतिचारं चारित्रं प्रतिपालितं तेनायं मम किल्विषादेरादेशं ददाति स तु दुरतिक्रमः कथं मया नानुष्ठीयते इत्यादि मानसं तीव्रं दुःखं हे जीव ! त्वं ( संपत्तोसि ) सम्यक्प्रकारेण प्राप्तोऽसि अनुभूतवासि । ( महास) महत् त्रैलोक्यव्यापनशीलं यशः पुण्यगुणानुकीर्तनं यस्य स भवति महायशाः तस्य सम्बोधनं क्रियते कुन्दकुन्दाचार्येण हे महायशः । ( दुखं सुहभावणार हिओ ) ईदृग्विधं दुःखं कस्मात्प्राप्तमित्याह - सुहभावणार हिओ-शुभस्य विशिष्टपुण्यस्य भावनारहितः । कासी शुभभावना ? दर्शनविशुद्धयादयः षोडश - भावनाः शुभास्तीर्थकर नामकर्मोपार्जनहेतुत्वात् । अतिशयेन शुभात्र जिनसम्यक्त्व - भावना, मिथ्यात्वभावना त्वतीव पापीयसी । तथा चोक्तं समन्तभद्रेण महाकविना प्राप्त किया है। इसी प्रकार यदि तू सामान्य देव हुआ तो इन्द्रकी विभूति देखकर तूने तीव्र मानसिक दुःख प्राप्त किया है। उस समय तू विचार करता है कि हाय मनुष्य भव प्राप्त होनेपर भी मैंने निर्मल चारित्र का पालन नहीं किया था और इस इन्द्रने निर्मल चारित्रका पालन किया इसीलिये यह इस समय मुझे किल्विष आदि होन देवोंका आदेश दे रहा है । इसका यह आदेश अनुल्लङ्घनीय है, मैं इसका किस तरह पालन करूँ इत्यादि तीव्र मानसिक दुःखको हे जीव ! तूने अच्छी तरह प्राप्त किया है - भोगा है । यहाँ श्रोकुन्दकुन्दाचार्य इस जीवको 'महायश' पदसे सम्बोधन करते हुए उसके स्वरूप की स्मृति दिलाते हैं - हे जीव !! तू तो महायश का धारक है, तेरा यश तोनलोक में फैलने की क्षमता रखता है, तू तीर्थंकर हो सकता है और तब तेरे पुण्यगुणों का वर्णन तीनों लोकों में व्याप्त हो सकता है, फिर शुभ भावना को छोड़कर कहाँ भटक रहा है ? यह सब दुःख तू शुभ भावनासे रहित होकर हो उठा रहा है। शुभका अर्थं विशिष्ट पुण्य है, तु उसकी भावनासे रहित हो रहा है । यह अर्थ 'शुभस्य भावना' इस षष्ठी तत्पुरुष समासको दृष्टिमें रखकर किया गया है। दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाएं शुभ भावनाएं हैं कि वे शुभतीर्थंकर नामकर्म के बन्धकी कारण हैं। इन सब भावनाओं में जिन सम्यक्त्व भावना - दर्शन-विशुद्धि भावना अत्यन्त शुभ है और मिथ्यात्व भावना अत्यन्त पाप रूप है--अशुभ है। जैसा कि महाकवि समन्तभद्र ने कहा है For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १३ ] भावप्राभृतम् न सम्यक्त्वसमं किचित्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥ १॥ सम्यक्त्वभावनया एकयापि तीर्थकरनामकर्म बद्धयते पंचदशापरभावना विनापि । तस्य सम्यक्त्वस्य शुद्धता चर्मजलघृततैलहिगुवर्जनेन भवति । अन्येनायुपासकाध्ययनादिशास्त्रेणोक्तेनाचारेण विस्तरेण ज्ञातव्या । तथा चोक्तं शिवकोटिनाचार्येण - चर्मपात्रगतं तोयं घृतं तैलं प्रवर्जयेत् । 'नवनीतंप्रसूनादिशाकं नाद्यात्कदाचन ॥१॥ कंदप्पमाइयाओ पंच वि असुहादिभावणाई य । भाऊण दव्वलिंगी पहीणदेवो दिबे जाओ ॥ १३ ॥ कान्दर्पीत्यादयः पंच अपि अशुभादिभावनाश्च । भावयित्वा द्रव्यलिङ्गी प्रहीणदेवः दिवि जातः || १३|| २५९ . ( कंदप्पमाइयाओ ) कान्दर्पी इत्येवमादिकाः । ( पंच वि असुहादिभावणाई य) पंचापि अशुभशब्दादयो भावनाश्च कान्दपप्रभृतयः पंचाशुभभावना इत्यर्थः । . न सम्यक्त्व - तीनों काल और तीनों लोकोंमें जीवोंका सम्यक्त्वके समान कल्याण कारक और मिथ्यात्वके समान अकल्याण-कारक दूसरा नहीं है। शेष पन्द्रह भावनाओंके न होनेपर भी एक सम्यक्त्व भावना से ही तीर्थंकर नाम कर्मका बन्ध हो जाता है । उस सम्यक्त्वकी शुद्धता चमड़े के पात्र में रखे हुए जल, घी, तेल तथा हींगके छोड़नेसे होती है, साथ ही उपासकाध्ययन आदि शास्त्रों में कहे गये अन्य विस्तृत आचारसे भी होती है ऐसा जानना चाहिये । जैसा कि शिवकोटि आचार्यंने कहा है चर्मपात्र - चमड़े के पात्र में रखा हुआ पानी, घृत तथा तैलका त्याग करना चाहिये । नवनीत तथा फूल आदि का शाक कभी नहीं खाना चाहिये ॥१-१२ ॥ गाथा - दर्जी आदि पाँचों अशुभ भावनाओंका चिन्तवन कर तू द्रव्यलिङ्गी रहा और मरकर स्वर्ग में अत्यन्त हीन देव हुआ || १३ || विशेषार्थ - कान्दर्पी आदि पाँच अशुभ भावनाएँ हैं इनका चिन्तवन १. नवनीत प्रसूनादि म० । For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० षट्प्राभृते [ ५. -१४ ( भाऊण दयिलंगी) तास्त्वं भावयित्वा द्रव्यलिंगः सन् । ( पहीणदेवो दिवे जाओ ) प्रहीणदेवो - हीनदेव : प्रकर्षेण नीचदेवः किल्विषादिको देवः दिवे-स्वर्गे हे जीव ! त्वं जात उत्पन्नः । कास्ताः पंचाशुभभावना इत्याह- कान्दर्पी, कैल्विषी, आसुरी, सांमोही, आभियोगिकी चेति एतासां नामानुसारेणाथंश्चिन्तनीयः । उक्तं च शुभचन्द्रेण योगिना— कन्दर्पी कॅल्विषी चैव भावना चाभियोगिकी | दानवी चापि साम्मोही त्याज्या पंचतयी च सा ॥ १ ॥ पासत्थभावणाओ अणाइकालं अणेयवाराओ । भाऊण दुहं पत्तो कुभावणाभावबीएहिं ॥ १४॥ पार्श्वस्थ भावना अनादिकाल अनेकवारान् । भावयित्वा दुःखं प्राप्तः कुभावनाभावबीजैः || १४ || | ( पासत्यभावणाओ ) पार्श्वस्थभावनाः । ( अणाइकालं अणेयवाराओ ) अनादिकालमादिरहितकालपर्यंन्तं अनेकवाराननन्तवारान् । ( भाऊण दुहं पत्तो ) भावयित्वा दुःखं हे जीव ! त्वं प्राप्तवान् । ( कुभावणाभावग्रीएहि ) कुभावनानां करके हे जोव ! तू द्रव्य-लिङ्गी रहा तथा अन्तमें मरकर स्वर्ग में किल्विषक आदि जातिका अत्यन्त नीच देव हुआ । प्रश्न - वे पाँच अशुभ भावनाएँ कौन हैं ? उत्तर - १ कान्दर्पी, २ केल्विषी, ३ आसुरी ४ सांमोही और ५ अभि-योगिकी | इनका अर्थ नामके अनुसार चिन्तन करना चाहिये । शुभचन्द्र मुनिने भी कहा है कान्वर्षी – कन्दर्पी, केल्विषी, आभियोगिकी, दानवो और साम्मोहो ये पाँच प्रकार की भावनाएँ छोड़ने योग्य हैं ॥१- १३॥ गाथार्थ - हे जीव ! तू अनादि कालसे अनेक बार पार्श्वस्थ भावनाओंका चिन्तन कर खोटी भावनाओंके भावरूप बोजोंके द्वारा दुःखको प्राप्त हुआ है || १४ || विशेषार्थ - हे जीव ! तूने अनादिकाल से अनन्तोंबार पार्श्वस्थ भावनाओंकी भावना करके कुभावनाओं खोटो भावनाओंके परिणामरूपी बीजों द्वारा दुःख प्राप्त किया है । १. तासां पञ्चतयी च सा० क० ख० ग० घ० । For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १४] भावप्राभृतम् २६१ भावाः परिणामास्त एव बीजान्यंकुरोत्पत्तिहेतवस्तैः कुभावनाभावबीजैः । कास्ताः पावस्थपंचभावनाः ? यो वसतिष प्रतिबद्ध उपकरणोपजीवी श्रवणानां पावें तिष्ठति स पार्श्वस्थः । क्रोधादिकषायकलुषितात्मा व्रतगुणशीलैः परिहीनः संघस्याविनयकारी कुशील उच्यते । वैद्यकमंत्रज्योतिषोपजीवी राजादिसेवकः संसक्तः कथ्यते । जिनवचनानभिज्ञो मुक्तचारित्रभारो ज्ञानचरणभ्रष्टः करणालसोऽवसन्न आभाष्यते । त्यक्तगुरुकुल एकाकित्वेन स्वच्छन्दविहारी जिनवचनदूषको मृगचारित्रः परिलप्यते स्वछन्द इति वा, एते पंचश्रवणा जिनधर्मबाह्या न वन्दनीयाः । तेषां कार्यवशात् किमपि न देयं जिनधर्मोपकारार्थमिति । प्रश्न-वे पाश्वस्थ आदि पाँच भावनाएं कौन हैं: उत्तर-जो मुनि वसतिकाओं में नियमबद्ध निवास करता है तथा यन्त्र मन्त्र आदि उपकरणों से उपजीविका-आहारादि प्राप्त करता हुआ साधुओंके पार्श्व-समीप में स्थित रहता है, वह पार्श्वस्थ है । क्रोध आदि कषायोंसे जिसको आत्मा कलुषित है, जो व्रत गुण और शीलसे रहित है तथा मुनिसंघकी अविनय करता है-अहंकार-वश उद्दण्ड आचरण करता है, वह कुशील कहलाता है। जो वैद्यक मन्त्र और ज्योतिष द्वारा उपजीविका करता है तथा राजा आदिको सेवा करता है-अधिकतर उनके संपर्क में रहता है वह संसक्त कहलाता है। जो जिन-वचन-जन शास्त्रों से अनभिज्ञ है, चारित्रका भार छोड़ करके जो ज्ञान और चारित्रसे भ्रष्ट हो चुका है तथा क्रियाओंके करनेमें आलसी रहता है वह अवसन्न कहा जाता है और जो गुरुकुलको छोड़कर अकेला विहार करता है तथा जिनेन्द्र देवके वचनोंमें दोष लगाता है वह मगचारित्र अथवा स्वच्छन्द कहलाता है। ये पांच प्रकारके मुनि जिनधर्म से बाह्य हैं, अतः वन्दना करनेके . योग्य नहीं हैं । जिनधर्मके उपकारके लिये इन्हें कार्यवश कुछ भी नहीं देना चाहिये क्योंकि भ्रष्ट मनियोंको आहार आदि देने तथा उनकी भक्ति वन्दना आदि करनेसे जिनधर्मका अपवाद होता है । इन पाँच प्रकारके मुनियोंसे सम्बन्ध रखनेवाली पार्श्वनाथ आदि पाँच भावनाएं हैं। इस जीवने अनादि कालसे अनन्तों बार इनकी भावना की है तथा उसके फलस्वरूप बहुत दुःख प्राप्त किया है ॥१४॥ १. किमपि देयं म०प०। For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभृते - देवाण गुणविहूई इड्ढी माहप्प बहुविहं दट्ठ। ... होऊण होणदेवो पत्तो बहुमाणसं दुक्खं ॥१५॥ देवानां गुणविभूति ऋद्धि माहात्म्यं बहुविधं दृष्ट्वा । भूत्वा हीनदेवः प्राप्तो बहुमानसं दुःखम् ।।१५।। ( देवाण गुणविहूई ) देवानां गुणान् अणिमा महिमा लघिमा गरिमान्तद्धनकामरूपित्वं । प्राप्तिकाम्यवशित्वेशित्वाप्रतिहततत्वमिति वैक्रियिकाः ॥१॥ इत्यार्योक्तलक्षणान गुणान दृष्ट्वा ( इड्ढी ) ऋद्धि. इंद्राणीप्रमुखपरिवार । उक्तं च शची पद्मा शिवा श्यामा कालिन्दी सुलसा का। . भान्वाख्या दक्षिणेन्द्राणां विश्वेषामपि कीर्तिताः ॥१॥ उदीचां श्रीमती रामा सुसीमा च प्रभावती । जयसेना सुषेणा च सुमित्रा च वसुन्धरा ॥२॥ गाथार्थ हे जीव ! तूने हीन देव होकर दूसरे देवोंको गुण विभूति, ऋद्धि तथा बहुत प्रकारका माहात्म्य देखकर बहुत मानसिक दुख प्राप्त किया है ॥१५॥ विशेषार्थ-देवोंमें अनेक गुण होते हैं जैसे अणिमा-अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, अन्तर्धान, कामरूपित्व, प्राप्तिकाम्य, वशित्व, ईशित्व और अप्रतिहतत्व ये देवोंके विक्रिया जन्य गुण हैं। इनके सिवाय देवों का जो इन्द्राणी आदिका प्रमुख परिवार है वह सब ऋद्धि कहलाता है । जैसा कि कहा गया है । शची-स्वर्गोंके इन्द्र दक्षिणेन्द्र तथा उत्तरेन्द्रके भेदोंमें विभाजित हैं। दक्षिणेन्द्रों की प्रमुख देवियां इस प्रकार हैं शची पद्मा-शची, पद्मा, शिवा, श्यामा, कालिन्दी, सुलसा, अञ्जुका और भानु। उत्तरेन्द्रोंको प्रमुख देवाङ्गनाएं इस प्रकार हैं श्री उदीचां-श्रीमती, रामा, सुषोमा, प्रभावती, जयसेना, सुषेणा, सुमित्रा और वसुन्धरा। For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १५ ] भावप्राभृतम् षोडशाद्ये सहस्राणि विक्रियोत्थाः पृथक्च ताः । द्विगुणा द्विगुणास्तस्मात्परत्र सममात्मना ॥३॥ १६०००-३२०००-६४०००- १२८००० २५६००० - ५१२००० - १०२४००० 1 क्रमाद्वात्रिंशदष्ट द्वे सहस्राः पंचशत्यथ । अर्घार्घारच त्रिषष्ठिश्च सप्तस्थानेषु वल्लभाः ||४|| सप्तस्थानानि कानि ? सौधर्मेशानी १, सानत्कुमारमाहेन्द्री २, ब्रह्मब्रह्मोत्तरी ३, लान्तवकाषिष्ठी, ४, शुक्रमहाशुक्रौ ५, शतारसहस्रारी ६, आनतप्राणतारणाच्युताश्चत्वारः स्वर्गा एक स्थानमिति सप्तस्थाना नि इत्यादि देव्यादिद्धि दृष्ट्वा । ( माहम्म बहुविहं दट्टु ) इन्द्रवाचा दीर्घायुरपि म्रियते अल्पायुषोऽप्यायुर्न 'त्रुटयते इत्यादि माहात्म्यं बहुविधं दृष्ट्वा । ( होऊण हीणदेवो ) होनदेवो भूत्वा । ( पत्तो वहुमाणसं दुःखं ) प्राप्तोऽसि बहुतरं प्रचुरं मनसि भवं मानसं दुःख हे जीव ! त्वमिति कारणात् जिनभक्ति कुर्विति भावार्थः । 1 षोडशाद्ये- - प्रथम स्वर्ग में सोलह हजार देवियोंका परिवार है। विक्रिया से अनेक रूप बनाने वाली देवाङ्गनाएँ इनसे पृथक् हैं । आगे आगे के स्वर्गों में इनकी संख्या क्रमसे दूनी दूनी होती जाती है, जो इस प्रकार है १६०००, ३२०००, ६४०००, १२८०००, २५६०००, ५१२०००, • १०२४००० क्रमाद् नीचे लिखे सात स्थानों में इन्द्रों के क्रमसे बत्तीस हजार, आठहजार, दो हजार, पाँचसो, ढाइसौ, सवासौ और तिरेशठ, बल्ल भिकाएँ यानी- अत्यन्त प्रिय देवाङ्गनाएँ होती हैं । सप्त स्थान इस प्रकार हैं १ सौधर्मेशान, २ सानत्कुमार माहेन्द्र, ३ ब्रह्मब्रह्मोत्तर, ४ लान्तव कापिष्ठ, ५ शुक्रमहाशुक्र, ६ शतारसहस्रार और ७ आनत प्राणत आरण अच्युत इन चार स्वर्गोंका एक स्थान । २६३ देवों का माहात्म्य भी नाना प्रकारका होता है जैसे इन्द्रके कहने से दीर्घायु मनुष्य भी मर जाता है और अल्प आयु वालेकी भी आयु जल्दी समाप्त नहीं होती । हे जीव ! अन्य हीन देव होकर देवोंकी गुण रूप विभूति, ऋद्धि तथा बहुत प्रकारका माहात्म्य देख कर तूने बहुत मानसिक दुःख प्राप्त किया है इसलिये अब तू जिन भक्ति कर, जिससे हीन देवकी अवस्था पुनः प्राप्त न हो ॥ १५ ॥ १. त्रुदयति म० । For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ षट्प्राभृते [ ५. १६-१७ चविहविकहासत्तो मयमत्तो असुहभावपयडत्यो । होऊण कुदेवत्तं पत्तोसि अवाराओ ॥१६॥ चतुविधविक्रथासक्तः मदमत्तः अशुभभाव प्रकटार्थः । भूत्वा कुदेवत्वं प्राप्तोऽसि अनेकवारान् ||१६|| ( चउविहविकहासत्तो ) चतुर्विधविकथासक्तः आहारकथा - स्त्रीकथा - राजकथा - चौरकथालक्षणासु विकथासु चतुर्विधास्वासक्त: । ( मयमत्तो ) अष्टमदैर्म तो गर्वितः । ( असुहभाव पडत्थो ) अशुभभावः पापपरिणामः प्रकटः स्फुटी भूतोऽर्थः प्रयोजनं यस्य स अशुभभावप्रकटार्थः । ( होऊण कुदेवत्तं ) अशुभभावप्र कटार्थो भूत्वा कुदेवत्तं कुत्सितदेवत्वं । ( पत्तोसि ) प्राप्तोऽसि । हे जीव ! असुरादिकु देव - गतीरनेकवारान् प्राप्तोऽसि । असुईवाहत्थेहि य कलिमलबहुला हि गब्भव सहीहि । वसिओसि चिरं कालं अणेयजणगीण मुणिपवर ॥१७॥ अशुचिवभत्मासु कलिमलबहुलासु गर्भवसतिषु । उषितोसि चिरं कालं अनेकजननीनां मुनिप्रवर ||१७|| ( असुईवीहत्येहि य) अशुचिषु अपवित्रासु बीभत्सासु च विरूपकासु । ( कलिमलबहुलाहि ) पापबहुलासु । ( गब्भव सहीहि ) गर्भगृहेषु उदरवसतिषु । गाथार्थ - हे जीव ! चार विकथाओं में आसक्त होकर, मदसे मत्त होकर तथा अशुभ भावको ही प्रयोजन बनाकर तू अनेक वार कुदेव - नीच देवकी पर्याय को प्राप्त हुआ || १६ || विशेषार्थ - हे जीव ! तू आहार कथा, स्त्रीकथा, राजकथा और चोर- कथा इन चार प्रकारकी विकथाओं में आसक्त रहा है। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर इन आठ पदार्थों के मदसे सदा मत्त रहा है । तथा पाप-रूपी परिणामको ही तूने अपना प्रयोजन बनाया है । इसकारण तू कुदेव-असुर आदि नीच देवों की गतिको अनेक वार प्राप्त हुआ है ।। १६ । गाथार्थ - हे मुनिप्रवर ! तूने अनेक माताओंकी अपवित्र, घृणित और पाप रूप मलसे परिपूर्ण गर्भ वसतिकाओं में चिरकाल तक निवास किया है ||१७|| विशेषार्थं - यहाँ आचार्यने मुनियोंको उपदेश देते हुए उन्हें 'मुनिप्रवर' इस सम्बोधनसे सम्बोधित किया है जिसका अर्थ होता है है। For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ -५.१८] भावप्राभृतम् (वसिओसि चिरं कालं ) उषितोऽसि स्थितोऽसि चिरं दीर्घकालमनन्तकालमनादिकालं ( अणेयजणणीण मुणिपवर ) गर्भवसतिषु अनेका अनन्ता जनन्यो जाताः, हे मुनिप्रवर ! हे मुनीनामुत्तम । पीओसि थणच्छोरं अणंतजम्मंतराइं जणणीणं । अण्णण्णाण महाजस सायरसलिलादु अहिययरं ॥१८॥ पीतोऽसि स्तनक्षीरं अनन्तजन्मान्तराणि जननीनाम् । अन्यासामन्यासां महायशः! सागरसलिलादधिकतरम् ॥१८॥ (पीओसि थणच्छीरं ) पीतोऽसि पीतवान् धयितवानसि स्तनक्षीरं अपवित्र वक्षोरुहक्षीरं स्तनदुग्धं । ( अणंतजम्मतराई ) अनन्तजन्मान्तराणि अनन्तभवान्तरेषु । ( जणणीणं ) जननीनां अनन्तमातृणां । ( अण्णण्णाण ) अन्यासामन्यासां । महाजस ) महत् त्रैलोक्यव्यापकं यशो यस्य भवति महायशास्तस्य सम्बोधनं क्रियते हे महायशः । ( सायरसलिलादु अहिययरं ) सागरसलिलादप्यधिकतरं अतिशयेनाधिकतरमनन्तसागरजलसमानं । मुनियोंमें उत्तम। वे कहते हैं कि मुनिप्रवर ! तुम्हारा यह मुनि पद तो कक्षयका कारण था पर मात्र द्रव्यलिङ्ग धारण करके तुम संसारमें ही भटकते रहे। पहले विकार आदि में आसक्त होकर हीन देव-पर्यायको प्राप्त किया तदनन्तर वहाँ से च्युत होकर मानुषी के अपवित्र एवं घृणित गर्भवास में तुमने निवास किया है, वह भी एकाध वार नहीं किन्तु अनेक वार । अनादि कालसे यहो करते आ रहे हो। इस बीचमें तुम्हारी अनेक माताएं हो चुकी हैं ।।१७॥ गाथार्थ हे महायश के धारक मुनि ! तूने अनन्त जन्मोंमें अन्य· अन्य माताओंके स्तनका इतना दूध पिया है जो समुद्रके जलसे भी अत्यन्त : अधिक है-अनन्तगुणित है ॥१८॥ विशेषार्थ-हे महाशय ! हे त्रैलोक्य-व्यापक यशके धारक मुनि ! तूने द्रव्यलिङ्ग धारण करके, मनुष्यके अनन्त जन्म धारण किये और उनमें अन्य अन्य माताओंके अपवित्र स्तन के दूधको इतना अधिक पिया कि वह समुद्र के जलसे भी अतिशय अधिक है अर्थात् अनन्त समुद्रों के जलके समान है ॥१८॥ For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [५. १९-२०तुह मरणे दुक्खेणं अण्णण्णाणं अणेयजणणीणं । रुग्णाण णयणणीरं सायरसलिलादु अहिययरं ॥१९॥ तव मरणे दुःखेन अन्यासामान्यासां अनेकजननीनाम् । रुदितानां नयननीरं सागरसलिलात् अधिकतरम् ॥१९॥ ( तुह मरणे दुक्खेणं ) तव मरणे सति दुःखेन कृत्वा "डसा दि दे इ ए तु ते उय उब्भ तुब्भ तम्ह तुमाइ तुमो तुमे तुव तुहं तइ तुहाः” इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण तव शब्दस्य तुह इत्यादेशः । ( अण्णण्णाणं ) अन्यासामन्यासां मानुषीसिंहीव्याघ्रीमार्जारीमृगीगोगरीबडवाकरेणुप्रभृतीनां । ( अणेयजणणीणं ) अनेकजननीनां प्रत्येकमनन्तमातृणां (रुण्णाण ) रुदितानां । ( णयणणारं ) लोचनबाप्पजलं । ( सायरसलिलादु अहिंययरं ) सागरसलिलादधिकतरं प्रत्येकं समुद्रतोयदप्यधिकतरमनन्तसागरसलिलपरिमाणं भवति । भवसायरे अणंते छिण्णुज्झियकेसणहरणालट्ठी। पुंजेइ जइ को विजए हवदि य गिरिसमधिया रासी ॥२०॥ भवसागरे अनन्ते छिन्नोज्झितकेशनखरनालास्थीनि । पुञ्जयति यदि कश्चित् देवो भवति च गिरिसमधिका राशिः ॥२०॥ ( भावसायरे अणते ) भावसागरेऽनन्ते संसारसमुद्रेऽन्तरहिते । (छिष्णुझियकेसणहरणालठ्ठी ) छिन्नानि उज्झितानि मुक्तानि अरेण नखलुना छुरिकया गाथार्थ हे जीव ! तेरा मरण होनेपर दुःख से रोती हुई अन्य अन्य अनेक माताओं का अश्रुजल समुद्रके जलसे अत्यन्त अधिक है ॥१९॥ विशेषार्थ हे जीव ! तूने द्रव्य लिङ्गके कारण नानायोनियोंमें भ्रमण करके मानुषी, सिंहो, व्याघ्री, मार्जारी, मृगी, गौ, भैंस, घोड़ी तथा हस्तिनी आदिको माता बनाया है तथा अपना मरण होनेपर दुःखसे इन अनन्त माताओंको इतना रुलाया है कि उनके आँसू समुद्रके जलसे भी बहुत अधिक हैं अर्थात् अनन्त समुद्रोंके जलके बराबर हैं। गाथा में संस्कृत 'तव' शब्दके स्थानमें 'ङसादि दे'-आदि प्राकृत व्याकरणके सूत्रसे 'तुह' आदेश हो गया ॥१९॥ __ गाथार्थ-हे जीव ! तूने अनन्त संसार सागर में जिन केश, नख, नाभिनाल और हड्डियोंको कटने के पश्चात् छोड़ा है यदि कोई यक्ष उन्हें इकट्ठा करे तो उनकी राशि पर्वत से भी अधिक हो जाय ॥२०॥ विशेषार्थ-हे जीव ! इस अनन्त संसार सागर में मज्जनोन्मज्जन For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.२१ ] भावप्राभृतम् २६७ पूर्वं छिन्नानि पश्चादुज्झितानि केशनखरनालास्थीनि । ( पुजेइ जइ को विजए ) पुंजयति राशीकरोति यदि चेत् कोऽपि शक्रसन्तानागतः कश्चिद्देवः | ( हवदि य गिरिसमधिया रासी) भवति च गिरेमंरोरपि समधिका राशिः केशादीनां प्रत्येकमनन्तमेरुसमा राशयो भवन्तीति भावार्थः । जलथलसिहिपवणंबरगिरिसरिरिकुरुवणाई सव्वत्तो । वसिओसि चिरं कालं तिहुवणमज्झे अणप्पवसो ॥ २१ ॥ जलस्थलशिखिपवनांवर गिरिसरिगे कुरुवनादिषु सर्वत्र । उषितोसि चिरं कालं त्रिभुवनमध्येनात्मवशः ||२ ॥ हे जीव ! हे चेतनानाथ ! ( जल ) त्वं जले उदके उषितोऽपि निवासं चकर्थ । ( थल ) थले भूम्यां । ( सिहि ) शिखिनि हुताशने । ( पवण ) पवने झंझामारु ( अंबर ) अम्बरे विहायसि । ( गिरि) पर्वते । ( सरि ) सरिति नद्यां दरि दर्यां गुहायां । ( कुरुवणाइ ) देवकुरूतरकुरूत्तमभोगभूमि कल्पवृक्षवने । आदिशब्दाद्भरत हैमवत हरिविदेह रम्यक हैरण्यवत्तैरावतादयो लभ्यन्ते । ( सव्वत्तो ) कि बहुना सर्वतः सर्वत्र । ( वसिओसि चिरं कालं ) उषितोऽसि चिरं दीर्घमनन्तं करते हुए तूने इतने अधिक जन्म धारण किये हैं और उनमें केश, नख, नाभिका नाल तथा हड्डियोंको इतना अधिक क्षुरा, नख-भञ्जिका तथा क्षुरी आदिसे काट काट कर छोड़ा है - जहाँ तहाँ फेंका है यदि इन्द्रकी आज्ञा से आया हुआ कोई देव उन्हें इकट्ठा करे तो केश आदिकी वह राशि सुमेरु पर्वत से भी अधिक अर्थात् अनन्त सुमेरु पर्वतों के बराबर हो सकती है ॥२०॥ गाथार्थ - हे जीव ! तूने अनात्म-वश होकर - आत्मस्वभावसे भिन्न वस्तुओंके वशीभूत होकर तीनों लोकोंके मध्य जल, स्थल, अग्नि, वायु, आकाश, पर्वत, नदी, गुफा तथा देवकुरु उत्तरकुरु आदि स्थानों में सब जगह चिरकाल तक निवास किया है ।। २१ ।। विशेषार्थ - हे चेतनानाथ ! तूने अनात्मवश होकर निज शुद्ध बुद्ध रूप एक स्वभाव से युक्त चैतन्यचमत्कार मात्र टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाव वाले आत्म-तत्वको भावना अथवा जिनेन्द्र देवके द्वारा प्रतिपादित सम्यक्त्वकी भावना से भ्रष्ट होकर जलमें, स्थलमें, अग्निमें, वायुमें, आकाश में, पर्वत में, नदीमें, गुफामें, देव कुरु उत्तर कुरु नामक उत्तम भोगभूमिसम्बन्धी कल्पवृक्षोंके वन में तथा आदि शब्दसे भरत, हैमवत, हरि, For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ षट्प्राभूते [ ५. २२-२३ कालमनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालसमयपर्यन्तं । ( तिहुवणमज्झे अणप्पवसो) त्रिभु निजशुद्धबुद्ध कस्वभावचिच्च मत्कारलक्षणटंकोत्कीर्णज्ञायकंक वनमध्येऽनात्मवशः स्वभावात्मभावनाजिनस्वामिसम्यकत्व भावना भ्रष्ट इत्यर्थः । गसियाई पुग्गलाई भुवणोद रवत्तिया सव्वाइ' । पत्तोसि तो ण तित्ति पुणरूवं ताइ भुजंतो ॥२२॥ ग्रसिताः पुद्गला भुवनोदरवर्तिनः सर्वे । प्राप्तोसि तन्न तृप्ति पुनारूपं तान् भुंजानः ||२२|| ( गसियाई पुग्गलाई ) ग्रसिताः पुद्गलाः सर्वेऽप्यणवः । ( भुवणोदरवत्तिथाई सब्वाइ' ) भुवनोदरवर्तिनः सर्वेऽपि । ( पत्तोसि तो ण तित्ति ) प्राप्तोऽसि तदपि न तृप्ति धृति । ( पुणरूत्रं ताइ भुजंतो ) पुनारूपं पुनर्नवमिति तान् पुद्गलान् भुजानः । उक्तं च पूज्यपादेन गणिना भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य ममं विज्ञस्य का स्पृहा ॥ तिहुयणसलिलं सयलं पीयं तिहाएं पोडिएण तुमे । तो विण तिन्हाछेओ जाओ चितेह भवमहणं ॥ २३॥ त्रिभुवनसलिलं सकलं पीतं तृष्णया पोडितेन त्वया । तदपि न तृष्णाछेदो जातः चिन्तयं भवमथनम् ||२३|| विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत आदि क्षेत्रों में अधिक क्या कहें तीनों लोकों में सर्वत्र चिरकाल तक - अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके कालपर्यन्त निवास किया है ॥ २१ ॥ गाथार्थ - हे जीव ! तूने संसारके मध्य वर्तमान समस्त पुद्गलों को यद्यपि ग्रसा है -- खाया है तथापि तृप्तिको प्राप्त नहीं हुआ । अब उन्हें नया समझ कर फिरसे खा रहा है ॥ २२ ॥ विशेषार्थ - हे प्राणिन् ! तोन लोकके अन्दर अनन्तानन्त परमाणु व्याप्त हैं तूने उन सब परमाणुओंको यद्यपि ग्रहण किया है तथापि तू संतोषको प्राप्त नहीं हुआ । पुनः उन्हीं गृहीतोज्झित पुद्गल परमाणुओं को नवीन समझ कर ग्रहण कर रहा है। पूज्यपाद आचार्य ने कहा भी है भुक्तोज्झिता - मैंने मोहके कारण सभी पुद्गलोंको भोगकर छोड़ा है सो अब जूठे की तरह स्थित उन पुद्गलों में मुझ ज्ञानोको क्या इच्छा हो सकती है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥ २२ ॥ गाथार्थ - हे जीव ! तूने प्याससे पीड़ित होकर तीन लोकका समस्त For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ -५. २४] भावप्राभृतम् (तिहयणसलिलं सयलं ) त्रिभुवनसलिलं सकलं । पीयं पीतं त्वया। (तिहाए ) तृष्णया । ( पीडिएण ) पीडितेनावगाढेन ! (तुमे ) त्वया भवता । "तुमइ तुमाइ तुमे तुमए तुमं तु इ तु ए ते दि दे भे टया" इति व्याकरणसूत्रेण टावचनेन सह युष्मदः तुमे आदेशः । ( तो वि ) तदपि । ( ण ) नैव । ( तिहाछेओ) तृष्णाच्छेदः ( जाओ ) जातः । (चितेह भवमहणं ) हे जीव ! त्वं चिन्तय अन्वेषस्व भवस्य संसारस्य मथनं विनाशनं सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रत्रयमिति भावार्थः । गहिउझियाई मुणिवर कलेवराई तुमे अणेयाई। ताणं णत्थि पमाणं अणन्तभवसायरे धीर ॥२४॥ गृहीतोज्झितानि मुनिवर ! कलेवराणि त्वया अनेकानि । तेषां नास्ति प्रमाणं अनन्तभावसागरे धीर ! ॥२४॥ (गहिउज्झियाई) गृहीतोज्झितानि । ( मुणिवर ) हे मुनिवर मुनिश्रेष्ठ ! ( कलेवराई) कलेवराणि शरीराणि । (तुमे अणेयाइ) त्वयाऽनेकान्यनन्तानि । पानो पो डाला तो भो प्यास का नाश नहीं हुआ अतः संसार को नष्ट करने वाले रत्नत्रय का चिन्तवन कर ॥ २३ ॥ विशेषार्थ हे आत्मन् ! तूने स्वरूप से भ्रष्ट होकर अनन्त भव धारण किये हैं और उन भवोंमें तृष्णा-प्यास से पीडित होकर यद्यपि तने तोन लोकका समस्त पानी पिया है तो भी तेरो तृष्णा-प्यासका नाश नहीं हुआ। यहाँ श्लेषसे तृष्णाका दूसरा अर्थ अप्राप्त वस्तु की इच्छा भी है तो उस तृष्णासे पीड़ित होकर तूने तीन लोककी समस्त वस्तुओंको ग्रहण किया पर उनसे तेरी तृष्णा शान्त नहीं हुई, अब ऐसा प्रयत्ल कर कि जिससे भव धारण हो न करना पड़े। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र भवको संसारको नष्ट करने वाले हैं अतः इन्हींका चिन्तवन कर । गाथा में आया हुआ 'तुमे' शब्द युष्मद् शब्दके तृतीया का एक वचन है । टाप्रत्यय के साथ साथ युष्मद् शब्दके स्थान में 'तुमइ तुमाइ' आदि प्राकृत व्याकरण के सूत्रसे 'तुमे' आदेश हुआ है ।। २३ ॥ ____ गाथार्य हे धोर वोर ! मुनिवर ! इस अनन्त संसार सागरके बीच तूने जिन अनेक शरीरों को ग्रहण कर कर छोड़ा है उनका प्रमाण नहीं है ।। २४ ।। विशेषार्थ-जो मुनियों में श्रेष्ठ है उसे मुनिवर कहते हैं तथा जो . ध्येय-ध्यान करने योग्य पदार्थकी ओर बुद्धिको प्रेरित करे उसे धीर कहते For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० षट्प्राभृते [ ५.२५ ( ताणं णत्थि पमाणं ) तेषां कलेवराणां नास्ति न विद्यते प्रमाणं गणनमनन्तत्वात् । (अणन्तमवसायरे धीर ) अनन्तभवसागरेऽन्तातीत संसारसमुद्रे हे धीर ! ध्येयं प्रति धियमरियतीति धीरस्तस्य सम्बोधनं क्रियते हे धीर ! हे योगीश्वर ! भावचारित्रं विनेति शेषः । विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसं किलेसाणं आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जए आऊ ॥ २५॥ विषवेदना रक्तक्षयभयशस्त्रग्रहणसंक्लेशानाम् । आहारोच्छवासानां निरोधनात् क्षीयते आयुः ॥ २५ ॥ ( विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसंकिलेसाणं ) विषवेदनारक्तक्षय भयशस्त्रग्रहणसंक्लेशानां । ( आहारुस्सासाणं ) आहारोच्छवासानां । ( णिरोहणा ) निरो-: धनात् । ( खिज्जए आऊ ) क्षोयते आयुः । हैं | गाथा में आचार्यने मुनिवर और 'धीर' दोनों पदोंका सम्बोधन में प्रयोग करते हुए कहा है कि हे धीर वीर ! मुनिश्रेष्ठ ! तूने भावचारित्र - के बिना मात्र द्रव्यलिङ्ग धारण कर अनन्त संसार सागर में जो अनेक शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं उनका प्रमाण नहीं है अर्थात् तूने अनन्त शरीर धारण कर छोड़े हैं ||२४|| आगे आयु क्षीण होनेके कारण बतलाते हैं गाथार्थ - विषकी वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्र को चोट, संक्लेश तथा आहार और श्वासोच्छ्वास के निरोधसे आयु क्षीण हो जाती है | २५ | विशेषार्थ - हे जीव ! मात्र द्रव्य - लिङ्गको धारण कर तूने ऐसे अनेक भव प्राप्त किये हैं जिनमें विषजनित वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्र-ग्रहण, संक्लेश तथा आहार और श्वासोच्छ्वासके रुक जानेसे असमय में ही आयु क्षीण हुई है अर्थात् अकाल-मरण हुआ है । [ जहाँ आयु कर्मके निषेक, अपनो निषेक-रचना के स्वाभाविक क्रमको छोड़कर एकदम खिर जाते हैं उसे अकाल -मरण कहते हैं । यह अकालमरण उपपाद जन्मवाले देव और नारकियोंके, चरमशरीरी मनुष्योंके, भोगभूमि में उत्पन्न हुए असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य और तिर्यञ्चों के नहीं होता है । कर्मभूमिके अवशिष्ट मनुष्य और तिर्यञ्चोंके ही होता है । आज कल कुछ लोग ऐसा कहने लगे हैं कि केवलज्ञानी के ज्ञान में जीवोंकी जितनी आयु दिखती है उतनी ही आयु पूरी कर उनका मरण होता है, अतः अकालमरण नामकी कोई चीज नहीं है, सबका काल For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ —५. २६ ] भावप्राभूतम् हिमजलणसलिलगुरुयरपव्वयत रुरुहण पडणभंगेहि । रसविज्जजोयधारणअणयपसंगेहि विविहि ॥ २६ ॥ हिमज्वलनसलिलगुरुतरपर्वतत रुरोहणपतनभङ्गैः । रसविद्यायोगधारणानय प्रसंगैः विविधैः ||२६|| २७१ ( हिम ) केषां चिज्जन्तूनां मानवानां च शीतेनापमृत्युर्भवति । ( जलणं ) केषांचिज्ज्वलनेनाग्निनापमृत्युर्भवति ( सलिल ) कषांचित्सलिलेन समुद्रादिजलेनापमृत्युर्भवति । ( गुरुयरपव्त्रयतरुरुहणपडणभंगेहि ) गुरुतरा अत्युन्नतशिखरास्ते च ते पर्वतास्तु ंगीगिर्यादयः, तथा तरवो वृक्षा गुरुतरपर्वततरवस्तेषां रोहणेण पतनेन च कृत्वा ये भंगाः शरीरामर्दनानि ते तथा तैः हिमज्वलनसलिलगुरुतरपर्वततरु मरण ही होता है । परन्तु उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि अकालमरण की परिभाषा ऊपर दी जा चुकी है, उसके अनुसार जिन जीवोंके आयु कर्म निषेक अपने स्वाभाविक क्रमको छोड़ एक साथ खिरते हैं उनका अकाल-मरण कहलाता है । केवल ज्ञानमें भी यही बात आती है कि इस जीव की आयु इतनी है परन्तु उसके निषेक अमुक समय में अमुक कारण से एक दम खिर जावेंगे। जिनागम में अपवर्त्यायुष्क और अनपवयुक दोनों प्रकार के जीवों का उल्लेख है, अतः सबको अनपययुष्क कहना आगम सम्मत नहीं है । [ कोई कोई लोग यह कहते देखे जाते हैं कि निश्चयनय से अकाल मरण नहीं है, व्यवहार नयसे है, पर वे यह भूल जाते हैं कि निश्चय नयसे जीवका न मरण होता है और न जन्म होता है । ] जन्म और मरण दोनों का उल्लेख व्यवहार नयका ही विषय है । ] ..आगे आयु क्षीण होने के कुछ कारण और बताते हैं गाथार्थ - हे जीव ! हिम, अग्नि, पानी, बहुत ऊँचे पर्वत अथवा वृक्षोंके ऊपर चढ़ने और गिरने के समय होने वाले अङ्ग भङ्ग से तथा रसविद्याके योग धारण और अनीतिके नाना प्रसङ्गोंसे आयु क्षीण होती है ॥ २६ ॥ विशेषार्थ - कितने ही जन्तुओं और मनुष्यों की शीतसे अपमृत्यु होती है, किन्हीं की अग्नि से अपमृत्यु होती है, किन्हीं की समुद्रादि के जलसे मृत्यु होती है, किन्हीं की अत्यन्त ऊँची शिखरवाले तु गीगिरि आदि पर्वत तथा वृक्षोंके ऊपर चढ़ने और गिरनेके कारण उत्पन्न अङ्गभङ्गसे For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ पटुप्राभूते [५.२० रोहणपतनभंग ः ( रस विज्जजोयधारणअणयपसंगेहि ) रसस्य विषस्य या विद्या विज्ञानं तस्या योगोऽनेकौषघमेलनं तस्य धारणं सेवनमास्वादनं अनयप्रसगश्चान्यायकरणं ते रसविद्यायोगधारणानयप्रसंगास्तं रसविद्यायोगधारणानयप्रसंगैः । (विविहेहि) विविधैर्नानाप्रकारै: । तथा चोक्तं लक्ष्मीघरेण भगवता - 'अण्णाण दालिद्दियह अरे जिय दुहु आवग्गु । लक्कडियई विणु खोडयहं मग्गु सचिवखलु दुग्गु ॥ १ ॥ इय तिरियमणुयजम्मे सुइरं उववज्जिऊण बहुवारं । अवमिन्चुमहादुक्खं तिव्वं पत्तोसि तं मित्त ॥२७॥ इति तिर्यङ्मनुष्यजन्मनि सुचिरं उपपद्य बहुवारम् । अपमृत्युमहादुःखं तीव्र प्राप्तोऽसि त्वं मित्र ॥ २७ ॥ ( इय तिरियमणुयजम्मे ) इति पूर्वोक्तप्रकारेण तिर्यङ्मनुष्यजन्मनि । (सुइरं ) सुचिरं सुष्ठु दीर्घकालं । ( उववज्जिऊण वहुवारं ) उपपद्य उत्पद्य जन्म गृहीत्वा बहुवारमनेकवारं । ( अवमिच्चुमहादुक्खं ) अपमृत्युमहादु:ख ( तिव्वं पत्तोसि ) तीव्र दुःखमसहनीयमसातं प्राप्तोऽसि । ( तं मित्त ) त्वं भगवन् हे मित्र ! हे aat ! हे सुहृत् । - और किन्हींकी रस अर्थात् विषविद्याके योगसे अनेक औषधियों के मेलसे, किन्हीं विष निर्मित औषधियों के सेवनसे तथा किन्हीं की नाना प्रकारके अनय प्रसङ्गसे अर्थात् अन्याय करनेसे अपमृत्यु होती है । जैसा कि भगवान् लक्ष्मोधरने कहा है अण्णाएण - हे जीव ! अन्याय के कारण दरिद्र पुरुषोंको सदा दुःख ही दुःख प्राप्त होता है, सो ठीक ही है क्योंकि खोटे पुरुषोंके तो लकड़ीके सहारेके बिना कीचड़ वाला मार्ग दुर्गम ही होता है। गाथार्थ - हे मित्र ! इस प्रकार तिर्यञ्च और मनुष्य जन्ममें चिरकाल तक अनेक वार उत्पन्न होकर तू अपमृत्यु के तीव्र महादुःखको प्राप्त हुआ है ||२७|| विशेषार्थं - यहाँ आचार्य जीवको प्रेमपूर्ण सम्बोधन द्वारा सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे मित्र ! तूने आत्मस्वभावसे च्युत हो तियंञ्च और मनुष्य गतिमें बार-बार उत्पन्न होकर दीर्घकाल तक अपमृत्युका भारी दुःख उठाया है । अब तो आत्मस्वभावकी ओर दृष्टि दे ||२७|| १. सावयधम्म दोहा ॥ १४८ ॥ For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.२८-२९ ] छत्तीसं तिणि सया छावद्विसहत्सवारमरणाणि । अंतोमुहुत्तमज्झे पत्तोसि निगोयवासम्म ॥ २८ ॥ षट्त्रिशतं त्रीणि शतानि षट्षष्ठि सहस्रवारमरणानि । अन्त हत्तंमध्ये प्राप्तोऽसि निकोवासे ॥ २८ ॥ ( छत्तीसं तिणिसया ) षट्त्रिंशदधिकत्रिशतानि । ( छावट्टिस हस्सवारमरणानि ) षट्षष्ठिसहस्रवारान् मरणानि ६६३३६ । ( अन्तोमुहुत्तमन्झे ) अन्तर्मु हूतंमध्ये । ( पत्तोसि निगोयवासम्म ) प्राप्तोऽसि निकोतवासे । भावप्राभूतम् २७३ वियलदिए असोदी सट्ठी चालीसमेव जाणेह । पंचिदिय चउवीर्स खुद्दभव॑तो मुहुत्तस्स ॥ २९ ॥ विकलेन्द्रियाणामशीति षष्ठि चत्वारिंशदेव जानीत | पञ्चेन्द्रियाणां चतुर्विंशति क्षुद्रभवान् अन्तर्मुहूर्त्तस्य ॥ २९ ॥ ( वियलदिए असीदी सट्टी चालीसमेव जाणेह ) विकलेन्द्रियाणां द्वीन्द्रियश्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजीवेषु अनुक्रमेण मरणसंख्यामन्तर्मूहूर्तस्य करोति । तथाहि । द्वीन्द्रिया जीवा अन्तर्मुहूर्तेन अशीतिवारान् म्रियन्ते । त्रीन्द्रिया जीवा अन्तर्मुहूर्तेन गाथार्थ - तू निकोत - वासमें अन्तर्मुहूर्तके भीतर छ्यासठ हजार तीनसी छत्तीस वार मरणको प्राप्त हुआ है ||२८|| विशेषार्थ - गाथामें आये हुए 'निगोय वासम्मि' शब्द की संस्कृत छाया निकोत वासे' है । निगोद शब्द एकेन्द्रिय वनस्पति कायिक जीवोंके साधारण मेदमें रूठ है, जब कि निकोत शब्द पांचों इन्द्रियोंके सम्मूर्च्छन जन्मसे उत्पन्न होनेवाले लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में प्रयुक्त होता है। इसलिये यहाँ जो ६६३३६ बार मरणकी संख्या है वह पांचों इन्द्रियोंकी सम्मिलित समझना चाहिये ||२८|| गाथार्थ - विकलेन्द्रिय जीवोंके अन्तर्मुहूर्तसम्बन्धी क्षुद्रभव क्रमसे अस्सी, साठ और चालीस जानो तथा पञ्चेन्द्रियोंके चौबीस समझो ||२९|| विशेषार्थ - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ये विकलत्रय कहलाते हैं । इनमें दो इन्द्रियोंके अस्सी, तीन इन्द्रियोंके साठ और चतुरिन्द्रियोंके चालीस शुद्रभव होते हैं । पञ्चेन्द्रिय जीवोंके चौबीस होते हैं । तात्पर्यं यह है कि हीन्द्रिय जीव अन्तर्मुहूर्तमें अस्सी बार मरते हैं, तीन इन्द्रिय जीव अन्तर्मुहूर्त में साठवार मरते हैं, ची इन्द्रिय जीव चालीस बार ओर १८ For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ षट्नाभृते [५. ३०षष्ठिवारान् म्रियन्ते । चतुरिन्द्रिया जीवा अन्तर्मुहूर्तेन चत्वारिंशतं वारान् नियन्ते । ( पंचिंदिय चउवीसं ) पंचेन्द्रिया जीवा अन्तर्मुहूर्तेन चतुर्विशति वारान् म्रियन्ते । ( खुद्दभवतोमुहुत्तस्सं ) क्षुद्रभवा अन्तर्मुहूर्तस्य क्रमेण ज्ञातव्याः । रयणते सुअलद्धे एवं भमिओसि दोहसंसारे । इय जिणवरेहि भणियं तं रयणतं समायरह ॥३०॥ पञ्चेन्द्रिय जीव चौबीस बार मरते हैं। उक्त जीवोंके अन्तर्मुहूर्त कालमें ऊपर बताए हुए मरण होते हैं और इतने ही क्षुद्र भव होते हैं। ॥२९॥ गाथार्थ हे जीव ! रत्नत्रयके प्राप्त न होनेसे तू इस तरह दीर्घ १-अन्तर्मुहूर्तमें किस जीवके कितने क्षुद्रभव होते हैं इसका स्पष्ट वर्णन गोम्मटसार जीवकाण्डमें इस प्रकार दिया है तिण्णिसया छत्तीसा छावट्ठिसहस्सगाणि मरणाणि । अन्तोमुहुत्तकाले तावदिया चेव खुद्दभवा ।। १२२ ॥ अर्थ-एक अन्तमुहूर्त में एक लब्ध्यपर्याप्तक जीव छयासठ हजार तीनसो छत्तीस मरण और इतने ही भवों ( जन्म ) को भी धारण कर सकता है अर्थात् एक लब्ध्यपर्याप्तक जीव यदि निरन्तर भवोंको धारण करे तो ६६३३६ जन्म और इतने ही मरणों को धारण कर सकता है, अधिक नहीं कर सकता। सोदी सट्ठी तालं वियले चउवीस होंति पंचक्खे । ___ छावष्टिं च सहस्सा सयं च वत्तोस मेयक्खे ॥ १२३ ।। अर्थ-विकलेन्द्रियोंमें द्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके ८० भव, त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके ६०, चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के ४० और पञ्चेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के २४ तथा एकेन्द्रियोंके ६६१३२ भवों को धारण कर सकता है, अधिकको नहीं। पुढविदगामणिमारुद साहारणथूल सुहुमपत्तेया। __एदेसु अपुण्णेसु य एक्केक्के वार खं छक्कं ।। १२४ ।। अर्थ-पृथिवी कायिक, जल कायिक, अग्नि कायिक, वायु कायिक और साधारण वनस्पति कायिक इन पाँचके स्थूल तथा सूक्ष्म की अपेक्षा दो-दो भेद और एक प्रत्येक वनस्पति कायिक इन ग्यारह प्रकारके लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें प्रत्येक के ६०१२ क्षुद्रभव होते हैं। इसप्रकार एकेन्द्रिय के ६६१३२, द्वीन्द्रियके ८०, त्रीन्द्रियके ६०, चतुरिन्द्रियके ४० और पञ्चेन्द्रियके २४, कुल मिलाकर ६६३३६ होते हैं ॥१२४॥ For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्रामृतम् रत्नत्रये स्वलब्धे एवं भ्रमितोऽसि दीर्घसंसारे। इति जिनवरैर्भणितं तत् रत्नत्रयं समाचर ॥ ३०॥ ( रयणत्ते सुअलढे ) रत्नत्रये सुष्ठु अलब्धे सति । ( एवं भमिओसि दीहसंसारे ) एवममुनाप्रकारेण भ्रमितोऽसि पर्यटितवान् दीर्घसंसारेऽनादौ संसारे भवे । ( इय जिणवरेहिं भणियं ) इत्येतद्वचनं जिनवरैस्तीर्थकरपरमदेवभणितं प्रतिपादितं । (तं रयणत्तं समायरह ) तत्तस्मात्कारणात् तज्जगत्प्रसिद्ध वा तत् त्वं वा रत्नत्रयं था समाचर सम्यगाद्रियस्व वा। तं रयणतयं केरिसं हवदि । तं जहा । तद्रत्नत्रयं कोदृशं भवति ? तद्यथातदेव निरूपयति अप्पा अपम्मि रओ सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो। जाणइ तं सण्णाणं चरविह चारित्तमग्गोति ॥३१॥ आत्मा आत्मनि रतः सम्यग्दृष्टिः भवति स्फुट जीवः । जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रमार्ग इति ॥ ३१ ॥ (अप्पा अप्पम्मि रओ) आत्मा आत्मनि रत आत्मनः श्रद्धानपरः । (सम्माइट्टी संमारमें भ्रमण करता रहा है ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है अतः रत्नत्रय का आचरण कर ॥३०॥ . विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको रत्नत्रय कहते हैं । रत्नत्रयके व्यवहार और निश्चयकी अपेक्षा दो भेद हैं इनमें से व्यवहार रत्नत्रय तो इस जीवको कईबार प्राप्त हुआ परन्तु निश्चय रलत्रय प्राप्त नहीं हो सका। उसी निश्चय रत्नत्रय को ओर संकेत करते हुए गाथामें 'सु अलद्धो' लिखा गया है जिसका अर्थ होता है रत्नत्रयके सम्यक् प्रकारसे प्राप्त न होने से अर्थात् निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति न होनेसे यह जीव अनादि संसार में भटकता रहता है, ऐसा तीर्थकर परम देवने कहा है अतः हे भव्य प्राणी! तू उस निश्चय रत्नत्रयका अच्छी तरह आचरण कर अथवा उसका अच्छी तरह आदर कर ॥३०॥ • आगे वह रत्नत्रय कैसा होता है ? वही निरूपण करते हैं गाथार्थ-आत्मामें लीन हुआ जीव सम्यग्दृष्टि है, जो आत्माको जानता है वह सम्यग्ज्ञान है और जो आत्मा में चरण करता है वह चारित्र मार्ग है ॥३१॥ १. मग्गुत्ति म०। For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ षट्प्राभूते [ ५.३२ हवेह फुड जीवो) सम्यग्दृष्टिभवति स्फुटं निश्चयनयेन, व्यवहारनयेन तु तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं भवति, जीव आत्मा सम्यग्दृष्टिरिति ज्ञातव्य: 1 ( जाणइ तं सष्णाणं) जानाति तं आत्मानं तत्सदृशानं सम्यग्ज्ञानं भवति, व्यवहारेण तु सप्ततत्त्वानि जानाति तत्सम्यग्ज्ञानं भवति । ( चरदिह चारितमग्गोत्ति ) तमात्मानं जीवो यच्चरति तन्मयो भवति आत्मन्येकलोलीभावो भवति, इहास्मिन् संसारे, चारित्रमार्ग इति, व्यवहारेण तु पापक्रियाविरमणं चरणं भवति । अष्ण कुमरणमरणं अणेयजम्मंतराई मरिओसि । भावहि सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव ॥ ३२ ॥ अन्यस्मिन् कुमरणमरणं अनेकजन्मान्तरेषु मृतोऽसि । भावय सुमरणमरणं जन्ममरणविनाशनं जीव ||३२|| ( अण्णे कुमरणमरणं) अन्यस्मिन् भवसमूहे कुमरणमरणं कुत्सितमरणमरण यथा भवस्येवं । तथा ( अणेय जम्मतराई ) अनेकजन्मान्तराण्यनन्तभवान्तरेषु । "अन्यार्थे अन्या” इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण सप्तम्यर्थे द्वितीया । ( मरिओसि ) मृतोऽसि मरणं प्राप्तोऽसि । ( भावहि सुमरणमरणं ) भावय सुमरणमरणं पंडितपंडितमरणं । कथंभूतं सुमरणमरणं ( जरमरणविणासणं ) जरामरणविनाशनं परममोक्षदायकं । हे (जीव ) जीव हे चेतनस्वभाव ! आत्मन्निति । विशेषार्थ - आत्म-श्रद्धान में तत्पर जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि है और व्यवहार नयसे जीवादि तत्वोंका श्रद्धान करने वाला सम्यग्दृष्टि है । जो आत्माको जानता है वह निश्चयसे सम्यग्ज्ञान है और व्यवहारनय से जो सात तत्वों को जानता है वह सम्यग्ज्ञान है । जो आत्मा में चरण करता है अर्थात् उसीमें लोन होता है वह निश्चय से चारित्रका मार्ग है और पापक्रियासे विरत होना व्यवहारसे चारित्रका मार्ग है ॥ ३१ ॥ गाथार्थ - हे जीव ! तू अन्य अनेक भवोंमें कुमरण करके मृत्युको प्राप्त हुआ है, अब जन्म और मरणको नष्ट करनेवाले सुमरण मरण पण्डितपण्डित मरणको भावना कर ||३२|| विशेषार्थ हे आत्मन् ! तू अन्य अनेक जन्मान्तरों भवान्तरों में आर्त्त रौद्रध्यान से मरकर कुमरण को प्राप्त हुआ है, अतः अब जरा और मरण को नष्ट करनेवाले परम मोक्षदायक सुमरण मरणको भावना कर । निरन्तर ऐसा हो चिन्तवन कर कि मेरा पण्डितपण्डितमरण हो । 'अणेय जम्मंतराइ' यहाँ पर 'अन्यार्थे अन्या' इस प्राकृत व्याकरण के सूत्रसे सप्तमो के अर्थ में द्वितीया विभक्तिका प्रयोग हुआ है । For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ३२] भावप्रामृतम् २७७ समुद्रादिकल्लोलवत्प्रतिसमयमायुस्त्रुट्यति तवावीचिकामरणं स्थितिप्रदेशवीचिकाभेदात्तद्विविधमप्येकविधं। भवान्तरप्राप्तिरनन्तरोपसृष्टपूर्वभवविगमनं तद्भवमरणमुच्यते । तत्त्वनन्तशः प्राप्तं जीवेनेति ज्ञातव्यं, तेन तद्भवमरणं न दुर्लभं । अवधिमरणं नाम कथ्यते-यो यादृशं मरणं साम्प्रतमुपैति तादृशमेव यदि मरणं भविष्यत् तदवधिमरणं, तद्विविधं देशावधिमरणं सर्वावधिमरणं चेति । तत्र सर्वावधिमरणं नाम यदायुर्यथाभूतमुदेति साम्प्रतं प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशैस्तथाभूतमेवायुः प्रकृत्यादिविशिष्टं पुनर्बघ्नात्युदेष्यति च यदि सर्वावधिमरणं । यत्साम्प्रतमुदेत्यायुर्यथाभूतं तथाभूतमेव बध्नाति देशतो यदि तद्देशावधिमरणं । एतदुक्तं आगे मरण के सत्तरह भेदों का संक्षिप्त स्वरूप कहते हैं १ आवीचिका मरण, २ तद्भव मरण, ३ अवधि मरण, ४ आद्यन्त मरण, ५ बालमरण, ६ पण्डित मरण, ७ आसन्न मरण, ८ बालपण्डित मरण, ९ सशल्य मरण, १० पलाय मरण, ११ वशात्तं मरण, १२ विप्राणस मरण, १३ गृढपृष्ठ मरण, १४ भक्त-प्रत्याख्यान मरण, १५ प्रायोपगमन मरण, १६ इङ्गिनी मरण और १७ केवलिमरण। इनका स्वरूप इस प्रकार है १. आवीचिका मरण-समुद्रादि की लहरों के समान जो आयु प्रतिसमय कम होती जाती है वह आवीचिका मरण है । यह मरण स्थिति वीचिका और प्रदेश वोचिका के भेदसे यद्यपि दो प्रकारका है तथापि सत्तरह भेदों में एक सामान्य भेद ही लिया गया है। . . . २. तद्भव-भरण-भवान्तर की प्राप्ति होना अर्थात् आगामी अनन्तर शरीर के द्वारा उपसृष्ट होनेपर पूर्व भवका छूट जाना तद्भव मरण है। यह तद्भवमरण इस जोवने अनन्त बार प्राप्त किया है इसलिये दुर्लभ .. ३ अवधि-मरण-जो प्राणी जिस प्रकारका मरण वर्तमान कालमें प्राप्त करता है वैसा ही मरण यदि आगामी कालमें हो तो उस मरण को अवधि-मरण कहते हैं । यह अवधि-मरण १ देशावधि मरण और २ सर्वाबपि मरण के भेद से दो प्रकारका है। जो आयु वर्तमान में प्रकृतिस्थिति-अनुभाग और प्रदेश सहित जैसी उदय में आती है वैसी ही आयु फिर प्रकृत्यादि विशिष्ट बंधकर यदि उदयमें आवेगी तो उसका सर्वावधि १. भविष्यति म०। १. मरणाणि सत्तरस देसिदाणि तित्यंकरेंहि जिणवयणे । तत्व वि य पंच इह संगहेब मरवाणि बोजामि। -प्रथम बावास मनाती बारापना। For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ षनाभृते [५.३२ भवति-देशतः सर्वतो वा सादृश्येनावधीकृतेन विशेषितं मरणमवधिमरणमिति । साम्प्रतेन मरणेनासादृश्यभावि यदि मरणमाद्यन्तमरणमुच्यते । आदिशब्देन साम्प्रतं प्राथमिकं मरणमुच्यते, तस्यान्तो विनाशभावो यस्मिन्नुत्तरमरणे । तदेतदाद्यन्तमरणमुच्यते । प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशैर्यथाभूतैः साम्प्रतमुपैति मृति तथाभूतां यदि सर्वतो देशतो वा नोपैति तदाद्यन्तमरणं । बालमरणमुच्यते बालस्य मरणं बालमरणं । स च बालः पंचप्रकारोऽव्यक्तबालो व्यवहारवालो ज्ञानबालो दर्शनबालश्चारित्रबालः । धर्मार्थकामकार्याणि न वेत्ति न तदाचरणसमर्थशरीरोऽव्यक्तबालः । लोकवेदसमयव्यवहारान् न वेत्ति शिशु व्यवहारबालः । मिथ्यादृष्टयो दर्शनबालाः । वस्तुयाथात्म्यपाहिज्ञानहीना ज्ञानबालाः ।अचारित्राश्चारित्रवाला। दर्शनबालमरणं द्विविध मरण कहते हैं और जो आयु वर्तमान कालमें प्रकृत्यादि विशिष्ट होकर जैसी उदय आती है, वैसी ही आयु यदि किसी अंश में सदृश होकर बंधेगी और भविष्यत् कालमें उदय आवेगी तो उसे देशावधि मरण कहते हैं । अभिप्राय यह है कि कुछ अंश में अथवा पूर्ण रूपसे सादृश्य जिसमें पाया जाता है ऐसा अवधिसे विशिष्ट अर्थात् जिसमें पूर्ण सादृश्य मर्यादित हुआ है अथवा कुछ हिस्सेमें सादृश्यकी मर्यादा है और कुछ हिस्सेमें नहीं है ऐसे मरणको अवधि मरण कहते हैं। ४. आचन्त मरण-वर्तमानकालमें जैसा मरण जीवको प्राप्त हुआ है वैसा अर्थात् सदृश मरण आगे प्राप्त न होना आद्यन्त-मरण कहा जाता है। यहां आदि शब्द से वर्तमानकालिक प्रथम कहा जाता है उसका अन्त अर्थात् विनाश जिस आगामी मरण में हो वह आद्यन्त मरण कहलाता है ( आदेः अन्तो यस्मिस्तत् आद्यन्तं तच्च तन्मरणञ्चेति आद्यन्तमरणम् ) । तात्पर्य यह है कि वर्तमान में जीव, जिसप्रकारके प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेशके द्वारा जैसी मृत्युको प्राप्त होता है वैसी मृत्युको एक-देश अथवा सर्व-देश रूपसे भविष्यत् में प्राप्त न हो तो वह आद्यन्त मरण कहा जाता है। ५. बालमरण-अब बालमरण कहा जाता है। बालकका मरण सो बालमरण है। वह बाल पांच प्रकार का है-१ अव्यक्त बाल, २ व्यवहार बाल, ३ ज्ञान बाल, ४ दर्शन बाल और ५ चारित्र बाल । जो धर्म अर्थ और कामके कार्यको नहीं जानता है और न उनके आचरण में जिसका शरीर समर्थ है वह अव्यक्त बाल कहलाता है। जो लोक वेद और समयके व्यवहार को नहीं जानता है अथवा शिशु अवस्था वाला है For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ३२] भावप्राभृतम् २७९ इच्छाप्रवृत्तमनिच्छाप्रवृत्तं चेति । तत्रेच्छाप्रवृत्तमग्निना घूमेन शस्त्रेण विषेणोदकेन मरुत्प्रपातेनोच्छ्वासरोधेन शीतपातेनोग्णपातेन रज्वा क्षुधा तृषा जिव्होत्पाटनेन विरुद्धाहारसेवनेन च मरणमिच्छामरणं । कालेऽकाले वाऽध्यवसानादिना विना जिजीविषोमरणमनिच्छाप्रवृत्तं । पंडितमरणमुच्यते-पंडितश्चतुर्घा व्यवहारपंडितः सम्यक्त्वपंडितो ज्ञानपंडितश्चारित्रपंरितश्चेति । लोकवेद समयगतव्यवहारनिपुणो व्यवहारपंडितः, अथवानेकशास्त्रज्ञः शुश्रूषादिबुद्धिगुणसमन्वितो व्यवहारपंडितः । त्रिविधान्यतमसम्यक्त्वः दर्शनपंडितः । पंचविधज्ञानपरिणतो ज्ञानपंडितः । पंचविधचारित्रान्यतमचारित्रपरिणतश्चारित्रपंडितः । नरकेषाभवनेषु विमानेषु ज्योतिष्केषु वानव्यन्तरेषु द्वीपसमुद्रेषु च ज्ञानपंडितमरणं । 'मनःपर्ययमरणं मनुष्यलोक एव उसे व्यवहार बाल कहते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव दर्शन बाल हैं । जो वस्तुके यथार्थ स्वरूप को ग्रहण करने वाले ज्ञानसे रहित हैं वे ज्ञान-बाल हैं और जो चारित्रसे रहित हैं वे चारित्र-बाल कहलाते हैं। इनमें से दर्शन बालमरण दो प्रकारका है-१ इच्छा प्रवृत्त और अनिच्छा प्रवृत्त । उनमें इच्छा पूर्वक अग्नि, धुवाँ, शस्त्र, विष, पानी, पर्वतसे गिरना, श्वासरोकना, शीतमें पड़ना, उष्णमें पड़ना, रस्सी, भूख, प्यास, जिह्वाका उखाड़ना और विरुद्ध आहारके सेवन से जो मरण होता है, वह इच्छा मरण कहलाता है। योग्य काल अथवा अकाल में मरनेके अभिप्राय के बिना जीवित रहनेके इच्छुक प्राणीका जो मरण है वह अनिच्छा प्रवृत्त मरण है। ६. पण्डित मरण-अब पण्डित मरण कहा जाता है। पण्डित चार प्रकारके होते हैं-१ व्यवहार पंडित, २ सम्यक्त्व पण्डित, ३ ज्ञान पण्डित और ४ चारित्र-पण्डित । लोक, वेद और समयानुकूल व्यवहारमें जो निपुण है वह व्यवहार पण्डित है अथवा जो अनेक शास्त्रों का जानकार है और शुश्रूषा-श्रवण करने की इच्छ: आदि बुद्धिके गुणोंसे सहित है वह व्यवहार पण्डित है । जो औपशमिक, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक इन तीन सम्यग्दर्शनों में से किसी एक सम्यग्दर्शन से सहित है वह दर्शनपण्डित है । जो मति, श्रुत, अवधि, मनपर्यय और केवल इन पाँच प्रकारके सम्यग्ज्ञानों से परिणत है वह ज्ञान-पण्डित है और जो सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म-साम्पराय और यथाख्यात इन पाँच प्रकारके चारित्रों में से किसो एक चारित्रसे सहित है वह चारित्र पण्डित है। नरकोंमें, भवनवासो देवोंके भवनोंमें, स्वर्गके विमानोंमें १. मनुष्यलोक एव केवलमनःपर्ययज्ञानपण्डितमरणं भवति-भगवती आराधना । For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० षट्प्रांभृते - [५. ३२मरणं । आसन्नमरणमुच्यते-निर्वाणमार्ग प्रस्थितसंयतसार्थात् प्रच्युतः आसन्न उच्यते, तदुपलक्षणं पार्श्वस्थस्वच्छन्दकुशीलसंसक्तानां । ऋद्धिप्रिया रसेष्वासक्ता दुःखभीरवः सदा दुःखकातराः कषायपरिणताः संज्ञावशगाः पाप-श्रुताभ्यासकारिणः त्रयोदशक्रियास्वलसाः सदा संक्लिष्ट चेतसः भक्ते उपकरणे च प्रतिबद्धा निमित्तमंत्रौषधयोगोपजीविनः गृहस्थवयावृत्यकरा गुणहीना गुप्तिसमितिष्वनुद्यता मन्दसंवेगा दशधर्माकृतबुद्धयः शबलचारित्रा आसन्ना उच्यन्ते । ते यद्यन्ते आत्मशुद्धि कृत्वानियन्ते तदा प्रशस्तमेव मरणं । बालपंडितमरणं श्रावकस्य । सशल्यभरणं सुगमं । पलायमरणमुच्यते विनयवैयावृत्यादावकृतादरः प्रशस्तक्रियोद्वहनालसः त्रयोदशचारित्रेषु वीर्यनिगृहनपरो धर्मचिन्तायां निद्रापूर्णित इव ध्याननमस्कारादेः पलायते पलायमरणं । इन्द्रियवेदनाकषायनोकषायार्तमरणं वशार्तमरणं अप्रतिसिद्धेऽननुज्ञाते च मरणे विप्पाणसमरणं, विप्राणसमरणमुच्यते-गृध्रपृष्ठिमिति संज्ञिते ज्योतिष्क देवोंमें, व्यन्तर देवोंमें तथा द्वोप समुद्रोंमें ज्ञान-पण्डित मरण होता है, परन्तु मनः पर्यय ज्ञान मरण मनुष्य लोक ( अढाई द्वोपमें ) ही होता है। ७. आसन्नमरण-अब आसन्न मरणका स्वरूप कहा जाता है। मोक्षमार्गमें चलने वाले संयमीजनोंके समूहसे जो च्युत हो गया है, उसे आसन्न कहते हैं। यह आसन्न शब्द उपलक्षण है, अतः पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील और संसक्त इन भ्रष्ट मुनियोंका भी उसीसे ग्रहण समझना चाहिये। जिन्हें ऋद्धियाँ प्रिय हों, जो रसोंमें आसक्त हों, दुःखसे डरते हों सदा दुःखके समय दीनता दिखलाने वाले हों, कषाय भावसे युक्त हों, आहारादि संज्ञाओंके वशीभूत हों, पापके समर्थक शास्त्रोंका अभ्यास करने वाले हों, तेरह प्रकारकी क्रियाओंके पालन करने में आलसी हों, जिनका चित्त सदा संक्लेश से युक्त रहता है, जो आहार तथा उपकरणोंमें सदा उपयुक्त रहते हैं, निमित्त ज्ञान, मन्त्र, औषध तथा विषशोधनकी कला आदिसे आजीविका करते हैं अर्थात् इन कार्योंके द्वारा गृहस्थों को आहार देनेके निमित्त अपनी ओर आकृष्ट करते हैं, गृहस्थोंकी वयावृत्य करते हैं, गुणोंसे होन हैं अर्थात् मूलगुणोंका जो निर्दोष पालन नहीं करते हैं, गुप्ति और समितियोंके विषयमें अनुद्यमी हैं, जिनका संवेग १. पापश्रुत्याभ्यास० म०। २. अप्रसिद्ध म। For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. . ३२ ] भावप्राभृतम् २८१ कृते प्रवर्तते । दुर्भिक्षे कान्तारे दुरुत्तरे पूर्वंशत्रुभये दृष्टनुपभये स्तेनभये तिर्यगुपसर्गे एकाकिनः सोढुमशक्ये ब्रह्मब्रतनाशादिचारित्रदृषणे च जाते संविग्नः पापभीरुः अल्प है अर्थात् जिन्हें संसार से पूर्ण भय नहीं है । अथवा जो धर्मं और धर्म फलके विषय में अनुत्साहो हैं, जिनको बुद्धि उत्तमक्षमादि दश धर्मों नहीं लगती है तथा जो दोषयुक्त चारित्रके धारक हैं वे आसन्न कहलाते हैं । 'वे आसन्न मुनि यदि अन्तिम समय आत्मशुद्धि करके मरते हैं तो उनका मरण प्रशस्त ही कहलावेगा । ८. बालपण्डित मरण - बालपण्डित सम्यग्दृष्टि श्रावक को कहते हैं क्योंकि वह पूर्ण चारित्रका धारक न होनेसे बाल है और सम्यग्दृष्टि हो जाने के कारण पण्डित है । उसका जो मरण है उसे बालपण्डित मरण कहते हैं । ९. सशल्य मरण - सशल्य मरणका स्वरूप सुगम है । [मिथ्यादर्शन, १. एवंभूताः सन्तो मृत्वा वराका भवसहस्रेषु भ्रमन्ति । दुःखानि भुक्त्वा भुक्त्वा पावंरूपेण सुचिरं विहृत्यान्त आत्मनः शुद्धि कृत्वा यदि मृतिमुपैति प्रशस्तमेव मरणं भवति । भगवती आराधना । 2. सशल्यमरणं द्विविधं यतो द्विविधं शल्यं द्रव्यशल्यं भावशल्यमिति । मिथ्यादर्शन-माया-निदान-शल्यानां कारणं कम द्रव्यशल्यम् । द्रव्यशल्येन सह मरणं पञ्चानां स्थावराणां भवति असंज्ञिनां त्रसानां च । ननु द्रव्यशल्यं सर्वत्रास्ति तत्किमुच्यते स्थावराणामिति । भावशल्य - विनिर्मुक्तं द्रव्यशल्यमपेक्ष्यते । एतदुक्तं -- सम्यक्त्वातिचाराणां दर्शनशल्यत्वात्सम्यग्दर्शनस्य च स्थावरेषु अभावात् त्रसेषु च विकलेन्द्रियेषु । इदमेव स्यादनागतकाले इति मनसः प्रणिधानं निदानं । न च तदसंज्ञिष्विति । मार्गस्य दूषणं, मार्गनाशनं, उन्मागं प्ररूपणं, मार्गाप्ररूपणं, मार्गस्थानां भेदकरणं मिथ्यादर्शनशल्यानि । तत्र निदानं त्रिविधं प्रशस्तमप्रशस्तं भोगकृतं चेति । परिपूर्ण संयममाराधयितु. कामस्य जन्मान्तरे पुरुषादि - प्रार्थना प्रशस्तं निदानं, मानकषाय- प्रेरितस्य कुलरूपादि - प्रार्थन मनागतभवविषयं अप्रशस्तं निदानं । अथवा क्रोधाविष्टस्य स्वशत्रुवघ- प्रार्थना वशिष्ठस्येवोग्रसेनोन्मूलने । इह परत्र च भोगा अपि इत्यं· भूता अस्माद् व्रतशोलादिकाद्भवन्त्विति मनः प्रणिधानं भोगनिदानं । असंयत-सम्यग्दृष्टेः संयतासयतस्य वा निदानशल्यं भवति । पार्श्वस्थादिरूपेण चिरं विहृत्य पश्चादपि आलोचनामन्तरेण यो मरणमुपैति तन्मायाशल्यं मरणं तस्य भवति । एतत्संयते, संयतासंयते, अविरत सम्यग्दृष्टावपि भवति । - भगवती आराधना गाथा २५ प्रथमाश्वास विजयोदया टोका For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते [ ५.३२ कर्मणामुदयमुपस्थितं ज्ञात्वा सोढुमशक्तः तन्निस्तरणस्यासव्युपाये सावध करणभीरुः विराघनमरणभोरुश्च एतस्मिन् - 'कारणे जाते कालेऽमुष्मिन् किं भवेत्कुशलमिति गणयता यद्युपसर्गत्रासितोऽहं संयमाद्भ्रश्यामि ततः संयमभ्रष्टो दर्शनादपि न २ वेदनासं क्लिष्टः सोढुं प्रव्रज्यामुत्सहे । ततो रत्नत्रयाराधनाच्युतिर्ममेति निश्चित २८२ निदान और मायाके भेदसे शल्यके तीन भेद हैं । शल्य सहित जीवका मरण सशल्यमरण कहलाता है । ] १०. पलाय मरण - जो विनय तथा वैयावृत्य आदिमें आदर नहीं करता है, प्रशस्त क्रियाओंके करनेमें आलसी रहता है, तेरह प्रकारके - चारित्र में अपनी शक्ति छिपाता है, धर्मके चिन्तन में मानो निद्रासे झूमने लगता है और ध्यान तथा नमस्कार आदिसे दूर भागता है, उसे पलाय कहते हैं । पलाय के मरणको पलायमरण कहते हैं । ११. वशात मरण -- इन्द्रिय, वेदना, कषाय और नो कषायसे पीडित व्यक्ति के मरणको वशात मरण कहते हैं । १२. विप्राणस मरण -- विप्राणसमरण और गृध्रपृष्ठ मरण नामवाले दो मरणोंका जैनागम में निषेध नहीं है और अनुज्ञा भो नहीं है । इनमें विप्राणस मरणका स्वरूप कहते हैं - दुष्कालके पड़ने पर, जिसका पार करना कठिन है ऐसे जङ्गल में फँस जाने पर, पूर्वशत्रु का भय, दुष्टराजाका भय अथवा चोरका भय उपस्थित होनेपर, जिसका अकेले सहन करना असम्भव है, ऐसा तिर्यञ्च - कृत उपसर्ग उपस्थित होनेपर, तथा ब्रह्मचर्यं व्रतका नाश आदि चारित्र का दोष उत्पन्न होनेपर संसारसे भयभीत तथा पापसे डरनेवाला मुनि विचार करता है कि मेरे कर्मका जो उदय आया है उसे सहन करने के लिये मैं असमर्थ हूँ, तथा इस उपद्रवसे पार होनेका कुछ उपाय भी नहीं है, मैं पापकार्य के करने से डरता हूँ तथा चारित्र की विराधना कर असंयमी अवस्था में मरनेसे भी भयभीत हैं, ऐसे कारण उपस्थित होनेपर इस समय मेरी कुशल किस तरह हो सकती है इस प्रकारका विचार करता हुआ वह पुनः सोचता है कि यदि मैं उपसर्गसे भयभीत हो संयम से च्युत होता हूँ तो संयमसे भ्रष्ट कहलाऊँगा और संभव है सम्यग्दर्शनसे भी भ्रष्ट हो १. करणे म० क० । २. वेदनामसंक्लिष्टः म० । For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ -५. ३२] भावप्रामृतम् मतिर्निमायः चरणदर्शनविशुद्धः धृतिमान् ज्ञानसहायोऽनिदानोऽहंदन्तिके आलोचनामासाद्य 'कृतशुद्धिलेश्यः प्राणापाननिरोधं करोति यत्तद्विप्पाणसमरणमुच्यते । शस्त्रग्रहणेन यद्भवति तद्गध्रपृष्ठमित्युच्यते । मरणविकल्पसंभवप्रदर्शनमिदम् सर्वत्र कर्तव्यतयोपदिश्यते । भक्तप्रत्याख्यानं, प्रायोपगमनमरणं, इंगिनीमरणं, केवलिमरणं चेति । इत्येतान्येवोत्तमानि पूर्वपुरुषः प्रवतितानि । सप्तदशसुमध्ये त्रीण्युत्तमानि सुमरणानि । प्रायोपगमनं दर्भासने स्थितः स्वयमुपसर्ग न निवारयति, जाऊं, मैं बेदना से संक्लिष्ट होकर दीक्षाका निर्वाह करनेमें समर्थ नहीं हूँ, इन सब काः मेरो रत्नत्रयकी आराधना छटने वाली है"इस प्रकार का जिसे निश्चय हुआ है जिसने अपराधको छिपाने रूप मायाका त्याग कर दिया है, जो चारित्र और दर्शनमें विशुद्धता रखता है, धर्यसे सहित है, ज्ञान ही जिसका सहायक है, और जो निदान से रहित है, अरहन्त भगवान्के समीप आलोचना को प्राप्त कर जिसने अपनी लेश्याको शुद्ध कर लिया है, ऐसा मुनि जो श्वासोच्छवासका निरोध करता है, वह विप्राणस मरण कहलाता है। १३. गृध्रपृष्ठमरण-उपर्युक्त कारण उपस्थित होनेपर शस्त्र ग्रहण करके जो मरण किया जाता है वह गृध्रपृष्ठ मरण है। - इसप्रकार मरणके जितने विकल्प सम्भव होसकते हैं उनका प्रदर्शन किया गया है। अब सर्वत्र करने योग्य मरणोंका उपदेश किया जाता है। भक्त-प्रत्याख्यान, प्रायोपगमन, इङ्गिनीमरण और केवलि-मरण । ये मरण हो उत्तम-मरण हैं तथा पूर्व-पुरुषों के द्वारा प्रवर्तित हैं। १४. भक्त प्रत्याख्यानमरण--एक साथ जीवन पर्यन्तके लिये अथवा क्रम क्रमसे कुछ समयको अवधि लेते हुए आहारका त्याग करके जो समाधिमरण किया जाता है, उसे भक्त-प्रत्याख्यान कहते हैं। उपयुक्त सत्तरह मरणोंमें प्रायोपगमन, इङ्गिनीमरण और केवलि-मरण ये तीन .मरण उत्तम मरण कहलाते हैं। १५. प्रायोपगमन मरण-प्रायोपगमन मरणमें कुशासन पर बैठा हुआ मुनि स्वयं उपसर्गका निवारण नहीं करता है, यदि कोई दूसरा करता है तो करने देता है। १. कृतशुद्धिलेश्य म०। २. केवल म०। *** For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ षट्प्राभूते [ ५.३३ चेत्कोपि निवारयति तदा निवारयितुं ददाति । इंगिनीमरणे निवारयितुमपि न ददाति । केवलिमरणं तीर्थंकरगणघरानगारकेवलिमरणं ज्ञातव्यं । एतन्मरणत्रयं सुमरणं हे जीव ! त्वं भावय । सो णत्थि दव्वसवणो परमाणुपमाणमेत्तओ जिलओ । जत्थ ण जाओ ण मओ तियलोयपमाणिओ सब्बो ॥३३॥ स नास्ति द्रव्यश्रमणः परमाणुप्रमाणमात्रो निलयः । यत्र न जातो न मृतस्त्रिलोकप्रमाणकः सर्वः ||३३|| ( सो णत्थि ) स नास्ति न विद्यते । ( जिलओ ) गृहं स्थानं । कथंभूतो निलय:, ( परमाणुपमाणमेत्तओ ) परमाणु प्रमाणमात्रः अविभागी परमाणुर्यावन्तं प्रदेशं रुणद्धि तन्मात्रोऽपि निलयो नास्ति । स कः प्रदेशः । ( जत्थ ) यंत्र प्रदेशे । ( दव्वसवणो ) द्रव्यदिगम्बर: मिध्यादृष्टिस्तपस्वी । ( ण जाओ ) न जातो नीत्पन्न: । ( ण मओ) न मृतो न मरणं प्राप्तः । स निलयः कियान्, (तिलोमाणिओ ) त्रिभुवनेन मापित: । ( सन्चो ) समस्तोऽपि । C १६. इङ्गिनी मरण - इङ्गिनी मरण में दूसरे को भी निवारण नहीं करने देता । १७. केवल मरण - तीर्थंकर गणधर और अनगार - केवलियों का मरण केवल मरण जानना चाहिये। यह तीन प्रकारका मरण सुमरण है । हे जीव ! तु इन्हीं को भावना कर ||३२|| गाथार्थ - ऐसा परमाणु प्रमाण भी स्थान नहीं है जहाँ द्रव्य-लिङ्गी मुनि न उत्पन्न हुआ हो और न मरा हो । समूचा तीन लोक उसका स्थान है ||३३|| विशेषार्थ - द्रव्य लिङ्गी मुनिका मुनिपद मुक्तिका कारण नहीं है किन्तु संसारका ही कारण है, यह बताते हुए श्री कुन्दकुन्द स्वामी दरशाते हैं कि परमाणुके बराबर भी ऐसा स्थान नहीं है जहाँ द्रव्यलिङ्गी साधुमिथ्यादृष्टि तपस्वी न उत्पन्न हुआ हो और न मरणको प्राप्त हुआ हो, उसका स्थान तो समूचा तोन लोक है अर्थात् तीनों लोकोंमें ऐसा एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ द्रव्यलिङ्गी मुनि न उत्पन्न हुआ हो और न मरा हो ॥ ३३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.३४ ] भावप्राभृतम् कालमणंतं जीवो जम्मजरामरणपीडिओ दुक्खं । जिणलगेण वि पत्तो परंपराभावरहिण ॥ ३४॥ कालमनन्तं जीवः जन्मजरामरणपीडितः दुःखम् । जिनलिङ्गेन अपि प्राप्तः परम्पराभावरहितेन ||३४|| ( कालमणं तं जीवो) कालं समयमनेहसमिति यावत्, अनन्तमन्तरहितं कर्मतापन्नं जीव आत्मा दुःखं प्राप्त इति क्रियाकारकसम्बन्धः । कालाध्वदेशभावानां कर्मसंज्ञा सिद्धैव वर्तते । कथंभूतो जीवः, ( जम्मजरामरणपीडिओ ) जन्मजरामरणपीडितः चम्पितः । ( जिणलिंगेण वि ) अर्हद्रूपविशिष्टोऽपि । अपि शब्दादविशिष्टोपि कथंभूतेन जिनलिंगेन ( परम्पराभावरहिएण ) परम्परा आचार्य - प्रवाहस्तदुपदिष्टं शास्त्रं च परम्परा शब्देन लभ्यते तत्र भावरहितेन प्रतोतिवर्जितेन २८५ गाथार्थ - इस जीवने जिनलिङ्ग भी धारण किया परन्तु आचार्यप्रवाहके द्वारा उपदिष्ट तत्व अथवा शास्त्र की प्रीति से रहित होकर धारण किया इसलिये अनन्त काल तक जन्म जरा और मरणसे पीडित होता हुआ यह दुःखको प्राप्त हुआ है ॥ ३४ ॥ विशेषार्थ - इस जीववे यद्यपि अनन्तवार जिनलिङ्ग भी धारण किया है - नग्न दिगम्बर मुद्रा रखकर घोर तपश्चरण भी किया है तथापि उसने वह जिनलिङ्ग परम्परा भावसे रहित होकर धारण किया । परम्पराका अर्थ आचार्य प्रवाह है। आचार्य प्रवाहने जो उपदेश दिया है वह तथा उनकी आम्नायमें जो शास्त्र लिखे गये हैं वे सब परम्परा शब्द से व्यवहृत होते हैं उस परम्परामें भाव अर्थात् प्रतीति-- दृढ़ श्रद्धासे रहित होकर इसने जिर्नालिङ्ग धारण किया है, अतः जिनलिङ्ग धारण करके भी अनन्तकाल तक जन्मजरा और मरणसे पीड़ित होकर इसने दुःख प्राप्त किया है। जब जिन लिङ्ग धारण करके भी दुःख प्राप्त किया तब बिना जिनलिङ्ग धारण किये दुःख प्राप्त करनेकी तो बात ही क्या है ? काल, मार्ग देश और भाव-वाचक शब्दोंकी कर्म संज्ञा व्याकरणसे सिद्ध है अतः ‘अणतं काल' यहाँ अत्यन्त संयोग अर्थ में कालशब्द की कर्मसंज्ञा हुई है और उसी कारण उसमें द्वितीया विभक्तिका प्रयोग हुआ है । प्रश्न – वह परम्परा क्या है ? समाधान — इस अवसर्पिणी युगके तृतीय कालके अन्तमें श्री भगवान् वृषभनाथने अर्थ रूपसे शास्त्रका उपदेश दिया था और वृषभसेन गणधर ने For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ षनाभृते [५. ३४मिथ्यादृष्टिना जीवेनेत्यर्थः । कासी परंपरा ? अस्यामवसपिण्यां तृतीयकालप्रान्ते श्रीवृषभनाथेनार्थशास्त्रमुक्त, वृषभसेनगणधरेण ग्रन्थः कृतः, तत्परम्परया वीरेण भगवतार्थः प्रकाशितः गौतमेन गणिना ग्रन्थितः, तदनुक्रमेण पंचमकाले प्रमाणभूनिरम्बराचार्यरारातीयरुपदिष्टं तच्छास्त्रं प्रमाणीकर्तव्यं विसंघादिभिमिथ्यादृष्टिभिः कृतं शास्त्र न प्रमाणनीयं । अथ के ते आचार्या यैः कृतं शास्त्र प्रमाणीक्रियते इत्याह श्रीभद्रबाहुः श्रीचन्द्रो जिनचन्द्रो महामतिः। . गृध्रपिच्छगुरुः श्रीमाल्लोहाचार्यों जितेन्द्रियः ॥१॥ एलाचार्यः पूज्यपादः सिंहनन्दी महाकविः। वीरसेनो जिनसेनो गुणनन्दी महातपाः ॥२॥ समन्तभद्रः श्रीकुभः शिवकोटिः शिवकरः । ., शिवायनो विष्णुसेनो गुणभद्रो गुणाधिकः ॥३॥ अकलको महाप्राज्ञः सोमदेवो विदांवरः । प्रभाचंद्रो नेमिचन्द्र इत्यादिमुनिसत्तमैः ॥४॥ यच्छास्त्रं रचितं नूनं तदेवाऽदेयमन्यकैः । विसंघ रचितं नैव प्रमाणं साध्वपि स्फुटं ॥५॥ उसे ग्रन्थरूपसे परिणत किया था, उसी परम्परामें भगवान् महावीरने अर्थका प्रकाश किया और गौतम गणधरने उसे ग्रन्थ रूपमें परिणत किया अर्थात् द्वादशाङ्ग की रचना की। उसी अनुक्रमसे पञ्चम कालमें प्रामाणभूत दिगम्बर आचार्योंने उपदेश दिया है सो उन्हीं आचार्योंके द्वारा उपदिष्ट शास्त्र को ही प्रमाण मानना चाहिये । मूलसंघको विघटित करके विरुद्ध अथवा विविध संघोंकी स्थापना करने वाले मिथ्यादृष्टि लोगोंके द्वारा रचित शास्त्रको प्रमाण नहीं मानना चाहिये। अब वे आचार्य कौन हैं ? जिनके द्वारा रचित शास्त्र प्रमाण किये जाते हैं ? इसका उत्तर देते हुए कुछ आचार्यों नाम प्रकट किये जाते हैं। श्रीभद्रबाहु-श्रीभद्रबाहु, श्रीचन्द्र, जिनचन्द्र, महामति, गृद्धपिच्छगुरु, इन्द्रियोंको जीतनेवाले लोहाचार्य, एलाचार्य, पूज्यपाद, महाकवि सिंहनन्दी, वीरसेन, जिनसेन, महातपस्वी गुणनन्दी, समन्तभद्र, श्रीकुम्भ, कल्याणकारी शिवकोटि, शिवायन, विष्णुसेन, अधिक गुणोंके धारक गुणभद्र, महाबुद्धिमान् अकलह, विद्वानोंमें श्रेष्ठ सोमदेव, प्रभाचन्द्र बोर For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ -५.३५ ] भावप्राभृतम् पडिदेससमयपुग्गलआउगपरिणामणामकालटुं । गहिउमियाई बहुसो अणंतभवसायरे जीव ॥३५॥ - प्रतिदेशसमयपुद्गलायुपरिणामनामकालस्थम् । ___ गृहीतोज्झितानि बहुशः अनन्तभवसागरे जीव ॥३५॥ (पडिदेस ) यावन्तः प्रदेशा लोकाकाशस्य वर्तन्ते एककं प्रदेशं प्रति शरीराणोति पूर्वोक्तमेव ग्राह्य गृहतोज्झितानि । तथा (सम्यपुग्गल) प्रतिसमय-समयं समयं नेमिचन्द्र' इत्यादि श्रेष्ठमुनियोंने जो शास्त्र रचे हैं यथार्थमें वे ही शास्त्र ग्रहण करने योग्य हैं। अन्य विविध अथवा विरुद्ध संघवालोंके द्वारा रचित शास्त्र ठीक होनेपर भो प्रमाण नहीं मानना चाहिये ॥ १-५ ॥ ___ गाथार्य-हे जीव ! तूने भाव-लिङ्गके बिना अनन्त संसार सागरमें प्रत्येक देश, प्रत्येक समय, प्रत्येक पुद्गल, प्रत्येक आयु, प्रत्येक परिणाम, १. यहां आचार्योकी जो नामावली दी है उसमें काल-क्रमकी अपेक्षा नहीं की गई : है तथा अन्य जिन प्रामाणिक आचार्योंके नाम रह गये हैं उनका 'इत्यादि मुनिसत्तमः' पदमें दिए हुए इत्यादि पदसे संकलन जानना चाहिये। २. ३४ वीं गायाका भाव पं० जयचन्द्रजोने अपनी भाषा वचनिकामें इसप्रकार स्पष्ट किया है अर्थ-यह जीव या संसार विर्षे जामें परम्परा भावलिङ्ग न भया संता अनन्तकाल पर्यन्त जन्मजरा मरण कर पीडित दुःख ही कू प्राप्त भया । ___भावार्थ-द्रव्यालङ्ग धारया अर तामैं परम्परा करि भी भाव लिङ्गकी प्राप्ति न भई यात द्रव्यलिङ्ग निष्फल गया, मुक्तिकी प्राप्ति नहीं भई, संसार ही मैं भ्रम्या। यहाँ आशय ऐसा जो द्रव्यलिङ्ग है सो भावलिङ्गका साधन है परन्तु काललब्धि बिना द्रव्यलिङ्ग धारे भी भावलिङ्गकी प्राप्ति न होय यातें द्रव्यलिङ्ग निष्फल जाय है ऐसे मोक्षमार्ग प्रधानकरि भावलिंग ही है। यहाँ कोई कहै है ऐसें है तो द्रव्यलिंग पहले काहे . धारणा ? तापू कहिये ऐसे मानें तो व्यवहारका लोप होय है तातें ऐसें मानना जो द्रव्यलिंग पहले पारघा, ऐसा न जानना जो थाही ते सिद्धि है, भावलिंग फू प्रधान मानि . तिसकं सन्मुख उपयोग राखनां, द्रव्यलिंग फू यत्न त साधना, ऐसा श्रदान भला है ॥ ३४॥ For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ षट्प्राभृते [५.३५प्रति प्रतिसमयं शरीराणि गृहीतोमितानि । प्रतिपुद्गलं प्रतिपरमाणु-परमाणु परमाणु प्रति प्रतिपरमाणु अनन्तानि शरीराणि गृहीतोज्झितानि । (आउगं) प्रत्यायु आयुः आयुः प्रति प्रत्यायुः अनन्तानि शरीराणि गृहीतोमितानि । (परिणाम ) परिणामं परिणाम प्रति प्रतिपरिणामं क्रोधमानमायालोभमोहरागद्वेषादिपरिणामान् प्रति प्रतिपरिणाम अनन्तानि शरीराणि गृहीतोज्झितानि । (णाम) . नाम नाम प्रति प्रतिनामं नपुंसकं चेति वचनाद्वाऽदन्तो निपातः, यावन्ति नामानि गतिजात्यादीनि वर्तन्ते तावन्ति प्रति अनन्तानि शरीराणि गृहीतोज्झितानि । ( कालटुं) प्रतिकालस्थं उत्सपिण्यवसर्पिणीकालस्थं यथा भवत्येवं तत्समयांश्च प्रति प्रतिकालस्थं अनन्तानि शरीराणि गृहीतोमितानि ( गहिउज्झियाइ बहुसो) गृहीतोज्झितानि बहुशोऽनन्तवारान् । ( अणंतभवसायरे जीव ) अनन्तभवसागरेनन्तानन्तसंसारसमुद्रे हे जोव ! हे आत्मन्निति । जिनसम्यक्त्वं विनेति भावार्थः । जिनसम्यक्त्वभावेन त्वनन्तसंसार उच्छिद्यते स्तोककालेन मुक्तो भवति । प्रत्येक नामकर्म और प्रत्येक काल में स्थित हो अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं ।। ३५ ॥ विशेषार्थ हे आत्मन् ! सम्यक्त्वरूप भावलिङ्गके विना तूने लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं, एक एक कर उन सब प्रदेशों पर स्थित होकर अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं । प्रत्येक समयमें तूने अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं। पुद्गलके प्रत्येक परमाणु पर स्थित हो तूने अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं। प्रत्येक आयुमें तूने अनन्त शरीर धारण कर छोड़े हैं अर्थात् जघन्य आयुसे लेकर उत्कृष्ट आय तक आयुके जितने विकल्प हैं उन सबमें उत्पन्न होकर तूने अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष आदि समस्त परिणामोंकी अपेक्षा तूने अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं । गति जाति आदि नाम कर्मके जितने विकल्प हैं उन सबकी अपेक्षा तुने अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं। और उत्सपिणो तथा अवसर्पिणी कालमें स्थित हो उसके प्रत्येक समयकी अपेक्षा तूने अनन्त शरीर धारण किये तथा छोड़े हैं। इस तरह अनन्तानन्त संसार सागर के बीच हे जोव! तूने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पांच परिवर्तनोंको अनन्तवार पूरा किया है। तेरे इस परिभ्रमणका कारण जिन-सम्यक्त्वका अभाव रहा है । जिनसम्यक्त्वरूप भावके द्वारा अनन्त संसारका छेद हो जाता है तथा अल्प कालमें जीव मुक्त हो जाता है॥३५॥ For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ -५. ३६] भावप्रामृतम् तेयाला तिण्णिसया रज्जूणं लोयखेत्तपरिमाणं । मुत्तूणटुपएसा जत्थ ढुरुदल्लिओ जीवो ॥३६॥ त्रिचत्वारिंशत्त्रीणि शतानि रज्जूनां लोकक्षेत्रपरिमाणं । मुक्त्वाऽष्टौ प्रदेशान् यत्र न भ्रमितः जीवः ॥३६।। ( तेयाला तिण्णि सया रज्जूणं ) त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशतरज्जूघनाकाररज्जूनां च ( लोयकवेत्तपरिमाणं) लोकक्षेत्रपरिमाणं भवति ( मुत्तूणटुपएसा ) मुक्त्वाऽष्टौ प्रदेशान् मेरुकंदे गोस्तनाकारण येऽष्टप्रदेशा वर्तन्ते तन्मध्ये जीवो नोत्तन्नो न मृतः अन्यत्र सर्वत्र जातो मृतश्चार्य जीवः । तेऽष्टौ प्रदेशा निजात्मशरीरमध्ये गाथार्थ-तीनसौ तेतालीस राज लोक क्षेत्रका परिमाण है। इसके आठ मध्य प्रदेशों को छोड़ कर, ऐसा कोई प्रदेश नहीं जिसमें यह जीव नहीं घूमा हो ॥३६॥ विशेषार्थ-यह लोक चौदह राजु ऊँवा है। लोकके नोचे पूर्व से पश्चिम तक सात राजु चौड़ा है, फिर क्रमसे घटता घटना मध्य लोके यहाँ एक राजु चौड़ा है, फिर क्रमसे बढ़ता बढ़ता पांचवं ब्रह्मस्वर्ग के यहां पाँच राजु चौड़ा है, फिर क्रमसे घटता घटता अन्तमें एक राजु चौडा है। उत्तरसे दक्षिण तक सब जगह सात राजु विस्तार वाला है। इन सब का क्षेत्रफल निकालने पर सम्पूर्ण लोकका क्षेत्र तीन सौ तेतालोस घन गजु प्रमाण होता है । मेरु पर्वत की जड़में गोस्तनके आकार लोकके जा आठ मध्य प्रदेश हैं उनमें यह जीव न उत्पन्न हुआ है और न मग है, शेष सब जगह उत्पन्न हुआ तथा मरा है। उन आठ प्रदेशोंका इस ज वने अपने शरीरके मध्य ग्रहण तो किया है परन्तु उनमें उत्पन्न नहीं हुआ ऐसा वद्धजनों का कथन है। इस तरह गाथाका अर्थ इस प्रकार होता है कि १. अत्र 'च' शब्दोऽधिकः प्रतिभाति । २. जीवके सर्व जघन्य शरीरको अवगाहना धनांगुलके असंख्येय भाग प्रमाण होती है। यह अवगाहना लोकके आठ मध्यप्रदेशों से बहुत बड़ी होती है इसलिये उनमें समूचे जीवकी न उत्पत्ति हो सकती है और न मरण हो सकता है किन्तु क्षेत्र परिवर्तन को पूरा करते समय जीव उन आठ मध्यप्रदेशोंको अपने शरीरके मध्य प्रदेश बनाकर अनन्त बार उत्पन्न हुआ तथा मरा है। श्रीकुन्दकुन्दस्वामी ने इस गाथामें -मुत्तणठ्ठपएसा'-आठ प्रदेशोंको छोड़कर अन्यत्र सब जगह भ्रमण करनेकी बात लिखी है परन्तु उन्हीं कुन्दकुन्द For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० षट्प्राभृते [ ५.३७ गृहीतास्तन्मध्ये नोत्पन्न इति वृद्धा । ( जत्थ ण बुरुहुल्लिओ जीवो) यत्रात्मा न पर्यटितः स कोऽपि प्रदेशो नास्ति । " पर परी बुस तुम कुम् गुम् भुम झंप रुंट तलयंट भमाड भमड भम्मड चक्कम्म ढंढल्ल ढुढुल्ल टिरिटिल्ल ढुरुदुल्लभ्रमेः” इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण भ्रमधातोः दुरुदुल इत्यादेशः । घनपालकृतदेशीलक्ष्म्यां तु "घालिय 'बुल्लियाइ भमियत्थे " सूत्रं । एक्क्कंगुलिवाही छष्णवदी होंति जाणमणुयाणं । अवसेसे य सरीरे रोया भण कित्तिया' भणिया ॥ ३७॥ तीन सौ तेतालीस घनराजु प्रमाण लोकक्षेत्र में आठ प्रदेशोंको छोड़कर ऐसा एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ इस जीवने भ्रमण न किया हो । 'दुरुदुल्लिओ' यहाँ पर 'पर परी ढुस ढुम' - आदि प्राकृत व्याकरण सूत्रके द्वारा भ्रम धातुके स्थान में 'दुरु दुल्ल' आदेश हो गया है परन्तु धनपाल कृत देशी लक्ष्मी में घोलिय ढुंढुलियाइ भमियत्थे' यह सूत्र है || ३६॥ गाथार्थ - हे जीव ! मनुष्योंके एक एक अंगुल में छियानवें रोग होते हैं फिर समस्त शरीर में कितने रोग कहे गये हैं सो कह ।। ३७ ।। स्वामी ने वारसपेक्खा की संसार भावना में निम्नलिखित गाथा द्वारा समस्त लोकक्षेत्र में भ्रमण करनेका निरूपण किया है सम्वम्हि लोयखेत्ते कमसो तण्णत्थि जण्ण उप्पणं । उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारे ||३६|| अर्थ - समस्त लोक क्षेत्रमें वह स्थान नहीं है जहाँ यह जीव क्रमसे उत्पन्न न हुआ हो । अपनी अवगाहन के द्वारा इस जीवने क्षेत्रमें अनेकबार भ्रमण किया है । यही गाथा श्री पूज्यपाद स्वामीने सर्वार्थसिद्धिमें भी ज्यों की त्यों उद्धृतकी है तथा लिखा है कि यह जीव लोकके आठ मध्य प्रदेशोंको अपने शरीरके मध्य प्रदेश करके उतनी बार उत्पन्न होता है जितने कि घनांगुलके असंख्येयभाग प्रमाण अवगाहना के प्रदेश होते हैं । संस्कृत टीकाकार श्री श्रुतसागर सूरिने दोनों कथनोंकी संगति बैठाने का प्रयत्न किया है। १. पंचैव य कोडीयो तह चेव अडसट्ठिलक्खाणि । णवणउदि च सहस्सा पचसया होंति चुलसीदी || • अर्थ - समस्त शरीर में पांच करोड़ अठसठ लाख निन्यानवें हजार पांचसी चौरासी रोग हैं। For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.३८ ] भावप्राभृतम् २९१ एकैकाङ गुलौ व्याधयः षण्णवतिः भवन्ति जानाहि मनुष्यानाम् । अवशेषे च शरीरे रोगा भण कियन्तो भणिताः ||३७|| णवदी होंत जाण ( एक्केक्कं गुलिवाही ) एकंकांगुली व्याघयो रोगाः । माणं ) षण्णवतिर्भवन्ति हे जीव ! त्वं जानीहि मनुजानां मनुष्याणां शरीरे । ( अवसेसे य सरीरे ) अवशेषे च शरीरे एकाङगुले रुद्धरितादवशिष्टे शरीरे । ( रोया भण - कित्तिया भणिया ) रोगा व्याधयस्त्वं भण कथय कियन्तो भणिता इति । ते रोया विय सयला सहिया ते परवसेण पुव्वभवे । एवं सहसि महाजस किंवा बहुएहि लविएहि ॥ ३८ ॥ तेरोगा अपि च सकलाः सोढा त्वया परवशेन पूर्वभवे । एवं सहसे महायशः ! कि वा बहुभिः लपितैः ॥ ( ते रोया वि य सयला. ) ते रोगाः सकला अपि सर्वेऽपि । ( सहिया ते परवसेण पुन्वभवे ) सोढास्त्वया परवशेन कर्माधीनतया पूर्वभवे पूर्वजन्मान्तरसमूदे । ( एवं सहसि महाजस ) एवममुनाप्रकारेण त्वं सहसेऽनुभवसि हे महायशः ! | ( कि वा बहुए हि लविएहि ) कि वा बहुभिर्लपितैर्जल्पितैः । विशेषार्थ - हे आत्मन् ! मनुष्योंका शरीर रोगोंका घर है उसके एक एक अंगुल में छियानवे छियानवे रोग होते हैं, तब समस्त शरीरमें कितने रोग होंगे, इसका अनुमान तू स्वयं लगा ||३७|| गाथार्थ - हे महायशस्वी मुनि ! तूने वे होकर सहन किये हैं और इसी प्रकार इस • कहने से क्या लाभ है ॥ ३८ ॥ सब रोग पर भवमें पर-वश समय भी सह रहा है, अधिक विशेषार्थ - यहाँ आचार्य इस जीवको 'महाजस' - महायशके धारक पद से सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे जीव ! तू तो महायशका धारक आदि गुणोंका धारक है फिर क्यों कर्मके चक्र में फँस रहा है। पूर्व भवमें तूने कर्मों के अधीन हो पूर्वोक्त अनेक रोगोंको सहन किया है और वर्तमानमें भी सहन कर रहा है। अधिक क्या कहें ? इतना निश्चय कर कि यदि भावकी ओर दृष्टि न दो सुःखोंको सहन करना पड़ेगा ।। ३८ ॥ तो इसी तरह भविष्य में भी अनेक For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभूते [५.३९पित्तंतमत्तफेफसकालिज्जयरहिरखरिस किमिजाले।। उयरे वसिओसि चिरं नवदसमासेहिं पत्तेहिं ॥३९॥ पित्तात्रन्मूत्रफेफसयकृद्रुधिरखरिसकृमिजाले । उदरे वसितोसि चिरं नवदशमासैः पूर्णैः ॥ ३९ ॥ .. (पित्तं ) च मायुः । अत्राणि च परीतंति । ( मूत्रं ) च प्रनावः । (फेफसश्च ) प्लीहा । ( कालिज्जय ) यकृत् “उदर्यो जलाधारो हृदयस्य दक्षिणे यकृत् कालखण्डं क्लोम वामे प्लीहा 'पुष्पसश्चेति" वैद्याः । वरहल इति देश्यां । ( रुहिर ) रुधिरं च । ( खरिस ) खरिसश्च, अपक्वविटमिश्ररुधिरश्लेष्मा खरिसः कथ्यते । खउरिय इति देश्यात् । ( किमि ) कृमयश्च द्वीन्द्रिया जोवास्तेषां (जालं ) समूहो यत्रोदरे तत् पित्तान्त्रमूत्रपुष्पसकालियकरुधिर खरिसयकृमिजालं तस्मिन् । ( उयरे वसिओसि चिरं ) उदरे कुक्षिमध्ये उषितोऽसि निवासं कृतवानसि त्वं चिरं दीर्घकालं, अनन्तगर्भग्रहणापेक्षया चिरमिति विशेषणं । ( नवदसमासेहिं पत्तेहिं ) नवभिर्दशभिर्वा मासः प्राप्तैः परिपूर्णतः तन्मध्ये तदुपरि च कियान् कालो लभ्यते प्राप्तशब्देनेति । गाथार्य-पित्त, आंत, मूत्र, प्लीहा, यकृत्, रुधिर, खरिस और कृमिके समूहसे युक्त माताके उदर में तूने पूरे नौ दस मास चिरकाल तक निवास किया है ॥ ३९ ॥ विशेषार्थ-पित्त, आँत और मूत्रका अर्थ प्रसिद्ध है । फेफस प्लोहाको कहते हैं। यकृत् लीवर को कहते हैं यह पेटमें जलका आधार है तथा हृदयके दाहिनी ओर होता है, इसे यकृत, कालखण्ड अथवा क्लोम कहते हैं । हृदय के बांई ओर जो जलाधार है उसे प्लोहा अथवा पुष्पस कहते हैं, ऐसा वैद्योंका कहना है। देशी शब्दोंमें उसे 'वरहल' कहते हैं ( कहीं कहीं तिल्ली या वाउट भी कहते हैं ) अपक्व मलसे मिला हुआ रुधिर और कफ का जो समूह है उसे खरिस कहते हैं। देशी शब्दोंमें इसे 'खउरिय' कहते हैं ( कहीं कहीं आंव भी कहते हैं ) सूक्ष्म लटके आकार दो इन्द्रिय धोवोंको कृमि कहते हैं। इन सबसे भरे हुए माताके पेटमें इस जोवने चिरकाल तक निवास किया है अर्थात् अनन्तवार गर्भ धारण कर नौ नौ दश दश मास तक माताके गर्भमें निवास किया है इसलिये हे मुनि ! यदि गर्भवासके इन दुःखोंसे बचना चाहता है तो भावलिङ्ग को धारण · कर ॥ ३९॥ १. पुषस् क० । दुष्प० ख०। For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४० ] भावप्राभृतम् दियसंगट्टियमसणं आहारियं मायभुत्तमण्णंते । छद्दिखरिसाण मज्झे जठरे वसिओसि जणणीए ॥ ४०॥ द्विजसङ्गस्थित मशनमाहृत्य मातृभुक्तमन्नान्ते । छदिखरिसयोमध्ये जठरे उषितोषि जनन्याः ॥ ४० ॥ हे जीव ! त्वं जनन्या मातु: । ( जठरे ) उदरे ( वसिओसि ) उषितोऽसि निवासं चकर्थं । कथंभूते जठरे, ( छद्दिखरिसाणमज्झे ) छर्दिश्च वान्तमन्नं, खरि - सश्च अपक्वं दर्दर मलं रुधिरलिप्तं तेषां छद्दिखरिसाणं तयोः छर्दिखरिसयो मध्ये मध्यविशिष्टे । अथवा जठरे उषितोऽसि कुत्रोषितोऽसि छर्दिखरिसयोर्मध्ये त्वमुषितोऽसि । किं कृत्वापूर्व, ( असणं आहारियं ) अशनं भोजनं आहृत्य आहार कृत्वा । कथंभूतमशनं, ( दियसंगट्टियं ) द्विजानां दन्तानां अस्थ्यङ्कुराणां संगे स्थितं चर्वणवेलायां मातृमुखे दन्तानां समीपे स्थितं अस्थिभिः स्पृष्टं उच्छि ष्टीकृतं । क्व उषितोऽसि ( मायभुत्तमण्णंते ) यन्मात्रा भुक्तं तस्यान्नस्यान्ते मध्ये उषितोऽसि । अथवा मात्रन्नं भुक्तं भुक्तं तेत्वया । तथा चोक्तं " 1 २९३ गार्थ हे जीव ! तू माताके उदरमें उसके द्वारा खाये हुए अन्न मध्य तथा वमन और अपक्व मलके बीच निवास किया है और माताके द्वारा खाये तथा उसके दांतोंके संगसे दले हुए भोजन को ग्रहण किया ॥ ४० ॥ विशेषार्थ - हे जीव ! भाव - लिङ्गके बिना गर्भवासके दुःख उठाते हुए तूने माता के उदरमें निवास किया है वह भी वमन तथा आमाशय अथवा माता के द्वारा खाये हुए अन्नके मध्य निवास किया है और चबाते समय माता के दाँतों के संग में स्थित अर्थात् दान्तोंसे छूकर जूठे हुए आहारको ग्रहण किया है । अथवा 'मायन्नं भुत्तं ते ' ऐसा भी पाठ है उसका अर्थ होता है कि इस जीवने माताके द्वारा खाया हुआ तथा उसके दाँतोंसे चर्वित जूठा अन्न ही खाया है। जैसा कि कहा गया है प्राणी ! तूने कर्मो के अधीन हो चिरकाल तक माताके उदरमें स्थित मलके मध्य निवास किया है । वहाँ भूख प्यास से पीड़ित होकर बड़ी तृष्णासे तूने मुख विवर में भीतर पड़ते हुए अन्नकी इच्छा की है। गर्भाशय में सिकुड़े रहने के कारण तू निश्चेष्ट रहा है तथा कृमि - कुलके साथ सूने निवास किया है। इस तरह जन्म के समय जो क्लेश उठाना पड़ता है उससे भयभीत होकर ही तू जन्मके कारणभूत मरणसे डरता है। For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नामृते [५.४१'अन्तर्वान्तं वदनविवरे क्षुत्तृषातः प्रतीच्छन् . कर्मायत्तः सुचिरमुदरावस्करे वृद्धगृदया। निष्पन्दात्मा कृमिसहचरो जन्मनि क्लेशभीतो मन्ये जन्मिन्नपि च मरणातन्निमित्ताद्विभेषि ॥१॥ सिसुकाले य अयाणे असुईममम्मि लोलिओसि तुमं । असुई असिया बहुसो मुणिवर बालत्तपत्तेण ॥४१॥ शिशुकाले च अज्ञाने अशुचिमध्ये लुठितोसि त्वम् । अशुचिः अशिता बहुशः मुनिवर ! बालत्वप्राप्तेन ॥४१॥ (सिसुकाले य अयाणे ) गर्भरूपकाले स्तनन्धयावसरेऽशाने निर्विवेके । ( असुईमजाम्मि लोलिओसि तुम ) अशुचिमध्ये गूथमध्ये लोलितो लुठितस्त्वं भवान् । (असुई असिया बहुसो ) अशुचिविष्टा अमेध्यमशिता भक्षिता बहुशोऽनेकवारान् । (मुणिवर बालतपत्तेण ) हे मुनिवर ! यतिवराणां शानिनां मध्ये श्रेष्ठ ! परम प्रशस्य बालत्वप्राप्तेन अव्यक्तबालत्वं गतेन । तथा चोक्त भावार्थ-यह जीव मरणसे इसीलिये डरता है कि मरनेके बाद फिर जन्म धारण करना पड़ेगा और उसके भारी दुःख सहन करने पड़ेंगे ॥४०॥ गावार्य हे मुनिवर! तू ज्ञान-रहित शिशुकालमें विष्ठा आदि अपवित्र वस्तुओं के मध्य लेटा है तथा उसी बाल्य-अवस्था की प्राप्तिके कारण तूने अनेक बार अशुचि वस्तुका भक्षण किया है ॥४१॥ विशेषार्थ-बालककी स्तनन्धय-दूध पीनेके अवस्थाको शिशुकाल कहते हैं । उस समय इसे पवित्र तथा अपवित्रका कुछ भी ज्ञान नहीं रहता है । उस दशामें यदि बालक अशुचि करलेता है और माता पिता आदि इष्ट जन नहीं देख पाते हैं तो वह उसी अशुचि पदार्थसे लिप्त पड़ा रहता है इतना ही नहीं कदाचित् उस अशुचि का भक्षण भी करलेता है । हे मुनिवर ! हे यतियों-ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ परम प्रशंसनीय! साधो ! बाल्यअवस्थाके प्रसङ्गसे यह सब तुमने किया है। अथवा बालत्व-मिथ्यादर्शन से.युक्त द्रव्य लिङ्गके प्राप्त होनेसे यह सब दशा तुमने भोगी है। जैसा कि कहा है १. पालानुसासने गुणमास्य। For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.४२] भावप्रामृतम् 'बाल्ये वेत्सि न किंचिदप्यपरिपूर्णाङ्गो हितं वाहित । कामान्धः खलु कामिनीद्रुमधने भ्राम्यन् वने यौवने । मध्ये बुद्धतृषाजितु वसु पशुः क्लिश्नासिं कृष्यादिभि वर्षियेऽमृतः क्व जन्मफलिते धर्मो भवेन्निर्मलः ॥१॥ मंसद्विसुक्कसोणियपित्तंतसवत्तकुणिमदुग्गंधं । खरिसवसपूयखिन्भिसभरियं चितेहि देहउडं ॥४२॥ मांसास्थिशुक्रशोणितपित्तान्त्रस्रवत्कुणि मदुर्गन्धम् । खरिसवसापूकिल्बिषभरितं चिन्तय देहकुटम् ॥४२॥ हे जीव ! शुद्धबुद्ध कस्वभाव आत्मन् ! त्वं ( देहउड ) कायकुटं शरीरघटं । (चितेहि ) चिन्तय विचारयं पर्यालोचयस्व । कथंभूतं देहकुटं, मसेत्यादि मांसं च पिशितं, अस्थीनि च हड्डानि, शुक्रं च सप्तमो घातुः बीजं वीयं चेति मावत्, शोणितं रुधिरं रक्त लोहितमिति यावत्, पित्तं च उष्णविकारो मायुरिति, अत्राणि च पुरीतंति, एतः स्रवद्गलत् ( कुणिमं ) शटितमृतकं तद्वदुर्गन्धमसुरभि । पुनः कथंभूतं देहकुटं स्वं चिन्तय, खरिसश्च अपक्वमलरुधिरमिश्रितं द्रव्यं । वसा च बाल्ये हे जीव ! बाल्य-अवस्थामें अङ्गोंकी पूर्णता न होनेसे तू हित और अहितको कुछ भी नहीं जानता है। यौवन अवस्थामें कामसे अन्धा होकर स्त्रीरूप वृक्षोंसे सघन वनमें भ्रमण करता है । मध्यअवस्थामें बढ़ीहुई तृष्णासे धन-उपार्जन करनेके लिये पशुकी तरह अज्ञानी हो खेती आदिके द्वारा क्लेश उठाता है और बुढ़ापेमें अर्धमृतकके समान होजाता है फिर तेरा जन्म सफल हो तो कहाँ हो ? और तेरा धर्म निर्मल हो तो कहाँ हो ॥४१॥ . गायार्थ हे जीव ! तू ऐसा चिन्तन कर कि यह शरीर रूपी घड़ा मांस, हड्डी, वीर्य, रुधिर, पित्त और आंतोंसे निकलती हुई सड़े मुरदे की भाँति दुर्गन्धसे युक्त है तथा खरिस, चर्वी, पोप और विष्ठा आदि वस्तुओंसे भरा हुआ है ॥४२॥ विशेषार्थ-हे जीव ! हे शुद्ध बुद्ध एक स्वभावके धारक आत्मन् ! तेरा यह शरीर रूपी घट कैसा है ? थोड़ा इसका चिन्तवन तो कर । यह मांस हड्डी वीर्य रुधिर, पित्त और आँतों से झरती हुई सड़े मुरदे जैसी १. वात्मानुसासने मुगभास्य । For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ षट्प्राभूते [ ५. ४३ वपा भेद इति यावत् शुद्धमांसस्वेद इत्यर्थः । पूयं च विनष्टरुधिरं । पूइ इति पाठेऽपवित्रं । किल्विषं च कश्मलं एतैर्भरितं पूरितं । भावविमुत्तो मुत्तो ण य मुत्तो वंधवाइमितेण । इय भाविऊण उज्झसु गंधं अब्भंतरं धीर ॥४३॥ भावविमुक्तो मुक्तः न च मुक्तः बान्धवादिमित्रेण । इति भावयित्वा उज्झय गन्धमभ्यतरं धीर ॥४ ॥ " ( भावविमुक्तो मुत्तो ) बान्धवादीनां प्रेमलक्षणेन भावेन विमुक्तो रहितो मुनिविमुक्तः कथ्यते । ( ण य मुक्तो बन्धवाइमित्तेण ) न च नैव मुक्तो यतिरुच्यते कीदृश: ? बान्धवादिकुटुम्बेन मुक्तस्त्यक्तो मुक्त उच्यते बान्धवादिमात्रेण मुक्तो मुनिर्नाच्यते किं तर्हि उच्यते गृहस्थ एवोच्यते इति भावार्थ: । ( इय भावि ऊण उज्झसु ) इतीदृशमर्थं भावयित्वा सम्यग्विचार्य उज्झसु - परित्यज परिहर । कं ( गंध अब्भंतरं धीर) गन्धं परिमलं वासनां भावनां । कथंभूतं गन्धं, अभ्यन्तरं मनसि स्थितं बान्धवादिस्नेहं । हे घीर ! हे योगीश्वर ! ध्येयं प्रति धियं बुद्धिमीरयति प्रेरयतीति धीर इति व्युत्पत्तेः । दुर्गन्ध से युक्त है तथा खरिस - अपक्वमल और रुधिरसे मिश्रित द्रव्य - आँव, चर्वी, पू- बिगड़ा खून- पीप और कश्मल विष्टा आदि पदार्थोंसे भरा हुआ है । ऐसे घृणित शरीरको प्राप्ति भावको पहिचान न होनेसे ही हुई है || २ || गाथार्थ -- जो मुनि भावसे मुक्त है वही मुक्त कहलाता है, बान्धवादि इष्टजनों से मुक्त 'मुक्त' नहीं कहलाता, ऐसा विचार कर हे योगोश्वर ! तू आभ्यन्तर गन्ध-स्नेह को छोड़ ||४३|| विशेषार्थ - ध्येयके प्रति जो धी- बुद्धिको प्रेरित करे वह धीर है, इस व्युत्पत्तिसे धोरका अर्थं योगीश्वर होता है। योगीश्वरको सम्बोधित करते हुए आचार्य कहते हैं कि अहो योगीश्वर ! जो मुनि बान्धव आदि कुटुम्बी जनोंके प्रेमरूप भावसे छूटा है. यथार्थ में वही छूटा हुआ कहलाता है, मात्र बान्धव आदि कुटुम्बी जनोंसे छूटा मुनि, छूटा नहीं कहलाता है किन्तु गृहस्थ ही कहलाता है । इस अर्थका अच्छी तरह विचार कर, तू आभ्यन्तर गन्धको - मन में स्थित बान्धवादिके सम्बन्ध अथवा स्नेहको छोड़ ॥ ४३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.४४ ] भावप्राभृतम् देहाविचत्तसङ्गो माणकसाएण कलुसिओ धीर । अत्तावणेण जादो बाहुवली कित्तियं कालं ॥४४॥ देहादित्यक्तसङ्गः मानकषायेन कलुषितो धीर । आतापनेन जातो बाहुबलि : कियंतं कालम् ||४४॥ ( देहादिचत्तसंगो ) देहः शरीरं, आदिशब्दाद्धस्त्यश्वरथपदातिसमूहः पुत्रकलत्रादिवर्गश्च लभ्यते तस्मात्यक्तसंगो निष्परिग्रहः ( माणकसाएण कलुसिओ धीर ) संज्वलन मानेनेषत्कषायेण कलुषितो मलिनितः हे धीर ! ( अत्तावणेण जादो ) आतापनेन योगेन उद्भकायोत्सर्गेण ( बाहुवली कित्तियं कालं ) श्रीबाहुवलिस्वामी कितं कालं वर्षपर्यन्तं कालं कलुषित इति सम्बन्धः । तथा चोक्तं 'चक्र' विहाय निजदक्षिणबाहु संस्थं यत्प्राव्रजन्ननु तदैव स तेन मुचेत् । क्लेशं किलाप स हि बाहुबली चिराय मानो मनागपि हति महतीं करोति ॥ १ ॥ गाथार्थ - अहो यतिवर शरीरादिसे स्नेह छोड़ देनेपर भी बाहुबली स्वामी मान कषायसे कलुषित रहे, अतः आतापन योगके द्वारा उन्हें कितने समय तक कलुषित रहना पड़ा || ४४ || २९७ - विशेषार्थ - शरीर तथा आदि शब्दसे हाथी घोड़ा रथ पदातियोंका समूह तथा पुत्र स्त्री आदिका वर्गं लिया जाता है उन सबसे स्नेहका त्याग 'कर बाहुबली भगवान् वृषभदेवके पुत्र यद्यपि भरत चक्रवर्तीके द्वन्द्वसे विरक्त हो निष्परिग्रह बन चुके थे तथापि वे संज्वलन मान-सम्बन्धी किञ्चित् कषायसे - ( मैं भरतको भूमि पर खड़ा हूँ ) इसप्रकार की अव्यक्त कषायसे कलुषित रहे, अत: कितने ही काल तक अर्थात् एक वर्ष तक उन्हें आता पन योगसे कलुषित रहना पड़ा । जैसा कि कहा गया है १. आत्मानुशासने गुणभद्रस्य । चक्र विहाय - अपनी दाहिनी भुजा पर स्थित चक्र रत्नको छोड़कर • बाहुबलीने जो दीक्षा ली थी उससे वे उसो समय मुक्त हो सकते थे परन्तु चिरकाल तक क्लेश पाते रहे । सो ठीक ही है क्योंकि थोड़ा भी मान बहुत भारी हानि करता है ॥ ४४ ॥ For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ षट्शाभूते [५.४५महुपिंगो गाम मुणी देहाहाराविचत्तवावारो। सवणत्तणं ण पत्तो णियाणमित्तण भवियणुय ॥४५॥ मधुपिंगो नाम मुनिः देहाहारादित्यक्तव्यापारः। श्रमणत्वं न प्राप्तः निदानमात्रेण भव्यनुत ॥ ४९ ॥ ( मुहुपिंगो णाम मुणी ) मधुपिंगो नाम मुनिः। ( देहाहारादिचत्तवावारो) शरीराहारादित्यक्तव्यापारः। ( सवणत्तणं ण पत्तो) श्रमणत्वं दिगम्बरत्वं क प्राप्तः द्रव्यलिंगी बभूवेत्यर्थः। (णियाणमित्तेण भवियणुय ) निदानमात्रेण सगरं सकुटुम्ब क्षय नेष्यामीति निदानमात्रेणेति हे भविकनुत ! भव्यजीवस्तुतमुने ! इयं कथा महापुराणादिषु विश्रुता वर्तते । तथा हि । अथेह भरतक्षेत्रे चारणयुगलनगरे राजा सुयोधनः, राज्ञी अतिथिः, सुता सुलसा । तस्याः स्वयंवरे सर्वत्र दूता गताः। सर्वे नृपा चारणयुगले पुरे मिलिताः। अयोध्यापतिस्तत्र सगर आगन्तुमुद्यमं चकार । पश्चात्स्नाने सति तैलोपलेपिना सगरेण राज्ञा पलितं केशं ____ गाथार्थ हे भव्य-नुत ! हे भव्य जीवोंके द्वारा स्तुत मुनिराज ! देखो, मधुपिङ्ग नामक मुनिने यद्यपि शरीर तथा आहार आदि समस्त व्यापारका परित्याग कर दिया था तथापि वे निदान मात्रके कारण श्रमणपनेको-भावसे मुनि अवस्था को प्राप्त नहीं हुए थे। विशेषार्थ-मधुपिङ्ग नामक मुनिने दीक्षा धारण कर शरीर तथा आहार आदि व्यापारका परित्याग कर दिया था फिर भी वे इस निदानसे कि 'मैं सगरको सकुटुम्ब नष्ट कर दूंगा' भाव-मुनि अवस्थाको प्राप्त नहीं हुए अर्थात् द्रव्यलिङ्गो बने रहे। हे मुनि ! तू भव्य जीवोंके द्वारा स्तुत हो रहा है अर्थात् भव्य जीव तेरी स्तुति करते हैं सो इतने मात्र से तू अपने आपको कृत-कृत्य मत समझ, भाव शुद्धिकी ओर लक्ष्य दे यह कथा महापुराण आदिमें प्रसिद्ध है जो कि इस प्रकार है ___ मधुपिङ्ग मुनिको कथा अथानन्तर इसी भरत क्षेत्रके चारण युगल नगरमें एक राजा सुयो. धन रहता था। उसकी स्त्रीका नाम अतिथि था। उन दोनोंकी सुलसा नामकी पुत्री थी। सुलसाका स्वयंवर निश्चित हुआ, अतः सब ओर दूत भेजे गये। सब राजा चारण-युगल नगरमें एकत्रित हुए । अयाध्याके राजा सगरने भी वहां जानेका उद्यम किया। पीछे स्नान कर जब सगर राजा तेल लगा रहा था तब शिरमें सफेद बाल देखकर वह यहाँ For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४५ ] भावप्राभृतम् २९९ दृष्ट्वा तत्र गमने विरक्तेन बभूवे । तद्रावसरे मन्दोदरी घात्री राजानमुवाच । देव ! नवं पलितमिदं तवापूर्वद्रव्यलाभं वदति तत्रैव विश्वभूः मंत्री कथयति । हे राजन् ! सुलसा परनृपान् मुक्त्वा त्वामेव वरयिष्यति तथाहं कुशलतया करिष्यामि । तत्श्रुत्वा हृष्ट्वा राजा तत्र चतुरङ्गसैन्येन चचाल । तत्र केषुचिद्दिवसेषु गतेषु मन्दोदरी सुलसान्तिकं गत्वा हे पुत्री ! कुलरूपसौन्दर्यविक्रमनयविनयविभवबन्धुसम्पदादयो ये गुणावरे विलोक्यन्ते ते सर्वेऽपि साकेतपतो सगरे सन्तीत्युवाच । तत् श्रुत्वा सा तत्र रक्ता बभूव । अतिथिस्तज्ज्ञात्वा युक्तिवचनैस्तं दूषयित्वा हे पुत्रि ! सुरम्यदेशे पोदनापुरे बाहुबलिकुले सर्वराजसु ज्येष्ठो मम भ्राता तृणपिंगलः राज्ञी सर्वयशास्तत्पुत्रो मधुपिंगलः सर्वैर्वरगुणैराढ्यो - ' नवे वयसि वर्तते स त्वया वरमालया मदाक्षेपेण माननीयः । साकेतपतिना सपत्नीदुःखदायिना किं जाने में विरक्त हुआ । उसी समय मन्दोदरी नामक धायने राजासे कहा— देव ! यह नवीन सफेद बाल आपको अपूर्व द्रव्यका लाभ बतला रहा है। वहीं विश्वभू नामका मन्त्री था, वह भी कहने लगा कि हे राजन् ! सुलसा सब राजाओं को छोड़कर तुम्हें ही वरेगी ऐसा मैं चतुराई से उद्यम करूंगा। यह सुनकर हर्षित हो राजा चतुरङ्ग सेनाके साथ चल पड़ा। वहाँ कितने ही दिन व्यतोत हो जानेपर एक दिन मन्दोदरी. सुलसा के पास जाकर बोली कि हे पुत्रि ! कुल, रूप, सौन्दर्य, राजनीति, विनय, विभव, भाई बन्धु और सम्पत्ति आदि जो गुण वरमें देखे जाते हैं वे सभी गुण अयोध्या के स्वामी सगरमें विद्यमान हैं। यह सुनकर सुलसा उसमें अनुरक्त हो गई । पराक्रम, जब सुलसा की माता अतिथिको इस बातका पता चल गया तब उसने युक्ति- पूर्ण वचनोंसे राजा सगरको दूषित कर अर्थात् उसमें अनेक दोष दिखाकर कहा कि हे पुत्र ! सुरम्यदेश के पोदनापुर नगर में बाहुबलीके कुलमें सब राजाओं में श्रेष्ठ तृणपिङ्गल नामका मेरा भाई है । उसकी स्त्रीका नाम सर्वयशा है । उन दोनोंका मधुपिङ्गल नामका पुत्र है जो वरके समस्त गुणोंसे सहित है तथा नई अवस्थामें विद्यमान है । तुझे मेरे कहनेसे वरमाला के द्वारा उसे ही सन्मानित करना चाहिये । सौतके दुःखको देनेवाले अयोध्याके राजा सगरसे तू क्या करेगी ? माताने यह सब कहा परन्तु सुलसाने उसके अनुरोध को स्वीकृत नहीं किया । तदनन्तर अतिथिने किसी उपायसे सुलसा के पास मन्दोदरी धायका प्रवेश १. युक्त इति स० पुस्तके | For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० षटप्राभूते [ ५. ४५ करिष्यसि ? इत्यवदत् । सुलसा तु तदुपरोधं नामन्यत । अतिथिरुपायेन मंदोदरी - प्रवेशं तत्र निवारयामास । सा निजस्वामिनं नष्टं कार्यं जगाद् । राजाह हे विश्वभूमन्त्रिन् ! इदं मम कार्यं त्वया सर्वथा कार्यं । तत्श्रुत्वा तेन विश्वभुवा स्वयंवर - विधानं नाम सामुद्रिक शास्त्रं नवीनं रचयित्वा तत्पुस्तकं मंजूषायां निक्षिप्य यथा कोऽपि न जानाति तथा वनमध्ये भू- तिरोहितं निदधे । तत्रोद्या नभूशोधनं कार - यन् हलाने लग्नां मंजुषां समानीय मया लब्धेयं चिरन्तनशास्त्रसंयुक्ता मंजूषा । स्वयमजानन्निव राजपुत्राणामग्रग्रे वाचितवान् । वरकदम्बके कन्या पिङ्गाक्षं माया न संभावयेत् । संभावयेच्चेत्तर्हि सा कन्या म्रियते । पिङ्गाक्षेण सभामध्ये न प्रवेष्टव्यं । पापभयाल्लज्जितव्यं च प्रधानान्न बिभेति च न लज्जते । तदा स पापी निर्धाटनीयः । सत्सर्वं श्रुत्वा तद्गुणत्वाल्लज्जया निर्गत्य हरिषेणगुरुपादमूले दीक्षां जग्राह । तज्ज्ञात्वा सगरो विश्वभूश्च मुदं प्रापतुः । अन्ये च कुटिला मुदं 1 रोक दिया । मन्दोदरी ने अपने स्वामी राजा सगरसे कह दिया कि कार्य नष्ट हो गया है । राजाने विश्वभूमन्त्री से कहा कि हे मन्त्रिन् ! तुम्हें मेरा यह कार्य सब तरहसे सिद्ध करना चाहिये । यह सुनकर विश्वभूमन्त्री ने स्वयंवर - विधान नामक एक नवीन सामुद्रिक शास्त्र की रचना कर उसकी 'पुस्तक को एक पेटीमें रक्खा और जिस तरह कोई न जान सके इस तरह पेटीको वन मध्य पृथिवी के अन्दर छिपा दिया । 1 तदनन्तर मन्त्रीने उसी स्थानपर बगीचाके लिये भूमि को साफ कराना शुरू किया। वह पेटी हल को नोंक में आ लगी । मन्त्रीने उस पेटोको लाकर प्रकट किया कि मुझे प्राचीन शास्त्रसे युक्त यह पेटी मिली है । तथा स्वयं अनजान जैसा बनकर राजपुत्रोंके आगे उसने वह पुस्तक बँचवाई। उसमें लिखा था कि वरोंके समूह में कन्या ऐसे वरको वरमालासे सम्मानित न करे जिसके नेत्र पोले हों । यदि करेगी तो वह कन्या मर जावेगी । पीले नेत्र वालेको सभाके बीच प्रवेश नहीं करना चाहिये तथा पापके भय से उसे लज्जित होना चाहिये । इतने पर भी यदि वह सभा के प्रधानसे भयभीत न हो तथा लज्जित न हो तो उस पापोको निकाल देना चाहिये । यह सुन कर अपनेमें वह गुण होनेसे अर्थात् पोले नेत्र होनेसे मधुपिङ्गल लज्जाके कारण सभासे स्वयं बाहर निकल गया और वहाँ उसने हरिषेण गुरुके पादमूल में दीक्षा ग्रहण कर ली । यह जानकर सगर राजा तथा विश्वभूमन्त्री हर्षको प्राप्त हुए । इनके सिवाय अन्य कुटिल परिणामी मनुष्य भो हर्षको प्राप्त हुए । सत्पुरुष और उनके For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४५ ] भावप्राभृतम् ३०१ प्रापुः । सत्पुरुषास्तद्वान्धवाश्च विषादं प्रापुः । वञ्चनाकृतं पापमर्थिनो न पश्यन्ति । अथाष्टदिनानि महापूजां जिनेशिनामभिषेकं च कृत्वा स्नातालंकृतां शुद्धतिथिवारादिसन्निधौ कन्यां पुरोहितो रथमारोप्य नीत्वा सुभटपरिवृतान् भद्रासनारूढान् नृपान् स्वयंवरमण्डपे यथाक्रमं पृथक्कुलजात्यादिकं विनिर्दिश्य विरराम । सा तु समासक्ता सगरं वरमालया वरयामास । निर्मत्सरं राजमण्डलं तु तुतोष । अनयोरनुरूपः संगमो विधात्रा कृत इति । विवाहविधौ च जाते सगरः सुलसासहितस्तत्र कानिचिद्दिनानि तत्र सुखेन स्थित्वा साकेतं गतः । भोगसुखमनुभवन् स्थितः । मधुपिंगलस्तु साधुः कस्मिश्चित्पुरे भिक्षार्थं प्रविशन् केनचिज्जैनेन नैमित्तिकेन दृष्टः । राज्याहलक्षणोऽयं भिक्षाशी किलक्षणशास्त्रणेति निनिन्द । तदाकर्ष्यापर एवं बभाषे। राजलक्ष्मी भुजान एष सगरमंत्रिणा वृथा दुषितः कृत्रिमं सामुद्रिक इष्ट जन विषादको प्राप्त हुए । ठीक ही है स्वार्थी मनुष्य वञ्चनाके द्वारा किये हुए पापको नहीं देखते हैं । तदनन्तर लगातार आठ दिन तक जिनेन्द्र भगवान् की महापूजा और अभिषेक किया गया। तथा शद्ध तिथि और शद्ध वार आदिके उपस्थित होनेपर जिसे स्नान कराकर उत्तमोत्तम अलंकार पहिनाये गये थे और जो उत्तम योद्धाओंसे घिरी थी ऐसी उस कन्या को रथ पर बैठा कर पुरोहित स्वयंवर मण्डपमें ले आया और उत्तमोत्तम आसनों पर बैठे हुए राजाओंको लक्ष्य करके क्रम क्रमसे उनके अलग अलग कुल तथा जाति आदिका निर्देश करके चुप हो रहा। किन्तु कन्या तो सगर राजामें आसक्त थी इसीलिये उसने वरमालासे उसे वर लिया। वहाँ जो राजा ईर्ष्या-रहित थे वे 'विधाताने इनका योग्य सम्बन्ध जुटाया है' यह कहते हुए सन्तुष्ट हुए। विवाह विधिके हो जाने पर सगर सुलसाके साथ वहाँ कुछ दिन तक सुखसे रहकर अयोध्या चला गया और भोग सम्बन्धी सुखका अनुभव करता हुआ रहने लगा। ..उधर मधुपिंगल मुनि भिक्षाके लिये किसी नगरमें प्रवेश कर रहे थे। प्रवेश करते समय किसी जैन निमित्त-ज्ञानीने उन्हें देखा। उन्हें देखकर वह यह कहकर सामुद्रिक शास्त्र को निन्दा करने लगा कि यह पुरुष तो राज्य-प्राप्तिके योग्य लक्षणोंसे सहित है परन्तु भिक्षा-भोजी हो रहा है लक्षण शास्त्र से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् लक्षण शास्त्र मिथ्या है। निमित्त ज्ञानीको बात सुनकर दूसरा आदमी इस प्रकार कहने लगा कि यह तो राज्यलक्ष्मीका ही उपभोग करता था परन्तु सगर राजाके मन्त्रीले For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ षट्प्राभूते [ ५.४५ 1 रचयित्वेति लज्जितस्तपो जग्राह सुलसा सगरं च । तत्श्रुत्वा कोपाग्निदोपितो निदानं चक्रे तपः फलेन सगरकुलं सर्वं जन्मान्तरे निर्मूलयिष्यामीति । ततोऽसौ मृत्वाऽसुरेन्द्रस्य प्रथममहिषानीके चतुःषष्ठिसहस्रासुरस्वामी बभूव । स महाकालासुरतामा निजदेवैर्वेष्टितो विभंगेन पूर्वाभवसम्बन्धं ज्ञात्वा पापी चेतसा मंत्रिणि तत्प्रभौ सगरे च प्ररूढवैरोऽपि तौ हन्तुमनिच्छन्नत्युग्रं पापं तयोरिच्छन् तदुपायं सहायांश्च संचिन्त्य स्थितः । मम महापापं भविष्यतीति नाचिन्तयत् घिग्मूढतां । तदभिप्राय साधनमिदमत्रान्यत्प्रकृतं । तथा हि अत्र भरते धवलदेशे स्वस्तिकावतिपुरे हरिवंशजो राजा विश्वावसुः । देवी श्रीमती पुत्रो वसुः । तत्रैव क्षीरकदम्बनामा सर्वशास्त्रज्ञो ब्राह्मणोऽध्यापकोत्तमः पूज्यो विख्यातश्च । तत्पुत्रः पर्वतो देशान्तरागतो नारदो विश्वावसुपुत्रो वसुश्च एते त्रयोऽपि विद्यानां पारं प्रापुः । कृत्रिम सामुद्रिक शास्त्र रचकर इसे व्यर्थ ही दूषित ठहरा दिया इसलिये लज्जित होकर इसने तप ग्रहण कर लिया और सुलसा ने राजा सगरको । यह सुनकर मधुपगल मुनिने क्रोध-रूपो अग्निसे प्रदीप्त हो निदान किया कि मैं तपके फल से अन्य जन्म में सगरके समस्त कुलको निर्मूल कर दूँगा, जड़से नष्ट कर दूँगा । तदनन्तर वह मरकर असुरेन्द्रकी प्रथम महिष सेना में चौंसठ हजार असुरोंका स्वामी हुआ। वह महाकाल नामक असुर अपने देवोंसे परिवृत हो विभंगावधि ज्ञानसे पूर्व भवका सब सम्बन्ध जान गया । वह पापी यद्यपि हृदयसे मन्त्री और उसके स्वामी राजा सगर पर अत्यधिक वेर धारण कर रहा था तथापि उन्हें मारना नहीं चाहता था । वह उनसे किसी भयंकर पापको कराना चाहता था इसलिये उसके योग्य उपाय और सहायकोंका विचार करता हुआ चुप रह गया । इस विचारसे मुझे महापाप लगेगा ऐसा उसने विचार नहीं किया। सो ठीक ही है क्योंकि मूढ़ता को धिक्कार है । अब आगे जो कथा लिखी जाती है वह इसी अभिप्राय को साधने वाली है । इस भरत क्षेत्रके धवल देश- सम्बन्धी स्वस्तिकावती नामक नगर में हरिवंशमें उत्पन्न हुआ राजा विश्ववसु रहता था । उसकी स्त्रीका नाम श्रीमती था और पुत्रका नाम वसु था । उसो नगरमें एक क्षीर-कदम्ब नामका ब्राह्मण रहता था जो सब शास्त्रोंका ज्ञाता था, अध्यापकों में श्रेष्ठ था, पूज्य था और अतिशय प्रसिद्ध था । क्षीर कदम्बकका पुत्र पर्वत, दूसरे देशसे आया हुआ नारद और राजा विश्ववसुका पुत्र वसु ये तीनों उसके पास पढ़कर विद्याओंके पारको प्राप्त हो चुके थे । उन तीनों For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतम् ३०३ सेषु 'पर्वतोऽकीतिविपरीतार्थग्राही वसुनारदी यथोपदिष्टार्थग्राहिणी। ते त्रयोऽपि सोपाध्याया दर्भादिकं चेतु वनं गताः । तत्र गिरिशिलोपरि स्थितः श्रुतघरगुरुः । मुनित्रयं तस्मादष्टाङ्गनिमित्तं पपाठ । तत्समाप्तौ स्तुतिं कृत्वा सुखं तस्थौ तस्य निपुणतापरीक्षार्थ गुरुः पप्रच्छ । भो मुनित्रय ! अधीयानस्य छात्रत्रयस्यास्य किं नाम, कस्य किं कुलं को भावः प्रान्ते कस्य का गतिर्भविष्यतीत्युक्ते एकः प्राह-अस्मत्समीपगो वसुः, राज्ञः सुतः, तीव्ररागादि शिष्योंमें पर्वत की कीर्ति ठीक नहीं थी, वह विपरीत अर्थको ग्रहण करता था परन्तु वसु और नारद जैसा उपदेश दिया गया था वैसा ही अर्थ ग्रहण करते थे। एक दिन वे तीनों शिष्य उपाध्याय के साथ कुशा आदि इकट्ठा करनेके लिये वनको गये थे । वहाँ पर्वत की शिलाके ऊपर एक श्रुधिर गुरु विराजमान थे तथा तीन मुनि उनसे अष्टांग निमित्त शास्त्र पढ़ रहे थे। पाठकी समाप्ति होनेपर स्तुति करके तीनों मुनि सखसे बैठे थे। उनकी चतुराई की परीक्षा करनेके लिये गुरुने पूछाहे मुनित्रय ! ये जो तीन छात्र पढ़ रहे हैं इनमें किसका क्या नाम है, क्या कुल है, क्या भाव है, और अन्तमें किसकी क्या गति होगी ? गुरुके ऐसा कह चुकने पर एक मुनि बोला कि हमारे पास जो बैठा है इसका नाम वसु है, यह राजाका पुत्र है, तीव्र राग आदिसे दूषित है और हिंसा धर्म है, ऐसा निश्चय कर नारकी होगा। दूसरा मुनि बोला-जो बीच में बैठा है वह पर्वत है, ब्राह्मणका लड़का है, दुर्बुद्धि तथा क्रूर परिणाम वाला है, महाकालके उपदेशसे अथर्वण (अथर्व वेद ) नामक पाप शास्त्रको पढ़कर खोटे मार्गका उपदेश करेगा, तथा 'हिंसा हो धर्म है' इस प्रकारके रोद्रध्यानमें तत्पर हो बहुत जनोंको नरक भेजकर स्वयं भी नरक जावेगा। तीसरा मुनि बोला--यह जो पीछे बैठा है इसका नाम नारद है, यह ब्राह्मण है, बुद्धिमान् है, धर्मध्यानमें तत्पर रहता है, आश्रित मनुष्योंको अहिंसा धर्मका उपदेश देता है, यह गिरितट नगरका स्वामी होगा और अन्तमें दीक्षा लेकर सर्वार्थ सिद्धि जावेगा। उन तीनों मुनियोंके द्वारा कहे हुए उत्तर को सुनकर श्रुतधर गुरु 'आपलोगोंने निमित्त शास्त्रको अच्छी तरह पढ़ा है' यह कहते हुए संतुष्ट हुए। १. अकीतिविपरीतार्थग्राही छ। २. स्थितं मुनित्रयंक० । ३. श्रुतघरमुनिः छ। For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ षट्प्राभृते [ ५.४५ दूषितः, हिसाधर्मं विनिश्चित्य नारको भावी । द्वितीयो मुनिः प्राह-मध्यस्थितो पर्वतः, द्विजपुत्रः, 'दुर्बुद्धिः क्रूरः, महाकालोपदेशादथर्वणं पापशास्त्रं पठित्वा दुर्मार्गदेशको हिसैव धर्म इति रौद्रध्यानपरायणो बहून् नरके प्रवेश्य स्वयमपि नरकं यास्यति । तृतीयो मुनिरुवाच एष पश्चात्स्थितो नारदः, द्विज, घीमान्, धर्मध्यानपरायणोऽहसालक्षणं धर्म श्रितानां व्याकुर्वाणो भावी गिरितटाख्यपुरम्य स्वामी भूत्वा दीक्षित्वा सर्वार्थसिद्धि यास्यति । तन्मुनित्रयोक्तं क्षुतधरः श्रुत्वा सांघु पठितं निमित्तं भवद्भिरिति तुष्टाव । क्षीरकदम्ब उपाध्यायः समीपतरतरुसमाश्रयस्तदाकर्ण्य तदतद्विधिचेष्टितमशुभं धिगिति भणित्वा किमत्र मया क्रियते इति विचिन्त्य तत्रस्थित एव मुनीनभिवन्द्य वैमनस्येन शिष्यैः सह नगरं प्रविवेश । तदनन्तरमेकवर्षेण 'शास्त्रे बालत्वे पूर्णे जाते विश्वावसुर्वसवे राज्यं दत्वा दीक्षां mmmmm क्षीर-कदम्ब उपाध्याय निकटवर्ती एक वृक्षके नीचे बैठा-बैठा यह सब सुन रहा था सुनकर यह सब विधिको चेष्टा है, विधिको इस अशुभ वेष्टाको धिक्कार है' ऐसा कहकर वह विचार करने लगा कि इस विषय मैं क्या कर सकता हूँ ? तदनन्तर वहाँ बैठे-बैठे ही मुनियोंको नमस्कार कर वह बेमनसे शिष्योंके साथ नगर में प्रविष्ट हुआ । तदनन्तर एक वर्ष में जब वसुका शास्त्र विषयक बाल्य अवस्था पूर्ण हो गई अर्थात् उसका जब शास्त्राध्ययन समाप्त हो गया तब विश्ववसुने उसके लिये राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली । वसु निष्कण्टक राज्य करने लगा । एक दिन वह क्रीड़ा करनेके लिये वनमें गया । वहाँ कुछ पक्षी उड़ 1 रहे थे । वे पक्षी अचानक रुककर नीचे गिर गये, उन्हें देख वसु विचार करने लगा कि पक्षी आकाश में उड़ते-उड़ते गिर जाते हैं उसमें कुछ कारण अवश्य होगा, ऐसा विचार करके उसने उस स्थानपर अपना वाण छोड़ा । परन्तु वह वाण भो वहीं रुक गया । तदनन्तर वसुने सारथिके साथ वहीं स्वयं जाकर वहाँ का स्पर्श किया । यह आकाश स्फटिकका स्तम्भ है, यह जानकर वसु उसे ले आया तथा इसका किसीको हाल मालूम नहीं होने दिया। उसने उसके चार बड़े-बड़े पाये बनवाकर सिंहासनका निर्माण कराया। वह उस सिंहासन पर बैठा, राजा आदि उसकी सेवा करने लगे । राजा वसु सत्यके माहात्म्यसे अन्तरिक्ष सिंहासन पर बैठा है, इस प्रकार आश्चर्य करते हुए लोगोंने उसकी उन्नति की घोषणा शुरू कर दी । १. मन्दबुद्धिः क० । २. शास्त्रेण म० । For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.४५ ] भावप्राभृतम् ३०५ जग्राह । वसुनिष्कण्टकराज्यं कुर्वन्नेकदा वनं क्रीडितुं गतः तत्राकाशे उड्डीयमानाः [ उड्डीयमानान् ] पक्षिणः स्खलित्वा पतितान् दृष्ट्वा चिन्तयामास । आकाशे उड्डीयमाना यत्पक्षिणः पतन्ति तत्र किमपि कारणं भविष्यतीति तस्मिन् प्रदेशे वाणं मुमोच | सोऽपि तत्र स्खलितः, तत्र स्वयं जगाम सारथिना सह तत्र पस्पर्श । आकाशस्फटिकस्तंभं विज्ञाय परंरविदितं तमानयामास । तस्य पादचतुष्टयं पृथु निर्माप्य तत्सिंहासनमारुह्य नृपादिभिः सेव्यमानः सत्यमाहात्म्यात् खे सिंहासने स्थितो वसुरिति विस्मयमानेन लोकेन 'घोषितोन्नतिस्तस्थौ । एवमस्य काले गच्छति पर्यंतनारदावेकदा समित्पुष्पार्थं वनं गतौ । तत्र नदीतटे मयूरा जलं पीत्वा गतास्तन्मार्गदर्शनान्नारदः प्राह-ये मयूराः पानीयं पीत्वा गतास्तेष्वेको मयूरः सप्त मयूर्यो वर्तन्ते । तत् श्रुत्वा पर्वतः प्राह- मृषा वार्तासौ । मनस्य सहमानः पणित इस प्रकार वसुका समय व्यतीत हो रहा था । एक दिन पर्वत और नारद समिधा तथा फूलों के लिये वन गये। वहाँ नदीके तटपर पानी पीकर कुछ मयूर जा चुके थे । उनका मार्ग देखकर नारदने कहा कि जो मयूर पानी पोकर गये हैं उनमें एक मयूर है और सात मयूरो हैं । यह सुन कर पर्वत ने कहा कि यह बाल मिथ्या है। तथा मनमें सहन न करते हुए उसने एक शर्त बांधली । तदनन्तर कुछ दूर जाकर नारद के कथनको सत्य जानकर वह विस्मय करने लगा । पश्चात् आगे जानेपर उन्होंने हाथियों का मार्ग देखा । उसे देख नारद ने कहा- यहांसे जो हस्तिनी गई है वह बाँयें नेत्रसे अन्धी थी, उसके ऊपर रेशमी वस्त्र पहिने हुए एक गर्भिणी स्त्री बैठी थी तथा आज उसने पुत्र उत्पन्न किया है । इसके उत्तर में पर्वतने कहा कि जिस प्रकार कभी अचानक अन्धा सर्प अपने विलमें प्रवेश कर जाता है उसी प्रकार अचानक तुम्हारा पहलेका वचन सत्य होगया परन्तु यह तो मिथ्या है। मेरे द्वारा अविदित-अज्ञात क्या है ? ऐसा कौन पदार्थ है जिस में जान न सकू ं। इस प्रकार मन्द हास्य करके उसने ईष्यि साथ हृदयमें विस्मय प्राप्त किया और नारदके कथन को असत्य करने के लिये हस्तिनीके पीछे चलता हुआ वह नगर में जा पहुँचा । वहाँ जाकर नारदने जैसा कहा था वैसा ही पर्वत ने देखा । घर आकर पर्वत ने माताके आगे कहा कि हे मातः ! मेरे पिताने जिस प्रकार नारदको पढ़ाया है उस प्रकार मुझे नहीं पढ़ाया। इनके १. पोषितोऽत्रेति म० । २० For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ षट्प्राभृते [ ५.४५ बन्धनं बबन्ध । तत्र किंचिदन्तरं गत्वा नारदोक्तं सद्भूतं ज्ञात्वा विस्मित्याग्र े गत्वा करेणुमागं ददर्श । दृष्ट्वा नारद उवाच - एषा हस्तिनी गता सा वामलोचनेनान्धा, तामारूढा गर्भिणी स्त्री, पट्टाम्बरसहिता, अद्य पुत्रमजीजनत् । अन्धसर्पविलप्रवेशवत् पूर्वोक्तं तव वचनं यादृच्छिकं सत्यमभूत्, इदं तु मिथ्या मया - विदितं किमस्तीति स्मित्वा स सासूयं विस्मयं चित्ते प्राप्य तदसत्यं कर्तुं हस्तिनी - मनुगतः पुरं प्रविवेश । नारदोक्तं तथैव ददर्श । गृहमेत्य पर्वतो मातुर जगाद । किं जगाद ? मातः ! मे पिता यथा नारदं शिक्षितवांस्तथा मां नापीपठत् अस्य चेतसि नारदो वर्तते नाहमिति । तेन वचनेन विप्राया हृदयं विदारितं । पापोदयाद्विपरीतं तथा विचारितं । शोकं च ब्राह्मणी चकार । क्षीरकदम्बस्तु स्नात्वा अग्निहोत्रादिकं कृत्वा भुक्त्वा च स्थितः । तं प्रति ब्राह्मण्युवाच त्वयो पुत्रो न शिक्षितः, लोको व्युत्पादितः । क्षीरकदम्ब उवाच - प्रिये ! अहं निविशेषोपदेशः हृदय में नारद है, मैं नहीं । पुत्रके इस वचनसे ब्राह्मणोका हृदय विदीर्ण होगया । पापके उदयसे उसने विपरीत विचार किया । ब्राह्मणीने शोक किया । जब क्षीरकदम्ब स्नान, होम तथा भोजन कर बैठा तब ब्राह्मणी बोली कि तुमने संसारको तो व्युत्पन्न बनाया, पर पुत्र को शिक्षित नहीं किया । क्षीरकदम्ब बोला- प्रिये ! मैं एक समान उपदेश देता हूँ परन्तु प्रत्येक पुरुष में बुद्धि भिन्न-भिन्न होतो है इसलिये नारद कुशल होगया । प्रिये ! तुम्हारा पुत्र स्वभावसे ही मूर्ख है तथा नारदसे ईर्ष्या रखता है, क्या किया जाय ? इतना कहकर उसने स्त्रीको विश्वास उत्पन्न करानेके लिये पर्वत के सामने नारदसे पूछा । हे नारद! तुमने वनमें घूमते हुए किस कारण पर्वतको बहुत आश्चर्य में डाल दिया था ? नारद बोला - स्वामिन् ! पर्वत के साथ जाता हुआ में हास्य कथा कर रहा था। उसी समय पानी पी चुकने वाले मयूरोका एक झुण्ड नदीसे लौट रहा था। उनमें एक मयूर अपने चन्द्रक समूहको पानीके मध्य डूबजाने से भारी होनेके कारण भयभीत हो लौटकर उल्टे पैर रखता हुआ गया था । शेष मयूर थोड़े जलसे भोगने के कारण पंखोंको फड़फड़ा कर गये थे । वह देखकर मैंने अनुमानसे कहा था कि उन मयूरोंमें एक तो पुरुष था और बाकी स्त्रियाँ थीं। तदनन्तर वनके मध्यसे आकर कोई पुरुष नगरके समीप हस्तिनी पर बैठी स्त्राको नगरकी ओर लिये जा रहा था । ठहरने के स्थान पर हस्तिनीने पेशाब की थी । वह पेशाब उसके पिछले पाँवोंसे सटती हुई गिरी थी इसलिये मैंने उसे हस्तिनी कह दिया था । वह हस्तिनी जिस मार्गसे आई थी उसके दाँयें भागके वृक्ष तथा लताएँ भग्न हुई थीं इस For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४५ ] भावप्राभृतम् ३०७ पुरुषं पुरुषं प्रति 'मतयस्तु भिन्नाः सन्ति । तेन नारदो कुशलो बभूव । प्रिये ! त्वत्पुत्रः स्वभावेन मन्दो नारदेऽसूयते किं क्रियते । इत्युक्त्वा स्त्रिया विश्वासमुत्पादयितु' पर्वतसमीपे नारदं पप्रच्छ । हे नारद ! त्वं वने भ्राम्यन् केन कारणेन पर्वतस्य बहुविस्मयं कारितवान् । नारद उवाच स्वामिन् ! पर्वतेन सह वनं गच्छन नर्मकथापरः पीतवारां मयूराणां संघो नद्या निवर्तने स्वचन्द्रक कलापाम्बुमध्यमज्जनगौरवात् भीत्वा व्यावृत्य विमुखं कृतपश्चात्पदस्थितिः शिखी च गतवानेकः । शेषास्त्वोषज्जलार्दिता पत्रभागं विधूय अगुः । तं दृष्ट्वाहमुक्तवान्-पुमानेकः शेषाः स्त्रिय इत्यनुमानात् । ततो वनान्तरात्कश्चिदागत्य पुरसमीपे करिण्यारूढां स्त्रियं नयन् पुरं प्रति पश्चिमपादाभ्यां प्रयाणके स्वमूत्र घट्टनात् करिणीमकथयं । दक्षिणे भागे तरुत्रीरुभंगेन वामलोचनेऽन्धां जगाद | मार्गात्प्रच्युत्य श्रमादारूढयोषितः शीतच्छायाभिलाषेण पुलिनस्थले सुप्तायां उदरस्पर्शमार्गेण गर्भिणीं गुल्मलग्नदशया स्त्रियं च वेद । करेणुश्रितमार्गे गृहोद्यत्सितकेतुदर्शनेन पुत्रजन्मोक्तवान् । तत्श्रुत्वा विप्रो निजापराधाभावं भार्यायां अकथयत् । तदा पर्वतमाता प्रसन्ना जाता । प्रिये ! लिये मैंने उसे बाँयें नेत्रसे अन्धी कहा था । उसपर बैठी हुई स्त्रीने थकावट के कारण मार्गसे कुछ दूर हटकर शीतल छाया की इच्छासे नदी के तटपर शयन किया था। उसके पेटका स्पर्श होनेसे वहाँ जो चिह्न बनगये थे उनसे उसे गर्भिणी तथा झाड़ी में लगे हुए वस्त्र के छोरसे स्त्री जाना था । हस्तिनी जिस मार्ग से गई थी वहीं गृहके ऊपर सफेद पताका फहरा रही थी इसलिये पुत्र जन्म हुआ है, ऐसा कहा था। नारद का उत्तर सुनकर ब्राह्मण स्त्रीसे कहा कि इसमें मेरा अपराध नहीं है । जब पर्वत की माता प्रसन्न होगई तब ब्राह्मणने यह कहा कि प्रिये ! मुनिने कहा था कि पर्वत नरक जावेगा । मुनिके कथन की प्रतोतिके लिये भार्या तथा स्वयं ब्राह्मणने एकान्त में जाकर चुन के दो बकरे बनाये और पुत्र तथा छात्रके भाव की परीक्षा के लिये ब्राह्मणने एक बकरा पुत्रके लिये और दूसरा शिष्य के लिये दिया। साथ ही यह आदेश दिया कि तुम लोग जहाँ कोई देख न सके ऐसे स्थान में जाकर गन्ध, पुष्प तथा मङ्गल द्रव्योंसे इनकी पूजा करो और कान काटकर दोनों बकरोंको आज ही वापिस लाओ । • उन दोनोंमें पापी पर्वतने 'इस वन में कोई नहीं है' यह विचारकर बकरे दोनों कान काट लिये और आकर पितासे कह दिया कि पूज्य ! १. प्रति मतमस्तु मध्ये ददानि पाठः म० । २. वेद क० ४०, विवेद म० । For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ षट्प्राभूते [ ५.४५ मुनिना भाषितं यत्पर्वतो नरकं यास्यति । तत्प्रीत्यर्थं भार्या स्वयं च एकान्ते गत्वा पिष्टेन द्वौ वस्ती निर्माय पुत्रच्छात्रभावपरीक्षणार्थं द्विजोत्तम एकं पुत्राय द्वितीयं छात्राय ददौ । परादृश्यप्रदेशे गत्वा गन्धपुष्पमंगलेचित्वा कर्णच्छेदं कृत्वा एतावद्यवानयतं युवां । तत्र पर्वतः पापी अस्मिन् वने न कोऽपि वर्तते इति कर्णी छेदयित्वा पितरमागत्य पूज्य ! यथा त्वयोक्तं मया तथैव कृतमित्यवदत् । नारदस्तु वनं गत्वा विचारयति गुरुणोक्तमदृश्यप्रदेशेऽस्य कर्णौ छेदनीयाविति । चन्द्रः पश्यति । रविर्निरीक्षते । नक्षत्राणि विलोकन्ते । ग्रहास्तारकांश्च पश्यन्ति । देवता निरीक्षन्ते । सन्निहिताः पक्षिणो मृगजातयश्च निषेद्धुं न शक्यन्ते इति विचाय कर्णयोश्छेदमकृत्वा गुरुसमीपमागतो नारदः । यतोऽयं भव्यात्मा वनेऽदृष्टदेशस्यासंभवात्, नामस्थापनाद्रव्यभावानां विचारचतुरः पापापख्याति कारणक्रियाणामकर्तव्यत्वादहमिमं छागं विच्छिन्नावयवं नाकार्षमित्युवाच । तत्श्रुत्वा क्षोरकदम्बः आपने जैसा कहा था वैसा मैंने कर दिया है । परन्तु नारद वनमें जाकर विचार करता है कि गुरु ने कहा था - अदृश्य स्थान में जाकर इसके कान काटना चाहिये । यहाँ चन्द्रमा देख रहा है, सूर्य देखता है, नक्षत्र देखते हैं, पक्षी और नाना प्रकारके मृगोंको नहीं रोका जा सकता, यह विचार कर नारद कानोंको बिना काटे ही गुरुके पास आगया क्योंकि वह भव्य जीव था । उसने कहा कि वनमें ऐसे स्थानका मिलना असम्भव था जिसे कोई नहीं देख रहा हो । मैं नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपके विचार करनेमें चतुर हूँ, पाप और अपकोर्तिको कारण जो क्रियाएँ हैं उन्हें नहीं करना चाहिये, इस विचारसे मैंने इस बकरेको छिन्तांग नहीं किया है अर्थात् इसके कान नहीं काटे हैं। नारदका उत्तर सुनकर क्षीरकदम्ब अपने पुत्रकी मूर्खता को जान गया । वह विचारने लगा कि मिथ्यादृष्टि एकान्त से कहा करते हैं कि कार्य की सिद्धि कारण से होती है, वह असत्य है | यहाँ कारण गुरु है और शिष्य की बुद्धिका उत्कर्ष होना कार्य है परन्तु वह नियमसे नहीं होता क्योंकि मेरे पढ़ाने पर भी मेरा पुत्र मूर्ख है । इसलिये एकान्त मतको धिक्कार है । आखिर वह कुमत ही है । कारण के अनुसार कार्यं कहीं होता है और कहीं नहीं होता है 'ऐसा अनेकान्त मत ही सत्य है' इस तरह उसने अनेकान्त मतकी अनेक बार स्तुति की। नारद को योग्यता को जानकर क्षीरकदम्ब ने कहा – हे नारद ! तुम्हीं सूक्ष्म बुद्धि और यथार्थ ज्ञाता हो, आजसे मैं तुम्हें उपाध्याय पद पर स्थापित करता हूँ, तुम्हें सब शास्त्रोंकी व्याख्या करनी For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४५ ] भावप्राभृतम् ३०९ स्वपुत्रस्य जडत्वभावं ज्ञात्वा विचारयामास । यन्मिथ्यादृष्टय एकान्तेन ब्रुवन्ति कारणात्कार्यसिद्धिरिति तदसत्यं अत्र कारणं गुरुः कार्यं शिष्यबुद्धयुत्कर्षः तत्त्वेकान्तेन न भवति यतो मयि पाठयत्यपि मत्पुत्रो जड इति तेन घिगेकान्तं मतं तत्कुमतमेव । कारणानुगतं कार्यं क्वचिद्भवत्येव क्वचिन्न भवत्येवेत्यनेकान्तमतं सत्यमित्यनेकशस्तुष्टाव । नारदस्य योग्यत्वं ज्ञात्वा नारद ! त्वमेव सूक्ष्मबुद्धिर्यथार्थज्ञाता । अद्य प्रभृत्युपाध्यायपदे त्वं मया स्थापितः । सर्वशास्त्राणि त्वया व्याकर्तव्यानि इति तं प्रपूज्य प्रावर्धयत् । धीमतां सर्वत्र गुणैरेव प्रीतिः । निजसन्मुखं स्थितं पुत्रं जगाद-त्वं विवेकमन्तरेणैव एतद्विरूपकं चकथं, शास्त्रादपि तव कार्याकार्यविवेको नास्ति, मच्चक्षुः परोक्षे त्वं अरे कथं जीविष्यसि मूर्ख । एवं शोकेन दत्तशिक्षो नारदे वद्धवैरो बभूव । कुधियामोदृशी गतिर्भवति । चाहिये । इस प्रकार उसका सत्कार कर उसे खूब बढ़ावा दिया । बुद्धिमानों को सब जगह गुणोंसे ही प्रेम होता है । अपने सामने बैठे हुए पुत्र से उसने कहा कि तूने विवेक के बिना ही यह विरुद्ध कार्य किया है । शास्त्र से भी तुझे कार्य तथा अकार्य का विवेक नहीं हुआ । अरे मूर्ख ! मेरे नेत्रोंके पीछे अर्थात् मेरे मरने के बाद तू कैसे जीवित रहेगा ? इस प्रकार पिता ने तो उसे शिक्षा दी परन्तु शोक के कारण वह नारद पर वेर बाँध बैठा । सो ठीक हो है क्योंकि दुर्बुद्धि मनुष्यों की ऐसी ही गति है । एक दिन क्षीरकदम्ब गृह आदिका त्याग करता हुआ वसुके पास जाकर बोला कि यद्यपि पर्वत और उसकी माता दोनों ही मन्द-बुद्धि हैं. तथापि भद्र ! मेरे पीछे उनकी सब तरह से रक्षा करना । वसुने कहाहे पूज्यपाद ! आपके उपकार से मैं प्रसन्न हूँ। यह कार्य तो बिना कहे ही सिद्ध था, इस कार्य में मुझसे यह क्या कहना था ? इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये | आप यथायोग्य अपना परलोक सुधारिये । इस प्रकार की मनोहर वार्ता रूपी अम्लान मालाके द्वारा राजा वसुने ब्राह्मण की पूजा की क्षीरकदम्ब उपाध्याय ने समीचीन संयम को प्राप्त कर अन्तमें संन्यास - मरणके द्वारा उत्तम स्वर्ग लोक प्राप्त किया। इधर पर्वत पिताका स्थान प्राप्त करके सब दिशाओंसे आगत शिष्योंके लिये शास्त्रोंका व्याख्यान करने लगा । सूक्ष्म - बुद्धि नारद भी उसी नगर में स्थान बनाकर विद्वानोंके साथ रहने लगा और व्याख्यासे यशको धारण करने लगा अर्थात् शास्त्रोंकी व्याख्या से उसका यश सब ओर फैलने लगा । 1 For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते [ ५.४५ उपाध्यायस्त्वेका गृहादिकं त्यजन् वसुं गरबोवाच- पर्वतस्तन्माशा च द्वानपि मन्दषियो तथापि मत्परोक्षे त्वया सर्वथा भद्र ! पालनीयाविति । वसुरुवाच - हे पूज्यपाद भवदनुग्रहावहं प्रीतोऽस्मि । एतदनुक्तमेव सिद्धं । अस्मिन् कार्ये ममेदं कि वक्तव्यं । अत्र सन्देहो न कर्त्तव्यः । यथोचितं परलोकं कर्तुमर्हति भवान् । इति मनोहरकथा' म्लानमालया द्विजोत्तमं नृप आनचं । क्षोरकदम्ब उपाध्यायस्तु सम्यक्संयमं प्राप्य संन्यासं कृत्वोत्तमं स्वर्गलोकमवाप । पर्वतस्तु पितृस्थानमध्यास्य २ विश्वविशिष्याणां व्याकतु रति चकार । तस्मिन्नेव नगरे नारदो विद्वज्जनान्वितः सूक्ष्मबुद्धिविहितस्थानो व्याख्याया यशो बभार । एवं तयोः काले गच्छति सत्येकदा विद्वत्सभाय "अजेयं ष्टव्यमिति" वाक्यस्यार्थप्ररूपणे महान् विवादो बभूव । नारदः प्राह - अकुरशक्तिरहितं यवबीजं त्रिवर्षस्थं अजमिति कथ्यते तद्विकारेण वन्हिमुखे देवार्चनं विद्वांसो यज्ञं वदन्ति । पर्वत उपन्यसति स्म अजशब्देन पशुवस्तद्विकारेण हिरण्यरेतसि होत्रं 'यज्ञो विधीयते । इति तयोः ३१० इस तरह पर्वत और नारद दोनोंका समय बीत रहा था। एक दिन विद्वानोंको सभामें "अजेयंष्टव्यम्" इसका अर्थ निरूपण करने में विवाद उठ खड़ा हुआ । नारद कह रहा था कि अंकुर की शक्तिसे रहित तोन वर्षके पुराने जी 'अज' कहलाते हैं। उनसे बने हुए साकल्य के द्वारा अग्निकुण्ड में देव पूजा करनेको विद्वान् लोग यज्ञ कहते हैं और पर्वत कहता था कि अज शब्दसे पशुका एक भेद अर्थात् बकरा लिया जाता है उसके द्वारा निर्मित सामग्रीसे अग्नि में होम करना यज्ञ कहलाता है। इस प्रकार उन दोनों विद्वानोंके व्याख्यान को सुनकर साधु स्वभाववाले श्रेष्ठ ब्राह्मण बोले कि प्राणि-वध धर्म नहीं होता । नारदके ऊपर ईर्ष्यालु होनेके - कारण यह दुष्ट पर्वत पृथिवी पर अधर्म चलानेके लिये ऐसो व्याख्या कर रहा है। यह पापी है तथा साथ साथ वार्तालाप करने आदि कार्योंके अयोग्य है अर्थात् इस पापीके साथ वार्तालाप भी नहीं करना चाहिये । ऐसा कह कर लोगोंने उसे चाँटों से पीटा और अपमानित कर लोकमें घोषित कर दिया कि यह पापी है। दुर्बुद्धिका यही ऐसा फल होता है। १. म्लानं मालाया ड० । २. विश्वदिक शिक्षाणां म० विश्व शिक्षाणां ङ० । ३. व्याकतु मिति चकार क० । ४. ( यशोऽभिधन्ते ) For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.४५ ] भावप्राभृतम् ३११ सुघोप्रध्योरुपन्यासं श्रुत्वा ब्राह्मणमुख्याः साधवः प्राहुः प्राणिवषाद्धर्मो न भवति । नारदे मत्सरित्वात् पर्वतोऽवन्यामधमं प्रवर्तयितुं दुरात्मोपन्यास्थत् । पतितोऽयमयोग्यः सहसंभाषणादिषु इत्युक्त्वा चपेटाभिस्ताडितः निर्भत्सतोऽयं पापात्मा लोके घोषितः । दुर्बुद्धेः फलमत्रैवे दृशं भवति । एवं सर्वैरपि बहिष्कृतो मानभंगाद्वनं जगाम तत्र ब्राह्मणवेषेण कृतान्तारोहणासन्नसोपानपदवीमिव बलीरुद्वहता अन्धचक्षुषेव मुहुः स्खलता विरलेनां सितेन मूर्धजेन ततं राजतं शिरस्त्राणं समीपयम'जादुभयादिव दघता जराङ्गनासमासन्नसुखेनेव मीलन्चक्षुषा चलच्छिन्नकरेण करिव कुपितसर्पेणेव ऊर्ध्वश्वासिना राजवल्लभेनेवाऽग्रतो' स्फुटं पश्यता भग्नपृष्ठेन अपटुजल्पितेन 'समेन योग्यदण्डेन राज्ञेव त्रिगुणीकृतमुपवीतंघारयता विश्वभूनृप - सुलसासु निजं बद्धक्रोधं वक्तुमिव स्वाभिमतारंभसिद्धिगवेषिणा पर्यंते पर्यटन् पर्वतो महाकाला सुरेण दृष्टः सन् तमभिगम्यानम्य चाभिवादनमभ्यधात् । महाकालस्तं " इस प्रकार सबके द्वारा बहिष्कृत होकर मान भंगके कारण पर्वत वनमें चला गया। वहीं वनमें मधुपिङ्गल मुनिका जीव महाकाल नामका असुर घूम रहा था। वह ब्राह्मणके वेषमें था, यमराजके चढ़नेके लिये निकटवर्ती सीढ़ियोंके मार्ग के समान अनेक बलियों सिकुड़नोंको धारण कर रहा था, अन्धे मनुष्य की तरह वार वार गिर रहा था । उसके शिर पर विरल तथा सफेद बाल व्याप्त थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो समीपवर्ती यमराज से होनेवाले भयके कारण चाँदीका शिरस्त्राण ही धारण कर रहा हो । उसके नेत्र कुछ कुछ बन्द थे उनसे ऐसा जान पड़ता था कि मानों वृद्धावस्था रूपी स्त्रीके आलिङ्गनसे उत्पन्न सुखसे ही उसके नेत्र बन्द हो गये थे । वह उस हाथीके समान जान पड़ता था जिसकी कटी सूंड हिल रही हो । क्रुद्ध साँपके समान ऊपर को श्वास खींच रहा था, राजा के प्रिय मनुष्यके समान आगे स्पष्ट नहीं देखता था, उसकी पीठ शुकी हुई थी. वार्तालाप अस्पष्ट था, हाथ में योग्य दण्ड लिये हुए था इसलिये योग्य दण्ड- सेनासे सहित राजाके समान जान पड़ता था । विश्वभू मन्त्रो, सगर राजा और सुलसा स्त्री पर अपने बद्ध क्रोधको प्रकट करनेके लिये ही मानों तीन लड़ का यज्ञोपवीत धारण कर रहा था और अपने इष्ट कार्यके आरम्भ सम्बन्धी सफलता की खोज कर रहा था । १. मनतः स्फुटं क० । १. असमेन योग्यबण्डेन म० । For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ . षट्प्रामृते [५. ४५समाश्वास्य. सादरं तव स्वस्त्यस्त्वित्युवाच । तमविज्ञातपूर्वत्वात्प्राह त्वं कुतस्त्यो वने पर्यटनं कस्मादिति । पर्वतस्तु निजवृत्तान्तमादितः। प्राह । तत्श्रुत्वा महाकालश्चिन्तयामास । मम शत्रु सगरं निवंशीकर्तुं समर्थ एष स्यात् । भोः पर्वत ! तव पिता स्थंडिल:'अहं विष्णुरूपमन्युः । एतौ द्वावपि भौमोपाध्यायशिष्यौ शास्त्राभ्यासमकारिषातां । त्वत्पित मम धर्मभ्राता तमहं दृष्टुमागतः ममा गमनंत्वन्तर्गडु जातं । पुत्र पर्वत! मा त्वं भैषीः तव शत्रुविध्वंसेऽह सहायो भविष्यामि । इति क्षीरकदम्ब पुढेष्टार्थस्यानुगता अथर्वणगताः षष्ठिसहस्रप्रमिताः पृथक् ऋचो वेदरहस्यानीति स्वयमुत्पाद्य पर्वतमध्याप्य शान्तिपुष्ट्यभिचारात्मक्रियाः पूर्वोक्तमंत्रणनिशिताः पवनोपेताग्निज्वालासमा इष्टेः फलमुत्पादयिष्यन्ति, पशु हिंसनात्प्र पर्वत भी वहीं एक पर्वत पर घूम रहा था। महाकाल असुरने उसे देखा। पर्वत ने संमुख जाकर तथा नमस्कार करके अभिवादन का उच्चारण किया। महाकाल ने उसे आश्वासन देकर कहा कि तुम्हारा कल्याण हो और पहलेसे परिचित न होनेके कारण कहा कि तुम कहाँसे आये हो और वनमें किस लिये घूम रहे हो? पर्वतने प्रारम्भसे अपना सब वृत्तान्त कहा। उसे सुनकर महाकाल ने विचार किया कि मेरे शत्रुसंगरको निर्वंश करनेके लिये यह समर्थ हो सकता है। उसने कहा कि हे पर्वत ! तुम्हारे पिता स्थण्डिल (क्षीरकदम्ब ) और मैं विष्ण रूप मन्य, ये दोनों ही भौम नामक उपाध्यायके शिष्य थे तथा उनके पास शास्त्रका अभ्यास करते थे । तुम्हारे पिता मेरे धर्म भाई थे, इसलिए मैं उन्हें देखनेके लिये आ रहा था परन्तु मेरा आना व्यर्थ हआ। बेटा पर्वत ! तुम डरो मत, तुम्हारे शत्रुके नाशमें मैं सहायक होऊंगा। इस प्रकार क्षीरकदम्ब के पुत्र ( पर्वत ) के अभिलषित अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाली अथर्ववेद सम्बन्धी साठ हजार पृथक् ऋचाएँ पूर्वोक्त मन्त्रोंसे तीक्ष्ण-शक्तिशालिनी होती हैं और 'ये वेदके रहस्यको बतलाने वाली हैं,' ऐसा कह कर उस महाकाल असुरने स्वयं बनाई तथा पर्वत को पढ़ाई और कहा कि शान्तिक, पौष्टिक तथा अभिचारात्मक (बलिदानात्मक) क्रियाएँ यदि पशु-हिंसाके साथ प्रयोगमें लायी जाती हैं तो वायु से युक्त अग्नि की ज्वालाके समान यज्ञका फल उत्पन्न करती हैं । इसके बाद उसने पर्वतसे यह भी कहा कि हम साकेत-अयोध्या १. क्षीरकदम्बस्य द्वितीय नाम ( क x टी)। २. षट्सहस्र ऋचो वर्तन्ते पूर्व । एका मेकां ऋचं प्रति शतं शतं ऋचः प्रक्षेपित वान् तेन पष्टिसहस्रान्तिा असो वाता. (क+टो)। For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४५ ] ३१३ युक्ताः सत्य इति । ततः साकेतपुरमध्यास्य शांतिकादिफलप्रदं हिंसायोगं समारम्य प्रभावं वयं कुर्महे । इति पर्वतमुक्त्वा वैरिविनाशार्थं निजतीव्रदैत्यान् सगरराष्ट्रस्य बाधां ज्वरादिभिः यूय कुरुध्वमिति सम्प्रेष्य पर्वतेन युतः साकेतं महाकालासु रो गतः । पर्वतो मंत्रगभिताशीव दिनालोक्यं सगरस्य स्वप्रभावं प्रकाशितवान् । हे राजन् ! स्वदेश प्राप्तं त्रिषममशिवं अहं 'सुमित्रेण यज्ञेन लघु शेषयिष्यामि । भावप्राभृतम् "यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यज्ञो हि वृद्ध सर्वेषां तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥ " इति कारणात् स्वर्गमहासुखसाधनं पुण्यमेव भविष्यतीति पापी प्रत्याय्य तं जगाद । हे राजन् यागसिद्ध्यर्थं पशूनां षष्ठिसहस्राणि तद्योग्यमन्यद्द्रव्यं च संगृहाण । सगरोऽपि सर्वं मेलयित्वा तस्मै समर्पितवान् । पर्वतो यागं प्रारभ्य पशूनभिमंत्रयामास महाकालासुरस्तान् वषट्कृतान् शरीरेण सह स्वर्गं गतोऽयं स्वर्गं गतोऽयमिति विमानारूढानाकाशे नीयमानान् दर्शयामास । देशस्याशिवोपसर्गं तदैव नगरी में रह कर वहाँ शान्तिक आदि फलको देनेवाला हिंसायज्ञ प्रारंभ करेंगे और उसका प्रभाव दिखलावेंगे । इस प्रकार पर्वतसे कह कर वैरियों का विनाश करनेके लिये उसने अपने तीव्र आज्ञा-कारी दैत्यों को 'तुम लोग सगर के देश में ज्वर आदि से वाधा करो' ऐसी आज्ञा देकर सगरके देशमें भेजा और स्वयं भी पर्वत के साथ अयोध्या जा पहुँचा । पर्वतने मंत्र-भित आशीर्वाद देकर राजा सगरका दर्शन किया तथा उसके सामने अपना प्रभाव प्रकाशित करते हुए कहा कि हे राजन् ! तुम्हारे देशपर जो बहुत भारी अनिष्ट आया है, मैं उसे सुमित्र नामक यज्ञसे शीघ्र ही समाप्त कर दूँगा । यज्ञार्थ - यज्ञ के लिये पशु विधाताने स्वयं बनाये हैं । चूकि यज्ञ सबकी वृद्धिके लिये है, इसलिये यज्ञमें हुई हिंसा, नहीं है । इस कारण यज्ञसे स्वर्गके महान् सुखको देनेवाला पुण्य ही होगा इस प्रकार विश्वास दिलाकर पापी पर्वत ने राजा सगर से कहा- हे राजन्ं ! यज्ञकी सिद्धिके लिये साठ हजार पशु और उसके योग्य अन्य द्रव्यका संग्रह करो। सगर ने भो सब सामग्री इकट्ठी कर उसके लिये सौंप दी । पर्वत ने यज्ञ प्रारम्भ कर पशुओंको मन्त्रित किया । महाकाल असुर होमे १. यस्मिन् यज्ञे चतुःषष्टिसहस्राणां पशूनां वधः क्रियते स सुमित्रो यज्ञः कथ्यते । २. शोषयिष्यामि म० । For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ षट्प्राभूते [ १.४५ मिराचकार । तद् दृष्ट्वा मुग्धाः प्राणिनस्तद्वचनया मोहिताः सन्तः स्वर्गगतये स्पृहयन्तो यागमूर्ति भृशमाचकांक्षुः । सुमित्रयज्ञावसाने जात्यश्वमेकं विधिपूर्वकं हुतवान्, राजाज्ञया सुलसां च खलो वषट्चकार । प्रियकान्तावियोगदुःखदावानलज्वालाभिः प्लुष्टकायो राजा नगरं प्रविष्टः, शय्योपरि शरीरं निचिक्षेप । प्राणिहिंसमं महदिदं वृत्तं किमयं धर्मः किमधर्मः इति संशयानः स्थितः अन्यस्मिन्नहनि यतिवरनामानं मुनिमभिवन्द्य विज्ञप्तवान । भट्टारक ! मयारब्धं कर्म पुण्यं पाप वा सम्यक्कथय । यतिवरः प्राह धर्मशास्त्रबाह्यमिदं कर्म कर्तारं सप्तमं नरक प्रापयेत् । स्वामिन्नस्ति तत्राभिज्ञानं । मुनिराह - राजन् सप्तमे दिने तव मस्त दावानल की सगर नगर में संशय उठा कि गये उन पशुओं को 'यह शरीर के साथ स्वर्ग गया, स्वर्ग गया' इस प्रकार कहता हुआ विमान में बैठे आकाशमें ले जाते हुए लोगों को दिखाता था । देशके ऊपर जो अनिष्टकारी उपसर्ग आया था उसे भी उसने उसी समय दूर कर दिया। यह देख भोले प्राणी उसकी मायासे मोहित हो स्वर्ग जाने की इच्छा करते हुए यज्ञ में मरने की तीव्र आकांक्षा करने लगे । सुमित्र नामक यज्ञके अन्त में उसने एक उत्तम जातिके घोड़ेको विधिपूर्वक होम दिया। यही नहीं, उस दुष्टने राजाकी आशासे उसकी रानी सुलसा का भी होम दिया। प्रिय स्त्रीके वियोग - -जन्य दुःख रूपी ज्वालाओं से जिसका शरीर जल गया था, ऐसा राजा प्रविष्ट हुआ और शय्याके ऊपर लेट रहा। उसके मनमें यह बहुत भारी प्राणिहिंसा हुई है यह धर्म है या अधर्म ? दूसरे दिन उसने यतिवर नामक मुनिको वन्दना करके निवेदन किया कि स्वामिन् ! मेरे द्वारा प्रारम्भ किया कार्यं पुण्यरूप है या पाप रूप ? ठीक ठीक कहिये । मुनिराज बोले- यह कार्यं धर्म-शास्त्रसे बाह्य है तथा करने वालेको सातवें नरक पहुँचा सकता है । सगरने कहा - स्वामिन् ! इसका कुछ परि चायक है ? मुनिराज ने कहा- राजन् ! सातवें दिन तुम्हारे मस्तक पर वज्र गिरेगा, इस परिचायक चिह्नसे तुम सातवें नरक जाओगे । यह सुन कर राजाने भयभीत हो पर्वत से कहा । पवंतने कहा- राजन् ! यह नग्न साघु क्या जानता है ? फिर भी यदि तुम्हें शङ्का है तो इसकी भी शान्ति करते हैं, इस प्रकारके वचनोंसे उसके मनको स्थिर करके शिथिल कर दिया । पुनः उसने सुमित्र नामका ही यज्ञ प्रारम्भ किया । तदनन्तर सातवें दिन पापी असुर की माया से आकाश में खड़ी सुलसा कर रही थी कि मैं देव पदको प्राप्त हुई हूँ। पहले जो पशु मारे For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४५ ] भावप्राभृतम् ३१५ केऽशनिः पतिष्यति इत्यभिज्ञानेन त्वं 'सप्तमं नरकं यास्यसि । तदाकण्य राजा भीत्वा पर्वताय निवेदयामास । पर्वतः प्राह - राजन्नसौ नग्नः क्षपणकः किं वेत्ति तथापि यदि तव शंका वर्तते तदत्र शान्तिविधीयते इति वचनस्तस्य मनः सम्धार्य शिथिलीचकार । पुनः सुमित्रमेव यज्ञं प्रारब्धवान् । ततः सप्तमे दिने पापासुरस्य मायया सुलसा आकाशे स्थिता देवत्वं प्राप्ता पूर्वं पश्चग्रेसरी यागमृत्युफलेनैषा मया देवगतिर्लब्धा ? तं प्रमोदं तव निरूपयितुमहं विमानेनागता तव यज्ञेन देवाः पितरश्च प्रोणिता इत्यभाषत । तद्वचनात्प्रत्यक्षं यागमृत्युफलं दृष्टं, जैनमुनेर्वाक्यमसत्यं जातं । तदनु राजा तत्तीव्र ेण हिसानुरागेण सद्धर्मद्वेषेण संजातदुष्परिणामेन मूलोत्तरविकल्पितात् तत्प्रायोग्य समुत्कृष्टदुष्टसं क्लेश साघनात् नरकायुराद्यष्टकर्मस्वोचितस्थितेः अनुभागबन्धनिकाचितबन्धने सति भीषणाशनिरूपेण कालासुरेण तमस्तके पतिते सति यागकर्मासक्तनिखिलप्राणिभिः सह सगरः सप्तमे नरके पपात । स कालासुरस्तत्क्षणेन महाक्रोधस्तं दण्डयितु तृतीयनरकपर्यन्तं पृष्ठतो जगाम । तमदृष्ट्वा साकेतमागतः विश्वभू प्रभृतिवैरिवर्गमारणार्थ ४ निःशूकः सुलसा संयुक्तं सगरं विमानमारूढं व्योम्नि दर्शयामास । पर्वतप्रसादेन यज्ञपुण्येनाहं गये थे मैं उन सब में अग्रे सरो हूँ — प्रधान हूँ । यज्ञ में मृत्यु होने के फल स्वरूप ही मुझने यह देव गति पाई है । उस आनन्द को तुम्हें बतलाने के लिये मैं विमान से आई हूँ । तुम्हारे यज्ञसे सब देव तथा पूर्व पुरुष प्रसन्न हुए हैं। सुलसाके कहने से यज्ञमें मरनेका फल प्रत्यक्ष दिख गया, इसलिये जैन मुनि का कहना असत्य होगया । तदनन्तर राजा सगरको तीव्र हिसाके अनुराग, समीचीन धर्मके साथ होनेवाले द्वेष तथा मूल प्रकृति और उत्तर - प्रकृति के विकल्पसे युक्त उस पर्याय में होने योग्य सर्वाधिक दुष्ट संक्लेशके कारणों से उत्पन्न होनेवाले खोटे परिणामों से नरकायु आदि आठ कर्मोंका अपने योग्य स्थिति बन्ध तथा अनुभाग बन्धका निकाचित बन्ध होगया । उसी समय भयंकर वज्ररूप कालासुर (यमराज) मस्तक पर गिरा जिससे यज्ञ कार्य में लगे समस्त प्राणियों के साथ राजा सगर सातवें नरक में जा पड़ा । महाक्रोधसे भरा कालासुर उसे दण्ड देनेके लिये उसी समय तीसरे नरक तक पीछे पीछे गया परन्तु उसे वहाँ न देखकर अयोध्या को लौट आया । वहाँ आकरके उस दुष्टने विश्वभू मन्त्री आदि १. सप्तमे म० । २. राजा तीव्रण १० ३. काकातुरेण क० । ४. निर्णय: ( क० टि० ) । For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ षट्प्राभृते [ ५.४५ स्वर्गं गतः सुखं प्राप्तवानिति प्रशशंस । सगरपरोक्षे विश्वभूसचिवो राजा जातः । महामेघे उद्यमं चकार । महाकालासुरेण विमानगता देवाः पितरश्चाकाशे सर्वेषां व्यक्तं दशिताः । ते ऊचुः - भो विश्वभूस्त्वया महामेघः कृतः पुण्यवता त्वत्प्रसादेन वयं सर्वेऽपि वषट्कृताः स्वर्गसुखं प्राप्ता इति स्तुति चक्रुः नारदस्तापसाश्च तत् श्रुत्वानेन दुरात्मना एष दुर्भार्गोऽधिकृतो लोकस्य प्रकाशितः, धिक् पर्वतं निवारणीयोऽयमुपायेन केनचित् पापपण्डितोऽयमिति साकेतमागताः । यथाविधि विश्वभुवं विलोक्य ऊचुः - ये पापिनो नरा भवन्ति तेऽपि अर्थार्थं कामार्थं च प्राणिनां वर्ष न कुर्युः । केऽपि क्वापि धर्मार्थं प्राणिनां घातकाः किं सन्ति । अहो पर्वत ! वेदविद्भिर्ब्रह्मनिरूपिते वेदे ' अहिंसक एव वेद उक्तः । अहिंसा तु मातेव सखीव कल्पवल्लीव जगते हितोक्ता इति पूर्वषिवाक्यस्य प्रामाण्यं त्वयेच्छता कर्मनिबन्धनं कर्मेतद्वघप्रायं त्याज्यमेवेति तापसैरुक्तं । ते तापसाः सर्वप्राणिहितैषिणः । विश्वभूरुवाच - भोस्तापसाः ! साक्षात्स्वर्गसाधनं दृष्टं कर्म कथं त्याज्यं मयेति । नारदो विश्वभुवं प्रत्याह-सचिवोत्तम ! त्वं विद्वान् किमिदं कर्म स्वर्गसाघनं भवति ? सपरिवार सगरं निर्मूलयितुं कांक्षता केनचित्कुहकेनायमुपायः कृतो मुग्धानां मोहकारणं । ततः शीलोपवासादिकं कर्म स्वर्गसाधनमार्षागमोक्तं त्वयाप्याचर्यतां । शत्रुओं के समूहको मारनेके लिये सुलसा से सहित राजा सगर को विमान में बैठा हुआ आकाश में दिखलाया । विमानमें बैठा सगर प्रशंसा कर रहा था कि मैंने पर्वतके प्रसादसे जो यज्ञ किया था उसीके पुण्य से स्वर्ग पहुँच कर सुखको प्राप्त हुआ हूँ । सगरके पीछे विश्वभू मन्त्री राजा हुआ । उसने भी महायज्ञ का उद्यम किया | महाकाल नामक असुरने विमानों द्वारा आये हुए देव तथा पितर ( पूर्व पुरुष ) आकाश में सबको दिखाये । वे कहने लगे कि हे विश्वभू ! तुझ पुण्य - शालीने महामेध ( महायज्ञ ) किया है उसमें तुम्हारे प्रसाद से होमे गये हम सभी स्वर्ग-सुखको प्राप्त हुए हैं। इस तरह उन देवों तथा पितरोंने विश्वभू मन्त्री की स्तुति की। इधर नारद तथा अन्य तापसोंने जब यह सुना तब वे यह विचार करके अयोध्या आये कि इस दुष्टने यह खोटा मार्ग अपना कर लोगों को बतलाया है, इस पर्वतको धिक्कार है, इसे किसी उपाय से रोकना चाहिये, यह पाप पण्डित है अर्थात् पापके चलाने में निपुण है । वे सब १. विद्ये क० । २. शीतोप म० । For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.४५ ] भावप्राभृतम् विश्वभू: पर्वतं प्राह - पर्वत ! नारदः किलेवं वक्ति तत्त्वया श्रुतं ? पर्वतोऽसुरोक्तेन शास्त्रेण मोहितो दुर्मतिः प्राह- हंहो सचिवोत्तम ! इदं शास्त्रं नारदः किं न शुश्राव ? मम गुरुरस्य च मम पितैवासीत् । न चान्यः कोऽपि एष नारदः । तदापि मयि समत्सरः इदानीं कि वोच्यते 'मद्गुरोधर्म भ्राता स्थविरनामा जगति विख्यातः । सोऽपि श्रौतं रहस्यं यागमृत्युफलमेव प्रतिपादितवान् । मयापि साक्षात्प्रकटीकृतं । यदि तव प्रत्ययो नास्ति तहि विश्ववेदसमुद्रपारगं वसुं पृच्छेः । यः सत्येन गगने स्थितो वर्तते । तत्श्रुत्वा नारद उवाच - को दोषः स एव पृच्छयतां । इदं तावद्विचाराहः चेद्वघोऽत्र धर्मसाधनं तहि अहिसादानशीलादि पापप्रसाधनं भवेत् । एवं चेदस्ति तर्हि 'दाशादीनां परमा गतिरस्तु सत्यधर्मतपोब्रह्मचारिणां अधोगतिरस्तु । यज्ञ पशुवधाद्धर्मो वर्तते नान्यत्रेति चेन्न वधस्य दुःखप्रत्ययत्वे उभयत्र सादृश्यात् फलेनापि सदृशेन भाव्यं । अथ त्वं एवं वक्षि, पशूनां सृष्टिः स्वयंभुवा यज्ञार्थं कृता विश्वभूको देखकर बोले- जो पापी मनुष्य होते हैं वे भी धन तथा कामके लिये प्राणियों का वध नहीं करते। क्या कहीं भी कोई भी धर्मके अर्थ प्राणियों का घात करने वाले हैं ? वेदके जानने वाले विद्वानों ने ब्रह्मनिरूपित वेदमें अहिंसक वेदको ही वेद कहा है । 'अहिंसा माताके या सखीके अथवा कल्पलताके समान जगत् के हित करने के लिये कही गई है' पूर्व ऋषियों के इस वाक्य को यदि तुम प्रमाण मानते हो तो कर्मका बन्ध करने वाला तथा अधिकतर हिंसासे परिपूर्ण यह कार्य छोड़ ही देना चाहिये, ऐसा तापसों ने कहा । वे तापस सब प्राणियों का हित चाहने वाले थे । विश्वंभू ने कहा कि तापसो ! जो काम साक्षात् स्वर्गका साधन देख लिया गया है उसे मैं कैसे छोड़ सकता हूँ ? नारद ने विश्वभू से कहाहे मन्त्रि श्रेष्ठ ! तुम तो विद्वान् हो, क्या यह कार्य स्वर्गका साधन है ? परिवार सहित सगरको निर्मूल नष्ट करनेकी इच्छा रखने वाले किसी कपटीने भोले लोगोंको भ्रान्ति में डालने वाला यह उपाय रचा है । इसलिये शील तथा उपवास आदि कार्यं स्वर्गके साधन हैं, ऐसा आर्षआगममें कहा गया है, तुम भी उसे मान्य करो । विश्वभू पर्वतसे बोलापर्वत ! नारद जो ऐसा कह रहा है उसे तुमने सुना? कालासुर के द्वारा कहे हुए शास्त्रसे मोहित दुर्बुद्धि पर्वत बोला- अहो मन्त्रि श्रेष्ठ ! यह १. मम गुरो म० । २. दासादीनां म० क० । 'कैवर्ते दाशधीवरी' इत्यमरः । ३. त्वमेव वक्षि क० । ३१७ For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ षट्प्राभूते [ ५.४५ तन्न, अन्यथा विनियोगस्यागच्छमानत्वात् । अयमागमोऽतिमुग्धाभिलाषः विदुषां गर्हितः । यद्यदर्थं सृष्टं ततोऽन्यत्र विनियोगेऽर्थकृत कथं स्यात् । श्लेष्मदिशमनौषधं ततोऽन्यत्र कथमुपयोगि स्यात् । क्रयविक्रयादी हलानोभार 'वाहनादी महादोषः स्यात् २हे दुर्बलं ! त्वां वादिनं दृष्ट्वा सन्मुखमप्यागत्य ब्रूमः । यथा शस्त्रादिभिः प्राणिघाती पापेन बध्यते तथा मंत्रादिनापि घातकृत्पापेन बध्यते एवाविशेषत्वात् । हंहो पर्वत ! पश्वादिलक्षणा सृष्टिर्व्यज्यतेऽथवा क्रियते ? चेत्क्रियते तर्हि वपुष्पादिकमप्यविद्यमानं कथं न क्रियते । अथ विद्यमानैव सृष्टिर्यज्ञार्थं व्यज्यते तर्हि सर्ववचनं करणप्रतिपादकमनर्थकं स्वात् " प्रदीपज्वलनमेव घटादेः पूर्वमन्धकारप्ररूपकं शास्त्र क्या नारदने नहीं सुना है ? मेरे तथा इसके गुरु मेरे पिता ही थे । यह नारद कोई दूसरा नहीं है । उस समय भी यह मुझपर समत्सर था अर्थात् मुझसे ईर्ष्या रखता था फिर अब तो कहना ही क्या है ? 'मेरे गुरुका धर्म भाई स्थविर नामका विद्वान् था जो कि जगत् प्रसिद्ध था उसने भी यज्ञमें मृत्यु प्राप्त करना ही श्रुतिका रहस्य बतलाया था तथा मैंने भी साक्षात् प्रकट किया है अर्थात् लोगों को स्पष्ट दिखलाया है कि यज्ञ में मरे हुए प्राणी स्वर्गं गये हैं । यदि तुम्हें विश्वास नहीं है तो समस्त वेद रूपी समुद्र के पार - गामी राजा वसुसे पूछ लो जो सत्यके कारण १. वाहनादो भ० । २. दुर्बलं त्वां म० । ३. सन्मुखमागस्य म० । ४. पूर्व वचनं म० । ५. इतः पूर्व 'अथाभिव्यज्यते तस्य वाच्यं प्राक् प्रतिबन्धकम्' इति भावनिरूपकेण गद्यांशेन भवितव्यं, किन्तुपलब्ध- प्रतिषु न दृश्यते सः । ६. इस गद्यका मूल गुणभद्राचार्य के उत्तर पुराणके निम्न श्लोक हैं 'सश्रुतो मद्गुरोर्धर्म - भ्राता जगति विश्रुतः । स्थविरस्तेन च श्रौतं रहस्यं प्रतिपादितम् ।।३९८।। यागमृत्युफलं साक्षान्मयापि प्रकटीकृतम् । न चे ते प्रत्ययो विश्ववेदाम्भोनिधिपारगम् ।। ३९९॥ पर्व ६७ । इन श्लोकोंमें बताया गया है कि मेरे गुरुके धर्मभाई जगत् - प्रसिद्ध स्थविर नामके विद्वान् थे उन्होंने 'अजैर्यष्टव्यम्' इस श्रुतिका रहस्य मुझे बतलाया था अर्थात् बकरोंसे यज्ञ करना चाहिये यह श्रुतिका गूढ अर्थं मुझे बतलाया था। तथा मैंने भी यज्ञमें मृत्युका क्या फल होता है उसे साक्षात् प्रकट करके दिखाया है । परन्तु यहाँ गद्य में पदविन्यास कुछ अस्त-व्यस्त हो गया है For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४५ ] भावप्राभृतम् ३१९ यतः । अनावृतस्यैव व्यक्तिः क्रियते इति चेतहि सृष्टिवादो भवद्भिः पूर्वं क्रियतां ? इति नारदेन कृतमुपन्यासमाकर्ण्य सर्वेऽपि सभास्थास्तं तुष्टुवुः । अथ सभ्या ऊचुः - द्वयोर्विवादो वसुना चेच्छेद्यते तर्हि स एव अभिगम्यतां । इति श्रुत्वा ताभ्यां नारदपर्वताभ्यां [ समं ] सर्वापि संसत् स्वस्तिकावतीमुच्चचाल | तत्र पर्वतः सर्वं वृत्तान्तं स्वमात्रे निवेदयामास । सा तेन युता वसु ं ददर्श । पुत्र वसो ! पर्वतोऽपरिणीतः । तपोयुजा गुरुणापि तवायमर्पितः । नारदेन सह तव प्रत्यक्षे वादो भविष्यति, तत्र यद्यस्य भंगो भविष्यति तदास्य यमगृहप्रवेशो भविष्यतीति निश्चिनु । अस्य शरणमन्यो न वर्तते । वसुरुवाच । मातः ! गुरुशुश्रूषकोऽहं वर्ते । आकाश में स्थित रहता है । यह सुनकर नारद ने कहा- क्या हानि है ? उसीसे पूछ लिया जाय । विचारने योग्य बात तो यह है कि - 1 यदि हिंसा धर्मका साधन है तो अहिंसा, दान, शोल आदिको पापका साधन होना चाहिये । यदि ऐसा है तो धीवर आदिकी उत्कृष्ट गति हो और सत्य धर्म, तप तथा ब्रह्मचारियों की अधोगति हो । यदि तुम्हारा यह कहना है कि यज्ञ में पशु वधसे धर्म होता है अन्यत्र नहीं, तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि वध यज्ञमें हो चाहे यज्ञके बाहर हो — दोनों स्थानों पर दुःखका कारण है, अतः सदृशता के कारण फल भी समान होना चाहिये । यदि तुम यह कहो कि पशुओंकी सृष्टि विधाता ने यज्ञके लिये की है, तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि फिर अन्य प्रकारसे पशुओं का उपयोग संगत नहीं होता अर्थात् यज्ञ वध के सिवाय खेती आदिके hi उनका उपयोग नहीं होना चाहिये, यह आगम अर्थात् 'यज्ञार्थं पशवः सृष्टा:-' इत्यादि शास्त्र अत्यन्त मूर्ख जनोंकी इच्छा मात्र हैं तथा विद्वानों के लिये निन्दनीय हैं । जो जिसके लिये रचा जाता है उससे अन्य कार्य में उसका उपयोग होनेपर वह सार्थक कैसे हो सकता है ? कफ आदिको शान्त करने वाली औषधि दूसरे रोगमें उपयोगी कैसे हो सकती है ? खरीदना बेचना आदिमें तथा हल, गाड़ी और बोझा ढोना आदिमें महान् दोष होना चाहिये । हे दुर्बल ! तुझे वादी देख सन्मुख आकर हम कहते हैं 1 १. ' भवद्भिः क्रियताम्' इत्यत्र 'भवद्भिरूरीक्रियताम्' इति पाठः सुष्ठु प्रतिभाति ऊरी क्रियताम्स्वीक्रियताम् इत्यर्थः । २. सभास्तारास्तं म० सभावस्तारा ३० । ३. तपोमता म० । For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० षट्प्राभूते [५.४५"गुरुवद्गुरुपुत्र गुरुकलत्रं च पश्येत्” इत्यहं नीतिज्ञाऽस्य जयं करिष्यामि । त्वं भषीर्मा । अथान्येास्ते तथाविधं सिंहासनमारूढं वसु ददृशुः । तत्र विश्वभूप्रभृतयः संपप्रच्छुः । हे राजन् ! त्वत्तः पूर्वमपि अहिंसाधर्मरक्षणे तत्परा अत्र चत्वारो राजानो हिमगिरिमहागिरिसमगिरिवसुगिरिनामानो हरिवंशजाः पुरा च संजाताः। तत्रव वंशे विश्वावसुमहाराजः संजातः । ततश्च भवान् संबभूव । तत्राहिंसाधर्मरक्षित्वे किमुच्यते । त्वमेव सत्यवादीति प्रघोषस्त्रिभुवने वर्तते। वस्तुसंदेहे त्वं विषवत् वन्हिवत् तुलावत् वर्तसे । प्रत्ययोत्पादी त्वमेव, तेनास्माकं प्रभो ! संशयं छिद्धि । नारदः खल्वहिंसालक्षणं धर्म पक्षं कक्षीचकार । पर्वतस्तु तद्विपरीतमाचिक्षेप । तत्कथयतु भवानुपाध्यायस्योपदेशमित्यभ्यथितः । गुरुपल्या पुरा प्रार्थित उपाध्यायोपदेशं जानन्नपि राजा महाकालोत्पादितमहामोहो दुःषमकालनिकटवर्तित्वात् विषयसंरक्षणानन्दनामरौद्रध्यानतत्परः पर्वतोक्तं तत्वं वर्तते । प्रत्यक्षे वस्तुजिस प्रकार शस्त्र आदिके द्वारा प्राणीका घात करने वाला पापसे बद्ध होता है उसी प्रकार मन्त्र आदिके द्वारा घात करने वाला पुरुष भी पापसे बद्ध होता है क्योंकि दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है । हे पर्वत ! यह भी तो कहो कि पशु आदि की सृष्टि विधाताके द्वारा प्रकट की जाती है या नवीन रची जाती है ? यदि नवीन रची जाती है तो आकाशके फूल आदि अविद्यमान वस्तु भी क्यों नहीं रची जाती है ? यदि यह कहते हो कि पहले से विद्यमान सृष्टि ही यज्ञके लिये प्रकट की जाती है तो 'सृष्टि की जाती है' इस अर्थको प्रतिपादन करने वाले सभी वचन निरर्थक हो जावेंगे । यदि यह मान लिया जाय कि विद्यमान सृष्टि ही विधाता के द्वारा प्रकट की जाती है तो फिर उसका प्रतिबन्धक क्या है ? क्योंकि दीपकका जलना ही यह बतलाता है कि पहले घटादि पदार्थ अन्धकारसे आच्छादित थे । अर्थात् जिस प्रकार पहले अन्धकारसे आच्छादित घटादि को दीपक प्रकट करता है, उसी प्रकार यहाँ बतलाना चाहिये कि सृष्टि पहले किससे आच्छादित थी? इस दोषसे बचने के लिये यदि यह कहते हो कि सृष्टि किसासे आवृत नहीं थी, अनावृत सृष्टि ही प्रकट की जातो है तो फिर आपको सृष्टिवाद ही स्वीकृत करना चाहिये । इस प्रकार नारदके द्वारा किये हुए प्रस्तावको सुनकर सभामें बैठे हुए सब लोग उसकी स्तुति करने लगे। __ तदनन्तर सभासदोंने कहा कि यदि दोनोंका विवाद वसुके द्वारा समाप्त होता है तो उसीके संमुख चला जाय । यह सुनकर सभी सभा उन नारद और पर्वत के साथ स्वस्तिकावती को चल पड़ो। वहाँ जाकर For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '-५. ४५] भावप्रामतम् ३२१ न्यनुपपन्नता का। पर्वतोक्तयागेन सस्त्रीकः सगरः स्वर्गमवाप । ज्वलन्तं प्रदीप कोऽन्यो दीपो यस्तं प्रकाशयेत् । तेन पर्वतोक्तं यज्ञ स्वर्गसाधनं भयं त्यक्त्वा यूय कुरुध्वं । इति हिंसानृतानन्दबद्धनारकायुमिथ्यापापादपवादाच्चाभीरुर्जगाद । तदा ब्रह्माण्डं स्फुटितमिवाकाशे ध्वनिः संजातः, आकाशः खल्वित्याक्रोशं'चकारेव । किमाक्रोशयदाकाशः अहो नारद ! अहो तापसाः ! पृथिवीपतेर्मुखादीदृशमपूर्व घोरं वचनं संजातमिति । नद्यः प्रतिकूलजलस्रवाः संजाताः । सरांसि सद्यः शुष्काणि । रुधिरवर्षणमनारतं बभूव । सूर्यांशवो मन्दाः संजाताः। सर्वा दिशो मलीमसाः सम्पद्यन्ते स्म । भयविह्वलाः प्राणिनः कम्पं दधुः । तदा भूमिद्विधा भक्ति गता। तस्मिन् महारन्ध्र वसोः सिंहासनं ममज्ज। आकाशे स्थिता देवविद्याधरेशा इत्यूचुः-अहो वसुनरेन्द्र महाबुद्धे ! धर्मविध्वसनं मार्ग मा त्वमीदृशं वादीरित्यघोषयन् । सिंहासने निमग्ने सति पर्वतो वसुश्च पर्वतने सब वृत्तान्त अपनी मातासे कहा । माता पुत्रके साथ वसुसे मिली और उससे बोली बेटा वसु ! पर्वत अविवाहित है, तप धारण करते हुए गुरुने भी इसे तुम्हारे लिये सौंपा था। नारदके साथ तुम्हारे सामने इसका वाद होगा, उसमें यदि इसकी पराजय होगी तो इसका यमके घरमें प्रवेश होगा । ऐसा निश्चय करो। तुम्हारे सिवाय इसका और शरण नहीं है। वसुने कहा-'माता ! में गुरुका सेवक हूँ। गुरुके पुत्र और गुरुकी स्त्रीको समान ही देखना चाहिये। में इस नीतिको जानता हूँ अतः इसकी जीत करूंगा, तुम डरो मत ।' तदनन्तर दूसरे दिन सब लोगोंने उस तरहके अर्थात् अन्तरीक्ष दिखने वाले सिंहासन पर आरूढ़ राजा वसुके दर्शन किये । वहाँ विश्वभू आदिने पूछा कि हे राजन् ! आप से पूर्व भी यहां अहिंसा धर्मकी रक्षा करने में तत्पर रहने वाले हिमगिरि, महागिरि, समगिरि और वसुगिरि नामके चार राजा पहले हो चुके हैं। ये सब हरिवंश में उत्पन्न हुए थे उसी हरिवंश में विश्वावसू महाराज भी हुए थे और उनसे आप उत्पन्न हुए हैं। उस वंशमें अहिंसा धर्मको रक्षा सदासे होती आई है इस विषयमें क्या कहना है । 'आपही सत्यवादी हैं। इस प्रकार की जोरदार घोषणा तोनों लोकोंमें हो रही है । वस्तुमें संदेह उपस्थित होनेपर आप विषके समान, अग्निके समान अथवा तुलाके समान विद्यमान हैं। हे प्रभो! चूंकि विश्वासको उत्पन्न करने वाले आप ही हैं, अतः हम लोगोंका संशय दूर २१ For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ षट्प्राभृते [ ५.४५ परिम्लानमुखौ बभूवतुः । तौ तादृशी निरीक्ष्य महाकालस्य किंक रास्तापसाकारं गृहीत्वा समूचुः -- हे पर्वत हे वसो ! युवां भीति मा काष्टमित्युक्त्वा स्वयमुत्थापितं सिंहासनं दशयामासुः । तत्र स्थितो वसुरुवाच । अहं तत्ववित् कथं बिभेमि पर्वतस्य सत्यवचनं जानन्निति ब्रुवाणः कण्ठपर्यन्तं निमग्नवान् । तद् दृष्ट्वा साधवो जगदुः । अनेन मिथ्यावादेन भूपतेरियमवस्था संजाता । हे राजन् ! अद्यापि मिथ्यामागं त्यजेति साधुभिः प्रार्थितोऽपि तथापि मूर्खो यज्ञमेव सन्मार्ग कथितवान् । भूम्या कुपितया सर्वाङ्गोऽपि निगीर्णः सप्तमं नरकं जगाम । तदा कालासुरो लोकप्रत्ययनिमित्तं गगने स्थितं सगरवसुरूपद्वयं दिव्यं दर्शयामास । आवां करो। नारद ने अहिंसा लक्षण धर्मका पक्ष स्वीकार किया है और पर्वत उसके विपरीत आक्षेप कर रहा है। अतः आप गुरुका उपदेश कहिये अर्थात् यह बताइये कि गुरु-क्षोरकदम्ब का क्या उपदेश था । इसप्रकार विश्वभू मन्त्री आदिने राजा वसु से प्रार्थना की। गुरुपत्नी अर्थात् पर्वत की माता जिससे पहले प्रार्थना कर चुकी थी, महाकाल असुरने जिस महामोह - तो मिथ्यात्व उत्पन्न कराया था तथा जो विषय संरक्षणानन्द नामक रौद्र ध्यान में तत्पर था ऐसा राजा वसु गुरु द्वारा प्रदत्त उपदेशको जानता हुआ भी दुःषमकाल -- पंचम कालके निकटवर्ती होनेसे लगा कि जो तत्व पर्वतने कहा है, वही ठीक है । प्रत्यक्ष वस्तु में अनुपपत्ति क्या है ? पर्वत के द्वारा कहे हुए यज्ञके द्वारा सगर पत्नो सहित स्वर्गको प्राप्त हो चुका है। जलते हुए दीपकको दूसरा कौन दीपक है जो प्रकाशित कर सके ? इसलिये आप लोग पर्वत के द्वारा कहे हुए यज्ञको स्वर्गका साधन समझ, भय छोड़कर करो। इस प्रकार हिंसानन्द और मृषानन्द रौद्रध्यान के द्वारा जिसे नरकायु का बन्ध पड़ गया था तथा जो मिथ्या पाप और अपवादसे नहीं डर रहा था ऐसे वसुने कहा । उस समय आकाशमें ऐसा शब्द हुआ मानों ब्रह्माण्ड फट गया हो। ऐसा जान पड़ने लगा मानो आकाश ही चिल्ला चिल्ला कर कह रहा हो - अहो नारद ! अहो तापसो ! राजाके मुख से ऐसा अपूर्वं भयंकर वचन उत्पन्न हुआ है। नदियोंके जलका प्रवाह उल्टा बहने लगा, तालाब शीघ्र सूख गये, रक्तकी वर्षा निरन्तर होने लगो, सूर्यकी किरणें फीकी पड़ गईं, सब दिशाएँ मलिन हो गईं, प्राणी भयसे विह्वल होकर काँपने लगे। उसी समय पृथिवी फट गई और उस महाछिद्र में वसुका सिंहासन धँस गया । आकाशमे स्थित देव और विद्याधरोंके अधिपति यह कहने लगे - अहो महाबुद्धिमान् ! राजा वसु ! तुम इस तरह धर्मका विध्वंस करने वाले मार्गका For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४५] भावप्राभृतम् ३२३ यागश्रद्धया दिवमवापाव । यूयं नारदस्य वचनं मा मानयतेति प्रोच्य अन्तर्दधी कालासुरः । अथ शोकाश्चर्ययुक्तेन जनेन वसुः स्वगं गतो, न हि न हि नरक गत इति विसंवदमानेन सह विश्वभूः प्रयागं गत्वा राजसूयविधि विदधे । महापुराधिपप्रमुखा लोकस्य मूढत्वं निन्दन्तः परमब्रह्मनिर्दिष्टमार्गे मनाक् स्थितास्तस्थुः । नारदेन धर्ममर्यादा रक्षितेति तं प्रशस्य गिरितटनाम्नी पुरं तस्य ददुः । तापसास्तु दयाधर्मनाशस्य कारणं कलिकालं कलयन्ती यथास्थिति विधुराशया जग्मुः । अथान्येधुनारदो दिनकरदेवं विद्याधरं निजमभीष्टं प्रत्यवाच-पर्वतस्य विरुद्धाचरणं त्वया निवार्यतामिति । सोऽपि तथा करिष्यामीति नागान्तं गत्वा कथन मत करो। सिंहासन के धंस जाने पर पर्वत और वसु म्लान-मुख हो गये। उन्हें वैसा देख महाकालके किंकर तापसोंका आकार रख कर अर्थात् तापसोंके वेषमें आकर कहने लगे-हे पर्वत ! हे वसु ! तुम दोनों भय मत करो। इस प्रकार कह कर उन्होंने वसुके सिंहासन को ऊपर उठा हुआ दिखलाया । उस सिंहासन पर बैठा हुआ वसु कह रहा था'मैं तत्वका जानने वाला कैसे भयभीत हो सकता हूँ। मैं पर्वत के वचनोंको सत्य जानता है' इस प्रकार कहता हुआ वसु कण्ठ पर्यन्त पृथिवीमें धंस गया। यह देख साधुओंने कहा-इस असत्य कथन से वसु राजाको यह दशा हुई है । हे राजन् ! अब भी मिथ्यामार्ग छोड़ दो "इस प्रकार यद्यपि साधुओंने उससे प्रार्थना की थी तथापि वह मुख यज्ञको ही सन्मार्ग कहला गया। कुपित पृथिवी ने उसे सर्वाङ्ग निगल लिया तथा मर कर वह सातवें नरक गया। उस समय कालासुरने लोगों को विश्वास दिलाने के लिये आकाशमें स्थित सगर और वसुके दो दिव्य रूप दिखलाये । वे कह रहे थे कि हम दोनों यज्ञको श्रद्धासे स्वर्गको प्राप्त हुए हैं, तुम सब नारदका वचन मत मानो"इस प्रकार कह कर कालासुर अन्तहित हो गया। तदनन्तर शोक और आश्चर्य में निमग्न लोगोंमें कोई तो कहता था कि वसु स्वर्ग गया है और कोई कहता था कि नहीं नहीं नरक गया है । इस प्रकार विवाद करते हुए लोगोंके साथ विश्वभूने प्रयाग जाकर राजसय यज्ञको विधि की। महापूर के राजा आदि जो प्रमुख पुरुष थे वे लोगोंकी मूढ़ता को निन्दा करते हुए परमब्रह्म जिनेन्द्र देवके द्वारा निर्दिष्ट मार्गमें ही स्थित रहे। 'नारद ने धर्ममर्यादा की रक्षा की है' इस तरह उसकी प्रशंसा कर उसके लिये गिरितट नामको नगरी दी। For Personal & Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ षट्प्राभूते [ ५. ४५ निजविद्यया धारपन्नगान हूय तत्प्रपंचं निवेदयामास । धारपन्नागास्तु संग्रामे कालासुरं भंक्त्वा यागविघ्नं चक्रुः । विश्वभूपर्वतौ तद् दृष्ट्वा शरणान्वेषणौ यावेदासतां तावत्महाकालमग्रतः स्थितं ददृशतुः तदग्रे तं वृत्तान्तं निवेदयाञ्चक्रतुः । कालासुर उवाच - अस्मद्वेषिणो नागास्तैरयमुपद्रवो विहितः । विद्यानुप्रवादोक्ता नागविद्यास्तासां विजृंभणं जिनबिम्बानामुपरि न भवति ततः सुरूपान् जिनाकारान् चतुर्षु दिक्षु निवेश्य पूजयित्वा च यज्ञविधि युवां कुरुतमिति । तमुपायं श्रुत्वा तौ तथा चक्रतुः । पुनविद्याधराधिपो यागविघ्नं कर्तुं मागताः । जिनबिम्बोनि दृष्ट्वा नारदाय कथयति स्म यन्मेविद्या अत्र न क्रामन्तीति स्वस्थानं जगाम । तदनन्तरं यज्ञो निर्विघ्नो बभूव । तदनु विश्वभूः पर्वतश्च सप्तमं नरकं गतौ । दीर्घकालं महादुःखमनुबभूवतुः । अथ महाकालोऽभिप्रेतं साधयित्वा निजरूप I तापस लोग कलिकाल को दयाधर्मके नाशका कारण समझते हुए दुःखितहृदयसे यथा-स्थान चले गये । तदनन्तर किसी दिन नारदने दिनकर देव नामक विद्याधरसे अपने मनकी बात कही - आपके द्वारा पर्वतके विरुद्ध आचरणका निवारण किया जाना चाहिये । दिनकर देवने 'वैसा करूंगा' इस तरह अपनी स्वीकृति दे दी। उसने नाग जातिके देवके पास जाकर अपनी विद्या के द्वारा धारपन्नग नामक देवोंको बुलाया और पर्वतका यह सब प्रपञ्च कह सुनाया । धारपन्नग देवोंने संग्राम में कालासुरकों पराजित करके यज्ञ में विघ्न उत्पन्न कर दिया । विश्वभू और पर्वत उस विघ्नको देखकर जब शरण की खोज करते हैं तब सामने खड़े हुए महाकाल को देखते हैं । उन्होंने महाकाल के आगे सब वृत्तान्त कहा। कालासुर बोला - नाग देव हमारे द्वेषी हैं उन्होंने यह उपद्रव किया है। विद्यानुप्रवाद में नाग विद्या की गई हैं उनका प्रभाव जिन प्रतिमाओं पर नहीं होता इसलिये चारों दिशाओं में सुन्दर जिन प्रतिमाएं रखकर पूजा करो, इस प्रकार यज्ञ की विधिको तुम दोनों पूरा करो। उस उपाय को सुनकर विश्वभू और पर्वत ने वैसा हो किया । विद्याधरों का राजा फिर से यज्ञ में विघ्न करने के लिये आया परन्तु जिन प्रतिमाओं को देखकर नारद से बोला कि मेरी विद्याएं यहाँ नहीं चलती हैं। ऐसा कहकर वह अपने स्थान पर चला गया तदनन्तर यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हो गया । पश्चात् विश्वभू और पर्वत सप्तम नरक गये तथा दीर्घ काल तक महा दुःख भोगते रहे । For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.४६] भावप्राभृतम् ३२५ घृत्वा लोकान् प्रत्याह - पोदनापुरे पूर्वभवेऽहं मधुपिङ्गलो नाम राजा आसं । सुलसानिमित्तं मया महत्पापमुपार्जितं अहिंसालक्षणो धर्मो जिनेन्द्रः कथितः स भवद्भिः कर्तव्यो धर्मिष्ठैरिति संप्रोच्य अन्तदघी । पुनर्दयार्द्रधीः सन् सुदुश्चेष्टापापस्य प्रायश्चित्तं स्वयं चकार । किं प्रायश्चित्तं ? सम्मोहात्कृतस्य पापस्य निवृत्तिरेव प्रायश्चित्तं तामसौ चकार । अथ दिव्यबोधैर्मुनिभिरित्युक्तं विश्वभूप्रमुखा हिंसाप्रवर्तका नारका बभूवुः । तत्श्रुत्वा पर्वतोद्दिष्ट दुर्मार्गं केचित् पाप• भीरवो नाशिश्रियः । केचित्तु दीर्घंसंसारिणस्तस्मिन्नेव दुर्मार्गे स्थिता इति । इति श्रीभावप्राभृते मधुपिंगलद्रव्यलिगिनः कथा सामाप्ता' । अण्णं च वसिट्ठमुणी पत्तो दुक्खं नियाणदोसेण । सो णत्थि वासठाणो जत्य न दुरुदुल्लिओ जीव ॥ ४६ ॥ अन्यच्च वशिष्ठमुनिः प्राप्तः दुःखं निदानदोषेण । तन्नास्ति बासस्थानं यत्र न भ्रान्तो जीव ! ॥ ४६ ॥ पुनः तदनन्तर महाकाल ने इष्ट कार्य सिद्ध कर अपना असली रूप धारण किया और लोगों से कहा कि मैं पूर्वं भव में पोदनपुरमें मधु-पिंगल नामका राजा था । सुलसा के निमित्त मैंने यह महापाप उपार्जित किया है । जिनेन्द्र देवने जो अहिंसा लक्षण धर्म कहा है आप अब धर्मात्माओं को उसीका पालन करना चाहिये। ऐसा कह कर वह अन्तर्हित आद्र - बुद्धि होकर उसने अत्यन्त दुष्ट चेष्टा रूप पापका स्वयं प्रायश्चित्त किया। क्या प्रायश्चित्त किया ? अज्ञान से किये हुए पापका छोड़ देना ही प्रायश्चित्त है, इसी प्रायश्चित्त को उसने किया । तदनन्तर दिव्य ज्ञान के धारक अवधिज्ञानी मुनियों ने कहा कि हिंसा धर्म की प्रवृत्ति कराने वाले विश्वभू आदि नारकी हुए हैं अर्थात् नरक में गये हैं । यह सुनकर पापसे डरने वाले कितने ही लोगों ने पर्वत द्वारा उपदिष्ट मार्ग का आश्रय नहीं लिया अर्थात् उसे छोड़ दिया और कितने ही दीर्घं संसारी जीव उसी कुमार्ग में स्थित रह आये । इस प्रकार मधुपिङ्गल की कथा समाप्त हुई । गाथार्थ — और भी, वसिष्ठ मुनि निदान के दोषसे दुःख को प्राप्त हुआ सो ठीक ही है क्योंकि हे आत्मन् ! ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ यह जीव न घूमा हो ॥ ४६ ॥ १. परिसम्पूर्णा क० । For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ षट्प्राभृते [५.४६(अण्णं च वसिट्ठमुणी ) अन्यच्च भावरहितद्रव्यमुनिदृष्टान्तकथानकं वर्तते । . तत्कि वशिष्ठमुनिः। (पत्तो दुक्खं नियाणदोसैण ) प्राप्तो दुःखं निदानदोषेण शत्रुबधप्रार्थननिदानदोषेणतवमेन विष्णुना यः कंसनामा नृपो मारितः स वशिष्ठमुनिचरो मल्लयुद्धे मरणदुःख प्राप्तः । (सो णत्थि वासठाणो ) तन्नास्ति वासस्थानं जन्ममरणस्थानं । ( जत्थ न लुरुक्षुल्लिओ जीव ) हे जीव ! हे आत्मन् ! यत्र त्वं न जातो नोत्पन्नश्च दुरुढुल्लिओ भ्रान्त इति । वशिष्ठस्य कथा यथा___ गंगागन्धवत्यो द्योः संगमे जठरकौशिकं नाम तापसानां पल्ली बभूव । 'तत्र वशिष्ठो नायकः पंचाग्निव्रतं चरन्नास्ते स्म । तत्र गुणभद्रवीरभद्रनामचारणमुनिवरौ जगदतुः-अज्ञानकृतमिदं तप इति । तत्व त्वा वशिष्ठः कुधीः सक्रोधं तयोः पुरतः स्थित्वा पप्रच्छ–कस्मान्मेऽज्ञानतेति । तत्र गुणभद्रो भगवानाह यतः विशेषार्थ-भाव रहित द्रव्य मुनिका दूसरा दृष्टान्त भी है। वह यह कि वसिष्ठ नामका मुनि जो आगे चलकर कंस हुआ था, शत्रु के मारने की अभिलाषा रूप निदान के दोषसे नौवें नारायण श्री कृष्ण के द्वारा मल्ल युद्ध में मरण के दुःखको प्राप्त हुआ। वह जन्म-मरण का स्थान कोई ऐसा नहीं है जहाँ हे जीव ! तू न उत्पन्न हुआ हो, अथवा न घूमा हो । वशिष्ठ मुनिकी कथा इस प्रकार है__गङ्गा और गन्धवतो नदियों के संगम स्थान पर जठर कोशिक नामकी तापसियों की वसति थी। उसका नायक वशिष्ठ नामका साधु था जो पञ्चाग्नि व्रतका आचरण करता हुआ रहता था। एक वार वहाँ गुणभद्र और वीरभद्र नामक चारण ऋद्धि धारी मुनिराज पहुंचे। उन्होंने वशिष्ठ से कहा कि तुम्हारा यह तप अज्ञान के द्वारा किया हुआ है। यह सुनकर दुबुद्धि वशिष्ठ ने क्रुद्ध हो उनके आगे खड़ा होकर पूछा कि मेरी अज्ञानता किस कारण है ? उनमें भगवान गुणभद्र ने कहा क्योंकि सत्पुरुष हितभाषी होते ही हैं। उन्होंने जटाओं के समूह में उत्पन्न जुएं तथा लीखोंके निरन्तर घात को, जटाओं के मध्यमें लगी हुई छोटो छोटी लोखोंको तथा जलते हुए काठके मध्यमें स्थित कीड़ोंको दिखा कर समझाया कि तुम्हारा अज्ञान यह है। काललब्धि पाकर उस वशिष्ठ साधुने बुद्धिमान हो निम्रन्थ तप अर्थात् दिगम्बरो दीक्षा धारण कर ली और उपवास के साथ आतापन योग ग्रहण किया। उसके महान् तपके माहात्म्य से सात व्यन्तर देवताओं ने आगे खड़े होकर कहा-मुनिराज ! 'आज्ञा देओ' । मुनिने कहा इस समय मेरा कोई प्रयोजन नहीं है इसलिये तुम For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.४६ ] भावप्राभृतम् ३२७ सत्पुरुषा हि हितभाषिणो भवन्ति । जटाकलापसंजातयूकालिक्षाभिघट्टनं सततं स्नानेन जटामध्यलग्नमृतमीनकान् दह्यमानकाष्ठमध्यस्थितकीटकान् प्रदर्श्य इदं तवाज्ञानामति प्राबोधयत् काललब्धिमाश्रित्य स वशिष्ठः सुवीर्भूत्वा गुणभद्रचरणान्ते तपो निग्रन्थ गृहीत्वा सोपवासमातापनयोगं जग्राह । तत्तपोमाहात्म्यात् सप्तव्यन्तरदेवता अग्रतः स्थित्वा ब्रुवन्ति स्म - मुने ! आदेशं देहीति । मुनिराह - इदानीं मम प्रयोजनं नास्ति गच्छत यूयं । जन्मान्तरे मच्छिष्टि करिष्यथ । एवं तपः कुर्वन् वशिष्ठः क्रमेण मथुरापुरीमाजगाम । तत्र मासोपवासी सन्नातापनयोगे स्थितवान् । स उग्रसेनेन राज्ञा दृष्टः । भक्तिवशेन पुर्यां घोषणां कारयामास -- अयं मुनिमंद्गृहे एव भिक्षां गृह्णातु नान्यत्रेति । सोऽपि पारणादिने मथुरां जगाम । तत्राग्नि सब जाओ । जन्मान्तर में मेरा शेष कार्य पूरा करना । इप प्रकार तप करते हुए वशिष्ठ मुनि क्रम क्रमसे मथुरापुरी में आये । वहाँ एक मासके उपवासका नियम लेकर वे आतापन योग में स्थित हो गये । राजा उग्रसेन ने उनके दर्शन किये तथा भक्ति-वश नगर में घोषणा करा दी कि ये मुनि मेरे घर ही भिक्षा ग्रहण करें, अन्यत्र नहीं । पारणा के दिन मुनिराज भी मथुरा गये परन्तु वहाँ उठती हुई अग्निको देख लौटकर वनमें वापिस आगये और एक महीने के उपवास का नियम लेकर ध्यानारूढ होगये । मासोपवास समाप्त होने पर वे पुनः पारणा के निमित्त नगर में गये, परन्तु याग हस्तीका क्षोभ देखकर वन • में लौट आये, पुनः एक मासके उपवास कर पारणा के लिये नगर गये परन्तु उस दिन जरासन्ध का पत्र देखकर राजा व्यग्रचित्त था इसलिये मुनि फिर लौट आये। जब अत्यन्त दुर्बल शरीर के धारक वसिष्ठ मुनि लौट रहे थे तब उन्हें देख किसी मनुष्य ने कहा कि यह राजा मुनि को मारे डालता है, स्वयं भिक्षा देता नहीं है और दूसरों को रोकता है, न जाने इसका क्या अभिप्राय है ? यह सुनकर वशिष्ठ मुनिने पापके उदय से निदान किया कि मैं अपने दुष्कर तपके फल-स्वरूप इस राजा का पुत्र होऊँ और इसका निग्रह कर इसका राज्य ग्रहण करूँ । इस खोटे परिणाम से मरकर वह राजा उग्रसेन की पद्मावती रानी के गर्भ में पुत्र रूपसे स्थित हुआ । गर्भस्थित बालक की क्रूरता से उसे दोहला हुआ कि मैं राजा के हृदय का मांस खाऊँ । उस मांसको न पाने से वह दुर्बल हो गई। यह जान कर मन्त्रियोंने कृत्रिम मांस देकर उसका दोहला पूरा कर दिवा सो ठीक ही है विद्वान् क्या नहीं कर सकते हैं ? मनोरथ पूर्ण होनेपर For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ षट्प्राभृते [५. ४६मुत्थितं दृष्ट्वा व्याघुटय वनमाजगाम । पुनर्मासोपवास जग्राह । पुनः पारणार्थ मासोपवासावसाने पुरं गतः। तत्र यागहस्तिनः क्षोभं दृष्ट्वा वनमागतः । पुनर्मासोपवासपारणायां नगरं गतः । तदा जरासन्धपत्रकं दृष्ट्वा राजनि व्यग्रचित्ते सति पुनर्वलितः । तदा क्षीणशरीरं वशिष्ठमुनि दृष्ट्वा लोको जगाद-अनेन राज्ञा मुनिर्मारितः, स्वयं भिक्षां न ददाति परान् वारयतीति न ज्ञायते कोभिप्रायो नृपस्येति । तत्श्रु त्वा वशिष्ठो मुनिः पापोदयान्निदानं चकार । मम दुष्करतपःफलादस्य राज्ञः पुत्रो भूत्वा अमुनिगृह्य अस्य राज्यं गृह्यासमहमित्यनेन दुष्परिणामेन मृत्वा पद्मावतीगर्भे पुत्रतया स्थितः। सा गर्भिकक्रौर्येण दोहदं चकारराज्ञो हृदयमांसमग्रीमोति । तदप्राप्नुवन्ती दुर्बला बभूव । तज्ज्ञात्वा मंत्रिणः रानीने पापी पत्रको उत्पन्न किया। जब वह उत्पन्न हआ तब अपना ओठ डस रहा था, भौंहकी भङ्गसे सहित था और मद्रो बांधे था। उसे देख माता-पिता ने विचार किया कि यह पालन-पोषण करने योग्य नहीं है, अतः उसे छोड़ने का उपाय किया। एक कांसे की पेटी लाकर उसमें सब समाचार के साथ कंसको ( उस बालकको ) रख दिया तथा यमुना के प्रवाह में छोड़ दिया। कौशाम्बी नगरी में मन्दोदरी नामको एक कल्पपाली ( कलारन ) रहती थी उसने प्रवाह के बीच काँसेकी पेटी में रखे हुए उस बालक को देखा और पुत्र रूपसे उसका पालन किया । आचार्य कहते हैं कि तपस्वियों के हीन कोटिके पुण्य भो क्या नहीं करते हैं ? अर्थात् उनसे भी विशिष्ट लाभकी प्राप्ति होती है । कितने ही दिनों में वह बालक उलाहना आदिको सहन करने वाली अवस्थाको प्राप्त होगया। खेलता हुआ वह विना कारण ही समस्त बालकों को चाँटा, घुसा तथा दण्ड आदिसे मार देता था तथा हिंसाका पाप बाँधता था। उसके दुराचार के उलाहनों को जब मन्दोदरी नहीं सह सकी तब उसने उस पूत्र को छोड़ दिया। अब वह कंस शौर्यपुर जाकर वसुदेवका सेवक बन करके उनकी सेवा करने लगा। __ इसी बीच में तीन खण्ड पृथिवी के अधिपति राजा जरासन्धका एक कार्य वाकी रह गया था उसकी पूर्ति के लिये उसने समस्त राजाओं के समूह के पास इस आशयके पत्र भिजवाये कि सुरम्यदेश में पोदनपुरके स्वामी सिंहरथको युद्ध में बांधकर जो लावेगा उसके लिये मैं आधा देश तथा कालिन्द सेना से उत्पन्न अपनी जीवद्यशा नामकी पुत्री दूंगा उस पत्र को लेकर वसुदेव ने बचवाया और अपने घोड़ोंको सिंहके मूत्रसे संस्कारित For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.४६ ] भावप्राभृतम् ३२९ प्रयोगेण विहितं दोहद पूरयन्ति स्म । विद्वांसः किन्न कुर्युः । तदा सा पूर्णमनोरथा सुतपातकमसूत । मातापितरौ दष्टोष्ठं सभ्रूभंगं बद्धमुष्टिं तं दृष्ट्वा न पोषणे योग्योऽयमिति विचिन्त्य दद्विसर्जनोपायं चक्रतुः । कंसमयीं मंजूषामानीय सवृत्तकं कंसं तस्यां निघाय यमुनाप्रवाहे मुमुचतुः । कोशाम्बीपुरे मन्दोदरी नाम कल्पपाली, तया प्रवाहे मंजूषामध्ये स दृष्टः पुत्रतया पालितश्च । तपस्विनां हीनान्यपि पुण्यानि किं न कुर्युः । कैश्चिद्दिनैलंभनादिसहं वयः प्राप । आक्रीडमानो निष्कारण सकलबालकान् चपेटया मुष्ठिना दण्डादिना च प्रहारं ददाति वधपापं बध्नाति । तद्दुराचारोपलंभान् असहमाना मन्दोदरी तं तत्याज पुत्रं सोऽपि शौर्यपुरं गत्वा वसुदेवपदातिर्भूत्वा तत्सेवां करोति यावत् अत्रान्तरे जरासन्धो राजा त्रिखण्ड - मेदिनीपतिरपि कार्यशेषवान् ववृते । सुरम्यदेशे पोदनापुराधीशं सिंहरथं युद्धे बद्ध्वा य आनयति तस्मै वेशात्रं मत्सुतां कालिदसेनासंजातां 'जीवद्यशोनामानं ददामीति पत्रमालां राज्ञां समूहान् प्रति प्रेषयामास । तत्पत्रं वसुदेवो गृहीत्वा प्रवाचितवान् । निजाश्वान् सहमूत्रेण भावयित्वा तैर्बाह्य रथमारुह्य संग्रामे तं जित्वा कंसेन कर उन्हें रथ में जोता तथा उस रथ पर आरूढ हो संग्राम में सिंह - रथको जीता तथा अपने सेवक कंससे बंधवाकर उसे जरासंध को सौंप दिया । जरासंघ संतुष्ट होकर अपनी पुत्री और आधा देश देने लगा परन्तु वसुदेव ने उस कन्याको खोटे लक्षणों वाली देखकर कह दिया कि हे देव ! मैंने सिंहरथको नहीं बांधा है, यह कार्य कंसने किया है इसलिये आपके पास भेजने वाले इस कंसके लिये ही कन्या दी जावे । यह सुनकर जरासंध ने कमका कुल जानने के लिये मन्दोदरी के पास दूत भेजा । उसे देख मन्दोदरी 'क्या मेरे पुत्रने वहाँ भी अपराध किया है ?' इस भयसे उस मंजूषाको साथ लेकर वहाँ गई । जरासंध के आगे मंजूषा रखकर मन्दोदरी ने कह दिया कि यह इसकी माता है। कांसकी मंजूषा में रखा हुआ यह बालक यमुना के जल में बहता आया था मैंने प्राप्त करके इसे पाला-पोषा और बढ़ाया तथा कांसे की मंजूषा में मिलने के कारण मैंने इसका कंस नाम रक्खा । इसे स्वभाव से हो अपनी शूरता का घमण्ड है यह बाल्य अवस्था में भी निरर्गल स्वच्छन्द था । पीछे लोगों के सैकड़ों उलाहने आने लगे, तब मैंने इसे छोड़ दिया । यह सुनकर मंजूषा से पत्र लेकर जोरसे बचवाया तथा उसे राजा उग्रसेन और पद्मावतो का पुत्र जानकर उसके लिये पुत्री और आधा राज्य दे दिया । १. जीवाशा नामानं क० । For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० षट्प्राभूते [५.४६निजभृत्येन बन्धयित्वा सिंहरथं राज्ञे अर्पयामास । जरासन्धस्तु तुष्ट्वा निजसुतां देशाधं च ददौ । वसुदेवस्तु तां कन्यां दुष्टलक्षणां दृष्ट्वोवाच-देव ! नाहं सिंहरथं बद्धवान्, कर्मेदं कंसः कृतवान्, भवत्प्रेषणकारिणेऽस्मै कन्या प्रदीयतां । तत्श्रुत्वा जरासन्धः कंसस्य कुलं विज्ञातु मन्दोदरी प्रति दूतं प्रजिघाय । त दृष्ट्वा मन्दोदरी मम पुत्रः किं तत्रापि कृतापराध इति भीत्वा समंजूषा तत्र जगाम । जरासन्धाने मंजूषां निक्षिप्य इयमस्य मातेत्युवाच । देव ! 'कसमंजूषामधिष्ठायाऽर्भक आगतो यमुनाजले मया लब्धः प्रतिपाल्य बधितश्च तत एव नाम्ना कंसः कृतः । अयं स्वभावेन शौर्यर्पिष्ठः शिशुत्वेऽपि निरर्गलः पश्चादुपालंभशतैर्लोकानां मया वजितः । तत्थ त्वा मंजूषायाः पत्रं गृहीत्वा उच्चचियामास । उग्रसेनपद्मावत्याः सुतं विज्ञाय सुतामधराज्यं च तस्मै विततार । कंसोऽपि जातमावोऽहं नद्यां प्रवाहित इति क्रोधेन मथुरापुरं स्वयमादाय मातरपितरौ बन्धस्थी कृत्वा गोपुरे धृतवान् । विचारविकलाः पापीयांसः कुपिताः किं किं न कुर्युरिति । अथ वसुदेवं महीपतिं पुरमानीय निजानुजां देवकी दत्वा तत्र तं स्थापितवान् महाविभूतिमन्तं तं चकार एवं सुखेन कंसस्य काले गच्छति सत्येकदाऽतिमुक्तको __ कंस ने भी 'मुझे उत्पन्न होते ही इन्होंने नदी में बहा दिया था' इस क्रोधसे मथुरापुरो आकर तथा स्वयं माता-पिताको बन्धन में डालकर गोपुर के ऊपर रख दिया सो ठीक ही है क्योंकि विचार-हीन पापी मनुष्य क्रुद्ध होकर क्या क्या नहीं कर बैठते हैं ? तदनन्तर कंसने राजा वसुदेव को अपने नगर लाकर उन्हें अपनी छोटी बहिन देवकी दी तथा उन्हें वहीं रखकर महा विभूति से युक्त कर दिया। इस प्रकार कसका समय सुखसे बीत रहा था कि एक दिन अतिमुक्तक नामका मुनिराज भिक्षाके लिये राजभवन में प्रविष्ट हुए उन्हें देख हर्षित होती हुई जीवद्यशा ने हास्य भावसे कहा कि मुनि ! देवको नामक तुम्हारी छोटो बहिन अपना यह ऋतु-कालीन वस्त्र तुम्हें दिखलाती है और अपनी चेष्टा को प्रकट करतो है। वह सुन मुनिने क्रोध करके तथा वचन-गुप्तिको तोड़कर कहा कि मूर्खे ! क्यों हर्षित होती है, देवकी का जो पुत्र होगा वह तेरे भर्ताको अवश्य मारेगा। यह सुन जीवद्यशा ने उस वस्त्रके दो टुकड़े कर दिये । मुनिने फिर कहा कि मूर्ख ! न केवल तुम्हारे पतिको ही मारेगा किन्तु तुम्हारे पिताको भो मारेगा । इतना कहने पर उसने कुपित होकर उस वस्त्रको पैरों से रौंद दिया । यह देख मुनिने फिर कहा कि मूर्ख ! तेरी १. कंसस्य तृणविशेषस्य मंजूषा तां । For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतम् मुनिभिक्षार्थ राजमन्दिरं प्रविष्टः । तं दृष्ट्वा जीवद्यशा हर्षमाणा 'तं हास्येनोवाच-हे मुने ! देवकी तव लघुभगिनी पुष्पजानन्दवस्त्रं तवतद्दर्शयति वस्त्रण स्वचेष्टितं प्रकाशयतीति । ततश्रु त्वा मुनिः कोपं कृत्वा वाग्गुप्ति मित्वा जगाद-मुग्धे ! किं हृष्यसि देवक्या यो भविष्यति पुत्रः स तव भर्तारमवश्यं हनिष्यति । तत्श्रुत्वा जीवद्यशा कोपेन तद्वस्त्रं द्विधा चक्रे । मुनिराह-मुग्धे! न केवलं तव पतिमेव हनिष्यत्यनेन पितरमपि तव हनिष्यति । इत्युक्ते सा कुपित्वा तद्वस्त्रं पादाम्याममर्दयत् । तदृष्टवा मुनिजंगाद-मुग्धे ! अनेन सागरावधि पृथ्वी नारीमिव पालयिष्यति । जीवद्यशास्तत्श्रुत्वा गत्व कान्तं भर्ने निवेदयामास । कसो भीत्वा हास्येनापि प्रोक्तं मुनेः सफलं भविष्यतीति इस चेष्टा से सिद्ध होता है कि वह सागरान्त पृथिवी का स्त्री की तरह पालन करेगा। जीवद्यशा ने यह सुन एकान्त में जाकर पतिसे सब समाचार कहा। मुनि हास्यभावसे यदि कुछ कहदे तो वह सफल-सत्य होता है यह सोचकर कंस डर गया। उसने राजा वसुदेव के पास जाकर स्नेह के साथ यह याचना को कि पूर्व-दत्त वर-दानसे देवको हमारे घरके भीतर ही प्रसूति करे। कंसके उपरोध में आकर वसुदेवने 'तथास्तु' ऐसा हो हो, कह दिया सो ठीक ही है क्योंकि अवश्य होनहार कार्योंमें मुनि भी भूल कर जाते हैं। - तदनन्तर उन्हीं मुनिने एक दिन भिक्षा के लिये देवकोके घर में प्रवेश किया। वसुदेव और देवकी ने उन्हें पड़िगाह करके आहार कराया। पश्चात् हम दोनों क्या दीक्षा धारण कर सकेंगे? इस तरह छलसे पुत्रोत्पत्तिके विषय में पूछा । मुनि उनका अभिप्राय जानकर बोले-तुम दोनोंके सात पुत्र होंगे, उनमें छह पुत्र दूसरेके स्थान में वृद्धिको प्राप्त कर मोक्ष जावेंगे परन्तु मातवां पुत्र अपने छत्र की छाया द्वारा पृथिवोको संतुष्ट कर चक्रवर्ती (नारायण) होता हुआ उसका पालन करेगा। तदनन्तर देवकी ने तीन युगल पुत्र प्राप्त किये अर्थात् क्रमसे तीन बार युगल पुत्र उत्पन्न किये। ज्ञानी इन्द्रने उन सबको चरम शरीरी जानकर नेगमर्ष नामक देवसे कहा कि इनकी तुम रक्षा करो । उस देवने भद्रिलपुर में अलका नामकी वणिक पुत्री के आगे उन पुत्रोंको रखकर तथा उसके उस समय हुए मृत युगल पुत्रोंको लाकर देवकी के आगे रख दिया । कंस -उन युगल पुत्रोंको मरा देखकर ये मेरा क्या करेंगे? इस तरह मुनिका १. तव चेष्टितेन । For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ षट्प्राभृते [ ५.४६ वसुदेवं राजानं गत्वा सस्नेहमिदमयाचत देवकी मम गृहान्तरे प्रसूति 'कुर्यान्मतादिति । वसुदेवस्तेनोपरुद्धः संस्तथास्त्विति जगाद अवश्यंभाविकार्येषु मुनिरपि मुह्यति । अथैकदा स मुनिर्देवकीगेहं भिक्षार्थं प्रविवेश । वसुदेवो देवकी च तं प्रतिगृह्य `भोजयित्वोवाच—आवयोर्दीक्षा भविष्यतीति छद्मना जगदतुः । मुनिस्तदिङ्गितं ज्ञात्वोवाच युवयोः सप्त पुत्रा भविष्यन्ति तेषु षट् पुत्राः परस्थाने वृद्धिमित्वा मोक्षं यास्यन्ति सप्तमस्तु पुत्रो निजच्छत्रच्छायया पृथ्वीं निर्वाप्य चक्रवर्ती दीर्घकालं पालयिष्यति । देवकी ततस्त्रियमलान् लेभे । तान् ज्ञानवान् शक्रश्चरमाङ्गान् ज्ञात्वा नैगमर्ष देवं प्रोवाच एतांस्त्वं रक्ष । स च भद्रिलपुरे अलकाया वणिक्पुत्र्याः पुरो निक्षिप्य तत्पुत्रांस्तदा भूतात् गृहीत्वा मृतान् यमान् देवक्यग्रे निचिक्षेप | कंसस्तान् मृतान् यमान् दृष्ट्वा किममी मे मृताः करिष्यन्तीति वचन झूठ होगया' यह कहने लगा फिर भी कुछ आशङ्का से युक्त हो उन्हें शिला पर पछाड़ता गया । पश्चात् देवकी ने सातवां पुत्र सातवें ही मास में अपने घर में ही उत्पन्न किया । वह पुत्र महाशुक्र स्वर्ग से च्युत होकर आया था तथा निनामक मुनिका जीव था । वसुदेव और बलभद्र नीति के जानकार थे, अतः उन्होंने देवकी को सब समाचार बतलाकर उससे बालक ले लिया । भद्र ने बालक को उठाया और पिताने छत्र लगाया तथा रात्रिमें ही उसे बाहर निकाल दिया । पुत्रके पुण्य से नगर देवता बैलका रूप रख अपने सींगों पर रखीं मणिमय दीपिकाओं से प्रकाश करता हुआ मार्ग दिखाता जा रहा था । उस बालक के परके स्पर्श से गोपुर के किवाड़ शीघ्र ही खुल गये। वहाँ बन्धन में पड़े उग्रसेन बोले कि किवाड़ोंका उद्घाटन कौन कर रहा है ? बलदेव ने कहा- जो तुम्हें बन्धन से मुक्त करेगा, अतः चुप रहो । 'ऐसा ही हो' इस प्रकार आशीर्वाद के द्वारा उसका अभिनन्दन कर उग्रसेन चुप हो गये । अब बलदेव और वसुदेव यमुना नदी के पास पहुँचे । होनहार चक्रवर्ती के प्रभावसे यमुनाने भी दो भागों में विभाजित हो मार्ग दे दिया सो ठीक ही है क्योंकि समान वर्ण वाला [ पुत्रकी कान्ति थी तथा यमुना का पानी भी काले रङ्गका था इसलिये पुत्र और १. पूर्वदत्तवरदानात् ( क० टि० ) 1 २. म प्रती उवाच नास्ति । ३. त्रियंमान् म० । For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ४६ ] भावप्राभृतम् ३३३ मुनेर्वाक्यमसत्यमभूदिति प्रोच्य साशंक : शिलायामास्फालयामास । पश्चाद्देवकी सप्तमं पुत्रं सप्तम एव मासे जनितवती निजगृहे एव महाशुक्राच्च्युतं निर्नामकचरं मुनिवरं । वसुदेवो बलभद्रश्च नीतिमन्ती, देवकीं ज्ञापयित्वा गृहीतवन्तौ, बलेन बाल उद्घृतः, पिता घृतच्छत्रो रात्रावेव निष्कासितः । तत्पुण्येन पुरदेवता वृषभरूपेणाग्र ेऽग्र े निजश्टङ्गामणिदीपिकाकृतोद्योता मार्ग दर्शयामास । 'तद्वालपादस्पर्शाद्गोपुरमुद्घाटिताररं सद्यो जातं । तत्र बन्धनस्थित उग्रसेन उवाच कपाटोद्घाटनं कः करोति ? बलदेव उवाच - यस्त्वां बन्धान्मोचयिष्यतीति तूष्णीं तिष्ठेति । उग्रसेन एवं भवत्वित्याशीभिरभिनन्द्य स्थितः । तौ तु यमुनामितौ । सा भविष्यञ्च क्रिप्रभावेन द्विधा भूत्वा मार्ग ददौ । सवर्णः का वा पुत्र प्राप्ति के लिये गन्ध यमुना में कविने सवर्णता बतलाई है ] ऐसा कौन सार्द्र - दयालु (यमुनापक्ष में जलसे सहित ) है जो सहायता न करे । आश्चर्य से युक्त बलदेव और वसुदेव यमुना को पार कर जब आगे गये तो उन्होंने बालिकाको लेकर आते हुए नन्दगोप को देखा । उसे देखकर उन्होंने कहा कि हे भद्र ! तुम अकेले रात्रि में यहाँ किस लिये आये हो ? नन्द गोपने प्रणाम कर कहा कि मेरी प्रियाने जो कि आपकी सेविका है आदि से देवता को पूजा कर याचना की थी- हे देवि ! तू मेरेलिये पुत्र दे। मेरी उस प्रिया ने आज रात्रि पुत्री प्राप्त की । वह बोली कि यह स्त्रीरूप सन्तान उन्हीं देवताओं के लिये दे आओ । हे स्वामिन् ! शोकसे युक्त प्रिया के कहने से यह स्त्री रूप सन्तान देवताओं को देनेके लिये मेरा यह प्रयास हो रहा है, ऐसा नन्दगोपने कहा । उसके वचन सुन बलदेव और वसुदेव 'हमारा कार्य सिद्ध हो गया' इसलिये हर्षित होते हुए उससे बोले तुम हमारे अभीष्ट हो इसलिये तुमसे एक गूढ़वात कही जाती है । यह बालक चक्रवर्ती होगा तुम इसका पालन करो और यह बालिका हमारे लिये दे दो । बालिका को लेकर बलदेव और वसुदेव गुप्त रूपसे नगर की ओर चल दिये तथा नन्दगोप घर जाकर अपनो स्त्रीसें बोला – प्रिये ! देवताओं ने संतुष्ट होकर तुम्हें महा पुण्यवान् पुत्र दिया है वे बहुत प्रसन्न हैं, यह कह कर नन्दगोप ने वह पुत्र स्त्री के लिये सौंप दिया। - इधर कंसने जब सुना कि देवकी ने पुत्रीको जन्म दिया है तो उसने वहाँ जाकर उस पुत्रोको भग्ननासा कर दिया अर्थात् उसकी नाक विकृत ४. कपाट । For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ षट्प्राभृते [ ५. ४६ बन्धुतां सार्द्रा न कुर्यात् । तौ विस्मितौ यमुनां व्यतिक्रम्य बालिकामुद्धृत्यागच्छन्तं नन्दगोपति ददृशतुः । तं दृष्ट्वा तावूचतुः - भद्र ! त्वमसहायो रात्रावत्र किमित्यागतः । स प्रणम्योवाच — मम प्रिया युष्मत्प्रचारिका पुत्रार्थं गन्धादिभिः पूजित्वा देवतां याचितवती - देवि ! पुत्रं मे देहीति । 'साद्य रात्री पुत्रीं लेभे । सोवाचेति स्त्र्यपत्यं ताभ्य एव देहि । तस्याः सशोकाया वचनादिदं स्त्र्यपत्यं देवताभ्यो दातु ं मम प्रयासोऽयं स्वामिन्निति जगाद् । तद्वचनं तौ श्रुत्वाऽस्मत्कार्यं सिद्धिमिति प्रहृष्य तमूचतुः — त्वमस्माकमभीष्टस्तेन तव गुह्यं कथ्यते, अयं बालश्चक्री भविष्यति त्वं पालयेति । इयं तु बालिकाऽस्मभ्यं दीयतामिति । तां गृहीत्वा गूढतया पुरं गतौ । नन्दगोपस्तु गृहं गत्वा प्रियां प्राह-प्रिये ! देवता तुष्टा महापुण्यं पुत्रं तुभ्यं ददुः प्रसन्ना इति प्रोच्य तं पुत्रं तस्यै समर्पयामास । कंसस्तु देवकी पुत्री प्रसूतवतीति श्रुत्वा तत्र गत्वा तां सुतां भग्ननासां चकार । मात्रा तु सा बालिका भूमिगेहे वर्धिता प्रौढयोवना नासाविकृति विलोक्य आर्थिकापार्श्वे कर दी । माताने उस पुत्री का भूमि-गृह-तलघर जैसे गुप्त स्थानमें उसका पालनपोषण किया। जब वह प्रोढयौवनवती हुई तो नासा की विकृतिको देख उसने शोकवश आर्यिका के पास उत्तम व्रतों से युक्त दीक्षा ग्रहण कर ली । तथा विन्ध्य पर्वत पर स्थान का योग लेकर अर्थात् यहाँ से अन्यत्र न जाऊँगी ऐसा नियम लेकर रहने लगी। कुछ वनवासी लोग 'यह देवता है' ऐसा समझ उसकी पूजा कर गये ही थे कि रात्रि में व्याघ्रने उसे खा लिया तथा मरकर वह स्वर्गलोक गई । तदनन्तर दूसरे दिन उन वनवासियोने उसके हाथकी तीन अंगुलियां देखीं। उस देशके अविवेकी निवासियोंने उन तीन अँगुलियों को दूध तथा केशर आदि से पूजा कर उस आर्या को विन्ध्यवासिनी देवी रूपसे प्रमाणिक किया । तदनन्तर उस नगर में बड़े-बड़े उत्पात होने लगे । उन्हें देख कंसने वरुण से पूछा कि इनका फल क्या है ? वह बोला कि तुम्हारा बड़ा भारी शत्रु उत्पन्न हो चुका है । निमित्त ज्ञानी के वचन सुनकर राजा कंस चिन्ता - निमग्न हो गया । उसी समय पूर्वोक्त देवताओं ने आकर पूछा कि क्या कार्य करने के योग्य है ? कंसने कहा - मेरा पापी शत्रु कहीं उत्पन्न हो चुका है सो उसे खोजकर तुम लोग मार डालो। यह सुनकर सातों ही देवता 'तथास्तु' कहकर चल दिये। उन देवताओं में एक पूतना नामकी देवी थी । वह विभङ्गावधिज्ञान से वासुदेवको जान गई तथा उसे मारने के १. यशोदा । For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४६ ] भावप्राभृतम् ३३२ सुव्रतां दीक्षां जग्राह शोकेनेति । विन्ध्यपर्वते स्थानयोगं गृहीत्वा स्थिता । वनवासिषु देवेतेति पूजयित्वा गतेषु रात्रौ व्याघ्रेण भक्षिता स्वर्गलोकं जगाम । अथापरस्मिन् दिने व्यार्धैर्हस्ताङ्गुलित्रयं दृष्टं । क्षीरकुंकुमादिभिः पूजित देशवासि - भिर्विमूढात्मभिरसावार्या विन्ध्यवासिनी देवतेति प्रमाणिता । अथ तस्मिन् पुरे महोत्पाताः प्रसृताः । तान् दृष्ट्वा कंसेन वरुणः पृष्टः किमेषां फलमिति स आह-तव शत्रुः समुत्पन्नो महान इति । नैमित्तिकवचनं श्रुत्वा राजा चिन्तावस्थो बभूव तदा पूर्वोक्ता देवताः समागताः किं कर्तव्यमिति पप्रच्छुः । स आह - मम शत्रु पापिष्ठं क्वचिदुत्पन्नमन्विष्य मारयत यूयं तत्श्रुत्वा सप्तापि गतास्तथास्त्विति । तत्र पूतना विभंगात् ज्ञात्वा वासुदेवं मारयितुं यशोदात्तन्मातृरूपं गृहीत्वा विषस्तनपानोपायेन दुष्टा मारणं चिकीकिता । तद्वालपालनोद्युक्ता काचिदन्या देवता स्तनदा - नावसरे बलवत्पीडां चकार । तत्पीडां सोढुमसमर्था मृताहमित्याक्रोशं कृत्वा पलायिता ( १ ) । द्वितीया देवता शकटाकारं गृहीत्वा शिशुपरि धावन्ती तेन ताडिता नष्टा (२) । अपरेद्युर्नन्दगोपी कट्यामुद्खलं बदृद्ध्वा जलमानेतु ं गता तथापि शिशुरन्वगमत् । तदा तं बालं मारयितुं द्वे देवते अर्जुनतरू भूत्वा तदुपरि पतन्त्यौ मूलादुन्मूलयामास ( ३-४ ) । विष्णोश्चंक्रमण'वेलायामेका तालत भूस्वा तन्मस्तके फलानि दृषदोऽपि निष्ठुराणि पातयितुमुद्यता (५) । अपरा लिये उसने बालक की माता यशोदा का रूप ग्रहण किया। वह दुष्टा विष मिश्रित स्तन पिलाने के उपाय से बालक को मारने की इच्छा करती हुई आई । उस बालक की रक्षा करने में तत्पर किसी दूसरी देवी ने स्तन देने के समय उसके स्तन में बहुत जोर की पीड़ा पहुँचाई । पूतना देवो उस पोड़ा को सहन करने के लिये असमर्थ हो 'मैं मरी' इस प्रकार चिल्ला कर भाग गई ( १ ) दूसरी देवो शकट -- गाड़ी का आकार रख • बालक के ऊपर दौड़ती आ रहो थी कि बालक ने उसे पैरों की ठोकर से • नष्ट कर दिया ( २ ) दूसरे दिन नन्दगोप की स्त्री अर्थात् यशोदा बालक की कमर में एक उखला बाँधकर पानी भरने के लिये गई थीं फिर भी वह उसक पोछे पाछे चला गया। उस समय दो देवियाँ अर्जुन वृक्ष का रूप रख कर उस बालकके ऊपर गिरना चाहतो थीं कि बालक ने उन्हे जड़ से उखाड़ दिया ( ३-४ ) । जव विष्णु घूम रहे थे तब एक देवी ताड़का वृक्ष बनकर उनके मस्तक पर कठोर फल और पत्थर गिराने को हुई ( ५ ) तथा दूसरी देवो गधो बन कर उन्हें काटने के २. संक्रमण क० । For Personal & Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ षट्प्रामृते [५.४१रासभी भूत्वा तं दष्टुमागता। तां रासभी धरणे धृत्वा तयैव तं वृक्षमताडयत् (६) । अन्यस्मिन् दिनेऽन्या देवता तुरंगमो भूत्वा तं मारयितुमागता । तस्य वदनं मुष्टिना जघान ( ७) । एवं सप्तव देवताः कंसमागत्योचुः-वयं तव शत्रुमाहन्तुं न समर्थाः स्म इति । विद्युत इव विलीनाः। देवतानामपि शक्तयः पुण्यवज्जने न समर्थाः शक्रवरिशस्त्राणीव । अन्यस्मिन् दिनेऽरिष्टनामा देवस्तत्पराक्रम दृष्टु तत्पुरमागतः कृष्णवृषाकारः, तस्य ग्रीवाभंजने स उद्यमं चकार । तन्माता यशोदापि तं तर्जयति स्म-पुत्र ! एवमादित एवाफलचेष्टितात् क्लेशान्तरसम्पादकाद्विरमेति पुनः पुनर्निवारितोऽपि मदोत्कटस्तच्चेष्टितं चकार । महौजसोपदाने निवारयितुं न शक्यन्ते । तत्पौरुषं ख्यातं लोकवचनादाकर्ण्य देवकीवसुदेवौ तद्दर्शन लिये आई। विष्णु ने उस गधीका पैर पकड़ कर उसीसे उस वृक्षको ताड़ित किया ( ६ )। किसी दूसरे दिन एक देवी घोड़ा बनकर उन्हें मारने के लिये आई तो उन्होंने घूसे के द्वारा उसका मुख तोड़ दिया। इस तरह सातों ही देवियाँ कंसके पास आकर कहने लगी कि हम लोग तुम्हारे शत्रको मारने के लिये समर्थ नहीं हैं। इस प्रकार कह कर वे बिजली की तरह विलीन हो गई। सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार इन्द्रके वज्र पर शत्रुओं के शस्त्र असमर्थ रहते हैं उसी प्रकार पुण्यवान् मनुष्य पर देवताओं की शक्तियाँ भी असमर्थ रहती हैं।। किसो एक दिन अरिष्ट नामका देव उसका पराक्रम देखने के लिये उस नगर में आया और एक काले बेल का रूप रखकर घूमने लगा। बालक श्रीकृष्ण उसकी गर्दन तोड़ने का उद्यम करने लगा । माता यशोदा ने उसे मना भी किया कि बेटा! इस तरह प्रारम्भ से ही अन्य क्लेशों को उत्पन्न करने वाली निष्फल चेष्टा से दूर रहो । बार बार मना करने पर भी गवसे भरा कृष्ण अपनी उस चेष्टा को करता ही रहा सो ठीक ही है क्योंकि तेजस्वी मनुष्य पराक्रम के कार्य में रोके नहीं जा सकते । इस प्रकार श्रीकृष्ण के पराक्रम की चर्चा सर्वत्र फैल गई। लोगोंके कहने से जब देवकी और वसुदेव ने यह कथा सुनी तो वे भी उसे देखने के लिये उत्कण्ठित हो, गोमुखी नामक उपवास के बहाने वे बलभद्र तथा अन्य परिवार के साथ बड़े ठाट बाट से गोदावन ( गोकुल ) गये उसी समय कृष्ण गवसे भरे वृषभेन्द्र की गर्दन तोड़ कर बहुत भारी पराक्रम का अवलम्बन कर बैठे थे। उन्हें उस प्रकार का देख देवकी तथा वसुदेवने चन्दन और माला आदि से सन्मानित कर विभूषित किया । तदनन्तर प्रदक्षिणा करती हुई देवकी के स्वर्ण कलशके सदृश स्तनों से दूध मारले For Personal & Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ४६ ] भावप्राभृतम् ३३७ उत्कण्ठितौ । गोमुखीनामोपवासमिषेणा । सीरिणा सह महत्या विभूत्या गोदावनं गोष्ठं परिवारेण सह गतौ । तस्मिन्नेव दर्पवद्वृषभेन्द्रग्रीवाभंगावसरे कृष्णं महाबलं समालम्ब्य स्थितं दृष्ट्वा 'गन्धमाल्यादिसन्मानानन्तरं भूषयामासतुः तदनन्तरं प्रदक्षिणं कुर्वत्या देवक्याः शातकुंभकुंभसदृशयोः स्तनयोः क्षीरं सुस्राव कृष्णस्याभिषेकं कुर्वत्या इव । बलस्तद्वीक्ष्य मंत्रभेदभयादुपवासपरिश्रान्ता माता मूर्च्छितेति • जल्पन् सुधीः कु भपूर्णपयोभिस्तां समन्ततोऽभ्युक्षितवान् । ततो गोष्ठवृक्षादीनामपि तद्योग्यं पूजनं कृत्वा गोपालकुमारैः सह कृष्णं भोजयित्वा स्वयं च भुक्त्वा माता पिता च विकुर्वाणो पुरं प्रविविशतुः । कदाचिन्महावषंपाते जाते गोवर्धनाख्यं - पर्वतमुद्धृत्य हरिगंवामावरणं चकार । तेन ज्योत्स्नेव तत्कीतिरखिलं जगत् व्याप्नोति स्म शत्रुमुखकमलसंकोचकारिणी । तन्नगरस्थापनाहेतुभूतजिनालयसमीपे लगा मानों वह कृष्णा अभिषेक ही कर रही हो । यह देख बुद्धिमान बलदेव ने मन्त्र भेदके भय से 'उपवास के कारण थक कर माता मूच्छित हुआ चाहती है' यह कहते हुए घड़े भर दूध से उसका अभिषेक कर दिया अर्थात् उस पर घड़ा भर दूध उड़ेल दिया । तदनन्तर गोकुल के वृक्ष आदि का भी यथायोग्य पूजन कर माता-पिता ने गोपाल कुमारों के साथ कृष्ण को भोजन कराया और स्वयं भी भोजन कर हर्षित होते हुए नगर में प्रवेश किया। • किसी समय जोर की वर्षा हुई, उस समय श्री कृष्णने गोवर्धन नामक पर्वत को उठा कर गायोंको छाया की । इस घटना से शत्रु के मुख कमल को संकुचित करने वाली चांदनी के समान उनकी कीर्ति समस्त जगत् में फैल गई। उस नगर की स्थापना के हेतुभूत जिनालय के समीप पूर्व दिशा में एक देवता के गृह में श्रीकृष्ण के पुण्यातिशयसे नागशय्या, धनुष और शङ्ख ये तीन रत्न प्रकट हो गये, जो कि देवताओं के द्वारा रक्षित थे तथा नारायण की होनहार लक्ष्मी को सूचित करने वाले थे । उन्हें देख कसने भयभीत हो वरुणसे पूछा कि इनकी उत्पत्तिका क्या फल है ? वरुण ने कहा- हे राजन् ! इन तीन रत्नों को शास्त्रोक्त विधिसे जो सिद्ध कर लेता है वह चक्रवर्ती होगा। यह सुन कंस स्वयं ही उन तीनों रत्नों को 1 १. सन्मानानन्तर क० । २. वृषा० खु । ३. हर्षमाणी । ४. प्रतिशशतुः क० । प्रविशतुः खु । २२ For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ षट्प्राभृते [५.४६पूर्वदिशि देवतागृहे हरिपुण्यातिरेकात् नागशय्या धनुः शंखश्च त्रीणि रलानि देवतारक्षितानि नारायणस्य भविष्यल्लक्ष्मीसूचकानि समुत्पन्नानि । तानि दृष्ट्वा कंसो वरुणं सभयः पप्रच्छ-एतेषां प्रादुर्भूतः किं फलमिति । स प्राह है राजन् ! एतानि त्रीणि रत्नानि शास्त्रोक्त वधिना यः साधयति स चक्रवर्ती भविज्वतीति । तत्श्रुत्वा कंसः स्वयं तत्त्रितयं साधयितुमिच्छुरपि साधयितुमशक्तो मनाक् खिन्नः साधनाद्विरराम । उक्तवांश्च यो नागशय्यामारुह्य केन हस्तेन शंख पूरयति द्वितीयेन करेण धनुरारोपयति युगपत्कार्यत्रयं करोति तस्मै निर्जपुत्रीं दास्यामीति स्वशत्रु परिज्ञातु साशंकः पुरे घोषणामचीकरत् । तद्वार्ता श्रुत्वा सर्वे राजान आगताः । राजगृहात् कंसश्यालकः स्वर्भानुनामा भानुनामानं स्वपुत्रं भानुसदृशमादायाजगाम । निवेशं चिकीर्षुगोंदावनसमीपे महासपनिवाससरोवरतटे सिद्ध करने की इच्छा करने लगा परन्तु सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सका, अतः कुछ खेदखिन्न हो चुप हो रहा । उसने कहा कि जो नागशय्या पर चढ़कर एक हाथ से शङ्ख को पूरेगा और दूसरे हाथ से धनुष को चढ़ावेगा अर्थात् तीनों काम एक साथ करेगा उसके लिये मैं अपनी पुत्री ,गा। इस प्रकार आशङ्का से युक्त कंस ने अपने शत्रु का पता चलाने के लिये नगर में घोषणा कराई। इस बात को सुनकर सब राजा वहां आ पहुंचे। राजगृह से कंस का साला स्वर्भानु, सूर्य के समान अपने भानु नामक पुत्रको लेकर आ गया। आते समय वह गोदावन (गोकुल ) के समीप महासर्प निवास (जिसमें बड़े बड़े सांपों का निवास - था) सरोवर के तट पर अपना पड़ाव डालना चाहता था। उसने गोपाल कुमारों से सुना कि कृष्ण के बिना और कोई इस सरोवर से जल नहीं ला सकतो अतः उसने श्रीकृष्ण को बुलवाकर यथास्थान पर अपना पड़ाव डाला। कृष्ण ने कहा-राजन् ! आप कहां जा रहे हैं ? उत्तर में स्वर्भानुने श्रीकृष्णको अपना मथुरा जाने का प्रयोजन बतलाया। कृष्ण ने फिर कहा-राजन् ! यह कार्य क्या हमारे-जैसे लोगोंके द्वारा भी किया जा सकता है ? यह सुनकर स्वर्भानु विचार करने लगा कि यह केवल बालक ही नहीं है, सातिशय पुण्यात्मा भी है। कृष्ण से उसने कहा कि यदि तुम उस कार्य के करने में समर्थ हो तो आओ। इस प्रकार सुभानु जिसका दूसरा नाम था ऐसा स्वर्भानु कृष्ण को अपने पुत्र के समान साथ लेकर मथुरा पहुंचा। वहां जाकर उसने कंस के यथा योग्य दर्शन किये। उस कार्य के करने में जिसका मान खण्डित हो चुका था ऐसे बहुत से For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४६ ] भावप्राभृतम् ३३९ निवासं कर्तुं मना गोपालकुमारेभ्यः श्रुत्वा कृष्णं विनाऽस्य सरसो जलमानेतुं परैर्न शक्यमिति तमाहूय यथास्थानं स्कन्धावारं निवेशयामास । कृष्ण उवाच-राजन् ! त्वया कुत्र गम्यते इति । स्वर्भानुर्मथुरागमनप्रयोजनं तस्योक्तवान् । कृष्ण उवाचराजन् ! एतत्कर्म किमस्मद्विधैरपि कर्तुं भवेत् तत्श्रुत्वा स्वर्भानुश्चिन्तयामास असो शिशुः पुण्याधिकः केवलो न वर्तते इति । तस्य कर्मणः शक्तिश्चेदागच्छेति निजपुत्रमित्र तं गृहीत्वा सुभान्वपरनामा स्वर्भानुर्मथुरां जगाम । यथाहं कंसं ददर्श तत्कर्मकरणे बहून् भन्नमानान् दृष्ट्वा कृष्णः स्वर्भानुसुतं भानुं समीपगं कृत्वा कमंत्रय समकालं चकार । ततः सुभानुना दिष्टचादिष्टः कृष्णो गोष्ठं जगाम । कैश्चित्पुरुषः कंसो भणितः " तत्कम भानुना कृतं " । कैश्चित्तद्रक्षकैरुक्तं "न भानुना तत्कर्म कृतं अन्येन " मल्लेन कुमारेणेति" । तत्श्रुत्वा कंसः प्राह - सोऽन्याऽन्वष्यानीयतां तस्मै कन्या प्रदीयते इति । स कस्य, कि कुल, कस्मिन्निति । तावन्नन्दगोपेन सम्यग्विज्ञातं अनेन मत्पुत्रेण तत्कर्म. सम्यक्कृतमिति भीत्वा गोमण्डलं नीरा पलायांबभूवे शिलास्तंभमुद्धतुं तत्र सर्वे जनाः प्राप्तास्ते नाशक्नुवन् । कृष्णेन केवलेनैव समुद्धृतः । तत्साहतात् सर्वे जना विस्मित्य जहषुः । परार्थ्यांशुकाभरणादिदानेन पूजयामासुः । नन्दगोपस्तु ममास्य पुत्रस्वप्रभावेण कुतोऽपि भयं राजाओं को देख कृष्ण ने स्वर्भानु के पुत्र भानुको अपने पास ही खड़ा कर उक्त तीनों कार्य एक साथ सम्पन्न कर दिये । तदनन्तर सुभानु का आदेश पा कर कृष्ण उसी समय गोष्ठ - गोकुल चले गये । इधर कितने ही पुरुषोंने कंस से कहा कि यह कार्य भानु ने किया है और उसके कितने ही रक्षकों ने कहा कि भानु ने वह काम नहीं किया है किन्तु किसी अन्य मल्ल कुमार ने किया है। यह सुनकर कंसने कहा कि उस दूसरे कुमार को खोजकर लाया जाय, उसके लिये यह कन्या दी जाती है। वह किसका लड़का था, उसका क्या कुल है और कहाँ रहता है ? इसका पता लगाया जाय । जब नन्दगोप को अच्छी तरह मालूम हो गया कि वह कार्य मेरे इस पुत्र ने ही किया है तो भय से वह अपने गोमण्डल को लेकर भाग गया। गोकुल में एक पत्थर का बड़ा भारी · खम्भा लगा था उसे उखाड़नेके लिये लोग पहुँचे परन्तु समर्थ न हो सके. परन्तु कृष्णने उसे अकेले हो उखाड़ दिया । कृष्णके इस साहससे सब लोग विस्मय करते हुए हर्षित हो उठे। उन्होंने श्रेष्ठ वस्त्र आभूषण १. मल्लेन, य प्रतो नास्ति । २. पुत्रप्रभावेन म० । For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० षट्नामृते [५.४६नास्तीति प्राक्तनमेव स्थानं गोकुलं निनाय । अन्वेषकैस्तु नन्दगोपसुतेनैतत्कर्म कृतमिति राजे निवेद्यते स्म । तथापि तदनिश्चये सहस्रदलं कमलमहीशरक्षितं प्रेष्यतामिति राज्ञा नन्दगोप आज्ञापितः शोजिज्ञासया तत्व त्वा नन्दगोपः शोकादाकुलो बभूव "राजानः किल प्रजानां पालका भवन्ति रुष्टमेतत् तेऽद्य मारकाः संजाता इति ।" निर्विद्य पुत्र ! त्वं याहि राजविष्टिरीदृशी वर्तते इति । त्वयंवोअसपरक्षितानि कमलानि राज्ञः प्रदातव्यानीति जगाद । कृष्णः प्राह-कोऽपि पदार्थः किं दुष्करो मम वर्तते इत्यपूर्वतेजा नागसरो जगाम । त्वरितं तत्र निःशंक प्रविवेशे च । तं ज्ञात्वा कोपेन वेपमानो लेलिहानः स्वःनिश्वाससमुद्भू ज्वलज्ज्वालाकणान् किरन् फणारत्नप्रभाभासिफणाप्रकटाटोपभयानकः प्रचलद्ररसनायुगलो देकर कृष्णका सन्मान किया । नन्दगोप ने विचार किया कि मुझे इस पुत्र के प्रभाव से किसी से भय नहीं है यह सोच कर वह अपने गोमण्डल को पूर्वस्थान पर ही ले आया। यद्यपि खोज करने वालों ने राजा से कहा था कि यह कार्य नन्दगोप के पुत्र ने किया है तथापि उसका पूर्ण निश्चय नहीं हो सका अतः राजा ने शत्रु को जानने की इच्छा से नन्दगोप को आज्ञा भेजी कि तुम नागेन्द्र के द्वारा रक्षित सहस्र दल कमल भेजो। यह आज्ञा सुनकर नन्दगोप शोकसे आकूल हो गया। वह कहने लगा कि राजा तो प्रजा के रक्षक होते हैं परन्तु खेद है कि वे आज मारने वाले हो गये। बड़ी उदासीनता के साथ नन्द ने कृष्ण से कहा-पुत्र ! तुम जाओ राजा की आज्ञा ऐसी है भयंकर सो से रक्षित कमल तुम्हारे द्वारा ही राजा के लिये दिये जाना चाहिये । कृष्ण ने कहा-मेरे लिये क्या कोई भी पदार्थ दुष्कर है ? इस प्रकार कह कर अपूर्व तेज से युक्त कृष्ण नाग सरोवर की ओर चल पड़ा और शीघ्र हो निःशङ्क होकर उसमें जा घुसा। यह जानकर जो क्रोष से काँप रहा था अपनो श्वास के साथ निकली हुई देदीप्यमान ज्वालाओं के कणों को सब ओर बिखेर रहा था, फणा पर स्थित रत्न की कान्ति से सुशोभित फणा के प्रकट विस्तार से जो अत्यन्त भयानक था, जिसकी दो जिह्वाएं लपलपा रही थीं, खुले हुए नेत्रों से जो अत्यन्त भयंकर दिख रहा था, तथा यमराज के समान जिसका आकार था ऐसा नागेन्द्र कृष्ण को निगलने के लिये उद्यत हुआ। परन्तु कृष्ण यह मेरा वस्त्र है इसके पछाड़ने के लिये यह खासो अच्छी शिला है, ऐसा कह अपना गीला पीताम्बर खोलकर फणा पर १. आज्ञा ( क. टि ) वेगार इति । For Personal & Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४६ ] भावप्राभूतम् ३४१ विस्फुरद्वीक्षणाऽत्युग्रवीक्षणः प्रत्युत्थाय कृतान्ताकारस्तं निगरितुमुद्यतः । कृष्णस्तु मम वसनमिदमस्य ताडने शुद्धशिला भवत्विति जलार्द्र पीतवस्त्रं मुक्त्वा फटायां तं निष्ठुरं ताडयामास । तस्माद्वस्त्रपाताद्वज्रपातादपि दुर्घरात् पूर्वं पुण्योदयाच्च भीतः कालियारिः फणीन्द्रोऽदृश्यतां जगाम् । हरिर्यथेष्टं कमलानि गृहीत्वा शत्रोः समीपं प्रापयामास । तानि दृष्ट्वा कंसो निजशत्रु दृष्टवानिव नन्दगोपसमीपे मम शत्रुवर्तते इति निश्चिकाय । एकदा नन्दगोपालमादिष्टवान् मल्लयुद्धमीक्षितुं निजमल्ले: सहाऽऽगच्छेरिति । स च तत्सन्देशं श्रुत्वा कृष्णादिभिर्मल्लैः सह प्रविवेश । तत्र मत्तगणं वीतबन्धनं कृतान्ताकारं 'मदगन्धाकृष्टरुवद्भ्रमरसेवितं नियमच्युतराजकुमारवत् निरंकुशं दन्तमुशलाघातनिर्भिन्नसुधामन्दिरम् धावन्तं विलोक्य कश्चित् संमुखं प्रढोक्य दन्तमेकमुत्पाटय तेनैव तं ताडयामास । गजोऽपि भीतो दूरं जगाम । तद्दृष्ट्वा हरिभृशं तुष्टः सन्नुवाच ——-अनेन निमित्तेन कुटुम्बप्रकृटीकृतो जयोऽस्माकं भविष्य - तीति गोपान् समुत्साह्य कंससंसदं विवेश । वसुदेवोऽपि राजा कंसाभिप्राय विदित्वा निजसेनां सन्नाह्यं कत्र स्थितः बलभद्रोऽपि कृष्णेन सह रंगं प्रविष्ट इव दोदण्डास्फालनष्वनि कृत्वा समन्तात् परिभ्रमत् कंसविनाशेऽद्य तव समय इति समाख्य य निर्जगाम । तदा कंसादेशेन विष्णुविधेया गोपकुमाराः प्रदर्पवन्तः भुजानास्फाल्य उसे बड़ी निष्ठुरता से पछाड़ने लगे । उनके उस पीताम्बर से जो कि वज्रपात से भी कहीं दुर्धर था तथा पूर्व पुण्य के उदय से भयभीत हुआ कालिया नाग नामक नागेन्द्र अदृश्यता को प्राप्त हो गया । कृष्ण ने इच्छानुसार कमल लाकर शत्रु के पास पहुँचा दिये। उन्हें देख कंस को ऐसा लगा मानो मैं अपना शत्रु ही देख रहा हूँ । उसने निश्चय कर लिया कि मेरा शत्रु नन्दगोप के समीप है । एक दिन कंस ने नन्दगोप को आदेश दिया कि तुम अपने मल्लों के साथ मल्ल युद्ध देखने के लिये आओ । नन्दगोप उस संदेश को सुनकर कृष्ण आदि मल्लों के साथ प्रविष्ट हुआ । उसी समय एक मदोन्मत्त हाथी जिसने बन्धन तोड़ दिया था, जिसका आकार यमराज के समान था, मद की गन्ध से खिचे एवं गुनगुनाते भ्रमर जिसकी सेवा कर रहे थे, जो नियम से च्युत राजकुमार के समान निरकुंश था और दन्त रूपी मुशलों के आघात से जिसने बड़े-बड़े मकान गिरा दिये थे, सामने से दौड़ता चला आ रहा था, उसे देख किसी ने सामने जाकर उसका एक दाँत उखाड़ लिया और उसी दाँत से उसे पीटना शुरू कर दिया १. मन्द म० । For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ षनामृते गृहीतमल्लपरिच्छदाः कर्णानन्दकारिवारिगल ध्वनिभिरेकत्रीभूत्वा [य] चरणोत्क्षेपविनिक्षेपाः प्रोन्नतभुजद्वयोत्कटाः पर्यावतितप्रेक्षणीयभू भंगभयानकशब्दानिवर्तनशतावर्तनसंभ्रमणवलानपत्वनसमवस्थानरश्च स्फुटः करणः रंगसमीपमलंकृत्य नयनमनोहरास्तस्थिवांसः । कंसममाश्च प्रोवृत्ताश्चाणूरप्रमुखा विक्रमैकरसा रंगाम्यणं समाक्रम्य स्थितवन्तः विष्णुश्च रंगस्य मध्ये समुदात्तमनाः प्रसरो वीर उरुमल्लाग्रणीः प्रतिमल्लयुद्धविजयं प्रागेव प्राप्त इव दीप्ततेजा 'देवोऽवतीर्णोऽधुना मल्लत्वं प्राप्तो भास्वानिव अहं जेष्यामीति प्रवृद्धपराक्रमकरसः स्वयं संभावयन् निविपरिगृहीतपरिधानः प्रबद्धकोशः स्वभावेन मसृणाङ्गो विकूर्चश्चित्तवृत्तिवित्तोऽप्रतिमल्ल गोपमल्ल निरन्तराभ्यस्तनियुद्धत्वाद-विकल जिससे भयभीत होकर हाथी दूर भाग गया। यह देख कृष्ण बहुत संतुष्ट होते हुए बोले कि इस निमित्त से कुटुम्ब को प्रकट करने वाली हमारी जीत होगी । इस प्रकार गोपों को उत्साहित कर कृष्ण ने कंस को सभा में प्रवेश किया। राजा वसुदेव भी कंस का अभिप्राय जानकर अपनी सेना को तैयार किये हुए एक ओर बैठे थे। बलभद्र भी कृष्ण के साथ रङ्गभूमि ( अखाड़े ) में प्रविष्ट हुए की तरह भुजदण्ड के आस्फालन का शब्द कर सब ओर घूमने लगे और धोरे से 'आज तुम्हारा कंस को मारनेका समय है' यह कह कर बाहर निकल गये। उस समय कंस की आज्ञा से कृष्णके आज्ञाकारी गोपकुमार रङ्गभूमिके समीप ही बैठे थे । वे गोपकुमार गर्व से भरे थे, भुजाओंका आस्फालन कर मल्ल का वेष धारण किये थे। कानोंको आनन्द देने वाली बाजों की चञ्चल ध्वनि से एकत्रित होकर पैरोंको ऊपर उठाते और नीचे पटकते थे, ऊपर उठी हुई दोनों भुजाओंसे भयंकर दिखाई देते थे, क्रमसे नचाई गई देखने योग्य भोहों के भङ्ग से भयानक हो रहे थे तथा शब्दोंके अनिवर्तन, शतावर्तन, संभ्रमण, बलान, प्लवन समवस्थान तथा अन्य-अन्य प्रकारके आसनोंसे रङ्गभूमि के समीपवर्ती प्रदेश को अलंकृत कर रहे थे एवं नेत्र और मनको हरने वाले थे। पूरे ऊँचे तथा पराक्रम से परिपूर्ण चाणूर आदि कंस के मल्ल भी रङ्गभूमिके निकट अधिकार कर जमे हुए थे। १. देवोद्रवतीर्ण म०। २. सुष्ठ अयः स्वयः तम् । ३. प्रबरकोशः म० प्रवृद्धकोशःक० । ४. म प्रती गोपमल्लः नास्ति । For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४६ ] लब्धजयलाभः सर्वैरपि संभावितोत्साहः स्थिरतरपादनिवेशो वज्रसारास्थिबन्धो भुजागंलापरविबाघी मुष्टिसंमायिमध्यप्रदेशः कृतानेककरणसमूहो लघुसंचरंगप्रवीणोऽतिकठिनविस्तीर्णवक्षःस्थलो बृहन्नीलपर्वतोतुङ्गो दर्पप्रवृद्धित्रिगुणितनिजमूर्तिज्वलितवलितनेत्रत्व ददुर्निरीक्ष्यसांमुख्योऽतिशयेनाशनिपातवदुग्रो नन्दनन्दनः स्थितः सन् यमस्याप्युच्चैर्भयमसहनीयमुत्पादयन् वरमखिलं शौयं मूर्तिमन्मिलितमिव . समस्तं रंहो मनुष्याकारमागतमिव सिंहाकारः सहसाकृतसिहध्वनिः रंगादंगणमिव नभोङ्गणमलंघत पुनराकाशादशनिवदवनिमापत्य आत्मपादपाताभिघातचलिताचलसन्धिबन्धो मुहूर्बल्गन् परिसरंश्च प्रतिज् भमाणसदूररंजितभुजदण्डी समुदग्री क्रुद्धः भावप्राभृतम् ३४३ इधर जिनके मनका प्रसार बहुत भारी था, जो वीर थे, बड़े-बड़े मल्लों में अग्रेसर थे, जो प्रतिद्वन्द्वी मल्लसे युद्ध में विजय को पहले ही प्राप्त हुए के समान देदीप्यमान तेजसे युक्त हो रहे थे तथा ऐसे जान पड़ते थे मानों 'आकाश से उतर कर सूर्य हो मल्लपनेको प्राप्त हुआ हो 'मैं जीतूंगा' इस भावना से जिनका पराक्रम - सम्बन्धी अद्वितीय उत्साह खूब वृद्धि को प्राप्त हो रहा था, जो उत्तम भाग्य की सराहना कर रहे थे, जिन्होंने वस्त्र को अच्छा कसकर पहिना था, बालोंको अच्छी तरह बाँध रक्खा था, जिनका शरीर स्वभाव से ही चिकना था, जो दाढ़ी-मूंछ से रहित थे, जिनको चित्त वृत्ति अत्यन्त प्रसिद्ध थी, अद्वितीय गोपमल्लों के साथ बाहुयुद्ध का निरन्तर अभ्यास करनेके कारण जिन्हें पूर्ण विजय प्राप्त होने वाली थी, सभी लोग जिनके उत्साह को सराहना करते थे, जिनके पैर बड़ी मजबूती के साथ रखे जाते थे, जिनकी हड्डियों का बन्धन वज्रके समान सुदृढ़ था, जो अपने बाहुरूपी अर्गलाके द्वारा दूसरों को बाधा पहुंचाते थे, जिनकी कमर मुष्टिमेय अर्थात् अत्यन्त पतली थी, जो अनेक आसनों के समूह को करने वाले थे, जो बड़ी तेजी के साथ रङ्गभूमि के सब ओर संचार करने में प्रवीण थे, जिनका वक्षःस्थल अत्यन्त कठोर और चौड़ा था, जो बड़े भारी नोल पर्वत के समान ऊँचे थे, गर्व की वृद्धि से. जिनका शरीर तिगुना सा जान पड़ता था, देदीप्यमान सबल नेत्रोंसे सहित • होने के कारण जिनके सामनें देखना भी कठिन था, और जो वज्रपात के समान अत्यन्त उग्र थे ऐसे नन्दपुत्र श्रीकृष्ण रङ्गभूमिके मध्य में खड़े हुए। उस समय वे यमराजको भो बहुत भारी असहनीय भय उत्पन्न कर रहे थे। ऐसा जान पड़ता था मानों समस्त उत्कृष्ट शूरवीरता ही मूर्तिधारी होकर इकट्ठी आ मिली हो, अथवा समस्त वेग ही मनुष्य के आकार को प्राप्त हुआ हो, वे सिंह के आकार थे और सिंह के समान For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५.४६ ३४४ षट्प्राभृते प्रवलयन् श्रोणिद्वितयभागविलंबिपीतवस्त्रो नियुद्धकुशलं पर्वतशिखरोन्नतं प्रतिमल्लं चाणूरमाहत्य सहसा सिंहवदावभासे । तं दृष्ट्वा रुधिरोद् मोग्रलोचनः कंसः स्वयं मल्लतां प्राप्यागच्छति स्म । तमुग्रसेनतनयं जन्मान्तरद्वेषात् करेण चरणे संगृह्याकाशे भ्रामयन्नल्पाण्डमिव यमराजस्य समीप उपायनीकृतुमिव स कृष्णो भूमावास्फालयामास । तदा कृष्णमस्तके व्याम्नः कुसुमानि प्रपेतुः देवदुंदुभयो ध्वनि चक्रुः । वसुदेवसेनासमुद्रे प्रक्षोभणात् कोलाहलध्वनिरुत्तस्थे । मुशलीवीरवरो विरुद्ध. नृपतीनाक्रम्य रंगे स्थितः । स्वानुज स्वीकृत्य गजितं चकार । विष्णुस्त्रिखण्डलक्ष्म्या कटाक्षितः । इति श्रीभावप्राभृते द्रव्यलिंगिनो वशिष्ठमुनेः कथा परिसमाप्ता। गर्जना कर रङ्गभूमि से आकाश में ऐसे उछले मानों घरके अङ्गण में ही जा पहुँचे हों। पुनः आकाश से वज्रके समान पृथिवी पर आ पड़े । उस समय उन्होंने पृथिवी पर पैर इतने जोरसे पटके कि उनके आघात से पर्वतोंके सन्धि बन्धन भी विचलित हो गये । वे बार-बार उछलते थे, रङ्गभूमि में चारों ओर चक्कर लगाते थे, बढ़ते हुए सिन्दूर से रंगे दोनों भुजदण्डों को क्रोध-पूर्वक घुमाते थे, तथा उनको कमर को दोनों ओर पीताम्बर लटक रहा था। वे देखते-देखते बाहयुद्ध में कुशल तथा पर्वतके शिखर के समान ऊँचे प्रतिद्वन्द्वी चाणर मल्लको मार कर सिंहके समान सुशोभित होने लगे। चाणर को मरा देख रुधिर के निकलने से भयंकर नेत्रोंको धारण करनेवाला कंस स्वयं मल्ल बनकर आया। कृष्ण ने जन्मान्तर के द्वेष से उस उग्रसेन के पुत्र-कंसका पैर अपने हाथसे पकड़ उसे छोटे अण्डेके समान आकाश में घुमा दिया और यमराज के भेंट भेजने के लिये ही मानों उन्होंने उसे पृथिवी पर पछाड़ दिया। उस समय कृष्ण के मस्तक पर आकाश से पुष्प बरसे और देव दुन्दुभियोंने शब्द किये । वसुदेव को सेनारूपी समुद्र में क्षोभके कारण कोलाहल का शब्द उठा । वोरशिरोमणि बलदेव भी विरुद्ध राजाओं पर आक्रमण कर मैदान में खड़े हो गये । बलदेव ने अपने छोटे भाई को स्वीकार कर गर्जना की अर्थात् सबके सामने परिचय देते हुए प्रकट किया कि कृष्ण हमारा छोटा भाई है। तीन खण्ड की लक्ष्मी ने श्रीकृष्ण की ओर कटाक्षपात किया। इस प्रकार भावप्राभृतमें द्रव्यलिङ्गी वशिष्ठमुनिकी कथा समाप्त हुई । १. गर्जक। २. परिसंपूर्णाक०। For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४७ ] सो णत्थि तं पएसो चउरासीलक्खजोणिवासम्मि । भावविरओ वि सवणो जत्थ ण दुरुदुल्लिओ जीव ॥४७॥ स नास्ति त्वं प्रदेशः चतुरशीतिलक्षयोनिवासे । भावविरतोऽपि श्रमणो यत्र न भ्रान्तः जीव ||४७|| पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । हे जीव ! हे चेतनस्वरूपात्मन् ! ( जत्थ ) यत्र प्रदेशे । ( तं ) त्वं भवान्ं । ( ण दुरुदुल्लिओ ) न भ्रान्तः स प्रदेश ः संसारे नास्ति । कस्मिन्, ( चउरासीलक्खजोणिवासम्मि ) चतुरशीतिलक्षयोनिवासे स्थाने । कथंभूतस्त्वं, ( भावविरओ वि समणो ) श्रमणो दिगम्बरो - ऽपि सन् भावविरतो जिनसम्यक्त्वरहितः । उक्तं च 'गुम्मटसारग्रन्थे नेमिचन्द्रेण मणिना - भावप्राभृतम् णिन्चिदरघाटु सत्तय तरु दस वियलदिएसु छच्चेव । सुरनरयतिरियचदुरो चउदस मणुएं सदसहस्सा ॥ १ ॥ अस्या अयमर्थः - नित्यनिकोतजीवानां सप्तलक्षा जातयः ७००००० । इतरनिगोदजीवानां जातमः सप्तलक्षाः ७००००० । धातूनां पृथिवीकायजीवानां अप्कायजीवानां तेजःकायजीवानां वायुकायजीवानां जातयः चतुर्णां प्रत्येकं सप्तलक्षाः । पृथ्वी ७००००० । अप ७००००० । तेजः ७००००० । वायु ७००००० । तरु दह — वनस्पतिकायजीवानां जातयो दशलक्षा १०००००० । विर्यालिदिएसु छन्देव — द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजीवानां जातयः समुदायेन षड्लक्षाः । द्वीन्द्रिय www ३४५ गाथार्थ - हे जीव ! चौरासी लाख योनियों के निवास में वह प्रदेश नहीं है जहाँ तू भावरहित साधु होकर न घूमा हो ||४७ || विशेषार्थ - हे चेतन स्वरूप आत्मन् ! यह संसार चौरासी लाख योनियोंका निवास स्थान है । इतने बड़े संसार में ऐसा एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ तू भाव-रहित - जिन सम्यक्त्व से रहित दिगम्बर साधु होकर भो नहीं घूमा हो । भावरहित दिगम्बर मुद्रा संसार से पार करने वाली नहीं है । चौरासी लाख योनियों का वर्णन करते हुए नेमिचन्द्र आचार्य ने गोम्मटसार ग्रन्थ में कहा है णिच्छिवर - इस गाथाका अर्थ यह है - नित्यनिगोद जीवोंकी सात लाख, इतर निगोद जीवोंकी सात लाख, धातु अर्थात् पृथिवी कायिक, जुलकायिक, अग्निकायिक और वायु कायिक जीवों में प्रत्येक सात सात लाख, वनस्पति कायिक जीवोंकी दश लाख, विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, १. गोम्मटसार इति प्रचलितं नाम । For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्रामृते. ३४६ [५. ४८२००००० । श्रीन्द्रिय २००००० । चतुरिन्द्रिय २००००० । सुरनरयतिरिवद्रोसुराणां जातयश्चतस्रो लक्षाः ४०००००। नारकाणां जातयश्चतम्रो लक्षाः ४००००० । तिरश्चां जातयश्चतस्रो लक्षाः ४००००० चोद्दस मणुए-चतुर्दश लक्षा जातयो मनुजे मनुष्यजीवानां १४००००० सदसहस्सा-शतसहस्राः । . भावेण होइ लिंगी ण हु लिंगी होइ दवमित्तेण । तम्हा कुणिज्ज भावं कि कोरइ दलिगेण ॥४८॥ .. भावेन भवति लिङ्गी न हु भवति द्रव्यमात्रेण । तस्मात् कुर्याः भावं किं क्रियते द्रव्यलिंगेन ॥४८॥ ( भावेण होइ लिंगी) भावेन निदानादिरहिततया जिनसम्यक्त्वसहिततया लिंगी सन् लिंगी भवति निदानादिसहितो जिनसम्यक्त्वरहितो लिंगी मुनिलिंगी जिनलिंगी सत्यलिंगी न भवति । (ण हु लिंगी होइ दव्वमित्तेण ) न हु-स्फुर्टलिंगी सन्नपि लिंगी न भवति द्रव्यमात्रेण शिरोलोचमयूरपिच्छकमण्डलुग्रहणवस्त्रत्यजनमात्रेण लिंगी सन्नपि लिंगी न भवति पुनः संसारपतनहेतुत्वात् । (तम्हा कुणिज्ज भावं ) तस्मात्कारणात् कुर्यास्त्वं । के भाव-जिनसम्यक्त्वनिर्मलपरिगामं । ( किं कोरइ दवलिंगेण ) पूर्वोक्तद्रव्यलिंगेन किं क्रियते न किमपि मोक्षसुखं क्रियत इति भावः। श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंकी सबकी मिलाकर छह लाख देव नारकियों और तिर्यञ्चोंकी चार चार लाख तथा मनुष्यों की चौदह लाख इस तरह सब मिलाकर चौरासी लाख योनियां हैं ॥४७॥ गाथार्य-मनुष्य भावसे ही लिङ्गका धारक मुनि होता है द्रव्य मात्रसे लिङ्गो मुनि नहीं होता अतः भावको प्राप्त करना चाहिये मात्र द्रव्य लिङ्गसे क्या किया जा सकता है ? विशेषार्थ-भाव अर्थात् निदान आदिसे रहित तथा जिन सम्यक्त्व से सहित होनेके कारण ही यह मनुष्य लिङ्गी अर्थात् साधु होता है जिन सम्यक्त्व से रहित मुनि, मुनिलिङ्गी, जिनलिङ्गी अथवा सत्यलिङ्गी नहीं होता । द्रव्य मात्र अर्थात् केशलोंच, मयूर पिच्छ और कमण्डलु का ग्रहण तथा वस्त्र के त्याग रूप बाह्यवेष से मुनि होता हुआ भी पारमार्थिक मुनि नहीं होता क्योंकि भावके बिना मात्र द्रव्य वेष संसार पतन का हेतु है। इस कारण हे आत्मन! तू भावको कर अर्थात् जिन सम्यक्त्व से निर्मल परिणाम को प्राप्त कर । मात्र द्रव्यलिङ्ग से क्या किया जाता है अर्थात् कुछ भी मोक्ष सुख नहीं किया जाता ॥४८॥ For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.४९ ] भावप्राभृतम् दंडयणयरं सयलं डहिउं अब्भंतरेण दोसेण 1 जिणलिंगेण वि बाहू पडिओ सो रउरवं नरयं ॥ ४९ ॥ दण्डकनगरं सकलं दग्धवा अभ्यन्तरेण दोषेण । जिनलगेनापि 'बाहुः : पतितः स रोरवं नरकम् ||४९|| ( दंडयणयरं सयलं ) दण्डकस्य राज्ञो नगरं सकलं । ( डहिउं अब्भंतरेण - दोसेण ) दग्ध्वा अभ्यन्तरेण दोषेण क्रोधेन कृत्वा । (जिणलिंगेण वि बाहू ) जिनलिगेनापि जिनलिंगसहितोऽपि बाहुर्नाममुनिः । ( पडिओ सो रउरवं नरयं ) पतितो गतः रौरवं नाम नरकं । अस्य कथा - दक्षिणापथे भरतदेशे कुम्भकारकटनगरे दण्डको नाम राजा । तन्महादेवी सुब्रता । बालको नाम मंत्री । तत्र अभिनन्दनादयः पंचशतमुनयः समागताः । खण्डकेन मुनिना बालको मंत्री वादे जितः । ततो रुष्टेन तेन भंडो मुनिरूपं कारयित्वा सुब्रतया समं रममाणो दर्शिनः । भणितं च तेन देव । ३४७ गाथार्थ - बाहु मुनि जिन लिङ्ग से सहित होने पर भी क्रोध कषाय रूप आभ्यन्तर दोष से राजा दण्डक के समस्त नगरको भस्म कर स्वयं रौरव नामक नरक में पड़ा ॥ ४२ ॥ विशेषार्थ - मात्र वाह्य लिङ्ग मनुष्य का कुछ उपकार नहीं कर सकता इसके समर्थन के लिये यहाँ बाहु मुनिका दृष्टान्त दिया गया है । यद्यपि वे बाह्य में जिनलिङ्ग से सहित थे, दिगम्बर मुद्राके धारी थे तथापि अन्तरङ्ग में क्रोध कषाय की प्रबलता हो जाने के कारण उनका भावलिङ्ग नष्ट हो गया, मात्र द्रव्य-लिङ्ग रह गया । उसी समय राजा दण्डक के समस्त नगरको भस्मकर वे रौरव नरक में जा पड़े - इनकी कथा इस प्रकार है बाहु मुनिकी कथा दक्षिणापथके भरत देश में एक कुम्भकारकट नामक नगर था उसमें दण्डक नाम का राजा रहता था । उसकी स्त्रीका नाम सुव्रता था और मन्त्रीका नाम बालक था । वहाँ एक बार अभिनन्दन आदि पाँचसो मुनि आये। उन मुनियों में एक खण्डक नामके मुनि थे । उन्होंने बालक नामक मन्त्री को वाद में परास्त दिया । उससे रुष्ट होकर उसने एक भाँडको मुनिका रूप रखा कर उसे सुव्रता रानी के साथ हँसी करते दिखाया तथा राजा से जाकर कहा कि हे देव ! आप दिगम्बर साधुओंकी भक्ति करने में चूंकि बहुत प्रमुख हो इसलिये उन्हें अपनी स्त्री भी देना चाहते हो । For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ षट्प्राभृते [५.५० दिगम्बरेषु भक्त्यातिमुख्योऽसि येन भार्यामपि तेभ्यो दातुमिच्छसि । ततो रुष्टेन राज्ञा मुनयो यंत्रे निष्पीलिताः । ते तमुपसगं प्राप्य परमसमाधिना सिद्धि गताः । पश्चात्तन्नगरं बाहूर्नाम मुनिरागतः । स लोकैर्वारितः । अत्र नगरे राजा दुष्टो वर्तते तेन पंचशतमुनयो यन्त्रे पीडिता भवन्तमपि तथा करिष्यति । तद्वचनेन बाहू रुष्टः । तेजोऽशुभसमुद्घातेन राज्ञा मंत्रिणा च सह सर्व नगरं भस्मीचकार । स्वयमपि मृतः । रौरवे नरके पतितं राजानं मंत्रिणं चान्वेष्टुमिव तत्र गतः । को नाम रौरवो नरक इति चेत् ? सप्तमे नरके पंच विलानि वर्तन्ते तेषु पूर्वदिशि रौरवः । दक्षिणेऽतिरौरवः । पश्चिमेऽसिपत्रः । उत्तरे कूटशाल्मलिः । मध्ये कुंभीपाक इति । 'अवरोत्ति दव्वसवणो दंसणवरणाणचरणपब्भट्ठो । दीवायणुत्ति णामो अनंतसंसारिओ जाओ ॥ ५० ॥ अपर इति द्रव्यश्रमणो दर्शनवरज्ञानचरणप्रभ्रष्टः | द्वीपायन इति नामा अनन्तसंसारिको जातः ||५०|| इस घटना से रुष्ट हुए राजा ने मत्र मुनियों को घानी में पिलवा दिया । वे सब मुनि उस भारी उपसर्ग को प्राप्त कर उत्कृष्ट समाधि से सिद्धि को प्राप्त हुए | पश्चात् एक बाहु नामक मुनि उस नगर में आये । लोगों ने उसे रोका भो कि इस नगर में राजा दुष्ट है उसने पाँच सौ मुनियोंको घानी में पिलवा दिया है आपको भी वैसा ही करेगा । उन लोगोंके वचन सुन कर बाहु मुनि रुष्ट हो गये जिससे उन्होंने अशुभ तैजस समुद्घात के द्वारा राजा और मन्त्री सहित समस्त नगर को भस्म कर डाला और स्वयं भी मर गया । मरकर वह रौरव नामक नरक में जा पड़ा मानों उस नरक में पड़े हुए राजा और मन्त्री को खोजनेके लिये ही वह वहाँ गया था । प्रश्न - रौरव नामका नरक कौन है ? उत्तर - सातवें नरक में पाँच बिल हैं उनमें से पूर्व दिशामें रौख, दक्षिण दिशा में अति रौरव, पश्चिम दिशामें असिपत्र, उत्तर दिशा में 'कूट शात्मलि और बीच में कुम्भी पाक नामका बिल है ॥ ४९ ॥ गाथार्थ– द्वीपायन नामका एक दूसरा साधु भी द्रव्य श्रमण हुआ है जो कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से भ्रष्ट होकर अनन्त संसारी हुआ है ||५०|| १. अवरोवि क० । For Personal & Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.५०] भावप्रामृतम् (अवरोत्ति दव्वसवणो ) अपर इति द्रव्यश्रमणो भावरहितो मुनिजिनवचनप्रतीतिरहितः । (दसणवरणाणचरणपन्भट्ठो ) दर्शनेन जिनसम्यक्त्वेन वरं श्रेष्ठ यज्ञानं चरणं च चारित्रं तेभ्यस्त्रिभ्यापि प्रभ्रष्टः पतितः सम्यग्दृष्टीनां मुनीनामपाङक्तेयः । ( दोवायणुत्ति णामो ) द्वीपायन इति नामा । ( अणंतसंसारिओ जाओ ) अनन्तसंसारिकः अनन्ते संसारे नियुक्तः नियोगवान् कर्मपरवश इत्यर्थः, जातो भवति स्म । द्वीपायनस्य कथा यथा-श्रीनेमिनाथो बलभद्रण पृष्टः स्वामिन् ! इयं द्वारवती पुरी किं कालान्तरे समुद्र निमंक्ष्यति कारणान्तरेण वा विनंक्ष्यति भगवानाह-रोहिणीभ्राता द्वीपायनकुमारस्तव मातुलोऽम्याः पुर्या रुषा दाहको भविष्यति द्वादशे वर्षे मद्यहेतुत्वात् । तत्श्रु त्वा द्वीपायनकुमार इदं जैनवचनमसत्यं विकीर्दीक्षा गृहीत्वा पूर्वदेशं गतः । द्वादशविधिपूरणार्थं तपः कतुमारब्धवान् । जरत्कुमारेण कृष्णमरणमाकर्ण्य बलभद्रादयो नेमिनाथं नमस्कृत्य सर्वेऽपि यादवा द्वारवती विविशुः । ततः कृष्णो बलभद्रश्च पुर्या घोषणां मद्य विशेषार्थ-दूसरा द्रव्य श्रमण द्वीपायन है । भाव रहित अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् के वचनों का श्रद्धा से रहित मुनि द्रव्य श्रमण कहलाता है । वह जिन सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र से पतित था अर्थात सम्यग्दृष्टि मुनियों की पंक्ति में बैठने के अयोग्य था और इसी कारण अनन्त संसारी हुआ था। इसको कथा इस प्रकार है . द्वीपायन मुनि की कथा ... बलभद्र ने नेमिनाथ भगवान से पूछा स्वामिन् ! यह द्वारिका नगरी कालका अन्त होनेपर अर्थात् प्रलय काल आने पर समुद्र में निमग्न होगी अथवा किसी दूसरे कारण से नष्ट होगी? भगवान् ने कहा-रोहिणीका भाई द्वोपायन कुमार है जो तुम्हारा मामा होता है वह क्रोध से बारहवें वर्ष में इस नगरोका जलाने वाला होगा और उसका कारण होगा मदिरापान। यह. सुनकर द्वोपायन कुमार जिनेन्द्रदेवके इस वचन को . असत्य करने को इच्छा से दोक्षा लेकर पूर्व देशकी ओर चला गया। बारह वर्षको अवधि पूर्ण करने के लिये उसने तप करना प्रारम्भ किया। नेमिनाथ भगवान् ने यह भी बताया कि जरत्कुमार के द्वारा कृष्ण क मरण होगा । उसे सुनकर बलभद्र आदि सभी यादव नेमिनाथ भगवान् को नमस्कार कर द्वारिका में प्रविष्ट हो गये। ... तदनन्तर कृष्ण और बलभद्रने नगरी में मद्यनिषेध की घोषणा करवाई। उस घोषणा से मद्य-पायी लोगोंने पिष्ट किण्व आदि मदिरा बनानेके For Personal & Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० षट्प्राभूते [५. ५०निषेधिनी कारयामासतुः ततो मद्यपैर्मद्याङ्गानि पिष्टकिण्वादीनि मद्यानि च कदम्बवने गिरिगह्वरे शिलाभाण्डानि आस्फालितानि । सा मदिरा कदम्बवनकुण्डेषु गता। कर्मविपाकहेतुत्वेनावस्थिता । श्री नेमिनाथः पल्लवदेशे गतः। जिनेन सह भव्यलोक उत्तरापथमुच्चलितः। द्वीपायनस्तु द्वादशं वर्ष भ्रान्त्याऽतीतं मन्वानो जिनादेशो व्यतिक्रान्त इति ध्यात्वा सम्यक्त्वहीनो द्वारवतीमागत्य मिरेनिकटनगरबाह्यमार्गे आतापनयोगे स्थितः । वनक्रीडापरिश्रान्तास्तृष्णया व्याकुलीभूताः कादम्बकुण्डेषु जलमिति ज्ञात्वा शंभ वादयस्तां सुरां पिबन्ति स्म कदम्बवनस्थितां कदम्ब . . कतया स्थितां विसृष्टां कादम्बरीं पीत्वा कुमारा विकारांश्च प्रापुः । सा पुराणापि वारुणी परिपाकवशात् तरुणीवत्तरुणान् वशेऽकरोत् । ते कुमारा असंबद्ध गायन्तो नृत्यन्तश्च स्खलितपादाः प्रमुक्तकुन्तलाः पुष्पकृतावतंसाः कण्ठालम्बितपुष्पमालाः सर्वे पुरं समा गच्छन्तः सूर्यप्रतिमास्थितं द्वीपायनमुनि दृष्ट्वा घूर्णमाननयना इत्यूचुः सोऽयं द्वीपायनो यतियों द्वारवती पक्ष्यति सोऽस्माकमग्रतः क्व यास्यति वराक इति प्रोच्य सर्वतो लोष्टुभिः पाषाणांश्च तावत्प्रजघ्नुर्यावद् भूमी पपात । . साधनों को, मदिरा को तथा पत्थर को कुण्डी आदि वर्तनोंको कदम्ब वनसम्बन्धी पर्वत को एक गुफा में फेंक दिया। वह मदिरा कदम्बवनके कुण्डों में जा पहुंची और कर्मोदय के कारण वहाँ अवस्थित रही आई। श्री नेमिनाथ भगवान् का विहार पल्लव देश में हो रहा था तथा भव्य लोग जिनेन्द्रदेवके साथ उत्तरापथ की ओर चल रहे थे। इधर द्वीपायन मुनिने भ्रान्तिसे बारहवें वर्ष को पूर्ण हुआ मान यह समझ लिया कि अबतो जिनेन्द्रदेवकी आज्ञा निकल चुको है अतः सम्यक्त्व से हीन द्वीपायन द्वारिका आकर पर्वतके निकट नगर के बाहर मार्ग में आतापन योग धारण कर स्थित हो गया। __ वन क्रीड़ा से थके तथा प्याससे पीड़ित शंभव आदि कुमारों ने कदम्बवनके कुण्डों में 'यह जल है' ऐसा जानकर उस मदिराको पी लिया। कदम्बवन में स्थित तथा इकट्ठी होकर सामूहिक रूपसे स्थित उस छोड़ी हई मदिराको पोकर कुमार विकारको प्राप्त हो गये। यद्यपि वह मदिरा पुरानी पड़ गई थो तथापि कर्मोदयसे उसने तरुणीके समान उन तरुणोंको अपने वशमें कर लिया था । वे सब कुमार नशाके कारण असम्बद्ध गाना गा रहे थे, लड़खड़ाते पैरोंसे नाच रहे थे, उनके बाल बिखरे हुए थे, फूलों के कर्णफूल बनाकर पहने हुए थे और कण्ठ में फूलों की मालाएं लटकाये हुए थे। इस तरह सब मस्ती करते हुए नगर की ओर आ रहे थे। उसी For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.५० ] भावप्राभृतम् ३५१ एवं तैनिस 'कैस्ताडित उत्पन्नात्रिकक्रोधो दष्टोष्ठो यदूनां स्वतपासश्च विनाशाय भ्रुकुटि चकार कुमारास्तु पुरीं प्रति गमनं चक्रः कैश्चित्तद्दुराचारो विष्णोर्बलस्य लघु निवेदितः । तत्श्रुत्वा द्वारवत्या प्रलयं जिनोक्तं प्राप्तं तदापि मेनाते परिच्छेद रहितो मुनिसमीपं गतौ । अग्निमिव ज्वलन्तं क्रोधेन संक्लिष्टषियं भ्रूभंग - विषमवक्त्रं दनिरीक्ष्येक्षणं क्षीणकण्ठगतप्राणं विभीषणस्वरूपं दहशतुः कृताञ्जलिपुटौ महादरात्प्रणिपत्य याचनां वन्ध्या जानन्तावपि मोहाद्याचितवन्तौ । हे साधो ! चिरं परिरक्षितस्तपोभार ः क्षमामूलः क्रोधाग्निना धक्ष्यते मोक्षसाधनं परिरक्ष्यतां परिरक्ष्यतां । मूढैः प्रमादबहलंदु विचेष्टितं भवतः कृतं तत्क्षम्यतां क्षम्यतां । क्रोधश्चतुर्वं शत्रुः क्रोधः स्वपरनाशकः, अस्मभ्यं प्रसादः कियतां मुने ! इति प्रियवादिनौ तौ पादयोर्लगित्वा प्रार्थितवन्तो तथापि सोऽनिवर्तकः संजातः । समय उनकी दृष्टि आतापन योगमें स्थित द्वीपायन मुनिकी ओर पड़ी। नशाके कारण नेत्रों को घुमाते हुए वे कहने लगे कि यह वही द्वीपायन मुनि है जो द्वारिका को जलावेगा । अब यह दीन हमलोगों के आगेसे कहीं जायगा ? इस प्रकार कहकर सब ओर से ढेले तथा पत्थरोंसे वे उसे तब तक मारते रहे जब तक पृथिवी पर न गिर पड़ा। इस प्रकार निर्दय कुमारों के द्वारा ताडित होनेसे द्वीपायन को अत्यधिक क्रोध उत्पन्न हो गया । ओंठ डसते हुए उसने यादवों और अपने तपके विनाश के लिये भौंह चढ़ाली । कुमार द्वारिका की ओर चले गये । किन्हीं लोगोंने कुमारोंके इस दुराचार को सूचना बलभद्र और कृष्णको शीघ्र ही दी। वह सुनकर उन्होंने उसी समय मान लिया कि जिनेन्द्रदेवने जो द्वारिका का प्रलय कहा था वह आ पहुँचा है । वे उसी समय परिकरसे रहित हो मुनिके समीप गये । उस समय द्वीपायन मुनि क्रोधसे अग्निके समान जल रहा था, उसकी बुद्धि अत्यन्त संक्लेश से युक्त थी, भौहों के भङ्गसे उसका मुख अत्यन्त विषम हो रहा था, उसके नेत्रोंकी ओर देखना कठिन था । उसके प्राण क्षीण होकर कण्ठगत हो रहे थे तथा उसका स्वरूप अत्यन्त भयङ्कर था । ऐसे मुनिको बलभद्र और कृष्णने देखा । देखते हो उन्होंने हाथ जोड़ कर बड़े आदर से शुककर नमस्कार किया और यह जानते हुए भी कि हमारी याचना निष्फल होगी, मोह वश इस प्रकार याचना को । हे साधो ! चिरकाल से १. निर्दयः । २. तदपि क० । ३. भ्रूभङ्ग विषम म० । For Personal & Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ षट्प्राभूते ४.५०सर्वप्राणिसंयुक्तद्वारवती दाहे पापधी कृतनिश्चयः युवामेव न पक्ष्यामीत्यङ् गुलिद्वयेन संज्ञां चकार । अनिवर्तकक्रोघं ज्ञात्वा विषण्णो व्याधुट्य किं कर्तव्यतामूढी पुरीं प्रविष्टौ । तदा शंभवाद्याश्चरमाङ्गका यादवाः पुर्या निष्क्रम्य दीक्षां गृहीत्वा गिरिगुहादिषु तस्थिवांसः । द्वीपायनस्तु क्रोधशल्येन मृत्वा भवनामरो बभूव । सोऽग्निकुमारनामा विभंगेन पूर्ववरं स्मृत्वा द्वारवती बालवृद्धस्त्रीपशुसमेतां विष्णुबलौ मुक्त्वा ददाह । तौ दक्षिणापथे वनां प्रविष्टौ । तत्र विष्णुर्जरत्कुमारभिल्लेन पादे वाणेन ताडितो मृतः तृतीयं नरकं जगाम । द्वीपायनस्तु अनन्तसंसारी बभूव। जिसकी आपने रक्षा की है, क्षमा ही जिसकी जड़ है तथा जो मोक्षका साधन है ऐसे तपके समूह को रक्षा को जाय । मूर्ख तथा प्रमादसे भरे कुमारों ने आपके प्रति जो खोटो चेष्टा को है उसे क्षमा किया जाय । क्रोध चतुर्वर्ग का शत्र है, क्रोध निज और पर को नष्ट करने वाला है। हे मुनि ! हम लोगोंके लिये प्रसन्नता कीजिये। इस प्रकार प्रिय वचन कहते हुए कृष्ण और बलभद्रने यद्यपि उनके चरणों में लगकर प्रार्थना की तथापि वह पीछे नहीं हटा। जिसकी बुद्धि पाप-पूर्ण थी तथा समस्त प्राणियों से संयुक्त द्वारिका के जलाने का जो निश्चय कर चुका था ऐसे उस द्वोपायन ने दो अंगुलियां उठाकर संकेत किया कि मात्र तुम दोनोंको नहीं जलाऊँगा। 'इनका क्रोष दूर नहीं किया जा सकता' ऐसा जानकर खेद से भरे कृष्ण और बलदेव आदि किंकर्तव्य-विमूढ़ हो लौटकर नगरी में प्रविष्ट हुए। उसी समय शंभवकुमार आदि परम-शरोरी यादव नगर से निकल कर तथा दीक्षा लेकर पर्वत की गुफाओं आदि में स्थित हो गये । और द्वीपायन क्रोष की शल्यसे मरकर भवन-वासी देव हुआ। वह अग्निकुमार नामका भवनवासी हुआ था। उसने विभङ्ग अवधि ज्ञानके द्वारा पूर्व वेर का स्मरण कर बाल वृद्ध और पशुओं से सहित द्वारिकाको भस्म कर दिया, मात्र कृष्ण और बलदेव को छोड़ा। वे दोनों द्वारिका से चलकर दक्षिणापथ के वनमें प्रविष्ट हुए । भोलके वेष के धारण करने वाले जरत्कुमार ने कृष्ण के पैर में वाणसे प्रहार किया जिससे मरकर वे तोसरे नरक गये और द्वीपायन अनन्त संसार का पात्र हुआ ॥५०॥ १. प्रथमं म० . For Personal & Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.५१] भावप्रामृतम् भावसवणो य धोरो जुवईयणबेटिओ विसुद्धमई । णामेण सिवकुमारो परित्तसंसारिओ जादो ॥ ५१ ॥ भावश्रमणश्च धोरो युवतिजनवेष्टितो विशुद्धमतिः । नाम्ना शिवकुमारः परीतसंसारिको जातः ॥ ५१ ॥ ( भाव समणो य धीरो ) भावश्रमणश्च जिनसम्यक्त्ववासितः धीरो दृढसम्यक्त्व : अविचलितामलिनमनाः । ( जुवईयण वेढिओ विसुद्धमई ) युवतीजनवेष्टितः हावभावविभ्रमविलासोपेत राजकन्यात्मयुवतिसमूह परिवृतोऽपि विशुद्धमतिः निर्मलब्रह्मचर्यं निष्कलुषचित्तः । ( णामेण शिवकुमारो ) नाम्ना कृत्वा शिवकुमारो नरेन्द्रपुत्रः । ( परित्तसंसारिओ जादो ) अल्पसंसारिकः परित्यक्तसंसार आसन्न - ३५३ गाथार्थ - शिवकुमार नामक भाव श्रमण युवतिजनों से वेष्टित होने पर भी निर्मल बुद्धिका धारक धीर, संसारको पार करने वाला हुआ ।। ५१ ।। विशेषार्थ - जो भाव श्रमण थे अर्थात् जिन सम्यक्त्व से सहित थे, धीर थे अर्थात् दृढ़ सम्यक्त्व से युक्त थे विकट परिस्थिति में भी जिनका मन विचलित तथा मलिन नहीं हुआ था, जो हाव भाव विभ्रम तथा विलास से सहित राज - कन्याओं रूप अपनी तरुण स्त्रियों के समूह से परिवृत होकर भी विशुद्ध बुद्धिसे युक्त रहे अर्थात् निर्मल ब्रह्मचर्यं से जिनका चित्त कलुषित नहीं हुआ ऐसे शिवकुमार नामा राजपुत्र संसारका परित्याग कर निकट भव्य हुए । अर्थात् इस भरत क्षेत्र में जम्बू नामक अन्तिम केवली हुए । शिवकुमारकी कथा इस प्रकार है शिवकुमारकी कथा • अथानन्तर राजा श्रेणिक ने विपुलाचल पर स्थित श्रोमहावीर भगवान् को प्रणाम कर श्री गौतम स्वामी से कहा - हे भगवन् ! इस भरत क्षेत्रमें अन्तिम केवली कौन होगा ? तदनन्तर श्री गौतम स्वामी ज्योंही कथा का निरूपण करनेके लिये उद्यम करते हैं त्यों ही वहाँ उसी समय ब्रह्मस्वर्ग का स्वामी ब्रह्म हृदय नामक विमान में उत्पन्न हुआ विद्युन्माली देव जिसका कि मुकुट देदीप्यमान तेजसे सुशोभित था, जो नाम और अपने दर्शन से प्रिय था तथा विद्युत्प्रभा और विधुद्वेगा आदि अपनी देवियों से घिरा हुआ था, आ पहुंचा और जिनेन्द्र देवकी वन्दना कर यथा-स्थान बैठ गया । उसे देख २३ For Personal & Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ षट्प्राभूते [-५. ५१ भव्यो जातः, इह भरतक्षेत्रे जम्बूनामान्त्यकेवली बभूवेति क्रियाकारकसम्बन्धः । शिवकुमारस्य कथा यथा-अथ श्रेणिकः श्रीवीरं विपुलगिरी समवस्थितं प्रणम्य श्रीगौतमस्वामिनं प्रत्याह-अथ भरतक्षेत्रे पश्चिमकेवलीकोभविष्यति भगवन्निति । ततः कथां यावन्निरूपयितु श्रीगौतम उद्यमं करोति स्म तस्मिन्नेवावसरे ब्रह्मकल्पाधीशो ब्रह्महृदयाह्वविमानजो विद्युन्मालीजाज्वल्यमानतेजोविराजमानमुकुटः स्वनाम्ना स्वदर्शनेन च प्रिया विद्युत्प्रभाविद्युद्वेगादिनिजदेवीभित आगत्य जिनं वन्दित्वा यथास्थानं स्थितः । तं दृष्ट्वा राजन् ! अनेन केवलज्योतिषः परिसमा गौतम स्वामीने राजा श्रेणिक से कहा-राजन् ! इसी व्यक्ति के द्वारा केवल ज्ञान रूपी ज्योति की समाप्ति होगी। वह किस तरह ? यदि यह जानना चाहते हो तो कहता हूँ। आजसे सातवें दिन यह ब्रह्मेन्द्र स्वर्ग से आकर इस राजगृह नगर में अर्हदास सेठ की प्रिय भार्या जिनदासी के यहाँ हाथी, सरोवर, शालिवन, प्रज्वलित ज्वालाओं से युक्त निर्धूम अग्नि तथा देवकुमारों के द्वारा लाये गये जामुन के फल स्वप्न में दिखा कर जम्बू नामका महान् कान्तिमान्, अतिशय प्रसिद्ध और विनीत पुत्र होगा । अनावृत देव उसकी पूजा करेगा। तथा यौवन के प्रारम्भ में भी वह निर्विकार रहेगा। जब जम्बूस्वामी का यौवन काल रहेगा तभी श्री वर्धमान भट्टारक-भगवान् महावीर स्वामी पावापुर में मोक्ष प्राप्त करेंगे । उसी समय मुझे केवल ज्ञान उत्पन्न होगा । सुधमं गणधर के साथ ससार रूपी अग्नि से संतप्त भव्य प्राणियों को धर्मामृत रूप जलसे आह्लाद करते हुए हम इसी राजगृह नगरमें आकर इसी विपुलाचलपर स्थित होंगे। यह समाचार सुनकर चेलनी रानी का पुत्र कुणिक राजा समस्त परिवारके साथ आकर मेरी तथा सुधर्म गणधर की पूजा कर दान शील उपवास आदिक स्वर्ग और मोक्षके साधक धर्म को ग्रहण करेगा। कुणिक के साथ आया हुआ जम्बूकुमार भी वैराग्य को प्राप्त कर दीक्षा ग्रहण करनेके लिये उत्सुक होगा। उसके कुटुम्बके लोग उससे कहेंगे कि कुछ वर्षोंके व्यतीत हो जाने पर हम सब भी तुम्हारे साथ दीक्षा ग्रहण करेंगे। कुटुम्ब के लोगोंने जो कहा जम्बकुमार न तो उसे सहन करने के लिये समर्थ होगा और न निराकरण करने के लिये । अन्त में वह नगर में वापिस आवेगा। वहां उसे मोह उत्पन्न करनेके लिये कुटुम्बी जनोंके द्वारा सुखकारी बन्धन विवाह प्रारम्भ किया जावेगा। यथार्थ में बान्धव जन, कुटुम्ब परिवार कल्याणके बाधक हैं। अन्त में वह सागर दत्त और For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ५१ ] भावप्राभृतम् प्तिर्भविष्यति । तत्कथं चेत्कथयिष्यामि । अस्माद्दिनात् सप्तमे दिनेऽयं ब्रह्मेन्द्रः स्वर्गादम्येत्यास्मिन् राजगृहे नगरेऽहद्दासेभ्यस्य प्रियभार्याजिनदास्यां गजं सरोवर शालिवनं निघू मानलं प्रज्वलज्ज्वालं स्वर्गकुमारसमानीयमानजम्बूफलानि च स्वप्ने दर्शयित्वा महाद्युतिजंम्बनामाऽनावृ तदेवाप्तपूजोऽतिविख्यातो विनीतः सुतो भवि - ष्यति । यौवनारम्भेऽपि निर्विक्रियो भावी । तस्मिन् जम्बूस्वामियौवनकाले श्रीवीरभट्टारकः पावापुरे मुक्ति यास्यति तस्मिन्नेव समये मम केवलज्ञानमुत्पत्स्यते सुधर्म - गण घरेण सह संसाराग्नितप्तानां भव्यप्राणिनां धर्मामृतादकेनाल्हादं करिष्यन्निदमेव राजगृहपत्तनमागत्यास्मिन्नेव विपुलाचलेऽहं स्थास्यामि । तत्समाकर्ण्य चेलनीसुतः कुणिको नृपः सर्वपरिवारेण समागत्य मां सुधमं च पूजयित्वा दानशीलोपवासादिकं धर्मं ग्रहीष्यति । तेन सहागता जम्बूनामा निर्वेदं प्राप्य दीक्षाग्रहणोत्सुको भविष्यति । तं कुटुम्बं वदिष्यति स्तोकेषु वर्षेषु गतेषु स्वया सह वय सर्वेऽपि दीक्षां ग्रहीष्यमि इति । तेन प्रोक्तं सोढुमशक्तुवन्निराकर्तुं च तदक्षमः पुरमायाम्यति । तस्य मोहमुत्पादयितुं सुखबन्धनं विवाह आरप्स्यते तेन कुटुम्बवर्गेण बान्धवा हि श्रेयसो विघ्नाः । सागरदत्तपद्मावत्योः सुता श्रियोत्कृष्टा सुलक्षणा पद्मश्री, कुवेरदत्तकन मालयोः सुता सुलोचना कनकश्रीः वैश्रवणदत्तविनयवत्योबूंदा पद्मावती की पुत्री, लक्ष्मी से उत्कृष्ट, अच्छे लक्षणों वाली पद्म श्री कुबेर दत्त और कनक मालाकी पुत्री सुन्दर लोचनोंसे युक्त कनक श्री, वैश्रवण दत्त और विनयवतीकी पुत्री, मृग नेत्री तथा सुन्दरी विनय श्री और उसी वैश्रवण दत्त की दूसरी स्त्री धन श्री की पुत्री रूप - श्री इन चारोंको विधिपूर्वक विवाह कर समीचीन रत्नोंमय दीपोंको कान्तिसे अन्धकाररहित शयनागार में नाना रत्नों के समोचीन चूर्ण निर्मित रङ्गावली से सुशोभित एवं नाना प्रकार के फूलों के उपहार से सहित पृथिवी तल पर बैठेगा । से ३५५ सुरम्यदेश सम्बन्धी पोदनपुर के राजा विद्युद्राज और उसकी रानी विमलमति का पुत्र विद्युत्प्रभ किसी कारण अपने बड़े भाई से कुपित होकर पांचसौ योद्धाओं के साथ अपने नगर से निकल पड़ा था और उसने अपना विद्युच्चोर नाम रक्खा था । वह पापो मनुष्यों में सबसे आगे. स्मरणीय था, दुष्ट लोगोंके द्वारा वन्दना करने योग्य था, दुर्गुणी था, • अनुत्सुक था एवं स्वभाव से तीक्ष्ण था। चौर शास्त्र के उपदेश से वह मन्त्रतन्त्र के सब विधान सीख गया था अतः शरीर को अदृश्य बनाना तथा बन्द किवाड़ों को खोलना आदि कार्योंका अच्छा जानकार था जिस समय बम्ब कुमार शयनागार में अपनी नव विवाहित स्त्रियोंके साथ बैठा उसा For Personal & Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्त्राभूते [ ५.५१ मृगलोचनावलोकनीया विनयश्रीः, तस्यैव वैश्रवणदत्तस्य धनश्रियाः सुतारूपीः एताश्चतस्त्रा विधिपूर्वकं परिणीय सोधागारे समीचीनरत्नदोपदीप्तिर्भिर्निरस्तान्धकारे नानारत्नसमीचीनचूर्णरंगवल्लीसंशोभिते विचित्र पुष्पोपहारसहिते जगतीतले स्थास्यति । एतस्य माता अयं मे सुतो रागेण प्रेरितः स्मितहासकटाक्षेक्षणादिना विकृति भजन् किं भवेन्न वा भवेदित्यात्मानं तिरोधाय पश्यन्ती स्थास्यति । तस्मिन्नवसरे सुरम्यदेशपोदनापुरेशविद्युद्राजविमलवत्योः सुतः पापिष्ठानां धुरि स्मर्यो दुरात्मनां वन्दनीयोऽमुणवानुत्सुकश्च तीक्ष्णो विद्यत्प्रभनामा केनापि कारणेन निजज्येष्ठ भ्रात्रे कुपित्वा पंचशतसुभटैनिर्गतो विद्युच्चोरनामानमात्मानं कृत्वा चौरशास्त्रोपदेशेन मंत्रतंत्रविधानादृदृश्यशरीरत्वकपाटीद्घाटनादिकं जानन्नर्हद्दास गृहाभ्यन्तररनधानादिकं चोरयितु ं प्रविश्य जिनदासीनृपनिद्रां विलोक्ययानं निवेद्य किमर्थं विनिद्रा त्वमेवमिति प्रक्ष्यति ? मम एक एव पुत्र प्रातरेवाहं तपोवनं गमिष्यामीति संकल्पास्थिती वर्त्तते तेनाहं शोकिनी सती जागम । त्वं बुद्धिमान् दृश्यसे यदि त्वमियमाग्रहादुपायैर्वारयसि तत्त्वभीप्सितं धनं सर्वमहं दास्यामीति वदिष्यति । सोऽपि तत्प्रतिपद्येवं सम्पन्नभोगोऽयं किल 'विरंस्यति, इह धनमाहतु प्रविष्टं मां विगिति स्वनिन्दनं कुर्वन्निःशंकं तदन्तिकं प्राप्य तं तासां कन्यकानां साध्यतयातिष्ठितं कुमारं प्रसरत्सद्बुद्धि पंजरगतं पक्षिणमिव, ३५६ समय वह विद्युच्चोर जम्बूकुमार के पिता अहंद्दास सेठ के घर के भीतर रत्न तथा धन आदि को चुराने के लिये घुसेगा । उस समय जम्बू कुमारकी माता जिन दासी जाग रही होंगी - पुत्रके वैराग्यकी बात सुनकर उसे निद्रा नहीं आवेगी । उसे जागती देख विद्युच्चोर पूछेगा कि तू इस तरह क्यों जाग रही है ? जिनदासी कहेगी कि 'मेरे एक ही पुत्र है और वह भी 'मैं प्रातःकाल ही तपोवन को जाऊँगा' ऐसा संकल्प करके बैठा है, इसी कारण शोकसे युक्त हो मैं जाग रही हूँ। तुम बुद्धिमान् दिखाई देते हो यदि तुम इसे उपायों द्वारा इस हठसे निवृत्त कर सको तो मैं तुम्हारा मन चाहा सब धन दे दूंगी' । जिनदासी की उक्त बात को सुनकर विद्युच्चोर विचार करेगा कि यह इस तरह भोगों से सम्पन्न कुमार तो विरक्त होगा और मैं यहाँ धन हरनेके लिये प्रविष्ट हुआ है, मुझे धिक्कार हो, इस प्रकार अपनो निन्दा करता हुआ वह निःशङ्क भाव से जम्बूकुमार के पास पहुँचेगा। उन १. किल विसति घ० । २. क प्रतीकेापचितायां मध्ये तपोऽचिष्ठितं । For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.५१] भावप्रामृतम् ३५७ जाललग्न मुसबालकमिव, अपारकर्दमेमग्नः भद्रजातिगताधिपतिमिव, लोहपज निरुद्धं सिंहमिव प्रत्यासन्नसंसारक्षयं सम्प्राप्तनिर्वेदं समीक्ष्य विद्युच्चोरः सुधीराष्टाल्यानं वदिष्यति हे कुमार ! त्वया श्रूयतां-कश्चित्क्रमेलक; स्वेच्छया चरन्नेकदा गिरेरुन्नतप्रदेशात् तृण खादन्नेतन्मधुरसोन्मित्रं सकृदास्वाद्योत्सुकस्तादृशमेवाहमाहरिष्यामीति मधुपानाभिवाञ्छया तृणान्तरचरणगतिपराङ्मुखस्तस्थौ भ्रमे च तथा त्वमप्येतानुपस्थितान् भोगाननिच्छन् स्वर्गभोगार्थी बुद्धिरहितः क्रमेलकावस्थां प्राप्स्यसि (१) इति चौरप्रतिपादितं श्रुत्वा कुमारः प्रत्युत्तरं दास्यति-कश्चित्पुमान् महादाहकरेण रविणा परिपीडितो नदीसरोवरतडागादिपानीयं पुनः पुनः पीत्वा तथापि न विनष्टतृष्णस्तुणाग्रस्थितजलकणं पिबन् कि तृप्ति याति तथायं जीवोऽपि चिरकालं दिव्यसुखं भुक्त्वाप्यतृप्तोऽनेन मनुष्यभवजातेन स्वल्पेन राजकर्णास्थिरेणास्वादुना तृप्ति यायात्-अपि तु न यायात (२) इति तद्वाचं श्रुत्वा स एकागारिकः कथयिष्यति कथां-एकस्मिन् वने किरात कन्याओं के साध्यभाव से सहित अर्थात् पूर्वोक्त कन्याएँ जिसे वश करने के लिये घेरकर बैठी होंगी तथा जिसको समीचीन बुद्धि विस्तृत हो रही होगी ऐसे जम्बू कुमार को वह विद्युच्चोर ऐसा देखेगा जैसे पिंजड़े में पड़ा पक्षी हो, अथवा जालमें फंसा मृगका बालक हो, अथवा अपार कोचड में फंसा भद्रजातिका गजराज हो अथवा लोहेके पिंजड़ों से रुका सिंह हो । पश्चात् जिसके संसारका क्षय अत्यन्त निकट है तथा जिसे पूर्ण रूपसे वैराग्य प्राप्त हो चुका है ऐसे जम्बू कुमार को देखकर वह बुद्धिमान् विद्युच्चोर आठ कथाएँ कहेगा- (१) हे कुमार ! सुनो, एक ऊंट अपनी इच्छासे चरता हुआ एक बार किसी पर्वत के पास पहुंचा। वहां पर्वत के ऊंचे प्रदेश से मधु की कुछ बूंदे टपक कर घास पर पड़ गई थीं, मधु रससे मिश्रित उस घास को एकबार खा कर वह ऊंट इतना उत्सुक हो उठा कि मैं तो सदा ऐसी ही घास खाऊंगा। इस तरह मधुपान की इच्छासे दूसरी घास खाने से विमुख हो निराहार बैठा रहा तथा मर गया। इसी प्रकार तुम भी इन उपस्थित भोगोंको न चाहते हुए स्वर्गके भोगोंकी इच्छा कर रहे हो सो तुम बुद्धि-रहित हो, ऊंटकी अवस्था को प्राप्त होओगे। ___इस प्रकार चोर के द्वारा कही कथा को सुनकर जम्बू कुमार उत्तर (२) एक पुरुष ने महा संताप उत्पन्न करने वाले सूर्यसे पीमित होकर For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ षट्प्राभृते [4.48 चण्डो महातरुमाघारं कृत्वा गण्डान्तं धनराकृष्य वाणेन वारणं जघान । तरुकोटरस्थितसर्पदष्टस्तं सर्पं मारयित्वा स्वयं च मृतः । अथ तान् त्रीन् किरातसर्पगजान् मृतान् दृष्ट्वा क्रोष्टाऽति लुब्धस्तावदेतांस्त्रीन्नाद्मि पूर्व धनुमौर्वी प्रान्तस्थितां च स्नुंसां भक्षयामीति कृतोद्य मस्तच्छेदं वैधेयश्चकार । सद्यो धनुरग्रनिभिन्नगलः सोऽपि मृतः । ततोऽतिगृध्नुता त्वया त्याज्या (३) । इति श्रुत्वा कुमारश्चिन्तयित्वा सूक्तं प्रवक्ष्यति चतुर्मार्गसमायोगदेशमध्ये सुग्रहं रत्नराशि प्राप्य पथिको मूर्खस्तदात्- ' मना दायकेनापि कारणेन गतः पुनर्वनादागत्य तं देशं तं रत्नपुंजं कि पुनर्लभते तथा गुणमाणिक्यसंचयं दुष्प्रापमगृह णन् संसारसमुद्रे कथं पुनः प्राप्नुयात् ( ४ ) । तदा मलिम्लुचोऽन्यदन्यायसूचनमुपाख्यानं वदिष्यति कश्चित्शृगालो मुखस्थितं मां १ नदी सरोवर तालाब आदिका पानी बार-बार पिया फिर भी उसकी प्यास नष्ट नहीं हुई । वह अब क्या तृणके अग्र भाग पर स्थित जलके कणको पीता हुआ क्या तृप्तिको प्राप्त हो जावेगा ? उसी प्रकार यह जीव भी चिर काल तक स्वर्गके सुख भोगकर भी तृप्त नहीं हुआ । अब क्या मनुष्य भव में उत्पन्न होनेवाले, अत्यन्त अल्प और हाथी के कान के समान अस्थिर अमनोज्ञ सुख से क्या तृप्ति को प्राप्त हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता । जम्बूकुमार के वचन सुनकर चोर फिर कथा कहेगा(३) एक वन में चण्ड नामका अथवा अत्यन्त क्रोध करने वाला एक भोल रहता था । उसने एक वार किसी महावृक्ष को आधार बना कर अर्थात् उस पर चढ़कर गाल पर्यन्त धनुष खींच वाण द्वारा हाथी को मारा। उसी वृक्ष की कोटर में एक साँप रहता था उस साँपने भीलको काट खाया | भील ने बदले में साँपको मार दिया और वह स्वयं मर गया । तदनन्तर किरात, साँप और हाथीको मरा देख कर लोभी शृगाल वहाँ आया । वह कहने लगा कि मैं तीनों को अभी खाता हूँ, पहले धनुष के छोर पर लगी ताँतको खाता हूँ। ऐसा विचार कर उस मूर्ख ने ताँत को काटने का उद्यम किया । फलस्वरूप धनुष के अग्रभाग से उसका गला फट गया और वह मर गया । इसलिये तुम्हें अधिक लोभका त्याग करना चाहिये । यह सुन जम्बूकुमार विचार करके एक सुभाषित कहेगा(४) एक पथिक को चौराहे पर ऐसी रत्नों की राशि मिली जिसे १. दातमना म० । For Personal & Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ५१] भावप्राभृतम् ३५९ पिण्डं मुक्त्वा संक्रीडमानं मीनं भक्षितु जले पपात । जलवेगवहत्प्रवाहेण प्रेर्यमाणो मृतः । मोनस्तु दीर्घायुजलमध्ये सुखं तस्थौ। एवं शृगालवदतिलुब्धो मरिष्यति (५)। एवं मुख्यतस्करवाचं श्रुत्वा प्रत्यासन्नमुक्तिः कुमारो भणिष्यति-कश्चिनिद्रालुको वणिक् निद्रासुखरतः पराध्यरत्नगर्भनिजकच्छपुटः सुप्तः । चौरैरपहृते माणिक्यसचये तदुःखेन दुर्मृतिमृति प्राप। तथायं जीवो विषयाल्पसुखासक्तो रागचौरकैर्दर्शनज्ञानचारित्ररत्नेष्वपहृतेषु निर्मूलं नश्यति (६) । दस्युस्थ गदिष्यतिस्वमातुलानी-दुर्वचनकोपेन काचित्कन्या तरुतले सर्वाभरणमण्डिता स्थिता । मरणोपायमजानती व्याकुलमनाः सुवर्णहारकेण पापिना मार्दङ्गिकेण दृष्टा । तदाभरणानि जिघृक्षणा तस्या 'लम्बनोपायो दर्शयामासे । स्वकीयं मर्दलं वृक्षतले समुद्भ संस्थापयांबभूव । तस्या गलपाशदानशिक्षणार्थ मदलोपरि पादौ धृत्वा गले पाशं चकार । केनापि कारणेन मर्दले पतिते मार्दङ्गिकस्य गले पाशो लग्नस्तना - www.mmmmmmmmmmm वह अच्छी तरह ग्रहण कर सकता था परन्तु वह मूर्ख उसे उठाये बिना किसी कारण से वनको चला गया । पीछे लौटकर उस स्थान पर आया तो उसे वह रत्नराशि क्या मिल सकती थी? इसी प्रकार यह जीव अत्यन्त दुर्लभ गुण रूपी मणियोंके समूह को यदि अभी ग्रहण नहीं करता है तो संसार समुद्र में फिर कैसे प्राप्त कर सकता है ? तदनन्तर चोर अन्याय को सूचित करने वाली एक दूसरी कथा कहेगा- . (५) कोई एक शृगाल मुख में स्थित मांस-पिण्डको छोड़कर क्रीड़ा करती हुई मछली को खानेके लिये पानी में गिर पड़ा और जलके वेगसे बहते हुए प्रवाह से प्रेरित होता हुआ मर गया परन्तु दीर्घ आयु वाली मछली पानीके मध्य में सुख से रही आई। इस प्रकार अतिशय लोभी तुमःशृगालके समान मरोगे। ___ इस प्रकार मुख्य चोरके वचन सुन अत्यन्त निकट मुक्तिको प्राप्त करने वाला जम्बू कुमार कहेगा ' (६) निद्रा सुखमें निमग्न रहनेवाला कोई एक निद्रालु वणिक् था वह अपनी कांछमें श्रेष्ठ मणियोंको छिपा कर सो गया। परन्तु चोरोंने उसका मणियों का समूह चुरा लिया उसके दुःखसे कुमरण को प्राप्त होता १. कम्बमोपाय नयाबास ०१. For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० पद्माभृते [५५१ खलीभूतकण्ठः प्रोद्गतलोचनः शमनमन्दिरं प्राप । कन्या तद्दृष्ट्वा मरणभयात् गृहमागता तथा कुमार त्वया लोभो हेय: ( ७ ) । इति तस्य वाग्जालमाकर्ण्य जम्बूनामा कुमारोऽसहमानस्तं प्रति भणिष्यति कस्यचिद्राज्ञो महादेवी ललिताङ्गनामधेयं धूर्तविटं दृष्ट्वा मदनविह्वला संजाता । तस्य विटस्या - नयन निरन्तरोपायनियुक्ता तद्धात्री तं गुप्तमानीतवती । सा महादेवी यथा भर्ता न जानाति तथैकान्तप्रदेशे यथेष्टं तं रममाणा स्थिता बहुभिर्दिनैः शुद्धान्तरक्षकैः ज्ञाता राज्ञो ज्ञापिता च । उपपत्यपनयोपाय मजानत्यः परिसारिकास्तं खलं नीत्वा वस्कर - गृहे निक्षिप्तवत्यः । स तत्रातिदुर्गन्धेन तत्कीटैश्च दुखं प्राप । पापोदयेनात्रैव नरकावासं प्राप्तः । तद्वदल्पसुखाभिलाषिणो जीवस्य निघोरनरकादिषु महापदो भवन्ति ( ८ ) । कुमारः पुनरप्येकं प्रपंचं कथयिष्यति येन श्रुतेन सतां लघु संसारनिर्वेगो भवति । जोवोऽयं पथिकः संसारकान्तारे भ्राम्यन् मृत्यु मत्तगजेन जिघां हुआ मर गया। इसी प्रकार यह जीव विषय रूपी अल्प मुख में आसक्त हो रहा है । राग रूपी चोरोंके द्वारा दर्शन ज्ञान चारित्र रूपी रत्नों के चुरा लिये जाने पर वह नष्ट हो रहा है । इसके बाद चोर कहेगा (७) समस्त आभरणों से सुशोभित कोई एक कन्या अपनी मामी के कटुक वचनों से उत्पन्न हुए क्रोधके कारण वृक्ष के नीचे स्थित थी । वह मरने का उपाय नहीं जानती हुई मन ही मन बहुत व्याकुल हो रही थी। सुवर्णको हरने वाले किसी पापो मृदङ्ग-वादक ने उसे देख लिया । यह उसके आभूषण लेना चाहता था इसलिये उसने उसके लिये वृक्ष से लटकने का उपाय बतलाया । उसने अपना मृदङ्ग वृक्षके नीचे खड़ा रक्खा । फिर उस लड़की को गले में फाँसी देनेकी शिक्षा देनेके लिये उसने मृदङ्ग पर दोनों पैर रखकर अपने गले में फांसी लगाई। इतने में किसी कारण मृदङ्ग गिर पड़ा जिससे उसके गलेमें फांसी का फंदा पक्का लग गया । इससे उसका कण्ठ फँस गया और आँखें निकल आई तथा वह यमराज के गृहको प्राप्त होगया अर्थात् मर गया । यह देख कन्या मरण के भय से तुम्हें लोभ छोड़ना चाहिये । घर आ गई । हे कुमार ! इसी तरह सुनकर जम्बू कुमार सहन न करता इस प्रकार चोरके वाग्जाल को हुआ उसके प्रति कहेगा (८) किसी राजा की महारानी ललिताङ्ग नामके एक धूर्त विटको देखकर काम से विह्वल होगई। उस ब्रिटको लानेके लिये सनीने एक For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ५१] भावप्रामृतम् सुना रुषानुयातोऽतिभीरुः पलायमानो मनुष्यत्वतरुवरान्तरहितस्तन्मूले कुलगोत्रादि विचित्र बल्लीसमाकुले जन्मकूपे पतित आयुर्वल्लीलग्नकायः सितासितदिवसानेकमूषिकोच्छिद्यमानतद्वल्लीकः सप्तनरकप्रसारितमुखसप्तसर्पनिकटः । तवृक्षेष्टार्थपुष्पोत्पन्नसुखमधुरसलालसस्तद्ग्रहणोत्थापितसमग्रा पन्मक्षिकाभक्षितः तत्सेवासुखं ज्ञात्वा सर्वोऽपि विषयलंपटो दुबुद्धिर्जीवति तथा धीमान् दुर्वहं तपोऽकुर्वन्नत्यक्तसंगः कथं वर्तते ? इति तस्य वचनमाकर्ण्य माता कन्याश्चौरश्च संसारशरीरभोगेष्वतिविरायत्वं यास्यन्ति । तदान्धकारं निराकृत्य कोकं प्रियया कुमार दोक्षयेव योजयन् निजकरः समाक्रम्य कुमारस्य मनःकमलमिव रंजयन्नुदयाद्रेः शिखरे रविस्तपसि कुमार धायको नियुक्त किया। सो वह धाय गुप्त रूपसे उसे ले आई । महारानी, जिस तरह राजा को पता न चल सके उस तरह एकान्त में उसके साथ रमण करती हुई रहने लगी। बहुत दिन बाद अन्तःपुरके रक्षकों को इस बातका पता चल गया और उन्होंने राजासे कह भी दिया। रानी की सेविकाएं उपपति को अलग करने का उपाय नहीं जान सकी इसलिये उन्होंने उस दुष्टको लेजाकर अशौच गृह में गिरा दिया। वह वहाँ अत्यन्त दुर्गन्ध तथा उसके कीड़ों से दुःख को प्राप्त हुआ। पापके उदय से उसने यहीं पर नरक का निवास प्राप्त कर लिया। इसी के समान अल्प सुख की इच्छा करने वाले जीवको अत्यन्त भयंकर नरक आदि में बहुत भारी दुःख प्राप्त होते हैं। • कुमार फिर भी एक कथा कहेगा जिसके सुनने से सत्पुरुषों को शोघ्र ही संसार से वैराग्य हो जाता है- यह जीव एक पथिक है, संसार रूपो अटवो में घूम रहा है, घात करनेका इच्छुक मृत्यु रूपी मत्त हाथी क्रोधसे उसका पीछा कर रहा है, अत्यन्त भयभीत हो भागता हुआ वह मनुष्य पर्याय रूपी वृक्ष पर चढ़ गया, उस वृक्षके नीचे कुल गोत्र आदि नाना प्रकारको लताओं से व्याप्त संसार रूपी कुआँ है उसी कुएं में वह गिर गया, परन्तु आयु रूपी लता में उसका शरीर संलग्न होकर रह गया, शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के दिन रूपी अनेक चूहे उस लता को काट रहे हैं, उस संसार रूप कुएँ में सात नरक रूपी सात सर्प मुख फैलाकर बैठे हुए हैं, उस वृक्षके ऊपर इष्ट अर्थ रूपी पुष्प से उत्पन्न सुख रूपी मधु लगा हुआ है उसके रसको लालसा उस पथिक को लग रही है, सूख रूपी मधको प्राप्त करने के कारण उड़ी हुई अनेक आपत्ति रूप मधु मक्खियां उसे काट रही हैं फिर For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ षट्प्राभूते - [५. ५१ इवोदष्यति । सर्वसन्तापकारी तीक्ष्णकरोऽनवस्थितः क्रूरो दिवाकुवलयध्वंसी तदा सूर्यः कुनृपस्योपमां धरिष्यति । नित्यादयो बुधाधीशोऽखण्ड विशुद्धमण्डलः प्रवृद्धः पद्माल्हादी सुराजनं वाऽयंमाजेष्यति । अस्य कुमारस्य बान्धवा भववैमुख्यं विज्ञाय 'कुणिकमहाराजश्रेणयोऽष्टादशापि देवोऽनावृतश्च सर्वे संगम्य मंगलजलरभिषेक करिष्यन्ति । अथ कास्ता अष्टादशश्रेणयः-सेनापतिर्गणको राजश्रेष्ठी दण्डाधिपो मंत्री महत्तरो बलवत्तरः चत्वारो वर्णः चतुरंग बलं पुरोहितोऽमात्यो महामात्य भी उसकी प्राप्तिको सख जान कर सभी विषय लंपट दुबंद्धि मनुष्य जीवन व्यतीत करते हैं परन्तु जो बुद्धिमान् है वह कठिन तप किये तथा परिग्रह को छोड़े बिना कैसे रह सकता है ? __इस प्रकार जम्बू कुमार के वचन सुन उसकी माता, चारों कन्याएँ और चोर संसार शरीर तथा भोगों से अत्यन्त वैराग्य को प्राप्त हो जावेंगे। उस समय अन्धकार को नष्ट कर चकवा को चकवो के साथ मिलाना और अपनी किरणों से कमल को अनुरञ्जित करता हुआ सूर्य उदयाचल पर उस तरह उदित होगा जिस तरह कि तप पर जम्बू कुमार। वह सूर्य चकवा को चकवी के साथ इस तरह मिला रहा था, जिस तरह कि कुमारको दीक्षाके साथ और अपनी किरणों से कमल को उस तरह अनुरोञ्जत कर रहा था जिस तरह जम्बू कुमारके मनको । उस समय सूर्य खोटे राजाकी उपमा को धारण कर रहा था क्योंकि जिस प्रकार खोटा राजा सर्व-संतापकारी होता है-सबको दुःख देने वाला होता है उसी प्रकार सूर्य भी सर्व संताप-कारी थी-सबको गर्मी पहुंचाने वाला था, जिस प्रकार खोटा राजा तीक्ष्ण कर-अत्यधिक टैक्स लगाने वाला होता है उसी प्रकार सूर्य भी तीक्ष्ण कर-उष्ण किरणों वाला था, जिस प्रकार खोटा राजा अनवस्थित होता है-चञ्चल-बुद्धि होता है उसी प्रकार वह सूर्य भी अनवस्थित था-सदा एकसा न रहने वाला था, जिस प्रकार खोटा राजा कर-स्वभाव का दुष्ट होता है उसी प्रकार सूर्य भी करअत्यन्त उष्ण प्रकृति वाला था और जिस प्रकार खोटा राजा दिवा कुवयलध्वंसोदिन में पृथिवी भण्डल को नष्ट करने वाला होता है उसी प्रकार सूर्य भी दिवा कुवलयध्वंसो दिन में नीलकमलों को निमोलित करने १. कुणिक म० क०। २. दानाध्यक्षः (क० टि०) ३. तलवरः (क. टि.)। For Personal & Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५ ५१] भावनामृतम् ३६३ इति । असौ कुमारस्तत्कालोचितवेषो देवनिर्मितां शिविकामारुह्य भूरि भूत्या उच्चविपुलाचलशिखरे स्थितं मां महामुनिभिनिषेवितं समभ्यैत्य भक्त्या त्रिःपरीत्य यथाविधि प्रणम्य वर्णत्रयसमुत्पन्नभूयोभिविनेय विद्युच्चौरेण तत्पंचशतसेवकैश्च समं सुधर्मगणधरपा दमूले समचित्तः संयमं ग्रहीष्यति । द्वादशवर्षान्ते मयि मोक्षं गते सुधर्मा केवली भविष्यति जम्बूनामा श्रुतकेवली भविष्यति ततो द्वादशवर्षपर्यन्ते सुधर्मणि निर्वाणं गते जम्बूनाम्नः केवलज्ञानमुत्पत्स्यते । जम्बू नाम्नः शिष्यो भवो wmmmm वाला था। अथवा वह सर्य किसी उत्तम राजा को जीतने वाला होगा क्योंकि जिस प्रकार उत्तम राजा नित्योदय होता है-निरन्तर अभ्युदय से युक्त होता है उसी प्रकार सर्य भी नित्योदय प्रतिदिन उदित होनेवाला होता है। जिस प्रकार उत्तम राजा बुधाधीश-विद्वानों का स्वामी होता है। उसी प्रकार सूर्य भी बधाधीश-बुध नामक ग्रहका स्वामी था, जिस प्रकार उत्तम राजा अखण्ड विशुद्ध मण्डल अखंडित और विशुद्ध राष्ट्र के सहित होता है उसी प्रकार सूर्य भी निर्दोष मण्डल पूर्ण तथा निर्दोष परिधि से सहित था। जिस प्रकार उत्तम राजा प्रवृद्ध-अत्यन्त विस्तार से यक्त रहता है उसी प्रकार सर्य भी प्रवृद्ध-अत्यन्त वृद्ध होगा और जिस प्रकार उत्तम राजा पद्माह्लादीलक्ष्मीको हर्षित करने वाला होता है उसी प्रकार सूर्य भी पद्माह्लादीकमलों को हर्षित करने वाला होगा। इस कुमार को संसार से विमुखता जान इसके कुटुम्बी जन, कुणिक महाराज को अठारह श्रेणियाँ तथा अनावृत देव सब मिलकर मङ्गल जलसे इसका अभिषेक करेंगे । अब वे अठारह श्रेणियाँ कौन हैं ? इसका उत्तर देते हैं-सेनापति, गणक, राज श्रेष्ठी, दण्डाधिकारी, मन्त्री, महत्तर, बलवत्तर, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण, हाथी, घोड़ा, रथ और पियादा-ये चार चतुरङ्ग सेना, पुरोहित, अमात्य और महामात्य ये अठारह श्रेणियाँ हैं। . उस समय के योग्य वेष को धारण करनेवाला वह कुमार देव-निर्मित पालको में सवार होकर बड़ी विभूति के साथ उन्नत विपुलाचल की शिखर पर स्थित तथा बड़े बड़े मुनियों से सेवित मेरे सामने आवेगा, भक्तिपूर्वक तीन प्रदक्षिणाएं देकर विधिपूर्वक प्रणाम करेगा और त्रिवर्ण में उत्पन्न बहुत से शिष्यों विद्युच्चर चोर और उसके पांच सौ सेवकों के १. विनय म०। For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ पद्माभृते [ ५.५१ नाम चत्वारिंशद्वर्षाणीह भरतक्षेत्रे विहरिष्यति । तदाकयं श्र णिकं स्थितेऽनावृतों देवो मदीयवंशस्येदं माहात्म्यमुद्धृतमोदृशमन्यत्र न दृष्टमित्युच्च रानन्दनाटकं [ कृतवान् तं ] दृष्ट्वा श्रेणिक उवाच - कस्मादनेनबन्धुत्वमस्य देवस्येति ? भगवान् गौतमो बभाण--जम्बूनाम्नो वंशे पूर्वं धर्मप्रिय श्रेष्ठी गुणदेवी श्रेष्ठिनी । तयोरर्हद्दासः सुतो धनयौवनमदेन पितुः शिलामगणयन् कर्मवशात् सप्तव्यसनेषु निरंकुशो बभूव । निजदुराचारेण दरिद्री संजातः । पश्चादुत्पन्नपश्चात्तापो मत्पितुः शिक्षा मया न श्रुता, उत्पन्नशमभावः किंचित्पुण्यमुपार्ज्यान वृतनामा साथ सुधर्म गणधर के चरण मूल में समचित्त होकर संयम ग्रहण करेगा । बारह वर्ष के बाद जब मैं मोक्ष चला जाऊँगा तब सुधर्माचार्यं केवली होंगे और जम्बूस्वामी श्रुत केवली होंगे तदनन्तर बारह वर्ष के बाद जब सुधर्माचार्य मोक्ष को प्राप्त होंगे तब जम्बू स्वामी केवली होंगे । जम्बू स्वामी का एक शिष्य जिसका कि नाम भव होगा व्यालीस वर्ष तक इस भरत क्षेत्र में विहार करेगा । यह सुनकर राजा श्रेणिक के रहते हुए अनावृत, देव कहेगा कि इसने ( जम्बू कुमार ने ) हमारे वंशका माहात्य बढ़ाया है ऐसा अन्यत्र नहीं देखा, ऐसा जोरसे कहकर वह हर्ष से नृत्य करने लगेगा । उसे देख राजा ने कहा कि जम्बकुमारके साथ इस देवकी बन्धुता किस प्रकार है ? भगवान् गौतम स्वामी कहने लगे - जम्बू कुमार के वंश में पहले धर्मप्रिय नामका एक सेठ था उसकी गुणदेवी नामकी स्त्री थी । उन दोनों अर्हद्दास नामका पुत्र था, वह धन और यौवन के मदसे पिताकी शिक्षा को न गिनता हुआ कर्मवश सात व्यसनों में स्वच्छन्द हो गया । अपने इस दुराचारके कारण वह दरिद्र हो गया । पीछे उसे इस बात का पश्चाताप हुआ कि मैंने अपने पिता की शिक्षा को नहीं सुना । इस तरह शमभाव उत्पन्न होनेपर किञ्चित् पुण्यका उपार्जन कर वह अनावृत नामका व्यन्तर देव हुआ । वहाँ इसे सम्यग्रूपी सम्पत्ति उत्पन्न हुई है इसलिये जम्बू कुमार के प्रति इसे बन्धुता के कारण प्रीति उत्पन्न हुई है। तदनन्तर श्रेणिक ने कहा- हे स्वामिन् ! यह विद्युन्माली किस कारण आया ? इसने पूर्व भव में क्या पुण्य किया था ? इसकी प्रभा आयु के अन्त तक अनाहत है | श्रेणिक के उपकार की बुद्धि से ही भगवान् गौतम स्वामी कहने लगे इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र सम्बन्धी पुष्कलावतो देशमें एक बीतशोक नाम का नगर है उसमें महापद्म नामका राजा रहता था उसकी For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.५१] भावशमृतम् व्यन्तरो जातः, तत्र समुत्पन्नसम्यक्त्वसम्पदिति बन्धुताप्रीतिरस्य । अथ श्रेणिकः प्राह-स्वामिन्नयं विद्युन्माली देवः कस्मादागतः, किं पुण्यं पूर्वभवे कृतवान्, अस्य प्रभा आयुरन्तेऽप्यनाहतेति । तदनुग्रहबुद्धधैव भगवान् गौतमः प्राह-अत्र जम्बूद्वीपे पूर्व विदेहे पुष्कलावतीविषये वीतशोकपत्तने महापद्मो राजा तन्महादेवी वनमाला । तयोः सुतः शिवकुमारः नवयौवनसम्पन्नः सर्वयोभिवनं विहृत्य पुनरागज्छन् गन्धपुष्पादिमंगलद्रव्योत्तमपूजया सह जनानागच्छतो दृष्ट्वा समुत्पन्नविस्मयो बुद्धिसागरमंत्रिणः पुत्रं किमेतदिति पप्रच्छ । स प्राह-कुमार! शृणु-सागरदत्तनामा मुनीन्द्रः श्रुतकेवली दीप्ततपोमण्डितो मासोपवासपारणाय पुरं प्रविष्ट । कामसमुद्रो नाम श्रेष्ठी विधिपूर्वकं भक्त्या दानं दत्वा पंचाश्चयं प्राप तेनोत्पन्न रानी का नाम वनमाला था। उन दोनों के शिवकुमार नामका पुत्र था। एकदिन नवयोवन से सम्पन्न शिवकुमार अपने मित्रों के साथ वन विहार के लिये गया था। जब वहां से वापिस आ रहा था, तब गन्ध पुष्प आदि मङ्गल द्रव्य रूपो उत्तम पूजा की सामग्री के साथ लोगोंको आते देख उसे आश्चर्य उत्पन्न हुआ। उसने अपने बुद्धि सागर मन्त्री के पुत्र से पूछा कि यह क्या है ? मन्त्री ने कहा-कुमार ! सुनो, सागरदत्त नामके मुनिराज जो कि श्रुत केवली तथा दीप्त तपसे सुशोभित हैं एक मांसके उपवास के बाद पारणा के लिये नगर में प्रविष्ट हुए थे। कामसमुद्र नामक सेठने विधिपूर्वक भक्तिसे दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये हैं। इससे जिन्हें कौतुक उत्पन्न हुआ है ऐसे नगरवासी लोग मनोहर नामक उद्यान में निवास करने वाले उक्त मुनिराज की पूजा कर वन्दना करने के लिये परम भक्ति से जा रहे हैं। शिवकुमारने कहा कि इन मुनिराज ने सागरदत्तनामक, श्रुत केवली अवस्था तथा अनेक ऋद्धियों को किस कारण प्राप्त किया ? मन्त्रि पुत्र ने भी जैसा सुन रक्खा था • वैसा कहना प्रारम्भ किया पुष्कलावती देश में पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है । उसके राजा का नाम चक्रवर्ती वज्रदत्त था उसकी स्त्री का नाम यशोधरा था जब वह गर्भिणी हुई तो उसे दोहला उत्पन्न हुआ। दोहला की पूर्ति के लिये वह जहाँ सीता नदी समुद्र में मिलती है वहाँ बड़े वैभव के साथ गई और १. बुद्धिसागर पुत्र क० । २. प्राप्य म०। For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ षट्प्राभृते [ ५.५१ कौतुकाः पौरास्तं मनोहरोद्यानवासिनं पूजयित्वा वन्दितु ं परमभक्त्या यान्तीति । शिवकुमारः प्राह - अयं सागरदत्ताख्यां 'सश्रुततां विविधद्धश्च कथं प्राप । मंत्रिपुत्रोऽपि यथा श्रुतं तथा प्राह - पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिणी नगरी, तस्याः पतिश्चक्री वज्रदत्तः । तस्य महादेवी यशोधरा गर्भिणी समुत्पन्नदौहृदा । सा सीतासागरसंगमे महाविभूत्या गत्वा महाद्वारेण समुद्रं प्रविष्टा । जलकेलीविधाने जलजानना आसन्ननिर्वृति पुत्रं प्राप । तेन हेतुनास्य सनाभयः सागारदत्ताख्यां चक्र: । अथ सागरदत्तः परिप्राप्तयौवनः स्वपरिवारमण्डितो हर्म्यतले स्थितो नाटकं पश्यन्ननुकूलाख्यनाम्ना चेटकेनोक्तः । हे कुमार ! त्वमाश्चर्यं पश्य मेर्वा - कारोऽयं मेघस्तिष्ठति । तं मेघं लोचनप्रियं सोन्मुखो निरीक्षितुमहिष्ट । स मेघस्त महाद्वार से समुद्र में प्रविष्ट हुई । जल-क्रीडा के समय ही उस कमल मुखी ने निकट मोक्षगामी पुत्रको उत्पन्न किया इसी कारण इसके कुटुम्बी जनोंने इसका सागरदत्त नाम रक्खा । तदनन्तर एक बार तरुण सागरदत्त अपने परिवार के साथ महलकी छत पर बैठकर नाटक देख रहा था उसी समय अनुकूल नामक सेवक ने उनसे कहा कुमार ! तुम यह आश्चर्य देखो, मेरु पर्वत के आकार यह मेघ स्थित है। उस सुन्दर मेघ को देखने के लिये ज्यों ही वह ऊपर की ओर मुँह उठाकर देखने की चेष्टा करता हैत्यों ही वह मेघ तत्काल नष्ट हो गया। सागरदत्त विचार करने लगा कि जिस प्रकार यह मेघविनश्वर है उसी प्रकार यौवन, धन, शरीर जीवन तथा अन्य समस्त पदार्थं विनश्वर हैं। इस प्रकार विचार कर वह वैराग्य को प्राप्त हो गया। दूसरे दिन वह मनोहर नामक उद्यान में धर्म तीर्थं के नायक अमृत सागर नामक तीर्थंकर को वन्दना करने के लिये अपने पिता वज्रदत्त के साथ गया । वहाँ धर्मका श्रवण कर इसने सर्वस्थिति का निश्चय किया तथा समस्त बन्धु जनों को विदा कर बहुत से राजाओं के साथ संयम ग्रहण कर लिया । मनःपर्यय ऋद्धि रूपी संपत्तिको प्राप्त कर धर्मोपदेश द्वारा अनेक देशों में विहार कर वे यहाँ वीतशोक नगर में पधारे हैं । इस प्रकार मन्त्रिपुत्रके वचन सुनकर शिवकुमार बहुत प्रसन्न हुआ और स्वयं जाकर मुनिराज की स्तुति कर तथा उनसे धर्मामृत का पान कर कहने लगा भगवन् ! आपके दर्शन कर मुझे बड़ा हर्ष हुआ है इसका क्या कारण है ? भगवान् सागरदत्त कहने लगे १. श्रुतां म० क० । २. गोत्रिणः । For Personal & Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ५१] भावप्राभतम् ३६७ स्काल एव नष्टः । सागरदत्तश्चिन्तयामास यौवनं धनं शरीरं जीवितमन्यच्च सर्व वस्तु विनश्वरं वर्तते यथायं मेघ इति निर्वेगं गतः । अपरेवुमनोहरोद्याने धर्मतीर्थनायकममृतसागरं नाम तीर्थकरं वज्रदत्तेन निजवप्ता सह वन्दितुमितः । तत्र धर्म श्रुत्वा निश्चितसर्वस्थितिः सर्वबन्धुविसर्जन कृत्वा बहुभी राजभिः समं संयम जग्राह । मनःपर्ययद्विसम्पदं प्राप्य धर्मोपदेशेन देशान् विहृत्यात्र वीतशोकपुरमागतः । इति मंत्रिपुत्रवचनानि श्रुत्वा शिवकुमारः प्रीतमनाः स्वयं च गत्वा मुनिवरं स्तुत्वा धर्मामृतं ततः पीत्वा जगाद भगवन् ! भवन्तं दृष्ट्वा मम महान स्नेहः संजातः । तत्र कः प्रत्यय इत्यपृच्छत् । भगवान् सागरदत्तः प्राह अत्र जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे मगधदेशे वृद्धग्रामे राष्ट्रकूटो नाम वणिक् । तस्य भार्या रेवती । तयोी पुत्री भगदत्तभवदेवी । तयामध्ये भगदत्तः सुस्थितनामगुरुं नत्वा दीक्षां जग्राह । विनयान्वितो गुरुणा सह नानादेशान् विहृत्य स्वजन्मग्राममाजगाम । तदा तद्वान्धवाः इसी जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र सम्बन्धो मगधदेश के वृद्ध ग्राम में राष्ट्रकूट नामका एक वणिक् रहता था। उसकी स्त्री का नाम रेवती था। उन दोनोंके भगदत्त और भवदत्त नामके दो पुत्र हुए। उनमें भगदत्त ने सुस्थित नामक गुरुको नमस्कार कर दोक्षा धारण करली । विनयी भगदत्त गुरुके साथ नाना देशों में विहार कर अपने जन्मके ग्राम आया। तब उसके सभी कूटम्बो जनों ने हर्षित हो मिलकर सुस्थित नामक मुनिराज को प्रदक्षिणा देकर पूजा की । पूजा करने के बाद सब लोग वापिस आने को उद्यत हए। उसी ग्राम में एक दुमर्षण नामका वेश्य रहता था। उसकी नागवसू नामकी स्त्री थी। उन दोनों की नामश्री नामकी पुत्री थी। उन्होंने वह पुत्री भगदत्त के भाई भवदेव के लिये दी थी। भगदत्त का आगमन सुनकर भवदेव भी कुछ विकार करता हुआ वहाँ आया और भगदत्तको विनय-पूर्वक प्रणाम कर बैठ गया। भगदत्त ने आशीर्वाद दिया जिससे उसका मन आर्द्र हो गया। भगदत्त ने धर्म का स्वरूप और संसार की विरूपता का उपदेश देकर भवदत्त का हाथ एकान्त में पकड़ कर एकान्त में कहा-भाई ! तुझे संयम ग्रहण करना चाहिये । भवदेव ने कहा-नागश्री से छुट्टी लेकर आपका कहा करूंगा। भगदत्त ने कहाहे भाई ! संसार में स्त्री आदिके जाल में बंधा हुआ जीव आत्मा का हित कैसे कर सकता है ? इस मोह को छोड़ो। तब कोई उत्तर न देख भवदेव ने बड़े भाईके अनुरोध से दीक्षा लेनेका विचार कर लिया। भगदत्त ने उसे अपने गुरु सुस्थित मुनिराज के पास ले जाकर संसारका छेद करने के For Personal & Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ बझाभूते [५.५१ सर्वेऽपि हर्षमाणाः समेत्य मुनि सुस्थितं प्रदक्षिणीकृत्य संपूज्य चागन्तुमुद्यताः। तत्रैव ग्रामे दुर्मर्षणो नाम गृहपतिः । तस्य नागवसुर्भार्या । तयोः पुत्री नागश्रीः । सा विधिपूर्वकं भवदेवाय ताभ्यां ददे । भगदत्त गमनं श्रुत्वा भवदेवोऽपि विकुर्वाणोऽत्रागत्वा भगदत्तं विनयात्प्रणम्य तद्दत्ताशीर्वादेनाद्रितमनास्तस्थिवान् । भगदत्तो धर्मस्वरूपं संसारवरूप्यं व्याख्याय गृहीतकर एकान्ते भ्रातः । त्वया संयमो गृहीतव्य इत्याह । भवदेव-उवाच-नागश्रीमोक्षणं विधाय भवत उदितं करिष्यामि । भगदत्त उवाच-हे भ्रातः ! संसारे जायादिपाशवद्धो जीवः कथमात्महितं करोति परित्यज मोहमेतमिति । तदा भवदेव उत्तरमपश्यन् ज्येष्ठानुरोधेन दीक्षायां मति विदधौ। भगदत्तः स्वगुरु सुस्थितसमीपं तं नीत्वा संसारच्छेदनार्थ मोक्षीं दीक्षां मा ग्राहयांबभूव । सतां सौदर्यमीदृग्भवति । भवदेवो द्रव्यसंयमी भूत्वा गुरुभिः समं द्वादशवर्षाणि विहृत्यापरेधुर्विधीरसहायो निजं वृद्धग्रामं गत्वा सुब्रतां गणिनीं समीक्ष्य तां प्राह-हेऽम्ब ! 'काचिन्नागश्री मा काचिदस्ति । सा तस्येङ्गितं ज्ञात्वा जगाद-मुने ! तदुदन्तमहं सम्यग्न वेदेति । तदोवासीन्यं प्राप्तं तं संयमे स्थिरीकतुं गुणवत्यायिकां प्रति अर्थाख्यानकं जगाद । सर्वसमृद्धनामा वैश्यः, लिये शीघ्र ही मोक्ष की दीक्षा दिला दी सो ठीक ही है क्योंकि सत्पुरुषों का भाई-चारा ऐसा ही होता है। भवदत्त द्रव्यसंयमी होकर गुरुओं के साथ बारह वर्ष तक विहार करता रहा । किसी समय वह अज्ञानी अकेला ही अपने वृद्धग्राम आया । वहाँ सुव्रता नाम की गणिनी को देखकर बोलाहे मातः! क्या यहाँ कोई नागश्री नामकी स्त्री है ? वह उसके अभिप्रायको जानकर बोली हे मुने ! मैं नागश्री के वृत्तान्त को अच्छी तरह नहीं जानती। यह सुन कर भवदत्त मुनि उदासीनता को प्राप्त हो गया उसे संयम में दृढ़ करने के लिये सुव्रता नामकी गणिनो गुणवतो आर्यिका को लक्ष्य कर एक कथा कहने लगी (१) एक सर्व समृद्ध नामका वैश्य था, उसकी दासीका एक लड़का था जो निरन्तर घिनावना रहता था तथा दारुक उसका नाम था । अपनी माता अर्थात् वैश्यको स्त्रीने उससे कहा कि तुझे हमारे सेठका जूठा भोजन खाना पड़ेगा। हठ कर उससे कहा, खिला भी दिया । परन्तु दारुक १. काविन्नामंत्री मा काचिदस्ति म० । क प्रती नामास्ति, काचित् पदं केनापि निःसारितम् । २. सुत्रता कामा गणिनी अस्मिान गुणपती प्रति जगाव इति पूर्वापर सम्बन्धः । (0.टी.)। For Personal & Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावप्राभृतम् ३६९ तद्दासीसुतोऽशुचिर्दारुकाभिधेयः स्वमात्रा प्रोचे - अस्मत्श्रेष्ठ्युच्छिष्टभोजनं तु त्वयाऽशनीयमिति । निबंन्धाद्भोजितः । स जुगुप्सया वान्तवान् । तत् कंसपात्रेण धृत्वाऽऽच्छाद्य धृतं । दारुकः पुनर्बुभुक्षुः स्वमातरं भोजनं ययाचे । तया तत्कंसपात्रं वान्तभृतमुपढौकितं । क्षुत्पीडितोऽपि स आत्मवान्तं न जग्राह । सोऽशुचिरपि चेत्तादृशस्तहि साधुः कथं त्यक्तमभीप्सतीति ( १ ) । गुणवति ! पुनरेकमर्थाख्यानकं निजं मनो निश्चलं कृत्वा त्वं शृणु । नरपालनामा नरेन्द्र एकं श्वानं कुतूहलेन मृष्टान्नेन संपोष्य कनकाभरणभूषितं सदा वनक्रीडादी सुवर्णरचितां शिविकामारोप्यैव मन्दमतिस्तमपालयत् । एकदा शिविकारूढः सरमासुतो गच्छन बालविष्टामालोक्य तामालेढुमापपात । तद्दृष्ट्वा राजा लकुटीताडनेन तमपाचकार । तथा पुत्रि ! साधुः सर्वेषां पूजनीयः पूर्वंत्यक्तं पुनर्वाञ्छन् पराभवं प्राप्नोति ( २ ) । हे गुणवति ! पुनरेकां कथां शृणु क्वचित्कोपि पथिकस्तद्वनान्तरे सुगन्धिफलपुष्पादिसेवया युतस्तं तरुं त्यक्त्वा सन्मार्ग विहा महाटवीसंकटे पतितः । तत्र जिघांसुकं -५.५१] मूरं दृष्ट्वा ततो भीत्वा घावन्नेकस्मिन् भीमे कूपे बिम्यत् पपात । तत्रय पापाच्छीतादिभिर्दोषत्रयसंभवे वाग्दृष्टि तिगतिप्रभृतिहीनं सर्पादिबाघ निकटं तस्मा ने उसे ग्लानि-वश उगल दिया । सेठानी ने उस वमन को कांसे के पात्रमें रखकर कपड़े से ढाँक कर रख दिया । दारुक को पुनः भूख लगी तब उसने अपनी माता से भोजन माँगा । माता ने वमन से भरा वह ही काँसेका पात्र उसे दे दिया था। दारुक ने भूखसे पीडित होने पर भी अपने वमनको नहीं खाया। उस दारुक ने घिनावना होने पर भी जब अपना वमन नहीं खाया तब साघु अपनी छोड़ी वस्तुको कैसे इच्छा कर सकता है ? 1 (२) हे गुणवति ! अपना मन निश्चलकर एक कथा और सुन । नरपाल नाम का एक राजा था उसने एक कुत्तेको मिठाई खिला-खिलाकर पाला था वह उसे सुवर्ण के आभूषणों से विभूषित कर सदा वन - क्रीडा आदिके समय सुवर्णनिर्मित पालकी में बैठाकर साथ ले जाता था । इस तरह वह मूर्ख राजा उस कुत्ते का पालन करता था । एक दिन पालकी पर चढ़ा कुत्ता जा रहा था सो बालक की विष्ठा देख उसे चाटनेके लिये कूद पड़ा। राजा ने यह देख उसे डण्डे से पीट कर भगा दिया । हे पुत्र ! इसी तरह सबका पूजनीय साधु यदि पहले छोड़ी हुई वस्तुकी इच्छा करता है तो तिरस्कारको प्राप्त होता है । (३) हे गुणवति ! एक कथा और सुन। कहीं कोई एक पथिक किसी नमें एक वृक्षके नीचे ठहरा था उसके सुगन्धित फल और फूल आदिका २४ For Personal & Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ ५.५१ न्निर्गमनोपायमजानन्तं तं कोऽपि भिषग्वरो यदृच्छया गच्छन् दृष्ट्वा दयार्द्रचित्तः केनाप्युपायेन महोदरान्निष्कास्य मंत्रौषधि प्रयोगेण विहितचरणप्रसारणं सूक्ष्मरूपसमालोकनोन्मीलितनेत्रं स्फुटाकणने विज्ञाननिजशक्तिकर्णयुगलं व्यक्त वाक्प्रसरसंयुक्त जिव्हं स चकार । पुनः सर्वरमणीयं पुरं तन्मार्गदर्शनेन प्रस्थापयामास । निर्मलहृदयाः कस्योपकारं न विदध्युः । पुनः स विषयाक्तमतिः पथिकदुर्मतिः प्रकटीकृतदिग्भागमाहः प्राक्तनकूपकं सम्प्राप्य तस्मिन् पुनः पतितः तथा क्वचित्संसारे मिथ्यात्वादिकपंचोग्रव्याधयो दीप्त्युपागता जन्मकूपे क्षुधादाहाद्या तंमङ्गिनं वीक्ष्य गुरुः सन्मतिर्वेद्यो दयालुत्वाद्धर्माख्यानोपायपण्डितस्तस्मान्निगमय्य जिनवागौषधि - निषेवना (णा) त् सम्यक्त्वलोचनमुन्मील्य सम्यग्ज्ञान तियुगलमुद्घाटय्य सद्वृत्तपादौ प्रसारित विधाय दयामयीं जिह्वां व्यक्तां विधाय विधिपूर्व पंचप्रकारस्वाध्यायवचनानि तं वादयित्वा स्वर्गापवगयोर्मागं सुधीः साध्वगमयत् । तत्र केचिद्दीर्घसंसाराः स्वपापोदयात् भ्रमरा इव सुगन्धिवन्धु रोद्भिन्नचम्पकसमीपवर्तनस्तत्सो ३७० उपभोग करता हुआ रहता था। वह उस वृक्षको छोड़ आगे गया तो सन्मार्गको भूल सघन जंगलमें जा पड़ा। वहाँ एक चीता उसे खाने के लिये आया उसे देख भयभीत होता हुआ वह भागा और भागता भागता एक भयंकर कुएं में जा पड़ा। वहाँ पापके कारण शीत आदि लगनेसे उसे त्रिदोष की बीमारी हो गई । उसकी बोलने देखने सुनने तथा चलने आदि की शक्ति नष्ट होगई, सर्प आदिकी बाधा उसके निकट ही थी, वह वहाँसे निकलने का उपाय भी नहीं जानता था, भाग्यवश स्वेच्छासे कोई वैद्य वहाँसे निकला, उसने उसे देखा, देखते हो उसका चित्त दयासे आर्द्र हो गया, अतः उसने किसी उपाय से उसे उस महा कूपसे निकाला तथा मन्त्र और औषधि प्रयोगसे ठीक किया । चलने में उसके पैर पसरने लगे, सूक्ष्म रूपके देखने में उसके नेत्र खुल गये, अच्छी तरह सुनने में उसके दोनों कान अपनी शक्ति से युक्त हो गये, तथा उसकी जिह्वा भी स्पष्ट वचन बोलने लगी । वैद्य ने उसे ठोक कर उसके सब सुन्दर नगरको उसका मार्ग दिखाकर रवाना कर दिया, सो ठोक ही है क्योंकि निर्मल हृदय वाले मनुष्य किसका उपकार नहीं करते ? परन्तु वह दुर्बुद्धि पथिक विषय आसक्तचित्त हो दिग्भाग में मूढताको प्रकट करता हुआ उसी पहले कुएं में जा पड़ा। उसी प्रकार कहीं संसार में मिथ्यात्व आदि पञ्च भयंकर बीमारियाँ प्रबलताको प्राप्त हो रही हैं, और यह जीव संसाररूप कुएं में पड़ा पड़ा क्षुधा की दाहसे दुखी हो रहा है उसे देख सद्बुद्धिके 1 For Personal & Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ५१] भावप्राभृतम् ३७१ गन्ध्यावबोधरहिताः पार्श्वस्थाख्याः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसमीपवर्तनात्, क्रोधादिकषायस्पर्शादिविषयलौकिकज्ञानचिकित्सादिकुज्ञानाः जिह्वायामष्टया स्पर्शेषु च लम्पटा दुराशयाः कुशीलनामानः निषिद्धेषु द्रव्येषु भावेषु च लोलुपाः संसक्ताह्वया, हीयमानज्ञानादिका अवसानसंज्ञाः, समाचारबहिभूता मृग-चर्यानामधेयका महामोहानिवृत्या कृत्वा 'आजर्वजवागस्तदन्धकूपे पेतुर्निपतन्ति च ( ३ ) भवदेव इति श्रुत्वा सम्प्राप्तशान्तभावो बभूव । सुब्रता गणिनी सर्वार्याग्रसरी तद्विज्ञाय दारिद्रोपादितदौस्थित्यां नागश्रियमानाय्य तं दर्शयामास । भवदेवोऽपि तां दृष्ट्वा संसारस्थिति स्मृत्वा धिगिति निन्दित्वा पुनः संयम गृहीत्वाऽऽयुःप्रान्ते भ्रात्रा भगदत्तेन सह आराधनां शिवाय । समाधिना मृत्वा माहेन्द्रकल्पे बलभद्र विमाने सामानिको धारक गुरु रूपी वैद्य जो कि धर्मोपदेशरूपी उपायके जानने में निपुण हैं, दयालु होनेसे उसे उस संसार कूपसे बाहर निकलवाते हैं, जिनवाणी रूपी औषधिका सेवन कराकर उसके सम्यक्त्व रूपी लोचनको खोलते हैं, सम्यग्ज्ञान रूपी कानोंके युगलको खोलते हैं, सदाचार रूपी पैरोंको पसारते हैं, दया रूपी जिह्वाको प्रगट करते हैं, विधिपूर्वक पाँच प्रकारके स्वाध्याय के वचन उससे बुलवाते हैं, और यह सब कह कर बुद्धिमान् वैद्य उसे स्वर्ग तथा मोक्षके मार्गमें अच्छी तरह रवाना कराता है। उनमें कितने ही दीर्घसंसारी जीव अपने पापके उदयसे उन भ्रमरों के समान जो सुगन्धिसे युक्त खिले हुए चम्पाके समीपवर्ती होकर उसकी सुगन्धिके ज्ञान से रहित हैं, पार्श्वस्थ नाम धराते हैं, क्योंकि वे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके समीपमें रहते हैं । कितने ही लोग क्रोधादि कषाय तथा स्पर्गादि विषयोंके लौकिक ज्ञान और औषध आदि के मिथ्याज्ञान से युक्त हो जिह्वा इन्द्रिय के तथा आठ प्रकार के स्पर्शीक विषयमें लम्पट होकर कुशील नाम धराते हैं, इनका अभिप्राय खोटा रहता है। कितने ही लोग निषिद्ध द्रव्य और भावोंमें लुभाकर संसक्त कहलाने लगते हैं। कितने हो लोग जिनके ज्ञान आदिक निरन्तर घटे रहते हैं, अवसान नाम रखाते हैं और कितने ही समोचोन आचारसे बाह्य होकर मृगचर्या नाम पाते हुए महामोह के दूर न होनेके कारण संसार पतन के कारण अपराध को करते हैं तथा अन्धकूप में पड़े हैं और वर्तमान में पड़ रहे हैं। भवदेव इन सब कथाओं को सुनकर शान्तभाव को प्राप्त होगया। तदनन्तर समस्त आर्यिकाओं की प्रधान सुब्रता गणिनी ने दरिद्रता से १. आजवंजवास्ताधकूपे म०५०। For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ षट्प्राभृते [ ५.५१ देवः सप्तसागरोपमायुर्बभूव । अहं भगदत्तचरः सागरदत्तश्चक्रिसुतः संजातः । त्वं भवदेवचरः शिवकुमारोऽत्र बभूविथ । स इति श्रुत्वा संसाराद्विरतो दीक्षां गृहीतुमुद्यतो बभूव । वनमालया मात्रा महापद्मेन पित्रा च वारितो वीतशोकं नगरं प्रविश्य संजातसंवित् अप्रासुकाहारं नाहरिष्यामीति व्रतं गृहीत्वा स्थितः । एतावतीदीक्षां विना प्राकाहारः कुतः ? भूपस्तद्वार्तां श्रुत्वा प्राह - यः कोऽपि शिवकुमारं भोजयति तस्मै सम्प्रार्थितमहं दास्यामीति सभायां घोषयामास । तद्विज्ञाय सप्तस्थानसमाश्रयो दृढधर्मनामा श्रावकः समागत्य शिवकुमारं प्राह । अथ कानि तानि सप्तस्थानानीति चेत् सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं परिव्राज्यं सुरेन्द्रता । साम्राज्यं परमार्हन्त्यं निर्वाणं चेति सप्तधा ॥ १ ॥ अथ दृढधर्मा किं प्राहेति चेत् ? हे कुमार ! तव ज्ञातयः तव शत्रवः पापस्य जिसकी खराब दशा हो रही थी ऐसी नागश्री को बुलाकर दिखलाया । भवदेव भी उसे देखकर तथा संसारकी स्थितिका स्मरण कर धिक्कार देता हुआ अपनी निन्दा करने लगा । उसने पुनः संयम धारण किया और आयु के अन्त में भाई भगदत्त के साथ आराधना का आश्रय लिया । समाधि से मर कर वह माहेन्द्र स्वर्ग में बलभद्र विमानमें सात सागरकी आयु वाला सामानिक जाति का देव हुआ मैं भगदत्तका जीव चक्रवर्तीका पुत्र सागरदत्त हुआ हूँ और तू भवदेवका जीव शिवकुमार हुआ है। इस प्रकार सुनकर शिवकुमार संसारसे विरक्त हो दीक्षा लेने के लिये उद्यत हो गया । वनमाला माता और महापद्म पिता ने उसे दीक्षा लेने से मना किया तो वह वीतशोक नगर में प्रवेश कर आत्म-ज्ञानसे युक्त हो यह नियम लेकर रहने लगा कि में अप्रासुक आहार नहीं करूंगा । इतनी दीक्षा विना उसे प्राक आहार कैसे प्राप्त होता था ? इसका उत्तर यह है कि राजाने उस बातको सुन कर सभामें ऐसी घोषणा करा दी थी कि जो कोई शिवकुमारको आहार करावेगा मैं उसके लिये मन चाही वस्तु दूंगा। यह जानकर सप्त स्थानोंके आश्रयभूत दृढधर्म नामक श्रावक ने आकर शिवकुमार से कहा । वे सप्त स्थान कौन हैं यदि यह जानना चाहते हो तो उसका उत्तर इस प्रकार है सज्जाति-सज्जाति, सद्गृहस्थ, पारिब्रज्य, सुरेन्द्रता, साम्राज्य, उत्कृष्ट आर्हन्त्य पद और निर्वाण ये सात परम स्थान हैं । दृढ़धर्म श्रावक ने शिवकुमार से कहा था कि हे कुमार! तुम्हारे For Personal & Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ५१ ] भावप्राभृतम् ३७३ कारणं स्वपरघातका वर्तन्ते । तेन त्वं भावसंयममघातमकृत्वा तव प्रासुकाशनं संपाद्य पर्युपासनमहं कुर्वे । बन्धुवियोगं विना संयमे प्रवृतिस्तवापि दुर्लभेति हितं वचनं जगाद च। सोऽपि तद्विदित्वा आचाम्लनिर्विकृतिर सरहितभोजनः सन् दिव्यस्त्रीसन्निधौ स्थित्वापि सदा विकाररहितमनाः स्त्रियास्तृणाय मन्यमानः खङ्गतीक्ष्णधारायां संवर्तमानो द्वादशसंवत्सरांस्तपः कृत्वा संन्यासं गृहीत्वा जीवितान्ते ब्रह्मेन्द्रनाम्नि कल्पे विद्युन्माली देहदीप्तिव्याप्तदिवतटो देवो बभूव । विद्युन्मालिन एवाष्टदेव्योऽत्रागत्य जम्बूनाम्नः तत्र चतस्रो भार्याः पद्मकनकविनयरूपश्रियो भूत्वा निजभर्त्रा सह दीक्षित्वाऽच्युतकल्पं गत्वा स्त्रीलिंगच्युता देवा भूत्वा पश्चादत्रागत्य मोक्षं यास्यन्ति । सागरदत्तनामा स्वर्गं गत्वात्रागत्य निर्वाणं यास्यति । इति जम्बूस्वामिari श्रुत्वा श्रेणिको जहर्ष । इति श्रीभावप्राभृते शिवकुमारकथा समाप्ता । घरके लोग तुम्हारे शत्रु हैं, पापके कारण हैं तथा स्वपरका घात करने वाले हैं। इसलिये तुम भाव संयमका घात किये बिना प्रवृत्ति करो अर्थात् संयम धारण करने का जैसा तुम्हारा भाव है उसके अनुसार प्रवृत्ति करो, मैं प्राक आहार देकर तुम्हारी सेवा करता हूँ । घरके लोगोंको छोड़े बिना संयम में तुम्हारी भी प्रवृत्ति दुर्लभ है, इस प्रकारके हितकारी वचन कहे। शिवकुमार ने भी यह जान कर आचाम्ल, निर्विकृति तथा नीरस भोजन का नियम ले लिया । वह सुन्दर स्त्रियोंके पास रह कर भी सदा निर्विकार चित्त रहता था और स्त्रियोंके तृण्ण के समान तुच्छ मानता हुआ खङ्ग तीक्ष्ण धारा व्रतका लगातार बारह वर्ष तक पालन करता रहा । अन्त में संन्यास धारण कर ब्रह्मेन्द्र नामक स्वर्ग में शरीर की प्रभासे दिशाओं को व्याप्त करता हुआ विद्युन्माली नामक देव हुआ । विद्युन्माली देवकी जो आठ देवियाँ थीं उनमें चार देवियाँ जम्बू कुमार की पद्मश्री, कनकश्री, विनयश्री और रूपश्री नामकी स्त्रियाँ होकर अपने पति के साथ दीक्षा लेवेंगी और अच्युत स्वर्ग जाकर स्त्री लिङ्ग छेद देव होंगी पीछे यहाँ आकर मोक्ष जावेंगीं । सागरदत्त नामक मुनि पहले स्वर्ग जावेंगे फिर यहाँ आकर निर्वाण को प्राप्त होंगे । इस प्रकार जम्बूस्वामीका चारित्र सुनकर राजा श्रेणिक हर्षित हुआ । इस तरह भावप्राभृत में शिवकुमार की कथा समाप्त हुई । For Personal & Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ षट्प्राभते [५. ५अंगाई दस य दुण्णि य चउदसपुव्वाइं सयलसुयणाणं। . पढिओ अ भव्वसेणो ण भावसवणतणं पत्तो॥५२॥ अङ्गानि दश च द्वे च चतुर्दशपूर्वाणि सकलश्रुतज्ञानम् । पठितश्च भव्यसेनः न भावश्रमणत्वं प्राप्तः ॥५२॥ ( अंगाई दस दुणि य ) अंगानि दश च द्वे च अंगे । ( चउदसपुब्वाई ) चतु. दशपूर्वाणि ( सयलसुयणाणं ) सकलश्रुतज्ञानं । ( पढिओ अ.) पठितश्च । (भब्वसेणो ) भव्यसेननामा मुनिः । ( ण भावसवणत्तणं पत्तो ) भावश्रमणत्वं न प्राप्तः । जैनसम्यक्त्वं विनाऽनन्तसंसारी बभूवेति भावार्थः । अत्र भव्यसेनो मुनिरेकादशाङ्गानि । शब्दतोऽर्थतश्च पठितस्तद्वलेनैव द्वादशस्याङ्गस्य चतुर्दशपूर्वाणां चार्थपरिज्ञायकत्वात् श्री कुन्दकुन्दाचार्येण सकलश्रुतेमधीमं प्रोक्तमिति ज्ञातव्यं सकलश्रुतेwwwimmmmmmmmmmm गाथार्थ-भव्यसेन मुनिने बारह अङ्ग तथा चौदह पूर्व रूप समस्त श्रुतज्ञान को पढ़ा फिर भी वह भाव श्रमण अवस्था को प्राप्त नहीं हो सका ॥५२॥ विशेषार्थ-भव्यसेन नामक मुनि, द्वादशाङ्ग तथा चतुर्दश पूर्व रूप सकल श्रुतका पाठी होने पर भी भाव-मुनि नहीं हो सका अर्थात् जैन सम्यक्त्व के बिना अनन्त संसार का पात्र रहा। यहां भव्यसेन मुनि ने ग्यारह अङ्गोंको तो शब्द तथा अर्थ दोनों रूपसे पढ़ा था और चौदह पूर्वो को वह अर्थ मात्रसे जानता था इसी दृष्टिसे कुन्दकुन्द स्वामी ने उसे सकल श्रुतका पाठी कह दिया है, ऐसा जानना चाहिये। क्योंकि समस्त श्रुतको पढ़ने वाला पुरुष संसार में नहीं पड़ता, ऐसा आगमका वचन है । भव्यसेनकी कथा इस प्रकार है भव्यसेन की कथा विजयाध पर्वत की दक्षिण श्रेणीमें मेघ-कूटपत्तन नामका नगर है. उसमें सुमति महादेवीका पति चन्द्रप्रभ नामका राजा रहता था। वह चन्द्रशेखर नामक पुत्रके लिये राज्य देकर परोपकार के अर्थ तथा जिनदेव और जिन मुनियों की वन्दना एवं भक्तिके अभिप्राय से कुछ विद्याओंको धरता हुआ दक्षिण मथुरामें आकर मुनि गुप्ताचार्यके समीप क्षुल्लक हो गया। वह एक समय जिन मुनियोंकी वन्दना और भक्तिके लिये उत्तर मथुरा की ओर जाने लगे। चलते समय उन्होंने श्रीमुनि गुप्त आचार्यसे पूछा कि किससे क्या कहना है ? गुप्तमुनिराज ने कहा कि सुब्रत मुनिके For Personal & Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ५२ ] भावप्राभृतम् उवाच धोती संसारे न पततीत्यागमः । भव्यसेनस्य कथा यथा - विजयार्द्धगिरी दक्षिणश्रेणी मेघकूटपत्तने राजा चन्द्रप्रभः सुमतिमहादेवी कान्तश्चन्द्रशेखराय राज्य दत्वा परोपकारायं जिनमुनिवन्दना भक्त्यर्थं च कांश्चन विद्यां दधानो दक्षिणमधुरामागत्य मुनिगुप्ताचार्यसमीपे क्षुल्लको जातः । स एकदा जिनमुनिवन्दना भक्त्यर्थं - मुत्तरमथुरां चलितः सन् श्रीमुनिगुप्तमाचार्यं प्रपच्छ कि कस्य कथ्यत इति । गुप्त - सुब्रतमुनेर्नमोऽस्तु वरुणमहाराजमहादेव्या रेवत्या धर्मवृद्धिरिति वक्तव्यं त्वया । एवं त्रीन् वारान् पृष्टो मुनिस्तदेवोवाच क्षुल्लकः स्वगतं एकादशाङ्गधारिणो भव्यसेनाचार्यस्यान्येषां च नामापि भगवान् नादत्तं तत्र प्रत्ययेन भवि - तव्यमिति विचार्य तत्र गतः । सुव्रतमुनेर्भट्टारकीयां वन्दनां कथयित्वा तदीयं विशिष्टं वात्सल्यं च दृष्ट्वा भव्यसेनवसतिं जगाम । तत्र भव्यसेनेन संभाषणमपि न कृतं । कुण्डिकां गृहीत्वा भव्यसेनेन सह बहिर्भूमि गत्वा विकुर्वणां कृत्वा हरितकोमलतृणांकुरच्छन्नो मार्गो दर्शितः । तं मार्ग दृष्ट्वा भव्यसेन आगमे किलते लिये नमोस्तु और महाराज वरुणकी महादेवी रेवतीसे धर्मवृद्धि कहना । इस तरह क्षुल्लकने तीन बार पूछा और मुनि ने तीन ही बार वही उत्तर दिया | क्षुल्लक ने अपने मनमें विचार किया कि ग्यारह अङ्गके धारी भव्यसेनाचार्यं तथा अन्य मुनियोंका भगवान् नाम भी नहीं लेते हैं उसमें कुछ कारण अवश्य होना चाहिये ऐसा विचार कर वे चले गये । सुब्रत मुनिके लिये भगवान् मुनि गुप्ताचार्य की वन्दना कह कर तथा उनका विशिष्ट वात्सल्य देखकर क्षुल्लक भव्यसेन की वसतिका को गये । वहाँ भव्यसेन ने उनके साथ संभाषण भी नहीं किया । क्षुल्लक कमण्डलु लेकर भव्यसेन के साथ बाह्यभूमि में गये और विक्रिया कर उन्होंने हरे कोमल तृण कुरोंसे आच्छादित मार्ग दिखाया। उस मार्गको देखकर भव्यसेन आगम में ये जीव कहे जाते हैं, ऐसा कह आगममें अश्रद्धा करता हुआ तृणोंके ऊपर चलने लगा । जब भव्य सेन शौचके लिये गया तब क्षुल्लक ने कमण्डलुका जल सुखा कर कहा - भगवन् ! कमण्डलु में पानी नहीं है तथा पासमें कहीं ईंट आदि पदार्थ भी नहीं देख रहा हूँ अतः इस निर्मल सरोवर में मिट्टी से शुद्धि कर लीजिये । तदनन्तर वहाँ भी उसने 'तथास्तु' कह कर शुद्धि कर ली। इन सब घटनाओंसे क्षुल्लकने द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि जानकर भव्यसेनका 'यह तो अभव्यसेन है' इसप्रकार दूसरा नाम रख दिया । मदनन्तर किसी दिन उस क्षुल्लक ने पूर्व दिशा में ब्रह्मा का रूप दिखाया । उस समय वह पद्मासन से बैठा था, चारों दिशाओंमें उसके चार मुल ३७५ For Personal & Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ षट्प्राभूते [ ५.५२ जीवाः कथ्यन्ते इति भणित्वा आगमेऽच कृत्वा तृणानामुपरि गतः । शौचसमये कुण्डिकाजलं शोषयित्वा क्षुल्लक उवाच -- भगवन्! कुण्डिकायामुदकं नास्ति तथा विकृती श्चेष्टिकादिकाः क्वापि नाहभीक्षे । अतोऽत्र निर्मलसरोवरे मृत्स्नया शौचं कुरु ततस्तत्रापि तथैव भणित्वा शौचं चकार । ततस्तं मिथ्यादृष्टि द्रव्यलगिनं ज्ञात्वा भव्यसेनस्याभव्यसेनोऽयमिति नामान्तरं चकार । ततोऽन्यदिने पूर्वस्यां दिशि पद्मासनस्थं चतुर्वक्त्रमुपवीतदर्भमुंजी दण्डकमण्डलुप्रभृतिसहितं देवदानववन्द्यमानं ब्रह्मरूपं दर्शयामास । तत्र राजादयो भव्यसेनादयश्च गताः । रेवती कोऽयं ब्रह्मनाम देव इति भणित्वा लोकैः प्रेरितापि तत्र न गता । अन्यस्मिन् दक्षिणस्यां दिशि गरुडारूढं चतुर्भुजं चक्रशंखगदादिघारकं वासुदेवरूपं दर्शयामास । पश्चिमदिशि वृषभारूढं साधंचन्द्रजटाजूटगौरीगणोपेतं शंकररूपं, उत्तरस्यां दिशि समवसरणमध्ये प्रातिहार्याष्टकमहितं सुरनरविद्याधरमु निवृन्दवन्द्यमानं पर्यकस्थ तीर्थंकररूपं दर्शयति स्म । तत्र सर्वे लोका गच्छन्ति स्म । रेवतो तु लोकैः प्रेर्यमाणापि न गता । नवैव वासुदेव:, एकादशैव रुद्रा, चतुर्विंशतिरेव तीर्थंकरा जिनागमे प्रतिपादितास्ते तु सर्वेऽप्यतीताः। कोऽप्ययं मायावो वर्तते इति विचिन्त्य स्थिता । ब्रह्मा तु कोऽपि नास्ति । उक्तं च दिखाई देते थे, यज्ञोपवीत दर्भ, मूंज, दण्ड तथा कमण्डलु आदि सहित था, और देव दानवों के द्वारा वन्दनीय था । राजा आदि तथा भव्यसेन आदि सब लोग वहाँ गये । परन्तु रेवती रानी 'यह ब्रह्मा नामका कौन देव हैं, ऐसा कहकर लोगों के द्वारा प्रेरित होने पर भी नहीं गई । दूसरे दिन क्षुल्लकने दक्षिण में नारायणका रूप दिखाया । वह नारायण गरुड़ पर बैठा था, उसके चार भुजाएं थीं और चक्र, शंख तथा, गदा आदिका धारक था । इसी प्रकार एक दिन पश्चिम दिशामें वृषभ पर बैठे, अधंचन्द्र, जटाजूट पार्वती तथा गणों सहित शङ्कर का रूप दिखाया तथा एक दिन उत्तर दिशा में समवसरण के बीच आठ प्रातिहार्यो से सहित, सुर, नर, विद्याधर और मुनियोंके समूह से वन्दनीय पद्मासन से स्थित तीर्थकर का रूप दिखाया । वहाँ भी सब लोग गये परन्तु रेवती रानी लोगोंके द्वारा प्रेरित होनेपर भी नहीं गई । वह यह सोच कर अपने घर स्थित रही कि नारायण नौ ही रुद्र ग्यारह ही होते हैं और तीर्थंकर चौबीस ही जिनागम में गये हैं तथा वे सब हो चुके हैं यह कोई मायावी है । और ब्रह्मा नामक कोई देवता तो है ही नहीं क्योंकि कहा है होते हैं, बतलाये For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.५३] भावप्रामृतम् ३७७ आत्मनि मोक्षे शाने वृत्ते ताते च भरतराजस्य । ब्रह्मेति गीः प्रगीता न चापरा विद्यते ब्रह्मा ॥१॥ अन्यस्मिन् दिने चर्यावेलायां व्याधिपीडितक्षुल्लकरूपेण रेवतीगृहसमीपप्रतोलीमार्गे मायामूर्च्छया पतितः। रेवती तदाकर्ण्य भक्त्योत्थाप्य नीत्वोपचारं कृत्वा पथ्यं विधापयितुमारेभे । स च सर्वमाहारं भुक्त्वा दुर्गन्धवमनं चकार तदपनीय हा! विरूपकं पथ्यं मया दत्तमिति रेवतीवचनमाकर्ण्य प्रतोषान्मायामुपसंहृत्य तां देवीं वन्दित्वा गुरोराशीर्वादं पूर्ववृत्तान्तं च कथयित्वा लोकमध्ये तस्या अमूढदृष्टिमुच्चैः प्रशस्य स्वस्थानं चन्द्रप्रभा जगाम । वरुणमहाराजस्तु शिवकीर्तये निजपुत्राय राज्यं दत्वा दीक्षामादाय माहेन्द्रकल्पे देवो बभूव । रेवती तु तपः कृत्वा ब्रह्मकल्पे देवी बभूव । इति श्री भावप्राभृते भव्यसेनमुनिकथा समाप्ता।। तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य । णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुड जाओ ॥५३॥ तुषमाषं घोषयन् भावविशुद्धो महानुभावश्च । नाम्ना च शिवभूतिः केवलज्ञानी स्फुट जातः ।। ५३ ॥ आत्मनि-ब्रह्मा इस प्रकार का शब्द आत्मामें, ज्ञान में, चारित्रमें तथा भरतके पिता भगवान वृषभदेवमें प्रसिद्ध है और कोई दूसरा नहीं है। : दूसरे दिन वह क्षुल्लक चर्याके समय एक बीमार क्षुल्लक के वेषमें रेवती के घर के समीप निकला और गोपूरके मार्गमें माया-मयी मासे गिर पड़ा। यह सुन रेवती रानी भक्ति से दौड़ी गई और उठाकर तथा सेवा सुश्रूषा कर पथ्य कराने के लिये तत्पर हुई। क्षुल्लक ने सब प्रकार का आहार कर दुर्गन्धित वमन कर दिया। उस वमन को दूर कर रेवती कहने लगी हाय! मुझसे कोई अयोग्य पथ्य दिया गया है। रेवती के वचन सुन संतोषसे मायाको संकोच कर चन्द्रप्रभ क्षुल्लक ने देवीकी वन्दना की तथा गुरुका आशीर्वाद और पूर्व वृत्तान्त कह कर लोगोंके मध्य उसके अमूढदृष्टि अङ्ग की खूब प्रशंसा को। तदनन्तर वह अपने स्थान पर चला गया। वरुण महाराज शिवकीति नामक निज पुत्रके लिये राज्य देकर दीक्षा धारण कर महेन्द्र स्वर्ग में देव हुए और रेवतो रानी तप कर ब्रह्मस्वर्ग में देव हुई। - इस प्रकार श्री भावप्राभृत में भव्यसेन मुनिकी कथा समाप्त हुई। गावार्ष-भावसे विशुद्ध शिवभूति मुनि, तुषमाष शब्द का बार बार For Personal & Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ षट्प्राभृते [ ५.५३ ( तुसमासं घोसंतो ) तुषमाषशब्दं घोषयन् पुनः पुनरुच्चारयन् मा विस्मृति यासीदिति कारणात् । ( भावविसुद्धो ) भावविशुद्ध: । ( महाणुभावो य ) महानुभावश्च महाप्रभावयुक्तश्च । ( णामेण य सिवभूई ) नाम्ना च शिवभूतिः चकारादर्थेन च शिवभूतिः शिवानां सिद्धानां भुतिरंश्वयं अनन्तचतुष्टयलक्षणं त्रैलोक्यनायकत्वं यस्य स भवति शिवभूतिः । (केवलणाणी फुड जाओ) केवलज्ञानी केवलज्ञानवान् लोकप्रकाशकपंचमज्ञानवान् स्फुटं शक्रादिदेवैः प्रकटीकृतघातिक्षयजातिशयदशकः सर्वप्रसिद्धः संजात इति । अस्य कथा यथा— कश्चिच्छिवभूतिनामा - सन्नभव्यजीवः परमवैराग्यवान् कस्यचिद्गुरोः पादमूले दीक्षां गृहीत्वा महातपश्चरणं करोति षट् प्रवचनमात्रामात्रं जानाति परं वैदुष्यं किमपि तस्य नास्ति । उच्चारण करते हुए महा प्रभाव के धारक केवल ज्ञानी हो गये, यह सर्व प्रकट है ॥ ५३ ॥ विशेषार्थ - भूल न जाऊ इस भावना से तुषमाष शब्द का बार बार उच्चारण करते, भाव से विशुद्ध और महा प्रभाव से युक्त शिवभूति नामक मुनि केवल ज्ञानी हो गये लोकालोक को प्रकाशित करने वाले पंचम ज्ञान से युक्त हो गये, यह सर्व प्रकट है । इन्द्रादिदेवोंने घातिया कर्मों के क्षयसे होने वाले उनके दश अतिशय प्रकट किये । इस तरह वे सर्व प्रसिद्ध हो गये । गाथा में णामेण य ( नाम्ना च ) यहाँ नाम के साथ च शब्दका भी प्रयोग हुआ है उससे यह सिद्ध होता है कि वे मुनि नामसे ही शिवभूति नहीं किन्तु अर्थ से भी शिवभूति थे। शिव अर्थात् सिद्धों की भूति अर्थात् अनन्त चतुष्टय रूप अथवा त्रैलोक्यांधिपति रूप ऐश्वर्यं जिनके पास है वे शिवभूति कहलाते थे। यह शिवभूति शब्दकी सार्थकता है। इनकी कथा इस प्रकार है शिवभूति मुनि की कथा कोई एक शिवभूति नाम के अत्यन्त निकट - भव्य जीव थे । परम वैराग्य से युक्त होकर उन्होंने किसी गुरुके पादमूल में दीक्षा ले ली और घोर तपश्चरण करने लगे । वे शास्त्र के सिर्फ 'तुषमाष भिन्न' इन छह अक्षरोंको जानते थे । इससे अधिक कुछ भी पाण्डित्य उनमें नहीं था । वे आत्माको शरीर तथा कर्मोंके समूहसे भिन्न जानते थे । उन्हें आगमका वह वाक्य नहीं आता था, मात्र गुरुके द्वारा कहे हुए इस दृष्टान्त को कि For Personal & Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ५४ ] भावप्रामृतम् ३७९ आत्मानं शरीरकर्मचयाद्भिन्न जानाति । तद्ग्रन्थं नायाति गुरुणा प्रोक्तं दृष्टान्तं पुनः पुनस्तीक्ष्णीकरोति तुषान्माषो भिन्न इति यथा तथा शरीरादात्मा भिन्न इति । तं शब्दं घोषयन्नपि कदाचिद्विस्मृतवान् । अर्थ जानन्नपि शब्दं न जानाति । एकाकी विरहति च । शब्दविस्मरणक्लेशावर्ती कांचिद्युवति वटकादिकपचनार्थ माषान् सूपीकृतान् जलमध्येप्लावितांस्तुषेभ्यो भिन्नान् कुर्वन्तीं दृष्ट्वा पृष्टवान् कि कुरुषे भवति ! इति । सा प्राह-तुषमाषान् भिन्नान् करोमि। स आह-मया प्राप्तमिति क्वचिद्गतः । तावन्मात्रद्रव्यभावश्रुतेनात्मन्येकलोलीभावं प्राप्तोऽन्तमुहूर्तेन केवलज्ञानं प्राप्य नवकेवलब्धिमान् देशान् विहृत्य भव्यजीवानां मोक्षमार्ग प्रदर्श्य मोक्षं गत इति । इति श्रीभावप्राभते शिवभूतिमुन्युपाख्यानं समाप्तं । भावेण होइ जग्गो बाहिरलिंगेण किं च नग्गेण । कम्मपयडीण णियरं णासइ. भावेण दवेण ॥१४॥ भावेन भवति नग्नः बहिलिगेन किं च नग्नेन । कर्मप्रकृतीनां निकरं नश्यति भावेन द्रव्येण ।। ५४ ।। .. जिस प्रकार तुष से माष उड़द भिन्न है, उसी प्रकार शरीर से आत्मा भिन्न है, बार बार उच्चारण कर पक्का करते रहते थे। उस शब्दका उच्चारण करते रहने पर भी वे कदाचित् उसे भूल गये । अब वे अर्थको तो जानते थे परन्तु शब्द नहीं जानते थे। अकेले ही विहार करते थे इसलिये ( किसो से पूछनेका अवसर भी नहीं मिलता था)। शब्द के भूल जाने का क्लेश उन्हें बार बार उठा करता था। उन्होंने एक बार किसी स्त्री को बड़े आदि बनाने के लिये दाल रूप परिणत उड़दों को पानी के मध्य डुबाकर तुषों से पृथक करती हुई देखा और देखकर पूछा कि आप यह क्या कर रही हैं ? उस स्त्री ने उत्तर दिया कि मैं तषों और उड़दोंको अलग अलग कर रही हूँ। मुनि बोले कि मैंने 'पा लिया। इतना कह कर वे कहीं चले गये। उतने मात्र द्रव्य और भाव श्रुतज्ञानके द्वारा वे आत्मा में इतनी तल्लोनता को प्राप्त हए कि अन्तमहर्तमें केवलज्ञान को प्राप्त कर नौ केवल लब्धियों से युक्त हो गये तथा देशों में विहार कर भव्य जीवोंको मोक्षमार्ग दिखलाते हुए मोक्ष गये। इस प्रकार श्रीभावप्राभृत में शिवभूति मुनिको कथा समाप्त हुई। · गाथार्थ--भावसे नग्न होता है बाह्य लिङ्ग रूप नग्न वेषसे क्या साध्य है ? अर्थात् कुछ नहीं भावसहित द्रव्यलिङ्ग के द्वारा ही कर्मप्रकृतियोंका समूह नष्ट होता है ॥ ५४॥ For Personal & Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० षट्प्राभृते [ ५.५५ ( भावेण ) जिनराजसम्यक्त्वेन । ( होइ णग्गो ) भवति नग्नो निर्ग्रन्थस्वरूपः । ( बाहिरलिंगेण किचनग्गेण ) बहिलिगेन किं च बाह्यनग्नतया न किमपि मोक्षलक्षणं कार्यं सिद्धयति पशूनामिव । ( कम्मपयडीण गियरं ) कर्मप्रकृतीनां निकरं समूहः अष्टचत्वारिंशदधिकशत्संख्यानां वृन्दं ( णासह भावेण दव्वेण ) नश्यति भावेन द्रव्येण चेति । ये मिथ्यादृष्टयो गृहस्था अपि सन्तोऽस्माकं भावो विद्यते इति वदन्ति स्त्रीभिः सह ब्रह्मचर्यं च भजन्ति ते 'लौका: चार्वाकसदृशा नास्तिकास्तन्मतनिरासार्थमिदं वचनमुक्तं श्री कुन्दकुन्दाचार्य स्वामिभिः. ( णासइ भावेण दव्वेण ) भावेण - कर्मक्षयो भवति भावपूर्वक द्रव्यलिगेन गृहीतेन भावद्रव्यलगाभ्यां कर्म प्रकृतिनिकरो नश्यति न त्वेकेन भावमात्रेण द्रव्यमात्रेण वा कर्मक्षयो भवति । इति व्याख्यानबलेन ते नास्तिका पूर्ववच्छिक्षणीया भावार्थ: । णग्गत्तणं अकज्जं भावणरहियं जिर्णोहि पण्णत्तं । इय णाऊण य णिच्चं भाविज्जहि अप्पयं धीर ॥ ५५ ॥ नग्नत्वं अकार्य भावरहितं जिनेः प्रज्ञप्तम् । इति ज्ञात्वा च नित्यं भावयेः आत्मानं धीर ॥५५॥ विशेषार्थ - भाव अर्थात् जिन सम्यक्त्व से ही निर्ग्रन्थ रूप प्राप्त होता है। पशुओं के समान केवल बाह्य- लिङ्ग रूप नग्न मुद्रा धारण करनेसे मोक्ष रूप कार्य सिद्ध नहीं होता कर्मोंकी एकसौ अड़तालीस प्रकृतियोंका 'समूह भाव और द्रव्य दोनों लिङ्गोंके धारण करनेसे ही नष्ट होता है। जो मिथ्यादृष्टि गृहस्थ होते हुए भी कहते हैं कि हमारे मुनिका भाव विद्यमान है, तथा स्त्रियों के साथ रहते हुए ब्रह्मचर्य का सेवन करते हैं वे लौंक लोग चार्वाकोंके समान नास्तिक हैं उनके मतका निराकरण करने के लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य स्वामी ने यह वचन कहा है 'णासइ भावेण दव्वेण ' अर्थात् भावपूर्वक द्रव्यलिङ्ग के ग्रहण करने में ही कर्म प्रकृतियों का समूह नष्ट होता है, केवल भावसे अथवा केवल द्रव्यसे नष्ट नहीं होता । इस व्याख्या के बलसे वे नास्तिक पहले की तरह शिक्षा देने योग्य हैं ॥ ५४ ॥ गाथार्थ - जिनेन्द्र भगवान् ने भाव रहित नग्नत्वको अकार्य - कार्य - रहित कहा है ऐसा जान कर हे धीर पुरुष ! निरन्तर आत्मा की भावना करना चाहिये ॥ ५५ ॥ १. लौका क० । For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ५५ ] भावप्राभृतम् ३८१ 1 ( णग्गत्तणं अकज्जं ) नग्नत्वं सवं बाह्यपरिग्रहरहितत्वं अकार्यं सर्वकर्मक्षयलक्षणमोक्षकार्यरहितं । कथंभूतं नग्नत्वं ( भावणरहियं जिणेहि पण्णत्तं ) भावनारहितं पंचपरमेष्ठिबाह्यभावनारहितं निजशुद्धबुद्ध कस्वभावात्मान्तरङ्गभावनारहितं च जिनैस्तीर्थंकरपरमदेवैरनगारकेवलिभिर्गणधर देवैश्च प्रज्ञप्तं प्रणीतं प्रतिपादितं कथितं भणितमिति यावत् । ( इय णाऊण य णिच्चं ) इति ज्ञात्वा विज्ञाय नित्यं सर्वकालं । ( भाविज्जहि अप्पयं धीर) भावयेस्त्वं आत्मानं बहिस्तत्वं च हे वीर ! योगीश्वर ! इति सम्बोधनपदेन ध्येयं प्रति घिय मीरन्ति प्रेरयन्ति इति धीरा योगीश्वरा एव ग्राह्मा न तु गृहस्थवेषधारिणः पापिष्ठलौका. गृहस्थानां सम्यक्त्व पूर्व कमणुव्रतेषु दानपूजादिलक्षणेषु गुरूणां वैयावृत्यफलेषु नियोगो ज्ञातव्य इति । तथा चोक्तं लक्ष्मीचन्द्रेण गुरुणा 3 विज्जावच्चें विरहियहं वय गियरो वि ण ठाइ । सुक्क सरहु किह हंस कुलु जंतउ घरणहं जाइ ॥ विशेषार्थ – पंचमपरमेष्ठियोंकी बाह्य भावना से रहित तथा शुद्धबुद्ध-वीतराग सर्वज्ञता रूप एक स्वभावसे युक्त निज आत्माकी अन्तरङ्ग भावनासे रहित जो नग्नता है अर्थात् सर्वं बाह्य परिग्रह से रहित अवस्था है वह सब कर्म क्षय रूप मोक्ष कार्य से रहित है । ऐसा तीर्थंकर परम देवने, अनगार केवलियों ने अथवा गणधर देवों ने कहा है । ऐसा जानकर है धीर! हे योगीश्वर ! तू आत्मा तथा बाह्य तत्त्वकी भावना कर । यहाँ आचार्य महाराज ने जो 'धीर' यह सम्बोधन पद दिया है उससे ध्येय के प्रति बुद्धिको प्रेरित करने वाले मुनियोंका ही ग्रहण करना चाहिये । गृहस्थ 'वेषको धारण करने वाले पापो लौंकों का नहीं । दान पूजा आदि जिनके लक्षण हैं तथा गुरुओं की वैयावृत्त्य जिनका फल है ऐसे सम्यक्त्वपूर्व अणुव्रत धारण करना गृहस्थों का कार्यं जानना चाहिये । जैसा कि लक्ष्मीचन्द्र गुरुने कहा है वैयावृत्य से - वैयावच्च – जो पुरुष नहीं ठहरता, सो ठीक ही है क्योंकि सूखे कुल किस प्रकार रोका जा सकता है ? १. लोकाः क० । २. वैयावृत्यसकालेषु म० । ३. सावय धम्म दोहा । रहित हैं उनके व्रतोंका समूह सरोवरसे जाता हुआ हंसों का For Personal & Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [५.५६तं भावलिंग केरिसं हवदि तं जहातद्भावलिंग कीदृशं भवति तद्यथा-तदेव निरूपयन्ति भगवन्तःदेहादिसंगरहिओ माणकसाएहि सयलपरिचत्तो। अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू ॥५६॥ देहादिसंगरहितः मानकषायैः सकलपरित्यक्तः। - आत्मा आत्मनि रतः स भावलिङ्गी भवेत् साधुः ॥ ५६॥ . ( देहादिसंगरहिओ ) देहः शरीरं स आदिर्येषां पुस्तककमण्डलुपिच्छपट्टशिष्यशिष्याछात्रादीनां कर्मनोकर्मद्रव्यकर्मभावकर्मादीनां संगानां चेतनाचेतनबहिरंगान्तरंगपरिग्रहाणां ते देहादिसंगा । अथवाऽऽगमभाषया क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदं । हिरण्यं च सुवर्ण च कुप्यं भांडं वहिर्दश ॥१॥ मिथ्यात्ववेदहास्यादिषट् कषायचतुष्टयं । रागद्वेषो च संगाऽस्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश ॥२॥ इति श्लोकद्वयकथितक्रमेण चतुर्विंशतिपरिग्रहास्तेभ्यो रहितो देहादिसंगरहितः । वह भावलिङ्ग कैसा होता है ? यही श्री कुन्दकुन्द भगवान निरूपण करते हैं गाथार्थ-जो शरीर आदि परिग्रह से रहित है, मान कषायसे पूर्णतया निम क्त है तथा जिसकी आत्मा आत्मस्वरूपमें लीन है वह साधु भावलिङ्गी होता है । ५६ ॥ विशेषार्थ-देह शरीरको कहते हैं उसे आदि लेकर पुस्तक कमण्डलु पिच्छी पटट शिष्य, शिष्या तथा छात्र आदि, अथवा कर्म, नोकर्म, द्रव्यकर्म, भावकर्म आदि अथवा चेतन अचेतन बहिरङ्ग परिग्रह ये सब देहादिसंग कहलाते हैं । अथवा आगमको भाषासे क्षेत्रं वास्तु-खेत, मकान, धन, धान्य, द्विपद-दासी दास, चतुष्पदगाय भैंस घोड़े आदि पशु, चाँदी, सुवर्ण, वस्त्र तथा वर्तन ये दश बाह्य परिग्रह हैं। मिथ्यात्व-मिथ्यात्व, वेद, हास्यादि ६ नोकषाय, चार कषाय, राग और द्वेष ये चौदह अन्तरङ्ग परिग्रह हैं । जो मुनि पूर्वोक्त दोनों श्लोकों में कहे गये चौबीस प्रकार के परिप्रहसे दूर रहता है उसे देहादि संग-रहित बतलाया गया है। इसके सिवाय जो For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.५७ ] भावप्राभृतम् ३८३ ( माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो) मानकषायैः सकलपरित्यक्तः मनोवचनकार्यं रहितः । ( अप्पा अप्पम्मि रओ) आत्मा आत्मनि रतः । य एवं विघः ( स भावलिंगी हवे साहू ) स साघुर्भावलिंगी भवेत् । ममत्त परिवज्जामि निम्ममत्तिभुवट्टिदो । आलंबणं च मे आदा अवसेसाई वोसरे ॥ ५७ ॥ ममत्वं परिवर्णामि निर्ममत्वमुपस्थितः । आलम्बनं च मे आत्मा अवशेषाणि व्युत्सृजामि ॥ ५७ ॥ ( ममत परिवज्जामि ) ममत्वं ममतां ममेदमहमस्येति भावं परिवर्जामि परिहरामि । ( निम्ममत्तमुवट्ठिदो ) निर्ममत्वमिति भावमुपस्थित आश्रितः । ( आलंबणं च में आदा ) यद्येवं ममत्वं परिहरसि निषेधं करोषि तहि कं विधि श्रयसि “एकस्य निषेधोsपरस्य विधिः" इति वचनात् द्वयमत्रति पृष्टे उत्तरं ददाति आलम्बनं चाश्रयो मे मम आदा आत्मा निजशुद्धबुद्ध कजीवपदार्थं इति विधिः । सब प्रकारके मान कषायों से मुक्त हो तथा जिसकी आत्मा आत्मा में ही लीन रही है, वह साघु भावलिङ्गी कहा जाता है । [ यहाँ अन्य परिग्रहोंके त्यागके साथ शरीर के त्यागका भी उल्लेख किया है सो शरीर वस्त्र आदि के समान सर्वथा भिन्न परिग्रह तो है नहीं तब इसका त्याग किस प्रकार हो सकता है । इस प्रश्नका उठना स्वाभाविक है परन्तु उसका उत्तर यह है कि शरीरसे ममता भावका छोड़नाही शरीर रूप परिग्रहको त्यागना है । ] गावार्थ - में निर्ममभाव को प्राप्त होकर ममता भावको छोड़ता हूँ । अब चूंकि मेरा आलम्बन मेरो ही आत्मा है अतः अन्य समस्त भावोंको छोड़ता हूँ ॥ ५७ ॥ विशेषार्थ - 'यह मेरा है और मैं इसका हूँ' इस प्रकार के भावको ममत्व कहते हैं। मैं इस ममत्व भावको छोड़ता हूँ और निर्ममत्व भावको प्राप्त होता हूँ । यदि इस प्रकार ममत्व भावको छोड़ते हो अर्थात् इसका निषेध करते हो तो फिर किस विधिका आश्रय लेते हो क्योंकि 'एक का निवेष होता है और दूसरे को विधि होती है, ऐसा आगम का वचन है ? अतः यहाँ विधि और निषेध दोनों का समन्वय क्या है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य महाराज उत्तर देते हैं कि मेरा आलम्बन मेरा शुद्ध बुद्ध स्वभाव वाला आत्मा है अर्थात् यह विधि हुई और आत्मा से अतिरिक्त For Personal & Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५.५८ षट्नाभृते ( अवसेसाई वोसरे ) अवशेषाणि आत्मन उद्धरितानि रागद्वेषमोहादीनि व्युत्सृजाभि परिहरामि। आदा खु मज्म णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य । आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे॥ ५८ ॥ आत्मा खल मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च । आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे॥ ५८॥ .. (आदा खु मज्झ णाणे ) आत्मा निजचैतन्यस्वरूपो जीवपदार्थः ख स्फुटं मम ज्ञाने ज्ञानकार्य, ज्ञाननिमित्तं ममात्मैव वर्तते नात्यत्किमपि ज्ञानोपकारणादिकं पुस्तकपटिटकादिकमिति भावः । ( आदा मे दंसणे चरित्ते य ) आत्मा मे दर्शने सम्यक्त्वे सम्यग्दर्शनकार्ये नान्यत्किमपि तीर्थयात्राजिनप्रतिष्ठाशास्त्रश्रवणवन्दनस्तवनादिकं इत्यादि सम्यक्त्वोत्पत्तिकारणं । चरित्रे च ममात्मैव-चारित्रकार्ये ममात्मैव वर्तते न तु नानाविकल्परूपं व्रतसमितिगुप्तिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयादिकमास्रवनि रागद्वेष मोह आदिको छोड़ता हूँ, यह निषेध हुआ। परम भेद-विज्ञान के द्वारा यहाँ निज शुद्ध बुद्ध आत्मा को उपादेय तथा रागादि विकार भावों. को हेय बतलाया है ।। ५७ ॥ . ___ गाथार्थ-निश्चय से मेरे ज्ञानमें आत्मा है, सम्यग्दर्शन में आत्मा है, चारित्र में आत्मा है, प्रत्याख्यान में आत्मा है, संवर में आत्मा है और योग-ध्यान में आत्मा है ।। ५८॥ विशेषार्थ-यहां निश्चयनय की अपेक्षा गुण और गुणी का अभेद कथन करते हुए कहा गया है कि ज्ञान गुण में निज चैतन्य स्वरूप मेरा आत्मा ही विद्यमान है । अथवा ज्ञान रूप कार्य की उत्पत्ति में मेरा आत्मा ही निमित्त है, ज्ञानके उपकरणादिक जो पुस्तक तथा पट्टी आदि हैं वे कारण नहीं हैं । दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व में मेरा आत्मा ही विद्यमान है अथवा सम्यक्त्व रूप कार्य की उत्पत्ति में मेरा आत्मा ही कारण है अन्य तीर्थयात्रा, जिन-प्रतिष्ठा, शास्त्र-श्रवण, वन्दना तथा स्तवन आदि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण नहीं हैं। चारित्र में भी मेरा आत्मा ही विद्यमान है अथवा चारित्र रूप कार्य की उत्पत्ति में मेरा आत्मा हो कारण है, अन्य नाना विकल्प रूप व्रत समिति गुप्ति धर्म अनुप्रेक्षा और परीषहजयादिक कारण नहीं हैं । आगामी दोषोंका निराकरण करना प्रत्याख्यान है । इस प्रत्यास्थान में मेरा आत्मा ही विद्यमान है अथवा प्रत्याख्यान की उत्पत्ति में मेरा आत्मा ही कारण है, अन्य गुरु शिष्यादि For Personal & Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ५९] भावप्रामृतम् ३८५ रोषलक्षणभावसंवरनिमित्तं। (मादा पच्चक्माणे ) आगामिदोषनिराकरणलक्षणं प्रत्याख्यानं प्रत्याख्याननिमित्तं ममात्मैव वर्तते । ( आदा मे संवरो जोगे ) आत्मा मे मम संवरे संवरनिमित्तं कर्मासवनिरोधलक्षणसंवरकायें ममात्मैव वर्तते । योगस्य ध्यानस्य कार्य ममात्मैव वर्तते इति भावः । एगो मे सस्सदो अप्पा णाणसणलक्षणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ ५९॥ एको मे शास्वत आत्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः। शेषा में बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥ ५९ ।। ( एगो मे सस्सदो अप्पा) एको मे शाश्वत आत्मा अन्यत्सर्व विनश्वरमित्यर्थः । स आत्मा कथंभूतः ( णाणदंसणलक्खणो) निश्चयेन केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणः, व्यवहारेणाष्टविधज्ञानचतुविधदर्शनचिन्हः, मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि सम्यग्ज्ञानं पंचविधं कुमतिकुश्रुतविभंगलक्षणं मिथ्याज्ञानं त्रिविधं, इत्यष्ट कारण नहीं हैं । आस्रव का निरोध होजाना संवर है। इस संवर में मेरा आत्मा ही विद्यमान है अथवा कर्मानवनिरोध लक्षण संवर रूप कार्य में मेरा आत्मा ही कारण है, अन्य पदार्थ नहीं। योग ध्यान को कहते हैं। योग में मेरा आत्मा ही विद्यमान है अथवा योग-ध्यान रूप कार्य में मेरा आत्मा ही कारण है। [ यहाँ पर टोकाकार ने उपादान कारण को अपेक्षा आत्मा को ज्ञान, दर्शन ही चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर और योग का कारण कहा है क्योंकि आत्मा ही ज्ञानादि रूप परिणमन करता है। बाह्य कारणों का सर्वथा निषेध नहीं समझना चाहिये क्योंकि व्यवहार नयसे उनकी भी उपयोगिता होती है ] ॥५६॥ माथार्य अविनाशी और ज्ञान दर्शन रूप लक्षण से युक्त एक आत्मा ही मेरा है कर्मोके संयोग से होने वाले अन्य सभी भाव मुझ से बाह्य हैं मेरे नहीं हैं ॥ ५९॥ विशेषार्य-निश्चयनय से केवल ज्ञान और केवल दर्शन लक्षण वाला तथा व्यवहारनय से आठ प्रकार के ज्ञान तथा चार प्रकार के दर्शन रूप लक्षण से युक्त एक अविनश्वर आत्मा ही मेरा है, कर्मोदय से मिले हुए पुत्र स्त्री तथा मित्र आदि पदार्थ मेरे नहीं हैं, स्पष्ट ही मुझ से बाह्य भाव हैं। मति,श्रत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पांच सम्यग्ज्ञान तथा कुमति, . २५ For Personal & Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ षट्प्राभृते [५. ६०भेदा ज्ञानस्य । चक्षुर्दर्शनमचक्षुदर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं चेति चतुर्विधं दर्शनं, इति द्वादशभेद उपयोगो जीवस्य व्यवहारभूतं लक्षणं । ( सेसा मे बाहिरा भावाः) शेषा ज्ञानर्शनद्वयाबहिभूताः पुत्रकलत्रमित्रादयः पदार्था वाह्या भावाः पदार्था भवन्ति । ( सव्वे संजोगलक्खणा ) सर्वे संयोगेन कर्मोदयेन मिलिता इत्यर्थः ।। भावेह भावसुद्धं अप्पा सुविसुद्धणिम्मलं चेव। .. लहु चउगइ चइऊणं जइ इच्छह सासयं सुक्खं ॥ ६० ॥ भावयत भावशुद्ध आत्मानं सुविशुद्धनिर्मलं चैव। . लघु चतुर्गतिं त्यक्त्वा यदि इच्छत शाश्वतं सुखम् ।। ६० ।। ( भावेह भावसुद्ध) भावयत यूयं कथं ? यथा भवति भावसुद्ध-भावशुद्धं परिणामस्य निष्कुटिलत्वं मायामिथ्यानिदानशल्यत्रयरहितत्वं यथा भवत्येवं आत्मानमर्हत्सिद्धादिकं च हे भव्याः ! भावयत । 'हजित्था मध्यमस्य' इति सूत्रेण तस्थाने ह। (अप्पा सुविसुद्धनिम्मलं चेव ) आत्मानं सुविशुद्धनिर्मलं चैव । आत्मानं कथंभूतं, सुविशुद्धनिर्मलं सुष्ठु अतिशयेन विशुद्ध कर्ममलकलंकरहितं निर्मल रागद्वेषमोहमलरहितं । (लहु चउगइ चइऊणं ) लघु ,शीघ्र चतुर्गतिं त्यक्त्वा प्रमुच्य । ( जइ इच्छह सासयं सुक्खं ) यदि चेत्, इच्छत यूयं शाश्वतमविनश्वरं सौख्यं परमानन्दलक्षणमिति । कुश्रुत और कुअवधि ये तीन मिथ्याज्ञान इस प्रकार ज्ञान के आठ भेद हैं और चक्षुर्दर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये दर्शन के चार भेद हैं । दोनों मिलाकर उपयोग के बारह भेद होते हैं। यह बारह प्रकार का उपयोग जोवका व्यवहार नयाश्रित लक्षण है ।।५९॥ । ___ गाथार्थ हे मुनिवर ! यदि तुम चारों गतियों को छोड़कर अविनाशी सुखकी इच्छा करते हो तो शुद्ध भाव-पूर्वक अत्यन्त विशुद्ध और निर्मल आत्मा का ध्यान करो ॥ ६ ॥ विशेषार्थ-हे भव्य ! यदि तू लघु अर्थात् शीघ्र ही चतुर्गति से छूट कर शाश्वत अविनश्वर सुख की इच्छा करता है तो भावोंको शुद्ध बनाकर माया मिथ्या और निदान इन तीनों शल्यों से मुक्त होकर आत्मा का अथवा अर्हन्त सिद्ध आदिका चिन्तन करो। यह अत्यन्त विशुद्ध अर्थात् कर्म मल कलङ्क से रहित तथा रागद्वेष और मोह रूपी मलसे रहित है । 'भावेह' यहाँ पर 'हजित्सा मध्यमस्य, इस सूत्रसे त के स्थानमें 'ह' होगया है ॥ ६ ॥ For Personal & Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८७ -५.६१-६२] भावप्राभृतम् जो जीवो भावतो जीवसहावं सुभावसंजुत्तो। सो जरमरणविणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं ॥६१॥ यो जीवो भावयन् जीवस्वभावं सुभावसंयुक्तः । स जरामरणविनाशं करोति स्फुट लभते निर्वाणम् ।।६१॥ ( जो जीवो भावंतो ) यो जीव आसन्नभव्यः भावंतो-भावयन् भवति । कं भावयन् भवति ( जीवसहावं ) जीवस्वभावमात्मस्वरूपं अनन्तज्ञानानन्तदर्शनानन्तवीर्यानन्तसुखस्वरूपं केवलं केवलज्ञानमयं वा आत्मानं । कथंभूतः सन् । (सुभावसंजुत्तो) शोभनपरिणामसंयुक्तो रागद्वेषमोहादिविभावपरिणामरहितः । ( सो जरमरणविणासं स कुणइ फुडं ) जीवोऽन्तरात्मा भेदज्ञानबलेन जरामरणविनाशं करोति पुनर्जराजीर्णो न भवति न च कथं ? म्रियते फुड-स्फुटं निश्चयेन तीर्थकरो भवति । ( लहइ णिव्वाणं ) लभते किं निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षं अनन्तसुखं प्राप्नोतीत्यर्थः । जीवो जिणपण्णत्तो णाणसहाओ य चेयणासहिओ। सो जोवो णायव्यो कम्मक्खयकारणणिमित्तो ॥६२॥ - जीवो जिनप्रज्ञप्तः ज्ञानस्वभावश्चेतनासहितः। स जीवो. ज्ञातव्यः कर्मक्षयकारणनिमित्ते ॥ ६२ ॥ गाथार्थ-जो जीव उत्तम भावों से युक्त होकर आत्मस्वभाव का चिन्तन करता है वह जरा और मरणका नाश करता है तथा स्पष्ट ही निर्वाणको प्राप्त होता है ।। ६१ ॥ : विशेषार्थ-जो प्राणी सुभाव-उत्तम परिणामों से युक्त तथा रागद्वेष मोह आदि विभाव परिणामों से रहित होता हुआ जीवस्वभावका अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीयं और अनन्त सुख स्वरूप अथवा मात्र केवल ज्ञानमय आत्मा का ध्यान करता है वह अन्तरात्मा भेदज्ञान के बल से जरा और मरण का नाश करता है अर्थात् फिर न जरा से जीर्ण होता है और न मरता है किन्तु निश्चय से तीर्थकर होता है और सर्व कर्म क्षय रूप लक्षण से युक्त एवं अनन्तसुख-सम्पन्न मोक्ष को प्राप्त होता है ।। ६१ ॥ ".. गाथार्थ-जिनेन्द्र भगवान् ने ज्ञान स्वभाव वाले एवं चेतना से सहित "जीवका निरूपण किया है कोका क्षय करनेके लिये वह जीव अवश्य हो जानने योग्य है ।। ६२ ।। . . For Personal & Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ षट्प्रामृते [५. ६२(जीवो जिणपण्णतो ) जीव वात्मा जिनप्रज्ञप्तः श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागेण प्रणीतः कथितः । जीवो नास्तीति ये चुवाक्कुशिष्या वदन्ति तन्मतमनेन पदेन निरस्तं भवतीति ज्ञातव्यं । तथा चोक्तं तदहंजस्तनेहातो रक्षोदृष्टेभवस्मृतेः । भूतानन्वयनाज्जीवः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥ १॥ . कथंभूतः प्रणीतः, ( णाणसहाओ य ) ज्ञानस्वभावो ज्ञानस्वरूपः । तथा • चोक्तं विभावसोरिवोष्णत्वं चरेण्योरिव चापलं । शशाङ्कस्येव शीतत्वं स्वरूपं ज्ञानमात्मनः ॥ १॥ विशेषार्थ-श्रीमान्-भगवान्-अर्हन्त-सर्वज्ञ वीतराग देव ने जोव. पदार्थ का निरूपण किया है इसलिये 'जीव नहीं हैं' ऐसा जो चार्वाक कहते हैं इस पदसे उनके इस मत का निराकरण हो जाता है । ऐसा ही कहा है___तवर्हज-यह ज्ञान स्वभाव जीव सनातन है-अनादि-सिद्ध है। पृथिवी जल अग्नि और वायु इस भूत चतुष्टय से. नवीन उत्पन्न नहीं हुआ है क्योंकि उसी दिन उत्पन्न हुए बालक की स्तन पोने की चेष्टा देखी जाती है यदि जीवको पूर्व भवका संस्कार न होता तो वह एक दिन की अवस्था में ही माता का स्तन न पीता। इसके सिवाय प्रेत पूर्व भव की वार्ता सुनाते देखे जाते हैं और किन्हीं को अपने पूर्व भवोंका स्मरण भी होता देखा जाता है इससे भी सिद्ध होता है कि इस जीव का पूर्वभवों से सम्बन्ध रहता है, सर्वथा नवीन ही उत्पन्न नहीं होता है। जो जिससे उत्पन्न होता है उसका अन्वय-सम्बन्ध उसके साथ अवश्य रहता है परन्तु भूत-चतुष्टय का जीवके साथ कुछ भी अन्वय नहीं देखा जाता, इससे सिद्ध होता है कि जीवकी उत्पत्ति भूतचतुष्टय से नहीं होती। प्रश्न-यह जीव कसा है ? उत्तर-यह जीव ज्ञान स्वभाव वाला है, ऐसा ही कहा हैविभावसो-जिस प्रकार अग्निका स्वरूप उष्णता है, वायुका स्वरूप चपलता है, और चन्द्रमा का स्वरूप शीतलता है उसी प्रकार आत्मा का १. यशस्तिलके सोमदेवस्य । २. प्रमेयरलमालम्यां जीव; इत्यास्य स्थाने सिद्धः पाठः । ३. वरेण्यो म । For Personal & Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ६२] भावप्रामृतम् ३८९ इत्यनेन ये सांख्याः कापिलाः सत्कार्यापरनामानो मिथ्यादृष्टयो वदन्ति जीवः खलु मुक्तः न् बाह्यग्राह्यरहितो भवति" तन्मतं निराकृतं भवतीति वेदितव्यं । तथा चोक्तं कपिलो यदि वाञ्छति वित्तिमचिति सुरगुरुगीगु फेष्वेव पतति । चैतन्यं बाह्यग्राह्यरहितमुपयोगि कस्य वद तत्र विदित ॥१॥ (चेयणासहिओ ) चेतनासहितः प्रतिपद्विराजमान इत्यनेन लोकायतमतं निरस्तमिति ज्ञातव्यं । एवं गुणविशिष्टेन जीवेन किं कार्य भवतीति पर्यनुयोगे सतीदं प्राहुः-( सो जीवो णायव्यो ) स जीवः स आत्मा ज्ञातव्यः । (कम्मक्खयकारणणिमित्ते ) कर्मक्षयकारणनिमित्ते कर्मणां ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुनर्नामगोत्रान्तरायाणां समूलकाषं कषणे जीवपदार्थ एव समर्थ इति ज्ञातव्यं । अनन्तसौख्यदानहेतुरात्मेति भावः । स्वरूप ज्ञान है। इस कथन से सत्कार्य इस दूसरे नामको धारण करने वाले मिथ्यादृष्टि सांख्य जो यह कहते हैं कि 'जीव मुक्त होता हुआ बाह्य पदार्थों के ग्रहण से रहित हो जाता है उसका खण्डन हो जाता है। जैसा कि कहा है कपिलो-यदि सांख्य अचेतन प्रकृति में ही ज्ञानको चाहता है अर्थात् ज्ञान पुरुष का धर्म न होकर अचेतन प्रकृति का धर्म है, ऐसा मानता है तो वह चार्वाक के वचन जाल में ही आ पड़ता है अर्थात् जिस प्रकार चार्वाक ज्ञानको अचेतन भूत-चतुष्टय का धर्म मानते हैं उसी प्रकार सांख्य भी ज्ञानको अचेतन प्रकृतिका कार्य मानते हैं, इस तरह सांख्य और चार्वाकोंका कहना एक सदृश होता है। सांख्य चैतन्य को बाह्य ग्राह्य से रहित मानते हैं अर्थात् उसे ज्ञेयाकार परिच्छेद से पराङ मुख स्वीकार करते हैं सो ऐसा चैतन्य किसके लिये उपयोगो है तुम्ही कहो ? प्रश्न-पूनः जीव कैसा है ? - उत्तर-चेतना से सहित है, अर्थात् ज्ञान से शोभायमान है। इस कथन से चार्वाकों के मतका निराकरण होता है। इस प्रकार के गणोंसे विशिष्ट जीवके द्वारा क्या कार्य होता है ? ऐसा प्रश्न उपस्थित होनेपर कहते हैं-वह जीव ज्ञातव्य है-जानने के योग्य है। किस लिये ? कर्मक्षय के लिये। क्योंकि ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम गोत्र और अन्तराय इन आठ कर्मोंका समूल क्षय करने में जीव पदार्थ ही समर्थ है । तात्पर्य यह है कि आत्मा अनन्त सुखको देनेवाला है। For Personal & Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० षट्प्राभृते [ ५.६३ जॉस जीव सहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ । ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमतीदा ॥ ६३॥ येषां जीवस्वभावो नास्ति अभावश्च सर्वथा तत्र । ते भवन्ति भिन्नदेहाः सिद्धा वचोगोचरातीताः ||६२ ॥ ॐ ( जेस जीवसहावो ) येषामासन्नभव्यानां जीवस्वभाव आत्मस्वभाव आत्मनोऽस्तित्वमस्ति ( णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ ) नास्त्यभावश्च सर्वथा तंत्र | तत्रात्मनि अभावश्च नास्ति " अस्त्यात्मानादिबद्धः" इति वचनात् । ( ते होंति भिण्णदेहा ) ते पुरुषा भवन्ति भिन्नदेहाः शरीर रहिता: ( सिद्धा वचिगोयरमतीदा ) ते पुरुषाः किं भवन्ति सिद्धाः सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिविद्यते येषां ते सिद्धाः प्रज्ञादित्वादस्त्यर्थे ऽण्प्रत्ययः । कथं भूताः सिद्धाः वचोगोचरातीता वाचां 9 गाथार्थ - जिनके जीवका सद्भाव है, उसका सर्वथा अभाव नहीं हैं, वे ही शरीर से रहित तथा वचन के विषय से अतीत सिद्ध होते हैं ||६३ || विशेषार्थ - जिन निकट भव्य जीवों के आत्मा का अस्तित्व है अर्थात् जो आत्मा का सद्भाव स्वीकार करते हैं तथा उसका सर्वथा अभाव नहीं मानते वे ही शरीर को नष्ट कर अशरीर अवस्थाको प्राप्त होते हैं, सिद्ध कहलाते हैं तथा उनकी महिमा वचनके अगोचर होती है । 'अस्त्यात्मानादि-बद्धः' आदि वचनों से आत्मा का अस्तित्व आगम से सिद्ध है । "सिद्धिः स्वात्मोपलब्धि:' आदि वचनसे सिद्धिका अर्थ स्वात्मस्वरूपकी प्राप्ति है। वह सिद्धि जिनके है वे सिद्ध कहलाते हैं । सिद्धि शब्दसे अस्ति अर्थ में प्रज्ञादिगणी होनेसे अण् प्रत्यय होकर सिद्ध शब्द निष्पन्न होता है [ अथवा सिघु, धातु से क्त प्रत्यय होनेपर सिद्ध शब्द निष्पन्न होता है । ] सिद्ध भगवान् वचनोंके गोचर नहीं हैं अर्थात् उनकी १. नाभावः सिद्धिरिष्टा न निजगुणहतिस्तत्तपोभिनं युक्ते, - रस्त्यात्मानादिबद्धः स्वकृतज—फलभुक् तत्क्षयान्मोक्षभागी । ज्ञाता दृष्टा स्वदेह प्रमितिरुपसमाहारविस्तारधर्मा । प्रोव्योत्पत्तिव्ययात्मा स्वगुणयुत - इतो नान्यथा साध्यसिद्धिः सि० भ० । अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विर्वाजितः स्पर्शगन्धरवर्णैः। गुण-समवेतः समाहितः समुदयव्यधीव्यैः ॥ पु० सि० । २. सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः प्रगुणगुणगणोच्छादिदोषापहारात् । योग्योपादानयुक्त्या वृषद इह यथा हेमभावोपलब्धिः ॥ सि० भ० । For Personal & Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ६४] भावप्राभृतम् ३९१ गोचरत्वे गम्यत्वेऽतीता अगम्या वक्तुं न शक्यन्ते-तत्सदृशानां केवलज्ञानिनां गम्या इत्यर्थः । 'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेयणागुणसमदं । जाणमलिंगग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंठाणं ॥६॥ अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणसमान्र । जानीहि अलिङ्गग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानं ॥६४।। ( अरसं ) मधुरामलकटुतिक्तकषायपंचरसरहितं हे जीव ! त्वं जीवं जानीहि । ( अरूवं) श्वेतपीतहरितारुणकृष्णलक्षणपंचरूपरहितं जीवमात्मानं जानीहोति दीपकं सम्बन्धनीयं (अगंधं ) सुरभिदुरभिलक्षणगन्धद्वयजितं जीवपदार्थ जानीहि । ( अन्वत्तं) अव्यक्तं इन्द्रियानिन्द्रियाणामगोचरत्वादस्फुटं, केवलज्ञानिनां व्यक्तं स्फुटं जीवतत्वं हे जीव ! भेदज्ञानसमृद्धान्तरात्मन् ! जानीहि । निषेधं कृत्वा विधि दर्शयन्ति-( चेयणागुणसमदं ) चेतनागुणेन ज्ञप्तिमात्रेण सम्यकप्रकारेणाद्र परिणतं । समिद्धमिति पाठे चेतनागुणेन ज्ञानगुणेन समृद्धमिति व्याख्येयं । ( जाणमलिगग्गहणं ) जाण जानीहि त्वं हे जीव ! अलिंगग्रहणं स्त्रीपुनपुंसकलिंगत्रयस्य महिमा वचनों से नहीं कही जा सकती किन्तु उन्हीं के समान केवल ज्ञानियों के द्वारा जानी जा सकती है ॥६३॥ ___ गाथार्थ हे आत्मन् ! तू जीवको रस रहित, रूप रहित, गन्ध · रहित, अव्यक्त, चेतना गुणसे युक्त, स्त्री पुरुषादि लिङ्गसे रहित और संस्थान से शून्य जान ॥६४॥ विशेषार्थ-किसी भी पदार्थ का स्वरूप वर्णन करने के लिये दो पद्धतियाँ अपनाई जाती हैं एक स्वरूप के उपादान की और दूसरी पररूप के अपोहन-निराकरण की। यहां स्वरूप के उपादान की पद्धति को दष्टि में रखकर जीवका लक्षण कहा गया है-चेतना गुण समा अर्थात् जो चेतना गुण से सम्यक् प्रकार आर्द्र है-तद्रूप परिणत है अथवा जो चेतना गुण से समृद्ध है-सम्पन्न है, वह जीव है। और पररूप-अपोहन की पद्धति के अनुसार कहा गया है जो अरस-रसादि से रहित हो, वह जीव है। अरस आदि विशेषणोंका भाव इस प्रकार है । मधुर, खट्टा, कडुआ, चिरपरा और कषायला ये रस के पांच भेद हैं तथा पुद्गल के परिणमन हैं, अतः जीव इससे रहित है, सफेद, पीला, हरा, लाल और काला ये १. समयसारे नियमसारे पाली मावा दस्यते । For Personal & Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ षट्प्राभृते [५. ६५ग्रहण स्वोकारस्तेन रहितं जीवमात्मानं विदांकुरु। व्यवहारनयेन यद्यपीयं स्त्री अयं पुमान् इदं नपुंसकमिति भण्यते तथापि निश्चयनयेनात्मा शुद्धबुद्ध कस्वभावों न लिंगत्रयवानिति । ( जीवमणिहिट्ठसंठाणं ) जीवमात्मानं, अनिदिष्टसंस्थानं न निर्दिष्टानि जिनागमे प्रतिपादितानि संस्थानानि षडाकृतयो यस्येति अनिर्दिष्टसंस्थानस्तं जानीहि । अथ कानि तानि संस्थानानि यात्यात्मनो निश्चयनयेन नैव वर्तन्ते इति चेत् ? तन्नामनिर्देशः क्रियते-समचतुरस्रसंस्थानं (१) न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानं (२) स्वात्यपरनाम-वाल्मिकसंस्थानं (३) कुब्जकसंस्थानं (४) वामनसंस्थानं (५) हुंडकसंस्थानं चेति । (६) नामानुसारेण शरीराकारो ज्ञातव्यं इति तात्पर्य । भावहि पंचपयारं गाणं अण्णाणणासणं सिग्छ । भावणभावियसहिओ दिवसिवसुहभायणो होइ ॥६५॥ पाँच रूप के भेद हैं तथा पुद्गल के परिणमन हैं अतः जीव इनसे रहित है। सुगन्ध और दुर्गन्ध के भेदसे गन्ध दो प्रकार का है तथा दोनों ही पुद्गल के परिणमन हैं अतः जीव इनसे रहित है । जीव अव्यक्त है अर्थात् इन्द्रिय और मनके अगोचर होनेके कारण अव्यक्त है-अस्पष्ट है, यह जीव केवल-ज्ञानियों को स्पष्ट है। लिङ्ग के तीन भेद हैं-स्त्रीलिङ्ग, पुलिङ्ग और नपुसक लिङ्ग । ये तीनों हो लिङ्ग पुद्गल द्रव्य के परिणमन हैं इसलिये जोवका इनके द्वारा ग्रहण नहीं होता है। यद्यपि व्यवहारनय से यह स्त्री है, यह पुरुष है और यह नपुंसक है, ऐसा कहा जाता है तथापि निश्चयनय से आत्मा एक शुद्ध बुद्ध स्वभाव वाला हो है, तीन लिङ्गसे युक्त नहीं है। संस्थान शरीर को आकृति को कहते हैं और वह आकृति स्पष्ट हो पुद्गल द्रव्यका परिणमन है अतः आत्मा उनसे रहित है। जिनागममें प्रतिपादित छह संस्थानोंमें से जीवके एक भी संस्थान नहीं है, अतः जीव अनिर्दिष्ट संस्थान है। प्रश्न-वे संस्थान कौन हैं जो निश्चयनयसे आत्माके नहीं हैं ? उत्तर-(१) समचतुरस्र संस्थान (२) न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान (३) स्वाति अथवा वाल्मिक संस्थान (४) कुब्जक संस्थान (५) वामन संस्थान और (१) हुण्डक संस्थान । इन संस्थानों में इनके नामके अनुसार ही शरीरको आकृति होती है ॥६४॥ गावार्थ-हे जीव ! तू शीघ्र ही अज्ञानको नष्ट करने वाले पाँच For Personal & Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ६६] भावप्रामृतम् ३९३ भावय पञ्चप्रकारं ज्ञानं अज्ञाननाशनं शीघ्रम् । भावनाभावितसहितः दिशिवसुखभाजनं भवति ॥६५॥ (भावहि पंचपयारं ) भावय त्वं हे जीव ! पंचप्रकारं पंचविघं । किं ? (णाणं) सम्यग्ज्ञानं । कथंभूतं ज्ञानं, (अण्णाणणासणं) अज्ञाननाशनं अज्ञानस्याविवेकस्य नाशनं विध्वंसकं । कथं भावय, ( सिग्धं ) शीघ्र लघुत्या। ( भावणभावियसहिओ ) भावना रुचिः तस्या सावितं वासितं तेन सहितः संहितः पुमान् संयुक्तो जीवः। (दिवसिवसुहभायणो होइ ) दिवः स्वर्गस्य, शिवस्य मोक्षस्य, सुखस्य परमानन्दलक्षणस्य, भाजनममत्रं, भवति संजायते पंचज्ञानविस्तरस्तत्वार्थतात्पर्यवृत्तौ प्रथमाध्याये ज्ञातव्यः । मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानमिति नामनिर्देशः। पढिएणवि किं कोरइ किं वा सुणिएण भावरहिएण। भावो कारणभुदो सायारणयारभूदाणं ॥६६॥ पठितेनापि कि क्रियते किं वा श्रुतेन भावरहितेन । भावः कारणभूतः सागारानगारभूतानाम् ॥६६॥ (पढिएण वि किं कीरइ ) पठितेन ज्ञानेन किं क्रियते-किं स्वर्गमोक्षं 'विधीयते-अपि तु न क्रियते इत्यर्थः। अपि शब्दादपठितेनापि अनभ्यस्तेनापि जिह्वाग्रेऽकृतेनापि ज्ञानेन स्वर्गो मोक्षश्च क्रियते इत्यर्थः । (किं वा सुनिएण) प्रकार के ज्ञानको भावना कर। क्योंकि भावनाओं के संस्कार से सहित जोव स्वर्ग और मोक्षके सुखका पात्र होता है ॥६५।। विशेषार्थ-हे जीव ! तू अज्ञान-अविवेक को नष्ट करने वाले मति श्रत अवधि मनःपर्यय और केवल इन पाँच प्रकारके सम्यग्ज्ञानोंकी भावना कर अर्थात् इन्हें सम्यग्दर्शन के संस्कार से सुसज्जित कर क्योंकि भावनाके संस्कारसे सहित जीव स्वर्गके सांसारिक और मोक्षके परमानन्द रूप सुखका पात्र होता है। मतिज्ञान आदि पाँच ज्ञानोंका विस्तार तत्त्वार्थ सूत्रकी तात्पर्य वृत्तिके प्रथमाध्यायसे जानना चाहिये । यहाँ मात्र नामोंका निर्देश किया है ॥६५॥ ... गाथार्थ भाव-रहित शास्त्रों के पढ़ने अथवा सुनने से क्या होता है ? क्योंकि गृहस्थ अथवा मुनि धर्मका कारण भाव ही है ॥६६॥ . विशेषार्थ-भावका अर्थ आत्म-रुचि अर्थात् पर-पदार्थ से भिन्न आत्माकी श्रद्धा होना है यह आत्म श्रद्धा ही जिन सम्यक्त्व का कारण For Personal & Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [५.६७वा अथवा श्रुतेनाकणितेन ज्ञानेन किं ? न किमपि, स्वर्गश्च मोक्षश्च न भवतीत्यर्थः । कथंभूतेन पठितेन श्रुतेन च ( भावरहिएण ) भावरहितेन । ( भावो कारणभूदो ) भाव आत्मरुचिः जिनसम्यक्त्वकारणभूतो हेतुभूतः । ( सायारणयारभूदाणं ) सागारानागारभूतानां श्रावकाणां यतीनां चेति तात्पर्य । दव्वेण सयलणग्गा णारयतिरिया य सयलसंघाया। परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता ॥६॥ द्रव्येण सकलनग्ना नारकतिर्यञ्चश्च सकलसंघाताः । परिणामेन अशुद्धा न भावश्रवणत्वं प्राप्ताः ॥६७|| ( दव्वेण सयलनग्गा) द्रव्येण बाह्यकारणेन सकलाः सर्वे जीवा नग्ना वस्त्रादिरहिताः। के ते, ( नारय ) नारकाः सप्ताधोभूमिस्थितचतुरशीतिशतसहस्रविलसंजातसत्वाः । ( तिरिया य) तिर्यंचश्च पशवो जीवा नग्ना एव भवन्ति । तथा ( सयलसंघाया ) नारकाणां तिरश्चों सर्वे समूहाः । अथवा सकलसंघाताः स्त्रीभिः सह मिलिताः कमनीयकामिनीभिरालिंगिताः सर्वे पुरुषसमूहा अपि द्रव्येण नग्ना निर्वस्त्रादिका भवन्ति । कथंभूतास्ते. (परिणामेण असुद्धा) परिणामेन मनोव्यापारेणाशुद्धा रागद्वेषमोहादिकश्मलिताः। (ण भावसवणत्तणं है। इसके बिना शास्त्रों को पढ़ा भी जाय अथवा सुना भी जाय तो उससे क्या होता है ? अर्थात् स्वर्ग मोक्षकी प्राप्ति उसमें नहीं होती। यथार्थ में गृहस्थ-धर्म अथवा मुनिधर्मका मूल कारण भाव अर्थात् सम्यक्त्व ही है ॥६६॥ __गाथार्थ-द्रव्य अर्थात् शरीररूप वाह्य कारणकी अपेक्षा सभी जीव नग्न हैं। नारको और तिर्यंच तो समुदाय रूपसे नग्न ही रहते हैं परन्तु भावसे अशुद्ध हैं, अतः भाव श्रमणपनेको प्राप्त नहीं होते ॥६७।। विशेषार्थ-मात्र वस्त्रादि बाह्य पदार्थोंके त्याग से ही श्रमण-पना प्राप्त नहीं होता किन्तु उसके साथ भाव-शुद्धिके होने पर ही होता है यह सिद्ध करते हुए आचार्य महाराज निर्देश करते हैं कि मात्र शरीरकी अपेक्षा तो सभी जीव नग्न हैं। पृथिवीके नीचे सात नरकोंके चौरासी लाख विलोंमें रहने वाले नारकी तथा समस्त तिर्यञ्च तो नियम से नग्न ही रहते हैं । और रति आदिके समय पुरुष भी नग्न रहते हैं परन्तु ये सब परिणामोंसे अशुद्ध हैं अर्थात् राग द्वेष मोह आदि विकारोंसे मलिन हैं, मतः नग्न होने पर भी भाव श्रमण को अर्थात् दिगम्बर मुनि अवस्थाको For Personal & Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९५ -५. ६८] भावप्राभृतम् पत्ता) भावभ्रमणत्वं परिणामदिगम्बरत्वं न प्राप्ता, न कर्मक्षयलक्षणमोक्षनिरीक्षा बभूवुरिति पूर्वसम्बन्धः । जग्गो पावइ दुक्खं जग्गो संसारसायरे भमई । गग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवज्जिओ सुइरं ॥६८॥ नग्नः प्राप्नोति दुःखं नग्नः संसारसागरे भ्रमति । नग्नो न लभते बोधिं जिनभावनावजितः सुचिरम् ॥६८।। ( नग्गो पावइ दुक्खं ) नग्नः पुमान् प्राप्नोति लभते, किं ? दुःखं छेदनभेदनशूलारोपणयंत्रपीलनक्रकत्रविदारणभ्राष्टक्षेपणतप्तलोहपुत्तलिकालिंगनवैतरणीनदीविशेषमज्जनकूटशाल्मलिघर्षणासिपत्रवनच्छायानिवेशन शारीरमानसागन्त्वसातं नरकेषु तिर्यक्षु कुमनुष्येषु कुदेवेषु च दुःख प्राप्नातीत्यभिप्रायः श्रीकुन्दकुन्दाचार्याणां (नग्नो संसारसायरे भमइ ) नग्नः संसारसागरे भ्राम्यति मज्जनोन्मज्जनं करोति । (नग्गो न लहइ बोहिं ) नग्नो जीवो वोधि रत्नत्रयप्राप्ति न लभते-अनन्तानन्तसंसारे पर्यटितोऽपि जन्मशतसहस्रकोटिभिरपि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षकारणानि न प्राप्नोतीत्यर्थः । कथंभूतो नग्नः, ( जिणभावणवज्जिओ सुइरं) प्राप्त नहीं होते। कहनेका तात्पर्य यह है कि भाव-शुद्धिके बिना मात्र नग्नता कार्यकारी नहीं है ॥६७॥ गाथार्य-जिनभावना-जिन सम्यक्त्वसे रहित नग्न पुरुष दुःख प्राप्त करता है । जिन-भावना से रहित नग्न पुरुष संसार सागर में भ्रमण करता है और जिन भावनासे रहित नग्न पुरुष चिरकाल तक रत्नत्रयको प्राप्त नहीं होता ॥६॥ विशेषार्थ-जिनभावना का अर्थ सम्यक्त्व है, उससे रहित नग्न पुरुष.नरक, तिर्यञ्च कुमनुष्य और कुदेवों में छेदा जाना, भेदा जाना, शूलीपर चढ़ाया जाना, कोल्हू में पेला जाना, करोंतसे विदारा जाना, भाड़में फेंका जाना, तपे लोहकी पुतलियोंसे लिपटाया जाना वैतरणी नामको विशेष नदीमें डुबाया जाना, विक्रियाकृत सेमरके वृक्षपर घसीटा जाना, असिपत्र वनकी छायामें बैठाया जाना, शारीरिक मानसिक तथा आगन्तुक आदि अनेक दुःखोंको प्राप्त होता है । जिनसम्यक्त्व से रहित नग्न मनुष्य संसार सागर में भ्रमण करता है अर्थात् मज्जन और उन्मज्जन करता है तथा जिन-सम्यक्त्व से रहित नग्न मनुष्य चिरकाल तक रत्नत्रयको प्राप्त नहीं होता है अर्थात् अनन्तानन्त संसारमें घूमता For Personal & Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ षट्प्राभूते [ ५.६९ 'जिनस्य श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागस्य सम्बन्धिनी या भावना सम्यक्त्वं तया - वज्जिओ-वर्जितः । कथं, सुइरं सुचिरमतिदीर्घकालं तथा चोक्तं "कालु अणाइ अाइ जिउ भवसायरु वि अणंतु । जीवें वेण्णि न पत्ताइं जिणु सामिउसमत्तु ॥ १ ॥ इति व्याख्यानं ज्ञात्वा सम्यग्दर्शनेन दृढभावना कर्तव्येति भावार्थः । असाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिंणेण । पेसुष्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण ॥ ६९ ॥ अयशसां भाजनेन च कि ते नाग्न्येन पापमलिनेन । पैशुन्यहास्यमत्सर माया वहुलेन स्रवणेन ॥ ६९ ।। ( अयसाण भायणेण य ) अयशसामपकीर्तीनां भाजनेनामत्रेणाधारपात्रेण । ( कि ते णग्गेण पावमलिणेण ) हे जीव ! ते तव नाग्न्येन नग्नत्वेन किन किमपि, हुआ लाखों करोड़ों जन्ममें भी मोक्षके कारणभूत सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको नहीं प्राप्त होते हैं । जैसा कि कहा गया है कालु अणाइ - काल अनादि है, जीव अनादि है और भवसागर अनन्त है। इसमें भ्रमण करते हुए जीव ने आजतक दो वस्तुएं प्राप्त नहीं कीं, एक तो जिनदेव और दूसरी सम्यक्त्व | इस प्रकार व्याख्यान को जानकर सम्यग्दर्शन द्वारा भावनाको दृढ़ करना चाहिये ||६८ || गाथार्थ - हे जोव ! तुझे उस नग्न वेषसे क्या मिलने वाला है जो अपयशका पात्र है, पापसे मलिन है, चुगली, हास्य, मात्सर्य और मायासे परिपूर्ण है तथा स्रवण-धर्मके नाना स्रोतोंसे द्रव्यका उपार्जन करने वाला है अथवा सवन - वनवास से सहित है ॥ ६९ ॥ विशेषार्थ - जो नग्न दिगम्बर मुद्राके धारक होकर भी आगम-विरुद्ध कार्यं करते हैं उन्हें संबोधते हुए आचार्य कहते हैं कि जीव ! तूने यद्यपि नाग्न्य वेष धारण किया है तथापि तू यन्त्र मन्त्र तन्त्र, जादू, ज्योतिष, वैद्यक आदि लौकिक कार्यों में उलझ कर उस नग्न वेषको अपयशका पात्र बना रहा है सो उससे तुझे क्या मिलने वाला है ? जिस स्वर्गं या मोक्षके उद्देश्य से तूने यह पवित्र वेष धारण किया था उसकी पूर्ति तेरे इस वेष १. सावयधम्म दोहा । २. सम्यग्दर्शने दृढभावना म० । For Personal & Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ६९ ] भावप्रामृतम् ३९७ स्वर्गमोक्षकायरहितेन वृथेत्यभिप्रायः । कथंभूतेन नाग्न्येन पापमलिनेन पापवन्मलिनेन कश्मलिना । अथवा पापेति पृथक्पदं तेनायमर्थः रे पाप ! पापमूर्ते दिगम्बरवेषाजीवक ! मलिनेन अतिचारानाचारातिक्रमव्यतिक्रमसहितेन नाग्न्येन कि ? न किमपि । तथा चोक्तं समासोक्तिना गुणभद्रेण भगवता - 'हे चन्द्रमः ! किमिति लाञ्छनवानभूस्त्वं, तद्वान् भवेः किमिति तन्मय एव नाभूः । कि ज्योत्स्नया मलमलं तव घोषयन्त्या स्वर्भानुवन्ननु तथा सति नासि लक्ष्यः ॥ १ ॥ कथंभूतेन तव नाग्न्येन, (पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण ) पैशून्य -- हास्यमत्सरमायाबहुलेन । पैशून्यं परदोषग्रहणं । उक्तं च से नहीं हो सकती है । तेरा यह नाग्न्य वेष पाप मलिन है अर्थात् पापके समान मलिन है अथवा पाप यह स्वतन्त्र सम्बोधन पद है इसलिये ऐसा भो अर्थ हो सकता है कि अरे पांप ! अरे पाप-मूर्ति ! तेरा यह नाग्न्यपद अतिचार अनाचार अतिक्रम और व्यतिक्रमसे सहित होनेके कारण मलिन है । इससे तुझे क्या प्राप्त होगा ? अर्थात् कुछ भी नहीं । जैसा कि समासोक्ति अन्योक्तिके द्वारा गुणभद्राचार्य ने कहा है हे चन्द्रमः—हे चन्द्र ! तू लाञ्छन- कलङ्क से युक्त क्यों हुआ ? यदि तुझे कलङ्क से युक्त ही होना था तो सर्वथा कलङ्कसे तन्मय क्यों नहीं हो गया ? तेरी उस मलिनता को अत्यन्त प्रगट करने वाली चांदनी से तुझे क्या लाभ है ? यदि तू सर्वथा कलङ्क से तन्मय हुआ होता तो वैसी. अवस्था में राहुके समान दृष्टिगोचर नहीं होता जिस प्रकार उज्ज्वल चन्द्रमा में छोटासा कलङ्क स्पष्ट दिखलाई देता है, उसी प्रकार मुनिपदमें थोडासा दोष भी स्पष्ट दिखाई देता है अतः मुनिपद धारण कर सदा निर्दोष प्रवृत्ति ही करना चाहिये । । जीव ! तेरा यह नाग्न्य पद पैशुन्य, हास्य, मात्सर्य और मायासे परिपूर्ण है पेशुन्यका अर्थ पर दोष-ग्रहण है। दूसरेके दोषों की ओर दृष्टि रखना बहुत बुरा है और दूसरे के दोषोंको न कहना उत्तम बात है । कहा भी है १. आत्मानुशासने । For Personal & Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ [५. ६९ षट्नाभृते मा भवतु तस्य पापं परहितनिरतस्य पुरुषसिंहस्य । यस्य परदोषकथने जिह्वा मौनव्रतं चरति ॥१॥ . हास्यं च वर्करः । मत्सरश्च परेषां शुभद्वेषः । उक्तं च उद्युक्तस्त्वं तपस्विन्नधिकमभिभवं त्वय्यगच्छन् कषायाः प्राभद्वोधोऽप्यगाधो जलमिव जलधौ किं तु दुर्लक्ष्यमन्यः । निव्यूढेपि प्रवाहे सलिलमिव मनाग्निम्नदेशेष्ववश्यं . मात्सर्य ते स्वतुल्ये भवति परवशादुर्जयं तज्जं हीहि ॥ १ ॥ माया च परवंचना । उक्तं च यशो मारीचीयं कनकमृगमायामलिनितं हतोऽश्वत्थामोक्त्या प्रणयिलधुरासीद्यमसुतः । स कृष्णः कृष्णोऽभूत्कपटबटुवेषेण नितरा. मपि च्छद्माल्पं तद्विषमिव हि दुग्धस्य महतः ॥१॥ मा भवतु-पर-हितमें तत्पर रहने वाले उस श्रेष्ठ पुरुषका कभी भी अहित न हो, जिसकी कि जिह्वा दूसरे के दोष कहने में मौनव्रत धारण करती है। अपना बड़प्पन बतानेके लिये दूसरोंकी हँसी उड़ाना हास्य कहलाता है । दूसरोंके शुभ कार्योसे द्वेष रखना मत्सर कहा जाता है। यह मत्सर भाव प्रायः बड़े-बड़े लोगों में भी पाया जाता है। कहा है__ उद्युक्तस्त्वं - हे तपस्विन् ! यद्यपि तू अधिक सावधान है, कषायें भी तुझमें पराभव को प्राप्त हैं अर्थात् तूने कषायों को प्रभाव-हीन किया है, और समुद्र में जलके समान अगाध ज्ञान भी तुझ में प्रकट हुआ है तथापि जिस प्रकार प्रवाह के निकल जाने पर कितने हो नीचे स्थानों में पानी भरा रह जाता है और वह दूसरों की दृष्टि में नहीं आता उसी प्रकार कषाय आदि रूप प्रवाह के निकल जाने पर भी जो दूसरों की दृष्टि में नहीं आता, ऐसा अपनी समानता रखने वाले जीवों में तेरा मात्सर्य भाव शेष रह गया है, भले हो वह दूसरों के वशसे हुआ है और दुर्जय है तो भी तू उसे अवश्य छोड़। माया का अर्थ दूसरे को ठगना है। कहा भी है यशो मारीचीयं-मारीच का यश सुवर्ण मृग की माया से मलिन हो . १. आत्मानुशासने । २. तपस्यधिक मुद्रितात्मानुशासने । ३. मुद्रितात्मानुशासने 'वामगच्छन' इति पाठः। For Personal & Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ७०] भावप्रामृतम् ३९९ पैशून्यहास्यमत्सरमायाबहुलं तेन तथोक्तेन । पुनः कथंभूतेन । नान्येन, स्रवणेन निरन्तरसम्बन्धिना नानाधर्ममिषोपार्जितद्रव्येण अथवा सवनेन वनवाससहितेन । तथा चोक्तं वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तपः । अकुत्सिते वर्त्मनि यः प्रवर्तते विमुक्तरागस्य गृहं तपोवनं ॥१॥ पयहि जिणवरलिंगं अभितरभावदोसपरिसुद्धो। भावमलेण य जीवो वाहिरसंगम्मि मयलियई ॥७०॥ प्रकटय जिनवरलिङ्ग अभ्यन्तरभावदोषपरिशुद्धः । भावमलेन च जोवो बाह्यसङ्गे मलिनः ।। ७० ॥ गया। 'अश्वत्थामा' मारा गया यह कहने से युधिष्ठिर स्नेही जनों में लघुता को प्राप्त हुए और कृष्ण कपट पूर्ण बालकका वेष रखनेसे अत्यन्त मलिन हुए। सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार थोड़ा सा विष बहुत भारी दुग्ध को दूषित कर देता है, उसी प्रकार थोड़ा सा छल भी बड़े-बड़े पुरुषों को दूषित कर देता है। मारोच, युधिष्ठिर और कृष्ण के वामनावतार की कथाएँ लोक में प्रसिद्ध हैं। हे जीव ! तेरा यह नाग्न्य पद पैशुन्य, हास्य, मात्सर्व और माया से बहुल है-परिपूर्ण है । साथ ही स्रवण है अर्थात् नाना धर्मोके बहते द्रव्यको उपार्जित करने वाला है। अथवा सवणेण की संस्कृत छाया सवनेन मानकर वनवाससे सहित है, यह एक अर्थ भी किया जा सकता है अर्थात् तेरा यह नाग्न्य पद वनवास से सहित है परन्तु अन्तरङ्ग का विकार नष्ट हुए बिना मात्र वनवास कुछ कार्यकारी नहीं है । जैसा कि कहा है बनेपि-रागी मनुष्यों के वनमें भी दोष उत्पन्न होते हैं और रागरहित मनुष्यों के घर में भी पञ्चेन्द्रियों का निग्रह रूप तपश्चरण होता है। जो मनुष्य निर्दोष मार्ग में प्रवृत्ति करता है उस वीतराग के लिये घर हो तपोवन है। .. - [यहाँ अन्तरङ्ग की परमार्थता से रहित मात्र नग्न-वेष को निन्दा की गई है । निर्दोष आचरण करने वाले मुनिका नग्न वेष तो मोक्ष-मार्ग का अपरिहार्य अङ्ग है, अतः उसकी निन्दा किसी भी तरह नहीं की जा सकतो।] - गाथार्थ हे जीव ! अन्तर्वर्ती भाव दोष से रहित होता हुआ तू जिनलिङ्ग-निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुद्राको धारण कर क्योंकि अन्तरङ्ग के दोष से यह जीव बाह्य पदार्थों के संपर्क में पड़कर मलिन हो जाता है ॥७०॥ For Personal & Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० पंट्प्रामृते [५.७०( पयहिं जिणवरलिगं ) हे जीव! हे आत्मन् ! प्रकटय जिनवरलिंगं पूर्व जिनवरलिंग त्वं घर नग्नो भव ! पश्चात्कथंभूतो भव, ( अभितरभावदोसपरिसुद्धो ) अभ्यंतरभावेन जिनसम्यक्त्वपरिणामेन कृत्वा दोषपरिशुद्धो दोषरहितो भव । इदमत्र तात्पर्य द्रव्यलिंगं विना भावलिंगी सन्नपि मोक्षं न लभत इत्यर्थः शिवकुमारो भावलिंगी भूत्वापि स्वर्ग गतो न तु मोक्षं, जम्बूस्वामिभवे द्रव्यलिंगी अतिकष्टेन संजातस्तस्मिश्च सति भावलिंगेन मोक्ष प्राप ! ( भावमलेण य जीवो) भावमलेनापरिशुद्धपरिणामेन जिनसम्यक्त्वरहिततया। ( बाहिरसंगम्मि मयलियइ) बालसंगे सति मइलियइ-मलिनो भवति सम्यक्त्वं विना निर्ग्रन्थोऽपि सग्रन्थो भवतीति भावार्थः । स्याद्भावेन मोक्षो द्रव्यलिंगीपेक्षत्वात्, स्याद्व्यलिगेन मोक्षो भावलिंगापेक्षत्वात्, स्यादुभयं क्रमापितोभयत्वात्, स्यादवाच्यं युगपद्वक्तुमशक्य विशेषार्थ-संस्कृत टीका-कार इस गाथाका भाव निम्न प्रकार प्रकट करते हैं । हे आत्मन् ! तू पहले जिनलिङ्ग को धारण कर अर्थात् पहले नग्न हो पीछे अभ्यन्तर भाव अर्थात् जिन सम्यक्त्वके परिणाम से दोष रहित हो। यहाँ तात्पर्य यह है कि द्रव्यलिङ्ग के बिना भावलिङ्गी होने पर भी अर्थात् सम्यग्दृष्टि होनेपर भी यह जीव मोक्षको नहीं प्राप्त कर सकता है । क्योंकि शिवकुमार मुनि भावलिङ्गी अर्थात् सम्यग्दृष्टि होकर भी स्वर्ग गये थे, न कि मोक्ष । और जम्बूस्वामीके भवान्तर वर्णनमें भव-देव बड़े कष्टसे, द्रव्य-लिङ्गी हुआ था और उसके होनेपर बाद में भावलिङ्ग के द्वारा मोक्ष को प्राप्त हुआ था। भावमल अर्थात् अपरिशुद्ध परिणाम के द्वारा जिन-सम्यक्त्व से रहित होनेके कारण यह जीव बाह्य पदार्थोका संग होनेपर मलिन हो जाता है अर्थात् सम्यक्त्व के बिना निग्रंन्थ भी सग्रन्थ हो जाता है । यहाँ द्रव्य-लिङ्ग और भावलिङ्ग के विषय में एकान्तका पक्ष छोड़कर स्याद्वाद की पद्धति पर सात भङ्गों की योजना करना चाहिये। १ कथंचित् भाव-लिङ्ग से मोक्ष होता है क्योंकि उसमें द्रव्य लिङ्गकी भी अपेक्षा रहती है, २ कथंचित् द्रव्य-लिङ्ग से मोक्ष होता है क्योंकि उसमें भाव-लिङ्ग की भी अपेक्षा रहती है, ३ कथंचित् दोनों लिङ्गोसे मोक्ष प्राप्त होता है क्योंकि क्रमसे दोनों की अपेक्षा रहती है, ४ कथंचित् मोक्षका कारण अवक्तव्य है क्योंकि एक साथ दोनोंका कथन नहीं हो सकता। ५ कथंचित् मोक्षका कारण भावलिङ्ग है तथा अवक्तव्य भी है, ६ कथंचित् मोक्षका कारण द्रव्य लिङ्ग भी है तथा अवक्तव्य भी है और ७ कथंचित् मोक्षका कारण द्रव्य-लिङ्ग, भाव-लिङ्ग दोनों हैं तथा अवक्तव्य भी है। For Personal & Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ -५.७१] भावप्रामृतम् त्वात्, स्याद्भावलिंग चावक्तव्यं च, स्याद्रव्यलिंगं चावक्तव्यं च, स्यादुभयं चावक्तव्यं चेति सप्तभंगी योजनीया। धम्मम्मिणिप्पवासो दोसावासो य उच्छुफुल्लसमो। णिप्फलणिग्गुणयारो पडसवणो जग्गरूवेण ॥७॥ धर्मे निप्रवासो दोषावासश्च इक्षुपुष्पसमः । निष्फलनिर्गुणकारो नटश्रमणो नग्नरूपेण ॥७१।। (धम्मम्मिनिप्पवासो ) धर्मे दयालक्षणे चारित्रलक्षणे आत्मस्वरूपे उत्तमक्षमादिदशलक्षणे च तदुक्तं धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो। चारित्तं खलु धम्मो जीवाण य रक्खणो धम्मो ॥१॥ मूल में द्रव्य-लिङ्ग, भावलिङ्ग और अवक्तव्य ये तीन धर्म हैं उनके संयोग-वश उक्त सात भङ्ग हो जाते हैं। __ गाथार्थ-जिसका धर्म में निवास नहीं है, अर्थात् जो धर्मसे दूर है, जिसमें दोषों का आवास है और जो ईखके फूल के समान निष्फल तथा निगुण है वह नाग्न्य वेष से नट श्रमण-मुनिका वेष रखने वाले नट के समान जान पड़ता है ॥७१॥ विशेषार्थ-धर्मका लक्षण दया है, धर्मका लक्षण चारित्र है, धर्मका लक्षण आत्मस्वरूप है, और धर्मका लक्षण उत्तम क्षमादि दश धर्म हैं। जैसा कि कहा गया है- पम्मो वत्युसहायो-वस्तु स्वभावको धर्म कहते हैं अथवा क्षमा आदि दश धर्मोको धर्म कहते हैं अथवा चारित्र को धर्म कहते हैं अथवा जीवरक्षाको धर्म कहते हैं। इस तरह उक्त लक्षण वाले धर्मके विषय में जो अत्यन्त प्रवास है-उद्रस है अर्थात् दूरवर्ती है, जो दोषों अर्थात् अतिचारों का निवास है और जो इक्षुके फूलके समान निष्फल अर्थात् मोक्ष रूप फलसे रहित तथा निर्गुण-ज्ञानसे रहित होता है। जिस प्रकार इक्षुका फूल फल रहित और निर्गन्ध होनेसे निगुण होता है उसी प्रकार जो मुनि निष्फल-मोक्ष रहित और निर्गुण-ज्ञान-हीन होता है अथवा दूसरों का निगुण कर देता है, वह नग्न रूपके कारण नट श्रमण ही है अर्थात् मुनिवेषी नट श्रमण है। वह मात्र लोकोंको अनुरञ्जित करने के लिये नग्न होता है, यथार्थ में नहीं। For Personal & Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ षट्नाभृते . [५.७२एवमुक्तलक्षणे धर्मे निप्पवासो-निरतिशयेन प्रवासः प्रगतवासः उद्वस इत्यर्थः । ( दोसावासो य ) दोषाणां मलातिचाराणामावासो निवासः । ( उच्छफल्लसमों) इक्षुपुष्पसमः इक्षुपुष्पसदृशः। (निप्फलनिग्गुणयारो) निष्फलो मोक्षरहितः, निर्गुणो ज्ञानरहितः । यथा इक्षुपुष्पं निष्फल फलरहितं भवति सस्यविवजितं स्यात् तथा निर्गुणं गन्धहीनं भवति तथा परमार्थरहितो दिगम्बरो ज्ञातव्यः । तथा निर्गुणकारः परेषां गुणकारको न भवति सम्बोधको न स्यात् । ( नडसवणो नग्गरूवेण ) नग्नरूपेण कृत्वा नटश्रवणः नर्मसचिवस दृशः। स लोकरंजनार्थ नग्नो भवति तथायमपि । इति व्याख्यानं ज्ञात्वा सम्यक्त्वे ज्ञाने चारित्रे तपसि च दृढतया स्थातव्यं । जे रायसंगजुत्ता जिणभावणरहियदव्वणिग्गंथा। ण लहंति ते समाहि वोहि जिणसासणे विमले ॥७२॥ ये रागसंगयुक्ता जिनभावनरहितद्रव्यनिग्रन्थाः । न लभन्ते ते समाधि वोधिं जिनशासने विमले ॥७२।। ( जे रायसंगजुत्ता) ये मुनयो रागेण स्त्रीप्रीतिलक्षणेन, संगेन परिग्रहेण युक्ता भवन्ति । अथवा रागेण संगं स्त्रीगमनं कुर्वन्ति । अथवा राजसंगः अहंभावनां त्यक्त्वा राजसेवां कुर्वन्ति राजसेवायुक्ता भवन्ति (जिणभावणरहियदन्वनिग्गंथा ) जिनभावनारहितद्रव्यनिग्रंथाः, जिने भावना रुचिर्येषां नास्ति ते जिन इस तरह इस व्याख्यान का सारांश यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और समीचीन तप में सदा दृढ़ रहना चाहिये ।।७१॥ गाथार्थ-जो मुनि राग रूप परिग्रह से युक्त हैं तथा जिन भावना से रहित होकर मात्र द्रव्य की अपेक्षा नग्न-मुद्राको धारण करते हैं, वे निर्मल जिन शासन में समाधि और बोधि-रत्नत्रय रूप सम्पत्ति को नहीं प्राप्त होते हैं ।।७२।। विशेषार्थ-संस्कृत टीका-कार ने 'राय-संग-जुत्ता' इस पद की संस्कृत छाया राग-संग-युक्ता और राज-संग-युक्ता स्वीकृत की है । 'रागसंग-युक्ता' इस छाया में रागश्च संगश्च राग-संगो ताभ्यां युक्ता ऐसा समास करके उक्त पदका अर्थ किया है कि जो मुनि स्त्री-प्रीति रूपी राग और परिग्रह-रूप संग से युक्त हैं। अथवा रागेण संगः रागसंगः तेन युक्ताः ऐसा समास कर दूसरा अर्थ किया है कि जो रागसे संग अर्थात् स्त्री गमन करते हैं-स्त्रियोंसे अधिक संपर्क रखते हैं। अथवा 'राजसंग For Personal & Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.७२] भावप्राभृतम् ४०३ भावनारहितास्ते च ते द्रव्य-निग्रन्था नग्नरूपधारिणो जिनभावनारहितद्रव्यनिर्ग्रन्थाः । अथवा जिनस्य भावना तीर्थकरनामकर्मोपार्जनप्रत्ययभूता दर्शनविशुद्धपादयो भावनाः षोडश ताम्यो रहिताः । जिनसम्यक्त्वसहिता व्यस्ताः समस्ता वा भावनास्तीर्थकरनामकर्मदायिका भवन्ति । दर्शनविशुद्धिरहिता अपराः पंचदशापि भावनास्तीर्थकरनामकर्म नार्पयन्ति । तथा चोक्तं एकापि समर्थेयं जिनभक्तिदुर्गति निवारयितु । पुण्यानि च पूरयितु दातु मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥१॥ अथवा द्रव्यनिग्रन्थाः बहुविधधर्ममिषेण द्रव्यमुपार्जयन्ति ये ते द्रव्यनिग्रन्थाः कथ्यन्ते । न ( लहंति ते समाहिं ) ते मुनयः समाधि रत्नत्रयपरिपूर्णतां धयंशुक्लध्यानद्वयं वा न लभन्ते न प्राप्नुवन्ति । ( वोहिं जिणसासणे विमले ) बोधि सम्यग्दर्शनशानचारित्रलक्षणां न लभन्ते न प्राप्नुवन्ति जिनशासने श्रीमद्भगवद युक्ता' इस छाया के अनुसार एक अर्थ यह भी किया है कि जो मुनि अर्हन्त भगवान् की भावना को छोड़ कर राज-सेवा करते हैं-राजदरबार में आना जाना आदि कार्यों में व्यासक्त रहते हैं। इसके सिवाय जो जिन-भावना जिन-श्रद्धा से रहित होकर मात्र द्रव्य-निग्रंन्थ हैं-नग्न रूपको धारण करने वाले हैं अथवा जिन भावना का अर्थ तीर्थंकर नाम कर्म के बन्धमें कारणभूत दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह भावनाएं भी हैं सो जो इन भावनाओं से रहित होकर मात्र द्रव्य से निर्ग्रन्थ हुए हैं-मात्र नग्न रूपको धारण करने वाले हैं अथवा जो इन भावनाओं से रहित होकर मात्र द्रव्य-धनके लिये नग्न मुद्रा धारण करते हैं अर्थात् नग्न-मुद्रा धारण कर नाना प्रकार के धर्मके मिष से द्रव्यका उपार्जन करते हैं वे मुनि समाधि अर्थात् रत्नत्रय को पूर्णता और अथवा धर्म्य-ध्यान और शुक्लध्यान इन दो उत्तम ध्यानोंको एवं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी बोधिको नहीं प्राप्त होते हैं। जिनेन्द्र भमवान् का शासन विमल है, पूर्वा-पर विरोध से रहित है अथवा कर्म मल कलङ्क के क्षयका कारण है। ऊपर दर्शन विशुद्धि आदि जिन सोलह भावनाओं का उल्लेख हुआ है वे दर्शन-विशुद्धि अर्थात् जिन-सम्यक्त्व से सहित सबकी सब हो अथवा पृथक्-पृथक् हो तीर्थंकर प्रकृति नामक नाम कर्मका बन्ध कराने वाली हैं। किन्तु दर्शनविशुद्धि से रहित शेष पन्द्रह भावनाएँ भी हों तो भी तीर्थकर प्रकृति का बन्ध नहीं कराती हैं। जैसा कि कहागया है एकापि-यह एक जिन-भक्ति दर्शन-विशुद्धि कुशल मनुष्य की For Personal & Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ पट्प्रामृते [५.७३हत्सर्वशवीतरागमते । कथंभूत, विमले पूर्वापरविरोधविजिते कर्ममलकलवृक्षयहेतुभूतं वा। भावेण होइ गग्गो मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं । पच्छा दव्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए ॥७३॥ 'भावे-भवति नग्नः मिथ्यात्वादींश्च दोषान् त्यक्त्वा। पश्चाद्रव्येण मुनिः प्रकटयति लिंगं जिनाज्ञयां ॥७३॥ .... ( भावेण होइ नग्गो ) भावेन परमधर्मानुरागलक्षणजिनसम्यक्त्वेन भवति, कीदृशो भवति ? नग्नः वस्त्रादिपरिग्रहरहितः ? किं कृत्वा पूर्व, ( मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं ) मिथ्यात्वादींश्च दोषांस्त्यक्त्वा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगलक्षणास्रवद्वाराणि त्यक्त्वा । (पच्छा दव्वेण मुणी ) पश्चात् भावलिंगधरणादनन्तरं मुनिदिगम्बरः ( पयदि लिंगं जिणाणाए ) प्रकटयति स्फुटीकरोति, कि तत् ? लिंग-जिनमुद्रां, कया जिणाणाए-जिनस्याज्ञया जिनसम्यक्त्वेन सम्यक्त्वश्रद्धानरूपेणेति बीजांकुरन्यायेनोभयं संलग्नं ज्ञातव्यं । भावलिंगेन द्रव्यलिंग, द्रव्यलिगेन भावलिंगं भवतीत्युभयमेव प्रमाणीकर्तव्यं । एकान्तमतेन तेन सर्व नष्ट भवतीति वेदितव्यं । अलं दुराग्रहेणेति । दुर्गति का निवारण करने के लिये, पुण्य की पूर्ति करने के लिये और मुक्ति लक्ष्मी को देनेके लिये समर्थ है। गाथार्य-मुनि पहले मिथ्यात्व आदि दोषों को छोड़ कर भावसे नग्न होता है, पीछे जिनेन्द्र देवकी आज्ञानुसार द्रव्य से लिंग प्रकट करता है-नग्न वेष धारण करता है। विशेषार्थ-यहां भावका अर्थ परम धर्मानुराग रूप जिन-सम्यक्त्व है । मुनि पहले मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग रूप आस्रव द्वारों को छोड़कर भावसे नग्न होता है पोछे जिनेन्द्र देव की आज्ञानुसार द्रव्यलिंग को प्रकट करता है वस्त्रका त्यागी होता है पीछे जिनेन्द्र देवकी आज्ञानुसार द्रव्य-लिंगको प्रकट करता है अर्थात् वस्त्र का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रा धारण करता है। यहाँ द्रव्य-लिंग और भाव-लिंगको बीजांकुरन्याय से परस्पर संलग्न जानना चाहिये। अर्थात् जिस प्रकार बीजके बिना अंकुर और अंकुर के बिना बीज नहीं होता, उसी प्रकारसे भाव-लिंगके बिना द्रव्य-लिंग और द्रव्य लिंगके बिना भावलिंग नहीं होता। एकान्त मतसे सब सिद्धान्त नष्ट हो जाता है इसलिये द्रव्य-लिंग और भावलिंग दोनों को प्रमाण मानना चाहिये। इनमें पहले कौन होता है और पीछे कोन ? इसका दुराग्रह करना व्यर्थ है ॥७३॥ For Personal & Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ -५.७४] भावप्राभृतम् भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणो भाववज्जिओ सवणो। कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो ॥७॥ भावोपि दिव्यशिवसुखभाजनं भाववर्जितः श्रमणः । कर्ममलमलिनचित्तः तिर्यगालयभाजनं पापः ।।७४॥ ( भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणो ) इति विपुलानाम-गाथालक्षणं । भावोऽपि, अपिशब्दाद्रव्यलिंगमपि । दिव्य-दिवि भवं दिव्यं सौधर्मशानदेवीरतिक्रम्या गाथार्थ-भाव तथा द्रव्य दोनों लिङ्गों का धारक मुनि स्वर्ग और मोक्ष-सम्बन्धी सुखोंका भाजन होता है तथा भावलिङ्ग से रहित पापी मुनि कर्म रूपी मलसे मलिन चित्त होता हुआ तिर्यञ्च गतिका पात्र होता है ।।७४॥ विशेषार्थ-भावो वि-भावोऽपि यहाँ अपि शब्दसे द्रव्य-लिङ्ग का भी समुच्चय होता है अतः गाथाका अर्थ इस प्रकार निकलता है कि भाव तथा द्रव्य दोनों लिङ्गों को धारण करने वाला मुनि स्वर्ग और मोक्षके सुखका भाजन होता है और भावसे रहित अर्थात् मात्र द्रव्य लिङ्गका धारक पापी मुनि कर्म रूपी मल से मलिन-चित्त होता हुआ तिर्यञ्च गतिका पात्र होता है। यहां इतना विशेष समझना चाहिये कि सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युत स्वर्ग तकके सुख तो मुनिलिङ्ग के बिना भी प्राप्त हो सकते हैं क्योंकि गृहस्थ सम्यग्दृष्टि जीवका उत्पाद सौधर्म स्वर्ग से लेकर अच्युत स्वर्ग तक होता है उसमें भी सौधर्म और ऐशान स्वर्ग को देवियों को छोड़कर अन्य महद्धिक देवों में हो गृहस्थ सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होता है । यहाँ मात्र सौधर्म और ऐशान स्वर्ग की देवियों में इसका उत्पाद नहीं बताया है इसका यह अर्थ नहीं है कि आगामी स्वर्ग को देवियों में होता है. क्योंकि समस्त स्वर्गों की देवियों की उत्पत्ति सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में ही होती है अतः इन दो स्वर्गों की देवियों में ही सब स्वर्गों की देवियों का अन्तर्भाव हो चुकता है। सम्यग्दृष्टि जीवका उत्पाद किसी भी प्रकार स्त्रियों में नहीं होता है। अच्युत स्वर्ग से ऊपर उत्पन्न होनेके लिये मुनि लिङ्गका होना आवश्यक रहता है इसलिये भाव लिङ्ग सहित द्रव्य लिङ्ग के द्वारा यह जीव सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थ-सिद्धि तकके सुख प्राप्त करता है। इसमें भी विशेषता यह है कि यदि कोई अभव्य जोव मुनिव्रत धारण करता है तो उसके भावलिङ्ग नहीं हो सकता, सदा द्रव्य-लिङ्ग ही रहता है और उस द्रव्य- लिङ्ग के प्रभाव से For Personal & Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ षट्नाभृते - [५.७४न्यतरमहर्दिकदेवसुखं सौधर्माद्यच्युतस्वर्गपर्यन्तं सुखं द्रव्यलिंगम न्तरेण भावनीयं । तद्युक्तद्रव्यलिंगेन सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं सुखं ज्ञातव्यं । कस्यचिदभव्यस्य भावलिंगमन्तरेण द्रष्यलिंगेन नववेयकपर्यन्तं पुनः पुनर्भवपातहेतुभूत सुखं ज्ञातव्यं । तेनास्य पादस्य पुनरर्थः प्रकाश्यते । भावोऽपि दिव्यशिवसौख्यभाजनं स्वर्गमोक्षसौख्यभाजनं । ( भाववज्जिओ सवणो ) भाववर्जितः श्रवणो जिनसम्यक्त्वरहितो दिगम्बरः । (कम्ममलमलिणचित्तो) कर्ममलेन अतिचारानाचारातिक्रमव्यतिक्रमव्यतिक्रमचेष्टितो पार्जितपापेन दोषेण मलिनचित्तः मलिनं मलदूषितं चित्तमात्मा यस्य स भवति कर्ममलमलिनचित्तः । ( तिरियालयभायणो पावो ) तिर्यगालयभाजनं तिर्यग्गतिस्थान भवति, पापः पापात्मा विचित्रमतिनाममंत्रिपुत्रवत् ।। भी वह नौवें ग्रेवेयक तकके सुख प्राप्त कर सकता है। अभव्य जीवका यह स्वर्ग-सम्बन्धी सुख पुनः संसार में पतन का ही कारण है, ऐसा जानना चाहिये । इस पादका दूसरा अर्थ. ऐसा भी हो सकता है कि भाव-लिंगी मुनि ही स्वर्ग और मोक्ष सुखका पात्र होता है। भाव-लिंगी मुनिकी यदि सराग चारित्र दशा में मृत्यु होती है तो वह मरकर स्वर्ग में ही उत्पन्न होता है, मोक्ष नहीं जा सकता क्योंकि मोक्षजाने के लिये पूर्ण वीतराग चारित्रकी आवश्यकता होती है और पूर्ण वीतराग चारित्र दशा में पर्याय समाप्त होती है तो मोक्ष जाता है इस तरह भाव-लिंगी मुनि स्वर्ग तथा मोक्ष दोनों जगह जाते हैं परन्तु भावसे. रहित पापी तिर्यञ्च गतिका पात्र होता है। यहाँ भाव-रहित होनेके साथ-साथ पापी विशेषण भी दिया है उससे सिद्ध होता है कि जो द्रव्यसे मुनिपद रखकर स्वच्छन्द प्रवृत्ति करते हुए पापोपार्जन करते हैं वे तिर्यञ्च गतिके पात्र होते हैंनिगोद तक में उत्पन्न होते हैं। वैसे करणानुयोग की अपेक्षा सम्यक्त्व न होनेके कारण जो भाव-लिंगी नहीं कहलाते फिर भी चरणानुयोग की पद्धति के अनुसार समीचीन आचरण करते हैं ऐसे द्रव्य-लिंगी मुनि नौवें ग्रैवेयक तक उत्पन्न होते ही हैं। भाव अर्थात् जिन-सम्यक्त्वसे रहित साधु जब चरणानुयोग में वर्णित मुनिके आचार विचार में भी श्रद्धा नहीं रखता तथा अतिचार अनाचार अतिक्रम और व्यतिक्रम रूप चेष्टाओंके द्वारा पाप कर्मका उपार्जन करने लगता है तब उसका चित्त सदा मलिन रहता है। उस दशा में वह पापी कहलाता है और विचित्रमति नामक मन्त्रीके पुत्रके समान तिर्यञ्च गतिका पात्र होता है । इस गाथा में विपुला नामक आर्या छन्द है ।।७४|| For Personal & Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ७५ ] भावप्राभृतम् खयरामर मणुयकरंज लिमालाहिं च संथया विउला । चक्कहररायलच्छी लब्भेइ बोही ण 'भव्वणु ॥७५॥ खचरामर मनुजानामञ्जलिमालाभिः संस्तुता विपुला । चक्रधरराजलक्ष्मीः लभ्यते बोधि न भव्यनुता ॥ ७५ ॥ ( खयरामरमणुयकरंजलिमालाहि च ) इयमपि विपुला गाथा ज्ञातव्या । अस्या अयमर्थः—खचरामरमनुजकराञ्जलिमालाभिश्च खे चरन्त्याकाशे गच्छन्तीति खचरा विद्याघरा उभयश्रेणिसम्बन्धिनः, न म्रियन्ते बहुकालेन प्रच्यवन्ते गाथार्थ - विद्याधर देव और मनुष्यों की हस्ताञ्जलियों के समूह से जिसकी अच्छी तरह स्तुति की गई है ऐसी चक्रवर्ती तथा अन्य राजाओं की भारी लक्ष्मी तो इस जीवके द्वारा कई बार प्राप्त की जाती है परन्तु भव्यजीवों के द्वारा स्तुत रत्नत्रय की लक्ष्मी प्राप्त नहीं की जाती अर्थात् रत्नत्रयको प्राप्ति दुर्लभ है ।। ७५ ।। विशेषार्थ - जो आकाश में चलते हैं वे विद्याधर हैं, ये विद्याधर विजयार्ध पर्वत की उत्तर तथा दक्षिण श्रेणियों पर निवास करते हैं । जो बहुत काल तक मरते नहीं हैं अर्थात् दीर्घायुष्क होते हैं ऐसे व्यन्तर देव अमर कहलाते हैं। तथा प्रति श्रुति आदि मनुओं- कुलकरों से जिनकी १. सुभावेणेति पाठान्तरं जयचन्द्रेणापि स्वीकृते अस्माद्गाथासूत्रादग्रे । श्री पं जयचन्द्रेणापि स्वीकृते । भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव नादव्वं । असुरं अट्टरउदं सुह धम्मं जिणवरिदेहि ॥ १ ॥ भावः त्रिविधप्रकारः शुभोऽशुभ: शुद्ध एव ज्ञातव्यः । अशुभ : आर्त्तरौद्रः शुभः धर्म्यं जिनवरेन्द्रः ॥ टीका - भावं त्रिविधप्रकारं शुभं अशुभं शुद्धं एव निश्चयेन ज्ञातव्यं । अशुभं आर्तरौद्र । शुभं धर्मध्यानं जिनवरेन्द्रः कथितम् । ४०७ सुद्धं सुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं 1 इदि जिणवरेहिं भणियं जं सेयं तं समायरइ ॥ २ ॥ शुद्धः शुद्धस्वभावः आत्मा आत्मनि स च ज्ञातव्यः । इति जिनवर : भणितः यच्छेयः तत् समाचर ॥ टीका - हे मुने ! शुद्ध निर्मलं शुद्धस्वभावं तं आत्मानं आत्मनि ज्ञातव्यं । इति जिनवरैर्भणितं कथितं । यच्छेयं कल्याणकारि तत् समाचार कुर्विति । For Personal & Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ षट्प्राभृते [५.७६ऽमरा व्यन्तरदेवाः, मणुय-प्रतिश्रुत्यादिभ्यो जाता मनुजाः, खचरामरमनुजास्तेषां कराञ्जलयः करकुड्मलानि तेषां मालाभिः श्रेणिभिश्च । ( संथुआ)-संस्तुताः। चक्रवर्तिनां च तथा मण्डलेश्वरमहामण्डलेश्वरार्धमण्डलेश्वराणां राज्ञां लक्ष्मीः चक्रधरराजलक्ष्मी । ( लब्भेइ बोही ण भव्वणुआ ) एतादृशी लक्ष्मीविभूतिर्लभ्यते प्राप्यते जीवेनेति, बोही ण-परं बोधिनं लभ्यते । कथंभूता बोषिः, भव्यनुता भव्यवरपुण्डरीकैः स्तुता प्रशंसनीया । अथवा हे भव्यनुत ! आसन्नभव्यजीव! त्वमिदं जानीहीति शेषः । पर्यालयमाण कसाओ पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो। पावइ तिहुयणसारं बोही जिणसासणे जीवो ॥७६॥ प्रगलितमानकषायः प्रगलितमिथ्यात्वमोहसमचित्तः। .. प्राप्नोति त्रिभुवनसारां बोधि जिनशासने जीवः ।।७६।। (पलियमाणकसाओ ) प्रगलितमानकषायो मानकषायरहितः । ( पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो) प्रगलितमिथ्यात्वमोहसमचित्तो यद्विपरीतं तन्मिथ्यात्वं, मोहो वैचित्यं निविवेकता पुत्रमित्रकलत्रादिस्नेहः, प्रगतो विनाशं प्राप्तौ मिथ्यात्वमोही यस्य स प्रगलितमिथ्यात्वमोहः, समं सर्वत्र तृणसुवर्ण-सर्पस्रक शत्रुमित्र उत्पत्ति हुई है वे मनुज हैं। इन सबके कर-कुड्मलों को मालाओं से जिसकी सम्यक् प्रकार स्तुति की जाती है अर्थात् विद्याधर व्यन्तर देव तथा मनुष्य जिसे हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं ऐसी चक्रवर्तियों, मण्ड. लेश्वर, महा मण्डलेश्वर, तथा अर्ध मण्डलेश्वर राजाओं की विपुल-बहुत भारी लक्ष्मी तो जीवके द्वारा प्राप्त की जाती है परन्तु श्रेष्ठ भव्य जीवोंके द्वारा स्तुत बोधि-रत्नत्रय रूप विभूति प्राप्त नहीं कही जातो। अर्थात् चक्रवर्ती आदि की लक्ष्मी का मिलना तो सरल है परन्तु रत्नत्रय रूप विभूति का मिलना कठिन है। अथवा भव्वणुआ इस विशेषण को बोही के साथ न लगाकर स्वतन्त्र सम्बोधन पद माना जा सकता है इस पक्ष में 'भव्वणुआ' पदका अर्थ होगा-हे भव्य जीवोंके द्वारा स्तुत निकट भव्यजीव ! तुम ऐसा जानो। इस गाथामें भी विपुला नामक आर्या छन्द है ॥७॥ गाथार्थ-जिसकी मान कषाय गल चुकी है, जिसके मिथ्यात्व और मोह नष्ट हो चुके हैं तथा जिसका चित्त समता भावको प्राप्त हुआ है ऐसा जीव ही जिनशासन में त्रिलोक श्रेष्ठ बोधि-रत्नत्रय रूप विभूतिको प्राप्त होता है ॥७६|| For Personal & Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ७७ ] भावप्राभृतम् ४०९ सुखदुःख-वन्भवन-पुरारण्यादिषु समानं चित्तं मनो यस्य समचित्तः। ( पावइ तिहुयणसारं ) प्राप्नोति लभते। कां, ( बोही ) बोधि रत्नत्रयप्राप्ति । कथंभूतां बोधिं, तिहुयणसारं-त्रैलोक्योत्तमा ( जिणससणे जीवो ) जिनशासने सर्वज्ञवीतरागस्वामिनो मत्ते। मानमिथ्यात्वमोहरहितो जीवो बोधि प्राप्नोतीति जिनवचनं ज्ञातव्यमिमते। विसयविरत्तो समणो छद्दसंवरकारणाई भाऊण । तित्थयरणामकम्मं बंधइ अइरेण कालेण ॥७७॥ विषयविरक्तः श्रमणः षोडशवरकारणानि भावयित्वा । तीर्थकरनामकर्म बध्नाति अचिरेण कालेन ॥७७॥ (विसयविरत्तो समणो ) विषयेभ्यः स्पर्शरसगन्ववर्णशब्देभ्यः पंचेन्द्रियार्थेभ्यो विरक्तः पराड़ मुखः श्रमणो दिगम्बरः, न तु श्वेताम्बरादिकः प्रत्याख्यानादिहीनः तपःक्लेशसद्दः श्रमण उच्यते न तु बहुवार जलस्य पाता भोजनस्य भोक्ता च ( छड्सवरकारणाई भाऊणं ) षोडशसंवरकारणानि भावयित्वा । ( तित्थयरनाम विशेषार्थ-मानका अर्थ अहंकार है, मिथ्यात्व विपरीत अभिप्राय को कहते हैं मोह, वैचित्त्य, निविवेकता अथवा पुत्र मित्र स्त्री आदिका स्नेह कहलाता है। समचित्त का अर्थ तृण और सुवर्ण, सर्प और माला, शत्रु और मित्र, सुख और दुःख, वन और भवन तथा नगर और अटवी में समभाव रखना है इस तरह जिसकी मान कषायं गल चुकी है, जिसके मिथ्यात्व और मोह नष्ट हो चुके हैं तथा जो तृण सुवर्ण आदि में समचित है-हर्ष विषाद से रहित है वही तोन लोक में सारभूत रत्नत्रय रूप विभूति को प्राप्त होता है, ऐसा जिनशासन-वोतराग सर्वज्ञ देवका वचन गाथार्य-विषयों से विरक्त रहने वाला साधु सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन कर थोड़े ही समय में तीर्थंकर नाम कर्मका बन्ध कर लेता है ।।७७|| विशेषार्थ-स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द ये पञ्चेन्द्रियों के विषय हैं । दिगम्बर साधु इन विषयों से सदा विरक्त रहते हैं। तपश्चरणसम्बन्धो क्लेश सहन करनेके कारण दिगम्बर साधु श्रमण कहलाते हैं । अन्य श्वेताम्बरादिक साधु प्रत्याख्यान से रहित हैं तथा अनेक बार जल पीते एवं भोजन ग्रहण करते हैं इसलिये उन्हें श्रमण संशा नहीं है । जो For Personal & Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० षट्नामृते ' [५.७७कम्मं बंधइ) तीर्थकरनामकर्म बध्नाति त्रिनवतिमी प्रकृति स्वीकरोति यया लाक्यं संचलयति पादाधः करोति । ( अइरेण कालेण ) अचिरेण कालेन अन्त- . मुहूर्तसमयेन, यया पंचकल्याणलक्ष्मी प्राप्नोति, अनन्त-कालमनन्तसुखमनुभवति, अनायासेन मोक्षं प्राप्नोति । अथ कानि तानि षोडशकारणाणि यस्तीर्थकरनामकर्म बध्यते इति चेदुच्यते "'दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसो साधुसमाधियावृत्यकरणमहंदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्य- .. कापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य" । ___ इत्युमास्वामिसूरिणा प्रोक्तं सूत्रं । अस्यायमर्थः-इहलोकभय-परलोकभयवेदनाभय-मरणभय-आत्मरक्षणोपायदुर्गाद्यभावागुप्तिभयः-अत्राणभयारक्षणभयविद्युत्पाताद्याकस्मिकभयं इति सप्तभयरहितस्वं निःशंकितत्वं निग्रंन्थलक्षणो मोक्षमार्ग इति जिनमतं तथेति वा निःशकितत्वं (१) इहलोकपरलोकभोगोपभोगाकांक्षा श्रमण-मुनि पञ्चेन्द्रियोंके विषयों से विरक्त होता हुआ सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन करता है वह अल्प ही समय में उस तीर्थंकर नामकी प्रकृतिका बन्ध करता है जिससे पञ्चकल्याण रूप लक्ष्मोको प्राप्त होता है, अनन्त काल तक अनन्त सुखका अनुभव करता है और अनायास ही मोक्ष को प्राप्त होता है। प्रश्न-वे सोलह कारण भावनाएं कौन हैं जिनसे तीर्थकर नाम कर्मका बन्ध होता है ? . उत्तर-श्री उमास्वामी सूरिने तत्त्वार्थसूत्र में निम्नलिखित सोलह कारण भावनाएं कही हैं-१ दर्शनविशुद्धि, २ विनयसंपन्नता, ३ शीलव्रतेष्वनतिचार, ४ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ५ संवेग, ६ शक्तितस्त्याग, ७ शक्तितस्तप ८ साधुसमाधि ९ वैयावृत्यकरण, १० अर्हद्भक्ति, ११ आचार्यभक्ति, १२ बहुश्रु तभक्ति, १३ प्रवचनभक्ति १४ आवश्यकापरिहाणि १५ मार्गप्रभावना और १६ प्रवचनवत्सलत्व । ( १ ) इनमें प्रथम भावना दर्शन विशुद्धि है जिसका प्रमुख अर्थ अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शन धारण करना है । १ निःशङ्कित २ निःकांक्षित ३ निविचिकित्सित ४ अमूढदृष्टि ५ उपगृहन ६ स्थितिकरण ७ वात्सल्य और ८ प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अङ्ग हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है १. निःशंकित अंग-इह लोकभय, परलोकभय, वेदनामय, मरण १. तत्त्वार्थसूत्रे बकाण्याये। For Personal & Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ७७ ] भावप्राभृतम् निवृत्तिनिष्कांक्षित्वं (२) शरीरादी शुचीति मिथ्यासंकल्परहितत्वं निर्विचिकित्सता, मुनीनां रत्नत्रयमंडितशरीरमलदर्शनादौ निशुकत्वं तत्र समाढोक्य वैयावृत्यविधानं वाविचिकित्सता (३) परतत्वेषु मोहोज्झकत्वममूढदृष्टित्वं (४) उत्तमक्षमादिभिरात्मनो धर्मवृद्धिकरणं संघदोषाच्छादनं चोपवृंहणमुपगूहनं (५) कषायविषयादिभिर्धमविध्वंस कारणेषु सत्स्वपि धर्मप्रच्यवन रक्षणं स्थितिकरणं ( ६ ) जिनशासने सदानुरागता वात्सल्यं (७) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपोभिरात्मप्रकाशनं शासनोद्योतकरणं वा प्रभावना ( ८ ) एतैरष्टभिगुणैर्युक्तत्वं चर्मजलतैल भय, आत्मरक्षा के उपायभूत दुर्गं आदिके अभाव में होने वाला अगुप्ति भय. रक्षकों के अभाव में होनेवाला अत्राण अथवा अरक्षण भय और विद्युत्पात आदि आकस्मिक भय इन सात भयोंका अभाव होना निःशङ्कित अंग है अथवा मोक्षमार्ग निर्ग्रन्थ लक्षण है- मोक्ष दिगम्बर मुद्रासे ही साध्य है ऐसा जिनेन्द्र भगवान् का मत है सो वह यथाथ है, इसप्रकार का अटल श्रद्धान होना सो निःशङ्कित अंग है । २. नि:कांक्षित अङ्ग - इस लोक और परलोक सम्बन्धी भोगोपभोग की आकांक्षा का अभाव होना निःकांक्षित अंग है । ३ निर्विचिकित्सित अङ्ग - शरीरादि में 'यह पवित्र है' इस प्रकार का मिथ्यासंकल्प न होना' निर्विचिकित्सित अंग है । अथवा मुनियों के रत्नत्रय से सुशोभित शरीर सम्बन्धी मल आदिके दिखने पर ग्लानि रहित अवस्था को प्राप्त हो वैयावृत्य करना निर्विचिकित्सित अंग है । ४ अमूढदृष्टि अङ्ग - मिथ्या दृष्टियोंके कल्पित तत्वोंमें मोह छोड़ना अमूढदृष्टि अंग है । ४११ ५ उपवहण अथवा उपगूहन अङ्ग - उत्तम क्षमा आदिके द्वारा अपने धर्मकी वृद्धि करना अथवा संघके दोषोंको छिपाना उपबृंहण अथवा उपगूहन अंग है । ६. स्थितीकरण अङ्ग - कषाय तथा विषय आदि द्वारा धर्म-घातका कारण उपस्थित होनेपर भी किसी को धर्मंघात से बचाना स्थितीकरण अंग है । ७ वात्सल्य अंग -- जिनशासन में सदा अनुराग दिखाना वात्सल्य अंग है । ८ प्रभावना अंग - - सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र और सम्यक्तपके द्वारा आत्माका प्रकाश करना अथवा जिन शासन का उद्योत फैलाना सो प्रभावना अंग है । For Personal & Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ षट्प्राभृते घृतभूतनाशनाऽप्रयोगत्वं मूलकगाजरसूरणकन्दगुंजजनपलाण्डुविप्रदोग्धिककलिंगपंचपुष्पसंधानक कौसु 'भपत्रपत्र शाकमांसादिभक्षकभाजनभोजनादिपरिहरणं दर्शन विशुद्धि: (१) ज्ञानदर्शनचारित्रेषु तद्वत्सु चादरोऽकषायता वा विनयसम्पन्नता (२) निरवद्या वृत्तिः शीलव्रतेष्वनतिचारः ( ३ ) सततं ज्ञानस्योपयोगोऽभ्यासः अभीक्ष्णज्ञानोपयोगः (४) संसाराद्भीरुत्वं संवेगः ( ५ ) स्वशक्त्यनुरूपं दानं ( ६ ) मार्गाविरुद्धः कालक्लेशस्तपः (७) मुनिगणतपः सन्धारणं साधुसमाधिः (८) गुणवतां दुःखोपनिपाते निरवद्यवृत्या तदपनयनं वैयावृत्यं ( ९ ) अर्हत्सु केवलिषु अनुरागी भक्तिः (१०) आचार्येष्वनुरागो भक्तिः ( ११ ) बहुश्रुतेष्वनुरागो भक्तिः ( १२ ) [ ५.७७ इन आठ गुणोंसे युक्त होना तथा चमड़े में रखे हुए तैल घी और tant प्रयोग नहीं करना एवं मूली, गाजर, सूरण कन्द गुज्जन, प्याज, मृणाल, दुधी, तरबूज, पञ्चपुष्प, अचार मुरब्बा, कुसुम्भ पत्र, पत्तोंवाली शाक और मांस भक्षी मनुष्यों के वर्तन तथा भोजन आदि का त्याग करना दर्शनविशुद्धि भावना है । च (२) दर्शन ज्ञान और चारित्र तथा इनके धारकों में आदर और अकषाय भावके धारण करनेको विनय सम्पन्नता कहते हैं । (३) शोल तथा व्रतों में निर्दोष प्रवृत्ति करना शोल-व्रतेष्वनतीचार भावना है । ( ४ ) निरन्तर ज्ञानमय उपयोग रखना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना है । (५) संसार से भयभीत रहना संवेग भावना है । (६) अपनी शक्ति के अनुसार दान देना शक्तितस्त्याग भावना है। (७) मार्ग से अविरुद्ध कायक्लेश करना शक्तितस्तप भावना है। (८) मुनि-समूह को तपमें धारण करना अर्थात् उनके तपश्चरण में आये हुए विघ्नों का दूर करना साधु-समाधि है । (९) गुणी मनुष्यों को दुःख उपस्थित होनेपर निर्दोष वृत्तिसे उसे दूर करना वैयावृत्य भावना है । (१०) अर्हन्त केवली भगवान् में अनुराग होना अर्हद्भक्ति है । (११) आचार्यों में अनुराग होना आचार्य - भक्ति है । (१२) अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता उपाध्याय आदिमें अनुराग होना बहुश्रुत भक्ति है । For Personal & Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.७८] भावप्रामृतम् प्रवचने जिनसूत्रेऽनुरागो भक्तिः (१३) सामायिक सर्वजीवेषु समत्वं, चतुर्विधातिजिनानां स्तुतिः स्तवः कथ्यते, एकजिनस्य स्तुतिर्वन्दनाभिधीयते, कृतदोषनिराकरणं प्रतिक्रमण, आगामिदोषनिराकरणं प्रत्याख्यानं । एकमुहूर्तादिषु शरीरव्युत्सर्जनं कायोत्सर्गः एतेषां षण्णामावश्यक नामपरिहाणिरेका चतुर्दशी भावना (१४) ज्ञानादिना धर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावना (१५) सधर्मणि स्नेहः प्रवचनवत्सलत्वं (१६) एताः षोडशभावनाः समस्तास्तीर्थकरनामकारणं दर्शनविशुद्धिसहिता व्यस्ता अपि तीर्थकरनामकारणं भवन्तीति ज्ञातव्यं । वारसविहतवयरणं तेरसकिरियाउ भाव तिविहेण । धरहि मणमत्तदुरियं णाणांकुसएण मुणिपवर ॥७॥ द्वादशविधतपश्चरणं त्रयोदशक्रियाः भावय त्रिविधेन । धर मनोमत्तदुरितं ज्ञानाङ्कुशेन मुनिप्रवर ! ॥ ७८ ॥ ( वारसविहतवयरणं ) द्वादशविघं तपश्चरणं अनशनमुपवासः, अवमौदर्यमेकग्रासादिरल्पाहारः, वृत्तिपरिसंख्यानं गणितगृहेषु भोजन वस्तुसंख्या वा, रसपरित्यागः षड्रसविवर्जनं, विविक्तेषु जन्तुस्त्रीपशुनपुंसकरहितेषु स्थानेषु शून्यागारादिषु आसनं उपवेशनं शय्या निद्रा-स्थान अवस्थानं वा विविक्तशय्यासनं, कायक्लेशः (१३) प्रवचन-जिनागममें अनुराग होना प्रवञ्चनभक्ति है। (१४) सामायिक सब जीवों में समता भाव होना, स्तव अर्थात् चौबीस तीर्थकरोंकी स्तुति करना, वन्दना अर्थात् एक तीर्थंकर की स्तुति करना, प्रतिक्रमण अर्थात् लगे हुए दोषोंका निराकरण करना, प्रत्यास्यान अर्थात् आगामी दोषोंका निराकरण करना और कायोत्सर्ग अर्थात् एक मुहूर्त आदिके लिये शरीर से ममत्व भाव छोड़ना इन छह आवश्यक कार्योंको नहीं छोड़ना आवश्यकापरिहाणि भावना है। (१५) ज्ञान आदिके द्वारा धर्मका प्रकाश करना मार्ग-प्रभावना है। (१६) सहधर्मी भाइयों में स्नेह करना प्रवचन-वत्सलत्व भावना है। ये सोलह भावनाएँ सब मिलकर अथवा दर्शन-विशुद्धिके साथ पृथक्-पृथक् भी तीर्थकर नाम कर्म के बन्ध के कारण हैं ।।७७॥ गाथार्थ हे मुनिप्रवर ! तुम बारह प्रकारके तपश्चरण और तेरह क्रियाओंका मन वचन कार्यसे पालन करो तथा ज्ञानरूपी अंकुशके द्वारा मन रूपी मत्त हाथीको वश करो। ..विशेषार्थ-तपके बारह भेद हैं जिनमें छह बाह्य तप हैं और छह अन्तरङ्ग तप । अनशन अर्थात् चार प्रकारके आहार का त्याग कर उप For Personal & Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ ५.७८ 'जलौदनभोजनादिः इद षड्विधं बाह्यं तपः । बाह्य कस्मादिति चेत् ? बाह्य भोजनादिकमपेक्ष्य प्रवर्तते, परप्रत्यक्षं वा प्रवर्तते, परदर्शने पाषंडिगृहस्थैश्च क्रियते ततो बाह्यमुच्यते । एतस्मात् तपसः कर्मदहनं इन्द्रियतापकारित्वं च भवति । [संयमो रागच्छेदः कर्मनाशो ध्यानादिः आशानिवृत्तिः शरीरतेजोहानिः ब्रह्मचर्यं दुःखसहनं सुखानभिष्वङ्ग आगमप्रभावनादिकं च फलं ज्ञातव्यं । षड्विधमभ्यन्तरं तपः, यतः परतीर्थैरनालीढं स्वसंवेद्यं बाह्यद्रव्यानपेक्ष्यं ततोऽभ्यन्तरं तप उच्यते । तत्कि ? प्रायश्चितविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गंध्यानलक्षणं । तत्र नवविधं प्राय ४१४ वास करना, अवमौदर्यं अर्थात् एक ग्रास आदि अल्पाहार लेना, वृत्तिपरिसंख्यान अर्थात् गिनतीके घरों में भोजन करना अथवा भोजन की वस्तुओं की संख्या निश्चित करना आदि रस परित्याग अर्थात् घी-दूध दही मीठा तेल और नमक इन छह रसों में से किसी का त्याग करना, विविक्त शय्यासन अर्थात् जन्तु, स्त्री पशु और नपुंसकों से रहित शून्यागार आदि स्थानों में आसन लगाना - बैठना, शय्या - सोना अथवा ठहरना और कायक्लेश अर्थात् मात्र जल और भात आदि का भोजन कर शरीर को क्लेश पहुँचाना, अथवा आतापनादि योग धारण करना ये छह बाह्य तप हैं। ये तप बाह्य भोजन आदि की अपेक्षा रखकर प्रवृत्त होते हैं, दूसरों के देखने में आते हैं अथवा अन्य मतमें पाषण्डि गृहस्थों के द्वारा भी किये जाते हैं इस लिये बाह्य तप कहलाते हैं । इस बाह्य तपसे कर्मोंका भस्म होना, इन्द्रियोंको ताप करना, संयम, रागका नाश, कर्मनाश, ध्यान आदि, आशाका निवृत्त होना, शरीर के तेजका ह्रास होन्स, ब्रह्मचर्य, दुःख सहन करने का अभ्यास होना, सुख में आसक्ति का न होना तथा आगम की प्रभावना होना आदि फलकी प्राप्ति होती है । अब छह प्रकारके अभ्यन्तर तपका वर्णन करते हैं चूं कि यह तप अन्य मतावलम्बियों के अशक्य है, स्वसंवेदन से ही इसका अनुभव होता है, और बाह्य पदार्थों की इसमें अपेक्षा नहीं रहती, इसलिये यह अन्तरङ्ग तप कहलाता है । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्गं और ध्यान ये छह अन्तरङ्ग तपके भेद हैं। इनमें प्रायश्चित्त के नौ, विनय के चार, वैयावृत्य के दश, स्वाध्याय के पाँच, व्युत्सर्ग के दो और ध्यानके चार भेद हैं। छह बाह्य और छह अभ्यन्तर दोनों मिलाकर बारह प्रकारका तप है। १. इति क प्रती केनापि संशोधितं । For Personal & Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ७८ ] भावप्राभृतम् वित, चतुर्विधो विनयः, दशविधं वैयावृत्यं पंचविधः स्वाध्यायः, द्विविधो व्युत्सर्गः, चतुविधं ध्यानं चेति षड्विधमभ्यन्तरं तप इति द्वादशविधं तपः । किं तन्नafai प्रायश्चित्तमिति चेत् ? गुरोरग्रे स्वप्रमादनिवेदनं दशदोषरहितमालोचनं । के ते दश दोषा आलोचनाया इति चेत् ? - 'आकंपिय अणुमणि जं दिट्ठ बाअरं च सुहमं च । छन्नं सद्दाउल बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ॥ १ ॥ पुरुषस्यैकान्ते द्वयाश्रयमालोचनं, स्त्रियास्तु प्रकाशे ध्याश्रयमालोचनं महदपि तपश्चरणमालोचनरहितं तत्प्रायश्चित्तमकुर्वतो वा अभीष्टफलदं न भवतीति ज्ञातव्यं । दोषमुच्चार्योच्चार्य मिथ्या में दुष्कृतमस्तु इत्येवमादिरभिप्रेतः प्रतीकारः प्रतिक्रमणं एतत्प्रतिक्रमणमाचार्यानुज्ञया शिष्येणैव कर्त्तव्यं । आलोचनं प्रदाय प्रति ४१५ प्रश्न - प्रायश्चित्त तपके नौ भेद कौन हैं ? उत्तर - आलोचना, प्रतिक्रमण तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापन ये प्रायश्चित्त के नौ भेद हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार है गुरु के आगे दश दोष रहित होकर अपना अपराध निवेदन करना आलोचना है । आकंपिअ - आकम्पित अनुमानित, दृष्ट, वादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन अव्यक्त और तत्सेवी ये आलोचना के दश दोष हैं । इनका विवेचन दर्शन प्राभृतकी गाथा ९ में किया जा चुका है। पुरुष को एकान्त दो जनों के समक्ष और स्त्रीको प्रकाश में तीन जनोंके समक्ष आलोचना करना चाहिये । आलोचना से रहित बहुत बड़ा भी तपश्चरण प्रायश्चित्त न करने वाले साधु को इष्ट फल नहीं देता है, ऐसा जानना चाहिये । दोष का बार-बार उच्चारण कर मेरा पाप मिथ्या हो इस प्रकार कह कर अपनी इच्छानुसार उसका प्रतिकार करना प्रतिक्रमण कहलाता है । यह प्रतिक्रमण आचार्य की आज्ञा से शिष्य को ही स्वयं करना चाहिये । जिसमें गुरुके लिये आलोचना देनेके बाद प्रतिक्रमण स्वयं शिष्यको करना पड़ता है वह तदुभय कहलाता है । जहाँ शुद्ध वस्तुमें भी अशुद्धपनेका संशय अथवा विपर्यय ज्ञान होता है अथवा अशुद्ध वस्तु में शुद्धपने का निश्चय होता है अथवा छोड़ी हुई वस्तु पात्र में आ जाती है अथवा मुख में पहुँच जाती है अथवा जिस वस्तु के ग्रहण करने पर कषायादिक १. अस्या गाथाया गर्यो दर्शन-प्राभृतस्य नवमगाथायां दृष्टव्यः । For Personal & Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ बटुप्राभूते [ ५.७८ क्रमणमार्येणैव कर्तव्यं तत्तदुभय मुच्यते । शुद्धस्याप्यशुद्धत्वे यत्र सन्देहविपर्ययो भवतः, अशुद्धस्य शुद्धत्वेन निश्चयो वा यत्र, प्रत्याख्यातं यत्तद्वस्तु भाजने मुखे वा प्राप्तं यस्मिन् वस्तुनि गृहीते कषायादिकमुत्पद्यते तस्य सर्वस्य त्यागो विवेकः । नियतकालकायवाङ्मनसां त्यागो व्युत्सर्गः । तपो बाह्य कथितमेव । दिनपक्षमासादिविभागेन दीक्षाहापनं छेदः । दिवसादिविभागेनैव दूरतः परिवर्जनं परिहारः । महाव्रतानां मूलच्छेदनं कृत्वा पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना । आचार्यमपृष्ट्वा आतापनादिकरणे पुस्तकपिच्छादिपरोपकरणग्रहणे परपरोक्षे प्रमादतः आचार्यादिवचना‍ करणे संघनाथमपृष्ट्वा स्वसंघगमने देशकालनियमेनावश्यकर्तव्यव्रत विशेषस्य धर्मकथादिव्यासंगेन विस्मरणे सति पुनः करणे अन्यत्रापि चैवंविधे आलोचनमेव प्रायश्चित्त ं । षडिन्द्रियवागादिदुष्परिणामे, आचार्यादिषु हस्तपादादिसंघट्टने व्रतसमिति विकार उत्पन्न होता है, उस सबका त्याग करना विवेक कहलाता है। किसी निश्चित समय तक शरीर वचन और मनका त्याग करना अर्थात् इनकी प्रवृत्ति को रोकना व्युत्सर्ग है । बाह्य तप ऊपर कहा ही जा चुका है । दिन पक्ष तथा मास आदि के विभाग से दीक्षा कम करना छेद है । दिन आदि के विभाग द्वारा अर्थात् किसी निश्चित अवधि तक के लिये दूर छोड़ना परिहार है । और महाव्रतों का मूलच्छेद करके फिर से नई दीक्षा देना उपस्थापना है । आचार्य से पूछे विना आतापन आदि योग धारण करना, बिना पूछे पुस्तक पीछी आदि दूसरों के उपकरण ग्रहण करना, दूसरे के परोक्ष में अर्थात् यदि कोई देखने वाला न हो ऐसी स्थिति में प्रमाद से आचार्य आदि के वचनों का पालन नहीं करना, संघके स्वामी से पूछे बिना अपने संघसे चला जाना, देश और कालके नियमानुसार अवश्य ही करने योग्य व्रत- विशेष का धर्म - कथा आदि में लग जानेसे भूलजाना तथा बाद में उसका करना, इन कार्योंमें तथा इसी प्रकारके अन्य कार्यों में भी आलोचना ही प्रायश्चित होता है । मन सहित स्पर्शनादि छह इन्द्रियों और वचन आदि की दुष्प्रवृत्ति होना, आचार्य आदि पूज्य जनोंको अपने हाथ तथा पाँव आदिका धक्का लग जाना, व्रत समिति और गुप्तियों में थोड़ा अतिचार लग जाना, चुगली तथा कलह आदि करना, वैयावृत्य और स्वाध्याय आदि में प्रमाद करना, आहार के लिये गये हुए साधुके लिङ्गका उठना तथा दूसरेको संक्लेश करने वाली प्रवृत्तका होना आदि कार्योंके समय प्रतिक्रमण नामका प्रायश्चित्त For Personal & Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.७८ ] ४१७ गुप्तिषु स्वल्पातिचारे, पैशुन्यकलहादिकरणे, वैयावृत्यस्वाध्यायादिप्रमादे, गोचरगतस्य लिंगोत्थाने, अन्यसंक्लेशकरणादौ च प्रतिक्रमणं प्रायश्चित्तं भवति । दिवसान्ते रात्र्यन्ते भोजनगमनादौ च प्रतिक्रमणं प्रायश्चित्तं । लोचनखच्छेदस्वप्नेन्द्रियातिचाररात्रिभोजनेषु पक्षमाससंवत्सरादिदोषादौ च उभयं आलोचनप्रतिक्रमणप्रायश्चित' 'मौनादिना [ मौनाद्विना ] लोचकरणे उदरकृमिनिर्गमे, हिममशकादिमहावातादि संघर्षातिचारे, स्निग्धभू हरित तृणपंकोपरिगमने, जानुमात्रजलप्रवेशकरणे, अन्य निमित्तवस्तुस्वोपयोगकरणे, नावादिनदीतरणे, पुस्तकप्रतिमापातने, पंचस्थावर वघाते, अदृष्टदेशतनुमलविसर्गादो, पक्षादिप्रतिक्रमणक्रियायां, अन्तर्व्याख्यानप्रवृत्त्यन्तादिषु कायोत्सर्ग एव प्रायश्चितं । उच्चारप्रस्रवणादौ च कायोत्सर्गः प्रसिद्ध एव । अनशनादिकरणस्थानमागमाद्वोद्धव्यं । नवविधप्रायश्चित्ते किं फलं ? भावप्रासादोऽनवस्था शल्याभावदाढर्घादिकं फलं वेदितव्यं । भावप्रामृतम् होता है । दिनके अन्तमें, रात्रिके अन्त में और भोजन तथा गमन के प्रारम्भ में भी प्रतिक्रमण नामक प्रायश्चित्त होता है । केशलोंच, नखच्छेद तथा स्वप्न में जननेन्द्रिय-सम्बन्धी अतिचार लगना स्वप्न में ही रात्रि भोजन करना, पक्ष, मास तथा वर्षं आदि के दोषों की समीक्षा के समय आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों ही प्रायश्चित्त होते हैं। बिना मौनके लोच करना, उदरसे कृमिका निकल आना, हिम, मच्छर आदि तथा तीव्र आंधी आदिके समय संघर्ष से अतिचार लगना, तेल तथा घी आदि से स्निग्ध भूमि, हरे तृण और कीचड़ पर चलना, घुटने मात्र गहरे जलमें प्रवेश करना दूसरे के निमित्त रखी हुई वस्तुका अपने आपके लिये उपयोग करना, नाव आदिके द्वारा नदी का पार करना, पुस्तक तथा प्रतिमा का नीचे गिर जाना पांच प्रकार के स्थावर जीवोंका घात होना, बिना देखे स्थान में शरीरका मल छोड़ना, पक्ष आदिके प्रतिक्रमण की क्रिया और व्याख्यान के प्रारम्भ तथा अन्त आदि के समय कायोत्सर्ग करना ही प्रायश्चित्त है । दीर्घ शङ्का तथा लघुशङ्का आदि के समय कायोत्सर्ग करना प्रसिद्ध ही है । अनशन आदि तपोंके करनेका स्थान आगम से जानना चाहिये । १. अनगारधर्मामृते तु मौनादिना विनालोचनकरणे । सर्वपुस्तकेषु ईदृगेव पाठः । २. संहर्षा म० क० । २७ For Personal & Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [५.७८ अनलसेन देशकालादिविशुद्धि विधानज्ञेन सबहुमानो यथाशक्ति क्रियमाणो मोक्षार्थं ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादि ज्ञानविनयः । तत्वश्रद्धाने निःशंकितत्वादिर्दर्शनविनयः । ज्ञानदर्शनवतो 'दुश्चरचरणे तद्वति च ज्ञानेऽतिभक्तिर्भावतश्चरणानुष्ठानं चरणविनयः । प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष्वभ्युत्थानवन्दनानुगमनादिरात्मानुरूपः परोक्षेष्वपि तेष्वञ्जलिक्रियागुणकीर्तनस्मरणानुज्ञानुष्ठायित्वादिश्च कायवाङ, मनोभिरुपचारविनयः । विनयस्य कि फलं ? ज्ञानलाभः आचारशुद्धिः सम्यगाराधनादिश्च विनयस्य फलं वेदितव्यं । इति चतुर्विधो विनयः । ४१८ प्रश्न - नो प्रकार के प्रायश्चित्त का क्या फल है ? उत्तर - भावोंकी निर्मलता, अनवस्था, अस्थिता और शल्यका अभाव तथा दृढ़ता आदि प्रायश्चित्त का फल जानना चाहिये । विनय तपके चार भेद हैं-१ ज्ञान विनय, २ दर्शन विनय, ३ चारित्र विनय और ४ उपचार विनय । इनका स्वरूप इस प्रकार है देश काल आदि की शुद्धि विधान को जानने वाला मुनि - आलस्य रहित हो मोक्ष की प्राप्तिके लिये बहुत सन्मान के साथ शक्ति अनुसार जो ज्ञानका ग्रहण, अभ्यास तथा स्मरण आदि करता है वह ज्ञान - विनय है । तत्व श्रद्धान में निःशङ्कित आदि गुणों की प्रवृत्ति होना दर्शन - विनय है। ज्ञान और दर्शनसे युक्त मुनिका अतिशय कठिन चारित्र तथा चारित्र युक्त ज्ञान में अतिशय भक्ति होना और भाव-पूर्वक चारित्र का पालन करना चारित्र विनय है । आचार्य आदि के प्रत्यक्ष होनेपर आते समय उठकर खड़े होना, वन्दना करना और जाते समय पीछे चलकर पहुँचा देना तथा उनके परोक्ष में भी हाथ जोड़ना, गुणोंका कीर्तन करना, स्मरण करना और काय वचन तथा मनसे उनकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करना उपचार विनय है । प्रश्न - विनय तपका क्या फल है ? उत्तर—ज्ञान, लाभ, आचार, शुद्धि तथा समीचीनं आराधना आदि की प्राप्ति होना विनय तपका फल है । इसप्रकार चार तरह की विनय का वर्णन हुआ । आगे दश प्रकार की वैयावृत्य का वर्णन करते हैं— A १ आचार्य का वैयावृत्य, २ उपाध्याय का वैयावृत्यं, ३ महोपवास आदिके करने वाले तपस्वी का वैयावृत्य, ४ शास्त्र का अभ्यास करनेवाले १. दुश्चरणे म० । For Personal & Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.७८ ] भावप्राभृतम् ४१९ दशविधं वैयावृत्यं । तथा हि । आचार्यस्य वैयावृत्यं, उपाध्यायस्य वैयावृत्यं, महोपवासाद्यनुष्ठायितपस्विनो वैयावृत्यं शास्त्राभ्यासी शैक्ष्यस्तस्य वैयावृत्यं, रुजादिक्लिष्टशरीरो ग्लानस्तस्य वैयावृत्यं स्थविरसन्ततिर्गणस्तस्य वैयावृत्यं दीक्षाका - चार्य शिष्यसंघः कुलं तस्य वैयावृत्यं, ऋषिमुनियत्यनगारनिवहः संघः, अथवा ऋष्यायिका श्रावकश्राविकानिवहः संघस्तस्य वैयावृत्यं चिरप्रव्रजितः साधुस्तस्य वैयावृत्यं, विद्वत्तावक्तृत्वादिलोकसम्म तोऽसंयतसम्यग्दृष्टिर्वा मनोज्ञस्तस्य वैयावृत्यं । कि तद्वैयावृत्यं ? एतेषां दशविधानामाचार्यादीनां व्याधिपरीषहमिथ्यात्वादेः प्रासुकोष भक्तादिप्रतिश्रयसंस्तरादिभिघं मपकरणैः सम्यक्त्वप्रतिस्थापनं च प्रतीकारो वैयावृत्यं बाह्यद्रव्याभावे स्वकाये ( न ) श्लेष्माद्यन्तर्म लापकर्षणादिस्तदानुकूल्यानुष्ठानं च वैयावृत्यं । वैयावृत्यकरणे किं फलं ? समाधानं ( ' समाध्याधानं ) । " शैक्ष्यका वैयावृत्य ५ रोग आदि से जिनका शरीर क्लिष्ट हो रहा है ऐसे ग्लान मुनियों का वैयावृत्य, ६ वृद्धमुनियों की सन्तति-रूप गणका वैयावृत्य, ७ दीक्षा देने वाले आचार्य के शिष्य समूह रूप कुल का वैयावृत्य, ८ ऋषि यति मुनि और अनगार इन चार प्रकार के मुनियोंके समूह रूप संघका अथवा मुनि आर्यिका श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघका वैयावृत्य, ९ चिरकाल के दीक्षित साधुका वैयावृत्य और १० विद्वत्ता तथा वक्तृत्व कला आदि के कारण लोकप्रियताको प्राप्त मनोज्ञ साधुका अथवा उक्त गुण - विशिष्ट असंयत सम्यग्दृष्टि का वैयावृत्य करना सो दश प्रकार का वैयावृत्य है । इन आचार्य आदि दश प्रकारके मुनियों को व्याधि, परीषह अथवा मिथ्यात्व आदिका प्रसङ्ग उपस्थित होनेपर प्रांसुक औषध, आहार आदि, रहने के लिये उपाश्रय तथा संस्तर आदि धर्म के उपकरणों से उनकी व्याधि आदिकां प्रतीकार करना और उन्हें सम्यक्त्व में फिरसे स्थित करना वैयावृत्य कहलाता है । बाह्य पदार्थ के न होनेपर अपने हाथ आदि शरीर पर ही उन्हें थुका देना, हाथ से हो कफ आदि भीतरी मलका निकालना आदि तथा उनके अनुकूल चेष्टा करना वैयावृत्य है । वैयावृत्य करनेसे समाधान स्वस्थता रूप फल की प्राप्ति होती है । अब पाँच प्रकारके स्वाध्याय का वर्णन करते हैंस्वाध्यायके पहले भेदका नाम वाचना है जिसका अर्थ होता है १. समाध्याधान विचिकित्साभावप्रवचनवात्सल्याद्यभिव्यक्त्यर्थं तत्वार्थराजवार्तिके अ० ९ सू० २४ ॥ For Personal & Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्रामृते [५ ७८वाचना, संशयच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा ग्रन्थार्थोभयस्य परं प्रत्यनुयोगः । आत्मोन्नतिपरातिसन्धानोसहसादिवजितः प्रच्छना । अधिगतार्थस्यकाप्रयेग मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा। घोषशुद्धं परिवर्तनमाम्नायः । दृष्टादृष्टप्रयोजनानपेक्षमन्मार्गनिवर्तनसन्देहच्छेदापूर्वार्थप्रकाशनाद्यर्थो धर्मकथानुष्ठानं धर्मोपदेशः । पंचविधस्य स्वाध्यायस्य किं फलं ? प्रज्ञातिशयप्रशस्ताध्यवसायप्रवचनस्थितिसंशयोच्छेदपरवादिशंकाद्यभावसंवेगतावृद्धचतिचारविशुद्धघाद्यर्थः पंचविधः स्वाध्यायः । नियतकालो यावज्जीवंवाका यस्याममत्वत्यागोऽभ्यन्तरोपधिव्युत्सगे. बाह्यस्त्वनेकप्रायो व्युत्सर्गः । निःसंगत्वनिर्भयत्वजीविताशाव्युदासदोषोच्छेदमोक्षमार्गभावनापरत्वादि व्युत्सर्गफलम् । अथ ध्यानं नाम द्वादशं तप उच्यते तदमिदं सूत्रमुमास्वामिभिः कृतं- . "उत्तमसंहनस्यकाग्रचिन्तानिरोषो ध्यानमान्तमुहूर्तात् ॥" ... निर्देषि ग्रन्थ अर्थ और प्रन्थ अर्थ दोनोंका प्रतिपादन करना । दूसरा भेद प्रच्छना है-संशय को नष्ट करने तथा निश्चित अर्थ को सुदृढ़ करने के लिये दूसरों से ग्रन्थ अर्थ अथवा दोनोंका पूछना सो प्रच्छना नामका स्वाध्याय है। पूछते समय आत्म-प्रशंसा, पर-प्रतारणा अथवा उपहास आदि का अभिप्राय नहीं होना चाहिये। तीसरा भेद अनुप्रेक्षा है-जाने हुए पदार्थ का एकाग्रता पूर्वक मनसे अभ्यास करना सो अनुप्रेक्षा नामका स्वाध्याय है । चौथा भेद आम्नाय है-उच्चारण की शुद्धतापूर्वक श्लोक आदिका पाठ करना आम्नाय है । पांचवां भेद धर्मोपदेश है-दृष्ट अथवा अदृष्ट-प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रयोजनको अपेक्षा न रखकर उन्मार्गको निवृत्ति, सन्देह का छेद तथा अपूर्व अर्थ को प्रकाशित करने आदिके उद्देश्यसे धर्मकथा का करना धर्मोपदेश नामका स्वाध्याय है । प्रश्न-पांच प्रकार के स्वाध्याय का क्या फल है ? उत्तर-बुद्धिका अतिशय, प्रशस्त निश्चय, आगम की स्थिति, संशय का उच्छेद, परवादियों की शङ्का आदिका अभाव संवेगता की वृद्धि तथा अतिचारों की विशद्धि आदि के लिये पांच प्रकार का स्वाध्याय किया जाता है। __ आगे व्युत्सर्ग तप का वर्णन करते हैं नियत काल अथवा जीवन पर्यन्त के लिये शरीर का त्याग करना अभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग है। बाह्योपधि व्युत्सर्ग के अनेक भेद हैं । निःसअता-निष्परिग्रहता, जीवित रहने की आशा का त्याग, दोषोंका उच्छेद और मोक्षमार्ग को भावना में तत्पर रहना आदि व्युत्सर्ग तपका फल है। For Personal & Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.७८ ] भावप्राभृतम् ४२१ अस्यायमर्थः — वज्र ऋषभनाराचसंहननं, वज्रनाराच संहननं नाराचसंहननं संहननत्रयमुत्तमं संहनन मोक्षादिकारणत्वात् । प्रथमं संहननं मोक्ष्यस्य हेतुः । घ्यानस्य हेतुस्त्रितयमपि भवति । अर्धनाराचस्य की लिकाया असंप्राप्तास्पाटिकायाश्च संहननत्रयस्यान्तर्मुहूर्तकालं यावच्चिन्तानि रोघधारणायामसमर्थत्वात् । गमनभोजनादिक्रियाविशेषेष्वनियमेन प्रवर्तमानस्यात्मन एकस्याः क्रियायाः कर्तृ वेनावस्थानं निरोधः - क्रियान्तरव्यवधानाभावेन एकक्रियायाः सातत्येन प्रवृत्तिनिरोध इत्यर्थः । एका एकार्थे एकस्मिन्नग्र प्रधाने वा वस्तुनि चिन्तानिरोधः -- एकस्मिन् द्रव्ये पर्याये तदुभयात्मके स्थूले सूक्ष्मे वा चिन्तानिरोध इत्यर्थः । अथवा सद्ध्यान अग्र मुखं, एकमग्र यस्य स एकाग्रः स चासो चिन्तानिरोधश्चैकाग्रचिन्तानिरोधः । एकस्मिन्नर्थे वर्तमानचिन्तानिरोधः एकमुखः सद्ध्यानं, अनेकत्राक्षसूत्रादी अनेकमुखः आगे ध्यान नामक बारहवें तपका वर्णन किया जाता है। उसके लिये उमास्वामी महाराज ने इस सूत्र की रचना की है -- 'उत्तम संहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तमुहूर्तात् ' - - इसका अर्थ है--उत्तम संहनन वाले जीवका किसी एक पदार्थ में अन्तर्मुहूर्त के लिये चिन्ता का रुक जाना ध्यान कहलाता है। वज्रर्षभ-नाराच संहनन, वज्रनाराच संहनन और नाराच संहनन, ये तीन संहनन उत्तम संहनन हैं क्योंकि ये मोक्ष आदि की प्राप्ति के कारण हैं । इनमें से प्रथम संहनन मोक्षका कारण है किन्तु ध्यान के कारण तीनों संहनन हैं । अर्ध नाराच, कीलिका और असंप्राप्तासृपाटिका इन तीन संहननों में अन्तर्मुहूर्त तक चिन्ता के निरोध करनेकी सामर्थ्य नहीं है । गमन, भोजन आदि क्रिया विशेषोविभिन्न विभिन्न क्रियाओं में अनियम पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले आत्मा का किसी एक क्रिया का कर्ता रखना निरोध कहलाता है । अर्थात् बीच में दूसरी क्रिया का व्यवधान न कर एक क्रिया का ही निरन्तर प्रवृत्ति करना निरोध है । एकाग्र अर्थात् एक पदार्थ में अथवा किसी एक प्रधान वस्तु में चिन्ताका निरोध करना -- एक द्रव्य, एक पर्याय अथवा दोनों रूप स्थूल और सूक्ष्म पदार्थ में चिन्ता का निरोध करना एकाग्र चिन्ता निरोध कहलाता है । अथवा ध्यान सद् रूप है, अग्र का अर्थ मुख है । एक है अग्र जिसमें उसे एकाग्र कहते हैं और जो एकाग्र है वहीं चिन्ता निरोध है, इस तरह एकाग्र और चिन्ता निरोधका विशेष्य विशेषण अथवा कर्मधारय समास करना चाहिये । इस पक्ष में एकाग्र चिन्ता निरोध का अर्थ एक मुख चिन्ता निरोध होता है । एक पदार्थ में वर्तमान चिन्ताका निरोष हो जाना एक मुख चिन्ता -निरोध है । यही सद्ध्यान अर्थात् समीचीन For Personal & Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ षट्प्राभृते - [-५.७८ सयानं न भवति । 'यथा प्रदीपशिखा अनिराबाधेन, परिस्पन्दत तथाऽनिराकुलतायां ध्यान न स्यात् । गुप्तिसामतिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रादिक यत्संवरकारणं तदेव ध्यानकारणमिति ज्ञातव्यं । आन्तुर्मुहूर्तात् मुहूर्तमध्ये ध्यान भवति । न चाधिकः कालो ध्यानस्यास्ति, कस्मात् ? चिन्तानां दुर्धरत्वात् अतिचपलत्वाच्च । एतावत्यपि काले ज्वलदचलं ध्यानं कर्मध्वंसाय भवति प्रलयकालमारुतवत् समुद्रजलशोषणवत् । तदधानं हेयमुनादेय च । तत्र हेयमातं रौद्रं च । उपादेयं धम्यं शुक्लं च । ऋतौ दुःखे भवमात । रुद्रः क्रू राशयः प्राणी तत्कर्म रौद्रं । धर्मो वस्तुस्वरूपं तस्मादनपेतं आश्रितं धयं । मलरहितात्मपरिणामोद्भवं शुक्लं । तत्र धयं शुक्लं च द्वयं मोक्षकारणं । संसारकारणमन्यवयमातरौद्रमिति ज्ञातव्यं । आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारो वारं वारं चिन्तनं । मनोज्ञस्य विपरीतं चिन्तनं तद्विपरीतं । वेदनाचिन्तनं । निदानस्य चिन्तनं । हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रं ध्यानमुत्पद्यते । आतमविरतदेश ध्यान है । अनेक इन्द्रियों तथा अनेक शास्त्र आदि में जो ध्यान प्रवर्तमान रहता है, वह अनेक-मुख ध्यान कहलाता है अनेक मुखध्यान सद्ध्यान नहीं है । जिस प्रकार अनिरावाध अर्थात् वायुके संचार सहित स्थान में दीपक की शिखा स्फुरित नहीं होती, उसी प्रकार अनिराकुलता अर्थात् आकुलित दशा में ध्यान नहीं होता। गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा परोषह-जय और चारित्र-आदि जो संवर के कारण हैं वे ही ध्यान के कारण, हैं ऐसा जानना चाहिये। आन्तमुहूर्तात् इस पदका अर्थ है कि ध्यान अन्तमुहूर्त के भीतर होता है। अन्तमुहूर्त से अधिक ध्यानका काल नहीं होता है क्योंकि चिन्ताएं अत्यन्त दुधर और अत्यन्त चपल होती हैं। परन्तु इतने थोड़े समयमें भी यदि अविचल ध्यान हो जाय तो वह कोके ध्वंस-क्षयका कारण होता है जैसे कि प्रलय कालकी वायु और समुद्र के जलको सुखाने वाली बड़वानल। वह ध्यान हेय भी है और उपादेय भी। आत्तं और रौद्र ध्यान हेय हैं तथा धर्म्य और शुक्लध्यान उपादेय हैं। ऋत का अर्थ दुःख होता है, दुःख में जो होता है वह आर्तध्यान है। रुद्र क्रूर परिणाम वाले जीवको कहते हैं उसका जो कर्म है वह रौद्रध्यान है । धर्मका अर्थ वस्तु स्वरूप है, वस्तु १. वीर्यविशेषात्प्रदीप शिखावत् ॥ ६॥ यथा प्रदीपशिखा निराधाधे प्रज्वलिता न परिस्पन्दते तथा निराकुले देशे, वीर्य विशेषादववध्यमाना चिन्ता विना व्याशेपेण । एकात्रणावनिष्ठते । त० पा० अ० ९ सूत्र २७ For Personal & Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.७८] भावप्रामृतम् विरतप्रमत्तसंयतेषु संभवति । रौद्रं अविरतदेशविरतेषु संभवति । आज्ञापायविपाक संस्थानविचयैषम्यध्यानमुत्पद्यते । तत्पूर्वविदो मुनेः श्रेण्यारोहणात्पूर्व भवति । श्रेष्योरपूर्वकरणायुपशान्तान्तानां प्रथमं शुक्लं भवति । क्षीणकषायस्य द्वितीयं शुक्लं । तृतीयं शुक्ल चतुर्थ च शुक्लं केवलिनां भवति । तत्र संयोगस्य तृतीयं चतुर्थमयोगस्येति । पृथक्त्ववितकवीचारं प्रथमं शुक्ल । एकत्ववितर्कावीचारं द्वितीयं शुक्लं । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिनामकं तृतीयं शुक्लं । व्युपरतक्रियानिवर्तिनामधेयं चतुर्थ शुक्लं । तत्र पृथक्त्ववितर्कवीचारं त्रियोगस्य भवति मनोवाक्कायावष्टस्भरात्मप्रदेशपरिष्पन्दान् त्रीन् योगानवलम्ब्य अवष्टभ्यं उत्पद्यते इत्यर्थः । एकत्ववितर्कावीचारं त्रिषु योगेषु मध्ये एकस्य चलनद्वारेणात्मपरिस्पन्दे सति समुत्पद्यत इत्यर्थः । काययोगस्य केवलिनः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लं भवति । अत्र कायावष्टम्भेनैवात्मनश्चलनं । अयोगकेवलिनों व्युपरतक्रियानिवति शुक्लध्यानं यतोऽत्र स्वरूपसे सहित जो ध्यान है वह धय॑ध्यान है। आत्माके निर्मल परिणामों से जो उत्पन्न होता है वद शुक्लध्यान है। इनमें धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान ये दो ध्यान मोक्षके कारण हैं और शेष दो आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान संसार के कारण हैं। आर्तध्यान के चार. भेद हैं-१. अमनोज्ञ-संप्रयोग, २. मनोजविप्रयोग, ३. वेदना चिन्तन और ४. निदान चिन्तन । अमनोज्ञ अर्थात् अनिष्ट पदार्थका संयोग होनेपर उसके वियोग के लिये बार बार विचार करना अमनोज्ञ-संप्रयोग नामका आतध्यान है। मनोज्ञ अर्थात् इष्ट पदार्थ का वियोग होनेपर उसके संयोगके लिये वार वार विचार करना मनोज्ञ विप्रयोग नामका आत्तध्यान है। रोगादि की वेदना होने पर वार वार उसीका चिन्तन करना वेदना-चिन्तन नामका आर्तध्यान है और आगामी भोगोंकी आकांक्षा करना निदान चिन्तन नामका आर्तध्यान है। हिंसा'झूठ चोरी और विषय सामग्री (परिग्रह ) के संरक्षण से रौद्रध्यान होता है। इसके भी १. हिंसानन्द, २. मृषानन्द, ३. चौर्यानन्द और ४. विषय संरक्षणनन्द (परिग्रहानन्द ) के भेद से ४ भेद हैं । इनका स्वरूप नामसे ही स्पष्ट है। आर्तध्यान, अविरत अर्थात् पहले से चौथे गुणस्थान तक देशविरत, और प्रमत्तविरत गुणस्थानों में होता है परन्तु निदान नामका आर्तध्यान प्रमत्तविरत गुणस्थान में नहीं होता। रौद्रध्यान, अविरत और देश-विरत अर्थात् पहले से पांचवें गुणस्थान तक होता है। आज्ञाविचय, अपाय For Personal & Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ षट्प्राभूते [ ५.७८ कायाद्यवष्टम्भेनात्मप्रदेशचलनं न भवति । पृथक्त्ववितकंवीचारमेकत्ववितर्कवीचारं ध्यानद्वयं पूर्वेष्वघोतिन एव । वितर्कवीचारसहितं पूर्वं । द्वितीयं तु वीचाररहितं । वीचारः किं ? अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिवचारः परिवर्तनभित्यर्थः । अर्थसंक्रान्तिः का ? द्रव्यं विमुच्य पर्यायं गच्छति पर्यायं विहाय द्रव्यं समुपेतीत्यर्थसंक्रान्तिः । व्यञ्जनसंक्रान्तिः का ? एकं वचनं त्यक्त्वा वचनान्तरमवलम्बते तदपि त्यक्त्वाऽन्यद्ववचनमवलम्बते इति व्यञ्जनसंक्रान्तिः । योगसंक्रान्तिः का ? काययोगं त्यक्त्वा योगान्तरं गच्छति तदपि त्यक्त्वा काययोगं व्रजतीति योगसंक्रान्तिः । एवं श्रुतज्ञानेन वितर्क्यं समूह्य द्रव्यं तत्पर्याये पर्यायान् वित्तक्यं ततो द्रव्ये परिवर्तने वीचारे सति पृथक्त्वेन भेदेन अर्थपर्याययोवं चनयोगयोर्वा श्रुतज्ञानपर्यालोचनेन संक्रान्तिः पृथक्त्ववितर्कवीचारः शुक्लध्यानं भवति ! यद्यप्यर्थं व्यञ्जनादिसंक्रान्ति विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय से धर्म्यं ध्यान होता है और वह पूर्वके ज्ञाता मुनिके श्रेणी चढ़ने के पहले पहले तक होता है। दोनों श्रेणियों में अपूर्व करण से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक प्रथम शुक्लध्यान होता है । क्षीण कषाय गुणस्थानवर्ती 'मुनिके दूसरा शुक्लध्यान होता है । तीसरा और चौथा शुक्लध्यान केवलियों के होता है । उनमें से संयोग केवलो के तीसरा और अयोग केवली के चौथा शुक्लध्यान होता है । पृथक्त्व-वितर्क विचार पहला शुक्लध्यान है, एकत्व वितर्क अवीचार दूसरा शुक्लध्यान है, सूक्ष्म क्रिया-प्रतिपाति तीसरा शुक्लध्यान है और व्युपरत क्रिया निर्वात चोथा शुक्लध्यान है। उनमें से पृथक्त्व वितर्क विचार नामका शुक्लध्यान तीनों योग वाले जीवके होता है । मन वचन और कायके अवलम्बन से आत्मा के प्रदेशों में जो परिस्पन्द होते हैं उन्हें तीन योग कहते हैं । पृथक्त्व वितर्क विचार नामका शुक्लध्यान इन तीनों योगोंके अवलम्बन से उत्पन्न होता है । एकत्व - वितर्कअविचार नामका शुक्लध्यान तीन योगों में से किसी एक योग के कम्पन से आत्म प्रदेशों में परिस्पन्द होने पर उत्पन्न होता है । केवली भगवान् के जब मनोयोग और वचन योग नष्ट होकर जब मात्र कार्य योग रह जाता है तब उनके सूक्ष्म- क्रिया-प्रतिपाति नामका शुक्लध्यान होता है । इस ध्यान में मात्र काययोग के अवलम्बन से आत्माका परिस्पन्द होता है । अयोग केवली के व्युपरत क्रिया-निवर्त नामका शुक्लध्यान होता है क्योंकि यहाँ काययोग के अवलम्बन से भी आत्म- प्रदेशों में हलन चलन नहीं होता । पृथक्त्व वितर्क-विचार और एकत्व वितर्क अविचार For Personal & Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.७८] भावप्रामृतम् रूपतया चलनं वर्तते तथापि इदं ध्यान। कस्मात् ? एवंविधस्यैवास्य विवभितत्वात् । विजातीयानेकविकल्परहितस्य अर्थादिसंक्रमेण चिन्ताप्रबन्धस्यैव एतद्वचानत्वेनेष्टत्वात् । अथवा द्रव्यपर्यायात्मनो वस्तुन एकत्वात् सामान्यरूपतया व्यञ्जनस्य योगानां चैकीकरणादेकार्थचिन्तानिरोधोऽपि घटते । द्रव्यात्पर्यायं व्यञ्जनाव्यञ्जनान्तरं योगायोगान्तरं विहाय अन्यत्र चिन्तावृतो अनेकार्थता न द्रव्यादेः पर्यायादी प्रवृत्तौ । तथा श्रुतज्ञानेन एकार्थ वितर्कयन्नविचलितचित्तः प्रवृत्तः क्षीणकषाय एकत्ववितर्कवान् भवति । वाङमनोयोगं बादरकाययोगं च परिहाप्य सूक्ष्मकाययोगालम्बनोऽन्तर्मुहूर्तशेषायुर्वेद्यनामगोत्रः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिभाग्भवति । ये दो ध्यान पूर्वोके पाठीके ही होते हैं। पहला शुक्लध्यान वितर्क और विचार से सहित है किन्तु दूसरा शुक्लध्यान विचार से रहित है। प्रश्न-वीचार क्या है ? | उत्तर-अर्थ, व्यञ्जन और योगोंको संक्रान्ति अर्थात् परिवर्तन को वीचार कहते हैं। प्रश्न-अर्थ-संक्रान्ति क्या है ? . उत्तर-ध्यानस्थ जीव द्रव्य को छोड़कर पर्यायको प्राप्त होता है और पर्यायको छोड़कर अर्थको प्राप्त होता है, इस तरह अर्थके परिवर्तनको अर्थ-संक्रान्ति कहते हैं ।। प्रश्न-व्यञ्जन-संक्रान्ति क्या है ? उत्तर-एक वचन को छोड़कर दूसरे वचनका आलम्बन लेता है और दूसरे को छोड़कर अन्य वचनका आलम्बन लेता है, इस तरह शब्दों के परिवर्तन को व्यञ्जन-संक्रान्ति कहते हैं। प्रश्न-योग-संक्रान्ति क्या है ? काय योगको छोड़कर अन्य योगको प्राप्त होता है और उसे छोड़कर काय योगको प्राप्त होता है, इस तरह योगोंके परिवर्तन को योग-संक्रान्ति कहते हैं। . इस प्रकार श्रुतज्ञान के द्वारा किसी द्रव्यका विचार कर उसकी पर्यायोंका विचार करता है और पर्यायोंका विचार कर द्रव्यका विचार करता है इस तरह द्रव्यके परिवर्तन होनेसे विचार होता है और विचारके रहते हुए पृथक्त्व अर्थात् भेदके द्वारा अर्थ और पर्याय का तथा शब्द और १. यह कथन उत्कृष्टता की अपेक्षा है अन्यथा बारहवें गुणस्थान में जघन्य ज्ञान अष्ट-प्रवचन मातृका नहीं सिख हो सकेगा। For Personal & Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ . षट्प्रामृते - [५.७८यदा पुनरायुषोऽधिकं वेद्यावित्रितयं तदा दण्डकपाटादिकं चतुःसमयः कृत्वा पुनस्तावत्समयः समुपहृत्य समीकृतकर्मचतुष्टयः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं ध्यायति । ततोऽयोगिनः समुच्छिन्नक्रियानिवर्तिव्युपरतक्रियानिवर्तिपरनामकं ध्यानं भवति । तस्मिन् स्थाने स्थितस्य सर्वांनवनिरोधात् सर्वशेषकर्मविध्वंसनसमथं सम्पूर्ण यथाख्यातचारित्र साक्षान्मोक्षकारणं संजायते । अन्त्ये शुक्लध्यानद्वये चिन्तानिरोधाभा: वेऽपि ध्यानव्यवहारः ध्यानकार्यस्य, योगापहारस्य अघातिघातस्य चोपचारनिमित्तस्य सद्भावात् । तथा साक्षात्कृतसमस्तवस्तावहति न किंचिद्ध्येयमस्ति । ध्यानं तु तत्र असमानकर्मणां समानत्वकरणार्थ या चेष्टा, कर्मसाम्ये तत्क्षययोग्यसमया या अलोकिका मनीषा तदेव । सौख्यं मोहक्षयाज्ज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयाच्वात्मनो दर्शनं योगका श्रुतज्ञान के पर्यालोचन से परिवर्तन होता है इसलिये पहला भेद पृथक्त्व वितर्क विचार कहलाता है यद्यपि अर्थ और व्यञ्जन (शब्द) आदि की संक्रान्ति होनेके कारण चञ्चलता रहती है तथापि यह ध्यान माना जाता है क्योंकि इसी प्रकार की इस ध्यानमें विवक्षा होती है। विजातीय अनेक विकल्पों से रहित अर्थ आदिके संक्रमण से जो चिन्ता की सन्तति होती है, उस सबको एक ध्यान रूपसे माना गया है। अथवा द्रव्य और पर्यायात्मक वस्तुको एक वस्तु माना जाता है और सामान्य रूपसे व्यञ्जनों तथा योगोंमें भी एक-रूपता है, अतः व्यञ्जन अर्थ और योगोंका परिवर्तन होनेपर भी एकाग्र चिन्ता निरोध घटित हो जाता है। द्रव्यसे पर्याय को, व्यञ्जनसे व्यञ्जनान्तर को और योगसे योगान्तर छोड़कर यदि अन्य द्रव्य या उसको अन्य पर्यायों में चिन्ता प्रवृत्त होती है तो उसमें अनेक-रूपता होती है, न कि एक द्रव्यसे उसकी पर्याय में चिन्ताके प्रवृत्त होने में। उसी प्रकार (पृथक्त्व वितर्क विचार की तरह ) श्रुतज्ञान के द्वारा एक अर्थका चिन्तन करता हुआ क्षीण कषाय गुणस्थानवर्ती मुनि यदि उसी अर्थ पर अविचलित-चित्त रहता है तो वह एकत्व वितर्क नामक द्वितीय शुक्लध्यानका धारक होता है। [वचनयोग, मनोयोग और वादर काययोगको छोड़कर सूक्ष्म-काययोगका अवलम्बन करने वाले सयोग केवलो के जब आयु, वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रह जाती है तब वे सूक्ष्म क्रिया-प्रतिपाति नामक तृतीय शुक्लध्यानके धारक होते हैं। यदि कदाचित् वेदनीय आदि तीन कोंकी स्थिति आयु कम से अधिक शेष For Personal & Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.७८ ] भावप्रामृतम् ४२७ ज्ञानं च भवति । अन्तरायविनाशादनन्तवीर्य जीवस्य स्यात् । आयुकर्मविध्वंसना. चेतनस्य जन्ममरणाभावो भवति । नामकर्मनिर्मूलनानरस्यामूर्तत्वं जायते । नीचोच्चगोत्रविमासनात्कुलद्वयविनाशो भवति । वेदनीयकर्मनिमूलकाषं कषणात् जीवस्येन्द्रियोत्पन्नसुखाभावः संजायते। एकस्मिन्निष्टे वस्तुनि निश्चला मतिर्ध्यान । आरौिद्रधापेक्षया तु मतिश्चंचला अशुभा शुभा वा सा भावना कथ्यते, चित्तं चिन्तनं अनेकनययुक्तानुप्रेक्षणं ख्यापनं श्रुतज्ञानपदालोचनं वा कथ्यते न तु ध्यानं । रही हो तो चार समयों में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोक-पूरण समुद्घान की क्रिया करके और उतने ही समयों में आत्म-प्रदेशों को संकुचित कर पहले चारों अघातिया कर्मों की स्थिति बराबर करते हैं अर्थात् वेदनीय आदि तीन कर्मोकी स्थिति को घटा कर आयु कर्म की स्थिति के बराबर करते हैं पश्चात् सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाति नामक शुक्लध्यान के धारक बनते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाति नामका शुक्लध्यान तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में होता है । विहार या दिव्यध्वनि आदिके समय उनके कोई ध्यान नहीं होता।]. तदनन्तर अयोग केवली के ससुच्छिन्न-क्रिया-निवति नामक चौथा शुक्लध्यान जिसका दूसरा नाम व्युपरत-क्रिया-निवति भी है, होता है। उस ध्यान में स्थित अयोग केवली भगवान् के समस्त कर्मोंका आस्रव रुक जानेसे शेष समस्त कर्मोंके क्षय करने में समर्थ वह संपूर्ण यथा-ख्यात चारित्र होता है जो कि मोक्षका साक्षात् कारण होता है । अन्तिम दो शुक्लध्यानों में चिन्ता-निरोधका अभाव होनेपर भी ध्यानका व्यवहार होता है क्योंकि उनमें ध्यान का कार्य जो योगोंका अभाव और अघाति. कर्मोका क्षय है उसका सद्भाव पाया जाता है और यहो योगोंका अभाव तथा अघाति कर्मोंका क्षय उनके ध्यान व्यवहार में निमित्त भूत हैं। दूसरी बात यह है कि समस्त वस्तुओं को साक्षात् जानने वाले अर्हन्त भगवान् के कुछ ध्येय भी तो नहीं हैं उनके जो ध्यान कहा है वह असमान कर्मोको स्थिति में समानता करने के लिये जो चेष्टा है उस रूप है अथवा कर्मोकी स्थिति समान होनेपर उनके क्षयं करने के योग्य समय में होनेवाली जो अलौकिक मनोषा-ज्ञान की परिणति है, उस रूप है। अब किस कर्मके क्षयसे कौन गुण प्रकट होता है यह कहते हैं-मोहके क्षयसे जीवके सुख तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षय से ज्ञान और दर्शन गुण प्रकट होते हैं । अन्तराय के नाश से अनन्त वीर्य होता है। For Personal & Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨૮ षट्प्राभूते [५.७८ अत्र संहननलक्षणं यथा यदुदयादस्थिबन्धनविशेषस्तत्संहननं षट्प्रकारं । वज्रा - कारोभयास्थिमध्ये सवलयबन्धनं सनाराचं वज्रवृषभनाराचसंहननं । तदेव वलयरहितं वज्रनाराचसंहननं । वज्जाकारवलयव्यपेतं सनाराचं नाराचसंहननं । एकमस्थि सनाराचं अपरमनाराच अर्द्धनाराचसंहननं । उभयास्थिप्रान्ते सकीलकं कीलिकासंहननं । अन्तरप्राप्तपरस्परास्थिसन्धिबहिः शिरास्नायुमांसवेष्टितं असंप्राप्तासुपाटिकासंहननं चेति । अष्टसप्ततितम्यां गाथायां बारसविहतवयरणं इत्यस्य पादस्य व्याख्यान समाप्तं । तेरसकिरियाओ भावि तिविहेण त्रयोदशक्रिया भावय स्वं त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धया पंचनमस्काराः षडावश्य कानि, चैत्यालयमध्ये प्रविशता आयुकर्मके क्षय से जन्म मरण का अभाव होता है । नाम कर्मके नाश से अमूर्तिकपना उत्पन्न होता है । नीच गोत्र और उच्चगोत्र के क्षय से नोच तथा उच्च दोनों कुलोंका नाश होता है और वेदनीय कर्मका निर्मूल नाश होनेसे जीवके इन्द्रियजन्य सुखका अभाव होता है । किसी एक इष्ट वस्तु में जो बुद्धि स्थिर हो जाती है वही ध्यान कहलाती है । आत्तं, रौद्र और धर्म्य ध्यानकी अपेक्षा. जो जो अशुभ अथवा शुभ विकल्पको लिये हुए चञ्चल अस्थिर बुद्धि होती है वह भावना कहलाती है, उसीको चित्त, चिन्तन, अनेक नयोंसे युक्त अनुप्रेक्षण, ख्यापन अथवा श्रुतज्ञानके पदका आलोचन कहते हैं, न कि ध्यान । अब यहाँ संहननका लक्षण और उसके भेदोंका वर्णन करते हैंजिसके उदय से हड्डियों का बन्धन - विशेष होता है उसे संहनन नाम कर्म कहते हैं । इसके छह भेद हैं-१ वज्रषंभनाराच संहनन, २ वज्रनाराच संहनन, ३ नाराच संहनन, ४ अर्द्धनाराच संहनन, ५ कीलक संहनन और ६ अप्राप्त पाटिका संहनन । जिसमें वज्रके आकार दो हड्डियोंके बीच में aah ही वेष्टन हों और वज्रकी ही कीलें हों उसे वज्रर्षभ नाराच संहनन कहते हैं । जिसमें सिर्फ वज्रके वेष्टन न हो बाकी सब पूर्ववत् हो उसे वज्रनाराच संहनन कहते हैं । जो वज्राकार हड्डी और वज्राकार वेष्टन से रहित हो मात्र साधारण हड्डी कीलोंसे सहित हो उसे नाराच संहनन कहते हैं । जिसमें एक हड्डी कील से सहित हो और दूसरी कीलसे रहित हो उसे अर्द्धनाराच संहनन कहते हैं । जिसमें दोनों हड्डियों के अन्त में कीलें हों उसे कीलिका संहनन कहते हैं जिसमें हड्डियों की सन्धियाँ भीतर परस्पर एक दूसरे से न मिली हों सिर्फ बाह्यमें नसें ताँत अथवा मांस वेष्टित हो उसे असं प्राप्त - सुपाटिका संहनन कहते हैं। इस तरहसे अठ For Personal & Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५७८] भावप्राभृतम् ४२९ निसिही निसिही निसिही इति वारत्रयं हृद्युच्चायंत जिनप्रतिमावन्दनाभक्ति कृत्वा बहिनिर्गच्छता भव्यजीवेन असिही असिही असिही इति वारत्रयं हृद्युच्चार्यते इति त्रयोदशक्रिया हे भव्य ! त्वं भावय । तथा चोक्तं 'निःसंगोऽहं जिनानां सदनमनुपमं त्रिः परीत्येत्य भक्त्या स्थित्वा गत्वा निषिद्धयुच्चरणपरिणतोऽन्तः शनैर्हस्तयुग्मं । भाले संस्थाप्य बुद्धया मम दुरितहरं कीर्तये शक्रवन्द्यं निन्दादूरं सदाप्तं क्षयरहितममुं ज्ञानभानु जिनेन्द्रं ॥ १ ॥ अरे लोका दुरात्मानो ! यदि भवद्भिजिनप्रतिमा चैत्यालयश्च न मान्यते तदेदं वृत्तं पूज्यपादैजिनवन्दनाविधिः कथमुक्तः । तेन दुराग्रहं विमुच्यास्तिकत्वं भावनीयं भवद्भिः । अथवा पंचमहाव्रतानि पंचसमितयस्तिस्रो गुप्तयश्चेति त्रयोदशक्रियास्त्रयोदशविधं चारित्रं हे भव्यवरपुण्डरीकमुने ! त्वं भावय । ( धरहि - हत्तरवी गाथा में 'बारस विहतवयरणं' इस पदका व्याख्यान हुआ । अब 'तेरस किरियाओ भावि तिविहेण' इस पदका व्याख्यान करते हैं । हे भव्य ! तू तेरह प्रकार की क्रियाओं की मन वचन काय से भावना कर । पञ्चपरमेष्ठियोंके पाँच नमस्कार, समता, वन्दना आदि छह आवश्यक चैत्यालय के भीतर प्रवेश करते समय 'निसिही निसिही, निसिही' इस प्रकार तीन वार उच्चारण करना और जिन प्रतिमाकी वन्दना तथा भक्ति आदि करके बाहर निकलते हुए जीवनके द्वारा 'असिही असिही असिही' इस प्रकार तीन बार कहना ये तेरह क्रिया हैं । हे भव्य ! तू इनका चिन्तन कर । जैसा कि कहा गया है निःसंगोऽहं- मैं निःस्पृह हो अनुपम जिनेन्द्र मन्दिर को जाता हूँ, वहाँ भक्ति पूर्वक तीन प्रदक्षिणाएँ देकर तथा निसिही-निसिही निसिही इस प्रकार तीन बार उच्चारण करता हुआ मन्दिरके भीतर प्रवेश करता हूँ, पश्चात् दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर रख अपने पापको हरने वाले उन जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करता हूं जो इन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय हैं, निन्दासे दूर हैं, सत्पुरुषों के द्वारा शरण्य बुद्धि से प्राप्त हैं, क्षयसे रहित हैं और ज्ञान के सूर्य हैं । अरे दुरात्माओं लौंक जनो ! यदि आप लोग जिन प्रतिमा और जिन चैत्यालयों को नहीं मानते हो तो पूज्यपादाचार्य ने जिन-वन्दना को उक्त विधि क्यों कही ? इसलिये आप लोगों को दुराग्रह छोडकर आस्तिक १. ईर्यायशुद्धी । For Personal & Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० षट्प्राभृते [५. ७९मणमत्तदुरयं) विषयकषायान् गच्छन्तं मनोमत्तदुरियं मत्तगजं त्वं धर रक्ष । (णाणंकुसएण मुनिपवर) ज्ञानाङ्कशेन निष्ठुरमस्तकप्रहारेण हे मुनिप्रवर ! महामुनिमतल्लिक ! इति शेषः । पंचविहचेलचायं खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू । । भावं भाविय पुव्वं जिलिंगं 'णिम्मलं सुद्ध॥७९॥ पञ्चविधचेलत्यागं क्षितिशयनं द्विविधसयमं भिक्षो!। ... भावं भावयित्वा पूर्व जिनलिंगं निर्मलं शुद्धम् ॥७९॥ (पंचविहचेलचायं ) पंचविधानि पंचप्रकाराणि चेलानि वस्त्राणि तेषां त्यागः परिहारो यस्मिन् जिनलिंगे जिनमुद्रायां तत्पंचविधचेलत्यागं । उक्तं च गौतमेन गणिना प्रतिक्रमणसूत्रे "अंडजं वा कोशजं तसरिचोरं ( १ ) वोडजं वा कर्पासवस्त्रं (२) रोमजं वा ऊर्णामयं वस्त्रं एडकोष्ट्रादिरोमवस्त्रं ( ३ ) वक्कजं वा वल्क वृक्षादित्वग्भंगादिछल्लिवस्त्रं तटटाविकं चापि ( ४ ) धर्मजं वा मृगचर्मव्याघ्रचर्मचित्रकचर्मगजचर्मादिकं न परिधानीयं ( ५)" . भावकी भावना करना चाहिये । अथवा पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तियां ये तेरह प्रकारकी क्रियाएँ हैं। यही तेरह प्रकार का सम्यक्चारित्र है सो हे भव्य पुरुष हो! तुम इसकी भावना करो। विषय कषाय की ओर जाते हुए मन रूपी मत्त हाथीको तुम ज्ञान रूपी अंकुश से वश करो ॥७॥ गाथार्य-जिसमें पांच प्रकारके वस्त्रोंका त्याग किया जाता है, पृथिवी पर शयन किया जाता है, दो प्रकारका संयम धारण किया जाता है, भिक्षा-भोजन किया जाता है, भावकी पहले भावना की जाती है तथा शुद्ध-निर्दोष प्रवृत्ति की जाती है वही जिनलिङ्ग निर्मल कहा जाता है ॥७९॥ विशेषार्थ-प्रतिक्रमण सूत्रमें गौतम गणधरके कहे अनुसार वस्त्र पांच प्रकारके होते हैं-१ अण्डजकोशा तथा रेशमी वस्त्र, २. बोंडजसूती वस्त्र, ३. रोमज-भेड़ तथा ऊँट आदि के रोमोंसे उत्पन्न ऊनी वस्त्र, ४. वल्कज-वृक्ष आदि की त्वचा अथवा छाल आदिसे उत्पन्न फट्टी आदि और ५. चर्मज-मगचर्म, व्याघ्रचर्म, चित्रकचर्म तथा गजचर्म आदि । १. उत्तम । For Personal & Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ —५. ७९ ] भावप्राभृतम् (खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू ) क्षितिशयनं भूमिशयनं तृणकाष्ठशिलास्थंडिलशयनं, द्विविधः संयमो यस्मिन् जिनलगे तद्विविधसंयमं । इंद्रियसंयमः पंचेंद्रियसंकोचो मनःसंकोचश्चेति षड्विधः संयमः प्राणसंयमः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिलक्षणपंचस्थावररक्षणं द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियचतुःप्रकारत्रसजीवरक्षणलक्षणः षड्विधः प्राणसंयमः । भिक्खू हे भिक्षो ! अहो तपस्विन् ! अथवा भिक्षाभोजनं कुर्वन् उद्दण्डचर्यायां पर्यटन् भिक्षुजिनलिंगमुच्यते । सा भिक्षा पंचविधा - ४३१ जिन लिङ्ग में उक्त पाँचों प्रकारके वस्त्रोंका तथा उपलक्षण से अन्य किसी भी प्रकार के वस्त्रोंका त्याग होता है । भूमि, तृण, काष्ठ, शिला तथा चबूतरा आदि पर शयन किया जाता है, इन्द्रिय-संयम और प्राण - संयम के भेद से दो प्रकार के संयम का पालन किया जाता है । पाँच इन्द्रियों और मनका संकोच करना छह प्रकार का इन्द्रिय संयम है तथा पृथिवी कायिक, जल कायिक, अग्नि कायिक, वायुकायिक, वनस्पति कायिक पाँच स्थावरों और द्वीन्द्रियादि त्रस जीवोंकी रक्षा करना छह प्रकार का प्राण संयम है । भिक्खू पद सम्बोधनान्त है इसलिये हे भिक्षो ! हे तपस्विन् ऐसा अर्थ करना चाहिये । अथवा प्रथमान्त मानकर ऐसा अर्थ करना चाहिये कि जिसमें भिक्षु उद्दण्डचर्या से भ्रमण करता हुआ भिक्षा भोजन करता है । वह भिक्षा पाँच प्रकार की होती है- १ अक्षम्रक्षण, २ गर्त पूरण, ३ भ्रामरी, ४ गोचरी और ५ उदराग्नि विध्यापन | इनका स्वरूप इस प्रकार है जिस प्रकार कोई वैश्य रत्न आदि से भरी हुई गाड़ी को किसी प्रकार की चिकनाई से ओंग कर उसे अपने इष्ट स्थान तक ले जाता है उसी प्रकार मुनि सम्यग्दर्शनादि रत्नों से भरी हुई शरीर रूपी गाड़ीको सरस अथवा नीरस आहार से स्वस्थ कर मोक्ष स्थान तक ले जाता है। इस वृत्तिको अक्ष- प्रक्षण कहते हैं । जिस प्रकार गृहस्थ अपने मकान के भीतर के गर्तको किसी भी वस्तु से भरकर सम कर लेता है उसी प्रकार मुनि भी अपने उदर रूपी गर्तको सरस अथवा नीरस किसी भी प्रकार के शुद्ध आहार से भरकर सम कर लेते हैं, इस वृत्ति को गर्त पूरण वृत्ति कहते हैं । जिस प्रकार भ्रमर फूलों से रस लेता है परन्तु उन्हें किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाता, इसी प्रकार मुनि गृहस्थ दाताओंसे आहार लेता है परन्तु उन्हें किसी प्रकारकी पीड़ा नहीं पहुंचाता, इस वृत्तिको भ्रामरी - For Personal & Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ षट्प्राभृते [५.७९'अक्षम्रक्षणं, गर्तपूरणं, 'भ्रामरी, गोचरी, "उदराग्निविध्यापनं चेति । ( भावं भाविय पुव्वं ) भावं आत्मरूपं भावयित्वा जिनसम्यक्त्वं च भावयित्वा पर्व जिनलिंगं भवति । (जिलिंग णिम्मलं सुद्ध) जिनलिंगं नग्नरूपमहन्मुद्रामयूरपिच्छ वृत्ति कहते हैं। जिस प्रकार अलंकारों से अलंकृत स्त्री किसी गायको . घासका पूला डालनेके लिये जाती है तो गाय उस स्त्री की ओर न देखकर घासके पूला की ओर देखती है, इसी प्रकार मुनि आहार देने वाली स्त्रीके रूप आदिको अथवा गृहस्थों के महलों की साज-सजावट को न देखकर सिर्फ माहार की ओर देखते हैं, यह गोचरी वृत्ति है। जिस प्रकार मकानमें आग लगने पर गृहस्थ उसे खारे या मीठे किसी भी प्रकार के पानीसे बुझानेका प्रयत्न करता है, इसी प्रकारसे मुनि अपने १. स्निग्धेन केनविद्यदक्षलेपं विधाय भोः।. नयेद्देशान्तरं वैश्यः शकटीं रत्नपूरिताम् ॥१॥ गुणरत्लभृतां तद्वच्छरीरशकटीं मुनिः। .. स्वल्पाक्षम्रक्षणेनास्मात्प्रापयेच्छिवपत्तनम् ॥२॥ यथा स्वगेहमध्यस्थं गृही गत्तं प्रपूरयेत् । येन केनापि नीतेन कलवारेण नान्यथा ॥३॥ तथोदरगतं श्वनं पूरयेत्संयमी क्वचित् । यादा तादृक् विधानेन न च मिष्टाशतादिना ॥४॥ ३. भ्रमरोज यया पद्माद्गंधं गृह णाति तद्भवम् । घ्राणेन न मनाक्तस्य बाधां जनयति स्फुटम् ॥ ५॥ तथाहरति चाहारं दत्तं दातृजनयंतिः । न मनाक् पीडयेद् दातृन जात्वलाभाल्पलाभतः ॥६॥ ४. यथोपनीयमानं तृणादिकं दिव्ययोषिता । गौश्चाम्यवहरत्यत्र न तदनं निरीक्षते ॥ ७॥ तथालङ्कारधारिण्या दिव्यनायॉपढौकितम् । पिण्डं गृहाणाति सद्योगी तस्या रूपं न पश्यति ॥ ८॥ ५. समुत्थितं यथा वह्नि भाण्डागारे भृते वणिक् ।। रत्लायः शमयेच्छीघ्र शुच्यशच्यादिवारिणा ॥९॥ तयोस्थितं क्षुषावन्हिमुदरे शमयेद्यमी । सरसेतरभक्तेन दृगादिरत्नहेतवे ॥१०॥ मूलाधार प्राप्ती (क.टि.) For Personal & Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ७९ ] भावप्राभृतम् ४३३ कमण्डलुसहितं निर्मलं कथ्यते तद्वयरहितं लिंगं कश्मलमित्युच्यते । अन्यत्र तीर्थंकर - परमदेवात्तप्तद्धविना अवधिज्ञानादृते चेत्यर्थः, शुद्धं चमंजलतैलघृतभूतनाशनास्वादरहितमुद्दण्डचर्यमन्तरायमलरहितं शुद्धमित्यभिप्रायः । उदर में क्षुधाकी बाधा रूपी अग्नि लगने पर उसे सरस या नीरस किसी भी प्रकार के आहार से बुझानेका प्रयत्न करते हैं, इस वृत्तिको उदराग्निविध्यापन कहते हैं । भावका अर्थ आत्म-स्वरूप अथवा जिन सम्यक्त्व है । जिस लिङ्ग के धारण करने के पूर्व उक्त भाव की भावना की जाती है वह जिन-लिङ्ग निर्मल होता है । जिनलिङ्ग में नग्न रूप धारण किया जाता है पोछी और कमण्डलु साथ रखना पड़ता है, इसीको अर्हन्मुद्रा कहते हैं । जो नग्न रूप पोछी और कमण्डलु से रहित होता है, वह सदोष कहा जाता है । ' विशेषता यह है कि जिनके शरीर में मल-मूत्र की बाधा नहीं रहती ऐसे तीर्थंकर परम देव तप्त ऋद्धिके धारक मुनि और अवधि ज्ञानसे युक्त १. इस कथन का मूल आधार जयसेन प्रतिष्ठापाठका निम्नलिखित वाक्य मालूम होता है । 'अत्र कमण्डलु पिच्छिका दानं तीर्थंकरस्य शौचक्रियाजीवषातामावाच्च, न कतु प्रभवति, केवलं साधुत्वे उपयोगी, न तु प्रतिमायामर्हति चेत्याम्नायविदः । परन्तु इस वाक्य में प्रतिमा तथा अर्हन्त अवस्था में पिच्छी और कमण्डलु का निषेध किया है । साधु अवस्था में नहीं । तीर्थंकर के तथा तप्त ऋद्धि के धारक मुनिके यद्यपि मल-मूत्र की बाधा नहीं होती तथापि चर्या के अनन्तर बाह्य शुद्धि के लिये कमण्डलु की आवश्यकता रहती है । अवधि ज्ञानी मुनि सबके सब मल मूत्र से रहित नहीं ` होते, अतः उन्हें कमण्डलु आवश्यक है । और चरणानुयोग की प्रवृत्ति में अवधि ज्ञान का प्रयोग न होनेसे पिच्छी भी आवश्यक रहती है । पिच्छी का उपयोग विभिन्न प्रकारके मार्ग बदलने पर घूलि को मार्जन करने में भी होता है । ज्ञान केवल जीव जन्तुओंके दूर करनेमें । ' साथ ही भावसंग्रहका निम्न श्लोक भी विचारणीय है । मुनिको मयूर पिच्छका ग्रहण करना आवश्यक बतलाया है अवधि ज्ञान के बाद नहीं । पिच्छी कमण्डलु के सन्दर्भ में मुनि विद्यानन्द जी द्वारा लिखित पिच्छी, कमण्डलु नामक पुस्तक का दशव निबन्ध पिच्छि कमण्डलु देखना चाहिये ।' २८ For Personal & Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ षट्प्राभृते [५.८० जह रयणाणं पवरं वज्जं जह तरुगणाण गोसीरं । तह धम्माणं पवरं जिणधम्मं भावि भवमहणं ॥ ८०॥ यथा रत्नानां प्रवरं वज्र यथा तरुगणानां गोशीरम् । तथा धर्माणां प्रवरं जिनधर्मं भावय भवमथनम् ||८०|| ( जहरयणाणं पवरं ) तथा येन प्रकारेण रत्नानां मध्ये प्रवरं उत्तमं रत्नं किं 'वज्र' हीरकं षट्कोणं मौक्तिक गोमेदपुष्परागपुलक प्रवाल चन्द्रकान्तरविकान्त जलकान्तहंसगर्भमसारगर्भरुचकपद्मरागेन्द्रनीलमहा -- नीलनीलम रकतवैडूर्यलशुनकर्केतनेत्यादीनां रत्नानां मध्ये ( वज्जं ) वज्र हीरकं हि सर्वोत्तमं तस्य देवाधिष्ठितत्वात् । ( जह तरुगणाण गोसीरं ) तरुगणानां मध्ये यथा गोशीर्ष तैलपणिकं परमोत्तमचन्दनं प्रवरं । ( तह धम्माणं पवरं ) तथा धर्माणां मध्ये जिनधर्म प्रवरं । हे मुने ! त्वं ( भावि भवमहणं ) भावय रोचय भवमथनं संसारविच्छेदकम् । मुनियों को इनकी आवश्यकता नहीं रहती । जिन-लिङ्ग शुद्ध होता है और शुद्ध का अर्थ है चमड़े में रखे हुए जल तैल घी तथा हींग का जिसमें सेवन नहीं किया जाता, जिसमें उद्दण्डचर्या अर्थात् भिक्षावृत्तिसे भोजन किया जाता है । बत्तीस अन्तराय और चौदह मल रहित जिसमें भोजन किया जाता है || ७९|| गाथार्थ - जिस प्रकार रत्नों में हीरा और वृक्षों के समूह में चन्दन उत्कृष्ट है उसी प्रकार धर्मों में संसार को नष्ट करने वाला जिन-धर्म उत्कृष्ट है ॥८०॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार मौक्तिक, गोमेद, पुष्पराग, पुलक, प्रवाल, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, जलकान्त, हंसगर्भ, मसारगर्भ, रुचक, पद्मराग, इन्द्रनील, महानील, नोल, मरकत, वैड यं, लशुन और कर्केतन आदि रत्नों में षट्कोण होरक मणि सर्वोत्तम होता है क्योंकि देव उसे धारण करते हैं और वृक्षोंके समूह में जिस प्रकार गोशीर्ष नामका चन्दन सर्वोत्तम होता है उसी प्रकार सब धर्मों में जैन धर्म सर्वोत्तम धर्म है क्योंकि वह संसार को नष्ट करने वाला है। हे मुने ! तुम इसी जिन धर्म को भावना करो, उसी की रुचि श्रद्धा करो ||८०|| For Personal & Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३५ -५. ८१] भावप्राभृतम् ४३५ तं धम्म केदिसं हवदि तं तहास धर्मः कीदृशो भवति तद्यथा-तमेव निरूपयन्ति श्रीकुन्दकुन्दाचार्याःपूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहि सासणे भणियं । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ॥४१॥ __पूजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि जिनः शासने भणितम् । ... मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनो धर्मः ।।८।। (पूयादिसु वयसहियं ) पूजादिषु व्रतसहितं पूजा आदिर्येषां कर्मणां तानि पूजादीनि तेषु पूजादिषु व्रतसहितं श्रावकव्रतसहितं । ( पुण्णं हि जिणेहि सासणे भणियं ) पुण्यं स्वर्गसौख्यदायकं कर्म जिनस्तीर्थकरपरमदेवरपरकेवलिभिश्च हि स्फुट शासने आहतमते उपासकाध्ययननाम्न्यङ्ग भणित कर्तृतया प्रतिपादित-इदं कर्म करणीयमित्यादिष्टं । तथा चोक्तं जिनसेनपादः- . पुण्य जिनेन्द्रचरणाचनसाध्यमाचं पुण्यं सुपात्रगतदानसमुत्थमेतत् । पुण्यं व्रतानुचरणादुपवासयोगात् पुण्यार्थिनामिति चतुष्टयमर्जनीयम् ॥१॥ आगे वह धर्म कैसा है इसीका श्री कुन्दकुन्दाचार्य निरूपण करते हैं गाथार्य-पूजा आदि शुभ कार्यों में व्रत सहित प्रवृत्ति करना पुण्य है, ऐसा जिन-मत में जिनेन्द्रदेवने कहा है और मोह तथा क्षोभ से रहित आत्माका जो परिणाम है वह धर्म है ।।८१॥ विशेषार्थ-वीतराग जिनेन्द्रदेव की पूजा करना, निर्ग्रन्थ गुरु आदि सत्पात्रों के लिये दान देना तथा श्रावकों के व्रत पालन करना आदि शुभ कार्य पुण्य कहलाते हैं तथा स्वर्ग सुख के देनेवाले हैं, ऐसा तीर्थंकर परमदेव एवं अन्य केवलियों ने भी कहा है। जिनशासनके उपासकाध्ययन नामक अङ्गमें इस पुण्यको करना चाहिये, ऐसा आदेश दिया है । जैसा कि जिनसेन स्वामी ने कहा है पुण्यं --जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को पूजा से प्राप्त होने वाला पहला पुण्य है, सत्पात्र के लिये दिये हुए दानसे उत्पन्न होने वाला दूसरा पुण्य है, व्रतोंका पालन करने से उत्पन्न होनेवाला तीसरा पुण्य है तथा उपवास करने से होनेवाला चौथा पुण्य है पुण्यके अभिलाषी मनुष्यों को उक्त चार प्रकार के पुण्यका उपार्जन करना चाहिये । १. चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिहिट्ठो । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥ २. महापुराणे। For Personal & Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ षद्माभूते [५.८१तथा समन्तभद्रस्वाम्याचारप्यभिहितं-- 'देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिहरणं । कामदुहि कामादाहिनी परचिनुयादादृतो नित्य ॥१॥ अर्हच्चरणसपर्या महानुभावं महात्मनामवदत् ।। भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥२॥ यदीदं सर्वज्ञवीतरागपूजालक्षणं तीर्थकरनामगोत्रबन्धकारणं विशिष्ट निनिदानं पुण्यं पारम्पर्येण मोक्षकारणं गृहस्थानां श्रीमद्भिर्भणितं तहिं साक्षान्मोक्षहेतुभूतो धर्मः क इत्याह--( मोहक्खोहविहीणो ) ( परिणामो अप्पणो धम्मो ) मोहः पुत्रकलत्रमित्रधनादिषु ममेदमिति भावः, क्षोभः परीषहोपसर्गनिपाते चित्तस्य चलनं ताभ्यां विहीनो रहितः मोहक्षोभविहीन एवं गुणविशिष्ट आत्मनः शुद्धबुद्ध कस्व इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने भी कहा है देवाधिदेव-मनोरथों को पूर्ण करने वाले एवं कामको भस्म करने वाले देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को उपासना-पूजा वन्दना आदि समस्त दुःखों को दूर करने वाली है इसलिये श्रावक को बड़े आदर के साथ नित्य प्रति करना चाहिये ॥१॥ अर्हच्चरण-राजगृह नामक नगर में हर्ष से मत्त हुए मेण्डक ने महात्माओं के आगे अर्हन्त भगवान् के चरणों को पूजा का महान् फल प्रकट किया था ॥२॥ यदि तीर्थंकर नामकर्म के बन्धका कारण, एवं निदान-रहित यह सर्वज्ञ वीतराग देवकी पूजा रूप सातिशय पुण्य गृहस्थों के परम्परा से मोक्षका कारण है ऐसा आपने कहा है तो साक्षात् मोक्षका कारण भूत धर्म क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गाथा के उत्तरार्ध में कहते हैं कि मोह और क्षोभ से रहित आत्माका परिणाम धर्म है। पुत्र स्त्री मित्र तथा धन आदि में 'यह मेरा है' इस प्रकार का जो भाव है वह मोह कहलाता है। परीषह तथा उपसर्ग के आने पर चित्तका विचलित होना क्षोभ है, उन दोनों से रहित शुद्ध बुद्धक-स्वभाव वाले आत्मा का जो चिच्चमत्कार अथवा चिदानन्द रूप परिणाम है, वह धर्स कहलाता है । १-२. रत्नकरण्डश्रावकाचारे। For Personal & Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.८१] भावप्राभृतम् ४३७ भावस्य चिच्चमत्कारलक्षणश्चिदानन्दरूपः परिणामो धर्म इत्युच्यते । स परिणामो गृहस्थानां न भवति पंचसूनासहितत्वात् तथा चोक्तं खण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुंभः प्रमार्जनी । पंचसूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति ॥ १॥ .यदि मोक्षं न गच्छति तदा जिनसम्यक्त्वपूर्वकं दानपूजादिलक्षणं विशिष्टगुणमुपार्जयन् [ पुण्यं ] गृहस्थः स्वर्ग गच्छति परंपरया जिनलिंगेन मोक्षमपि प्राप्नोति । ऐसा परिणाम गृहस्थों के नहीं होता है क्योंकि वे पञ्च सूनाओं से सहित रहते हैं । जैसा कि कहा गया है___ खण्डनो--कूटना, पीसना, चूला सिलगाना, पानी भरना और बुहारी देना ये पाँच हिंसाके कार्य गृहस्थके होते हैं, अतः वह मोक्ष नहीं जाता है, यद्यपि गृहस्थ साक्षात् मोक्ष नहीं जाता है तो भी जिनसम्यक्त्व पूर्वक दान पूजादि रूप विशिष्ट पुण्यका उपार्जन करता हुआ स्वर्ग जाता है और परम्परासे जिनलिङ्ग धारण कर मोक्षको भी प्राप्त होता है ॥८१॥ __ [इस गाथा में श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने पूण्य और धर्मकी परिभाषाएँ स्पष्ट करते हुए दोनों में पार्थक्य सिद्ध किया है पूजा दान तथा व्रताचरण आदिको पुण्य बताया है तथा उन्हें साक्षात् स्वर्ग की प्राप्तिका कारण कहा है। पुण्य शुभोपयोग का कार्य है और मोह अर्थात् मिथ्यात्व और क्षोभ अर्थात् रागद्वेष से रहित आत्मा की निर्मल परिणति को धर्म कहा है। यह निर्मल परिणति शुद्धोपयोग में होती है और साक्षात् मोक्षका कारण है । गृहस्थ अपने पदके अनुकूल पुण्य रूप आचरण करता है और धर्मके वास्तविक स्वरूप की श्रद्धा रखता है । शुद्धोपयोग रूप परिणति के होनेपर शुभोपयोग रूप परिणति स्वयं छूट जाती है, शुभोपयोग का कार्य होनेसे यद्यपि पुण्य बन्ध का कारण है तथापि गृहस्थ की उसमें प्रवृत्ति होती है । शुद्धोपयोग की अपेक्षा शुभोपयोग हेय है और अशुभोपयोगकी अपेक्षा उपादेय है। गृहस्थ की शुद्धोपयोग की प्राप्ति हो नहीं सकती, इसलिये अशुभोपयोग से बचकर शुभोपयोग में प्रवृत्ति करने की आचार्यों ने उसे प्रेरणा दी है। जिन आचार्यों ने पुण्य को धर्म मानकर उसके करने के लिये आदेश दिया है वह पात्रकी योग्यता को लक्ष्य कर दिया है।] For Personal & Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते ४३८ [५.८२इति पुण्यधर्मयोः स्वरूपमुक्त्वेदानों निर्विकल्पसमाधिलक्षणं कर्मक्षयकारण कथयन्ति भगवन्तः सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो वि फासेदि । पुणं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥८२॥ .. श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति । पुण्यं भोगनिमित्तं न हुतत् कर्मक्षयनिमित्तम् ।।८२|| ( सद्दहदि य ) श्रद्दधाति च तत्र विपरीताभिनिवेशरहितो भवति । ( पत्तेदि य ) प्रत्येति च मोक्षहेतुभूतत्वेन यथावत्तत्प्रतिप्रद्यते । ( रोचेदि य ) रोचते च मोक्षकारणतया तत्रैव रुचि करोति । तह (पुणो वि फासेदि) मोक्षार्थित्वात्तत्साधनतया स्पृशति अवगाहयति (पुणं भोयनिमित्त) एतत्पूजादिलक्षणं पुण्यं मोक्षार्थितया क्रियमाणं साक्षाद्भोगकारणं स्वर्गस्त्रीणामालिंगनादिकारणं तृतीयादिभवे मोक्षकारणं निर्गलिगेन। (ण है सो कम्मक्खयनिमित्तं ) न भवति हु-स्फुटं निश्चयेन साक्षात्तद्भवे गृहस्थलिंगेन कर्मक्षयनिमित्तं तद्भवे केवलज्ञानपूर्वकमोक्षनिमित्त पुण्यं न भवतीति ज्ञातव्य । इस प्रकार पुण्य और धर्मका स्वरूप कहकर अब भगवान् कुन्दकुन्द निर्विकल्पसमाधिरूप कर्मक्षयका साक्षात् कारण बतलाते हैं गाथार्थ-मोक्षका अभिलाषी जीव पुण्य की श्रद्धा करता है, पुण्य की प्रतीति करता है, पुण्य की रुचि करता है और पुण्यका स्पर्श करता है परन्तु पुण्य भोगका निमित्त है, कर्मक्षय का निमित्त नहीं है ॥८२॥ विशेषार्थ-मोक्षार्थी जीव पुण्यको मोक्षका कारण मानकर उसकी श्रद्धा करता है अर्थात् अपनी समझके अनुसार उसमें विपरीत अभिनिवेश से रहित होता है। उसकी प्रतीति करता है अर्थात् मोक्षका हेतु मानकर उसे यथायोग्य स्वोकार करता है। उसकी रुचि करता है अर्थात् मोक्षका कारण मानकर उसमें अपनी इच्छा प्रकट करता है और उसोका स्पर्श करता है अर्थात् उसे मोक्षका साधन समझ कर उसे प्राप्त करने का पूर्ण प्रयत्न करता है परन्तु यह स्पष्ट है कि मोक्षार्थी जीवके द्वारा किया जाने वाला यह पूजादि प्रवृत्ति रूप पुण्य साक्षात् तो भोगका ही कारण है अर्थात् देवाङ्गनाओं के आलिङ्गन का कारण है और तृतीय भवमें निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण करने पर मोक्षका कारण है। यह पुण्य निश्चय से साक्षात अर्थात् उसी भव में गृहस्थ लिङ्ग द्वारा कर्मक्षयका निमित्त नहीं हैउसी भवमें केवल-ज्ञान-पूर्वक मोक्षका निमित्त पुण्य नहीं है, यह जानना चाहिये ।। ८२॥ For Personal & Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.८३ ] भावप्राभृतम् ४३९ अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो। संसारतरणहेदु धम्मोत्ति जिणेहि णिढि ॥४३॥ आत्मा आत्मनि रतः रागादिषु सकलदोषपरित्यक्तः। संसारतरणहेतुः धर्म इति जिनैः निर्दिष्टः ।। ८३ ॥ ( अप्पा अप्पम्मि रओ ) आत्मा अत सातत्यगमने अतत्यूध्वं ब्रज्यास्वभावनोर्ध्वमेव गच्छतीत्यात्मा शुद्धबुद्ध कस्वभाव आत्मनि रतो निजशुद्धबुद्ध कस्वभावे एकलोलीभावभूतः । (रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो) रागादिषु रागादिभ्यः सकलदोषपरित्यक्तः रागद्वेषमोहलोभादिसकलदोषरहित इत्यर्थः । ( संसारतरणहेदु) संसारस्य तरणहेतुः कारणभूतः । (धम्मोत्ति जिणेहिं णिहिट्ठ) धर्म इति जिननिर्दिष्टं प्रतिपादितं जिनपूजा दिकं पुण्यमिति शेषः। तेन कारणेन जिनपूजादिषु द्वेषो न कर्तव्यः । उक्तं च योगीन्द्रदेवैः देवहं सत्थहं मुणिवरहं जो विद्देसु करेइ । नियमि पाउ हवेइ तसु जें ससारु भमेइ ॥१॥ गाथार्थ-आत्मा में लीन तथा रागादि समस्त दोषों से रहित यह आत्मा ही संसार सागर से पार होनेका कारण धर्म है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। [ यहाँ अभेद नयसे गुण गुणी में अभेद कर आत्मा को ही धर्म कहा है। ॥ ८३ ॥ विशेषार्थ-आत्मन् शब्द 'अत सातत्यगमने' धातूसे सिद्ध होता है अतः अतति इति आत्मा इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो ऊध्वं-गमन स्वभाव होनेसे ऊर्ध्व ही गमन करता है, वह आत्मा है [ अथवा गत्यर्थक धातुएँ ज्ञानार्थक भी होती हैं इस नियम से जो निरन्तर पदार्थों को जाने वह आत्मा है ] शुद्ध निश्चयनय से आत्मा शुद्ध बुद्धक स्वभाव है अर्थात् रागादि-रहित ज्ञायक मात्र है । जो आत्मा अपने इसी शुद्ध बुद्ध क स्वभाव में लीन है-तन्मयी भावको प्राप्त है और रागद्वेष मोह लोभ आदि समस्त दोषों से रहित है वह आत्मा ही संसार से पार होनेका कारण-भूत धर्म है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। जिन पूजा आदिक पुण्य हैं और परम्परा से मोक्षके कारण हैं। अतः उनमें द्वेष नहीं करना चाहिये । योगीन्द्र देवने कहा भी है...देवह-जो देव शास्त्र और श्रेष्ठ मुनियों से द्वेष करता है उसके नियम से वह पाप-बन्ध होता है जिससे संसार में भटकता है। For Personal & Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ ५.८४ अस्य दोहकस्यायं भावः--देवशास्त्रगुरूणां प्रतिमासु निषेधिकादिषु च पुष्पा - दिभिः पूजादिषु च लौंका द्वेष कुर्वन्ति तेषां पापं भवति तेन पापेन ते नरकादी पतन्तीति ज्ञातव्यं । ४४० अह पुण अप्पा णिच्छदि पुण्णाई करेदि णिरवसेसाई । तह विण पावदि सिद्धि संसारत्थो पुणो भणिदो || ८४ ॥ अथ पुनः आत्मानं नेच्छति पुण्यानि करोति निरवशेषाणि । तथापि न प्राप्नोति सिद्धि संसारस्थः पुनर्भाणितः ॥ ८४ ( अह पुण अप्पा णिच्छदि ) अथ पुनरात्मानं नेच्छति न भावयति ( पुण्णाई करेदि निरवसेस इं ) पुण्यानि करोति निरवशेषाणि पूजादांनादीनि सर्वाणि भोगा - कांक्षानिदानख्यातिपूजालाभादिकमभिलाषुकतया करोति विद्धाति परं जिनसम्यक्त्वे नान्तः-शून्यो निर्विवेकः बहिरात्मा जीवः । ( तह विण पावदि सिद्धि ) तथापि नानापुण्यानि कुर्वन्नपि जीवो न प्राप्नोति न लभते कां ? सिद्धि आत्मोपलब्धि - लक्षणां मुक्तिमिति जिनसम्यक्त्वरहितो दूरभव्योऽभव्या वा स ज्ञातव्य इत्यर्थः । यदि सिद्धि न प्राप्नोति तर्हि कोदृशो भवति ? ( संसारत्यो, पुणो भणिदो ) संसारस्थोऽनन्तसंसारी पुनर्भणित आगमे प्रतिपादितः । 2 इस दोहाका भाव यह है कि देवशास्त्र गुरुओंकी प्रतिमाओं तथा निषेधिका आदि धर्मायतनों को पुष्प आदि पूजा आदि करने में लौंका लोग द्वेष करते हैं, अतः उन्हें पाप बन्ध होता है और उसके फल स्वरूप वे नरकादि में पड़ते हैं ॥ ८३ ॥ गाथार्थ - यदि कोई आत्मा की भावना नहीं करता है और समस्त पुण्य करता है तो वह पुण्य करताहुआ भी सिद्धिको प्राप्त नहीं होता है, संसारी ही कहा गया || ८४ ॥ विशेषार्थं - कितने ही जीव ऐसे हैं कि वे आत्मा को ओर लक्ष्य नहीं देते, मात्र भोगोंको आकांक्षा रूप निदान, ख्याति पूजा लाभ आदि इच्छा रख पूजा दान आदि समस्त पुण्य कर्म करते रहते हैं उन्हें आचार्यं महाराज ने जिन सम्यक्त्व से अन्तरङ्ग में शून्य, निर्विवेक बहिरात्मा कहा है। ऐसे जोव नाना प्रकारके पुण्य करते हुए भी आत्मोपलब्धि रूप सिद्धिको नहीं पाते हैं। जिन सम्यक्त्व से रहित जीवको दूर भव्य या अभव्य जानना चाहिये। इन जीवोंको आगममें अनन्त संसारी कहा गया है ॥ ८४ ॥ For Personal & Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४१ -५.८५-८६] . भावप्राभृतम् एएण कारणेण य तं अप्पां सद्दहेह तिविहेण । जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण ॥८५॥ एतेन कारणेन च तमात्मानं श्रद्धत्त त्रिविधेन । येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ॥८५॥ (एएण कारणेण य ) एतेन कारणेन आत्मनो मोक्षहेतुत्वेन । ( तं अप्पां सदहेह तिविहेण ) तमात्मानं श्रद्धत्त तत्र विपरीताभिनिवेशरहिता भवत यूयं त्रिविधेनं मनोवचनकाययोगप्रकारेण । ( जेण य लहेह मोक्खं ) येन च कारणेनास्मश्रद्धानहेतुना लभध्वं मोक्षं सवकर्मप्रक्षयलक्षणं मोक्षं प्राप्नुत यूयं । ( तं जाणिज्जह पयत्तेण ) तामात्मानं जानीत ज्ञानगुणेन भेदज्ञानेन बुध्यध्वं यूयं, प्रयत्नेन चारित्रगुणेनकलोलीभावतया तत्र तिष्ठत यूयं । मच्छो वि सालिसित्थो असुद्धभावो गओ महाणरयं । इय णा अप्पाणं भावह जिणभावणा णिच्चं ॥८६॥ मत्स्योपि शालिसिक्थोऽशुद्धभावो गतः महानरकम् । इति ज्ञात्वा आत्मानं भावय जिनभावनां नित्यम् ॥८६|| ( मच्छो वि सालिसित्थो ) मत्स्योपि मोनजातिरल्पजीवः तन्दुलसिक्थप्रमाणशरीरत्वान्नाम्ना शालिसिक्थः । ( असुद्धभावो गओ महानरयं ) अशुद्धभावः सन् इस कारण उस आत्मा को ही मन वचन कायसे श्रद्धा करो तथा उसीको प्रयत्न पूर्वक जानो जिससे मोक्ष प्राप्त कर सको ।।८५॥ विशेषार्थ-आत्मा ही मोक्षका कारण है इसलिये विपरीत अभिनिवेश से रहित होकर उसी आत्मा की मन वचन कायसे श्रद्धा करो और प्रयत्न-पूर्वक अर्थात् चारित्र गुणके साथ एकलोलीभावको प्राप्त होकर उसी आत्मा को जानो, ज्ञान गुण अथवा भेद ज्ञानके द्वारा उसे समझो जिससे समस्त कर्म-क्षय रूप मोक्षको प्राप्त हो सको ॥८५॥ - गाथार्थ-अशुद्ध भावोंसे युक्त शालिसिक्थ मच्छ भी महा नरक गया यह जान कर निरन्तर आत्मा की भावना करो आत्मस्वरूप का चिन्तन करो क्योंकि यही जिन-भावना है अथवा जिन-सम्यक्त्व है ।।८६॥ . विशेषार्थ-राघवमच्छ के कान में एक छोटी अवगाहनाका मच्छ रहता है चावल के सीथके समान शरीरका प्रमाण होनेसे वह शालिमच्छ अथवा तण्डुल-मच्छ कहलाता है । वह यद्यपि राघवमच्छ के समान बाह्य हिंसा नहीं कर पाता है परन्तु भाव-हिंसाके कारण राघवमच्छके ही For Personal & Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घट्नाभूते ४४२ [५.८६गतः प्राप्तः महानरकं सप्तमं नरक गतः। ( इय णा अप्पाणं ) इति ज्ञात्वात्मानं शुद्धबुद्ध कस्वभावरूपं टंकोत्कीर्णस्फटिकविबोपम चिच्चमत्कारलक्षणं मुक्तिगतसिद्धसमानं शुद्धनिश्चयनयेन सिद्ध ज्ञायककस्वभावं हे जीव ! हे आत्मन् ! ( भावह जिणभावणा णिच्चं ) भावय त्वं भावनाविषयं कुरु इयं जिनभावनेति ज्ञात्वा, अथवा जिनभावनां जीवादिसप्ततत्वश्रद्धानं च नित्यं सर्वकालं भावय रोचस्व तस्मादिति अपध्यानं परिहृत्य अन्तस्तत्वं वहिस्तत्वं चाश्रयेति भावार्थः । कि तपदपधानं?-- 'वघबन्धच्छेदादे रागद्वेषाच्च परकलत्रादेः। आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ॥ १॥ "पदस्थं मंत्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनं । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरंजनं ॥" समान सातवें नरक में उत्पन्न होता है इसलिये आचार्य सावधान करते हुए कहते हैं कि देखो अशुद्धभावों के कारण शालिसिक्थ मत्स्य सातवें नरक गया। अतः हे आत्मन् ! तू निरन्तर शुद्ध बुद्धक-स्वभाव, टोत्कीर्ण स्फटिक बिम्बके तुल्य, चिच्चमत्कार लक्षण, मुक्तिको प्राप्त सिद्ध के समान, शुद्धनिश्चयनय से सिद्ध एवं एक स्वभावसे युक्त आत्मा की भावना कर-उसे ही भावनाका विषय बना तथा यही जिन भावना है-- आत्मचिन्तन ही जिनचिन्तन है ऐसा समझ । अथवा आत्मभावना रूप निश्चयसम्यक्त्व और जिन-भावना-जीवादि सप्ततत्वके श्रद्धानरूप व्यवहार सम्यक्त्वका सदा चिन्तन कर । अर्थात् अपध्यान को छोड़कर अन्तस्तत्व और बहिस्तत्वका आश्रय ग्रहण कर । प्रश्न--वह अपध्यान क्या है ? उत्तर-द्वेष-वश किसीके वध बन्धन और छेद आदिका तथा रागवश परस्त्री आदिका निरन्तर ध्यान करना अपध्यान है, ऐसा जिनशासन के ज्ञाता आचार्य कहते हैं। पदस्थं-मन्त्र वाक्य रूप पदस्थ, स्वात्म-चिन्तन रूप पिण्डस्थ, सर्वचैतन्य रूप, रूपस्थ और कर्म कालिमा से रहित सिद्ध परमेष्ठी रूप रूपातोत इस प्रकार सध्यान के चार भेद हैं। १. रत्नकरण्डश्रावकाचारे। २. द्वेषाद्रागाति पाठान्तरमन्यत्र । For Personal & Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.८६] भावप्राभृतम् ४४३, इति पद्योक्तं चतुर्विध ध्यानं भावय हे जीव !। अथ शालिसिक्थमत्स्यकथा यथा-श्रीपुष्पदन्तजिनजन्मभूमौ काकन्दीपुरे श्रावककुलजन्मा सौरसेनो राजा बभूव । सकलधर्मानुरोधेन मांसव्रतं जग्राह । पुनवेदवैद्यरुद्रमतमोहितमतिः मांसभक्षणमतिः संजातः, अङ्गीकृतवस्तुनिर्वाहनकारणाल्लोकापवादाच्च मांसं जुगुप्समानः मनोविश्रामहेतु कर्मप्रियनामकेतु सूपकारं स्वाहूर्यकान्ते निजाभिलाषं तमजिज्ञपत् । बिलचर-स्थलचर-जलचरजीवानां मांसमानायन्नपि अनेकराजकार्याकुलचित्ततया मांसभक्षणावसरं न प्राप । कर्मप्रियोऽपि नृपादेशं अहनिशं कुर्वन्नेकदा सर्पबालकेन दष्टो मृतः स्वयंभूरमणसमुद्रे महामत्स्यो बभूव । भूपः सौरसेनोऽपि चिरकालेन मृत्वा मांसभक्षणाशयानुबन्धा हे आत्मन् ! इस पद्यमें कहे हुए चार प्रकारके सद्ध्यानका तू निरन्तर चिन्तन कर। अब शालिसिक्थ मत्स्य को कथा लिखते हैं शालिमत्स्य की कथा श्री पुष्पदन्त भगवान् की जन्म भूमि काकन्दीपुर में श्रावक कुलमें उत्पन्न हुआ सौरसेन नामका राजा था। उसने मुनिराजके अनुरोधसे मांस-त्याग व्रत ग्रहण किया परन्तु पीछे वेदविद्या के ज्ञाता रुद्रमत से मोहित-बुद्धि होनेके कारण उसको मांस खानेमें रुचि हो गई। गृहीत व्रत के निर्वाह के कारण तथा लोकापवाद के भयसे वह प्रत्यक्ष तो मांस से घृणा करता था परन्तु अन्तरङ्ग में उसकी इच्छा लगी रहती थी। एक दिन उसने मानसिक विश्रामके कारण कर्म-प्रिय-केतु नामक रसोइया को एकान्त में बुलाकर उससे अपनी अभिलाषा प्रकट की। विलमें रहने वाले, स्थल में रहने वाले और जलमें रहने वाले जीवोंके मांसको वह बुलवाता तो था परन्तु राज्यसम्बन्धी अनेक कार्यों में व्यग्रचित्त होनेके कारण उसे खानेका अवसर नहीं प्राप्त कर पाता था। कर्मप्रिय रसोइया भी राजाके आदेश का पालन करता हुआ प्रतिदिन मांस तैयार करता था। एक दिन साँपके बच्चेने उसे डस लिया जिससे वह मर गया और मरकर स्वयंभू रमण समुद्र में महामत्स्य हुआ। इधर सौरसेन राजा भी चिरकाल बाद मरकर मांस-भक्षण के अभिप्राय का संस्कार रहने से उसी समुद्र में उसी महामत्स्य के कान रूप विलके मलको खानेवाला शालिसिक्थ प्रमाण शरीर का धारक मत्स्य हुआ। पश्चात् जब इसकी द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियों पूर्ण हो गई तब वह मुख खोलकर सोते हुए, For Personal & Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।५.८५ षट्प्राभृते [५.८७तस्मिन्नेव समुद्रे तस्यैव महामत्यस्य कर्णबिलमलाशनशीलः शालिसिक्थप्रमाणशरीरो मत्स्यो बभूव । तदन्वेष पर्याप्तद्रव्यभावेन्द्रियः तस्य महामत्स्य--मुखं ज्यादाय निद्रायतो वेलानदीप्रवाहे इव गलगुहेऽनेकजलचरसमूहं प्रविश्य निष्क्रामन्तं निरीक्ष्य शालिसिक्थश्चिन्तयति-अयं पापकर्मा महामत्स्यो निर्भाग्यो यन्मुखे पतन्त्यपि यादांसि भक्षयितुं न शक्नोति । मम देवेनंतावच्छरीरं यदि भवति तदा सकलमपि समुद्र सत्वसंचाररहितं करोमीति चेतश्चिन्ताबलात्क्षुद्रमत्स्यो निखिलनकंचक्रभक्षणपापाच्च महामत्स्योऽपि द्वावपि मृत्वा सप्तमनरके संजातौ । ततस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुषौ तौ द्वावपि परस्परमालापं चक्रतुः । अहो क्षुद्रमत्स्य ! महापापकर्मणो ममात्रागमनं संगच्छत एव । त्वं तु मत्कर्णमलजीवनः कथमत्रागतः । शालिसिक्थचरनारकः प्राह-महामत्स्यचेष्टितादपि दुरन्तदुःखं संबन्धनादुर्भावनावशात् । इति श्रीभावप्राभृते शालिसिक्थमत्स्योपाख्यानं समाप्तं । बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो। सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं ॥८७॥ बाह्यसङ्गत्यागः गिरिसरिदरिकन्दराद्यावासः। सकलं ज्ञानाध्ययनं निरर्थकं भावरहितानाम् ॥८॥ महामत्स्य के वेला नदीके प्रवाहके समान कण्ठ रूप गुहा में प्रवेश कर निकलते हुए अनेक जलचरों के समूह को देखकर चिन्ता करता है कि यह पापी महामत्स्य बड़ा अभागा है जो मुखमें पड़े हुए भी जल जन्तुओं को खाने में समर्थ नहीं है, भाग्यवश यदि मेरा शरीर इतना भारी होता तो में समस्त समद्र को जीवोंके संचार से रहित कर देता। इस प्रकार मानसिक विचार के बलसे क्षुद्रमत्स्य और समस्त मगरमच्छों के खानेसे उत्पन्न पापके कारण महामत्स्य दोनों ही मरकर सातवें नरक में उत्पन्न हुए । वहाँ तेतोस सागरको उनको आयु हुई। दोनों मिलने पर परस्पर वार्तालाप करने लगे। महामच्छके जीवने कहा कि अहो क्षुद्रमत्स्य ! महापाप करने वाले मेरा यहाँ आना तो संगत है पर तुम तो कानका मल खाकर जीवित रहते थे तुम यहाँ कैसे आ गये ? शालिसिक्थ के जीव नारकी ने कहा कि मैं महामत्स्य को चेष्टा से भी अधिक भयंकर दुःख देनेवाली खोटी भावनाके वशसे यहाँ उत्पन्न हुआ है। - इस प्रकार श्री भावप्राभृत में शालिसिक्थ मत्स्य की कथा समाप्त हुई ॥८६॥ गावार्थ-बाह्य परिग्रह का त्याग करना, पर्वत नदी गुफा और For Personal & Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.८८ ] भावप्राभृतम् ૪૧ , ( बाहिरसंगचाओ ) बाह्यसंगत्यागः निरर्थक इति सम्बन्ध: ( गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो ) गिरा आवासाः पर्वतोपरि आतापनयोगः पर्वते स्थितिर्वा, सरित्--नदीतटे तपश्चरणं भगीरथवत्, दरी गुहायामावासः कन्दरो गिर्यादिविवरं तत्रावास, आदिशब्दात् श्मशानोद्यानादो आवास: स्थितिः । ( सयलो णाणज्झयणो ) सकलं वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशलक्षणं ज्ञानाध्ययनं शास्त्रपठनं । ( निरत्थओ भावरहियाणं ) भावरहितानां जिनसम्यक्त्वविवर्जितानां निजशुद्ध बुद्ध कस्वभावात्मभावनाप्रच्युतानां यतीनां उक्तं च- बाह्यग्रन्थविहीना दरिद्रमनुजाः स्वभावतः सन्ति । यः पुनरन्तः संगत्यागी लोके स दुर्लभो जीवः ॥ १॥ भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणोमक्कडं पयत्तेण । मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु ॥ ८८ ॥ भधि इन्द्रियसेनां भग्ध मनोमर्कटं प्रयत्नेन । मा जनरञ्जनकरणं बहि तवेष ! त्वं कार्षीः ॥ ८८ ॥ कन्दरा आदिमें निवास करना तथा समस्त शास्त्रोंका पढ़ना भावरहित जीवोंके निरर्थक है ||८७॥ विशेषार्थ - भावकी महिमा बतलाते हुए आचार्य कहते हैं कि भावरहित अर्थात् जिन सम्यक्त्व से विवर्जित अथवा शुद्ध बुद्धेक-स्वभाव से युक्त जिन आत्मा की भावना से च्युत मुनियोंका बाह्य परिग्रह का त्याग करना निरर्थक है, पर्वतके ऊपर आतापन योग धारण करना अथवा पर्वत पर रहना, भगीरथ के समान नदी तट पर तपस्या करना, गुहा में रहना तथा कन्दरा श्मशान उद्यान आदि में निवास करना निरर्थक है और वाचना प्रच्छना अनुप्रेक्षा आम्नाय तथा धर्मोपदेश रूप सब प्रकार . का ज्ञानाध्ययन - शास्त्र स्वाध्याय करना निरर्थक है । जैसा कि कहा गया है । बाह्य ग्रन्थ - दरिद्र मनुष्य तो बाह्य परिग्रहसे रहित स्वयं होता ही है। अर्थात् बाह्य परिग्रह के त्यागी मनुष्य दुर्लभ नहीं हैं किन्तु जो अन्तरङ्ग परिग्रह का त्यागी है लोक में वही दुर्लभ है ||८७॥ गाथार्थ - हे बाह्य व्रत वेषके धारक साधो ! तू इन्द्रियों की सेनाको भग्न कर, प्रयत्न पूर्वक मन रूपी वानरको नष्ट कर तथा जनता के अनुराग को उत्पन्न करने वाला कार्य मत कर ॥८८॥ For Personal & Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ षट्प्राभृते [ ५.८९ ( भंजसु इंदियसेणं) त्वं भंग्धि, कां ? इन्द्रियसेनां । ( भंजसु मणमक्कडं पयत्तेण ) भंजसु-त्वं भन्वि आमदेय विषयकषायेभ्यो गच्छन्तं निरुणद्धि, कं ? मणमक्कडं -- मनोमर्कटं चपलस्वभावत्वान्मन एव मर्कटस्तं मनोवानरं प्रयत्नेन स्त्रीसंगपरित्यागत् । ( मा जणरंजणकरणं ) मा-नैव जनानां लोकानां रञ्जनकरण अनुरागोत्पादकं कार्यं । हे ! ( बाहिरवयवेस ) बहिव्रतवेष ! हे बाह्याकारदीक्षा - चिन्हद्वाहक ! | ( ) त्वं । ( मा कुणसु ) मा कार्षीः । णवणोकसायवग्गं मिच्छत्तं चयसु भावसुद्धीए । चेइयपवयणगुरुणं करेहि भत्तिं जिणाणाए ॥ ८९ ॥ नवनोकषायवर्गं मिथ्यात्वं त्यज भावशुद्धया । चैत्यप्रवचनगुरूणां कुरु भक्ति जिनाज्ञया ॥ ८९ ॥ ( णवणोकसायवग्गं) नवनोकषायवर्ग हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीषु नपुसंकवेदलक्षणान् नोकषायान् ईषत्कषायान् यथाख्यातचारित्रघातकान् । चयसु त्यजेत संबन्धः । तथा ( मिच्छत्तं चयसु भावसुद्धीए ) मिथ्यात्वं पंचप्रकारं चयसु त्यज- 'एयंत बुद्धदरिसी विवरीओ बंभ तावसो विणओ । इन्दो वि य संसयिदो मक्कडिओ चेव अण्णाणी ॥ १ ॥ विशेषार्थ - हे साधो ! विषय और कषाय की ओर बढ़ती हुई इन्द्रियों की सेनाको तू नष्ट कर दे, मन रूपी चञ्चल वानर को प्रयत्न पूर्वक रोक तथा लोगों को प्रसन्न करने वाले यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र आदि कार्योंको छोड़, सिर्फ वाह्य वेषको धारण करने वाला न बना रह, भावकी ओर लक्ष्य दे ||८८|| गाथार्थ - हे जीव ! भाव- शुद्धिपूर्वक नौ नोकषायों के समूह और मिथ्यात्व का त्याग करो तथा जिनेन्द्र देवको आज्ञानुसार जिनप्रतिमा, जिनशास्त्र तथा गुरुओं की भक्ति करो ||८९ ॥ विशेषार्थ - हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुंसक वेद ये नौ नोकषाय अथवा ईषत् कषाय हैं, यथाख्यात चारित्रका घात करने वाली हैं इन्हें तू छोड़ । एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान ये पाँच प्रकारके मिथ्यात्व हैं, भावशुद्धि पूर्वक तू इनका त्याग कर । एयंत -- एकान्त मिध्यात्वमें बौद्ध, विपरीत मिथ्यात्वमें ब्राह्मण, विनय १. गोम्मटसारे जो वकाण्डे । For Personal & Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ८९] भावप्राभृतम् ४४७ एकान्तेन क्षणिककान्तेन मोक्षं बौद्धो वदति विपरीतेन हि या मोक्षं बंभब्राह्मणो वदति तापसो विनयेन मोक्षं वदति । इन्द्र-इन्द्रचन्द्रोनागेन्द्रगच्छः संशयेन मोक्षं मन्यते । अपि च शब्दाद्गोपुच्छिको द्राविडो यापनीयाभिधो निष्पिच्छश्च संशयमोक्षो ज्ञातव्यः । मस्करपूरणो माकटिकोऽज्ञानान्मोक्षं मन्यते । एतन्महापातकं मिथ्यात्वपंचकं चयसु त्यज हे जोव ! त्वं । तथा च समन्तभद्रः प्राह 'न सम्यक्त्वसमं किंचित काल्ये त्रिजगत्यपि । - श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥ १॥ भावसुद्धीए-तत्वार्थश्रद्धानलक्षणया भावशुद्ध या जिनसम्यक्त्वेन लौंकपापसंभाषणसंगमपरिहारेण शुद्धबुद्धकस्वभावात्मरुचिपरिणामेनेति भावार्थः । ( चेइयपवयणगुरुणं ) चैत्यानां अर्हत्सिद्ध प्रभृतिप्रतिमानां प्रवचनस्य जिननाथसूत्रस्य तथेति मस्तकोपर्यारोपणेन सरस्वतीप्रतिमापूजनेन. गुरूणां निग्रन्थदिगम्बराणां भव्यजीव मिथ्यात्व में तापस, संशय मिथ्यात्व में इन्द्र नामक श्वेताम्बर और अज्ञान मिथ्यात्व में मस्करी प्रसिद्ध हुआ है बौद्ध, सर्वथा क्षणिक एकान्त से मोक्ष कहते हैं । 'हिंसा से मोक्ष होता है' इस प्रकार ब्राह्मण विपरीत मिथ्यात्वका निरूपण करते हैं। 'सब धर्म तथा सब देवों की विनय से मोक्ष होता हैं' ऐसा तापस कहते हैं। इन्द्र-चन्द्र-इन्द्र अर्थात् नागेन्द्र गच्छका प्रवर्तक इन्द्रचन्द्र संशय से मोक्ष मानता है । 'इन्दोविय' यहां जो 'अपिच' शब्द दिया है उससे गोपुच्छिक, द्राविड, यापनीय तथा निष्पिच्छ लोगोंका भी . संशय मिथ्यात्व में समावेश करना चाहिये क्योंकि ये भी संशय से मोक्ष मानते हैं। तथा मार्कटिक अथवा मस्कर पूरण अज्ञान से मोक्ष मानता है। ये पांचों मिथ्यात्व महापाप हैं इसलिये हे जीव ! तू इनका त्याग कर । समन्तभद्र स्वामी ने कहा भी है___ न सम्यक्स्व-तोनों काल और तीनों लोकों में सम्यक्त्व के समान जीवोंका कल्याणकारी और मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी दूसरा कुछ भी नहीं है। . . भाव-शुद्धिका अर्थ तत्त्वार्थश्रद्धान रूप जिन-सम्यक्त्व अथवा शुद्ध बुद्धक-स्वभाव से युक्त आत्मा को रुचि रूप परिणाम समझना चाहिये। चैत्यका अर्थ अहंन्त सिद्ध आदि की प्रतिमा है तथा प्रवचन से जिनागम का ग्रहण होता है। जिन-प्रतिमा और जिनागम को मस्तक पर धारण कर तथा सरस्वती की प्रतिमाको पूजा कर उनकी भक्ति करना चाहिये। १. रत्नकरण्यावकामारे। For Personal & Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [५.९० भक्तजन विनेयमातृपितृसदृशहितोपदेशकानां । ( करेहि भत्ति जिणाणाए ) कुरु त्वं भक्ति पंचामृतजलेक्षुरसहैयंगवीन गोमहिषोक्षीरगन्धोदककलशस्नपनेन जलचन्दनक्षत पुष्पच रुदीपधूपफलार्घदानेन स्तवनेन जपेन ध्यानेन श्रुतदेवताराधनेन नित्यं प्रातरुत्थाय सर्वज्ञवीतरागप्रतिमासर्वाङ्गावलोकनेन भक्ति कुरु, तथा श्रुतभक्ति श्रुतोक्तप्रकारेण कुरु, तथा गुरूणां पादमर्दनेन वैयावृत्त्ययथासंभवाहारदाना तसमर्पणोषघप्रदानवसत्यर्पणाभयदानादिभिर्यथायोग्यं भक्ति कुरु । एतत्सर्वं भक्तिलक्षणं कर्म जिनाज्ञया महापुराणश्रवणेन त्वं कुरु हे जीव ! स्वर्गं मोक्षं च प्राप्स्यसि । कानां महापातकिनां वचनं मा मानयस्व । ४४८ तित्थयरभासियत्थं गणहरदेवह गंथियं सम्मं । भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्ध भावेण सुयणाणं ॥ ९० ॥ तीर्थंकरभाषितार्थं गणधरदेवः ग्रन्थितं सम्यक् । भावय अनुदिनं अतुलं विशुद्धभावेन श्रुतज्ञानम् ॥९०॥ ( तित्थयरभासियत्थं ) तीर्थंकरेण श्रीमद्भगवदहंत्सर्वज्ञवीतरागेण भाषितः कथितोऽर्थो यस्य श्रुतज्ञानस्य तत्तीर्थंकर भाषितार्थं । ( गणहरदेवेहि गंथियं सम्मं ) इसी प्रकार भव्य जीव, भक्तजन तथा शिष्योंको माता पिता के समान हितका उपदेश देनेवाले निर्ग्रन्थ दिगम्बर गुरुओंकी भी भक्ति करना चाहिये | हे जीव ? तू जिनेन्द्र देव की आज्ञानुसार जिन - प्रतिमाओं की पञ्चामृत-जल, इक्षु, रस, घी, गाय भैंसके दूध तथा गन्धोदक से भरें कलशों द्वारा अभिषेकसे जल चन्दन, अक्षत, पुष्प, चरु, दीप, धूप, फल और अर्घं के देनेसे, स्तवन से, जपसे, ध्यान से, श्रुत देवता की आराधना से और नित्य प्रातःकाल उठकर सर्वज्ञ वीतराग की प्रतिमाओं के सर्वाङ्ग दर्शन से भक्ति कर । श्रुत को भक्ति शास्त्र में कही हुई विधि से कर तथा गुरुओं की भक्ति उनके पैर दावना, वैयावृत्य, यथासंभव आहार दान, शास्त्र समर्पण, औषधदान, वसतिकार्पण एवं अभयदान आदि के द्वारा यथा योग्य रीति से कर । यह सब भक्ति रूप कार्यं तू जिनाज्ञासे अर्थात् महापुराण के श्रवण से कर । इस भक्ति के द्वारा तू स्वर्ग और मोक्षको प्राप्त होगा ॥ ८९ ॥ गाथार्थ - तीर्थंकर भगवान् ने जिसके अर्थका निरूपण किया है तथा गणधर देवोंने जिसे भलीभाँति गूंथा है - द्वादशांङ्ग रूप निबद्ध किया है ऐसे अनुपम श्रुतज्ञान का तू प्रतिदिन विशुद्ध भावसे चिन्तन कर ||१०|| For Personal & Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ९१] भावप्रामृतम् गणघरदेवेगौतमस्वाम्यादिभिन्थितं द्वादशाधिकशतकोटिव्यशीतिलक्षाष्टापंचाशत्सहस्रपचाधिकपदैरानीतमिति ग्रन्थित । चतुर्दशप्रकोणकरप्यानीतं श्रुतज्ञानं । ( सम्म) सम्यक्प्रकारेण पूर्वापरविरोधरहितं । ( भावहि ) भावय । ( अणुदिणु ) अनुदिनमहनिशं । ( अतुलं ) अनुपमं ( विसुद्धभावेण सुयणाणं) चलमलिनपरिणाम. रहिततया । एकस्य पदस्य श्लोका यथा-५१०८८४६२१ अक्षर १६, उक्तं च श्रुतस्कन्धशास्त्रे एक्कावनकोडीओ लक्खा अद्वैव सहसचुलसीदी। सयछक्कं गायब्वं सड्ढाइगवीसपयगंथा ॥१॥ पाऊण गाणसलिलं णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का । होति सिवालयवासी तिहूवणचूडामणी सिद्धा ॥११॥ 'प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मथ्यतृषादाहशोषोन्मुक्ताः । भवन्ति शिवालयवासिनः त्रिभुवनचूडामणयः सिद्धाः ॥९१॥ - विशेषार्थ-तीर्थकर अर्थात् अष्ट प्रातिहार्य रूप लक्ष्मी से सहित भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ वीतराग देव ने अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा जिसका अर्थ रूपसे निरूपण किया है और गौतम स्वामी आदि गणधर देवोंने जिसकी ग्रन्थ रचना कर एकसौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट ठावन हजार पाँच पदों द्वारा जिसका विस्तार किया है, यही नहीं चौदह प्रकोगंकों के द्वारा भी जिसे सुविस्तृत किया है, ऐसे पूर्वापर विरोध से रहित अनुपम श्रृंत ज्ञान की तू हे जीव ! प्रतिदिन भावना कर । चल, मलिन रूप परिणामों से रहित होकर प्रतिदिन उसीका चिन्तवन कर । द्वादशाङ्ग के एक पद में इक्यावन करोड़ आठ लाख चौरासी हजार छह सौ साढ़े इक्कीस श्लोक बतलाये हैं, १६ अक्षर शेष रहते हैं। जैसा कि श्रुतस्कन्ध शास्त्र में कहा है एक्कावन-इक्यावन करोड़ आठ लाख चौरासी हजार छह सौ साढ़े इक्कीस श्लोक एक पद के बतलाये गये हैं ॥१०॥ - गाथार्य-ज्ञान रूपी जलको प्राप्त कर ये जीव, दुनिवार तृषा दाह और शोषसे रहित हो शिवालय के वासी एवं तीन लोक के चड़ामणि सिद्ध होते हैं । ९१ ॥ १. पीत्वा इति सम्यक् प्रतिभाति । For Personal & Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [५.९१__ (पाऊण गाणसलिलं ) प्राप्य लब्ध्वा किं ? ज्ञानसलिलं सम्यग्ज्ञानपानीयं सिद्धा भवन्तीति सम्बन्धः कथंभूताः सिद्धाः ( निम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का ) निर्मथ्या मयितुमशक्या स चासो तृषा विषयाभिलाषः दाहश्च शरीरपरिसन्तापः शोषश्च रसादिहानिः निर्मथतृषादाहशोषाः तैरुन्मुक्ताः परित्यक्ता निर्मथतृड्दाहशोषोन्मुक्ताः निम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता इति च क्वचित्पाठः तत्रायमर्थःनिर्मलो द्रव्यकर्मभावकमनोकर्मरहितः योऽसौ सुविशुद्धभावः कर्ममलकलङ्करहितः क्षायिको भावः परिणामः निष्केवल आत्मा वा तेन संयुक्ताः सहिता निर्मलसुविशुद्धभावसंयुक्ताः । (होति सिवालयवासी) भवन्ति संजायन्ते, के ते ? आसन्नभव्यजीवाः, कीदृशाः संजायते ? शिवालयवासिन इषत्प्राग्भारनाम्न्यां शिलायां वसन्तीति मुक्तिशिलोपरितिष्ठन्तीत्येवं शीलाः शिवालयवासिनः, अथवा शिवानां सिद्धानामालयः शिवालयः पंचचत्वारिंशल्लक्षयोजनविस्तारमुक्तिशिलायाउपरि तनु विशेषार्य-श्रुत ज्ञान की भावना का फल बतलाते हुए श्री कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि ये जीव ज्ञान रूपी जलको पाकर सिद्ध होते हैं सिद्ध होनेके पूर्व ये जीव जिसका नष्ट करना 'अशक्य है ऐसो तृषा अर्थात् विषयोंकी अभिलाषा, दाह अर्थात् शारीरिक संताप और शोष अर्थात् रसादि हानि से उन्मुक्त हो जाते हैं-छूट जाते हैं। अथवा कहीं पर "जिम्मह तिसडाह सोस उम्मक्का' इस पाठके स्थान पर निम्मल सुवि. सुद्ध--भाव संजुत्ता' ऐसा पाठ पाया जाता है उसका अर्थ इस प्रकार होता है कि ये जीव, द्रव्यकर्म, भावकर्म और नो कर्म से रहित सुविशुद्धभाव अर्थात् कम-मल-कलङ्क से रहित मात्र क्षायिक भाव रूप परिणाम से संयुक्त होते हैं। सिद्ध परमेष्ठी शिवालय वासी होते हैं अर्थात् ईषत्प्राग्भार नामक शिला पर जो कि मुक्ति शिला अथवा सिद्धशिला कहलातो है निवास करते हैं। अथवा सिद्धों का जहां निवास है वह शिवालय कहलाता है । सिद्धोंका निवास पैंतालीस लाख योजन विस्तार वालो सिद्ध शिला के ऊपर तनुवात वलय के अन्तिम पांच सौ पच्चीस धनुष १. पाऊण की छाया 'प्राप्य' न होकर पीत्वा ठोक जान पड़ती है और निर्मथ्य का अर्थ 'मथयितुमशक्या के बदले 'निःशेषेण मथित्वा' उचित जान पड़ता है । इस दशा में निर्मथ्य का कर्म तृषा है । सामूहिक रूपसे गाथाका अर्थ यह संगत प्रतीत होता है-'ये जीव ज्ञानरूमो जलको पोकर तथा विषयाभिलाषा रूपी तृषा-प्यास को बिलकुल नष्ट कर दाह और शोष से रहित होते हुए शिवालयवासी एवं तीन लोकके चूडामणि सिर होते है। For Personal & Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ९२] भावप्राभृतम् ४५१ वातनामवातवलये निराधारा आकाशे तिष्ठन्तीति भावः । पुनः कथंभूताः सिद्धाः, (तिहुवणचूडामणी ) त्रैलोक्यशिरोरत्नसदृशाः । दस दस दो सुपरीसह सहहि मुणी सयलकाल काएण। सुत्तेण अप्पमत्तो संजमघादं पमोतूण ॥९२॥ . दश दश द्वौ सुपरीषहान् सहस्व मुने ! सकलकालं कायेन । सूत्रेण अप्रमत्ता संयमघातं प्रमुच्य ।।१२।। ( दस दस दो ) दश च पुनर्दश च द्वौ च द्वाविंशतिरित्यर्थः के ते, ( सुपरीसह ) सुष्ठुअतिशयेन परिसमन्तात् सहन्ते ये ते सुपरीषहाः “मार्गाच्यवननिर्जराथं परिसोढव्याः परीषहाः" ते तु पूर्वोक्तवर्णना ज्ञातव्याः । (सहहि) सहस्व । (मुणी) हे मुने ! हंहो तपस्विन् ! ( सयलकाल) सकलकालं सर्वकालं, कायेन शरीरेण वाग्मनश्चात्मनि स्थाप्यते इति भावः । ( सुत्तेण) सूत्रेण जिनवचनेन कृत्वा । किं तज्जिनवचनं ? __ "मार्गाच्यवननिर्जराथं परिसोढव्याः परिषहाः" इति । ( अप्पमत्ता ) अप्रमत्ताः प्रमादरहिताः इत्यर्थः । (संजमघादं पमोत्तूण) संयमस्य घातं प्रमुच्य । . प्रमाण क्षेत्र में है। सिद्ध परमेष्ठो वहीं निराधार आकाश में स्थित रहते हैं । वे सिद्ध परमेष्ठो तीन लोकके ऊपर चूडामणि के समान सुशोभित होते हैं ।। ९१ ॥ गाथार्य-हे मुने ! तू जिनदेव के सूत्रानुसार-जिन-शास्त्र की आज्ञा प्रमाण प्रमाद रहित हो संयम के घातको छोड़कर सदा शरीर से बाईस परीषहों को सहन कर। विशेषार्थ-हे तपस्विन् ! जिनेन्द्र देवने अपने आगम में आज्ञा दो है'मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिसोढव्याः परीषहाः' अर्थात् गृहीत-मार्गसे च्युत न होने तथा कर्मोंकी निर्जरा के लिये परीषह सहन करना चाहिये, सो इस जिनाज्ञा के अनुसार तू सदा प्रमाद रहित होता हुआ संयम में जो बाधा आती है उसका बचाव कर तथा सदा शरीर से क्षुधा तृषा आदि बाईस परीषहों को सहन कर ॥ ९२ ।। १. "सीषूसहोऽऽसोः" इति शाकटायनीयेन "सोढ" इति जैनेन्द्रीयेण पाणिनीयेन .. च सूत्रेण षत्वनिषेधः । For Personal & Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ षट्प्राभृते ५.-९३ जह पत्थरो ण भिज्जइ परिदिओ दोहकालमुवएण। तह साहू ण विभिज्जइ उवसग्गपरीसहेहिंतो ॥१३॥ यथा प्रस्तरो न भिद्यते परिस्थितो दीर्घकालं उदकेन । तथा साधुन विभिद्यते उपसर्गपरीषहेभ्यः ॥१३॥ ( जह पत्थरो ण भिज्जइ ) यथा प्रस्तरः पाषाणो न विभिद्यते न परिणमति अन्तरार्दो न भवति । (परिट्ठिओ दीहकालमुदएण ) पाषाणः कथंभूतः, परिस्थितः वडित उदके इति सौत्रसम्वन्धात् । कथं परिस्थितः, दीर्घकाल प्रचुरकालं, केन न विभिद्यते ? उदकेन वारिणा । ( तह साहू ण विभिज्जइ ) तथा साधुर्मुनी रत्नत्रयसाधकः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमण्डितो न विभिद्यते नान्तःक्षुभितो भवति । ( उवसम्गपरीसहेहितो ) देवमानवतिर्यगचेतनोपद्रवेभ्य उपसर्गेभ्यः परोषहेभ्यः क्षुधापिपासादिम्यो द्राविशतेरपि । “सुन्तो हिन्तो हि दु दोत्तो म्यसः" इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण पंचमीवहुवचनभ्यसः स्थाने हितो आदेशः । इसिस्थाने च "लुक्च हितो हि दु दो तो उसेः" इति सूत्रेण भवति । "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिनं हि सन्देहादलक्षणं" इति परिभाषयान बहुवचनस्य म्यसों हिन्तो आदेशो सातव्य इति । गाचार्य-जिस प्रकार दीर्घकाल तक पानी में डूबा पत्थर पानीके द्वारा भेदको प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार उपसर्ग और परीषहों के द्वारा साधु विभेद को प्राप्त नहीं होता अर्थात् अन्तरङ्ग से क्षुभित नहीं होता ।। ९३ ॥ विशेषार्थ-उपसर्ग उपद्रव को कहते हैं। तथा देवकृत मनुष्यकृत तिर्यकृत और अचेतन कृतके भेदसे चार प्रकार का होता है । क्षुधा आदिको प्राकृतिक बाधाको परोषह कहते हैं तथा उसके क्षुधा तषा शीत उष्ण आदि बाईस भेद हैं। इन उपसर्ग और परीषहों से जैन साधु कभी विचलित नहीं होता, यह दृष्टान्तपूर्वक समझाते हुए श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव कहते हैं कि जिस प्रकार दीर्घ काल तक पानीके भीतर रहता हुआ भी पत्थर पानी से भेद को प्राप्त नहीं होता अर्थात् गोला नहीं होता अथवा टूटता नहीं है, उसी प्रकार रत्नत्रयका साधक साधु भो उपसर्ग और परोषहोंसे भेदको प्राप्त नहीं होता अर्थात् क्षुभित होकर संयम से च्युत नहीं होता ॥ ९३ ।। For Personal & Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ९४-९५ ] भावप्राभृतम् भावहि अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भावि । भावरहिएण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं ॥ ९४ ॥ भावय अनुप्रेक्षा अपराः पञ्चविंशति भावना भावय । भावरहितेन किं पुनः बहिलिङ्गेन कार्यम् ॥ ९४ ॥ भावहि अणुवेक्खाओ ) भावय पुनः पुनश्चिन्तय अनुप्रेक्षा अनित्यादीः । ( अवरे पणवीसभावणा भावि ) अपरा: पंचविशतिभावना भावय । ( भावरहि - एण कि पुण ) भावरहितेन पुनः किं न किमपि इत्याक्षेपः । ( बाहिरलिंगेण काय ) बहिलिङ्ग ेन नग्नवेषेण कि साध्यं कर्मक्षयशून्यमिदं । सव्वविरओ विभावहि णवयपयत्थाई सत्त तच्चाई | जीवसमासाई मुणी चउदसगुणठाणणामाई ॥ ९५ ॥ सर्वविरतोपि भावंय नवकपदार्थान् सप्ततत्वानि । जीवसमासान् मुने ! चतुर्दशगुणस्थाननामानि ॥ ९५ ॥ ४५३ गाथार्थ - हे साधो ! तू बारह अनुप्रेक्षाओं और पच्चीस भावनाओं का चिन्तन कर क्योंकि भावसे रहित मात्र बाह्यलिङ्गसे क्या किया जा सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥९४॥ विशेषार्थ - 'अनुभूयोभूयः प्रकर्षेण ईक्षणम् अनुप्रेक्षा' इस व्युत्पत्ति के अनुसार पदार्थके स्वरूपका बार-बार श्रेष्ठता के साथ विचार करना अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षाओं के बारह भेद हैं-१ अनित्य २ अशरण ३ संसार ४ एकत्व ५ अन्यत्व ६ अशुचित्व ७ आस्रव ८ संवर ९ निर्जरा १० लोक ११ बोधि दुर्लभ और धर्म | हे मुने ! तुझे इन भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करना चाहिये क्योंकि वैराग्यको उत्पन्न करनेके लिये ये माताके समान कही गई हैं । इनके सिवाय अहिंसादि पाँच व्रतों की पाँच-पाँच के परिगणन से पच्चीस भावनाओं का भी निरन्तर चिन्तन करना चाहिये क्योंकि वे व्रतोंको स्थिरताको करनेवाली हैं । इन भावनाओं का वर्णन पहले आ चुका है । इन दोनों प्रकारकी भावनाओं के चिन्तन से तू अपने भावकी सम्हाल पहले कर । क्योंकि भावके बिना बाह्य लिङ्ग - नग्नमुद्रा धारण करने से क्या लाभ है ? मात्र बाह्यलिङ्ग कर्मक्षयका कारण नहीं है ।। ९४ ।। गावार्थ - हे मुने ! सबसे विरत होने पर भी तू नव पदार्थ, सात For Personal & Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ षट्प्राभृते ( सम्वविरओ वि भावहि ) सर्वविरतोऽपि हे जीव ! स्वं महावत्यपि सन् भावय । (णवयपयत्थाई सत्ततच्चाई) नवपदार्थान् जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षपुण्यपापपदार्थान् । चेतनालक्षणो जीवः । पुद्गलधर्माधर्मकालाकाशा अजीवाः । आत्मप्रदेशेषु कर्मपरमाणव आगच्छन्ति स आस्रवो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगरूपः । आत्मप्रदेशेषु आस्रवानन्तर द्वितीयसमये कर्मपरमाणवः श्लिष्यन्ति स बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदाच्चतुर्विधः । आस्रवस्य निरोधः तत्व, चौदह जीव समास और चौदह गुण स्थानों का चिन्तन अवश्य कर' ।। ९५ ॥ विशेषार्थ-हे मुने ! यद्यपि तू हिंसादि समस्त पापोंसे विरक्त होकर महाव्रतीं हुआ है तथापि जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा मोक्ष पुण्य और पाप इन नौ पदार्थोंका तथा पुण्य और पापको छोड़ जीव अजीव आदि सात तत्त्वोंका चौदह जीवसमासोंका तथा चौदह गुणस्थानोंका चिन्तवन अवश्य कर-इनके स्वरूपका विचार अवश्य कर । जिसमें चेतना पाई जाती है उसे जीव कहते हैं। जिसमें चेतना नहीं है उसे अजीव कहते हैं । पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल की अपेक्षा अजीव के पांच भेद हैं । आत्म-प्रदेशों में कर्म परमाणु आते हैं यहो आस्रव है। यह मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग रूप होता है। आस्रव के बाद द्वितीय समय में कर्म परमाणु आत्मप्रदेशों में श्लेष को प्राप्त हो जाते हैं यही बन्ध कहलाता है इसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, और प्रदेश के भेदसे चार भेद होते हैं । आस्रव का रुक जाना संवर कहलाता है। वह संवर 'गुप्ति-समिति-धर्मानु-प्रेक्षा-परीषहजय-चारित्रैः' इस सूत्र के अनुसार ३ गुप्ति ५ समिति १० धर्म १२ अनुप्रेक्षा २२ परीषह जय और ५ चारित्रों से होता है। [जो आत्माको पवित्र करे उसे पुण्य कहते हैं १. यहाँ गाथा में जैसा पाठ है उसके आधार पर गाथाके उत्तरार्धका अर्थ होता है 'गुणस्थान नाम वाले चौदह जीव-समासों की भावना कर' परन्तु टीकाकारने जीव समास और गुणस्थानोंका अलग-अलग वर्णन किया है। गुणस्थानों को भी जीव-समास शब्दसे कहा जाता रहा है जैसे कि जीव काण्ड में ‘मिस्सो सासण मिच्छो'-आदि गाथाओंके अन्त में लिखा है-'चउदह जीवसमासा कमेण सिद्धाय णादव्वा'। यहां टीकाकार ने जीव काण्डके उस पाठको बदल कर 'चक्षुदस गुणठाचाणि य' ऐसा पाठ रखा है। For Personal & Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.९५] भावप्रामृतम् संवर उच्यते । स संवरः 'स गुप्तिसमितिदशधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रभवति । तपसा निर्जरा च भवति सर्वरश्च भवति। सर्वकर्मक्षयो मोक्षः कथ्यते एते नवपदार्थाः, एतेषां विस्तर आगमाद्वेदितव्यः । सप्ततत्वानि पुण्यपापरहितानि ज्ञातव्यानि । ( जीवसमासाई मुणी ) हे मुने ! जीवसमासान् चतुर्दशसंख्यान् त्वं भावय । अथ के ते चतुर्दशजीवसमासा इति चेत् ? बादरसुहमगिदिय वितिचउरिदिय असणि सण्णी यं । पज्जत्तापज्जत्ता भूदा इय चोहसा होति ॥ १॥ विस्तरभेदैर्जीवसमासा अष्टानवतिर्भवन्ति । तत्रेयं गाथा थावर वेयालीसा दो सुर दो नरय तिरिय चउतीसा । नव विउले नव मणुए अडणउदी जीवठाणाणि ॥१॥ और जो शुभ कार्यों से आत्मा की रक्षा करे अर्थात् दूर रक्खे उसे पाप कहते हैं ] कर्मोके एक-देश क्षयको निर्जरा कहते हैं, तपसे निर्जरा और संवर दोनों होते हैं । समस्त कर्मोका क्षय मोक्ष कहलाता है । ये नौ पदार्थ हैं इनका विस्तार आत्मा से जानना चाहिये । इन्हीं नौ पदार्थों में से पुण्य और पाप को अलग कर देनेपर शेष सात पदार्थ सात तत्व कहलाते हैं। इस विवक्षा में पुण्य और पापका आस्रव तथा बन्ध तत्व में समावेश हो जाता है, अतः उनकी अलग से गणना नहीं की गई है । संक्षेप से जीवोंकी समस्त जातियों के परिगणन को जीव-समास कहते हैं। संक्षेप से उसके चौदह भेद होते हैं, जो इस प्रकार हैं... बावर सुहुमे–१ बादर एकेन्द्रिय, २ सूक्ष्म एकेन्द्रिय, ३ दोइन्द्रिय, ४ तीन इन्द्रिय ५ चार इन्द्रिय, ६ असैनी पञ्चेन्द्रिय और ७ सैनी पञ्चेन्द्रिय इस सात युगलोंके पर्याप्त और अपर्याप्त की अपेक्षा दो भेद होते हैं, अतः सबके मिलाकर चौदह जोवसमास होते हैं। विस्तार की अपेक्षा अठानवे जीवसमास होते हैं। उनके परिगणन के लिये यह गाथा उपयुक्त है. थावर-स्थावरोंके ४२, देवोंके २, नारकियों के २, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के ३४, विकलत्रय के ९ और मनुष्यों के ९ सब मिलाकर ९८ जीवसमास होते हैं। १. सर्वप्रतिषु स शब्दो वर्तते । २. सर्वप्रतिषु पुण्यपापयोलक्षणं नास्ति तदनेन प्रकारेण शेयं । पुनान्यात्मानं तत्पुण्यं । पाति राति भावात्मानं सत्तापं । For Personal & Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते [५. ९५अस्या विवरणं-पृथ्वीकायिकसूक्ष्म-बादर-पर्याप्त अपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त ६ । तथा अप् ६ । तेज ६ । वायु ६ एवं २४ । वनस्पतिकायिकभेद २ प्रत्येक साधारण साधारणभेद १२ नित्यनिगोदसूक्ष्म-बादर-पर्याप्त अपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त ६ तथा इतर-निगोद-सूक्ष्म बादर पर्याप्त अपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त ६ एवं १२ । प्रत्येक भेद ६ सप्रतिष्ठितप्रत्येकवाटिकादौ, अप्रतिष्ठिताः स्वयमेव ते च पर्याप्त-अपर्याप्तलब्ध्यपर्याप्त । एवं थावरवेयालीसा । सुरभेद २ पर्याप्त-अपर्याप्त । नारकभेद २ पर्याप्त-अपर्याप्त। पंचेन्द्रियतिर्यग्भेद ३४। जलचरभेद २ गर्भज-सम्मूर्च्छन गर्भजभेद २ पर्याप्त-अपर्याप्त । सम्मूर्च्छनभेद पर्याप्त-अपर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्त ५। तथा नभश्चर ५ । स्थलचर ५ । एवं १५ संज्ञिभेदाः । तथा १५ असंज्ञि - इस गाथाका स्पष्ट विवरण इस प्रकार है-... पृथिवीकायिक जीवोंके सक्ष्म और वादरकी अपेक्षा दो भेद हैं और उनके प्रत्येक के पर्याप्त अपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्तकी अपेक्षा तीन-तीन भेद हैं, इस तरह पृथिवीकायिक के छह भेद हुए। इसी प्रकार जलकायिक अग्नि कायिक और वायु-कायिक के प्रत्येक के छह-छह भेद हुए | चारोंके मिलाकर चौबीस भेद हुए। वनस्पतिकायिक मलमें प्रत्येक और साधारण इस प्रकार दो भेद हैं । इनमें साधारण वनस्पतिके बारह भेद होते हैं जो इस प्रकार हैं-साधारण वनस्पतिके नित्य निगोद और इतर निगोदके भेदसे मूल में दो भेद है, फिर दोनों के सूक्ष्म और बादर को अपेक्षा दो-दो भेद हैं, इस तरह चार भेद हुए फिर चारों के पर्याप्त अपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्तकी अपेक्षा तीन भेद हैं इसप्रकार साधारण वनस्पतिके बारह भेद हुए। प्रत्येक वनस्पतिके सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक को अपेक्षा मूल में दो भेद हैं, फिर दोनों के पर्याप्त अपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त की अपेक्षा तीन-तोन भेद हैं, इस तरह छह भेद होते हैं । इस प्रकार पृथिवी आदि के चार के २४, साधारण वनस्पति के १२ और प्रत्येक वनस्पति के ६ सब मिलाकर एकेन्द्रिय के वियालीस जीवसमास हैं। देवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त की अपेक्षा दो जीवसमास हैं। नारकियोंके भी पर्याप्त और अपर्याप्त की अपेक्षा दो जीव-समास हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के चौंतीस भेद हैं जो इस प्रकार हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके मूलमें सैनी और असैनो की अपेक्षा दो भेद हैं उनमें दोनों के जलचर स्थलचर और नभश्चर की अपेक्षा तोन-तीन भेद हैं और तीनों गर्भज तथा सम्मूर्च्छनको अपेक्षा दो-दो भेद हैं। इनमें से गर्भज के पर्याप्तक और अपर्याप्तक की अपेक्षा दो-दो For Personal & Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ९५] भावप्राभृतम् ४५७ भेदाः । भोगभूमिजतिर्यग्भेद ४ स्थलचर पर्याप्त अपर्याप्त । नभश्चर पर्याप्त-अपर्याप्त । एवं ४ । एवं पंचेन्द्रियतियंग्भेद ३४ । विकलत्रयेभेद ९ । द्वीन्द्रियपर्याप्त अपर्याप्त लयपर्याप्त, त्रीन्द्रियपर्याप्त अपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त, चतुरिन्द्रियर्पाप्त - अपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त । एवं ९ । मनुष्य भेद ९ । भोगभूमिजभेद २ पर्याप्त - अपर्याप्त, कुभोगभूमिजमनुष्य पर्याप्त अपर्याप्त, म्लेच्छखण्ड मनुष्य पर्याप्त - - अपर्याप्त, आर्यखण्ड मनुष्य पर्याप्त अपर्याप्तलब्ध्यपर्याप्त । एवंभेद ९ । एवं जीवसमासा अष्टानवतिः ( चउदसगुणठाणणामाई ) चतुर्दशगुणस्थाननामानि । यथा "मिच्छा सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । विरदा पमत्त इयरो अपुत्र अणियट्टि सुहमो य ॥ १ ॥ भेद और संमूर्च्छनके पर्याप्तक अपर्याप्तक तथा लब्ध्यपर्याप्तककी अपेक्षा तीन भेद होते हैं । इस तरह गर्भजके बारह और संमूर्च्छनके अठारह दोनोंके मिलाकर तीस भेद होते हैं उनमें भोगभूमिज तिर्यञ्च के चार भेद और जोड़नेसे पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके चौंतीस भेद हो जाते हैं । भोगभूमि में स्थलचर और नभश्चर ये दो ही भेद होते हैं, जलचर भेद नहीं होता । तथा स्थलचर और नभश्चरके पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक की अपेक्षा दो दो भेद होते हैं, अत. चार भेद होते हैं । विकलेन्द्रिय जीवोंके नौ भेद हैं जो इस प्रकार हैं- द्वीन्द्रिय के पर्याप्तक अपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तकको अपेक्षा तीन भेद, त्रीन्द्रिय के पर्याप्तक, निवृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्त ककी अपेक्षा तीन भेद और चतुरिन्द्रियके पर्याप्तक, अपर्याप्तक तथा लब्ध्यपर्याप्त को अपेक्षा तीन भेद इस तरह तीनोंके मिलाकर नौ भेद होते हैं। मनुष्योंके नौ भेद हैं जो इस प्रकार हैं- भोगभूमिज मनुष्य के पर्याप्त और अपर्याप्तके भेद से दो भेद, कुभोग भूमिज मनुष्य के पर्याप्तक और अपर्याप्तक की अपेक्षा दो भेद, म्लेच्छखण्डज मनुष्य के पर्याप्तक और अपर्याप्तक की अपेक्षा दो भेद तथा आर्यखण्डज मनुष्यों के पर्याप्तक, अपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्तक की अपेक्षा तीन भेद, सब मिलाकर नौ भेद होते हैं। इस तरह जीवसमासके कुल भेद अठानवे होते हैं । अब चौदह गुणस्थानों के नाम कहते हैं • मिच्छा - मिध्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, १. अनयोः छाया पूर्व गता । जीवकाच्ये । For Personal & Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ षट्प्राभृते उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलि जिणो सगुणठाणाणि य कमेण सिद्धा [५.९५ अजोमी य । मुणेअव्वा ॥ २ ॥ उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवलिजिन और अयोगकेवलि जिन ये चौदह गुणस्थान हैं, इनका विवरण आगम से जानना चाहिये। हे जीव ! तू इन सबकी भावना कर, इनका श्रद्धान कर । प्रकृत ग्रन्थ में गुणस्थान शब्द का प्रयोग कई जगह आया है इसलिये उसके स्वरूप तथा भेदों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है मोह और योगके निमित्त से आत्मा के परिणामों में जो तारतम्य होता है उसे गुणस्थान कहते हैं । गुणस्थान के मिथ्यादृष्टि आदि चौदह भेद हैं । इनमें से प्रारम्भ के १२ गुणस्थान मोहके निमित्त से होते हैं और अन्त के २ गुणस्थान योग के निमित्त से । मोह कर्म की १ उदय, २ उपशम, ३ क्षय और ४ क्षयोपशम ऐसी चार अवस्थाएं होती हैं, इन्हीं के निमित्त से जीवके परिणामों में तारतम्य उत्पन्न होता है । उदय - आवाधा पूर्ण होनेपर द्रव्य क्षेत्र काल भावके अनुसार कर्मोंके निषेकों का अपना फल देने लगना उदय कहलाता है । उपशम - अन्तर्मुहूर्त के लिये कर्म-निषकों के फल देनेकी शक्तिका अन्तर्हित हो जाना उपशम कहलाता है। जिस प्रकार निर्मली या फटकली के सम्बन्ध से पानी की कीचड़ नीचे बैठ जाती है और पानी स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार द्रव्य क्षेत्रादि का अनुकूल निमित्त मिलने पर कर्मके फल देने की शक्ति अन्तर्हित हो जाती है। क्षय-कर्म प्रकृतियों का समूल नष्ट हो जाना क्षय है, जिस प्रकार मलिन पानी में से कीचड़ के परमाणु बिल्कुल दूर हो जाने पर उसमें स्थायी स्वच्छता आ जाती है उसी प्रकार कर्म - परमाणुओं के बिल्कुल निकल जाने पर आत्मा में स्थायी स्वच्छता उद्भूत हो जाती है । क्षयोपशम - वर्तमान काल में उदय आनेवाले सर्वघाति स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय और उन्हीं के आगामी काल में उदय आने वाले निषेकों का सदवस्था रूप उपशम तथा देशघाति प्रकृतिका उदय रहना इसे क्षयोपशम कहते हैं । कर्म - प्रकृतियों की उदयादि अवस्थामें आत्माके जो भाव होते हैं उन्हें क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। जिसमें कर्मोकी उक्त अवस्थाएं कारण नहीं होतीं उन्हें For Personal & Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ९५] भावप्राभृतम् ४५९ मिथ्यात्वगुणस्थानं ( १ ) सासादनगुणस्थानं (२) मिश्रगुणस्थानं (३) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानं (४) देशविरतगुणस्थान (५) प्रमत्तसंयतगुणपारिणामिक भाव कहते हैं । अब गुणस्थानों के संक्षिप्त स्वरूपका निदर्शन किया जाता है १. मिथ्यादृष्टि-मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, इन सात प्रकृतियों के उदय से जिसको आत्मा में अतत्वश्रद्धान उत्पन्न रहता है उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं । इस जोवको न स्वपरका भेद-विज्ञान होता है. न जिन प्रणोत तत्वका श्रद्धान होता है और न आप्त, आगम तथा निर्ग्रन्थ गुरु पर विश्वास हो होता है। २. सासादन सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दर्शन के काल में एक समय से लेकर छह आवली तक का काल बाकी रहने पर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक का उदय आजानेके कारण जो चतुर्थ गुणस्थानसे नीचे आ पड़ता है परन्तु अभी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नहीं आ पाया है उसे सासादन गुणस्थान कहते हैं। इसका सम्यग्दर्शन अनन्तानुबन्धीका उदय आजानेके कारण सासादन अर्थात् विराधनासे सहित हो जाता है। .. ३. मित्र-सम्यग्दर्शन के कालमें यदि मिश्र अर्थात् सम्यमिथ्यात्व प्रकृति का उदय आ जाता है तो यह चतुर्थ गुणस्थान से गिरकर तीसरे मित्र गुणस्थान में आ जाता है । जिस प्रकार मिले हुए दही और गुड़का स्वाद मिश्रित होता है उसी प्रकार इस गुणस्थानवी जीवका परिणाम भी सम्यक्त्व और मिथ्यात्व से मिश्रित रहता है। अनादिमिथ्यादृष्टि जीव चतुर्थ गुणस्थान से गिर कर ही तृतीय गुणस्थान में आता है परन्तु सादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम गुणस्थान से भी तृतीय गुणस्थान में पहुंच जाता है। ... ___४. असंयत सम्यग्दृष्टि-मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, इन सात प्रकृतियोंके उपशमादि होनेपर जिसकी आत्मा में तत्व श्रद्धान तो प्रकट हुआ है परन्तु अप्रत्याख्यान-आवारणादि कषायों का उदय रहने से संयम भाव जागृत नहीं हुआ है उसे असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं। . ५. देशविरत-अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदयाभावी क्षय और सदवस्था रूप उपशम प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होनेपर जिसके For Personal & Private Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [५. ९५स्थानं ( ६ ) अप्रमत्तसंयतगुणस्थानं ( ७ ) अपूर्वकदणगुणस्थानं ( ८) अनिवृत्ति एकदेशचारित्र प्रकट होजाता है उसे देशविरत कहते हैं। यह त्रस हिंसा से विरत होजाता है इसलिये विरत कहलाता है और स्थावर हिंसा से विरत नहीं होता है इसलिये अविरत कहलाता है । इसके अप्रत्याख्याना- . वरण कषाय के क्षयोपशम और प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय में तारतम्य होनेसे दर्शनिक आदि ग्यारह अवान्तर भेद होते हैं। ६. प्रमत्तविरत-प्रत्याख्यानावरण कषायका उदयाभावी क्षय और सदवस्था रूप उपशम तथा संज्वलन का तीव्र उदय रहने पर जिसको आत्मा में प्रमाद सहित संयम प्रकट होता है, उसे प्रमत्तसंयत कहते हैं। इस गुणस्थान का धारक नग्न-मुद्रा में रहता है। यद्यपि यह हिंसादि पापोंका सर्व-देश त्याग कर चुकता है तथापि संज्वलन चतुष्क का तीव्र उदय साथ में रहने से इसके चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, निद्रा तथा स्नेह इन पन्द्रह प्रमादों से इसका आचरण चित्रल-दूषित बना रहता है। ७. अप्रमत्तविरत-संज्वलनके तीव्र उदय की अवस्था निकल जानेके कारण जिसके आत्मा से ऊपर कहा हआ पन्द्रह प्रकार का प्रमाद नष्ट हो जाता है, उसे अप्रमत्त-विरत कहते हैं। इसके स्वस्थान और सातिशय को अपेक्षा दो भेद हैं। जो छठवें और सातवें गुणस्थान में हो झूलता रहता है वह स्वस्थान कहलाता है और जो उपरितन गुणस्थानों में चढ़ने के लिये अधःकरण रूप परिणाम कर रहा है वह सातिशय अप्रमत्त विरत कहलाता है। जिसमें सम-समय अथवा भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश तथा विसदृश दोनों प्रकार के होते हैं उसे अधःकरण कहते हैं। ८. अपूर्वकरण-जहाँ प्रत्येक समय में अपूर्व-अपूर्व नवीन-नवीन हो परिणाम होते हैं उसे अपूर्वकरण कहते हैं। इसमें समसमयवर्ती जीवोंके परिणाम सदृश तथा विसदृश दोनों प्रकार के होते हैं और भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम विसदृश ही होते हैं । ९. अनिवृत्तिकरण-जहाँ सम-समय-वर्ती जीवोंके परिणाम सदृश हो और भिन्न समय-वर्ती-जीवोंके परिणाम विसदृश ही होते हैं उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। यह अपूर्वकरणादि परिणाम उत्तरोत्तर विशुद्धताको लिये हुए होते हैं तथा संज्वलन चतुष्क के उदय को मन्दता में क्रमसे प्रकट होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१ -५.९५] भावप्राभूतम् करणगुणस्थानं (९) सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानं (१०) उपशान्तकषायगुणस्थानं (१३) १० सक्षमसाम्पराय-जहाँ केवल संज्वलन लोभका सूक्ष्म उदय रह जाता है उसे सूक्ष्म-साम्पराय कहते हैं। अष्टम गुणस्थान से उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी ये दो श्रेणियाँ प्रकट होती हैं। जो चारित्र मोहका उपशम करने के प्रयत्नशील हैं वे उपशम श्रेणी में आरूढ होते हैं और जो चारित्र मोहका क्षय करने के लिये प्रयत्नशील हैं वे क्षपक श्रेणी में आरूढ होते हैं । परिणामों की स्थिति के अनुसार उपशम या क्षपक श्रेणो में यह जीव स्वयं आरूढ हो जाता है, बुद्धिपूर्वक आरूढ नहीं होता। क्षपक-श्रेणी पर क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही आरूढ हो सकता है परन्तु उपशमश्रेणीपर औपशमिक और क्षायिक दोनों सम्यग्दृष्टि आरूढ हो सकते हैं। [यहाँ विशेषता इतनी है कि जो औपशमिक सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणी पर आरूढ होगा वह श्रेणी पर आरूढ होनेके पूर्व अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना कर उसे सत्ता से दूर कर द्वितीयोपशमिक सम्यग्दृष्टि हो जायगा।] जो उपशम श्रेणी पर आरूढ होता है वह सूक्ष्म-साम्पराय गुणस्थानके अन्त तक चारित्र मोहका उपशम कर चुकता है और जो क्षपक श्रेणी पर आरूढ होता है वह चारित्र मोह का क्षय कर चुकता है। ११ उपशान्तमोह-उपशम-श्रेणी वाला जीव दसवें गुणस्थान में चारित्र मोहका पूर्ण उपशम कर ग्यारहवें उपशान्त मोह गुणस्थान में आता है। इसका मोह पूर्ण रूप में शान्त हो चुकता है और शरद ऋतु के सरोवर के समान इसकी सुन्दरता होती है अन्तमुहवं तक इस गुणस्थान में ठहरने के बाद यह जीव नियम से नीचे गिर जाता है। . १. आगम में आचार्य मत-भेदकी अपेक्षा द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि को मोह कर्म की २८ और २४ प्रकृतियों की सत्ता वाला बतलाया गया है जो अनन्ता. नुबन्धी की विसंयोजना करता है उसके २४ प्रकृतियों को सत्ता रहती है और जो अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना नहीं करता है उसके २८ प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इस पक्षमें द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन का लक्षण यही रहता है कि जो उपशम सम्यक्त्व क्षयोपशम-सम्यक्त्व के बाद हो वह द्विती. योपशम सम्यक्त्व है। For Personal & Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ षट्नाभृते [५. ९६क्षीणकषायगुणस्थानं ( १२ ) संयोगकेवलिगुणस्थानं (१३ ) अयोगकेवलिगुणस्थानं ( १४ ) चेति । चतुर्दशगुणस्थानानां विवरणमागमाद्वेदितव्यं । तानि त्वं हे जीव ! भावय-रुचिमानय श्रद्धानं कुर्विति । . णवविहबभं पयहिं अब्बभं दसविहं पमोत्तूण । मेहुणसण्णासत्तो भमिओसि भवण्णवे भीमे ॥१६॥ नवविधब्रह्मचर्य प्रकटय अब्रह्म दशविधं प्रमुच्य । ____ मैथुनसंज्ञासक्तः भ्रमितोसि भवार्णवे भीमे ॥१६॥ ( णवविहबंभं पयडहि ) नवविधं नवप्रकार ब्रह्मचर्य हे जीव ! त्वं प्रकटय सर्वकालमात्मप्रत्यक्षं कुरु । मनोवचनकायानां प्रत्येकं कृतकारितानुमतानि त्रीणि त्रोणीति नवविधं ब्रह्मोच्यते । अथवा १२ क्षीणमोह-क्षपकश्रेणी वाला जीव दसवें गुणस्थान में चारित्र मोहका पूर्ण क्षय कर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में आता है। यहां इसका मोह बिलकुल ही क्षीण हो चुकता है और स्फटिकके. भाजनमें रखे हुए स्वच्छ जलके समान इसकी स्वच्छता होती है । १३ सयोगकेवली-बारहवें गुणस्थानके अन्तमें शुक्लध्यानके द्वितीय पादके प्रभाव से ज्ञानावरणादि कर्मोंका युगपत् क्षय कर जीव तेरहवें गुणस्थानमें प्रवेश करता है। यहाँ इसे केवलज्ञान प्रकट हो जाता है इसलिये केवली कहलाता है और योगोंकी प्रवृत्ति जारी रहने से संयोग कहा जाता है। दोनों विशेषताओंको लेकर इसका सयोगकेवली नाम प्रचलित है। १४ अयोगकेवली-तेरहवें गुणस्थानके अन्तमें शुक्लध्यान के तृतीय पादके प्रभाव से कर्म प्रकृतियों की निर्जरा होनेसे जिनकी योगोंको प्रवृत्ति दूर हो जाती है उन्हें अयोगकेवली कहते हैं । यह जीव इस गुणस्थान में 'अ इ उ ऋ लु' इन पांच लघु अक्षरों के उच्चारण में जितना काल लगता है उतने ही काल तक ठहरता है। अनन्तर शुक्लध्यान के चतुर्थ पादके प्रभावसे सत्ता में स्थित पचासी प्रकृतियों का क्षय कर एक समय के भीतर सिद्ध क्षेत्र पहुंच जाता है। ___ गाथार्थ-हे जीव ! तू दश प्रकार के अब्रह्म का त्याग कर नौ प्रकार के ब्रह्मचर्यको प्रकट कर। मैथुनसंज्ञामें आसक्त हुआ तू इस भयंकर भवसागर में भटकता आ रहा है ॥९६|| विशेषार्थ-मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना इन नौ कोटियोंसे ब्रह्मचर्य धारण करना नौ प्रकारका ब्रह्मचर्य है अथवा For Personal & Private Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.९६] भावप्रामृतम् 'इत्यिविसयाहिलासो अंगविमोक्खो य पणिदरससेवा । संसत्तदव्वसेवा तहिदियालोयणं चेव ॥१॥ सक्कारपुररक्कारो अतीदसुमरणागदहिलासो । इट्ठविसयसेवा वि य नवभेदमिदं अबभं तु ॥२॥ इति नवभेदमवह तद्वर्जनां नवभेद ब्रह्मचयं ज्ञातव्यमित्यर्थः । ( अब्बंभं दसविहं पमोत्तूण ) अब्रह्मचर्य दशविधं प्रमुच्य परिहृत्य । किं तद्दशविधमब्रह्मेति चेत् ? चिन्ता दिदृक्षा निःश्वासो ज्वरो दाहोरुचिस्तथा । मूर्धोन्मत्तोऽसुसन्देहो मरणं दशधा स्मरः ॥१॥ ( मेहुणसण्णासत्तो ) मैथुनस्य कमनीयकामित्या आलिङ्गनचुम्वनचूषणांदिसंज्ञायामासक्तो लंपटो हे जीव ! । ( भमिओसि भवण्णवे भीमे ) भ्रमितोऽसि भ्रान्तोऽसि पयंटिनोऽसिच्छेदनभेदनादिदुःखानि भुजानो भवार्णवे संसारसमुद्र चतुर्गतिलक्षणे भीमे भयानके रौद्रस्वभावे, अनन्तकालं दुःखी बभूविथेति । इथिविषया-१ स्त्री विषयक अभिलाषा करना, २ अङ्गका छोड़ना अर्थात् इन्द्रियको उत्तेजित करना लिंगको कड़ा करना, ३ गरिष्ठ रसका सेवन करना, ४ स्त्रियों से सम्बद्ध वस्त्रादिका सेवन करना, ५ स्त्रियोंके अंगोपांग आदिका देखना, ६ स्त्रियोंका सत्कार पुरस्कार करना, ७ पूर्वकालमें भोगे हुए भोगोंका स्मरण करना, ८ आगामी भोगोंकी इच्छा करना और ९ इष्ट विषयोंका. सेवन करना ये नौ प्रकारके ब्रह्मचर्य हैं। ___इस तरह नौ प्रकार के ब्रह्मचर्यका विवेचन करके अब दश प्रकारके अब्रह्मचर्यका वर्णन करते हैं। चिन्ता-१ स्त्री विषयक चिन्ता करना, २ देखने की इच्छा रखना, ३ निःश्वास चलना, ४ ज्वर आना, ५ दाह पड़ना, ६ भोजनादि में अरुचि होना, ७ मूर्छा, ८ उन्मत ९ प्राण सन्देह और दशा मरण ये कामकी दश अवस्थाएं हैं । यही दश प्रकारका अब्रह्मचर्य है । हे जीव ! तू इसका त्याग कर नौ प्रकार के ब्रह्मचर्यको प्रकट कर । मैथुन संज्ञा में अर्थात् सुन्दर स्त्रियों के आलिंगतादि कार्यों में आसक्त होकर ही तू इस भयंकर संसार सागर में अनन्तकाल से भटकता चला आ रहा है ।।१६।। १. भगवती आराधना ८७९, ८८० । २. भगवती आराधनायां 'अंगविमोक्खो' इत्यस्य स्थाने वच्छिविमोक्खो इति ' पाठो वर्तते 'वच्छिविमोक्खो' इत्यस्य 'मेहनविकारानिवारणम्' संस्कृत टीकायाम् । For Personal & Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ षट्प्रामृते भावसहिदो य मुगिणो पावइ आराहणाचउक्कं च । भावरहिदो य मुणिवर भमह चिरं दोहसंसारे ॥९७॥ भावसहितश्च मुनीनः प्राप्नोति आराधनाचतुष्कं च। . भावरहितश्च मुनिवर ! भ्रमति चिरं दीर्घसंसारे ॥१७॥ ( भावसहिदो य मुणिणो) भावेन जिनसम्यक्त्वलक्षणेन सहिदो सहितः संहितः संयुक्तः श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागचरणकमलचंचरीकः, अथवा भावः . . पूर्वोक्तलक्षणः 'स्वशुद्धबुद्धकस्वभाव आत्मा हितो यस्य यस्मै वा स भावसं हितः । चकारान्न 'मूनेरन्येषामपि भव्यजीवानां हितः त्रैलोक्यलोकतारणसमर्थत्वात् । यो भावसहितः स पुमान् मुणिणो-मुनीनामिनः स्वामी मुनीनः स मुनिमुनिचक्रवर्ती । ( पावह आराहणाचउक्कं च ) प्राप्नोति लभते, कि तत् ? आराधनाचतुष्कं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसामाराधकत्वं प्राप्नोति । (भावरहिदो य मुणिवर ) भावरहितश्च जिनसम्यक्त्वातीतो वेषधारी मुनिः हे मुनिवर ! हे गाथार्ष-हे मुनिवर ! भाव-सहित श्रेष्ठ मुनि चार आराधनाओं को प्राप्त करता है और भाव रहित मुनि चिरकाल तक दीर्घ संसार में भ्रमण करता है ।।९७॥ विशेषार्थ-भावका अर्थ जिनसम्यक्त्व अर्थात् जिनेन्द्र देवकी अटूट श्रद्धा है। जो मुनि भाव-जिनसम्यक्त्वसे सहित होता है वह श्रीमान्भगवान्-अर्हन्त सर्वज्ञ-वीतराग देवके चरण कमलोंका भ्रमर होता है। अथवा भावका अर्थ शुद्ध बुद्धक-स्वभाव वाला आत्मा है उस आत्मासे जो सहित है वह भाव सहित कहलाता है। यहाँ 'भाव सहिदो य (भावसहितश्च ) इस पाठ में जो 'च' दिया है उससे यह अर्थ सूचित होता है कि भाव सहित मुनि, मुनिके लिये ही हितकारी नहीं है किन्तु अन्य भव्य जीवों के लिये भी हितकारी है, क्योंकि वह तीन लोकके प्राणियों को तारने में समर्थ होता है । जो मुनि ऊपर कहे हुए भाव जिनसम्यक्त्व अथवा शुद्ध बुद्धक-स्वभाव आत्मा से सहित है अर्थात् व्यवहार और निश्चय सम्यक्त्व से युक्त है वह मुनीन-मुनियों का इन स्वामी है, मुनियों का चक्रवर्ती है । ऐसा श्रेष्ठ मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप, इन चार आराधनाओं को प्राप्त होता है तथा १. स्वः शुकः म०। २. मुनिरन्येषा म०। For Personal & Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.९८] भावप्रामृतम् मुनिश्रेष्ठ (भमइ) प्राम्यति पर्यटति । (चिरं ) दीर्घकालं अनन्तकालंयावत्कालं सिद्धस्वामिनो मुक्तौ तिष्ठन्ति तावत्पर्यन्तं स मिथ्यादृष्टिमुनिभ्रमति । क्व ? ( दीहसंसारे ) दीर्घसंसारेऽनन्तभवसंकटे संसारसमुद्रे मज्जनोमज्जनं करोतीति भावार्थः। पावंति भावसवणा कल्लाणपरंपराइ सोक्खाई। दुक्खाई दव्वसवणा गरतिरिकुदेवजोणीए ॥९८॥ प्राप्नुवन्ति भावश्रमणाः कल्याणपरम्पराणि सुखानि । दुःखानि द्रव्यश्रमणा नरतिर्यक्कुदेवयोनौ ।। ९८ ।। ( पावंति भावसवणा ) प्राप्नुवन्ति लभन्ते, के ते ? भावश्रमणाः सम्यग्दृष्टयो दिगम्बराः । ( कल्लाणपरंपराइ सोक्खाई) कल्याणानां गर्भावतारजन्माभिषेकनिष्क्रमणज्ञाननिर्वाणलक्षणा ( नां ) परंपरा श्रेणिर्येषु सौख्येषु तानि कल्याणपरम्पराणि एवंविधानि सौख्यानि भावभ्रमणाः प्राप्नुवन्ति तीर्थकरपरमदेवा भवन्ति ( दुक्खाई दव्वसमणा ) दुःखानि प्राप्नुवन्ति, के ते ? दव्यसमणा-द्रव्यश्रमणा जिनसम्यक्त्वरहिता नग्नाः पशुसमानाः दिगम्बरा इति भावार्थः । क्व दुःखानि द्रव्यश्रमणाः प्राप्नुवन्तीति चेत् ? ( नरतिरयकुदेवजोणीए ) नराश्च मनुष्याः, तियंचश्च पशवः, कुत्सिता देवाश्च भावनामरा व्यन्तरा ज्योतिष्काश्च तेषां योनौ उत्पत्तिस्थाने । इसके विपरीत जो भाव से रहित है व्यवहार और निश्चय-सम्यक्त्व से रहित है, मात्र बाह्य नग्न वेषको धारण कर मुनि बना है वह दीर्घकाल तक अर्थात् जब तक सिद्ध परमेष्ठी मुक्ति में निवास करते हैं तब तक ( अनन्त कालतक ) दीर्घसंसारमें अनन्त जन्म, मरणसे युक्त संसार सागरमें मज्जनोन्मज्जन करता रहता है ॥९७।। गाथार्थ-भाव-मुनि कल्याणों की परम्परा से युक्त सुखों को प्राप्त होते हैं अर्थात् तीर्थकर होकर गर्भ जन्मादि कल्याणकोंसे युक्त परम सुखको प्राप्त होते हैं और द्रव्य मुनि मनुष्य तिर्यञ्च तथा कुदेव योनि में दुःखों को प्राप्त होते हैं ।।९८॥ विशेषार्थ-यहां भाव श्रमण का अर्थ सम्यग्दृष्टि दिगम्बर साधु है। भाव श्रमण गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान और निर्वाण इन पञ्चकल्याणकों की सन्तति से युक्त सुखों को प्राप्त होते हैं अर्थात् तीर्थंकर होते हैं और द्रव्य श्रमण अर्थात् मिथ्यादृष्टि साधु जो कि पशुके समान मात्र शरीर से नग्न हैं, मनुष्य तिर्यञ्च तथा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क नामक कुदेवोंकी योनि में नाना दुःखोंको प्राप्त होते हैं ।।९८॥ For Personal & Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ षट्प्रामृते [५. ९९छायालदोसदूसियमसणं गसिउं असुद्धभावेण। पत्तोसि महावसणं तिरियगईए अणप्पवसो ॥१९॥ षट्चत्वारिंशद्दोषदूषितमशनं ग्रसित्वाऽशुद्धभावेन । प्राप्तोसि महाव्यसनं तियंग्गतो अनात्मवशः ॥९९॥ (छायालदोसदूसियं ) षट्चत्वारिंशद्दोषर्दूषितं मलिनीकृतं । ( असणं गसिउ असुद्धभावेण ) अशनं पिण्डं ग्रसित्वा अशुद्धभावेन मिथ्यादृष्टिपरिणामेन ख्यातिपूजालाभकश्मलिना परिणामेन । ( पत्तोसि महावसणं ) प्राप्तोऽसि हे जीव ! महाव्यसनं महादुःखं । कस्यां ? ( तिरियगईए अणप्पवसो ) तिर्यग्गत्यामनात्मवशो जिव्होपस्थादिषरिन्द्रियपराधीन इति भावः । ___ अथ के ते षट्चत्वारिंशदशनदोषा अशनस्येति चेत् ? षोडशसंख्या उद्गमदोषाः, तथा षोडशोत्पादनदोषाः, दशविधा एषणादोषाः, संयोजनाप्रमाणाङ्गारधूमदोषाश्चत्वार इति षट्चत्वारिंशदशनदोषाः प्राणिनः प्राणव्यपरोप आरम्भ उच्यते ( १ ) प्राणिनः उपद्रवणं उपद्रव कथ्यते (२ ) प्राणिनोऽङ्गच्छेदादिनिद्रावणमभिधीयते ( ३ ) प्राणिनः सन्तापकरणं परितापनं व्याह्रियते ( ४ ) एतैश्चतुभिर्दोषनिष्पन्नमन्नमतिनिन्दितमवःकर्म प्रपिपाद्यते । तदधःकर्म मनोवचनकायानां त्रयाणां प्रत्येकं कृतकारितानुमतभेदैनवविधं भवति । तेनाधः-कर्मणा रहिता गाथार्थ--हे जोव ! तू अशुद्ध भावसे छयालीस दोषों के दूषित भोजन को ग्रहण कर तिर्यञ्च गति में पराधीन बन करके महा दुःख को प्राप्त हुआ है ॥२९॥ विशेषार्थ-यहां अशुद्ध भावसे मिथ्यादृष्टि परिणाम अथवा ख्याति लाभ पूजा आदि से मलिन परिणाम लेना है । हे जोव ! तू इस अशुद्ध भावसे छयालीस दोषों से दूषित आहार को ग्रहण कर तिर्यञ्चगति में उत्पन्न हुआ है और वहां तूने जिह्वा तथा उपस्थ आदि छह इन्द्रियों के पराधीन होकर बहुत भारी दुःख को प्राप्त किया है। अब आहार के वे छयालीस दोष कौन हैं ? इसका वर्णन करते हैं सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दश एषणा दोष और चार संयोजन, अप्रमाण, अङ्गार तथा धूम दोष, इस प्रकार सब मिलाकर आहार-सम्बन्धी छयालीस दोष होते हैं। प्राणोके प्राणोंका विघात करना आरम्भ कहलाता है, किसी प्राणोको उपद्रव करना उपद्रव कहा जाता है, प्राणोके अङ्गोका छेद आदि करना विद्रावण कहलाता है और प्राणोको संताप करना परितापन कहा जाता है । इन चार दोषोंसे तैयार हुआ अन्न For Personal & Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६७ -५. ९९] भावप्राभृतम् उद्गमाख्यषोडशदोषवर्जिता उत्पादनषोडशदोषः परित्यक्ता एषणादशदोषः परिहृताः संयोजनाप्रमाणाङ्गारघूमनामभिश्चतुभिदौषरुज्झिता ज्ञानाम्यासध्यानधर्मोपदेशमोक्षप्राप्त्यादिकारणोपेता एषणासमितिप्रोक्तक्रमप्राप्ताशनसेवा भिक्षाशुद्धिगुणसमूहरक्षादक्षा वेदितव्या तस्यां उदृिष्टादयः षोडशदोषा वर्जनीयाः । ते के ? तन्नामनिर्देशः क्रियते । उद्दिष्टः (१) अध्यवधिः (२) पूति ( ३ ) मिश्रं ( ४ ) स्थापितं (५) बलिः ( ६ ) प्राभृतं (७) प्राविष्कृतं (८) क्रीतं (९) प्रामृष्यः (१०) परिवर्तः ( ११ ) अभिहतं ( १२) उभिन्न (१३ ) मालिकारोहणं ( १४ ) आच्छेद्यं (१५ ) अनिसृष्टं ( १६ ) चेति षोडशोद्गमदोषाः । अथोद्दिष्टादीनां षोडशानामर्थविशेष उच्यते-यदन्नं स्वमुद्दिश्य निष्पन्नं तदुद्दिष्टं, अथवा संयतानुद्दिश्य निष्पन्न, अथवा पाषंडिनं उद्दिश्य निष्पन्नं, अथवा दुर्बलानु अतिनिन्दित अधः कर्म कहलाता है। वह अधःकर्म मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना के भेद से नौ प्रकार का होता है। जो आहार ऊपर कहे हुए अधःकर्म से रहित है, उद्गम के सोलह, उत्पादन के सोलह, एषणा के दश तथा संयोजन अप्रमाण अङ्गार और धूम नामक चार दोषों से रहित है, ज्ञानाभ्यास, ध्यान, धर्मोपदेश तथा मोक्ष प्राप्ति आदि कारणोंसे सहित है एवं एषणा समिति में कहे हुए क्रमसे प्राप्त है उसका सेवन करना भिक्षा शुद्धि है। यह भिक्षा-शुद्धि गुण समूह को रक्षा करने में दक्ष है । भिक्षा-शुद्धि में उद्दिष्ट आदि सोलह उद्गम दोष छोड़नेके योग्य हैं । अब उन सोलह उद्गम दोषों के नाम लिखते हैं-- १ उदिष्ट, २ अध्यवधि, ३ पूति, ४ मिश्र, ५ स्थापित, ६ बलि, ७ प्राभृत, ८ प्राविष्कृत, ९ क्रीत, १० प्राभृष्य, ११ परिवर्त, १२ अभिहंत, १३ उद्भिन्न, १४ मालिका-रोहण, १५ आच्छेद्य और १६ अनिसृष्ट । ... आगे इन उद्दिष्ट आदि सोलह उद्गम दोषोंका विशेष अर्थ कहा जाता है. जो अन्न अपने उद्देश्यसे बनाया गया है वह उद्दिष्ट है अथवा जो मुनियों को लक्ष्य कर बनाया गया है अथवा जो पाखण्डियों को लक्ष्य कर बनाया गया है, अथवा जो दुर्बल मनुष्यों को लक्ष्य कर बनाया गया है वह सब उद्दिष्ट कहलाता है । जिसमें से प्राण निकल चुके हैं वह प्रासुक कहलाता है, जो अन्न प्रासुक है तथा चमड़े में रखे हुए जल आदि से नहीं छआ गया है ऐसा अन्न भी यदि अपने लिये तैयार किया गया है तो वह मुनियों के लेने योग्य नहीं है। इस विषय में दृष्टान्त है-जिस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ षट्प्राभूते [ ५.९९ द्दिश्य निष्पन्नं तदन्नमुद्दिष्टमुच्यते । प्रगता असवः प्राणा यस्मात्तत्प्रासुकं चर्मजलादिभिरस्पृष्टमप्यन्नमात्मार्थं कृतं तत्संयतैनं सेव्यं । अत्र दृष्टान्तः - यथा मदनोद मत्स्यनिमित्तं कृते मत्स्या एव माद्यन्ति न तु दुर्दुरा भेका माद्यन्ति तथा यतिरपि दोषसहितमन्नमुद्दिष्टं न सेवते (१) अथाध्यवधिर्नाम दोषो द्वितीय उच्यते यतीनां - पाके क्रियमाणे आत्मन्यागते च सति तत्र पाके तन्दुला अम्बु चाषिकं क्षिप्यते सोऽव्यवधिर्दोष उच्यते, अथवा यावत्कालं पाको न भवति तावत्कालं तपस्विनां रोघः क्रियते सोऽध्यवधिर्दोष उत्पद्यते ( २ ) अथ पूतिनाम तृतीयं दोषमाहेयत्प्रासुकं पात्रं कांस्यपात्रादिकं मिध्यादृष्टिप्रातिवेशैमिथ्यागुर्वर्थं दत्तं तत्पात्रस्थमन्नादिकं महामुनीनामयोग्यं पूत्युच्यते (३) 'यर्वप्रासुकेन मिश्रं तन्मिश्रं ( ४ ) पाकभाजनाद्गृहीत्वा यदन्नं स्वगृहेऽन्यगृहे वा स्थापितं, अथवान्यस्मिन् भाजने भाण्डेऽन्नादिकं निष्पन्नं द्वितीये कांस्यपात्राद्वौ क्षिप्त्वा शोधनाद्यर्थं तृतीये भाजने मुच्यते तदन्नं मुनीनामयोग्यं किन्तु भाण्डान्मुनिभोजनपात्रे एव मुच्यते तस्माद्गृहीत्वा मुनये किसीने मत्स्यों के निमित्त मादक जल तैयार किया तो उसमे मत्स्य हो मदको प्राप्त होते हैं मेण्डक नहीं, उसी प्रकार मुनि भो दोष सहित उद्दिष्ट अन्न का सेवन नहीं करते। यह पहला उद्दिष्ट नामका दोष है १ । अब अध्यधि नामक दूसरा दोष कहा जाता है - जहाँ तेयार होते हुए भोजन में मुनि पहुँचने पर और अधिक चावल तथा जल डाल दिया जाता है वह अध्यधि नामका दोष कहलाता है अथवा जब तकं भोजन पक कर तैयार नहीं हो जाता है तब तक मुनिको उच्चासन पर हो रोके रखना अधि नामका दोष है २ । आगे पूति नामका तीसरा दोष कहते हैं - काँसे आदिका जो प्रासुक पात्र मिथ्यादृष्टि पड़ोसियोंने मिथ्यागुरुओं के लिये दिया था उस पात्र में रक्खा हुआ अन्न आदिक महामुनियों के अयोग्य होता है ऐसा अन्न पूर्ति कहलाता है । भावार्थ - मिथ्यादृष्टि पड़ोसी काँसे आदि से निर्मित जिन पात्रों में भोजन रख कर मिथ्या गुरुओं को दिया करते हों उन्हीं पात्रोंको पड़ोसो के यहाँ से लेकर उसमें आहार रख मुनियों को देना पूर्ति दोष कहलाता है ३ । जो अप्रासुक आहारसे मिला हो वह मिश्रदोष से दूषित है जैसे अधिक गर्म जलको शीतल जलके साथ मिला कर पीने के योग्य बनाना ४ । पकाने के बर्तन से निकाल कर जो अन्न अपने घर में अथवा दूसरे के घर में अन्य बर्तन में रखा जाता है वह स्थापित नामका दोष है अथवा अन्य बर्तन में जो भोजन बना हो उसे कांसे आदि के दूसरे 1 १. यत्प्रासुकेन म० । For Personal & Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ९९] भावप्राभृतम् ४६९ दीयते, अन्यथा स्थापितं नाम दोषः (५) यक्षादीनां बलिदानोद्धृतं अन्नं बलिरुच्यते, संयतागमनाथं बलिकरणं बलिः कथ्यते (६) अस्यां वेलायां दास्यामि अस्मिन् दिवसे दास्यामि, अस्मिन् मासे दास्यामि, अस्यामृतौ दास्यामि, अस्मिन् वर्षादौ दास्यामीति नियमेन यदन्न मुनिभ्यो दीयते तत्प्राभृतं कथ्यते (७) भगवन्निदं मदीयं गृहं वर्तते यत्रैवं गृहप्रकाशकरणं भवति निजगृहस्य गृहिणा प्रकटनं क्रियते, अथवा भाजनादीनां संस्कारः भाजनादीनां स्थानान्तरणं वा प्राविष्कृतमुच्यते (८) विद्यया क्रोतं द्रव्यवस्त्रभाजनादिना वा यत्क्रोतं तत्क्रीतं कथ्यते (९) कालान्त. रेणाव्याजेन वा स्तोकमणं कृत्वा यतीनां दानाथं यदर्जितं तत्प्रामृष्यं 'कथ्यते (१०) कस्यचिद्गृहस्थस्य ब्रीहीन् दत्वा शालयो गृह्यन्ते, अथवा निजं कूरं दत्वा परकूरो पात्र में रक्खा और फिर शोधने अथवा ठण्डा आदि करने के लिये तीसरे पात्र में रखा जाता है वह अन्न मुनियों के अयोग्य है किन्तु वनाने के वर्तन से निकाल कर सीधा उस बर्तन में रखना जिसमें से मुनिके लिये आहार दिया जा रहा हो ऐसा अन्न मुनियोंके योग्य होता है अन्यथा स्थापित नामका दोष होता है ५ । यक्ष आदिको बलि देनेके लिये जो अन्न निकाल कर रक्खा है वह बलि कहलाता है अथवा हमारे घर मुनि आगे तो उनके लिये यह अन्न दूंगर इस अभिप्राय से वर्तन से पृथक् रक्खा हुआ अन्न बलि कहलाता है ६ । 'मैं इस समय आहार दूंगा, इस दिन दूंगा, इस मास में दूंगा, इस ऋतु में दूंगा अथवा इस वर्ष में दूंगा, इस प्रकार के नियम से मुनियों के लिए जो अन्न दिया जाता है वह प्राभूत कहलाता है ७ । 'भगवन् ! यह मेरा घर है' इस प्रकार गृहस्थ द्वारा जिसमें अपने घरका प्रकाश-प्रकटो-करण किया जाता है अथवा जहां बर्तनों को सफाई अथवा स्थानान्तरण-एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना किया जा रहा हो जिससे मुनिको पता चलजावे कि अमुक व्यक्तिका घर यह है वह प्राविष्कृत दोष कहा जाता है ८। जो भोजन विद्या के द्वारा अर्थात् नृत्य दिखाकर, गाना सुनाकर या बाजा बजाकर खरीदा गया हो अथवा द्रव्य, वस्त्र या बर्तन आदि देकर लिया गया हो वह क्रीत नामका दोष है ९ । तुम मुझे अमुक वस्तु दे दो मैं इतने समय बाद वापिस दे दूंगा, मुझे मुनि को दान देनेक लिये इस वस्तु की आवश्यकता है, ऐसा कह कर अथवा कुछ प्रयोजन बिना बताये ही थोड़ा ऋण कर मुनियों को देनेके लिये जो अन्न इकट्ठा किया जाता है वह प्रामृष्य दोष कहलाता है १० । जहाँ १. मृष्यते म०। For Personal & Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते [ ५.९९ गृह्यते निजाम्यूषान् दत्वा परेषामभ्युषा गृह्यन्ते एवं यत्परिवर्त्यते यतिभ्यो दीयते दास्यते वा स परिवर्तः कथ्यते (११) ग्रामात् पाटकात् गृहान्तराद्यदायातं तदभिहित कथ्यते तद्योग्यं न भवति । कुतोऽप्यायातं योग्यं भवतीति चेत् ? भवति योग्यं यदि ऋजुत आसन्नादासमाद्गृहादायातं तत् योग्यं । पंक्तिबद्धात् षष्ठाद्गृहाद्यदायातं तत्कल्पते सप्तमाद्गृहात् यदुपढौकितं तन्न कल्पते इत्यर्थः (१२) विमुद्रादिक यदन्नादिकं भवति तदुद्भिन्नमुच्यते -- उद्घाटितं न भुज्यते इत्यर्थः (१३) मालिकादिस - मारोहणेन यदानीतं तन्मालिका रोहणमुच्यते — उपरितनभूमेर्यद्वृतादिकमघस्तनभूमी समानीतं तन्न कल्पते इत्यर्थः (१४) 'राजभयाच्चौरभयाद्यद्दीयते तदाच्छेद्य मुद्यते (१५) ईशानीशानभिमतेन स्वाम्यस्वाम्यनभिमतेन यद्दोयते तदनिसृष्टं कथ्यते (१६) इत्येते षोडशोद्गमदोषा भवन्ति । ४७० किसी गृहस्थ को मोटी धान देकर उसके बदले महीन धान ली जाती है अथवा अपना मोटे चावलों का भात देकर दूसरे से महीन चावलों का भात लिया जाता है अथवा अपने मोटे अनाज के मांडे देकर दूसरे से अच्छे अनाज के मांडेलिये जाते हैं, इस प्रकार परिवर्तन कर मुनियों के लिये जो दिया जाता है अथवा दिया जावेगा वह परिवर्त दोष कहलाता है ११ । जो आहार दूसरे ग्राम, दूसरे मुहल्ला अथवा दूसरे घर से लाया गया हो वह अभिहित कहलाता है । ऐसा आहार मुनियों के योग्य नहीं है । प्रश्न - कहीं से आया हुआ योग्य भी होता है ? उत्तर - योग्य होता है, यदि सीधो पंक्ति में स्थित निकटवर्ती सातवें घर से पहले-पहले तक के घरोंसें लाया गया हो । अर्थात् एक पंक्ति में स्थित छठवें घर से जो आहार लाया गया है वह मुनियों को देनेके योग्य है किन्तु सातवें घरसे जो लाया गया है वह देनेके योग्य नहीं है १२ । जो अन्नादिक विमुद्रित हो अर्थात् उघड़ा पड़ा हो वह उद्भिन्न कहलाता है । ऐसे आहार को लेना उभिन्न दोष कहलाता है १३ । जो वस्तु आहार के समय ऊपर अटारी आदि पर चढ़कर नोचे लाई गई हो वह माला रोहण दोष कहलाता है जैसे नीचे की भूमिमें आहार हो रहा हो आवश्यकता देख ऊपर जाकर घी आदि निकाल लाना । इस तरह से लाई हुई वस्तु मुनिके योग्य नहीं है १४ । राजाके भय से अथवा चोरके भय से जो वस्तु छिपकर दी जाती है वह आच्छेद्य कहलाती है (१५) घरके स्वामी अथवा अन्य सदस्यों को संमतिके बिना जो आहार दिया जाता है वह अनिसृष्ट १. चोरभयादिभयात् क० । For Personal & Private Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ९९ ] भावप्राभृतम् ४७१ अथोत्पादनदोषाः षोडश उच्यन्ते -- तन्नामनिर्देशो यथा । धात्रीवृत्तिः (१) दूतत्वं (२) भिषग्वृत्तिः (३) निमित्तं ( ४ ) इच्छाविभाषणं (५) पूर्वस्तुति: ( ६ ) पश्चात्स्तुति: (७) क्रोषचतुष्कं ( ८- ९-१०-११) वश्यकर्म (१२) स्वगुणस्तवनं (१३) विद्योपजीवनं (१४) मंत्रोपजीवनं (१५) चूर्णोपजीवनं (१६) । बाललालनशिक्षादिर्घात्रीत्वं (१) दूरबन्धुजनानां वचनानां नयनमानयनं च दृतत्वं (२) गजचिकित्सा विषचिकित्सा जांगुल्यपरनामा बालचिकित्सा तादृशान्यचिकित्साभिरशनार्जनं भिषग्वृत्तिः (३) स्वरान्तरिक्ष भौमाङ्गव्यञ्जनच्छिन्नलक्षणस्वप्नाष्टाङ्गनिमित्तैरशनार्जनं निमित्त (४) कश्चित्पृच्छति हे मुने ! दीनहीनादीनामन्नादिदानेन पुण्यं भवेन्न वा भवेत् ? मुनिरन्नाथं वदति पुण्यं भवेदेवेत्यभ्युपगम इच्छाविभाषण कहलाता है (१६) । ये सोलह उद्गम दोष हैं, आहार- देय पदार्थ से सम्बद्ध हैं तथा श्रावक के आश्रित हैं अर्थात् इनका दायित्व श्रावक के ऊपर है | अत्र आगे सोलह उत्पादन दोष कहे जाते हैं। सबसे प्रथम उनके नाम निर्दिष्ट करते हैं - धात्री वृत्ति १ दूतत्व २, भिषग्वृत्ति ३, निमित्त ४, इच्छाविभाषण ५, पूर्व स्तुति ६, पश्चात् स्तुति ७, क्रोध चतुष्क (८-९१०-११) वश्यकर्म १२, स्वगुणस्तवन १३, विद्योपजीवन १४, मन्त्रोपजीवन १५, चूर्णोपजीवन १६ । इनका स्वरूप इस प्रकार है बालकों के लालन-पालन तथा शिक्षा आदिके द्वारा गृहस्थों को प्रभावित कर जो आहार प्राप्त किया जाता है वह धात्रीत्व दोष है १ । दूरवर्ती बन्धुजनों अथवा सम्बन्धियोंके संदेश वचन ले जाना अथवा ले आना और इस विधि से गृहस्थों को आकृष्ट कर आहार प्राप्त करना दूतत्व दोष है २ । गज चिकित्सा, विषचिकित्सा, झाड़ना, फूँकना आदि बाल चिकित्सा तथा इसी प्रकार की अन्य चिकित्साजों के द्वारा गृहस्वों को प्रभावित कर आहार प्राप्त करना भिषग्वृत्ति नामक दोष है, ३ स्वर, अन्तरिक्ष (ज्योतिष), भौम, अङ्ग, व्यञ्जन, छिन्न, लक्षण और स्वप्न इन अष्टाङ्ग निमित्तों से श्रावकों को आकृष्ट कर आहार लेना निमित्त नामका दोष है, ४ कोई पूछता है कि मुनिराज ! दीन हीन आदि लोगों को अन्न आदिका दान देने से पुण्य होता है या नहीं ? इसके उत्तर में आहार प्राप्त करने के उद्देश्य से मुनि कहता है कि अवश्य ही होता है इस तरह के उत्तर से श्रावक को प्रभावित कर आहार प्राप्त करना इच्छा विभाषण For Personal & Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [५.९९मुच्यते (५) अहो जिनदत्त ! त्वं जगति विस्थातो दाता वर्तसे इत्यादिभिर्वच गृहस्थस्यानन्दजननं भुक्तेः पूर्व तत्पूर्वस्तवनं (६) एवं भुक्तेः पश्चात् स्तवनविधानं पश्चात्स्तुतिः ( ७ ) क्रोधं कृत्वाऽन्नोपार्जनं क्रोधः (८) मानेनान्नार्जनं मानः (९) माययाऽन्नार्जनं माया (१०) लोभेनान्नार्जनं लोभः (११ ) वशीकरणमंत्रतंत्राद्युपदेशेन यदन्नोपार्जनं तद्वश्यकम ( १२ ) स्वकीयतपःश्रुतजातिकुलादिवर्णनं स्वगुणस्तवनं ( १३ ) सिद्धविद्यासाधितविद्यादोनां प्रदर्शनं विद्योपजीवनं. ( १४ ) अङ्गशृङ्गारकारिणः पुरुषस्य पाठसिद्धादिमंत्राणामुपदेशनं मंत्रोपजीवनं (१५) एवं चूर्णादेरुपदेशनं चूर्णोगजीवनं ( १६ ) एते षोडशोत्पादनदोषा वेदितव्याः । अथषणादशदोषा कथ्यन्ते । तेषामयं नामनिर्देशः । शंकितं ( १ ) म्रक्षितं ( २ ) निक्षिप्तं ( ३ ) पिहितं ( ४ ) उज्झितं (५) व्यवहारः ( ६ ) दातृ दोष कहा जाता है ५ । 'अहो जिनदत्त ! तुम जगत् में प्रसिद्ध दाता हो' इत्यादि वचनों के द्वारा आहार पूर्व गृहस्थ को हर्ष उत्पन्न करना पूर्व स्तुति नामका दोष है ६ । इसी प्रकार आहारके पश्चात् स्तुति करना पश्चात्स्तुति नामका दोष है ७ । क्रोध दिखाकर आहार प्राप्त करना क्रोध दोष है ८ । मान दिखा कर आहार प्राप्त करना मान दोष है ९ । माया दिखाकर अन्न प्राप्त करना माया दोष है १०। लोभ दिखाकर आहार प्राप्त करना लोभ दोष है ११ । वशीकरणके मन्त्र तथा तन्त्र आदिका उपदेश देकर जो आहार प्राप्त किया जाता है वह वश्यकर्म नामका दोष है १२ । अपना तप, शास्त्र ज्ञान, जाति तथा कूल आदिका वर्णन करना स्वगुण-स्तवन नामका दोष है १३ । स्वयं सिद्ध अथवा अनुष्ठान द्वारा सिद्धकी हुई विद्याओंका प्रदर्शन करना विद्योपजीवन नामका दोष है १४ । शरीरका शृङ्गार करनेवाले पुरुषको पाठसिद्ध आदि मन्त्रों का अर्थात् ऐसे मन्त्रोंका जो पढ़ने हो के साथ सिद्ध हो जाते हों उपदेश देना मन्त्रोपजीवन नामका दोष है १५ । इसी तरह चूर्ण आदि बनानेका उपदेश देना चूर्णोपजीवन नामका दोष है १६ । ये सोलह उत्पादन दोष हैं अर्थात् आहार प्राप्त करनेके उपायों से सम्बद्ध हैं और मुनिके आश्रित हैं अर्थात् इनका दायित्व मुनिपर है। अब आगे एषणा सम्बन्धी दस दोष कहे जाते हैंप्रथम उनके नाम निर्देश करते हैं-शखित (१) प्रक्षित (२) निक्षिप्त (३) For Personal & Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५.९९] भावप्राभृतम् ४७३ { ७ ) मिश्र (८) अपक्कं (९) लिप्त (१०) चेति एतदन्न सेव्यमसेव्यं वेति शंकित (१) सस्नेहहस्तपात्रादिना यद्दत्त तन्म्रक्षितं (२) सचित्तपद्मपत्रादौ यत्क्षिप्तं तन्निक्षिप्तं ( ३) सचित्तेन पद्मपत्रादिना यत्पिहितं तदन्नं पिहितं ( ४ ) यच्चूतफलादिकं वहु त्यक्त्वाल्पसेवनं तदुज्झितं, अथवा यत्पानादिकं दोयमानं बहुतरेण गलनेनाल्पसेवनं तदुज्झितं ( ५ ) यद्यतीनां संभ्रमादादरतया चेलपात्रादेरसमीक्ष्याकर्षणं स आगमे व्यवहार उच्यते ( ६ ) दातृदोषः कथ्यन्तेनिर्वस्त्रः शौण्डः पिशाचः अन्धः पतितः मृतकानुगः तीव्ररोगी व्रणी लिंगी नीचस्थानस्थितः उच्चस्थानस्थित आसन्नभिणी कोऽर्थः ? निकटजनितापत्या वेश्या पिहित (४) उज्झित (५) व्यवहार (६) दातृ (७) मिश्र (८) अपक्व (९) और लिप्त (१०)। __ अब इनका स्वरूप कहते हैं-'यह अन्न सेवन करने योग्य है अथवा अयोग्य है' ऐसी शङ्का जिसमें हो गई हो वह शङ्कित नामका दोष है १ । चिकने हाथ अथवा पात्र आदिसे जो आहार दिया जाता है वह म्रक्षित नामका दोष है २। सचित कमल पत्र आदि पर रख कर जो दिया जाता है वह निक्षिप्त दोष है ३ । सचित्त पद्मपत्र आदिसे ढककर जो दिया जाता है वह पिहित नामका दोष है ४ । जिस आम्रफल आदिक आहार में से बहत भाग छोड़कर थोड़े भागका ग्रहण होता हो अथवा जो शरबत आदिकं पेय पदार्थ लेते समय नीचे अधिक गिर जाते हैं और ग्रहण में थोड़े • आते हैं उनका लेना उज्झित नामका दोष है ५ । मुनियोंके आ जानेसे उत्पन्न संभ्रम-हड़बड़ाहट अथवा आदर की अधिकता से वस्त्र तथा वर्तन आदिको बिना देखे जल्दी घसोटना व्यवहार नामका दोष है ६ । अब दाता के दोष कहते हैं-ऐसा दाता दान देनेका अधिकारी नहीं है जो निर्वस्त्र हो-वस्त्ररहित हो अथवा एक वस्त्रका धारक हो, मद्यपायो हो, पिशाच की बाधा से पीड़ित हो, अन्धा हो, जातिका पतित हो, मृतक की शव-यात्रा में गया हो, तीव्ररोगी हो, जिसे कोई घाव हो रहा हो, कुलिङ्गी-मिथ्या साधुका वेष रखे हो, जहाँ मुनि खड़े हों वहाँ से बहुत नीचे स्थान में खड़ा हो अथवा दातासे ऊंचे स्थान पर खड़ा हो, आसन्न गभिणो हो अर्थात् जिसके पाँच माससे अधिक का गर्भ हो, बच्चा जनने वाली हो, वेश्या हो, दासो हो, परदाके भीतर छिपकर खड़ी हो, अपवित्र १. व्यपहार इति दोष नाम अन्यत्र । २. मूलाचार माषा ५.। For Personal & Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ षट्प्राभूते [५.९९वासी काण्डपटादिनान्तरिताः अशुचिः किमपि भक्षयन्ती इत्यादयो दोषा दातृगा ज्ञातव्याः (७ ) षड्जीवसम्मिश्र मिश्रः (८) पावकादिद्रव्यैरपरित्यक्तपूर्वस्वकीयवर्णगन्धरसमपक्वं (९) लिप्तकिराद्यर्दीयमानमशनादिकं लिप्तं तथाऽ.. प्रासुकजलमृत्तिकोल्मुकादिभिलिप्तैयद्दीयते तल्लिप्तं ( १०)। स्वादनिमित्तं यत्संयोजनं शीते उष्णं उष्णे शीतमित्यादिमेलनं तदनेकरोगाणामसंयमस्य च कारणं ज्ञातव्यं १ कुक्षेरधमंशमन्नेन पूरयेत् तृतीयमंशं कुक्षेः पानेन पूरयेत् कुक्षेश्चतुर्थमंशं वायोः सुखप्रचारार्थमवशेषयेत् रिक्तं रक्षेत् अस्मात्प्रमाणा. वतिरेकोऽधिकग्रहणं अप्रमाणदोषः । प्रमाणातिक्रमेण किं भवति ? ध्यानभंगः, अध्ययनविनाशः, अत्युत्पत्तिः, निद्रोत्पत्तिः आलस्यादिकं च स्यात् २ इष्टान्नपानादिप्राप्ती रागेण सेवनं अंगारदोषः ३ अनिष्टान्नपानादिप्राप्ती द्वषेण सेवा हो अर्थात् मूत्र आदि को बाधासे निवृत्त होकर शुद्धि किये बिना आई हो, अथवा चाहे जो ( अभक्ष्य ) भक्षण करने वाली हो। इत्यादि दाता से सम्बन्ध रखने वाले दोष हैं। ऐसे सदोष दाता से आहार लेना दात दोष है ७ । जिस आहार में छह कायके जीव मिल गये हों वह मिश्र नामका आहार है उसे लेना सो मिश्र नामका दोष है ८। अग्नि आदि द्रव्योंसे जिनके पहलेके रूप गन्ध तथा रसमें परिवर्तन नहीं हुआ हो अर्थात् जो अपक्व हो वह अपक्व नामका दोष है ९ । और घी आदिसे लिप्त करछली (चम्मच ) आदिके द्वारा जो आहार दिया जाता है अथवा जो अप्रासुक जल, मिट्टो तथा राख आदिसे लिप्त वर्तनोंके द्वारा दिया जाता है लिप्त आहार है इसका लेना सो लिप्त नामका दोष है ।१०॥ स्वाद के निमित्त भोजन को जो एक दूसरे के साथ मिलाया जाता है वह संयोजन नामका दोष है जैसे शीत वस्तुमें उष्ण और उष्ण में शीत वस्तु इत्यादिका मिलाना। यह संयोजन अनेक रोगों और असंयम का कारण है, ऐसा जानना चाहिये १ । पेटका आधा भाग अन्नसे भरे तृतीय अंशको पानीसे भरे और चौथे भागको वायुके सुख-पूर्वक संचारके लिये खाली छोड़ दे । इस प्रमाणका यदि उल्लङ्घन किया जाता है अर्थात् अधिक आहार ग्रहण किया जाता है तो अप्रमाण नामका दोष होता है । प्रश्न-प्रमाणका उल्लंघन करने से क्या होता है ? उत्तर-ध्यानभङ्ग, अध्ययन में बाधा, पीड़ा की उत्पत्ति, निद्राकी उत्पत्ति और आलस्यादिक दोष उत्पन्न होते हैं । २ इष्ट अन्न पान आदिके मिलने पर राग भावसे सेवन करना अङ्गार दोष है। ३ और अनिष्ट भन्न पानके मिलने पर द्वेष-पूर्वक सेवन करना धूम दोष है। For Personal & Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ९९ ] भावप्राभृतम् ४७५ धूमदोषः ४ अथ किमर्थमाहारो गृह्यते इति चेत् ? आहारग्रहणे मुनीनां गुणाः सन्ति । उक्तं च वीरनंदिभट्टारकेण क्षुच्छान्त्यावश्यकप्राण-रक्षाधर्मयमा मुनेः । वैयावृत्यं च षड्भुक्तेः कारणानीति यन्मतम् ॥ १ ॥ त्वतः शरीरसंवृद्धध तत्तेजोबलवृद्धये । स्वादार्थमायुसंवृद्धयं नैव भुंजीत संयतः ॥ २ ॥ महोपसर्गातङ्काङ्गसंन्यासाङ्गिदयातपोब्रह्मचर्याणि भिक्षोः षट्कारणान्यशनोज्झने ।। ३ ।। एतद्दोषविहीनान्नभुक्तेरन्तरकारिणः । अन्तरायाः क्रियन्तोऽत्र वण्यंन्ते वणिनामिमे ॥ ४ ॥ रसपूयास्थिमांसासूक्चर्मामेव्यादिवीक्षणं । काकाद्यमेष्यपातोऽङ्गे वमनं स्वस्य रोधनं ॥ ५ ॥ प्रश्न - आहार किसलिये किया जाता है ? उत्तर - आहार लेने में मुनियोंके अनेक गुण हैं— अनेक लाभ है । जैसा कि वीरनन्दिभट्टारक ने कहा है सुत्छान्त्या ततः शरीर-क्षुधा की शान्ति, आवश्यकों का पालन, प्राणरक्षा, धम, चारित्र और वैयावृत्य ये छह मुनि के भोजन करनके कारण हैं। चूंकि यह सिद्धान्त है अतः साधुका शरीरको वृद्धि, उसक तेज और बलकी वृद्धि, स्वाद तथा आयुकी वृद्धि के लिये भोजन नहीं करना चाहिये ॥ १-२ ॥ महोपसर्ग - महोपसर्ग, भय, शरीरका संन्यास, जीवदया, अनशनादि तप और ब्रह्मचर्यं ये छह मुनिके भोजन छोड़ने के कारण हैं अर्थात् इन छह कारणोंसे मुनि आहार का परित्याग करते हैं ।। ३ ॥ एतद्दोष- इन दोषों से रहित आहार के उपभोग में बाधा करने वाले अन्तराय कितने हैं ? इस प्रश्न के समाधान के लिये अब यहाँ मुनियों के निम्नलिखित अन्तरायों का वर्णन किया जाता है ॥ ४ ॥ रसपूया - आहार करते समय गीले पीव हडडी मांस रक्त चमड़ा तथा विष्ठा आदि पदार्थ देखने में आ जावें, शरीर पर कौआ आदि पक्षी बीट कर दे अपने आपको वमन हो जावे, कोई आहार करने से रोक दे, दुःखके कारण अश्रु पात हो जावे, हाथ से ग्रास मिर जावे, कौआ आदि For Personal & Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ षट्प्राभृते अश्रुपातरच दुःखेन पिंडपातश्च हस्ततः । काका दिपिण्डहरणं पतनं त्यक्तसेवनम् ||६|| पादान्तराला पंचाक्ष' जातिपंचेन्द्रियात्ययः । स्वोदरकृमिविण्मूत्ररक्तपूयादिनिर्गमः निष्ठीवनं सदंष्ट्राङ्गि दर्शनं चोपवेशनं । पाणिवक्त्रेऽत्र साङ्गास्थिनखरोमादिदर्शनम् ॥८॥ प्रहारो ग्रामदाहोऽशुभोग्रबीभत्सवाक्श्रुतिः । उपसर्गः पतन पात्रस्यायोग्य गृहवेशनम् ॥ ९॥ १. जातिः क० । २. दशनं दर्शनं म० घ० क० । ३. साङ्गयस्विक० । 11611 पक्षी झपटकर हाथ से ग्रास उठा ले जावे, आहार लेनेवाला दुर्बलता आदि के कारण गिर पड़े, छोड़ी हुई वस्तु सेवन में आजावे, मुनिके पैरों के बीच से कोई पञ्चेन्द्रिय जीव निकल जावे, अपने उदर से कृमि, विष्ठा, मूत्र, रक्त तथा पोप आदि निकल आवे, थूक देना, डाढ़ों वाले कुत्ता आदि प्राणी काट खावें, दुर्बलता के कारण बैठ जाना पड़े, हाथ अथवा मुखमें किसी मृत जन्तु हडडी, नख अथवा रोम आदि दिख जावे, कोई किसी को मार दे, गाँव में आग लग जावे, अशुभ, कठोर और घृणित शब्द सुनने में आजावे, उपसर्ग आजावे, दाता के हाथ से पात्र गिर पड़े, अयोग्य मनुष्यके घर में प्रवेश हो जाय और घुटने से नीचे भागका स्पर्श हो जाये, इत्यादि अनेक अन्तराय माने गये हैं । इन अन्तरायोंमें कितने ही अन्तराय लोक रीति से उत्पन्न होते हैं जैसे ग्राम दाह आदि । यदि इस समय मुनि आहार नहीं छोड़ते हैं तो लोक में अपवाद हो सकता है कि देखो गाँव के लोग विपत्ति में पड़े हैं और ये भोजन किये जा रहे हैं । कुछ संयम की अपेक्षा उत्पन्न होते हैं जैसे भोजन जीवजन्तुओंका निकलना आदि । कुछ वैराग्य के निमित्त से होते हैं जैसे साधुका गिर पड़ना आदि । इस समय साधु सोचते हैं कि देखो यह शरीर इतना अशक्त हो गया कि स्ववश खड़ा नहीं रहा जाता और मैं आहार किये जा रहा हूँ । कुछ अन्तराय जुगुप्सा अर्थात् ग्लानिकी अपेक्षा होते हैं जैसे पेटसे कृमि तथा मलमूत्रके निकल आने पर ग्लानि का भाव उत्पन्न होता है । और कितने ही अंतराय संसारके भयसे उत्पन्न होते हैं जैसे काक आदि पक्षियोंके द्वारा 1 [ ५.९९ For Personal & Private Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५. १०० ] भावप्राभृतम् 'जानुदेशादधःस्पर्शश्चेत्येवं बहवो मताः । लोकसंयमवैराग्यजुगुप्साभवभीतिजाः ॥१०॥ ज्ञात्वा योग्यमयोग्यं च द्रव्यं क्षेत्रत्रयाश्रयं । चरत्येवं प्रयत्नेन भिक्षाशुद्धियुतो यतिः ॥ ११ ॥ सच्चित्तभत्तपाणं गिद्धी दप्पेणऽधी पभुत्तूण | पत्तोस तिब्वदुक्खं अणाइकालेण तं चित्त ॥ १००॥ सचित्तभक्तपानं गृद्ध्या दर्पेण अधीः प्रभुज्य । प्राप्तोसि तीव्रदुःखं अनादिकालेन त्वं चित्त ! ॥१००॥ ( सच्चित्तभत्तपाणं ) सचित्तभक्तपानमप्रासुकभोजनजलादिकं । ( गिद्धी ) दप्पेणगृद्धघातिकांक्षया दर्पेण उत्कटत्वेन । ( अंधी ) बुद्धिहीन: । ( पभुत्तूण ) प्रकर्षेण भुक्त्वा ( पत्तोसि तिव्वदुक्खं ) प्राप्तोऽसि प्राप्तो भवसि किं तत् ? तिब्वदुक्खं - तीव्रमसातं नरकादिदुःखमित्यर्थः । कियत्पर्यन्तं दुःखं प्राप्तोऽसि ? ( अणाइकाले ) अनादिकालेन आसंसारं यावत् । कः प्राप्तो दुःखं ? ( तं ) त्वं भवान् । हे ( चित्त ) हे आत्मन् ! | हाथका ग्रास झपट ले जाना । इस समय साधु विचार करते हैं कि देखो संसार कितना दुःखमय है जहाँ क्षुधा से पीड़ित हुए जन्तु आहार की घात में निरन्तर लीन रहते हैं ।। ५- १० ॥ ज्ञात्वा - क्षेत्र काल अथवा भावके आश्रय रहने वाला यह द्रव्य योग्य है अथवा अयोग्य है ऐसा जानकर भिक्षा शुद्धिसे युक्त मुनि प्रयत्न- पूर्वक अपनी चर्या करता है || ११ || ४७७ गाथार्थ - हे आत्मन् ! तूने बुद्धि से हीन होकर - विवेक छोड़कर आहारकी तीव्र इच्छा अथवा अहंकारके वश सचित्त अन्न पान ग्रहण किया है इसीलिये अनादि कालसे तीव्र दुःखको प्राप्त हो रहा है || १०० ॥ विशेषार्थ - हे आत्मन् ! तूने अज्ञानी दशामें भोजनकी लंपटता और अपनी बलिष्टता के गर्वसे अप्रासुक भोजन तथा जल आदिका बार-बार उपभोग कर अनादि कालसे नरकादि गतियों में तीव्र दुःख प्राप्त किया है, अब मुनि अवस्था में विवेक पाकर भी तेरा उक्त दोष दूर नहीं हुआ तो तुझे फिर उसी प्रकार के दुःख उठाने पड़ेंगे, अतः सचित्त अन्नपानका दोष मत लगा ॥ १०० ॥ १. देहा म० । For Personal & Private Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ षद्माभृते [५. १०१कंदं मूलं बीयं पुफ्फै पत्तादि किंचि सच्चित्तं। असिऊण माणगव्वं भमिओसि अणंतसंसारे ॥१०१॥ कन्दं मूलं बीजं पुष्पं पत्रादि किंचित् सचित्तम् । अशित्वा मानगर्वे भ्रमितोसि अनन्तसंसारे ॥१०१।। कंदं सूरणं लशुनं पलाण्डु क्षुद्रवृहन्मुस्तां शालुकं-उत्पलमूलं शृङ्गवेरं आर्द्रवरवर्णिनी आर्द हरिद्रेत्यर्थः । ( मूलं ) हस्तिदन्तकं मूलकमित्यर्थः नारंगकंटकं . गाजरमित्यर्थः । (बीय) चणकादिक । (पुफ्फ) पुष्पं सेवत्रीपुष्पं करणबीजपूरपुष्पं । गाथार्थ हे जीव ! तूने मान्यता के गर्व-वश सचित्त कन्द, मूल, बीज, पुष्प तथा पत्ता आदिको खाकर अनन्त संसारमें भ्रमण किया है ॥१०१॥ विशेषार्थ-कन्द शब्दसे सूरण, लहसुन, प्याज, छोटा बड़ा मोथा, . शालूक अर्थात् उत्पलों-नीलकमलोंकी जड़, अदरक तथा गोली हल्दी आदि का ग्रहण होता है । मूलशब्दसे मूली तथा गाजर आदिको लेना चाहिए । बीजका अर्थ चना गेहूँ आदि होता है। पुष्प से गुलाबका फूल तथा करण और बीजपूर आदिका फुल लिया जाता है। पत्र आदिसे ताम्बूल आदिके पत्ता ग्राह्य हैं । इनके सिवाय सचित्तं किमपि यहाँ पड़े हुए किमपि शब्द से ककड़ी आदिका ग्रहण होता है । इनमें कन्दमूल तो स्पष्ट हो अनन्तकाय हैं इनके खानेसे अनन्तानन्त. स्थावर जीवोंका विघात होता है । फूलोंमें त्रस जीवोंका निवास होता है। पत्तों में साधारण और प्रत्येक दोनों प्रकारके पत्ते होते हैं और चना गेहूँ आदि बोज हरी अवस्था में तो सचित्त हैं ही परन्तु सूख जाने पर भी योनिभूत होनेके कारण सचित्त माने जाते हैं । इनके सिवाय हरी ककड़ी आदि अन्य पदार्थ भी ग्रहण में आते हैं। हे आत्मन् ! मैं बड़ा हूँ लोकमान्य हूँ, सब कुछ खा सकता हूँ इस प्रकारके गर्वमें आकर तूने भक्ष्य अभक्ष्यका विचार किये बिना उक्त वस्तुओं को खाकर अनन्त स्थावर अथवा अनेक त्रस जीवोंका घात किया है उसीके फलस्वरूप तू अनन्त संसार में भटक रहा है। तूने यह सब पहले अज्ञान दशा में किया है परन्तु अब तुझे विवेक जागृत हुआ है इसलिये उस ओरसे अपनी प्रवृत्ति हटा ।।१०१॥ __ [अन्य मतावलम्बी साधुओं में जमीकन्द आदि खाकर रहना तपस्या का अङ्ग माना जाता है। उसका निराकरण करते हुए यहां कहा गया है For Personal & Private Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १०२] भावप्राभृतम् ४७९ ( पत्तादि ) नागवल्लीदलं । ( किंचि सचित्तं ) किमपि ऐर्वार्वादिकं । ( असिऊण माणगव्वे ) अशित्वा भक्षयित्वा मानेन मान्यतया गर्वे सति । ( भूमिओसि अनंतसंसारे ) भ्रमितस्त्वं हे जीव ! अनन्तसंसारे अपर्यन्तभवसंकटे इति भावः । विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण । अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्ति ण पार्वति ॥१०२॥ विनयं पंचप्रकारं पालय मनोवचनकाययोगेन । अविनतनराः सुविहितां ततो मुक्ति न प्राप्नुवन्ति ॥१०२॥ ( विजयं पंचपयारं ) विनयं यथायोग्यं करयोटन - पादपतन-अभ्युत्थान स्वागतभाषणादिकं पंचप्रकारं ज्ञानस्य दर्शनस्य, चारित्रस्य तपसश्च विनयं विनीतत्वं, उपचारलक्षणं पंचमं विनयं । हे आत्मन् ! हे मुने ! हे जीव ! हे आसन्नभव्य ! 7 कि जिन चीजों के खाने में अनन्त जीवोंका विधात होता है वे तपस्या के अङ्ग नहीं हो सकते । जैन शास्त्रोंमें अभक्ष्य पदार्थोंके पाँच विभाग किये हैं- ( १ ) जिनके खाने में अनन्तानन्त स्थावर जीवोंका विघात होता है ) जिनके खाने में स जीवोंका विघात होता है ( ३ ) जो प्रमाद नशा उत्पन्न करने वाली हों ( ४ ) जो शरीर की प्रकृतिके अनुकूल न होनेसे अनिष्ट हों और ( ५ ) जो कुलीन मनुष्यों के सेवन करने योग्य न होने से अनुपसेव्य हों । जैन मुनि अथवा जैन व्रती श्रावकके इन पाँचों प्रकार के अभक्ष्यों का जीवन पर्यन्त के लिये त्याग रहता है और भक्ष्य पदार्थों का भी वे सचित्त अवस्था में सेवन नहीं करते । जैन सुनि अथवा श्रावक का लक्ष्य रहता है कि अपना पेट भरने के लिये दूसरे जीवोंको बाधा न दी जावे । यह भाव तब तक प्रकट नहीं होता जब तक कि जीवोंकी नाना जातियों का ज्ञान और अपने हृदय में उनकी रक्षाका अभिप्राय जागृत नहीं होता । ] गाथा - हे जीव ! तू मन वचन काय रूप तीनों योगोंसे पाँच प्रकार की विनय का पालन कर क्योंकि विनय-रहित मनुष्य तीर्थंकर प्रकृति के बन्धरूप अभ्युदय और मुक्ति को प्राप्त नहीं होते हैं ॥ १०२ ॥ विशेषार्थ - ज्ञान दर्शन, चारित्र, तप और उपचार के भेदसे विनयके पांच भेद हैं। पूज्य पुरुषों के प्रति यथा योग्य हाथ जोड़ना, उनके पैरों १. ऐर्वादिकं क० वासुका ( क० टि० ) ककड़ी इति हिन्दी । For Personal & Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० षट्नाभृते [५. १०३सर्वोपकारिस्त्वं । ( पालहि ) प्रतिपालय कुर्विति । ( मणवयणकायजोएण) , मनोवचनकाययोगेन आत्मव्यापारेण ( अविणयणरा सुविहियं ) अविनयनरा अविनतनरा वा सुविहितां तीर्थकरनामकर्म पूर्वकबन्धविशिष्टां । ( तत्तो मुत्ति न पावंति ) ततः कारणान्मुक्ति सर्वकर्मक्षयलक्षणोपलक्षितां न प्राप्नुवन्ति नैव लभन्ते। णियसत्तीए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि। तं कुण जिणभत्तिपरं विज्जावच्चं दसवियप्पं ॥१३॥ निजशक्त्या महाशयः ! भक्तिरागेण नित्यकाले । त्वं कुरु जिनभक्तिपरं वैयावृत्यं दशविकल्पम् ।।१०३|| (णियसत्तीए महाजस) एकारस्योच्चारलाघवादत्र पादे द्वादशव मात्रा वेदितव्याः । अन्यथा त्रयोदशमात्रासद्भावाद्गाथाछन्दोभंगः स्यात् । में पड़ना, उन्हें आते देख उठकर खड़े होना तथा 'भले पधारे' आदि स्वागत के शब्द कहना ये सब विनय के प्रकार हैं। हे निकट भव्य ! तू मन वचन कायसे विनयके इन सब भेदोंका अच्छी तरह पालन कर । विनय का बड़ा माहात्म्य है। विनय-सम्पन्नता तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका कारण है और जो तीर्थकर हो गया वह मुक्तिको अवश्य ही प्राप्त होता है । इस प्रकार विनय अभ्युदय और मोक्ष दोनोंका कारण है। इसके विपरीत विनय रहित मनुष्य न सांसारिक अभ्युदय को प्राप्त होते हैं और न मुक्ति को प्राप्त होते हैं ॥१०॥ __ गाथार्थ हे महायश ! तू अपनी शक्तिके अनुसार भक्ति के रागसे निरन्तर जिनभक्तिमें उत्कृष्ट दश प्रकार का वैयावृत्य कर ॥१०॥ विशेषार्थ-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञके भेदसे मुनियों के दश भेद हैं। इन दश प्रकारके मुनियोंकी वैयावृत्य करना दश प्रकारका वैयावृत्य है। यह वैयावृत्य जिनभक्ति में उत्कृष्ट है इसलिये हे महायश के धारक मुने ! तू अपनी शक्ति-अनुसार भक्ति-पूर्वक दश प्रकारकी वैयावृत्यको निरन्तर कर | __गाथाके प्रथम पाद में 'णियसत्तीए' में एकारका उच्चारण लघुरूप होनेसे बारह मात्राए जानना चाहिये अन्यथा संस्कृत को तरह एकारका मात्र दीर्घोच्चारण मानने से तेरह मात्राएं हो जावेंगी और उस दशा में For Personal & Private Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १०४ ] भावप्राभृतम् ४८१ तदुक्तं प्राकृतव्याकरणे“उच्चारलघुत्वमेदोतोव्यंजनस्थयोः” निजशक्त्या हे महायशः ! | ( भत्तीराएण णिच्चकालम्मि ) भक्तिरागेण निकाले । ( तं कुण ) त्वं कुरु । ( जिणभत्तिपरं ) जिनभक्तौ परमुत्कृष्टं । ( विज्जावच्चं ) वैयावृत्यं । ( दसवियप्पं ) दशविकल्पं दशमेकं आचार्यादीनां पूर्वोक्तानाम् । जं किचि कथं दोसं मणवयकाएहि असुहभावेण । तं गरहि गुरुसयासे गारव मायं च मोत्तूण १ ॥ १०४ ॥ यः कश्चित् कृतो दोषः मनवचनकायैः अशुभभावेन । तं गर्ह गुरुसकाशे गावं मायां च मुक्त्वा ॥ १०४ ॥ ( जं किंचि कथं दोसं ) य: कश्चित्कृतो दोष: व्रतादिष्वतीचारः । ( मणवयकाएहि असुहभावेण ) मनोवचकायैरशुभभावेन रागद्वेषमोहादिदुष्परिणामेन । ( तं ) दोषमतीचारादिकं गर्ह - प्रकाशय । ( गुरुसयासे ) गुरुसकाशे गुरुपार्श्वे आचार्य छन्दोभङ्ग हो जावेगा क्योंकि आर्या या गाथा छन्दके प्रथम पाद में बारह मात्राएँ होती हैं । प्राकृत व्याकरण का सूत्र भी है उच्चार—व्यञ्जनस्थ एकार और ओकार के उच्चारण में लघुत्व होता है ॥ १०३ ॥ गाथार्थ - हे मुने! तूने अशुभ भावसे मन वचन कायके द्वारा जो कोई दोष किया हो उसकी गारव और मायाको छोड़ कर गुरुके समीप -आलोचना कर ॥ १०४ ॥ विशेषार्थ - राग, द्वेष, मोह आदि खोटे परिणाम को अशुभ भाव कहते हैं । हे मुने ! अशुभ भावसे प्रेरित होकर यदि मन-वचन और काय से तूने कोई दोष किया है अर्थात् अपने गृहीत व्रतमें अतिचार लगाया है तो उसे गुरु पादमूल में रस, ऋद्धि, शब्द और सातके भेदसे चार प्रकार के गर्व को तथा मायाचारको छोड़ कर प्रकट कर उनकी आलोचना कर । भगवती आराधना में जो आकम्पित आदि आलोचना के दश दोष बतलाये हैं उन्हें बचाकर आलोचना करना चाहिये । जैसा कि कहा गया है १. 'तुमतुआणतूणाश्चतुष्कं क्त्वायाः । इत्यनेन मोत्तृण इत्यत्र क्त्वायाः तूणा देश: । ३१ For Personal & Private Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ ५. १०५ बालाचार्यपादमूले । ( गारव मायं च मोत्तूण ) गारवं 'रसद्धिशब्दसात गवं मुक्त्वा, मायां च मुक्त्वा कपटं परिहृत्य । आलोचनादशदोषान् भगवत्याराघनाकथितान् विहाय । तदुक्तं - ४८२ तस्सेवी ॥ १ ॥ आकंपिय अणुमणिय, जं दिट्ठ बादरं च सुहमं च । छन्नं सद्दाउलयं, बहुजणमव्वत्तं दुज्जणवयणचडवकं णिट्ठर कडुयं सहति सप्पुरिसा । कम्ममलणासणट्ट भावेण य णिम्मया सवणा ॥ १०५ ॥ दुर्जनवचनचपेटां निष्ठुरकटुकं सहन्ते सत्पुरुषाः । कर्ममलनाशनार्थं भावेन च निर्ममाः श्रवणाः || १०५ || ( दुज्जणवयणचडकं ) दुर्जनानां गुरुदेवनिन्दकानां मिथ्यादृष्टीनां नामश्रावकाणां च वचनमेव चपेटा तां । कथभूतां (गिट्ठरकडुयं ) निष्ठुरा- निर्दया, कटुका-कर्णशूलप्राया निष्ठुरकटुका तां निष्ठुरकटुकां । ( सहति सप्पुरिसा) सहन्ते आकंपिय--१ आकम्पित, २ अनुमानित ३ दृष्ट, ४ वादर, ५ सूक्ष्म, ६ छन्न, ७ शब्दाकुलित, ८ बहुजन, ९ अव्यक्त और १० तत्सेवी ये आलोचनाके दश दोष हैं । इनका स्वरूप पहले कहा जा चुका है ॥ १०४ ॥ गाथार्थ - भाव अर्थात् जिन सम्यक्त्वकी वासना से निर्ममता को प्राप्त हुए सत्पुरुष दिगम्बर महामुनि, कर्म रूपी मल अथवा ज्ञानावर्णादि कर्म और अतिचार रूपी मलको नष्ट करनेके लिये कठोर वचनरूप थपेड़ों को सहन करते हैं ||१०५ || दुर्जनोंके निर्दयतापूर्ण विशेषार्थ - गुरु और देवकी निन्दा करने वाले दुष्ट मिथ्यादृष्टि तथा नाम मात्र के श्रावक अत्यन्त कठोर शब्दों द्वारा मुनियों की निन्दा करते हैं । उनके वे निर्दयता पूर्ण शब्द कानों में शूल की तरह चुभते हैं तो भी दिगम्बर महामुनि अथवा सम्यग्दृष्टि गृहस्थ अपने कर्म मलको भावसे सहते हैं, चित्त में किसी प्रकारका उसका कारण है कि वे महामुनि अथवा १. अन्यत्र त्रीणि गारवाणि प्रसिद्धानि प्रथममृद्धिगारवं शिक्षादीक्षादिसामग्री मम ह्व वर्तते नत्वमीषां यतीनाम् । द्वितीयं शब्दगारवं अहं वर्णोच्चारं रुचिरं करोमि वा जानामि नत्वन्ये यतयः । तृतीयं सातगारवं अहं यतिरपि सन् इन्द्रसुखं तीर्थंकरसुखं भुञ्जानो वर्ते नत्विमे यतयस्तपस्विनो वराकाः ( क० टि० ) । नष्ट करने के लिये उन्हें शान्त क्षोभ उत्पन्न नहीं होने देते। For Personal & Private Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३ -५. १०६ ] भावप्राभृतम् सत्पुरुषा महामुनयो दिगम्बराः सदृष्टयो गृहस्थाश्च । किमर्थ सहन्ते ? (कम्ममलनासण→ ) कर्माणि ज्ञानावरणादोनि मलानि-अतिचाराश्च तेषां नाशनार्थ क्षयार्थ परमनिर्वाणप्राप्त्यर्थ च । ( भावेण य णिम्ममा सवणा) भावेन जिनसम्यक्त्ववासनया निर्ममा ममेत्यकारान्तमव्ययशब्दः ममत्वरहिताः श्रवणा दिगम्बरा महामुनयः । पावं खवइ असेसं खमाए परिमंडिओ य मुणिपवरो। खेयरअमरणराणं पसंसणोओ धुवं होई ॥१०६॥ पापं क्षपति अशेषं क्षमया परिमण्डितश्च मुनिप्रवरः । खेचरामराणां प्रशंसनीयो ध्रुवं भवति ॥ १०६ ॥ (पावं खवइ असेसं ) पापं त्रिषष्ठिप्रकृतिलक्षणं क्षिपते अशेषं द्वासप्ततित्रयोदशप्रकृतिरूपमघातिकर्मलक्षणं च प्रकृतिसमुदायं च क्षिपते। कया, ( खमाए) क्षमया पार्श्वनाथवत् उत्तमक्षमालक्षणपरिणामेन । (परिमंडियो य) परि समन्तान्मनोवचनकायप्रकारेण मंडितः शोभितश्च । ( मणिपवरो) मुनिप्रवरो मुनीनां श्रेष्ठः । चकार उक्तसमुच्चयार्थः । तेनान्योऽपि कोऽपि गृहस्थोऽपि क्षमापरिणामेन स्वर्ग गत्वा पारंपर्येण मोक्षं याति इति ज्ञातव्यं । ( खेयरअमरनराणं ) खेचराणां विद्याधराणां अमराणां भावनव्यन्तरज्योतिष्ककल्पवासिनां कल्पातीतानां • सम्यग्दष्टि सत्पुरुष जिन सम्यक्त्व की भावना से इतने निर्ममत्व हो चुकते हैं कि उनका उस ओर लक्ष्य ही नहीं जाता। जिसे अपने महंतपनका गर्व होता है उसे ही दूसरों के कुवचन सुनकर क्रोध उत्पन्न होता है परन्तु जो महन्तपनेसे सर्वथा ममकार-ममताभाव छोड़ चुकता है उसे क्रोध उत्पन्न होनेका अवसर नहीं आता ॥१०॥ ___ गाथार्य-क्षमा से सुशोभित श्रेष्ठ मुनि समस्त पापोंका क्षय करता है और विद्याधर देव तथा मनुष्यों में निश्चय से प्रशंसनीय होता है ॥१०६॥ विशेषार्थ-जो श्रेष्ठ मुनि श्रीपार्श्वनाथ भगवान्के समान उत्तम क्षमा रूप परिणाम से परिमण्डित है अर्थात् मन वचन काय सम्बन्धो तीन प्रकार की क्षमा से सुशोभित है वह मुनि अवस्था में प्रेसठ कर्म प्रकृति रूप पापका क्षय करता है और अरहन्त अवस्था में चौदहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में बहत्तर तथा अन्त समय में तेरह कर्म प्रकृति रूप पापको नष्ट करता है तथा समस्त विद्याधर, चतुर्णिकाय के देव और भूमिगोचरी मनुष्यों में संस्कृत प्राकृत आदि भाषाओं में निबद्ध गद्य पद्य रूप For Personal & Private Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ षट्प्राभृते [५. १०७च, नराणां भूमिगोचरनृपादीनां च । ( पसंसणीयो) प्रशंसनीयः स्तवनीयः स्तोतव्यः संस्कृत प्राकृत-अपभ्रंश-सौरसेनी-मागधी पैशाची-चूलिकापैशाचीबद्धगद्यपद्यानवद्यस्तुतिभिविशेषेणाभिवादनीयः ( धुवं होइ ) ध्रुवं निश्चयेन भवति । अत्र संदेहो नास्ति । क्षमावान् मुनिस्तीर्थङ्करो भवतीति भावार्थः। . इय णाऊण खमागुण खमेहि तिविहेण सयलजीवाणं । चिरसंचियकोहसिहि वरखमसलिलेण सिंचेह ॥१०॥ इति ज्ञात्वा क्षमागुण ! क्षमस्व त्रिविधेन सकलजीवान् । चिरसंचितक्रोधशिखिनं वरक्षमासलिलेन सिञ्च ॥१०॥ ( इय णाऊण ) इति पूर्वोक्ततीर्थंकरपदप्रापर्क क्षमाफलं ज्ञात्वा विज्ञाय । (खमागुण ) हे क्षमागुण ! चतुरशीतिशतसहस्रगुणानां मध्ये प्रधानक्षमागुण हे मुने ! ( खमेहि ) क्षमस्व । (तिविहेण ) मनोवचनकायलक्षणत्रिप्रकारेण ! ( सयलजीवाणं ) सकलजीवान् एकेन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यन्तान् । ( चिरसंचियकोहसिहिं ) चिरं दीर्घकालं संचितः पुष्टितः पुष्टि नीतः क्रोध एव शिखी वैश्वानरः दाहसन्तापकारकत्वात् तं क्रोधशिखिनं कोपाग्नि । ( वरखमसलिलेण सिंह ) वरा उत्तमा क्षमा सर्वसहनधर्मः सैव सलिलं पानीयमुदकं आयुःस्थिरीकरणमनःप्रसादजनकत्वात् तेन वरक्षमासलिलेन कृत्वा सिंचत्वं विध्यापय । उक्तं च निर्दोष स्तुतियों के द्वारा प्रशंसनीय होता है। तात्पर्य यह है कि क्षमावान् मनुष्य तीर्थङ्कर होता है । परिमंडिओ य (परिमण्डितश्च ) यहाँ जो 'च' शब्द आया है उससे यह सूचित होता है कि यदि कोई गृहस्थ भी क्षमाभाव धारण करता है तो वह भो उस क्षमाभाव से स्वर्ग जाकर परम्परा से मोक्ष को प्राप्त होता है । १०६।। गाथार्थ हे क्षमा गणके धारक मुने ! इस तरह क्षमाका फल जानकर तुम समस्त जीवोंको मन वचन काय से क्षमा करो और चिर-काल से सञ्चित क्रोध रूपी अग्निको उत्कृष्ट क्षमा रूपी जल से सींचो ॥१०७|| विशेषार्थ-क्षमा तोयंकर पदको प्राप्त कराने वाली है ऐसा जानकर हे क्षमा के धारक मुने ! तुम एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त के समस्त जीवोंको मन वचन काय से क्षमा करो-कभी किसी के प्रति कलुषित भाव न करो। चिरकाल से संचित को हुई क्रोध रूपी अग्निको तुम क्षमा रूपी जलके द्वारा सींचो । जैसा कि कहा है For Personal & Private Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८५ -१.१०८] भावप्राभृतम् 'आक्रुष्टोऽहं हतो नैव हत्तो वा न द्विधाकृतः । मारितो न हतो धर्मो मदीयोऽनेन बन्धुना ॥१॥ चित्तस्थमप्यनवबुराया हरेण जाड्यात् क्रुद्ध्वा बहिः किमपि दग्धमनङ्गबुद्ध्या । घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्था क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ॥ २॥ दिक्खाकालाईयं भावहि अवियार दंसणविसुद्धो । उत्तमबोहिणिमित्तं असारसंसारमुणिऊण ॥१०८॥ दोक्षाकालादीयं भावय अविचार ! दर्शनविशुद्धः। उत्तमबोधिनिमित्त असारसाराणि ज्ञात्वा ॥१०८।। (दिक्खाकालाईयं ) दीक्षाकाले खलु जीवस्य परमवैराग्यं भवति, दीक्षाकालं आदिर्यस्य रोगोत्पत्तिप्रभृतिकालस्य स दीक्षाकालादिः दीक्षाकालादो भवो दीक्षाकालादीयो भावस्तं दीक्षाकालादीयं निजपरिणामविशेष हे जीव आत्मन् ! हे .. आकष्टोऽहं-दूसरेके द्वारा गाली दिये जानेपर मुनि विचार करते हैं कि इस भाईने मुझे गाली दी है मारा तो नहीं है। पीटे जानेपर विचार करते हैं कि पीटा ही है मेरे दो टुकड़े तो नहीं किये अर्थात् मुझे जान से तो नहीं मारा है और मारे जानेपर विचार करते हैं कि मुझे मारा ही है मेरा धर्म तो नहीं नष्ट किया। - 'चित्तस्थ-चित्त में स्थित कामको न समझ कर महादेव ने क्रोध-वश बाहर स्थित किसी पदार्थको काम समझ जला दिया। पीछे उसी कामके द्वारा की हुई भयंकर दुर्दशाको प्राप्त हए। सो ठीक ही है क्योंकि क्रोध से किस की कार्य-हानि नहीं होती ? ॥१०७।। गाथार्थ हे विचारहीन ! साधो ! तू उत्तम रत्नत्रय की प्राप्तिके निमित्त असार और सारको जान कर सम्यग्दर्शन से विशुद्ध होता हुआ दीक्षा आदिके समय होनेवाले भावका स्मरण कर ॥१०८॥ विशेषार्थ-दीक्षा लेते समय इस जीवके परिणामों में बड़ी निर्मलता होती है । उस समय यह सोचता है कि आजसे लेकर अब में स्त्रीका मुख नहीं देखूगा क्योंकि स्त्रियों में रागी होकर ही मैं अनादि कालसे संसारमें १. यशस्तिलके आकृष्टोऽहं म । २. वात्मानुशासने। For Personal & Private Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ षट्प्राभृते [५.१०८ चैतन्य ! हे मुने ! त्वं । (भावहि ) - भावय तं परिणामं त्वं स्मर । यदहमद्यप्रभृति वनितामुखं न पश्यामि वनितासु रक्तोऽहमनादिकाले संसारे पर्यटतोऽवाञ्छितमेव , दुःखं प्राप्तः, अर्हनशमाकांक्षन्नपि सुखलेशं न लब्धवान् । तदुक्तं - 'अजाकृपाणीयमनुष्ठितं त्वया विकल्पमूढेन भवादितः पुरा । यदत्र किंचित्सुखलेशमाप्यते तदार्यं ! विद्धयन्त्रकवर्तकीयकम् ॥ १॥ अन्यच्च संसारे नरकादिषु स्मृतिपथेऽप्युद्वेगकारी प्यलं दुःखानि प्रतिसेवितानि भवता तान्येवमेवासताम् । तत्तावत् स्मर स्मरस्मित ४ सितापाङ्गरनङ्गायुर्वामानां हिमदग्ध मुग्धत रुवद्यत्प्राप्तवान्निर्धनः ॥ १ ॥ है भ्रमण करता हुआ अनचाहे दुःखोंको प्राप्त हुआ हूँ और निरन्तर चाहता हुआ भी सुखके अंश मात्रको नहीं प्राप्त हो सका हूँ । जैसा कि कहा हैअजा-- हे आत्मन् ! तू ने विकल्पों में मूढ होकर जन्मके प्रारम्भ से ही पहले अजाकृपाणीय न्याय का अनुसरण किया अर्थात् जिस प्रकार कोई हिंसक अजा बकरी को मारनेके लिये शस्त्र खोज रहा था परन्तु शस्त्रके न मिलने से विवश था। इसी बीचमें उस बकरी ने अपने पैरोंसे धूलि हटाकर उसमें छिपी तलवारको प्रकट कर दिया और उस तलवार से हिंसक ने बकरीका घात कर दिया । सों जिस प्रकार बकरीका प्रयास उसीका घात करने वाला हुआ उसी प्रकार इस जीवका भोगोपभोगकी सामग्रीको एकत्रित करनेका प्रयास उसे ही कुगति में डालने वाला होता. है । हैं आर्य ! इस संसार में प्रथम तो सुख है ही नहीं, फिर भी जो कुछ सुखका अंश प्राप्त होता है उसे अन्धक-वर्तकीय न्याय समझ अर्थात् जिस प्रकार अन्धे मनुष्य के हाथ अकस्मात् बटेर लग जाती है उसी तरह इस जीवको अकस्मात् कुछ सुखका अंश प्राप्त हो जाता है । तेरे पुरुषार्थसे प्राप्त नहीं होता है ||१|| और भी कहा है संसारे- संसारके मध्य नरकादि गतियोंमें जो तू ने ऐसे ऐसे दुःख कि १. आत्मानुशासने । २. आत्मानुशासने । ३. तत्तावत्स्मरसि म० । ४. शिता० म० । For Personal & Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १०८] भावप्राभृतम् ४८७ आतङ्कपावकशिखाः सरसावलेखाः स्वस्थे मनाङ्मनसिं ते लघु विस्मरन्ति । तत्कालजातमतिविस्फुरितानि पश्चा ज्जीवान्यथा यदि भवन्ति कुतोऽप्रियं ते ॥१॥ ( भावहि अवियार दंसणविसुद्धो ) दीक्षाकाले दारिद्रयकाले रोगादिकाले च ये भावास्त्वया भाविता धर्माश्रयणपरिणामास्तान् भावान् हे जीव ! सदाकालमपि त्वं भावय, हे ( अवियार ) हे अविचार निर्विवेकजीव ! । अथवा हे अविकार रागद्वेषमोहादिदुष्परिणामवजितजीव !। कथंभूतः सन् भावय, ( सविसुद्धो) सम्यक्त्वकौस्तुभशोभितनिर्मलहृदयः सन् भावय । अथवा अवियारदंसणविसुद्धो इत्यकमेव पदं । तत्रायमर्थः-अविकारं पंचविंशतिदोषरहितं जो स्मरण में आते ही अत्यन्त उद्वेग करने लगते हैं. भोगे हैं वे यों ही रहें उनकी चर्चा छोड़ अभी तू उसी एक दुःखका स्मरण कर जो तूने निर्धन अवस्था में कामको बाधा से युक्त स्त्रियों को मन्दमुसकान और शुक्लकटाक्ष रूपी कामके शस्त्रों द्वारा हिमसे दग्ध-तुषारसे शोभित बाल वृक्षकी तरह प्राप्त किया है ॥१॥ आतंक हे जीव ! मन के कुछ स्वस्थ होते ही तू दुःख रूपी अग्नि को लपलपाती ज्वालाओं को शीघ्र भूल जाता है । दुःखके समय तेरी बुद्धि में जो सद्विचार प्रस्फुरित हुए थे वे यदि पीछे भो-दुःख दूर हो जाने के बाद भी स्थिर रहते तो तुझे दुःख होता ही कैसे ? ॥१॥ ___इस प्रकार दीक्षा लेते समय, दरिद्रता के समय अथवा रोग आदिके समय यह जीव जिनधर्म रूप परिणामोंका आश्रय लेता है पीछे चलकर उन परिणामों को भूला देता है और विचार-शून्य होकर पुनः विषयों की ओर आकृष्ट होने लगता है । आचार्य ऐसे ही जोवोंको संबोधते हुए कहते हैं कि हे अविवेकी जीव ! यदि तू उत्तम रत्नत्रय प्राप्त करना चाहता है तो अपने विवेक को तिलाञ्जलि न दे। उस विवेक के द्वारा तू सार-श्रेष्ठ और असार अश्रेष्ठ वस्तुओं का निर्धार कर, सम्यग्दर्शन को शुद्ध रख तथा दीक्षा आदिके समय होने वाले सद्विचारोंका स्मरण कर उन्हें भूल मत जा। गाथा में आये हुए 'अवियार' इस प्राकृत शब्दकी संस्कृत छाया 'अविचार' और 'अविकार' दोनों हो सकती हैं। ऊपर 'अविचार' छायाको स्वीकृत कर अर्थ किया है, 'अविकार' छायाके पक्ष में अर्थ होता है है For Personal & Private Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ [५. १०८ षट्प्राभृते यद्दर्शनं सम्यक्त्वरलं तेन विशुद्धोऽनन्तभवपापरहितः । किमर्थ भावय, (उत्तमवोहिनिमित्तं ) उत्तमा गणघरचक्रधरकुलिशघरभव्यवरपुण्डरीकैः पूज्यत्वात उत्तमा चासौ बोधिः तन्निमित्तं उत्तमबोधिनिमितं । ( असारसाराइ मुणिऊण ) असाराणि साराणि च मुनित्वा ज्ञात्वा । उक्तं च अथिरेण थिरामलिणेण निम्मला निग्गुणेण गुणसारा। . कारण जा विढप्पइ सा किरिया किं न कायव्वा ॥१॥ .... अनालोचितं असारं, आलोचितं सारं । परनिन्दा असारं, निजनिन्दा सारं । आत्मदोषाणां गुरोरणेऽप्रकथनं असारं, गुर्वग्रे निजदोषकथनं सारं, अप्रतिक्रमणं असारं । प्रतिक्रमणं सारं विराधनं असारं आराधनं सारं अज्ञान असारं सम्यग्ज्ञानं सारं । मिथ्यादर्शनं असारं,सम्यग्दर्शनं सार ।कुचरित्र असारं,सच्चरित्रं सारं ।कुतपः असारं, सुतपः सारं । अकृत्यं असारं, कृत्यं सारं । प्राणातिपातोऽसारं, अभयदानं सारं । मृषावादोऽसारः, सत्यं सारं । अदत्तादानं असारं, दत्तं कल्प्यं च सारं । मैथुनं असारं, ब्रह्मचर्य सारं । परिग्रहोऽसार, नग्रन्थ्यं सारं । रात्रिभोजनमसारं, दिवाभोजनमेकभक्तं प्रत्युत्पन्न प्रासुकं सारं । आतंरौद्रध्यानमसारं, धयं शुक्लध्यानं सारं । कृष्णनीलकपोतलेश्या असारं, तेजःपप्रशुक्ललेश्याः सारं । आरंभोऽसारं, अनारंभः सारं । असंयमाऽसारं, संयमः सारं । सग्रन्थोऽसारं, निम्रन्थः सारं। रागद्वेष मोह आदि खोटे परिणामोंसे रहित जीव अथवा 'अवियार' पदको सम्बोधनान्त पृथक् पद न मानकर 'अवियार दंसम विसुद्धो' इस तरह एक ही समस्त पद मानना चाहिये । इस पक्ष में अवियार शब्द जीवका सम्बोधन न होकर दर्शनका विशेषण हो जाता है और तब 'अवियार दंसण विसुद्धो' पदका अर्थ होता है पच्चीस दोष रहित सम्यग्दर्शन से शोभित होता हुआ । सम्यग्दृष्टिमनुष्य को असार तथा सार वस्तु की परख कर सार वस्तुको प्राप्त करने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। जैसा कि कहा है अधिरेण-यदि अस्थिर शरीर से स्थिर, मलिन से निर्मल और निगुणसे सगुण क्रिया को जाती है तो उसे क्या नहीं करना चाहिये ? अर्थात् अवश्य करना चाहिये । यह शरीर यद्यपि अस्थिर, मलिन और निगुण है तथापि इससे रत्नत्रय को प्राप्ति कर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है । वह माक्ष जो कि स्थिर, निर्मल और अनन्त गुणों से श्रेष्ठ है, आगे क्या असार है ? और क्या सार है ? इसको चर्चा संस्कृत टोका-कारने विस्तार से की है जो इस प्रकार है For Personal & Private Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १. १०८ ] भावप्राभृतम् ४८९ सचेलोऽसारं निश्चेलः सारं । अलोचोऽसारं, लोचः सारं । स्नानं असारं, अस्नानं मारणं सारं । अभूमिशयनं असारं, भूमिशयनं सारं । दन्तधावनं असारं, अदन्तघर्षणं सारं । उपविश्य भोजनं असारं, उद्भभोजनं सारं । भाजने भोजनं असारं, पाणिपात्रे भोजनं सारं । क्रोधोऽसारं, क्षमा सारं । मानोऽसारं, मार्दवं सारं । मायाsसारं, आर्जवं सारं । लोभोऽसारं, सन्तोषः सारं । अतपोऽसारं, द्वादशविधं तपः सारं । मिथ्यात्वं असारं, सम्यक्त्वं सारं । अशीलं असारं, शीलं सारं । सशल्योऽसारं, निशल्यः सारं । अविनयोऽसारं विनयः सारं । अनाचारीऽसारं, रात्रिभोजन असार है, आलोचना नहीं करना असार है, आलोचना करना सार है । परनिन्दा करना असार है, निज निन्दा करना सार है । गुरुके आगे अपने दोषों का नहीं कहना असार है, गुरुके आगे अपने दोष कहना सार है । प्रतिक्रमण नहीं करना असार है, प्रतिक्रमण करना सार है । विराधना करना - गृहीत व्रत में दोष लगाना असार है, आराधना करना - व्रतका निर्दोष पालन करना सार है । अज्ञान अंसार है, सम्यग्ज्ञान सार है । मिथ्यादर्शन असार है, सम्यग्दर्शन सार है । मिथ्याचारित्र असार है, सम्यक्चारित्र सार है । कुतप असार है, सुतप सार है । अकृत्य-अयोग्य कार्यं असार है, कृत्य योग्य कार्यं सार है । प्राण घात असार है, अभय दान सार है । असत्य भाषण असार है, सत्य भाषण सार है, अदत्त वस्तु का ग्रहण करना असार है, योग्य दी हुई वस्तुका स्वीकार करना सार है । मैथुन असार है, ब्रह्मचर्यं सार है । परिग्रह असार है, निग्रन्थपना सार है। दिनमें एकबार प्रासुक भोजन करना सार है। आर्त्त रौद्र ध्यान असार हैं, ध और शुक्लध्यान सार हैं । कृष्ण नील और कापोत लेश्या असार है, तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या सार है । आरम्भ असार है, अनारम्भ सार है । असंयम असार है, संयम सार है । परिग्रहवान् असार है, परिग्रह रहित सार है । वस्त्र सहित असार है, वस्त्र रहित सार है । केशलोंच नहीं करना' असार है, केशलोंच करना सार है । स्नान असार है, अस्नान अर्थात् मल धारण करना सार है । पृथिवी पर नहीं सोना असार है, पृथिवी पर सोना सार है। दांतोन करना असार है, दांतोन नहीं घिसना सार है । बैठकर आहार करना असार है, खड़े-खड़े आहार करना सार है । पात्र में भोजन करना असार है, हस्त-रूपी पात्रमें भोजन करना सार है । कोष असार है, क्षमा सार है। मान असार है, मार्दव धर्म सार है । माया असार है, आर्जव सार है। लोभ असार है, संतोष सार है । अतप असार हैं, बारह प्रकारका तप सार है। मिथ्यात्व असार है, सम्यमत्व सार है। For Personal & Private Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० 'षट्प्राभृते [५. १०९आचारः सारं । उन्मार्गोऽसारं जिनमार्गः सारं । अक्षमा असारं, क्षमा सारं ।। अगुप्तिः असारं, गुप्तिः सारं । अमुक्तिः असारं, मुक्तिः सारं । असमाधिः असारं, समाधिः सारं। ममत्वं असारं, निर्ममत्वं सारं । यद्भावितं तदसारं, यन्न भावितं तत्सारं । इति सारासाराणि ज्ञातव्यानि । सेवहि चउविहलिंगं अभंतरलिंगसुद्धिमावण्णो। बाहिरलिंगमकज्जं होइ फुडं भावरहियाणं ॥१०९॥ सेवस्व चतुर्विधलिङ्ग अभ्यंतरलिङ्गशुद्धिमापन्नः। ... वाह्यलिङ्गमकायं भवति स्फुटं भावरहितानां ॥ १०९ ।। ( सेवहि चउविहलिंग ) सेवस्व हे मुने ! चतुर्विधं लिगं शिरःकेशमुखश्मश्रुलोचोऽध केशरक्षणं चतुर्विधमिदं लिंगं पिच्छकुण्डीद्वयग्रहः । ( अभंतरलिंगसुद्धिमावण्णो ) अभ्यन्तरलिंगं जिनसम्यक्त्वं तस्यशुद्धिमापन्नः प्राप्तः । ( बाहिरलिंगमकज्ज ) बहिलिंगं पूर्वोक्तं चतुर्विधलिंगमकार्य मोक्षदायकं न भवति । ( होइ फुडं अशील असार है, शील सार है । शल्य सहित होना असार है, शल्य रहित होना सार है । अविनय असार है, विनय सार है। अनाचार असार है, आचार सार है । मिथ्यामार्ग असार है, जिनमार्ग सार है। अक्षमा असार है, क्षमा सार है । अगुप्ति असार है, गुप्ति सार है। अमुक्ति संसार असार है, मुक्ति सार है। असमाधि असार है, समाधि सार है। ममत्व असार है, निर्ममत्व सार है । जिस विषय सुखका उपभोग किया है वह असार है और जिसका उपभोग नहीं किया वह सोर है । इस प्रकार सारअसारके स्वरूपको जानना चाहिये ॥ १०८ ॥ गाथार्थ-हे मुने ! तू भावलिङ्ग को शुद्धिको प्राप्त होता हुआ बाह चार प्रकार के लिङ्ग को धारण कर । भाव रहित मुनियों का द्रव्य लिङ्ग निश्चित ही अकार्य-कर है-मोक्ष दायक नहीं है ॥ १०९ ॥ विशेषार्थ-अभ्यन्तर लिङ्गका अर्थ जिन-सम्यक्त्व है, मुनिको सर्व प्रथम उसकी संभाल करना चाहिये । पश्चात् भाव शुद्धि पूर्वक चार प्रकारका बाह्य लिङ्ग धारण करना चाहिये । १ शिरके केशलोंच करना २ डाड़ीके केशलोंच करना ३ मछके केशलोंच करना और ४ नीचे के केश रखना अर्थात् उनका लोच नहीं करना यह चार प्रकार का बाह्य लिङ्ग है। पीछी कमण्डलु धारण करना भी बाह्य लिङ्ग है। भाव-रहित अर्थात् मिथ्यादृष्टि मुनियोंका बाह्य लिङ्ग निश्चय से अकार्यकर है अर्थात् मोक्ष. को देने वाला नहीं है । यद्यपि द्रव्यलिङ्गो मुनि नव प्रवेयक तक उत्पन्न For Personal & Private Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ११०-१११] भावप्राभृतम् भावरहियाणं ) अकार्य भवति स्फुटमिति निश्चयेन भावरहितानां मिथ्यादृष्टीनां दिगम्बराणां । आहारभयपरिग्गहमेहुणसणाहि मोहिओसि तुमं । भमिओ संसारवणे अणाइकालं अणप्पवसो ॥११०॥ आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञाभिः मोहितोसि त्वम् । भ्रमितः संसारवने अनादिकालमनात्मवशः ।। ११० ॥ ( आहारभयपरिग्गहमेहुणसण्णाहि मोहिओसि तुम ) आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञाभिर्मोहित आत्मरूपाच्चलितः प्रचलितः प्रच्युतः, असि-भवसि, तुम-त्वं हे जोव । ( भमिओ संसारवणे ) भ्रान्तः पर्याटीस्त्वं संसारवने नरकतिर्यक्कुमनुष्यकुत्सितदेवगहने । (अणाइकालं) अनादिकालं पूर्वकाले । ( अणप्पवसो ) अनात्मवशः न आत्मा मनो वशे यस्य सोऽनात्मवशः विषयकषायान्यायरञ्जितहृदय इत्यर्थः ।। बाहिरसयणतावणतरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि । पालहि भावविसुद्धो पूयालाहं न ईहंतो ॥१११॥ बहिःशयनातपनतरुमूलादीन् उत्तरगुणाणि । पालय भावविशुद्धः पूजालाभं अनाहमानः ॥१११।। होते हैं तथापि देव पद पाना मुनिका लक्ष्य न होनेसे उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की गई है ॥ १०९॥ _ गापा हे जीव ! तू आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओंसे मोहित हो पराधीन हआ संसार रूपी अटवी में अनादि कालसे भ्रमण कर रहा है ।। ११० ॥ विशेषार्थ-संज्ञाका अर्थ अभिलाषा है । ये अभिलाषाएं आहार, भय, मैथुन और परिग्रह के भेदसे चार प्रकार की हैं। इनसे मोहित हुआ जोव 'स्व स्वरूप से च्युत होकर बाह्य पदार्थों में रमने की इच्छा करने लगता है । इनसे पीड़ित हुए जीवका मन स्वाधीन नहीं रहता किन्तु विषय कषाय और अन्याय से अनुरजित होकर पराधीन हो जाता है। यहाँ आचार्य, मुनिको संबोधते हुए कहते हैं कि हे मुने ! इन संज्ञाओंके चक्रमें पड़कर तूने अनादि कालसे नरक तिर्यञ्च कुमनुष्य और नीच देव गति रूपी बोहर बटवी में परिभ्रमण किया है अब तेरो मुनि अवस्था है अतः उनकी ओरसे सर्वथा मनकी प्रवृत्ति को दूर हटा ॥ ११० ।। . गाचार्य-हे साधो ! तू भावसे शुद्ध होता हवा स्वाति, लाम गाडि For Personal & Private Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ षट्नामृते - [५. ११२-. (बाहिरसयणत्तावणतरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि ) बहिःशयनातपनतरुमूलावान् उत्तरगुणान् पालयेति सम्बन्धः । शीतकालेऽनावृतस्थाने स्थिति कुरु । उष्णकाले आतपनयोगं घर । वर्षाकाले तरुमूले तिष्ठ । वृक्षपर्णोपरि पतित्वा यज्जल यत्युपरि पतति तस्य प्रासुकत्वाद्विराधनाऽप्कायिकानां जीवानां न भवति द्विगुणवर्षाकष्टं च भवतीति कारणात् वर्षाकाले तरुमूलस्थितेरुपयोगः, अन्यथा कातरत्वप्रसक्तेः । एते त्रयोऽपि योगा उत्तरगुणाः कथ्यन्ते । ( पालहि भावविसुद्धो ) ( पालय भावविशुद्धः ) तत्वभावनानिर्मलमनाः सन्निति भावः । ( पूयालाहं न ईहतो ) पूजालाभख्यात्यादिकमनीहमानोऽनिच्छन्निति शेषः ।। भावहि पढमं तच्चं विदियं तदियं चउत्थपंचमयं । तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहणं तिवग्गहरं ॥११२॥ भावय प्रथमं तत्वं द्वितीयं तृतीयं चतुर्थपञ्चमकम् । त्रिकरणशुद्धः आत्मानं अनादिनिधनं त्रिवर्गहरम् ।।११२।। ( भावहि पढमं तच्चं ) भावय हे जीव | त्वं श्रद्धेहि, किं तत् ? प्रथमं तत्वं जीवतत्वं । ( विदियं ) द्वितीयं तत्वमजोवसंज्ञं पुद्गलधर्माधर्मकालाकाशलक्षणं । को इच्छा न कर, बाह्यशयन आतापन योग ओर वृक्ष मूल निवास आदि गुणोंका पालन कर ॥ १११ ॥ विशेषार्थ-शीत कालमें खुले स्थान पर शयन करना अभ्रवास योग है। उष्ण कालमें पर्वतकी शिखर आदि संतप्त स्थानों पर बैठकर ध्यान करना आतापन योग है और वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करना वर्षायोग है । वृक्षके नीचे बैठने पर मुनिके शरीर पर जो पानीको बूदें पड़ती हैं वे प्रासुक होती हैं अतः उससे जल-कायिक जीवोंका विघात नहीं होता तथा थोड़ा थोड़ा पानी पड़नेसे वर्षाका कष्ट दूना होता है इसलिये वर्षाकाल में वृक्षके नीचे बैठकर वर्षायोग करने की विधि है अन्यथा मुनिके कातर-पनेका प्रसङ्ग आता है। ये तीनों योग उत्तर गुण कहलाते हैं। हे मुने ! पूजा लाभ-लौकिक मान प्रतिष्ठा आदिको इच्छा न रखता हुआ तू विशुद्ध भावसे इन उत्तर गुणोंका पालन कर ॥१११॥ गाथार्थ-हे जीव ! तू प्रथम-तत्व-जीव, द्वितीयतत्व-अजीव, तृतीयसत्व-आस्रव चतुर्थ तत्व-बन्ध, पञ्चमतत्व-संवर, षष्ठ तत्व-निर्जरा और सप्तमतत्व-मोक्ष इन सात तत्वोंको श्रद्धा कर तथा मन वचन कायसे शुद्ध होता हुआ, धर्म अर्थ एवं काम रूप त्रिवर्ग को हरने वाले-मोक्ष स्वरूप अनादि निधन आत्मा का ध्यान कर ॥११॥ For Personal & Private Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ११३] भावप्राभृतम् ( तदियं ) तृतीयं तत्वं आस्रवनामधेयं । ( चउत्थपंचमयं ) चतुर्थ बन्धनामधेयं, पंचमकं तत्वं संवराभिधानं निर्जरा षष्ठं तत्वं, मोक्षः सप्तमं तत्वं । ( तिरयणसुद्धो अप्पं ) त्रिकरणशुद्धः सन्नात्मानं भावहि भावय, अल्पं वा स्तोककालं अन्तर्मुहूर्तकालं । कथंभूतमात्मानं, (अणाइणिहणं ) अनादिनिधनं आद्यन्तरहितं । ( तिवगहरं ) धर्मार्थकामवर्गत्रयजितं सर्वकर्मक्षयलक्षणमोक्षसहितं निश्चयात् । जाव ण भावइ तच्चं जाव ण चितेइ चितणीयाई । ताव ण पावइ जीवो जरमरणविवज्जियं ठाणं ॥११३॥ .. यावन्न भावयति तत्वं यावन्न चितयति चिंतनीयानि । तावन्न प्राप्नोति जीवः जरमरणविवजितं स्थानं ॥११॥ (जाव ण भावइ तच्चं) यावत्कालं न भावयति, किं ? तत्वं सप्तसंख्यं जीवाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षलक्षणं, तन्मध्ये निजात्मतत्वं मोक्षकारणं अपरे . विशेषार्थ यहाँ आचार्य ने गाथाके पूर्वार्धमें सम्यग्दृष्टि जीवकी बहिर्मुखी प्रवृत्ति का वर्णन करते हुए कहा है कि तू जीव अजीव आदि सात तत्वोंकी भावना कर और अन्तर्मुखी प्रवृत्ति का वर्णन करते हुए उत्तरार्ध में कहा है कि तू मन वचन कायसे शुद्ध होकर अर्थात् तीनों योगों के निमित्तसे होनेवाली बहिर्मुखी प्रवृत्ति से निवृत्त होकर अनादि निधन एक आत्मा की भावना कर । तेरी यह आत्मा धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग से रहित होकर अपवर्ग रूप है-मोक्ष रूप है। • जिसमें चेतना पाई जाती है वह जीव है। चेतना से रहित अजीव तत्व है । इसके पुद्गल धर्म अधर्म आकाश और काल ये पाँच भेद हैं। इन पांच भेदों में धर्म अधर्म आकाश और कालसे इस जीवका कछ अद्वित नहीं होता परन्तु पुद्गल द्रव्यके भेद कर्म-वर्गणा और नो कर्म वर्गणाके संयोगसे इस जीवकी संसार दशा बन रही है। आत्मा और कर्म का संयोग जिन भावों से होता है वह आस्रव है। आत्मा और कर्म-प्रदेशों का क्षीर नीर के समान एक क्षेत्रावगाह होना बन्ध है। नवीन आस्रव का रुक जाना संवर है। सत्ता में स्थित कर्मोंका एकदेश क्षय होना निर्जरा है और समस्त कर्म परमाणुओंका सदा के लिये आत्म-प्रदेशों से सम्बन्ध छुट जाना मोक्ष है ।।११२॥ गाथार्थ-जब तक यह जीव न तत्व की भावना करता है और न चिन्तनीय पदार्थों का चिन्तवन करता है तब तक जरा और मरण से रहित परम निर्वाण पद को नहीं प्राप्त होता है ॥११३॥ For Personal & Private Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ षट्प्राभृते [ ५.११३ जीवाः शुद्धबुद्ध कस्वभावा निजात्मा च । अजीवतत्व पुद्गलो धर्मोऽधर्मः काल आकाशश्च । तत्रष्टस्रग्वनितादिरूपः पुद्गलपर्यायो मोहोत्पादको राग़जनकः, शस्त्रविषकण्टकशत्रुप्रभृतिद्वेषकारकपुद्गलपर्यायः । सोऽप्यास्त्रवनिमित्तः कर्मबन्धकारणं, शुद्धआहारादिगृहीतः शुद्धध्यानाध्ययनकारणत्वात् संवर निर्जराकारणत्वात् सोऽपि मोक्षप्रत्ययः, अशुद्ध आहारो गृहीतः चर्मादिस्पृष्टतया दुर्ष्यानोत्पादकत्वादास्रवबन्धकारणं । इत्यादि पुद्गलस्य हेयोपादेययुक्तितया विचारो ज्ञातव्यः । अथवा पुद्गलद्रव्यमेव जीवस्य बन्धकारणत्वादुःखकारणं परमार्थतया हेय एव । धर्मस्तु नरकादिगति सहायकारकत्वाद्धेयः स्वर्गमोक्षगतिकारकत्वादुपादेयः । अधर्मस्तु स्वर्गमोक्षस्थानादौ मुनीनां ध्यानाध्ययनादिकाले स्थितिहेतुत्वादुपादेयः । नरकनिको विशेषार्थ - तत्व सात हैं- १ जीव, २ अजीव, ३ आस्रव, ४ बन्ध, ५ संवर, ६ निर्जरा और ७ मोक्ष । इन सात तत्वोंमें निज आत्म-तत्व मोक्ष का कारण है क्योंकि वही आदान कारण होनेसे मोक्ष पर्याय रूप परिणमन करता है । निमित्त कारण की अपेक्षा शुद्ध बुद्धेक स्वभाव से युक्त अन्य जीव तथा अपनी पूर्व पर्याय गत आत्मा भी मोक्षका कारण है। अजीव तत्वके पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये पाँच भेद हैं। इनमें इष्ट माला तथा स्त्री आदि रूप पुद्गल पर्याय मोहको उत्पन्न करने वाली तथा राग की जनक है और शस्त्र विष कण्टक तथा शत्रु आदि रूप पुद्गल पर्याय द्वेष - जनक है। वह पुद्गल द्रव्य आस्रव का निमित्त तथा कर्म-बन्धका कारण है । यदि शुद्ध आहार आदि रूप पुद्गल द्रव्य ग्रहण में आता है तो वह शुद्ध ध्यान तथा अध्ययन का कारण होनेसे संवर और निर्जरा का कारण होता है तथा परम्परा से मोक्ष का भी कारण होता है । यदि चमड़े आदि के स्पर्श से दूषित अशुद्ध आहार रूप पुद्गल द्रव्य ग्रहण में आता है तो वह खोटे ध्यानका उत्पादक होनेसे आस्रव और बन्ध काही कारण होता है । इत्यादि रूप से पुद्गल द्रव्य की हेयता और उपादेयताका विचार करना चाहिये । अथवा परमार्थसे पुद्गल द्रव्य ही बन्ध का कारण होनेसे जीवके दुःखका कारण है, अतः वह हेय ही है ] धर्म द्रव्य नरकादि गतियों की प्राप्ति में सहायता करता है इसलिये हेय है और स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति में सहायक होनेसे उपादेय है । अधर्म द्रव्य स्वर्ग तथा मोक्ष सम्बन्धी स्थितिका तथा ध्यान अध्ययन आदिके काल में मुनियों की स्थिति का हेतु होनेसे उपादेय है तथा नरक और नकोत आदि की स्थिति का कारण होनेसे हेय है। काल द्रव्य स्वर्ग और मोक्ष आदि में होनेवाली वर्तनाका कारण होनेसे उपादेय है और नरकादि For Personal & Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ११४ ] भावप्राभृतम् ४९५ तादिस्थितिकारणत्वे हेयः । कालस्तु स्वर्गमोक्षादौ वर्तनाप्रत्ययत्वादुपादेयः, नरकादिपर्यायवर्तनाकारणत्वाद्धयः । आकाशः समवसरणस्वर्गमोक्षादाववकाशदायकगुणत्वादुपादेयः । नरकनिगोदादिस्थानावकाशवानदायकत्वाद्धयः । निनिदानविशिष्टतीथंकरनामकर्मास्रव उपादेयो मोक्षहेतुत्वात् । नरकादिगर्तादिनिपातहेतुत्वादन्य आस्रवो हेयः । तीर्थकरनामकर्महेतुश्चतुर्विधोऽपि बन्ध उपादेयः, संसारपर्यटनकारीतरो बन्धो हेयः । संवर उपादेयः । निर्जरा चोपादेया मुनीनां सम्बन्धिनी । मोक्षः सर्वथाप्युपादेयोऽनन्तज्ञानादिचतुष्टयकारणत्वादिति सप्ततत्वानि यावन्न भावयति । ( जाव ण चितेइ चितणीयाई) यावन्न चिन्तयति चिन्तनीयानि धर्म्यशुक्लघ्यानानि अनुप्रेक्षादीनि च । ( ताव ण पावइ जीवो) तावन्न प्राप्नोति जीव आत्मा । (जरणमरणविवज्जियं ठाणं) जरामरणविजितं स्थानं परमनिर्वाणपदमिति शेषः । पावं 'पयइ असेसं पुण्णमसेसं च पयइ परिणामो। परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिट्ठो ॥११४॥ पापं पचति अशेषं पुण्यमशेषं च पचति परिणामः । परिणामाबन्धः मोक्षो जिनशासने दिष्टः ॥११४॥ पर्यायों की वर्तनाका कारण होनेसे हेय है । आकाश द्रव्य समवसरण स्वर्ग तथा मोक्ष आदि में अवकाश देनेवाले गुण से युक्त होनेके कारण उपादेय है और नरक निगोदादि स्थानों में अवकाश दान देनेके कारण हेयं है । मोक्षका कारण होनेसे निदान रहित तीर्थकर प्रकृति नामक सातिशय पुण्य प्रकृति का आस्रव उपादेय है और नरंकादि गर्त में पतन का कारण होनेसे अन्य आस्रव हेय है। तीर्थंकर नाम कर्म का हेतु होनेसे चारों प्रकार का बन्ध उपादेय है तथा संसार परिभ्रमण का कारण होनेसे अन्य बन्ध हेय है। संवर उपादेय है। मुनियों की. निर्जरा भी उपादेय है, और अनन्त ज्ञानदर्शन आदि चतुष्टयका कारण होनेसे मोक्ष सभी प्रकार से उपादेय है।] . इस तरह से जब तक यह जीव सात तत्वों की भावना नहीं करता है तथा धर्म्य ध्यान, शुक्ल ध्यान और अनित्य आदि अनुप्रेक्षा का चिन्तवन नहीं करता है तब तक जरा और मरण से रहित स्थानको अर्थात् परम निर्वाण पदको नहीं प्राप्त होता है ॥११३॥ __गाथार्थ भाव हो समस्त पाप को पचाता है अर्थात् निर्जीर्ण १२. ५० जयचन्द्रेण स्वकृत-वचनिकायां 'पयइ' स्थाने 'हवा' पाठः स्वीकृतः । For Personal & Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ पट्झामृते [५. ११४(पावं पयह असेसं ) पापं पचति अशेष, सर्व पापं परिणामः पचति निबरपति निजात्मपरिणामो भावना निःशेषः पापं दूरीकरोति । उक्त प नाममात्रकथया परात्मनो भरिजन्मकृतपापसंक्षयः । बोधवृत्तरुचयस्तु तद्गताः कुर्वते हि जगतां पति नरम् ॥ १॥ (पुण्णमसेसं च पयइ परिणामो) पुण्यं अशेषं सर्वं च सर्वमपि पचति विस्तारयति मेलयति, कोऽसौ ? परिणामः निजशुद्धबुद्ध कस्वभावात्मभावना जिनसम्यक्त्वं च । तथा चोक्तं एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितु दातु मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥१॥ करता है, भाव ही समस्त पुण्य को पचाता है अर्थात् विस्तीर्ण करता है, जिन--शासनमें भावसे ही बन्ध और भाव से ही मोक्ष कहा गया है ।।११४॥ विशेषार्थ-परिणाम का अर्थ भाव है और भावसे निज शुद्ध बुद्धकस्वभाव आत्मा की भावना अथवा जिन-सम्यक्त्व का ग्रहण होता है। निज शुद्ध-बुद्धक-स्वभाव की भावना से सम्यग्दर्शन का बोध होता है भावकी मुख्यतासे कथन करते हुए आचार्य कहते हैं कि भाव ही समस्त पापको पचाता है अर्थात् निजात्म परिणाम रूप भावना ही समस्त पापको. दूर करती है । जैसा कि कहा गया है नाममात्र-परमात्माके नाम मात्र की कथा से अनेक जन्मों में किये हुए पाप का क्षय हो जाता है फिर परमात्मा-सम्बन्धी ज्ञान चारित्र और श्रद्धा हो तो वे इस मनुष्यको जगत् का नाथ बना देती हैं अर्थात् यह जीव सिद्ध पदको प्राप्त हो जाता है। परिणाम अर्थात् भाव ही इस जोवके समस्त पुण्यको पचाता है अर्थात् 'विस्तृत करता है अथवा पुण्य की प्राप्ति करता है। जैसा कि कहा गया है एकापि-यह एक जिन-भक्ति ही दुर्गति का निवारण करने के लिये १. संस्कृत टीकाकार ने 'पचति का अर्थ' विस्तृत करता है, किया अवश्य है परन्तु पचि विस्तारे धातुका रूप पञ्चयति होता है, पचति नहीं। अतः जो अर्थ 'पापं पचति अशेष' में लगाया है वही यहाँ भी लगाना चाहिये। अर्थात् पुण्य कर्मकी निरा भी परिणाम से ही होता है। For Personal & Private Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ११४ ] सवेद्य शुभायुर्नामगोत्रलक्षणं तीर्थंकरनामकर्मासाधारणपुण्यं परिणामेनैवोपा ज्यंत इत्यर्थः । तथा चोक्तं भावप्राभृतम् परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोनिपुणाः । पापापचयश्च सुविधेयः ॥ १ ॥ तस्मात्पुण्योपचयः ४९७ तथा च समयसारः 'आत्मकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ १ ॥ ( परिणामादो बंधो ) परिणामाबन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशलक्षणश्चतु विधो बन्धः पुण्यसम्बन्धी पापसम्बन्धी च बन्धः संजायते । उक्तं चपर्याडट्ठि दिअणुभागप्पदेसबंधा दु चदुविधो बंधो। जोगा पर्यापदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति ॥ १ ॥ समर्थ है, जिन भक्ति ही पुण्य की पूर्णता करने में समर्थ है और जिनभक्ति ही कुशल मनुष्यको मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करने में समर्थ है। 'सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्' इस उल्लेख के अनुसार सातावेदनीय शुभ आयुशुभनाम और शुभगोत्र पुण्यकर्म कहलाते हैं, तीर्थंकर नामकर्म भी असाधारण - लोकोत्तर पुण्यकर्म है इसकी प्राप्ति भी परिणाम अर्थात् भावसे ही होती है । जैसा कि कहा गया है। परिणाममेव – निश्चय से कुशल मनुष्य पुण्य और पापका कारण परिणाम-भाव को ही कहते हैं इसलिये पुण्यका संचय और पापका अपचय करना चाहिये । यही आगम का सार है— धात्मकृत — आत्मा के द्वारा किये हुए रागादि परिणाम को निमित्त मात्र पाकर पुद्गल द्रव्य स्वयं ही कर्मरूप परिणम जाते हैं अर्थात् पुद्गल द्रव्य-कर्मरूप परिणमन करनेमें आत्माका रागादि भाव निमित्तकारण और पुद्गलद्रव्य स्वयं उपादान कारण है प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेश के भेद से बारह प्रकारका अथवा पुष्य और पापके भेदसे दो प्रकारका बन्ध परिणाम - भावसे ही होता है । जैसा कि कहा गया है १. पुरुषार्थ सिद्धयुपाये । በ पर्यादिवि - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से बन्ध चार प्रकारका होता है। इनमें से प्रकृति और प्रदेशबन्ध योग के For Personal & Private Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [५.११५ ( मुक्खो जिणसासणे दिट्ठी ) मोक्षः सर्वकर्मप्रक्ष यलक्षणोपलक्षितं परमनिर्वाण जिनशासने श्रीमद्भगदर्हत्सर्वज्ञवीतरागम शासने निर्दिष्टः प्रतिपादितः परिणामादेवेति निश्चयः, स मोक्षकारणभूतः परिणाम आत्मन्येकलोलीभाव इति भावार्थ: । मिच्छत्त तह कसायाऽसंजमजोगेहि असुहलेसह । बंधइ असुहं कम्मं जिणवयणपरम्हो जीवो ॥ ११५ ॥ मिथ्यात्वं तथा कषाया असंयमयोगैरशुभलेश्येः । नाति अशुभं कर्म जिनवचनपराङ्मुखो जीवः ॥ ११५ ॥ ( मिच्छत तह कसाया ) मिथ्यात्वं पंचविधं तथा तेनैव पंचप्रकार मिथ्यात्वप्रकारेण कषायाः पंचविंशतिभेदाः । ( असंजमजोगेहि असुहलेसेहि ) असंयमो द्वाद्वशविषः, योगाः पंचदशभेदाः, एवं सप्तपंचाशत्कर्मबन्धप्रत्ययाः कारणानि आस्रवभेदा भवन्तीति संक्षेपार्थः । कथंभूतैरेतैरास्रवः, अशुभलेश्यैः कृष्णनीलकापोतलेश्याबलेन संजातैः । ( बंधइ असुहं कम्मं ) बध्नाति अशुभं कर्म । ( जिणवयणपरम्मुहो जीवो ) जिनवचनपराङ्मुखो जीवो मिध्यादृष्टिरात्मा । ४९८ के निमित्त से होते हैं और स्थिति तथा अनुभाग बन्ध कषाय से होते हैं। समस्त कर्मों के क्षयसे प्राप्त होने वाला जो परम- निर्वाण है वह भी परिणाम से ही होता है, ऐसा वीतराग सर्वज्ञ देवके शासन में कहा गया है । यहाँ परिणाम शब्द से आत्मा में एकलोलीभाव - तन्मयीभावका ग्रहण करना चाहिये क्योंकि ऐसा भाव ही परम यथाख्यांतचारित्र ही मोक्षका साक्षात् कारण है ॥ ११४ ॥ गाथार्थ - जिन-वचन से पराङमुख जीव, मिथ्यात्व, कषाय, असंयम, योग और अशुभ लेश्या के द्वारा अशुभ कर्म का बन्ध करता है ॥ ११५ ॥ विशेषार्थ - मिथ्यात्व के पांच भेद हैं, कषाय के पच्चीस भेद प्रसिद्ध हैं, असंयम अर्थात् अविरति के बारह भेद हैं और योग के पन्द्रह भेद हैं । ये सब मिलाकर आस्रव के सत्तावन भेद हैं । कषायके उदयसे अनुरञ्जित योगकी प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं उसके कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल के भेदसे ६ भेद होते हैं इनमें प्रारम्भके तोन भेद अशुभ लेश्याएँ हैं । जिनवाणीकी श्रद्धा और ज्ञानसे विमुख हुआ जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है तथा वह ऊपर कहे हुए सत्तावन आस्रवों अथवा कृष्ण नील और कापोत रूप तीन अशुभ लेश्याओं से पापकर्मका बन्ध करता है ॥ ११५ ॥ For Personal & Private Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ११६] भावप्राभृतम् ४९९ तविवरीओ बंधइ सुहकम्मं भावसुद्धिमावण्णो। दुविहपयारं बंधइ संखेवेणेव 'वज्जरियं ॥११६॥ तद्विपरीतः बध्नाति शुभकर्म भावशुद्धिमापन्नः। द्विविधप्रचारं बध्नाति संक्षेपेणैव कथितं ॥११६॥ ( तं विवरीओ बंधइ ) तस्माज्जिनवचनपराङ्मुखान्मिथ्यादृष्टिजीवाद्विपरीतः सम्यग्दृष्टिजीवः बध्नाति, किं ? शुभकर्म-पुण्यकर्म सवैद्यशुभायुर्नामगोत्रलक्षणं तीर्थकरत्वं । कथंभूतो जीवः, ( भावसुद्धिमावण्णो ) भावशुद्धिमापन्नः परिणामशुद्धि प्राप्तः सदृष्टिजीव इत्यर्थः ( दुविहपयारं बंधइ) द्विविधप्रचारं द्वयोर्भेदयोः प्रचारं बध्नाति । ( संखेवेणेव वज्जरियं ) संक्षेपेणैव कथितं प्रतिपादितम् । गाथार्य-मिथ्यादृष्टिसे विपरीत अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव भावोंकी . शुद्धिको प्राप्त होता हुआ शुभकर्मका बन्ध करता है। इस प्रकार यह जोव शुभ-अशुभ दोनों प्रकारके कर्मोंको बांधता है यह संक्षेप से ही कहा है ।।११६॥ विशेषार्थ-ऊपरकी गाथामें जिन-वचनसे पराङ मुख मिथ्यादृष्टि जीवका कथन किया था, उससे विपरीत जिन-वचनका श्रद्धालु सम्यग्दृष्टि · होता है । सम्यग्दृष्टि जीव भावों की शुद्धिको प्राप्त होता हुआ पुण्य कर्मका बन्ध करता है। सातावेदनीय, शुभायु-शुभनाम और शुभगोत्र तथा तीर्थंकर प्रकृति ये पुण्य कर्म हैं। इस प्रकार पुण्य और पाप कर्मके बन्ध .. करने वालों का संक्षेपसे कथन किया है ॥११६। . (अथवा इस गाथाका यह भाव ध्वनित होता है कि मिथ्यादृष्टि से विपरीत--सम्यग्दृष्टि जीव तो शुभ कर्म-पुण्य कर्मको बांधता है और भावशुद्धि अर्थात् शुद्धोपयोग को प्राप्त हुआ जीव पुण्य और पाप दोनों प्रकारके कर्मोके प्रचारको अर्थात् आस्रव को रोकता है। अशुभोपयोगका धारक जीव, अशुभ कर्मका बन्ध करता है, शुभोपयोगका धारक जीव पुण्य कर्मका बन्ध करता है और शुद्धोपयोगका धारक जीव दोनों प्रकारके कर्मोके प्रचार को रोकता है । यद्यपि ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक सातावेदनीय का बन्ध होता है तथापि स्थिति और अनुभाग बन्धसे रहित होनेके कारण वह बन्ध नहीं के बराबर ही है।) १. "कथेबज्जर-पज्जर-सग्ध-सास-साह-चव-जप्प-पिसुण-बोलोज्वालाः ।" इत्यनेन । एतेषु पशादेश कषयतेर्वज्जरादेशो प्रातः । - For Personal & Private Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० षट्प्रामृते [५. ११७११८णाणावरणावीहि य अट्ठविकम्मेहि वेढिओ य अहं । उहिऊण इहि पयाडमि अणंतणाणाइगुणचित्तां ॥११७॥ शानावरणादिभिश्च अष्टभिः कर्मभिः वेष्टितश्चाहम् । दाध्वेदानीं प्रकटयामि अनन्तज्ञानादिगुणचेतनां ।।११७॥ . (पाणावरणादीहि य ) मानावरणादिभिश्च ज्ञानावरणमानिर्येषां दर्शनावरण-. वेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाणां तानि ज्ञानावरणादीनि तैनिावरणादिभिः । चकारादुत्तरप्रकृतिभिरष्टचत्वारिंशदधिकशतप्रकृतिभिः । तथा उत्तरोत्तरप्रकृतिभिरसंख्याताभिरह वेष्टित इति सम्बन्धः । ( अट्ठविकम्मेहि वेडिओ य अहं ) अष्टभिरपि कर्मभिर्वेष्टितश्चाहं । अपिशब्दादनन्तानन्तकर्मभिरहं वेष्टितो वर्ते । (उहिऊन इण्हि पयडमि) दग्ध्वा भस्मीकृत्य तानि कर्माणि इत्युपस्कारः। इण्हि इदानीं, प्रकटयामि । ( अणंतणाणाइगुगचिता ) अनन्तज्ञानादिगुणचेतनामिति तात्पर्यम् ।। सोलसहस्सट्ठारस चउरासीगुणगणाण लक्खाई। भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलावेण किं बहुणा ॥११॥ शीलसहस्राष्टादश चतुरशीतिगुणगणानां लक्षाणि । भावय अनुदिनं निखिलं असत्प्रलापेन किं बहुना ॥११८॥ ( सीलसहस्सट्ठारस ) शीलसहस्राष्टादश शीलानां सहस्राणि मष्टादश भवन्ति तानि त्वं भावयेति सम्बन्धः। (चउरासीगुणगणाम लक्खाई) चतुर गावार्य-सम्यग्ज्ञानी मुनि विचार करता है कि में ज्ञानावरणादि आठ कर्मोसे वेष्टित हो रहा है सो अब इन्हें भस्म कर अनन्त अनादि गुणरूप चेतनाको प्रकट करता हूँ ॥११७॥ विशेषार्य-ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम गोत्र और अन्तरायके भेदसे कर्मोकी मूल प्रकृतियां आठ हैं। इनकी उत्तर प्रकृतियाँ एकसौ अड़तालीस हैं तथा उत्तर प्रकृतियों को उत्तर प्रकृतियां असंख्यात हैं। इन सब कर्मोंसे में अनादिकाल से वेष्टित चला आ रहा है अब अपने पुरुषार्थ से इन्हें भस्म कर में अनन्त ज्ञानादि गुणों का स्वामी बनूंगा, ऐसा सम्यग्ज्ञानी जीव विचार करता है ।।११७॥ गाचार्य हे मुने! अत्यधिक असत्प्रलाप करने से क्या लाभ है ? तू प्रतिदिन शील के अट्ठारह हजार तथा उत्तरगुणोंके चौरासी लाख भेदोंका बारबार चिन्तवन कर ॥१८॥ For Personal & Private Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ११८ ] भावप्राभृतम् ५०१ शीतिगुणगणानां लक्षाणि । ( भावहि अणुदिणु णिहिलं ) भावय अनुदिनं अर्हनशं समग्र 1 (असप्पलावेण किं बहुणा ) असत्प्रलापेन मिथ्यानर्थकवचनेन बहुना बहुतरेण किं न किमपि । अष्टादशशीलसहस्राणां विवरणं यथा - अशुभमनोवचनकाययोगाः शुभेन मनसा हन्यन्ते इति त्रीणि शीलानि । अशुभमनोवचनकाय योगा शुभेन वचसा हन्यन्ते इति षट् शीलानि अशुभमनोवचनकाययोगः शुभेन काययोगेन हन्यन्ते इति नव शोलानि । तानि चतसृभिः संज्ञाभिगुणितानि षत्रिशच्छीलानि भवन्ति । तानि पंचभिरिन्द्रियजयैगुं णितानि अशीत्यग्रशतं भवन्ति । पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिहीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियसंश्यसंशिदयाभिर्दशभिगुणितानि अष्टादशशतानि भवन्ति । उत्तमक्षमादिभिर्दशभिगुणिनानि अष्टादशसहस्राणि भवन्ति । अथवा 1 विशेषार्थ - आचार्य कहते हैं कि निरर्थक विस्तारसे लाभ नहीं । तू अट्ठारह हजार शील और चौरासी लाख उत्तरगुणों का चिन्तवन कर । अब शोलके अट्ठारह हजार भेदों का वर्णन करते हैं मन वचन और कायके भेद से योगके तीन भेद हैं ये तीनों योग शुभअशुभके भेद से दो प्रकारके होते हैं तथा परस्पर में मिश्रित रहते हैं इसलिये इनके नौ भेद हो जाते हैं। जैसे अशुभ मन, वचन, काय योग, शुभ मनसे घाते जाते हैं इसलिये तीन भेद हुए । फिर वे ही तीन अशुभ योग, शुभ वचन से घाते जाते हैं इसलिये तीन भेद हुए और फिर वे ही तीन अशुभ योग, शुभ कायसे घाते जाते हैं इसलिये तीन भेद हुए, सब मिलाकर योग के ९ भेद हुए [ कहीं कहीं कृत कारित अनुमोदना और मन वचन काय इन तीन योगोंके संमिश्रण से शीलके नौ भेद सिद्ध किये ] इन नौ भेदों में चार संज्ञाओंका गुणा करने पर छत्तीस भेद होते हैं। उन छत्तीस भेदों में पाँच इन्द्रिय-जयोंका गुणा करने पर एकसौ अस्सी भेद होते हैं। उनमें पृथिवी कायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायु- कायिक, वनस्पति- कायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सैनी पञ्चेन्द्रिय और असैनी पञ्चेन्द्रिय इन दस प्रकारके जीवोंकी दयाके दस भेदोंका गुणा करने पर अट्ठारहसी भेद होते हैं । उनमें उत्तम क्षमा आदि दस धर्मोका गुणा करने पर अट्ठारह हजार भेद होते हैं । t • अथवा इन अट्ठारह हजार भेदोंमें सतरह हजार दो सौ अस्सी चेतन सम्बन्धी और सातसो बीस अचेतन सम्बन्धी भेद हैं । अब अ सम्बन्धी भेदोंका कथन करते है - For Personal & Private Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ षट्प्राभृते [५. ११८अशीत्याद्विशताधिकसप्तदशसहस्राणि चैतन्यसम्बन्धीनि भवन्ति विंशत्यधिकसप्तशतानि अचेतनसम्बन्धीनि भवन्ति । तत्राचेतनकृतभेदाः कथ्यन्ते-काष्ठ-पाषाण. लेप-कृताः स्त्रियो मनःकायकृतगुणिताः षट्। कृतकारितानुमतगुणिता अष्टादश । स्पर्शादिपंचगुणिता नवतिः । द्रव्यभावगुणिता अशोत्या शतं । कषायश्चतुभिगुणिता विंशत्यधिकानि सप्तशतानि । चैतन्यसम्बन्धीनि अशीत्यधिकद्विशताग्रसप्तदशसहस्राणि, तद्यथा-देवी मानुषी तिरश्ची चेति स्त्रियस्तिस्रः कृतकारितानुमतगुणिता नव भवन्ति । मनोवचनकायगुणिताः सप्तविंशतिभवन्ति । स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दगुणिताः पंचत्रिंशदधिकं शतं । द्रव्यभावगुणिताः सप्तत्यधिकद्वेशते । आहारभयमैथुनपरिग्रहचतसृसंज्ञाभिःगुणिता अशोत्यधिक सहस्र । अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनचतुष्कषोडशकषायगुणिता अशीत्यधिकद्विशताग्रसप्तदशसहस्राणि भवन्तीति चेतनसम्बन्धिभेदाः । ७२० + १७२८०-१८०००। wwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm काष्ठ, पाषाण और लेपसे निर्मित होनेके कारण स्त्रियोंके तीन भेद हैं। इन तीन प्रकारकी स्त्रियों में मनोयोग तथा काययोग का गुणा करने पर छह भेद हुए । इन छह भेदोंमें कृत, कारित और अनुमोदनाका गुणा करने पर अद्वारह भेद हुए। इन अट्ठारह भेदों में स्पर्श आदि पांचका गुणा करने पर नब्बे भेद हुए इनमें द्रव्य और भावका गुणा करने पर एकसौ अस्सी भेद हुए और इनमें चार कषायोंका गुणा करने पर सात सौ बीस भेद होते हैं। आगे चेतन-सम्बन्धी सतरह हजार दो सौ अस्सी भेद कहते हैं चेतन स्त्रीके देवी, मानुषी और तिरश्चीकी अपेक्षा तीन भेद हैं उनमें कृत, कारित और अनुमोदना के तीन भेदोंका गुणा करने पर नौ भेद हुए। उनमें मन, वचन, काय इन तीन योगोंका गुणा करने पर सत्ताईस भेद हुए, उनमें स्पर्श रस गन्ध वर्ण और शब्द इन पांचका गुणा करने पर एकसौ पैंतीस भेद हुए । उनमें द्रव्य और भावकी अपेक्षा दो का गुणा करने पर दो सौ सत्तर भेद हुए । उनमें आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओंका गुणा करने पर एक हजार अस्सी भेद हुए। उनमें अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन सम्बन्धी सोलह कषायोंका गुणा करने पर सत्रह हजार दो सौ अस्सी भेद होते हैं । इस तरह अचेतन स्त्रीके ७२० और चेतन स्त्रोके १७२८०, दोनोंके मिलाकर १८००० भेद होते हैं। For Personal & Private Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ११८ ] भावप्राभृतम् ५०३ 'अथ चतुरशीतिलक्षगुणा विव्रियन्ते । तद्यथा - हिंसा, अनृतं स्तेयं, मैथुनं, परिग्रहः, क्रोधः, मानः, माया, लोभः, जुगुप्साः, भयं, अरतिः, रतिः, मनोदुष्टत्वं, वचनदुष्टत्वं, कायदुष्टत्वं, मिध्यात्वं, प्रमाद पिशुनत्वं अज्ञानं, इन्द्रियानिग्रहत्वं, एकविंशतिदोषा वर्जनीयाः । अतिक्रमव्यतिक्रमातिचारानाचारा एते चत्वारो दोषा वर्ण्यन्ते । 2 अतिक्रमो मानसशुद्धहानिर्व्यतिक्रमो यो विषयाभिलाषः । तथातिचारः करणासत्वं भंगो ह्यनाचार इह व्रतानां ॥ १ ॥ गुणानां चतुरशीतिर्भवति । सा चतुरशीति दशकाय संयमैर्गुणिता चतुरशीतिशतानि भवन्ति । ते दशशीलाविराधनंगुणिताः चतुरशीतिसहस्राणि गुणा भवन्ति । कास्ताः शीलविराधनाः ? स्त्रीसंसर्गः १, सरसाहारः २, सुगन्धसंस्कारः ३, कोमलशयनासनं ४, शरीरमण्डनं ५, गीतवादिश्रवणं ६, अर्थग्रहणं ७, अब चौरासी लाख उत्तरगुणों का वर्णन करते हैं- १ हिंसा, २ झूठ, ३ चोरी, ४ मैथुन, ५ परिग्रह, ६, क्रोध, ७ मान, ८ माया, ९ लोभ, १० जुगुप्सा, ११ भय, १२ अरति, १३ रति, १४ मनोदुष्टता, १५ वचन दुष्टता, १६ कायदुष्टता, १७ मिथ्यात्व, १८ प्रमाद, १९ पिशुनंता, २० अज्ञान और २१ इन्द्रियानिग्रह ये इक्कीस दोष छोड़ने के योग्य हैं । इनकी अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार इन चार दोषों द्वारा प्रवृत्ति होती है अतः इक्कीस में चारका गुणा करने पर चौरासी भेद होते हैं। अतिक्रमो -- मन की शुद्धिका नष्ट होना अतिक्रम है, विषयोंकी अभिलाषा होना व्यतिक्रम है, क्रिया करनेमें आलस्य करना अतिचार है और व्रतोंका भङ्ग करना अनाचार है। ऊपर कहे चौरासी भेदोंमें दश काय सम्बन्धी, दश संयमों अर्थात् सौ का गुणा करने पर चौरासी सो भेद होते हैं । उनमें शोलकी दश विराधनाओं का गुणा करने पर चौरासी हजार भेद होते हैं । प्रश्न - शील की दश विराधनाएं कौन कौन हैं ? उत्तर – १ स्त्री संसर्ग, २ सरसाहार, ३ सुगन्धसंस्कार, ४ कोमल शयनासन, ५ शरीर मण्डन, ६ गीत वादित्र श्रवण, ७ अर्थं ग्रहण, २. दर्शनप्राभूतस्य नवमगाथायाः टीकायामपि वर्णनमस्ति । १. दशकायसंयमभेदैः पृथिव्याक्ति जीवसमासैरित्यर्थः । For Personal & Private Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ षट्प्राभृते [५. ११८कुशीलसंसर्गः ८, राजसेवा ९, रात्रिसंचरणं १० । ते आकम्पितादिदशालोचनापरिहतिभिर्दशभिगुणिताः चत्वारिंशत्सहस्राधिकाष्टलक्षाणि भवन्ति । ते दशभिधर्मः गुणिताश्चतुरशीतिलक्षा गुणा भवन्ति । अथ दशकायसंयमाः के ? एकेन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यन्तानां जीवानां रक्षा प्राणसंयमः पंचविषः । स्पर्शनादीनां पंचानामिन्द्रियाणां प्रसरपरिहार इन्द्रियसंयमः पंचविधः । एते दशकायसंयमा ज्ञातव्याः । दशालोचन दोषा यथा आर्कपिय अणुमाणिय जं दिळं वायरं च सुहमं च । छन्नं सदाउलयं बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ॥१॥ अस्या अयमर्थः-आलोचनां कुर्वन् शरीरे कम्प उत्पद्यते भयं करोतीत्याकम्पितदोषः । अणुमाणिय-अनुमानेन दोषं कथयति यथोक्तं न कथयतीत्यनुमान ८ कुशील संसर्ग, ९ राजसेवा और १० रात्रि संचरण, ये शोलको दस विराधनाएं हैं। चौरासी हजार भेदों में आकम्पित आदि आलोचना के दश दोषों के परिहार सम्बन्धी दश भेदोंका गुणा करनेसे आठ लाख चालीस हजार भेद होते हैं तथा इन भेदों में दश धर्मोंका गुणा करने पर चौरासी लाख भेद हो जाते हैं। प्रश्न-दश प्रकारका कायसंयम कौन है ? उत्तर-पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक, ये पाँच स्थावर तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिर न्द्रिय संज्ञि पञ्चेन्द्रिय और असैनी पञ्चेन्द्रिय इन दश कायके जीवोंका दश प्रकारका प्राणि-संयम और दश प्रकारका इन्द्रिय संयम ये दश कायसंयम हैं, इनके परस्पर गुणा करने पर १०० भेद हो जाते हैं। प्रश्न-आलोचना के दश दोष कौन हैं ? उत्तर-आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवो ये आलोचना के दश दोष हैं । इनका विवरण इस प्रकार है आकम्पित-आलोचना करते समय शरीर में कम्पन होना अर्थात् कहीं अधिक दण्ड न दे दें इस भयसे शरीरका कांपने लग जाना आकम्पित दोष है । अथवा ऐसी दयनीय मुद्रा बनाकर आलोचना करना जिससे आचार्य अपराधी साधुको दुर्बल समझ अधिक दण्ड न दे दें। ...... For Personal & Private Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ११८] भावप्राभूतम् ५०५ दोषः । जं दिटुं-यत्पापं केनचिदृष्टं तकथयति, अन्यजानन्नपि न कथयतीति यदृष्टदोषः । वायरं च-स्थूलं पापं प्रकाशयति सूक्ष्म न कथयतीति बादरदोषः । सुहमंच-सूक्ष्मं अल्पं पापं प्रकाशयति स्थूलं पापं न प्रकाशयतीति सूक्ष्मदोषः । छन्नं यदा कोऽपि न भवत्याचार्यसमीपे तदकान्ते पापं प्रकाशयतीति छन्नदोषः । सद्दाउलयं यदा वसतिकादौ कोलाहलो भवति तदा पापं प्रकाशयतीति शब्दाकुलदोषः । बहुजणं-यदा वहवः श्रावकादयो मिलिता भवन्ति तदा पापं प्रकाशयतीति बहुजनदोषः । अव्वत्त-अव्यक्त प्रकाशयति दोषं स्फुटं न कथयतीत्यव्यक्तदोषः । तस्सेवी-तत्पापं गुर्वग्रे प्रकाशितं तत्सर्वथा न मुंचति पुनरपि तदेव कुरुते स तत्सेवी कथ्यते । अथवा य आचार्यस्तं दोषं करोति तदने पापं प्रकाशयति निर्दोषाचार्याने पापं न प्रकाशयतीति तसेवी दोषः दश धर्मास्तु प्रसिद्धा वर्तन्ते तेन न व्याख्याताः। २ अनुमानित-जिसमें मुनि, अनुमान से दोष कहता है यथार्थ नहीं कहता, वह अनुमान योग है। ३ जो पाप किसी ने देख लिया है उसे ही कहता है अन्यदोषको जानता हुआ भी नहीं कहता है, यह दृष्ट दोष है। ४ स्थूल पापको कहता है सूक्ष्म पापको नहीं कहता है, यह बादर .दोष है। ___५ सूक्ष्म पापको ही कहता है स्थूल को नहीं, यह सूक्ष्म दोष है । - ६ जब आचार्य के पास कोई नहीं होता है तब एकान्त में पापको प्रकट करता है, यह छन्न दोष है। ७ जिस समय वसतिका आदि में महान् कोलाहल हो रहा हो उस समय दोष कहना शब्दाकुलित दोष है । ८ जिस समय बहुत से श्रावक आदि इकट्ठे हुए हों उस समय दोष कहना बहुजन दोष है। . ९ अव्यक्त रूप से दोष कहता है स्पष्ट नहीं कहता यह अव्यक्त दोष है। ___ १० जो पाप गुरुके आगे प्रकाशित किया है उसे सर्व प्रकारसे छोड़ता नहीं बार बार उसे ही करता है यह तत्सेवी दोष है, अथवा जो आचार्य उस दोषका स्वयं सेवन करता हो वह तत्सेवी है । दश धर्म प्रसिद्ध हैं अतः उनका कथन नहीं किया है ॥११८॥....... For Personal & Private Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .५०६ षट्प्राभृते [५. ११९-- झायहि धम्म सुक्कं अट्टरउदं च साण मुत्तूण । रुद्दट्ट झाइयाई इमेण जीवेण चिरकालं ॥११९॥ ध्याय धम्यं शुक्लं आतं रौद्र च ध्यानं मुक्त्वा । आर्तरौद्रे ध्याते अनेन जीवेन चिरकालम् ॥ ११९ ॥ (झायहि धम्म सुक्कं ) ध्याय-एकाग्रेण चिन्तय । किं ? कर्मतापन्नं धर्म्य धर्मादनपेतं धयं । आज्ञापायविपाकसंस्थानलक्षणं चतुर्विधं धयं 'ध्यानमित्युमास्वामिसूचनात् । तथा श्रीगौतमस्वामिवचनाद्धयं ध्यानं दशविधं । तद्यथा। अपायविचयः १, उपायविचयः २, विपाकविचयः ३, विरागविचयः ४, लोकविचयः ५, भवविचयः ६, जीवविचयः ७, आज्ञाविचयः ८. संस्थानविचयः .९, संसारविचयश्चेति १० । तथा शुक्लध्यानं ध्याय पृथक्त्ववितर्कवीचारं १, एकत्ववितर्कावी - गाथार्थ-इस जीवने आत्तध्यान तथा रौद्रध्यान चिरकाल से ध्याये हैं अब इन्हें छोड़कर धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानका चिन्तवन । कर ॥११९|| विशेषार्थ-आत्तध्यान और रौद्रध्यान ये दोनों खोटे ध्यान हैं । यह जीव इनका चिरकाल से चिन्तवन करता आ रहा है । आचार्य कहते हैं कि मुने ! अब तू आत्तं और रौद्र इन दो ध्यानों को छोड़कर धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तवन कर। उमास्वामी के कहे अनुसार धर्म्यध्यान के आज्ञा-विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय ये चार भेद हैं तथा गौतम स्वामी के कहे अनुसार धबध्यान के दश भेद हैं जैसे १ अपाय विचय, २ उपायविचय, ३ विपाकविचय, ४ विरागविचय, ५ लोकविचय, ६ भवविचय, ७ जीवविचय, ८ आज्ञाविचय, ९ संस्थानविचय और १० संसार विचय । इनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है-जीवकी वर्तमान में दुःख-पूर्ण अवस्था है, इसका विचार करना अपाय विचय है। इस दुःखसे बचने के उपाय सम्यग्दर्शनादिका चिन्तवन करना उपाय विचय है। किस कर्मके उदय से क्या फल मिलता है ऐसा विचार करना सो विपाकविचय है। रागी जीव सदा दुःख पाता है तथा राग से हो बन्ध होता है, आत्मा का स्वभाव रागसे रहित है, ऐसा चिन्तवन करना सो विराग विचय है। यह चौदह राजू प्रमाण लोक, जीवोंसे खचाखच भरा हुआ है इसमें एक भी स्थान ऐसा नहीं जहाँ में १. "आज्ञापायविकसंस्थानविषयाय बम्य" इति सूत्रसूचनात् । For Personal & Private Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ११९] भावप्राभृतम् ५०७. चारं २, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ३, व्युपरतिक्रियानिति ४ चेति । ( अट्टरउई च झाण मुत्तूण ) आत्तं रौद्रं च ध्यानद्वयं मुक्त्वा परित्यज्य । तत्रार्तध्यानं चतुर्विधं इष्टवियोगः १, अनिष्टसंयोगः २, पीडाचिन्तनं ३, निदानं चेति ४ । रौद्रध्यानं चतुर्विधं हिसा उत्पन्न न हुआ हूँ इस प्रकार लोकका चिन्तवन करना लोक विचय है । जीवके चतुर्गति रूप भवों का विचार करना सो भवविच य है । जीवों की भिन्न भिन्न जातियोंका चिन्तवन करना सो जीव विचय है। भगवान् वीतराग सर्वज्ञ हैं, अतः उनकी वाणी में असत्यता का कुछ भी कारण नहीं है वह आज्ञा मात्र से ग्राह्य है, ऐसा चिन्तवन करना आज्ञा विचय है । लोक अथवा छहों द्रव्यों की आकृतिका चिन्तन करना यहाँ सस्थानविचय धर्म ध्यान है तथा पञ्च परावर्तनोंका स्वरूप चिन्तवन करना संसार विचय है। ___ शुक्लध्यान के चार भेद हैं-पृथक्त्व वितर्क वीचार, एकत्व वितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिति जिसमें आगम के किसी पद, वाक्य या अर्थ का तीन योगोंके आलम्बनसे चिन्तन किया जाता है वह पृथक्त्ववितर्क वीचार नामका शुक्लध्यान है। इस ध्यानमें अर्थ, व्यञ्जन (शब्द) और योगोंमें संक्रमण-परिवर्तन होता रहता है तथा यह अष्टम गुणस्थान से प्रारम्भ होकर ग्यारहवें गुणस्थान तक चलता है। जिसमें आगम के किसी पद, वाक्य या अर्थका तीन योगों में से किसी एक योगके आलम्बन से चिन्तन होता है उसे एकत्ववितर्क शक्लध्यान कहते हैं । इसमें अर्थ, शब्द और योगोंका संक्रमण नहीं होता है । जिस पद वाक्य या अर्थ को लेकर जिस योगके द्वारा ध्यान प्रारम्भ किया था उसीसे अन्तर्मुहूर्त तक चालू रहता है। यह बारहवें गुणस्थान में प्रकट होता है । तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम अन्तम'हर्त में जब मनोयोग और वचन योग पूर्णरूपसे नष्ट हो चुकते हैं तथा काय योग भी अत्यन्त सूक्ष्म दशा ‘में शेष रह जाता है तब सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नामका शुक्लध्यान प्रकट होता है और चौदहवें गुणस्थान में जब काय योग भी नष्ट हो चुकता है तथा सब प्रकार की हलन चलन रूप क्रियाएँ समाप्त हो जाती हैं तब व्युपरतक्रियानिवर्ति नामका शुक्लध्यान प्रकट होता है। धर्म्यध्यान परम्परा से और शुक्लध्यान साक्षात् मोक्षका कारण है परन्तु शुक्लध्यान का जो प्रथम पाया उपशम श्रेणीवाले जीवके होता है उसमें मोक्षकी अनिवार्य कारणता नहीं है क्योंकि ऐसा जीव मरण होनेपर स्वर्ग For Personal & Private Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ षट्प्राभूते [ ५.१२० नन्दः १, अनृतानन्दः २, स्तेयानन्दः ३, संरक्षणानन्दश्चेति ४ । (रुहट्ट झाइयाई) रौद्रा द्वे ध्याने ध्यातानि ( ध्याते ) ( इमेण जीवेण चिरकालं ) इमेन प्रत्यक्षी - भूतेन जीवेनात्मना चिरकाल अनादिकालं । धर्म्यं शुक्लं च ध्यानद्वयं न ध्यातमिति भावार्थ: । जे के वि दव्वसवणा इंदियसुहआउला ण छिति । छिदंति भावसवणा झाणकुठारेहि भवरुक्त्वं ॥ १२० ॥ येपि द्रव्यश्रवणा इन्द्रियसुखाकुला न छिन्दन्ति । छिन्दन्ति भावश्रवणा ध्यान कुठारेण भववृक्षम् ॥१२०॥ (जे के वि दव्वसवणा) ये केऽपि द्रव्यश्रवणाः शरीरमात्रेण दिगम्बरा अन्तजिनसम्यक्त्वशून्याः । ( इंदियसुहआउला णछिदति) इन्द्रियाणां स्पर्शनरसनप्राणचक्षुः श्रोत्रलक्षणानां विषयाणां सुखेषु आकुलाः । कदा उर्वोरुपरि विवक्षितवनितायाः पादौ विन्यस्य स्तनकनककलशोपरि करपल्लवी विधृत्य सुखचुम्बनमधुरपानमहं करिष्यामीति स्पशनेन्द्रियसुखलम्पटाः धृतपानपक्वान्नव्यञ्जनशाल्यन्नादिस्वादमहं आत्तंध्यान चार प्रकारका है - १ इष्ट वियोग, २ अनिष्ट संयोग, ३ पीडा चिन्तन ( वेदना जन्य ) और ४ निदान । रौद्रध्यान के भी चार भेद हैं- १ हिंसानन्द, २ मृषानन्द, ३ चोर्यानन्द और ४ संरक्षणानन्द (परिग्रहानन्द) । इन सबके अर्थं नामसे स्पष्ट हैं तथा पहले इनका विवेचन भी चुका है ॥ ११९ ॥ गाथार्थ - जो कोई द्रव्य श्रमण हैं अर्थात् शरीर मात्र से दिगम्बर हैं के तथा इन्द्रियसम्बन्धी सुखों से आकुल रहते हैं वे ध्यान रूपी कुठार द्वारा संसार रूपी वृक्षको नहीं छेदते हैं। इसके विपरीत जो भाव श्रमण हैं तथा इन्द्रिय-सम्बन्धी सुखों से निराकुल हैं वे ध्यानरूपी कुठार से संसार रूपी वृक्षको छेदते हैं ॥१२०॥ विशेषार्थ - जो मुनि अन्तरङ्ग में जिनसम्यक्त्व से शून्य हैं तथा स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों के विषय - सम्बन्धी सुखोंकी आकुलता में निमग्न रहते हैं । मुनि होनेपर भी पूर्वं संस्कार वश स्त्रियों के आलिङ्गनादि की इच्छा रखते हैं, घृत, पेय पदार्थ, पक्वान्न, अथवा धान आदि अनाज के स्वाद की अभिलाषा रखते हैं, कपूर, कस्तूरी, चन्दन, अगुरु तथा फूल आदि की सुगन्धि के सेवन की इच्छा रखते हैं, स्त्रियोंके सुन्दर अङ्गोपाङ्गों को देखने की अभिलाषा रखते हैं और वीणा For Personal & Private Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०९ -५. १२०] भावप्राभृतम् ग्रहीष्यामि, कपूरकस्तूरीचन्दनागुरुपुष्पादिपरिमलपानं विघास्यामि, स्तनजघनवदनविलोचनविलोकनं प्रणेष्यामि, वीणावंशस्वरमण्डलनवयौवनकामिनीगीतमिरं रखें श्रोष्यामीति पंचेन्द्रियविषयमाकांक्षन् व्याकुलोऽयं जीवो भवति । तत्सर्वं पूर्वमनन्तशोऽनुभूतमेव संसारे, न किमपि दुर्लभं वर्तते अन्यत्रात्मस्वरूपसमुत्पन्नसुखामृतपानात् । तथा चोक्तं अदृष्टं कि किमस्पृष्टं किमनाघ्रातमश्रुतं । किमनास्वादितं येन पुनर्नवमिवेक्ष्यते ॥१॥ तथा चोक्त अङ्ग यद्यपि योषितां प्रविलसत्तारुण्यलावण्यवद् भूषावत्तदपि प्रमोदजनक मूढात्मनां नो सताम् । 'उच्छूनहुभिः शवरतितरां कीर्णश्मशानस्थल लब्या तुष्यति कृष्णकाकनिकरो नो राजहंसब्रजः ॥ १ ॥ बांसुरी के स्वर तथा नव यौवन से युक्त स्त्रियोंके गीत मिश्रित शब्दोंको सुनने की भावना रखते हैं वे निरन्तर व्याकुल रहते हैं। पञ्चेन्द्रियों के ... ये सब विषय इस जीवने संसार में पहले अनन्त बार भोगे हैं, इन विषयों में कुछ भी दुर्लभ नहीं है यदि दुर्लभ है तो आत्मस्वरूप से समुत्पन्न सुख . . रूपी अमृत का पान करना ही दुर्लभ है । जैसा कि कहा भी है अदृष्टं-इस संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिसे इस जीवने पहले न देखा हो, न छुआ हो, न सूघा हो, न सुना हो और न खाया हो जिससे नवीनके समान दिखाई दे । ... ऐसा ही और भी कहा है... अङ्ग-यौवन और सौन्दर्य से युक्त स्त्रियोंका अलंकृत शरीर यद्यपि मूर्ख मनुष्यों के लिये आनन्द उत्पन्न करने वाला है तथापि सत्पुरुषों के लिये नहीं। क्योंकि सूजकर फूले हुए बहुत से मुर्दोसे अत्यन्त व्याप्त श्मशान को पाकर काले कौओं का समूह ही संतुष्ट होता है, राजहंसोंका समूह नहीं। ... उच्छनः म०। For Personal & Private Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० षट्प्राभृते [५. १२०तथा च समसुखशीलितमनसामशनमपि द्वेषमेति किमु कामाः। स्थलमपि दहति झषाणां किमङ्ग! पुनरङ्गमगाराः ॥१॥ इत्यमृतचंद्रः । तथा च शुभचंद्रभगवान् वरमालिङ्गिता क्रुद्धा चलल्लोलात्र सपिणी । न पुनः कौतुकेनापि नारी नरकपद्धतिः ॥ १॥ तथा च शुभचंद्रः मालतीव मृदून्यासां विद्धि चाङ्गानि योषितां । दारयिष्यन्ति मर्माणि विपाके ज्ञास्यसि स्वयं ॥ १ ॥ काकः कृमिकुलाकीर्णे करके कुरुते रतिम् । यथा तद्वद्वराकोऽयं कामी स्त्रीगुह्यमन्थने ॥२॥ तथा च सोमदेवस्वामी चूर्णिगयेन वैराग्यभावनामाहयुवजनमृगाणां बन्धायानाय इव वनितासु कुन्तलकलापः । पुनर्भवमहीरुहारोहऔर भी कहा हैसमसुख-जिनका मन समता सुखसे सम्पन्न है उन्हें भोजन भी द्वेषको प्राप्त होता है तब काम भोगोंकी बात ही क्या है ? मछलियों के लिये जब स्थल भी जलाता है तब अङ्गारों की क्या बात है ? यह अमृतचन्द्र स्वामी का वचन है। इसी प्रकार शुभचन्द्र भगवान् ने भी कहा है वरमालिङ्गिता-क्रुद्ध एवं चञ्चल नागिन का आलिङ्गन कर लेना अच्छा परन्तु कौतुक से भी स्त्रीका आलिङ्गन करना अच्छा नहीं है क्योंकि वह नरक का मार्ग है। और भी शुभचन्द्र भगवान् ने कहा है मालतीव-इन स्त्रियों के शरीर को तू मालती के समान कोमल मानता है सो भले ही मानता रह परन्तु ये विपाक काल में तेरे मर्म को विदीर्घ कर देंगे, यह तू स्वयं जान जायगा। काक-जिस प्रकार कौआ कीड़ों के समूह से व्याप्त नर पञ्जर में प्रीति करता है उसी प्रकार यह बेचारा कामी मनुष्य स्त्रीके गुह्य भागके मन्थन में प्रीति करता है। इसी प्रकार सोमदेव स्वामीने चणि गद्य द्वारा वैराग्य भावना का वर्णन किया है युवजन-स्त्रियों के शरीर में जो केशोंका समूह है वह तरुण मनुष्य For Personal & Private Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १२०] भावप्रामृतम् ५११ गोपाय इव धूलतोल्लासः । संसारसागरपरिभ्रमाय नौयुग्ममिव लोचनयुगलं । दुःखाटवीविनिपातकरमिव वाचि माधुर्य । मृत्युगजप्रलोभनकवल इवायमधरपल्लवः । स्पर्शविषकन्दोभेद इव पयोधरविनिवेशः । यमपाशवेष्टनमिव भुजलतालिङ्गन । उत्पत्तिजरामरणवत्मव बलीनां त्रयं । आलंभनकुण्डमिव नाभिमण्डलं। अखिल. गुणविलोपनखरेखेव रोमराजीविनिर्गमः । कालव्यालनिवासभूमिरिव मेखलास्थानं । व्यसनागमनतोरणमिवोरनिर्माणं । अपि च भ्रूर्षनुर्दृष्टयो वाणास्त्रिशूलं च बलित्रयम् । हृदयं कर्तरी यासां ताः कथं न नु चण्डिकाः ॥ १॥ गुणग्रामविलोपेषु साक्षाद्दीतयः स्त्रियः । स्वर्गापवर्गमार्गस्य निसर्गादर्गला इव ॥ २॥ . गूथकीटो यथा गूथे रति कुरुत एव हि । तथा स्व्यमेष्यसंजातः कामी स्त्रीविडतो भवेत् ॥ ३ ॥ रूपी मृगों को बांधने के लिये मानों जाल ही है । भ्रकुटीरूपी लता का जो उल्लास है वह पुनर्जन्म रूपी वृक्ष पर चढ़ने के लिये मानों उपाय ही है। नेत्र युगल संसार रूपी सागर में घुमाने के लिये मानों दो नौकाएँ ही हैं। वचनों की मधुरता मानों दुःख रूपी अटवी में गिराने का एक साधन ही है। स्त्रियोंका यह अधर पल्लव मृत्यु रूपी हाथी को लुभाने के लिये मानों ग्रास ही है। स्तन मण्डल स्पर्श विष ( जिसके छूनेके साथ ही मृत्यु हो जाय, ऐसा विष ) के कन्दका मानों प्रादुर्भाव हो है। भुजलता का आलिङ्गन मानों यमराजका पाश वेष्टन ही हो अर्थात् बांधने की रस्सी (लेज) ही हो । नाभिके नीचे विद्यमान तीन रेखा रूप बलित्रय मानों जन्म जरा और मरण का मार्ग ही हो। नाभिमण्डल मानों हत्याका कुण्ड हो हो । रोमराजी को उत्पत्ति मानों समस्त गणों को नष्ट करने के लिये नख को रेखा ही है। नितम्ब मण्डल मानों यम रूपी सर्प की निवास भूमि ही है और जांघों की रचना मानों दुःखोंके आगमन के लिये निर्मित तोरण ही है । और भी कहा है भूषनु-जिनकी भौंह धनुष है, दृष्टि बाण है, वलित्रय त्रिशूल है और हृदय कैंची है वे स्त्रियाँ चण्डिका कैसे नहीं हैं अर्थात् अवश्य हैं । गुणग्राम-स्त्रियां गुणोंके समूह को लुप्त करने के लिये साक्षात् दुर्नीति स्वरूप हैं और स्वर्ग तथा मोक्षके मार्गको रोकने के लिये आर्मल हैं। .... गृषकीटो-जिस प्रकार विष्ठा का कीड़ा विष्ठा में ही प्रीति करता For Personal & Private Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते [५. १२१एवमिन्द्रियसुखाकुला इन्द्रियसुखविह्वला न छिन्दन्ति भववृक्षमिति सम्बन्धः । (छिदंति भावसवणा) छिन्दन्ति द्विधाकुर्वन्ति खण्डयन्ति भववृक्षमिति सम्बन्धः । के छिन्दन्ति ? भावश्रवणा जिनसम्यक्त्वरत्नमण्डितहृदयस्थलाः । ( माणकुडारेण भवरुक्खं ) ध्यानं घHध्यानं शुक्लध्यानं च तदेव कुठारः कुठान् वृक्षान् इयति गृह,णातीति कुठारः, ध्यानमेव कुठारो ध्यानकुठारः कर्मतरुस्कन्धविदारणत्वात् । भववृक्षं संसारतरुमिति शेषः । जह दीवो गम्भहरे मारुयवाहाविवज्जिओ जलइ । तह रायाणिलरहिलो प्राणपईवो वि पज्जलई ॥१२१॥ यथा दीपः गर्भगृहे मारुतबाधाविजितो ज्वलति । तथा रागानिलरहितो ध्यानप्रदीपोऽपि प्रज्वलति ॥१२१॥ (जह दीवो गन्भहरे ) यथा दीपो ज्योतिः गर्भगृहेऽपवरके स्थितः सन् । . (माझ्यवाहाविवज्जिओ जलइ ) मारुतस्य सम्बन्धिनी मारुतोत्पन्ना वायोः संजाता, बाषा प्रचलाचिःकरणलक्षणा पीडा तस्या विवजितो ज्वलति ज्वलनक्रियां कुर्वाण उद्योतं करोति । (तह रायानिलरहिओ ) तथा रागानिलरहितो वनितालिंगनादिप्रीतिलक्षणरागानिलरहितो रागझंझावातविवर्जितो मुनानप्रदीपः प्रज्वलति-उचोतं करोति । उक्तं च है उसी प्रकार स्त्री के अपवित्र स्थान-योनि से उत्पन्न हुआ कामी पुरुष स्त्री के अमेध्य स्थान में प्रीति करता है। . इस तरह जो मुनि इन्द्रिय सुख से विह्वल हैं वे संसार रूपी वृक्षको नहीं छेदते हैं। किन्तु जो भावभ्रमण हैं जिनका हृदय सम्यक्त्वरूपी रत्नसे अलंकृत है वे धय॑ध्यान और शुक्लध्यान रूपी कुठार से संसार रूपी वृक्ष को छेदते हैं। गाचार्य-जिस प्रकार गर्भ गृहमें स्थित दीपक वायु की बाधा से रहित होकर प्रज्वलित होता रहता है उसी प्रकार राग-रूपी वायु से रहित ध्यान-रूपी दीपक भी प्रज्वलित होता रहता है ।।१२१॥ विशेषार्थ-जिस घरमें वायु का संचार नहीं होता है उसमें दीपक की लौ स्थिर होकर जलती रहती है। उसी प्रकार जिस मुनिके हृदय में राग रूपी वायुका प्रवेश नहीं होता उसमें ध्यान रूपी दीपक अच्छी तरह प्रज्वलित रहता है। इसलिये हे मुने ! अपने हृदय को राग रूपी संशा. वायुसे बचाओ। कहा भी है For Personal & Private Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१३ -५. १२२] भावप्राभृतम् जसु हिरणच्छी हियवडइ तासु न बंभु वियारि । एक्कहि केम समंति वढ ! वे संडा पडियारि ॥१॥ उक्तंच वृष्टयाकुलश्चण्डमरुझंझावातः प्रकीर्तितः । झायहि पंच वि गुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए। परसुरखेयरमहिए आराहणणायगे वीरे ॥१२२॥ ध्याय पञ्चापि गुरून् मङ्गलचतुःशरणलोकपरिकरितान् । नरसुरखेचरमहितान् आराधनानायकान् वोरान् ॥१२२॥ ( शायहि पंच वि गुरवे ) ध्याय त्वं हे मुने ! हे आत्मन् ! पंचापि अर्हत्सिदाचार्योपाध्यायसवंसाधून पंचपरमेष्ठिनः कथंभूतान् पंचापि गुरुन्, ( मंगलचउसरणलोयपरियरिए ) मंगललोकोत्तमशरणभूतानित्यर्थः । मलं पापं गालयन्ति मूलादुन्मूछयन्ति निमूलकाष कषन्तीति मंगलं । अथवा मंगं सुखं परमानन्दलक्षणं लान्ति ददतीति मंगलं । एते पंचपरमेष्ठिनो मंगलमित्युच्यन्ते । लोकेषु भूर्भुवः स्वर्लक्षपेषु उत्तमा उत्कृष्टा लोकोत्तमाः। एते पंचगुरवः सर्वेभ्योऽपि वर्या उच्यन्ते । तथा जसु-जिसके हृदय पट में मृगनयनी विद्यमान है उसके हृदय में ब्रह्मचर्य का विचार नहीं रह सकता क्योंकि अरे मूर्ख ! एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहती हैं। झंझावायुका लक्षण कोषकारों ने कहा है वृष्टयाकुल-वर्षाके साथ जो तेज वायु चलती है उसे झंझावायु कहते हैं । यहाँ आचार्य ने रागको झंझावायु की उपमा दी है। गाथार्य हे आत्मन् ! तू उन पांचों परमेष्ठियों का ध्यान कर जो चार मङ्गल, चार शरण और चार लोकोत्तम रूप हैं, मनुष्य देव और विद्याधरों से पूजित हैं, आराधनाओं के स्वामी हैं तथा कर्म रूप शत्रुओं को नष्ट करने में वीर हैं ।।१२२॥ ..विशेषार्थ-अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये पाँच परमेष्ठी हैं। ये हो पांच गुरु कहलाते हैं । ये सब मङ्गल रूप हैं, लोकोत्तम कम हैं और शरणभूत हैं । जो मम् अर्थात् पापको गला दे, जड़से उखाड़ कर नष्ट कर दे, वह मङ्गल है अथवा जो मङ्ग अर्थात् परमानन्द रूप सुखको देवे वह मङ्गल है। पञ्च परमेष्ठी इन दोनों लक्षणोंसे मक रूप हैं। ये पञ्चपरमेष्ठी अधोलोक व मध्यलोक तथा ऊवलोक For Personal & Private Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ षट्प्राभृते [५. १२२शरणं-अतिमथनसमर्था इमे पंचगुरवो जीवानां शरणं प्रतिपाद्यन्ते, चउसरणशब्देनामी, अर्हन्मंगलं अहल्लोकोत्तमाः अर्हच्छरणं । सिद्धमंगलं सिद्धलोकोत्तमा सिद्धशरणं । साधुमंगलं साधुलोकोत्तमाः साधुशरणं । साधुशब्देनाचार्योपाध्यायसर्वसाधवो लभ्यन्ते । तथा केवलिप्रणोतधर्ममंगलं धर्मलोकोत्तमाः धर्मशरणं चेति द्वादशमंत्राः सूचिताः चतुःशब्देनेति ज्ञातव्यं । एते द्वादशमंत्राः प्रणवपूर्वमायाबीजब्रह्मा तबीजाक्षरपूर्वा ललाटपट्टे गोक्षीरवर्णा लिखिताश्चिन्त्यन्ते तथा चोक्तं मंत्रद्वन्द्वे श्रवणयुगले नासिकाने ललाटे वक्त्रे नाभी शिरसि हृदये तालुनि भ्रू युगान्ते । ध्यानस्थानान्यमलभतिभिः कीर्तितान्यत्र देहे तेष्वेकस्मिन् विगतविषयं चित्तमालम्बनीयम् ॥१॥ इन तीनों लोकों में उत्तम अर्थात् उत्कृष्ट हैं । इसलिये लोकोत्तम कहलाते हैं। तथा जीवोंकी पीड़ा के नष्ट करने में समर्थ हैं इसलिये शरण कहे जाते हैं । आचार्यों ने पञ्च परमेष्ठियोंका निम्नलिखित बारह मन्त्रों में समावेश किया है १ अर्हन्मङ्गलम्, २ अर्हल्लोकोत्तमा, ३ अर्हच्छरणम्, ४ सिद्धमङ्गलम्, ५ सिद्ध-लोकोत्तमा, ६ सिद्ध-शरणम्, ७ साधु मङ्गलं, ८ साधुलोकोत्तमाः, ९ साधुशरणम्, १० केवलिप्रणीत धर्ममङ्गलं, ११ धर्म लोकोत्तमाः, १२ धर्म-शरणम् । इन बारह मन्त्रों का चत्तारि दण्डक के साथ निम्न प्रकार पाठ होता है 'चत्तारिमङ्गलं अरहंता मङ्गलं सिद्धा मङ्गलं साहू मंगलं केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा अरहंता लोगुत्तमा सिद्धालोगुत्तमा साहुलोगुत्तमा केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो । चत्तारि सरणं पवज्जामि अरहते सरणं पवन्जामि सिद्ध सरणं पवज्जामि साहुसरणं पवज्जामि केवलि पण्णत्त धम्म सरणं पवज्जामि ।' ___ इस मन्त्रों में साधु शब्द से आचार्य उपाध्याय और सर्वसाधुका ग्रहण होता है । इन मन्त्रोंको प्रणव बीज अर्थात् ॐ, माया बोज अर्थात् ह्रीं और ब्रह्मश्नुत बीज अर्थात् श्रीम् इन बीजाक्षरों के साथ गायके दूधके समान सफेद वर्ण द्वारा ललाट तट में लिख कर ध्याया जाता है । जैसा कि कहा गया है नेत्रद्वन्द्वे-निर्मल बुद्धिके धारक आचार्योंने इस शरीर में नेत्र युगल, कर्णयुगल, नासिको का अग्रभाग, ललाट, मुख, नाभि, शिर, हृदय, तालु For Personal & Private Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १२३] भावप्राभृतम् ५१५ लोयपरियरिए-लोकोत्तममंत्रसहितानित्यर्थः । तथा चानादिसिद्धमंत्रो गुरूपदेशान्मन्तव्यः । सूरिणा तु सूरिमंत्रः तिलकमंत्रो वृहल्लघुश्च निजगुरुसमीपादुपदेशात् ध्यातव्य इति भावार्थः । ( परसुरखेयरमहिए ) कथंभूतान् पंचगुरून्, नरसुरखेचरमहितान् नराणां नृपादीनां, सुराणां सौधर्मेन्द्रादीनां, खेचराणां विद्याधरचक्रवर्तिनां, महितान् अष्टविधपूजाद्रव्यर्भावपूजाभिश्च पूजितान् । पुनः कथंभूतान् पंचगुरून्, ( आराहणाणायगे ) आराधनाया नायकान् स्वामिन् इत्यर्थः । (वीरे ) वीरान् कर्मशत्रुक्षयकरणसमर्था निति भावार्थः । णाणमयबिमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण । वाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होंति ॥१२३॥ ज्ञानमयविमलशीतलसलिलं प्राप्य भव्या भावेन । व्याधिजरामरणवेदनादाहविमुक्ताः शिवा भवन्ति । (पापमयबिमलसीयलसलिल ) ज्ञानेन निवृत्तं ज्ञानमयं सम्यग्ज्ञानमेव विमलं कर्ममलकलंकरहितं. शीतलं परमाल्हादलक्षणसुखोत्पादक एतद्विशेषणत्रयविशिष्टं और भ्रकुटियुगल का अन्त भाग ये ध्यान के स्थान कहे हैं। इनमें से किसी एक स्थान में दूसरी ओरसे हटाकर चित्त को लगाना चाहिये। , इन मन्त्रोंके साथ अनादि सिद्ध मन्त्रको गुरुउपदेश से जानकर उसका ध्यान करना चाहिये । इसी तरह सूरिमन्त्र और छोटा बड़ा तिलक मन्त्र निज गुरुके पाससे प्राप्त कर उसका भी ध्यान करना चाहिये। ये पांचों 'परमेष्ठो मनुष्य देव और विद्याधर राजाओं के द्वारा पूजा की आठ द्रव्यों और भाव पूजा के द्वारा पूजित हैं। चतुर्विध आराधना के नायक हैं और कर्म रूप शत्रु ओंका क्षय करने में समर्थ हैं ।।१२२॥ - गाथार्थ-भव्य जीव, ज्ञानरूपी निर्मल जलको प्राप्त कर जिन भक्तिके प्रभावसे जरा और मरण रूप रोगको वेदना तथा दाहसे मुक्त होते हुए सिद्ध हो जाते हैं ।।१२।। विशेषार्थ जो रत्नत्रयको प्राप्त करनेकी योग्यता रखते हैं वे भव्य कहलाते हैं। ऐसे भव्य जीव, भाव अर्थात् जिन भक्ति अथवा जिनसम्यक्त्व से ज्ञान रूपी निर्मल-रागादि कर्ममल कलङ्कसे रहित और शीतल-परमाल्हाद रूप सुखके उत्पादक जलको प्राप्तकर व्याधिरूप जरा मरणको वेदना तथा दाहसे मुक्त होते हुए सिद्ध हो जाते हैं । यथार्थ में सम्यक्त्व रूपी लक्ष्मी संब सुखको देनेवाली है जैसा कि कहा - गया है For Personal & Private Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते सलिलं जलमिति रूपकं । ( पाऊण ) ज्ञानपानीयं प्राप्य लब्ध्वा । के ते, ( भवियः) रलत्रययोग्या भव्यजीवाः ( भावेण ) भावेन जिनभक्त्या । उक्तं च 'सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु । कुलमिव गुणभूषा कन्यका सपुनीता ज्जिनपतिपदपद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः ॥१॥ ( वाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होंति ) व्याधिजरामरणवेदनादाहविमुक्ताः शिवा भवन्ति । ज्ञानजलं पीत्वा ज्ञानजलमाकर्ण्य तन्मध्ये बुडित्वा तदवगाह्य परममंगलभूताः शिवाः सिद्धा भवन्ति । इति सम्यग्ज्ञानमाहात्म्यं भगवता श्रीकुन्दकुन्दाचार्येण सूरिणोद्भावित भवतीति भावार्थः । जह वीयम्मि य दड्ढे ण वि रोहइ अंकुरो य महिवीढे । तह कम्मवीयदड्ढे भवंकुरो भावसवणाणं ॥१२४॥ यथा बोजे दग्धे नैव रोहति अंकुरश्च महीपोठे। तथा कर्मबीजे दग्धे भवांकुरो भावश्रवणानां ॥१२४॥ (जह बीयम्मि य दड्ढे) यथा येनप्रकारेण बीजे दग्धे भस्मीकृते । (ण वि रोहइ अंकुरो य महिवी?) नापि नैव रोहति प्रादुर्भवति । कोऽसौ ? अंकुरः अभिनव सुखयतु-जिस प्रकार सुखकी भूमि स्त्री कामो पुरुषको सुखी करती है उसो प्रकार सुखकी भूमि तथा जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलोंको अवलोकन करने वाली सम्यग्दर्शन रूपी लक्ष्नो मुझे सुखी करे । जिस प्रकार शुद्ध शोल व्रतसे युक्त माता पूत्रको रक्षा करती है उसी प्रकार निरतिचार शोलव्रतों से युक्त सम्यग्दर्शन रूपो लक्ष्मी मेरो रक्षा करे और जिस प्रकार गुण रूपो आभूषणों से युक्त कन्या कुलका पवित्र करती है उसी प्रकार मूलगुण रूपो आभूषणोंसे सुशोभित सम्यग्दर्शन रूपो लक्ष्मो मुझे पवित्र करे । ज्ञान जल को पोकर, ज्ञान जलको सुकर और ज्ञान जलमें डूबकर भव्य जोव शिव-परममङ्गल-भूत-सिद्ध होते हैं । इस प्रकार भगवान् कुन्दकुन्द आचार्यने सम्यग्ज्ञानका माहात्म्य प्रकट किया है ।। १२३ ॥ गाथार्थ--जिस प्रकार बीजके जल जानेपर पृथिवी पर नया अंकुर उत्पन्न नहीं हाता है उसी प्रकार कर्म रूपो बोजके जल जाने पर भाव मुनिके संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता ॥१२४॥ १. रत्नकरमश्रावकाचारे। For Personal & Private Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १२५] भावप्राभूतम् उद्भिज्ज उद्भिद्, महीपीठे भूमितले । चकार उक्तसमुच्चयार्थः, तेन रागद्वेषमोहादयो भावकर्मशाखादयोऽपि न रोहन्ति । ( तह कम्मबीयदड्ढे ) तथा कर्मबीजे दग्धे भस्मीकृते । ( भवंकुरो भावसवणाणं) भवाङ्करः संसारांकुरो जन्मलक्षणो नापि रोहति न प्रादुर्भवति । केषां, भावसवणाणं सम्यग्दृष्टिनिरम्बराणां दुर्लक्ष्यपरमात्मभावनाभावितानां भेदज्ञानवतां । उक्तं च दुर्लक्ष्यं जयति परं ज्योतिर्वाचां गणः कवीन्द्राणां ।। जलमिव वजे यस्मिन्नलब्धमध्यो बहिटुंठति ॥१॥ भावसवणो वि पावइ सुक्खाई दुहाई दव्वसवणो य । इय गाउं गुणदोसे भावेण य संजुदो होइ ॥१२५॥ भावश्रवणोपि प्राप्नोति सुखानि दुःखानि द्रष्यश्रवणश्च । इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतो भव ॥१२५॥ व ॥१२५॥ विशेषार्थ-भाव मुनियोंकी महिमा बतलाते हुए कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जिस प्रकार बीजके भस्म हो जाने पर पृथिवी के पृष्ठ पर नवीन अंकुर उत्पन्न नहीं होता है उसी प्रकार कर्म रूपी बोजके भस्म हो जाने पर भाव मुनियोंके अर्थात् सम्यक्त्व सहित दिगम्बर मुद्राके धारक अथवा बड़ी कठिनाई से लक्ष्यमें आने वाले परमात्मा की भावनासे सहित भेद-विज्ञानी मुनियोंके संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता अर्थात् उन्हें फिर जन्म धारण नहीं करना पड़ता वे नियम से सिद्ध हो जाते हैं। यथार्थ में परमात्मा की भावना अत्यन्त दुर्लक्ष्य है जैसा कि कहा भी है दुर्लक्ष्य-वह दुर्लक्ष्य परम ज्योति जयवंत रहे जिसमें बड़े-बड़े कवियोंके वचनों का समूह वज्र में जलकी तरह भीतर प्रवेश न पाकर बाहर ही लौटता रहता है। ... इस गाथामें अंकुरो य के साथ जो चकार दिया है वह समुच्चयार्थक है अतः उससे यह अर्थ सूचित किया है कि द्रव्यकर्मरूपी बीजके भस्म हो जाने पर रागद्वेष मोह आदि भाव-कर्मको शाखा-प्रशाखाएं भी नहीं उत्पन्न होती हैं ।।१२४॥ गावार्थ-भाव श्रमण-सम्यग्दृष्टि मुनि सुखोंको प्राप्त होता है और द्रव्य श्रमण मिथ्यादृष्टि मुनि दुःखोंको प्राप्त करता है इस प्रकार दोनोंके गुण और दोषोंको जानकर भाव संयुक्त होओ ॥१२५।। For Personal & Private Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१.८ षट्प्राभृते [ ५.१२५ ( भावसवणो वि पावइ ) भावश्रवण: सम्यग्दृष्टि दिगम्बरोऽपिं निश्चयेन प्राप्नोति लभते । कानि प्राप्नोति ( सुक्खाइं ) निजात्मोत्थपरमानन्दलक्षणनिकुलतासहितपरमानन्तसौख्यानि ( दुहाई दव्वसवणो य ) प्राप्नोतीति दीपकोद्यतात् दुःखानि शारीरमानसागन्तुकलक्षणोपलक्षितान्यसातानि द्रव्यश्रवणो मिथ्यादृष्टिदिगम्बरः प्राप्नोति । च शब्दाद्गृहस्थोऽपि सावद्यसंयुक्तो धनपूजास्नपनरहितः पर्वोपवासकातरः चलमलिनाङ्गरहित सम्यग्दर्शनदुर्विधो व्रतातिचारभग्नपुण्यपादो दूरभव्यतया गुरुचरणनिन्दक आत्महितो न भवति । लौंकस्तु महापापी जिनप्रति माच्छेदको नारकी भवति । तथा चाक्तं - " सवं धर्ममयं क्वचित्क्वचिदपि प्रायेण पापात्मकं क्वाप्येतद्द्वयवत् करोति चरितं प्रज्ञाधनानामपि । तस्मादेतदिहान्धरज्जुवलनं स्नानं गजस्याथवा मत्तोन्मत्तविचेष्टितं न हि हितो गेहाश्रमः सर्वथा ॥ १ ॥ विशेषार्थ - जो भाव श्रमण है अर्थात् जिसने सम्यग्दर्शन के साथ दिगम्बर मुद्रा धारण को है वह निज आत्मासे उत्पन्न परमानन्द रूप निराकुलता से युक्त उत्कृष्ट अनन्त सुखोंको प्राप्त होता है और जो द्रव्य श्रमण है अर्थात् मिथ्यात्व सहित दिगम्बर मुद्राको धारण करने वाला है वह शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक दुःखों को प्राप्त होता है । 'दव्व सवणो य' यहाँ जो 'च' शब्द दिया है उससे सूचित होता है कि जो गृहस्थ भी सावद्य – पाप पूर्ण कार्योंसे सहित है, दान पूजा और अभिषेक से रहित है, पर्व के दिन उपवास करने में कायर है, सर्वथा निर्मल तो दूर रहा चल मलिन और अङ्गहीन सम्यक्त्व से भी रहित है, व्रतों में अतिचार लगने से जिसका पुण्य रूपी पैर भग्न हो गया है और दूर भव्य होने से जो गुरु चरणों की निन्दा करता है वह आत्म- हितकारी नहीं है । जिन प्रतिमा का खण्डन करने वाला लोक महापापी है और इस महापापके फलस्वरूप मरकर नरक गतिका पात्र होता है। गृहस्थाश्रम की निन्दा करते हुए कहा गया है - सर्व धर्ममयं - गृहस्थाश्रम में निर्बुद्धि मनुष्यों की बात जाने दो किन्तु प्रज्ञारूपी धनके धारक बुद्धिमान् मनुष्यों का भी समस्त चरित्र कहीं तो धर्ममय होता है, कहीं पापमय होता है और कहीं उभय रूप होता १. आत्मानुशासने । For Personal & Private Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १२६ ] भावप्राभृतम् ( इय गाउं गुणदोसे ) इति ज्ञात्वा गुणदोषान् । ( भावेण य संजुदो होह ) भावेन जिनभक्तिनिजात्मभावनापंचगुरुचरणरेणुरंजितभालस्थलः संयुतो भव । एवं सति शं सुखं तेन युक्तो भव हे मुने ! हे जोवेति सम्बोधनं । तित्थयरगणहराई अन्भुदयपरंपराई सोक्खाई। पावंति भावसहिया संखेवि जिर्णोहि वज्जरियं ॥१२६॥ तीर्थकरगणधरादीनि अभ्युदयपरम्पराणि सौख्यानि । प्राप्नवन्ति भावसहिताः संक्षेपेन जिनैः कथितं ॥१२६॥ (तित्थयरगणहराई ) तीर्थकरगणधरादीनि सौख्यानीति सम्बन्धः । तीर्थकराणां धर्मोपदेशकाले तीर्थकराः कमलोपरि पादौ न्यस्यन्ति, अशोकवृक्षच्छायायामुपविशति, तेषामुपरि द्वादशयोजनमभिव्याप्य देवाः पुष्पवर्षणं विरचयन्ति, तानि है। इसलिये गृहस्थों का चरित्र अन्धे पुरुषको रस्सी बटने के समान है अथवा हाथोके स्नानके समान है अथवा नशा में मस्त या पागल मनुष्य को चेष्टाके समान है । यथार्थ में गृहस्थाश्रम सर्वथा हितकारी नहीं है। इस प्रकार गुण और दोषों को जानकर हे मुने! तू भावसे संयुक्त हो अर्थात् जिन-भक्ति और निज आत्माकी भावनासे सहित होता हुआ पञ्च गुरुओं की चरणरज से अपने ललाटतट को सुशोभित कर। ऐसा करने से ही तू शंयुक्त अर्थात् सुखसे सहित हो सकेगा ॥१२५॥ __ गाथार्थ-भाव सहित मुनि, तीर्थंकर और गणधर आदिके अभ्युदयों की परम्परा रूप अनेक सुखोंको प्राप्त होता है ऐसा संक्षेप से जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है ॥१२६॥ ___जिनकी हृदय-स्थली सम्यक्त्व रूपी चिन्तामणि से अलंकृत है ऐसे भाव मुनि तीर्थंकर और गणधर आदिके सुखोंको प्राप्त होते हैं। धर्मोपदेश . . के समय तीर्थंकर कमलों के ऊपर पैर रखते हैं,' अशोक वृक्षकी छाया में विराजमान होते हैं, उनके ऊपर बारह योजन तक की भूमिको व्याप्त कर देव पुष्प-वर्षा करते हैं, उन पुष्पों के मुख ऊपर की ओर, बोंड़ियां नोचेकी ओर रहती हैं । ये पुष्प घुटनों पर्यन्त बरसते हैं, जब मुनियोंका आगमन होता है तब मुनियों को उनमें मार्ग मिलता रहता है, भ्रमरों से सहित होते हैं, कमल उत्पल, कैरव, इन्दीवर, राजचम्पक, जाति, मुक्तबन्धन, १. कमलों के ऊपर पैर रखना विहार के समय संगत होता है । उपदेश के समय ...तो सिंहासन पर अन्तरीक्ष पदमासन में ही विराजमान रहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० षट्प्राभृते [ ५. १२६ तु पुष्पाणि उपरि मुखानि अधोवृन्तानि अवतिष्ठन्ते, जानुपर्यंतं पतति, मुनीन मागमने मुनिपुङ्गवा मार्गं लभन्ते, भ्रमरपरीतानि कमलोत्पलकैरवेन्दीवरराजचं पंकजा - तिमुक्तबंघनाट्टहासवकुलकेतकमंदारसुन्दरनमे रुपारिजातसन्तानककल्हारशुक्लरक्तसेवत्रकमुचुकुन्दवृन्दानि पतन्ति, पंचाशल्लक्षद्वादशकोटिपटहा अपराणि च वादित्राणि वेणुवल्लकिपणवमृदंगत्रिविलतालकाहलकम्बुप्रभृतीनि संख्यातीतानि अम्ब - रचरकुमारकरास्फलितानि 'समुर्वन्तरिक्षलक्षाणि ध्वनन्ति, सजलजलधरगर्जितमिव स्वामिनो योजनैकं यावद्ध्वनिभव्यजनैराकर्ण्यते, हंसांसोज्ज्वलानि चतुःषष्ठिचामराणि पतन्त्युत्पतन्ति च, पंचशतधनुरुन्नतं सिंहविष्टरं भवति, योजनकप्रमाणं सभामभिव्याप्य कोटिभास्करयुगपदुद्यो' तिशरीरतेजो भवति, तच्च शारदेन्दुपरिपूर्णमण्डलमिव लोचनानां प्रियतमं भवति, एकदण्डानि उपर्युपरि त्रीणिच्छत्राणि मस्तकोपरि संभवन्ति । इत्यादीनि चतुस्त्रिशदतिशयपंचकल्याणादीनि जिनोत्तमानां सुखानि बाह्यानि भवन्ति, अनन्तज्ञानानन्तदर्शनानन्तवीर्यानन्तसुखानि चाभ्यन्तरसुखानि भगवतां भवन्ति । तथा भावश्रवणा ( नां ) गणधरदेवानां तीर्थंकरयुव राज्य सौख्यानि भवन्ति । ( अब्भुदयपरंपराइ सोक्खाइ ) इन्द्रपद - तीर्थंकर कल्याणत्रयलक्षणानि कल्याणपरम्पराणि सौख्यानि भावश्रवणा अभ्यन्तर अट्टास बकुल केतकी मन्दार सुन्दर नमेरू पारिजात सन्तानक कल्हार, सफेद गुलाब, लाल गुलाब और मुचुकुन्द आदि फूलोंके समूह बरसते हैं। साढ़े बारह करोड़ दुन्दुभि तथा बाँसुरी वीणा पणव मृदङ्ग त्रिविल ताल काहल और शङ्ख आदि असंख्यात बाजे देवकुमारोंके हाथोंसे ताड़ित होते. हुए पृथिवी और आकाश शब्द करते हैं। जल सहित मेघकी गर्जना के समान भगवान्की दिव्यध्वनि एक योजन तक भव्यजीवों के द्वारा सुनी जाती है। हंसके पङ्खों के समान उज्ज्वल चौंसठ चमर ढोरे जाते हैं । पांच सौधनुष ऊँचा सिंहासन होता है। एक योजन तक सभाको व्याप्त करके करोड़ों सूर्यके एक साथ फैलने वाले प्रकाशके समान भगवान् के शरीर का तेज होता है उनका वह तेज ( भामण्डल ) शरद् ऋतुके पूर्ण चन्द्रमण्डल के समान नेत्रोंको अत्यन्त प्रिय होता है । एक दण्ड अर्थात् चार हाथ की ऊँचाई वाले तीन छत्र ऊपर-ऊपर मस्तक पर लगे होते हैं । इन सबको आदि लेकर चौंतोस अतिशय तथा पञ्चकल्याणक आदि बाह्य सुख १. 'समुर्व्यन्तरिक्षलक्ष्याणि' इति पाठः सम्यक् प्रतिभाति समन्तात् उव्यंन्तरिक्षयोः पृथिव्याकाशयोः लक्ष्याणि इति तदर्थः । २. दुद्योति म० । For Personal & Private Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १२७] भावप्रामृतम् ५२१ महामुनयो भुजत इति भावार्थः । ( पार्वति भावसहिया) प्राप्नुवन्ति लभन्ते, के ते ? भावसहिता, सम्यक्त्वचिन्तामणिमण्डितमनःस्थलाः खलु दिगम्बराः ( संखेवि जिणेहि वज्जरियं ) संखेविसमासेनोक्तमिदं वचनं जिनः कथितमिति भावार्थः। ते धण्णा ताण णमो दंसणवरणाणचरणसुद्धाणं । भावसहियाण णिच्चं तिविहेण पणटुमायाणं ॥१२७॥ ते धन्यास्तेभ्यो नमः दर्शनवरज्ञानचरणशुद्धे भ्यः । भावसहितेभ्यो नित्यं त्रिविधेन प्रणष्टमायेभ्यः ॥१२७।। ( ते घण्णा ताण णमो) ते मुनिपुङ्गवा धन्याः पुण्यवन्तः तेभ्योऽस्माकं श्रीकुन्दकुन्दाचार्याणां नमो नमस्कारो भवतु नमोऽस्तु स्यात् । (दंसणवरणाणचरणसुद्धाणं ) सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यक्चरणानि शुद्धानि निरतिचाराणि येषां, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्वा ये शुद्धाः कर्ममलकलङ्करहिता दर्शनवरज्ञानचरणशुद्धा ये मुनिपुङ्गवाः तेभ्यो नमः । कथंभूतेभ्यस्तेभ्यः, ( भावसहियाण ) भावेन शुद्धात्मपरिणामेन जिनसम्यक्त्वेन च सहितानां संयुक्तेभ्यः इत्यर्थः । ननु नमःस्वस्तिस्वाहास्वषालंर्वषड्योगे चतुर्थो भवति तत्कथमत्र षष्ठीनिर्देशः सत्यं, संस्कृते तद्योगे चतुर्थी प्रोक्ता, न तु प्राकृते । कथं (णिच्च ) नित्यं सर्वकालं नमो-नमोस्तु इत्यस्य विशेषणमिदं केन कृत्वा नमः, (तिविहेण ) मनोवाक्कायलक्षणेन तीर्थंकर भगवान् के होते हैं। और अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य तथा अनन्तसुख ये आभ्यन्तर सुख तीर्थंकर भगवान् के होते हैं। भावश्रमण गणधरों के भो सुखोंको प्राप्त होते हैं, गणधर क्या हैं मानों तीर्थंकर रूप राजाके युवराज ही हैं । इसके सिवाय भावश्रमण इन्द्र पद आदि अभ्युदय को प्राप्त होते हैं। ऐसा श्री जिनेन्द्र भगवान् ने संक्षेप से कहा है ॥१२६।। गावार्थ-वे भावमुनि धन्य हैं। दर्शन ज्ञान और चारित्र से शुद्ध तथा मायाचारसे रहित उन भावमुनियों को मेरा मनवचन कायसे निरन्तर नमस्कार हो ।। १२७ ॥ विशेषार्थ-भावमुनियों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि वे भावलिंगी मुनि धन्य-भाग हैं-बड़े पुण्यशाली हैं जो निरतिचार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्वारित्र से शुद्ध For Personal & Private Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ बटुप्राभूते [ ५.१२८ नमस्कारेत्र नमो तु हास्येन । कथंभूतानां तेषां (पणट्ठमायाणं ) प्रणष्टा विनाश प्राप्ता माया परवंचना येषां ते प्रणष्टमायास्तेषां । इड्मितुलं विउव्विय किण्णरकिपुरिसअमरखयरेहि । तेहि विण जाइ मोहं जिणभावणभाविओ धीरो ॥ १२८॥ ऋद्धिमतुलां विकृतां किनरकिम्पुरुषामरखचरः । तैरपि न याति मोहं जिनभावनाभावितो धीरः ॥ १२८॥ ( इडिमतुलं विउन्त्रिय ) ऋद्धिः पूर्वोक्तलक्षणा, अतुला अनुपमा, विकुर्विता विक्रियाकृता निजतद्भवान्यभवतपोमहिमसंजाता । तथा ( किण्णरकिपुरिस अमरखयरेहि ) किन्नरैः, किम्पुरुषः अमरैः कल्पवासिप्रभृतिभिश्च विहिता ऋद्धिः । ( तेहि विण जाइ मोहं ) तैरपि किन्नरकिम्पुरुषामरखचरैरपि मोहं न याति लोभ न गच्छति । कोसी, ( जिणभावणभाविओ धीरो ) जिनभावनया निर्मलसम्यक्त्वेन भावितो वासितो धीरो योगीश्वरः । ध्येयं प्रति धियमीरयतीति धीरः । हैं, जो शुद्ध आत्म-परिणाम अथवा जिन सम्यक्त्व से सहित हैं तथा जिनका मायाचार --पर-प्रतारणाका भाव नष्ट हो चुका है उन भाव-लिंगी मुनियों को मेरा मनवचन कायसे निरन्तर नमस्कार हो ॥ १२७॥ गाथार्थ - मुनिको तप के माहात्म्य के अतुल ऋद्धियाँ स्वयं प्राप्त होती हैं और किन्नर किम्पुरुष स्वर्ग के देव तथा विद्याधर भी विक्रिया से अनेक ऋद्धियाँ दिखलाते हैं परन्तु जिनभावना से वासित घोर वीरदृढ़ श्रद्धानी मुनि उन सभी से मोह को प्राप्त नहीं होता है || १२८ || विशेषार्थ - अपने उसी भव तथा अन्य भवके तपके माहात्म्य से ' मुनिको अनेक अनुपम ऋद्धियाँ स्वयं प्राप्त होती हैं तथा किन्नर, किम्पुरुष, कल्पवासी देव और विद्याधर भी विक्रिया शक्ति से अतुल्य ऋद्धियाँ दिखलाते हैं परन्तु जो जिन-भावना अर्थात् निर्मल सम्यक्त्व से वासित है ऐसा धीर मुनि उन सबसे मोहको प्राप्त नहीं होता अर्थात् लोभके वशीभूत नहीं होता जो ध्येय - चिन्तनोय पदार्थ की ओर अपनी धी बुद्धि को प्रेरित करे वह धीर है "ध्येयं प्रति घियमीरयतीति धीरः " तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि मुनि अपने स्वरूप में सदा निःशंक रहता है, वह बाह्य प्रलोभनों में नहीं आता ॥ १२८ ॥ For Personal & Private Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १२९-१३०] भावप्राभृतम् ५२३ किं पुण गच्छइ मोहं परसुरसुक्खाण अप्पसाराणं । जाणंतो पस्संतो चितंतो मोक्ख मुणिधवलो ॥१२९॥ किं पुनः गच्छति मोहं नरसुरसुखानामल्पसाराणाम् । जानन् पश्यन् चिन्तयन् मोक्षं मुनिधवलः ।।१२९।। (किं पुण गच्छइ मोहं ) किं पुनर्गच्छति मोह लोभं । ( परसुरसुक्खाण अप्पसाराणं ) नराणां नृपादीनां सम्बन्धिनः सुराणामिन्द्रादीनां देवानां सम्बन्धिनां सौख्यानां मोहं लोभं किं गच्छति-अपि तु न गच्छति । कथंभूतानां सौख्यानां, अल्पसाराणां स्तोकप्रशस्यानां वा अल्पस्वादानामित्यर्थः । ( जाणतो पस्संतो) जानन्नपि अनुभूय दृष्ट्वा जानन्नपि, पस्संतो-पश्यन् प्रत्यक्षं चक्षुभ्यां निरीक्षमाणोऽपि । (चितंतो मोक्खमुणिधवली ) चिन्तयन्नपि विचारयन्नपि, किं ? मोक्षं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षं परमनिर्वाणसुखं अनन्तसौख्यदायकं परमनिर्वाणसुखं जानन्नपीत्यादिसम्बन्धः, मुनिघवलः मुनीनां मुनिषु वा धवलो निर्मलचारित्रभरोद्धरणधुरंधरो वृषभः श्रेष्ठ इत्यर्थः । उत्थरइ जा ण जरओ रोयग्गी जा ण डहइ देहडि । इंदियबलं न वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ॥१३०॥ आक्रमते यावन्न जरा रोगाग्निः यावन्न दहति देहकुटोम् । इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महतम् ॥१३०॥ गाथार्थ-जो सर्व कर्म-क्षयरूप मोक्षको जान रहा है, देख रहा है तथा उसाका चिन्तन कर रहा है ऐसा श्रेष्ठ मुनि, मनुष्य और देवोंके तुच्छ सुख में मोहको कैसे प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ।।१२९॥ विशेषार्थ-जो अनन्त सुखको देनेवाले मोक्षको जानता है, देखता है और चिन्तवन करता है ऐसा चारित्र के भारको धारण करने वाला - मुनि-वृषभ-श्रेष्ठ मुनि मनुष्य और देवोंके अल्प स्वाद से युक्त सुखोंके लोभको क्या फिर प्राप्त होता है ? अर्थात् नहीं होता। मोक्षके आत्मीय सुखके समक्ष विषय-जन्य अल्प-तम सुख विवेकी मनुष्यको प्रलुब्ध नहीं कर सकता है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि साधु सांसारिक सुखसे सदा निःशंक रहता है ।। १२९|| गाचार्ष-हे आत्मन् ! जबतक बढ़ापा आक्रमण नहीं करता है, ..अबतक रोग रूपी अग्नि शरीर रूपो झोपड़ी को नहीं जलाती है और For Personal & Private Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ षट्ना ते [५. १३०( उत्थरइ जा ण जरओ) आक्रमते यावन्न जरा। "छुदोत्यारोहावा आक्रमः" इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण आक्रमघातोरुत्थार इत्यादेशः । तहि उत्थारह इतीदृशं रूपं स्यात् ? प्राकृते ह्रस्वदीर्घा मिथः भवतः "अचामचः प्रायेण" इति सूत्रेण, तव नास्ति दोषः "आडो ज्योतिरुद्गमेः" इति रुचादिपाठादात्मनेपदं । अथवा उत्थारइ जा ण जरा इति च क्वचित् पाठः ( रोयग्गी जा ण उहइ देहाँड) रोगाग्निर्यावन्न दहति न भस्मीकरोति, कां ? देहकुटी शरीरपर्णशालां। ( इदियबलं न वियलइ ) इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां बलं सामर्थ्य यावत्कालं न .. विगलति । इंदियबलं न वियलं इति पाठे इन्द्रियबलं यावद्विकलं हीनं न भवति । ( ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ) तावत्त्वं हे मुनिपुङ्गव ! कुरु विधेहि, कि ? आत्महितं मोक्ष साधयेत्यर्थः । उक्तं च जब तक इन्द्रियों का बल क्षीण नहीं हो जाता है तब तक तू आत्म-हित । कर ले ॥१३०॥ विशेषार्थ-'उत्थरइ' की संस्कृत छाया आक्रमते है। आङ् उपसर्ग पूर्वक क्रम धातुके स्थान में 'छन्दोत्था रोहा वा आक्रमेः' इस प्राकृत व्याकरण के सूत्रसे उत्थार आदेश हो जाता है । 'अचामचः प्रायेण' इस प्राकृत व्याकरण सूत्रके अनुसार प्रायः ह्रस्व के स्थान में दीर्घ और दीर्घ के स्थान में ह्रस्व स्वर का प्रयोग होता रहता है, इसलिये उत्थारइ के स्थान पर उत्थरइ प्रयोग सदोष नहीं है अथवा उत्थारइ जाण जरा ऐसा भी कहीं पाठ है, अतः इस पाठमें ह्रस्व दोर्घका प्रश्न ही नहीं उठता है। 'आङो ज्योतिरुद्गमेः' इस सूत्रसे आक्रमतेमें आत्मने पदका प्रयोग हुआ है। बुढ़ापा मनुष्य के शरीरको जर्जर कर देता है, रोग रूपी अग्नि शरीर रूपी पर्णशाला को क्षणभरमें जला देती है और अन्त-अन्त तक मनुष्य की इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं, उस दशा में मनुष्य कुछ करना भी चाहता हो तो नहीं कर सकता, इसलिये आचार्य महाराज बड़े करुणाभाव से सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे मुनिपुङ्गव ! हे मुनि श्रेष्ठ ! जब तक बुढ़ापे ने आक्रमण नहीं किया है, जब तक रोग रूपी अग्निने तुम्हारे शरीर रूपी पर्णशाला को नहीं जलाया है और जब तक इंद्रियबल कम नहीं हुआ है तब तक तू आत्महित करले। आत्मा का हित मोक्ष है, उसे प्राप्त करले । यह मोक्ष मनुष्य शरीर को छोड़ अन्य शरीर से साध्य भी नहीं है । कहा भी है For Personal & Private Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १३१ ] भावप्राभृतम् 'पलितच्छलेन देहान्निर्गच्छति शुद्धिरेव तव बुद्धेः । कथमिव परलोकार्थं जरी वराकस्तदा स्मरसि || १ || आतशोकभयभोगकलत्रपुत्रं - र्यः खेदयेन्मनुजजन्म मनोरथाप्तं । नूनं स भस्मकृतधीरिह रत्नराशि - मुद्दीपयेदतनुमोहमलीमसात्मा ॥२॥ २ अश्रोत्रीव तिरस्कृता परतिरस्कारश्रुतीनां श्रुतिचक्षुर्वीक्षितुमक्षम तव दशां दूष्यामिवान्ध्यं गतं । भीत्येवाभिमुखान्तकादतितरां कायोऽप्ययं कंप 3 निःशङ्खत्वमहो प्रदीप्तभवनेऽप्यासे जराजर्जरः ४ ॥३॥ छज्जीव छडायदणं णिच्चं मणवयणकायजोएहि । कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्त ॥१३१॥ षट् जीवषडायतनानां नित्यं मनोवचनकाययोगेः । कुरु दयां परिहर मुनिवर ! भावय अपूर्वं महासत्व ! ॥१३१॥ पलितच्छलेन - हे सत्पुरुष ! जिस बुढ़ापेमें सफेद बालोंके बहाने तेरी बुद्धिकी शुद्धता ही शरीर से निकल जाती है उस बुढ़ापे में तू बेचारा परलोक के प्रयोजन का कैसे स्मरण करेगा ? आतंक - जो पुरुष, बहुत भारी मनारथों से प्राप्त मनुष्य जन्मको रोग शोक भय भोग स्त्री और पुत्रोंके द्वारा खिन्न करता है - नष्ट करता है निश्चित ही महामोह से मलिन मनको धारण करनेवाला वह पुरुष भस्मकी इच्छा से रत्नराशिको जलाता है । ५.२५ अधोत्रीव - मुझे दूसरों के तिरस्कार के शब्द न सुनने पड़ें इस इच्छा से ही मानों कान बधिर हो गये हैं । तुम्हारो इस दूषित दशाको देखने के लिये असमर्थ होनेसे ही मानों नेत्र अन्धे हो गये हैं और सामने खड़े हुए यमराज से डरकर ही मानों शरीर अत्यन्त काँप रहा है परन्तु जरा से जर्जर इस जलते हुए भवन मे तू निःशङ्क होकर बैठा है, यह आश्चर्य की बात है । गाथार्थ - हे मुनिवर ! हे महासत्व ! तू मनवचन काय इन तीनों योगों १. आत्मानुशासने । २. आत्मानुशासने । ३. निष्कम्पस्त्वं म० । ४. जराजर्जर म० । For Personal & Private Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ षट्प्राभृते [५. १३२( छज्जीवछडायदणं ) षड्जीवानां दयां कुरु, षडनायतानि परिहर कथं, ( णिच्चं ) सर्वकालं । ( मणवयणकायजोएहिं ) मनोवचनकाययोगैः। (कुरु दय परिहर मुणिवर ) हे मुनिवर मुनोनां श्रेष्ठ ! ( भावि अपुव्वं महासत्त ) भावय अपूर्व आत्मभावनं हे महासत्व महाप्रसन्नधर्मपरिणाम !।। "अभावियं भावेमि भावियं न भावेमि," इति श्रीगौतमोजत्वात् ! . दसविहपाणाहारो अणंतभवसायरे भमंतेण । भोयसुहकारणटुंकदो य तिविहेण सयलजीवाणं ॥१३२॥ दशविधप्राणाहारः अनन्तभवसागरे भ्रमता। ' भोगसुखकारणार्थ कृतश्च त्रिविधेन सकलजीवानाम् ॥१३२।। ( दसविहपाणाहारो) दशविधानां प्राणानामाहारः पंचेन्द्रियाणि मानवानां तिरश्चां च त्वया कवलितानि, मनोवचनकायलक्षणास्त्रयो बलप्राणास्त्वया हे से छह कायके जीवोंपर दया कर, छह अनायतनों का परित्याग कर और अपूर्व आत्म-तत्वकी भावना को कर ॥१३१॥ विशेषार्थ-पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और बस ये छहकाय के जीव हैं । हे मुनिवर ! तू सदा मन वचन कायसे इनपर दया कर-इनकी रक्षा कर। कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, कुगुरुसेवक, कुदेव सेवक और कुधर्म सेवक ये छह अनायतन हैंभक्ति वन्दना आदिके अस्थान हैं । हे महासत्व ! हे निर्मल धर्म परिणाम के धारक मुने ! तू इन छह अनायतनों का मन वचन काय से परित्याग कर और जिस आत्म-भावना का तूने आजतक चिन्तन नहीं किया है उसका चिन्तन कर । श्री गौतम ने भी कहा है अभावियं-जिस आत्म-स्वरूप की अब तक भावना नहीं की उसकी भावना करता हैं और जिस विषय भोग को निरन्तर भावना की उसको भावना नहीं करता हूं। गाथार्थ-हे जोव ! अनन्त भवसागर में भ्रमण करते हुए तूने भोग-सुखके निमित्त मन वचन कायसे समस्त जोवोंके दश प्राणोंका आहार किया है ॥१३२॥ विशेषार्थ-यह जीव अनादि कालसे अनन्तानन्त भव धारण कर चुका है। उन सब भवोंमें इसने अपने भोग सुखके लिये समस्त जीवोंके For Personal & Private Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १३३ ] भावप्राभृतम् ५२७ जीव ! भक्षिताः, उच्छ्वासप्राणोऽपि त्वया चविता, आयु प्राणश्चोद राग्निभाजनं कृतः । ( अणंतभवसायरे भमंतेण ) अनन्तानन्तसंसारसमुद्रे भ्रमता पर्यटता ( भोयसुहकारणट्ठ ं ) भोगसुखकारणार्थं जिह्वोपस्थसंजातसुखहेतवे । ( कदो य तिविद्वेण सयलजीवाणं ) दशप्राणानां त्वया आहारः कृतः त्रिविधेन मनसा वाचा वपुषा चेति सकलजीवानां चातुर्गतिक प्राणिनां । पाणिवहेहि महाजस घउ रासीलक्खजोणिमज्झम्मि । निरंतरं उप्पज्जतमरंतो पत्तोसि प्राणिवधेः महायशः ! चतुरशीतिलक्ष योनिमध्ये । उत्पद्यमानश्रियमाणः प्राप्तोसि निरन्तरं दुःखम् ॥ १३३॥ ( पाणिवहेहि महाजस ) प्राणिनां बधेः कृत्वा हे महायशः ! | ( चउरासीलक्ख जोणिमज्झम्मि ) चतुरशीतिलक्षयोनीनां मध्ये । ( उप्पज्जंतम रंतो ) उत्पमानो यमाणश्च । ( पत्तोसि निरंतरं दुक्खं ) प्राप्तोऽसि लब्धवानसि निरन्तरमविच्छिन्नं दुख शारीरमानसागन्तुकलचणं । चतुरशीतिलक्षयोनीनां त्रिवरणनिर्देशः पूर्वोक्त एव ज्ञातव्यः । दुक्खं ॥ १३३॥ उत्कृष्ट रूपसे शरीर को मन वचन कायसे अपना आहार बनाया है । जीवोंके पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और उच्छ्वास ये दश प्राण होते हैं । देव और नारकियों के शरीर किसी के ग्रहण में नहीं आते मात्र मनुष्य और तिर्यञ्चों के शरीर ही ग्रहण में आते हैं। आचार्य कहते हैं कि हे जीव ! इस अनन्तानन्त संसार में भ्रमण करते हुए तूने समस्त मनुष्यों और तिर्यञ्चों के पाँच इन्द्रिय रूप प्राणोंको कबलित किया है, मन, वचन, काय, रूप तीन बलोंका खाया है, श्वासोच्छ्वास प्राणको चबाया है और आयु प्राणको जठराग्निका पात्र बनाया है ओर वह भी किसलये ? सिर्फ जिह्वा और जननेन्द्रियके सुखके निमित्त । अब चेत और षट्जोवनिकाय पर दया धारण कर ॥ १३२॥ गाथार्थ - हे महायश ! उक्त प्राणिवधके कारण तू चौरासी लाख योनियों मे उत्पन्न होता हुआ, मरता हुआ निरन्तर दुःख को प्राप्त हुआ है ।। १३३ ।। विशेषार्थ - इस गाथा म पूर्वोक्त प्राणिवधका फल बताते हुए आचाय कहते हैं कि हे महायश के धारक ! मुनिवर ! प्राणि वधके कारण तूने चारासा लाख योनियों में बार बार जन्म मरण कर निरन्तर शारारिक मानसिक ओर आगन्तुक दुःख उठाया है अब सावधान होकर जोवोंकी रक्षा कर ।। १३३ ।। For Personal & Private Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ ५. १३४ जीवाणमभयदाणं देह मुणी पाणभूदसत्ताणं । कल्लाणसुहणिमित्तं परंपरा तिविहसुद्धी ॥ १३४ ॥ जीवनामभयदानं देहि मुने ! प्राणभूतसत्वानाम् । कल्याणसुखनिमित्तं परम्परा त्रिविधशुद्धया ॥ १३४ ॥ ( जीवाणमभयदाणं ) जीवानामभयदानं । ( देह मुणी पाणभूदसत्ताणं ) हे मुने ! त्वं देहि प्रयच्छ न केवलं जीवानां अभयदानं देहि-अपि तु प्राणभूतसत्वानां किमर्थमभयदानं देहि ? ( कल्लाणसुहनिमित्तं ) तीर्थंकर नामकर्मबन्धनार्थं गर्भावतारजन्माभिषेकनिष्क्रमणज्ञाननिर्वाणपंचकल्याणसुख परंपरानिमित्तं सुखश्रेणिकारणं अभयदानमित्यर्थः । ( तिविहसुद्धीए ) त्रिविधशुद्धधा मनोवचनकार्यानिर्मलतया अभयदानं देहि उक्तं च अभयदाणु भयभीरुहं जीवहं दिष्णु ण आसि । वारवारमरणहं डरहि केम्व चिराउ सुहोसि ॥ १ ॥ तथा चोक्तं 'एका जीवदयैकत्र परत्र सकलाः क्रियाः । पर फलं तु पूर्वत्र कृषेश्चिन्तामणेरिव ॥१॥ ५२८ गाथार्थ — हे मुने ! तू कल्याणक सम्बन्धी सुखकी परम्परा के निमित्त, मन वचन कायको शुद्धिसे जीव, प्राणी, भूत और सत्वोंको अभय दान दे ||१३४|| विशेषार्थ - हे जोव ! तीर्थंकर नाम कर्मका बन्ध करनेके लिये तथा उसके फलस्वरूप गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमण, ज्ञान और निर्वाण कल्याण इन पञ्च कल्याणकों-सम्बन्धी सुखकी परम्पराके निमित्त त मन वचन कायको निर्मलता से समस्त जीव प्राणी, भूत और सत्योंको अभयदान दे । अभयवाणु - हे आत्मन् ! तूने भयभीत जीवोंको अभयदान नहीं दिया इसीलिये बार बार म रजसे डर रहा है। तू दीर्घायु कैसे हो सकता है.? ||१|| और भी कहा है एका - एक ओर अकेली जीव दया और दूसरी ओर समस्त क्रियाएँ रखी जावें परन्तु उत्कृष्ट फल जीव दयाका ही होगा, उस तरह, जिस १. यशस्तिलके इति पदं नास्ति । २. सर्वत्र म०) For Personal & Private Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १३५] भावप्रामृतम् 'आयुष्मान् सुभगः श्रीमान् सुरूपः कीर्तिमान्नरः।। अहिंसावतमाहात्म्यादेकस्मादेव . जायते ॥२॥ उक्तं च द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः प्राणा भूतास्ते तरवः स्मृताः। जीवाः पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सत्वाः प्रकीर्तिताः॥१॥ असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी। सत्तट्ठी अण्णाणी वेणइया होति बत्तीसा ॥१३५॥ अशीतिशतं क्रियावादिनामक्रियाणां च भवति चतुरशीतिः । सप्तषष्टिरज्ञानिनां वैनयिकानां भवन्ति द्वात्रिंशत् ॥१३५।। ( असियसय किरियवाई ) अशीत्यग्रं शतं क्रियावादिनां श्राद्धादिक्रियामन्यमानानां ब्राह्मणानां भवति । (अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी) अक्रियावादिनां तरह कि एक ओर अकेला चिन्तामणि रत्न रखा जावे और दूसरी ओर समस्त खेती रखी जावे परन्तु उत्कृष्ट फल चिन्तामणि का ही होता है। आयुष्मान्–एक अहिंसावत के माहात्म्य से ही यह मनुष्य दीर्घायुष्क, भाग्यशाली, लक्ष्मीमान्, सुन्दर और कीर्तिमान होता है । और भी कहा हैद्वित्रि-दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार-इन्द्रिय प्राण कहलाते हैं, वनस्पतिकायिक भूत कहलाते हैं, पञ्चेन्द्रिय जीव कहलाते हैं और शेष सत्व कहलाते हैं। गाथा-क्रिया-वादियों के एकसौ अस्सी, अक्रिया-वादियों के चौरासी, अज्ञानियों के सड़सठ और वेनयिकों के बत्तीस भेद होते हैं॥१३५ ॥ · · विशेषार्थ-श्राद्ध आदि क्रियाओं को मानने वाले ब्राह्मण आदि - क्रिया-वादी हैं। इनके एकसौ अस्सी भेद हैं। इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र गच्छ में १. यशस्तिलके। २. इयं गाथा अन्यत्र त्वेवं प्रसिद्धा असिदिसर्व किरियाणं अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी। सतन्यानी वेणइणाणं तु वत्तीस ॥ ... तो गाह्मणानां'। For Personal & Private Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० षट्प्राभृते [५. १३६इन्द्रचन्द्रनागेन्द्रगच्छोत्पन्नानां तन्दुलोदककाथोदकादिसमाचारीसमायिणां श्वेतपटानां प्रायःकपटानां मायाबाहुल्यानां चतुरशीतिः संशयिनां मिथ्यात्वभेदा भवन्ति । ( सत्तट्ठी अण्णाणी ) सप्तषष्टिरज्ञानेन मोक्षं मन्वानानां मस्करपूरणमतानुसारिणां भवति । (वेणैया होंति बत्तीसा ) विनयात् मातृपितृनृपलोकादिविनयेन 'मोक्षाक्षेपिणां तापसानुसारिणां द्वात्रिंशन्मतानि भवन्ति । एवं त्रिषष्ट्यग्राणि त्रीणि शतानि मिथ्यावादिनां भवन्ति तानि त्याज्यानीत्यर्थः । १८० + ८४+ ६७ + ३२ = ३६३ । ण मुयइ पयडि अभव्वो सुठ्ठ वि 'आयणिऊण जिणधम्म । गुडदुद्धं पि पिवंता ण पण्णया णिन्विसा होति ॥१३६॥ न मुञ्चति प्रकृतिमभव्यः सुष्ठु अपि आकर्ण्य जिनधर्मम् । गुडदुग्धमपि पिबन्तः न पन्नगा निर्विषा भवन्ति ।।१३६।। (ण मुयइ पयडि अभब्वो ) न मुञ्चति प्रकृति मिथ्यात्वं अभव्यो दूरभव्यो वा लौंकादिमिथ्यादृष्टिः पापिष्ठः । ( सुठु वि आयण्णिऊण जिणधम्म ) सुष्ठ अपि आकण्यं श्रुत्वा जिनधर्म दिगम्बरशास्त्र । ( गुडदुद्धं पि पिबंता ) गुडेन मित्रं उत्पन्न, चावलों का धोवन तथा अन्य प्रासुक जल आदिको गोचरी में लेनेवाले प्रायः माया-पूर्ण व्यवहार के धारक श्वेताम्बर अक्रियावादी हैं इनके चौरासी भेद हैं । अज्ञान से मोक्ष मानने वाले मस्कर पूरण के मता. नुयायी अज्ञान-वादी हैं, इनके सड़सठ भेद हैं और माता पिता तथा राजा आदिको विनय से मोक्षकी प्राप्ति मानने वाले तापस-मतानुयायी वैनयिक हैं, इनके बत्तीस भेद हैं । चारों मिथ्या-वादियों के मिलाकर १८० + ८४ + ६७ +३२ = ३६३ तीन सौ वेशठ भेद होते हैं, ये सब भेद त्यागने योग्य हैं ॥१३५।। गाथार्थ-अभव्य जीव जिनधर्म को अच्छी तरह सुनकर भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है, सो ठीक ही है क्योंकि सांप गुड़ और दूधको पीते हुए भी निर्विष नहीं होते हैं ॥१३६।। विशेषार्थ-जिस प्रकार गुड़से मिश्रित दूधको पोने पर भी सांप अपना विष नहीं छोड़ते हैं उसो प्रकार अभव्य या दूर भव्य पापी मिथ्यादृष्टि । १. मोक्षक्षेपिणां म०। २. समयसारे 'आयण्णि ऊण जिणधम्म' इत्यस्य स्थाने 'अज्माइ ऊणसत्याणि' इति पाठः। For Personal & Private Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १३७] भावप्राभृतम् ५३१ दुग्धं गुडदुग्धं पिबन्तोऽपि । ( ण पण्णया णिन्विसा होति ) न पन्नगाः सर्पा निर्विषा विषरहिता भवन्ति संजायन्ते । तथा चोक्तं बहुसत्थई जाणियइ धम्मु ण चरइ मुणेवि । दिणयर सउ जइ उग्गमइ घूहडु अंघउ तो वि ॥१॥ मिच्छत्तछण्णदिट्ठी बुद्धी रागगहगहियचित्तेहि । धम्मं जिणपण्णत्तं अभब्वजीवो ण रोचेदि ॥१३७॥ मिथ्यात्वछन्नदृष्टिः दुर्दी रागग्रहगृहीतचित्तः। धर्म जिनप्रणीतं अभव्यजीवो न रोचयति ॥१३७॥ (मिच्छत्तछण्णदिट्ठी ) मिथ्यात्वेन छन्ना आवृता दृष्टिनिलोचनं यस्य स मिथ्यात्वच्छन्नदृष्टिः । अज्ञानी मिथ्यादृष्टिः । (दुद्धी ) दुष्टा धोर्बुद्धिर्यस्य स दुर्षीः दुबुद्धिः । ( रागगहगहियचित्तेहि ) रागग्रहगृहीतचित्तैः रागो दुर्मार्गाश्रिता प्रीतिः स एव ग्रहः पिशाचः तेन गृहीतानि चित्तानि अभिप्राया रागग्रहीतचित्तानि तैः रागग्रहगृहीतचित्तः करणभूतैः नानानयदुष्टपरिणामरित्यर्थः । (धम्मं जिणपण्णत्तं ) धर्म जिनेन के वलिना प्रणीतं । ( अभव्वजीवो ण रोचेदि ) अभव्यजीवो रत्नत्रयायोग्यो जीव आत्मा न रोचयति न श्रद्दधाति । जोव जिनधर्मको अच्छी तरह सुनकर भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं। जैसा कि कहा है बहुसत्थई-बहुत शास्त्रों को जानकर भी अभव्य जीव धर्मका आचरण नहीं करता है सो ठोक ही है क्योंकि यदि सैकड़ों सूर्य उदित होते हैं ता. भो उल्लू अन्धा ही रहता है ।।१३६॥ गाथार्थ-जिसकी दृष्टि मिथ्यात्व से आच्छादित हो रही है ऐसा दुबैद्धि अभव्य जीव रागरूपी पिशाच से गृहीत-चित्त होनेके कारण जिनप्रणोत धर्म-जैन को श्रद्धा नहीं करता ।।१३७॥ . विशेषार्थ-रत्नत्रय की प्राप्ति की योग्यता से रहित अभव्य जीवको दृष्टि सदा मिथ्यात्व से आच्छादित रहती है, उसकी बुद्धि अर्थात् विचारशक्ति दूषित रहती है तथा उसका चित्त सदा राग रूपी पिशाच से ग्रस्त रहता है, इसो कारण वह केवलि जिनेन्द्रके द्वारा उपदिष्ट जिनधर्म की अखा नहीं करता है ॥१३७॥ For Personal & Private Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ षट्प्राभृते [५. १३८कुच्छियधम्मम्मि रओ कुच्छियपासंडिभत्तिसंजुत्तो। .. कुच्छियतवं कुणंतो कुच्छियगइभायणं होई ॥१३८॥ कुत्सितधर्मे रतः कुत्सितपाषण्डिभक्तिसंयुक्तः । कुत्सिततपः कुर्वन् कुत्सितगतिभाजनं भवति ॥१३८॥ (कुच्छियधम्मम्मि रओ) कुत्सितधर्मे हिंसाधर्मे रतस्तत्परोऽनुरागवान् । ( कुच्छियपासंडिभत्तिसंजुत्तो) कुत्सिता ऋषिपत्नीपादपद्मसंलग्नमस्तका ये पार्षण्डिनो वशिष्ठदुर्वासःपाराशरयाज्ञवल्क्यजमदग्निविश्वामित्रभरद्वाजगौतमगर्गभार्गवप्रभृतय उपनिषत्प्रान्ते उक्ताश्च अतीता वर्तमानाश्च तेषां पार्षडिनां 'भक्तिसंयुक्तः करयोटनपादपतनभोजनदानादितत्परमनाः । (कुच्छियतवं कुणंतो ) कुत्सितं तपः एकपादेनोभीभूतोर्ध्वहस्तजटाधारणत्रिकालजलस्नानपंचाग्निसाधनादिकुत्सितं तपः कुर्वन् । (कुच्छियगइभायणो होइ) कुत्सितगते रकतिर्यग्योनिमलिनासुरव्यन्तरज्योतिष्ककिल्विषिकवाहनदेवादिगर्भाजनं स्थानं भवति-अनन्तसंसारी च स्यात् । "ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेत" इत्यादि कुत्सितो धर्मो ज्ञातव्यः । गाथार्थ-जो कुत्सित धर्म में अनुरागी है, कुत्सित पाषण्डियों को भक्तिसे सहित है और कुत्सित तप करता है, वह कुत्सित गतिका पात्र होता है ।।१३८॥ विशेषार्थ-जो कुत्सित धर्म-हिंसा धर्म में तत्पर रहता है, जो कुत्सित अर्थात् ऋषि होकर भी स्त्रियों के चरण कमलों में मस्तक झुकाने वाले वशिष्ठ दुर्वासा पराशर याज्ञवल्क्य जमदग्नि विश्वामित्र भरद्वाज गौतम गर्ग तथा भार्गव आदि उपनिषदों में कहे हए अतीत और वर्तमान काल-सम्बन्धी पाषण्डी साधुओं की भक्ति से सहित है-हाथ जोड़ना चरणों में पड़ना तथा भोजन देना आदि कार्योंमें तत्पर रहता है और जो कुत्सित तप अर्थात् एक पेरसे खड़े रहना, एक हाथ ऊंचा रखना, जटा धारण करना, तोनों काल में स्नान करना तथा पञ्चाग्नि तपना आदि मिथ्या तप करता है वह कुत्सित गति अर्थात् नरक तिर्यञ्च योनि, मलिन असुरकुमार व्यन्तर ज्योतिष्क किल्विषिक तथा वाहन जाति के देव आदि खोटो गतियोंका पात्र होता है-अनन्त संसारी होता है ॥१३८॥ १. भक्तिसंयुक्ताः म०। For Personal & Private Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ -५. १३९-१४०] भावप्रामृतम् इय मिच्छत्तावासे कुणयकुसत्यहि मोहिओ जीवो।। भमिओ अणाइकालं संसारे धोर चितेहि ॥१३९॥ इति मिथ्यात्वावासे कुनयकुशास्त्रः मोहितो जीवः । भ्रान्तः अनादिकालं संसारे धीर! चिन्तय ॥१३९॥ ( इय मिच्छत्तावासे ) इति अमुना प्रकारेण मिथ्यात्वावासे मिथ्यात्वास्पदे प्रायेण मिथ्यात्वभृते संसारे इति सम्बन्धः । (कुणयकुत्सत्थेहि मोहिओ जीवो) कुनयः कुत्सितनयः सर्वथकान्तरूपैः, कुशास्त्रः चतुर्वेदाष्टादशपुराणाष्टादशस्मृत्युभयमीमांसादिशास्त्रः मोहितो भ्रान्ति प्राप्तो जीव आत्मा। (भमिओ अणाइकाल) भ्रान्तोऽयं पर्यटितो जीवोऽनादिकालं उत्सपिण्यवसर्पिणीकालबहुलं ( संसारे धीर चितेहि ) हे धीर! हे योगीश्वर ! संसारे भवे भ्रान्त इति चिन्तय विचारय । पासंडी तिण्णिसया तिसट्ठिभेया उमग्ग मुत्तूण । रंभहि मणु जिणमग्गे असप्पलावेण किं बहुणा ॥१४०॥ पाषण्डिनः त्रीणि शतानि त्रिषष्ठिभेदा उन्मार्ग मुक्त्वा । रुन्द्धि मनो जिनमार्ग असत्प्रलापेन किं बहुना ॥१४॥ (पासंडी तिण्णिसया) पाषण्डिनस्त्रीणि शतानि । (तिसट्ठिभेया उमग्ग मुत्तूण ) तथा त्रिषष्ठिभेदा उन्मार्ग मुक्त्वा । ( रुंभहि मणु जिणमग्गे ) रुन्धि' गाथार्थ-इस प्रकार मिथ्यात्व के आवास स्वरूप संसार में मिथ्यानय • और मिथ्याशास्त्रों से मोहित हुआ यह जीव अनादि कालसे भटक रहा है, ऐसा हे धोर मुनि ! तू चिन्तवन कर ॥१३९।। विशेषार्थ-यह संसार अनेक प्रकार के मिथ्यात्वों का निवास स्थान है अर्थात् अनेक मिथ्यात्वों से भरा हुआ है इसमें यह जीव सर्वथा एकान्त रूप कुनय तथा चार वेद, अठारह पुराण अठारह स्मृतियाँ तथा दोनों प्रकार की मीमांसा आदि कुशास्त्रों से भ्रान्ति को प्राप्त होता हुआ अनादिकाल से लगातार भटक रहा है । हे योगीश्वर ! तू ऐसा चिन्तवन कर ॥१३९॥ गाथार्थ हे साधो ! पाषण्डियों के तीन सौ त्रेसठ उन्मार्गों-कुमार्गों को छोड़कर तू जिनमार्गमें अपना मन रोक, बहुत अधिक निरर्थक वचन कहनेसे क्या लाभ है ॥१४॥ विशेषार्थ-पाषण्डियों के तीन सौ त्रेसठ मतोंका वर्णन पहले मा कुका है। ये मत उन्मार्ग हैं अर्थात् कण्टकाकीर्ण बीहड़ पगडण्डियाँ हैं । हे For Personal & Private Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ षट्प्राभृते [ ५.१४१ मनो जिनमार्गे जिनधर्मे त्वं स्थापय । ( असप्पलावेण कि बहुणा ) असत्प्रलापेनानकेन वचसा बहुना प्रचुरतरेण कि ? न किमपीत्याक्षेपः । जीवविवको सवओ दंसणमुक्को य होह चलसवओ । सवओ लोयअपुज्जो लोउत्तरयम्मि चलसवओ ॥ १४१ ॥ जीवविमुक्तः शवः दर्शनमुक्तश्च भवति चलशवकः । शवको लोकापूज्यः लोकोत्तरे चलशवकः ।। १४१|| ( जीवविमुक्को सवओ ) जीवविमुक्तो जीवेन रहितः कायो लोके शव उच्यते । ( दंसणमुक्को य होइ चलसवओ ) दर्शनमुक्तः पुमान् सम्यक्त्वहीनो जीवश्च भवति चलशवकः कुत्सितं मृतकः । ( सवओ लोयअपुज्जो ) जीवरहितः शवको लोकानामपूज्यः, अपूज्यत्वादेव भूमौ निखन्यते, अग्निना भस्मीक्रियते वा ( लोउत्तरयम्मि चलसवओ ) लोकोत्तरे लोके जैनलोके चलसवओ सचेष्टितमृतक्वो मिथ्यादृष्टिर्मुनिः लोकोत्तराणां सम्यग्दृष्टिलोकानां अपूज्योऽमाननीयो भवति । इति भावप्राभृतस्य गोप्यतत्वं यत्सद्दृष्टिना जीवेन भवितव्यमिति । लौंकास्तु पापिष्ठा जीव ! तू इन्हें छोड़ और जिनधर्मं रूपो राजमार्ग में अपने मनको रोक । अधिक कहने से क्या लाभ है ? अर्थात् कुछ नहीं || १४० ॥ > गाथार्थ - जीव से रहित शरीर शव कहलाता है और सम्यक्त्व से रहित शरीर चलशव - चलता फिरता शव कहलाता है । शव इस लोक में अपूज्य होता है और चल शव मरण के बाद प्राप्त होनेवाले उत्तरलोक में अपूज्य होता है अथवा चलशव लोकोत्तरलोक--जैन लोक में अपूज्य होता है ॥ १४१ ॥ विशेषार्थ - शरीर का सन्मान जीवसे है जिस शरीर से जीव निकल जाता है वह शरीर शव अर्थात् मुर्दा कहलाने लगता है । इसी प्रकार मनुष्य का सम्मान सम्यग्दर्शन से है जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से रहित है वह चलशव अर्थात् चलता फिरता मुर्दा कहलाता है । शव लोक में अपूज्य माना जाता है, इसीलिये वह जमीन में गाड़ा जाता है अथवा अग्नि द्वारा भस्म किया जाता है । चलशव, मिथ्यादृष्टि मुनि है । वह लोकोत्तर अर्थात् सम्यग्दृष्टि लोगोंके अपूज्य होता है उसे कोई सन्मान नहीं देता है । अथवा लोकोत्तर का अर्थं परलोक भी होता है इसलिये दूसरा अर्थ यह भी होता है कि मिथ्यादृष्टि मनुष्य परलोक में होन दशा को प्राप्त होता है, इस प्रकार भाव प्राभृतका गोप्य तत्व यह है कि जीवको सम्यग्दृष्टि होना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १४२ ] भावप्राभृतम् ५३५ मिथ्यादृष्टयो जिनस्नपनपूजन प्रतिबन्धकत्वात् तेषां संभाषणं न कर्तव्यं तत्संभाषणे महापापमुत्पद्यते । तथा चोक्तं कालिदासेन महाकविना "निवार्यतामालि ! किमप्ययं वटुः पुनववक्षुः स्फुरितोत्तराधरः । न केवलं यो महत्तां विभाषते शृणोति तस्मादपि यः स पापभाक् ॥१॥ तेन जिनमुनिनिन्दका लौकाः परिहर्तव्याः । तथा चोक्तंखलानां कंटकानां च द्विधैव हि प्रतिक्रिया | उपानन्मुखभंगो वा दूरतः परिवर्जनम् ॥ १ ॥ जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं । अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्माणं ॥ १४२ ॥ तथा तारकाणां चन्द्रः मृगराजो मृगकुलानां सर्वेषाम् । अधिकः तथा सम्यक्त्वं ऋषिश्रावक द्विविधधर्माणाम् ॥ १४२ ॥ लक लोग जिनाभिषेक तथा जिन पूजाके निषेधक होनेसे अतिशय पापी मिथ्या दृष्टि हैं उनके साथ संभाषण नहीं करना चाहिये । उनके साथ संभाषण करनेमें महापाप उत्पन्न होता है । जैसा कि महाकवि कालिदास ने कहा है I निवार्यता - पार्वती अपनी सखी से कहती है कि सखि ! इस ब्राह्मण को यहाँ से हटाओ, इसके होठ कांप रहे हैं इसलिये जान पड़ता है कि यह फिर भी कुछ कहना चाहता है। जो महापुरुषों की निन्दा करता है, केवल वही पापी नहीं होता किन्तु जो उससे निन्दा के वचन सुनता है. वह भी पापी होता है । इसलिये जिन मुनियों की निन्दा करने वाले लोक दूर से ही छोड़ देने के योग्य हैं । कहा भी है खलानां - दुष्ट पुरुष और कांटों का प्रतिकार दो प्रकार से होता है। या तो जूतों से उनका मुख भङ्ग कर दिया जाय या दूर से छोड़ दिया जाय । . गाथार्थ - जिस प्रकार समस्त ताराओं में चन्द्रमा और समस्त वन्य१. कुमारसंभवे । २. परीक्षा करने के लिये महादेवजी एक ब्रह्मचारी का वेष बनाकर पार्वती के पास गये और महादेव की निन्दा करने लगे । पार्वती ने उसके निन्दा वचनों का समाधान किया परन्तु वह फिर भी कहने के लिये उत्सुक हुआ तब सलीके प्रति पार्वती ने उपयुक्त वचन कहे । For Personal & Private Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ षट्नाभृते [५. १४३ (जह तारयाण चंदो) यथा तारकाणां ताराणां मध्ये चन्द्रोऽधिक इति सम्बन्धः । ( मयराओ मयउलाण सव्वाणं ) मृगराजः सिंहः मृगकुलानां मध्ये सर्वेषामपि अधिकः प्रधानभूतः ( अहिओ तह सम्मत्तो) अधिकं तथा सम्यक्त्वं । केषां मध्ये सम्यक्त्वमधिकं, (रिसिसावयदुविहधम्माणं ) ऋषीणां दिगम्बराणां श्रावकाणां च देशयतीनां द्विविधधर्माणां मध्ये सम्यक्त्वमधिकं प्रधानभूतमित्यर्थः अस्य षट्प्राभृतग्रन्थस्य प्रारंभपरिसमाप्तिपर्यतं सम्यक्त्वमेव प्रशंसितमिति तात्पर्यार्थो ज्ञातव्य इति भावः। जह फणिराओ रेहइ फणमणिमाणिक्ककिरण विष्फुरिओ। तह विमलदंसणधरो जिणभत्तीपवयणे जीवो ॥१४३॥ यथा फणिराजो राजते फणमणिमाणिक्यकिरणविस्फुरितः। तथा विमलदर्शनधरः जिनभक्तिप्रवचनो जीवः ॥१४३।। (जह फणिराओ रेहइ ) यथा मणिराजो धरणेन्द्रो राजते शोभते । कथंभूतः सन् राजते, ( फणमणिमाणिक्ककिरणविप्फुरिओ) फणानां सहस्रसंख्यफटानां पशुओं में सिंह प्रधान है उसी प्रकार मुनि-धर्म और श्रावक-धर्म इन दोनों धर्मोमें सम्यक्त्व प्रधान है ॥१४२।। - विशेषार्थ-यहां उपमालंकार द्वारा आचार्य सम्यग्दर्शन को महिमा बतलाते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार चन्द्रमा समस्त ताराओं में प्रधान है और सिंह समस्त मगों के समूह में प्रधान है, उसी प्रकार सम्यक्त्व मुनि और श्रावक-दोनों धर्मों में प्रधान है, अतः सम्यक्त्व को सर्व प्रथम प्राप्त करना चाहिये। इस षट्प्राभत ग्रन्थ में प्रारम्भ से लेकर समाप्ति पर्यन्त सम्यक्त्व की ही प्रशंसा की गई है, यह इस गाथाका तात्पर्य है।। १४२ ॥ __गाथार्थ-जिस प्रकार हजार फणाओं पर स्थित मणियों के बीच में विद्यमान माणिक्य की किरणोंसे देदीप्यमान शेषनाग शोभित होता है उसी प्रकार जिनभक्ति रूप सिद्धान्त से युक्त निर्मल सम्यग्दर्शन का धारक जीव शोभित होता है ।। १४३ ।। विशेषार्थ-पद्मावती देवीका पति धरणेन्द्र नामका शेषनाग पातालसम्बन्धी स्वर्गलोक का स्वामी है। श्री भगवान् पार्श्वनाथ का उपसर्ग दूर करने के लिये उस धरणेन्द्र ने विक्रिया से एक ऐसे नागका रूप बनाया १. पं० जयचन्द्रकृत वचनिकायां 'रेहइ' स्थाने 'सोहइ' पाठो विद्यते । For Personal & Private Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १४४] भावप्रामृतम् ५३७ सम्बन्धिनो ये मणयस्तेषु मध्ये यन्माणिक्यं परागमणिः मध्यफणाया उपरि स्थितं यल्लालरत्नं तस्य सर्वोत्तमरत्नस्य ये किरणा रश्मयस्तविस्फुरितो धरणेन्द्रः शेषनागानामा पद्मावतीदेवीप्राणवल्लभः पातालस्वर्गलोकस्वामी यथा शोभते । ( तह विमलदसणधरो) तथा तेन प्रकारेण विमलदर्शनघरो निर्मलसम्यक्त्वमंडितो मुनिः श्रावको वा। (जिणभत्तीपवयणो जीवो ) जिनभक्तिरेव प्रवचनं गोप्यतत्वसिद्धान्तः, जीव आत्मा चातुर्गतिकोऽपि पंचेन्द्रियसंज्ञिजीवः शोभते । तथा चोक्तं सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजं । देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्त जसं ॥ १ ॥ जह तारायणसहियं ससहरबिंबं खमंडले विमले। भाविय तववयविमलं जिर्णालगं दंसणविसुद्धं ॥१४४॥ - यथा तारागणसहितं शशधरविम्बं खमंडले विमले । भावितं तथा व्रतविमलं जिनलिंगं दर्शनविशुद्धम् ॥१४४॥ (जह तारायणसहिय ) यथा येन प्रकारेण तारागणसहितं । ( ससहरबिंब खमंडले विमले ) शशधरबिंबं चन्द्रमण्डलं खमण्डले गगनमण्डले । कथंभूते, विमले था जिसके हजार फण थे, एक एक फण पर एक एक मणि चमक रही थी और बोच के फण पर माणिक्य अर्थात् लाल रङ्गका पद्मरागमणि देदीप्यमान हो रहा था उन सब मणियों और माणिक्य की किरणों से उस नाग को शोभा अद्भुत जान पड़ती थी उसी नागकी उपमा देते हए यहाँ आचार्य सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन करते हैं, वे कहते हैं कि जिस प्रकार उन मणियों की किरणों से शेषनाग शोभित होता है उसी प्रकार निर्मल सम्यग्दर्शन का धारक मुनि सुशोभित होता है। सम्यग्दर्शन चारों गतियों के संज्ञो पञ्चेन्द्रिय भव्य जीव को हो सकता है तथा सम्यग्दर्शनके प्रभाव से उसकी महिमा बढ़ जाती है । जैसा कि कहा है. सम्यग्दर्शन-जिसका आभ्यन्तर तेज भस्ममें छिपे हुए अङ्गारके समान देदीप्यमान है गणधरादिक, ऐसे सम्यग्दृष्टि चाण्डाल को भी देव गाथार्थ-जिस प्रकार निर्मल आकाश में तारागण से सहित चन्द्रमा का बिम्ब सुशोभित होता है उसी प्रकार निरतिचार व्रतों से सहित एवं सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध जिनलिङ्ग सुशोभित होता है ।।१४४॥ For Personal & Private Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ षट्प्राभृते [५. १४५भ्रपटलादिरहिते । ( भाविय तह वयविमलं ) तथा तेन प्रकारेण भावितव्रत व्रतमंण्डितं निरतिचारव्रतसहितं । ( जिनलिंगं देसणविसुद्ध) जिनलिंगं निर्ग्रन्थमुनिपुङ्गववेषःदर्शनेन सम्यक्त्वेन विशुद्ध निर्मलं जिनशासने शोभते इति शेषः । इय गाउं गुणदोसं दंसणरयणं धरेह भावेण । सारं गुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥१४५॥ इति ज्ञात्वा गुणदोषं दर्शनरत्नं धरत भावेन। सारं गुणरत्नानां सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥ १४५ ।। . (इय गाउं गुणदोस) इत्यमुना प्रकारेण ज्ञात्वा सम्यग्विचार्य गुणदोष, सम्यक्त्वगुणरत्नमण्डितः पुमान् गुणवान्-मिथ्यात्वेन दुषितो जीवो महापातकोति विज्ञाय । (दसणरयणं घरेह भावेण ) दर्शनरत्नं सम्यक्त्वरत्न घरत यूयं भावेन शुद्धपरिणामेन कपटं परित्यज्येत्यर्थः । ( सारं गुणरयणाणं ) सारं उत्तम गुणरत्नानां मध्ये व्रतसमितिगुप्त्यादीनां मध्ये दानपूजोपवासशीलवतादीनां च मध्ये सम्यक्त्वरत्नं सारं उत्तमं धरत मथं यं हे भव्याः !। कथंभूतं, (सोवाणं पढम मोक्खस्स ) सोपानं आरोहणं पादारोपणस्थानं पढम-प्रथमं। कस्य, मोक्षस्य सर्वकर्मक्षयलक्षणोपलक्षितस्य मोक्षप्रासादस्योपरितनभूम्युपरिगमने, सिद्धपर्यायप्रापणमित्यर्थः । विशेषार्थ-मेघपटल तथा धलि आदि से रहित आकाश निर्मल कहलाता है जिस प्रकार निर्मल आकाश में ताराओं के समह से सहित चन्द्रमण्डल सुशोभित होता है उसी प्रकार विमल अर्थात् पूर्वापर विरोध से रहित जिनशासन में निरतिचार व्रतों से युक्त एवं सम्यक्त्वसे विशुद्धनिर्दोष जिनलिङ्ग-निर्ग्रन्थ मुनिका वेष सुशोभित होता है ॥ १४४ ।। गाथार्थ-इस प्रकार गुण और दोष को जानकर हे भव्य जीवो ! तुम उस सम्यग्दर्शन रूपी रत्नको भावसे धारण करो जो कि गुणरूपी रत्नों में श्रेष्ठ है तथा मोक्ष महल की पहली सीढ़ी है ॥ १४५ ॥ विशेषार्थ-सम्यक्त्वगुणरूपी रत्न से मण्डित पुरुष गुणवान् है और मिथ्यात्व से दूषित जीव महापापी है, ऐसा जानकर हे भव्य जीवो ! तुम उस सम्यक्त्व-रूपी रत्न को भाव अर्थात् शुद्ध परिणाम से धारण करो, जो कि मुनियों की अपेक्षा व्रत समिति गुप्ति आदि गुण रूपी रत्नों के मध्य सारभूत है तथा श्रावकों को अपेक्षा दान पूजा उपवास शील व्रत आदि गण रूपी रत्नोंके बीच सर्वोत्तम है और सर्व कर्म-क्षय रूप मोक्ष महल के उपरितन भाग में जाने के लिये पहली सीढ़ी है ॥१४५॥ For Personal & Private Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३९ -५. १४६ ] भावप्राभृतम् कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य । दसणणाणुवओगो णिविट्ठो जिणवरिदेहि ॥१४६॥ कर्ता भोगी अमूर्तः शरीरमात्रः अनादिनिधनश्च । दर्शनज्ञानोपयोगः निर्दिष्टो जिनवरेन्द्रः ॥ १४६ ॥ (कत्ता भोइ अमुत्तो ) जोवशब्दः पूर्वोक्त एव ग्राह्यः । तेन जीव आत्मा कर्ता वर्तते न केवलं कर्ता पुण्यस्य पापस्य च अपि तु भोगी पुण्यस्य पापस्य च फलस्य भोक्ता आस्वादक इति व्यवहारः, निश्चयेन तु केवलज्ञानस्य केवलदर्शनस्य च कर्ता वर्तते । तथा अनन्तसुखस्य भोक्ता अनन्तवीर्यस्य च । अमूर्तो मूर्तेः शरीराद्रहित इति निश्चयः, व्यवहारेण तु कर्मबन्धप्रबन्धात् शरीरसंयुक्तत्वाच्च मूर्त इत्युच्यते । ( सरीरमित्तो अणाइणिहणो य ) शरीरमात्र शरीरप्रमाण आत्मा वतंत इति . व्यवहारः तत्सुखदुःखाद्यावेदकत्वात्, निश्चयेन तु असंख्यातप्रदेशस्वाल्लोकप्रमाणः । अनादिनिधनश्च जीवस्यादिर्नास्ति निधन विनाशश्च न वर्तते । (दसणणाणुवयोगो ) दर्शनज्ञानोपयोगः व्यवहारेण चत्वारि दर्शनानि अष्टज्ञानानि उभयाभ्यां द्विविधोपयोगः, निश्चयेन तु केवलज्ञानकेवलदर्शनाम्यां द्विविधोपयोगः गाचार्य-जिनेन्द्र देव ने जोवको कर्ता, भोक्ता, अमूर्त, शरीरप्रमाण, अनादिनिधन, तथा दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग से युक्त कहा ॥१४६॥ विशेषार्थ-यह जीव व्यवहार नयसे पुण्य पापका कर्ता है तथा पुण्य पापके फलको भोगने वाला है और निश्चयनय से केवल ज्ञान तथा केवलदर्शन का कर्ता है और अनन्तसुख तथा अनन्तवीर्यका भोक्ता है। मूर्ति अर्थात् शरीरसे रहित होनेके कारण अमूर्त है, यह निश्चय नयका कथन है और कर्मबन्ध तथा शरीर से संयुक्त होनेके कारण मूर्त है, यह व्यवहार नयका कथन है। क्योंकि आत्मा शरीर-सम्बन्धी सुख दुःख आदिका वेदन करता है इसलिये व्यवहारको अपेक्षा शरीर-प्रमाण है तथा निश्चयको अपेक्षा असंख्यात-प्रदेशी होनेसे लोक-प्रमाण है। यह जीव द्रव्य दृष्टि से अनादि अनन्त है [ और पर्यायदृष्टि से सादि सान्त है ] व्यवहार नयकी अपेक्षा चार प्रकारके दर्शनोपयोग और आठ प्रकार के ज्ञानोपयोग से सहित है। निश्चयनय की अपेक्षा केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दो उपयोगों से सहित है और परम निश्चय नयकी अपेक्षा तन्मय होने के For Personal & Private Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० ___षट्नाभृते [५. १४७परमनिश्चयेन तु आत्मा केवलज्ञानमेव तन्मयत्वात् । ( णिदिवो जिणवरिदेहि ) निर्दिष्टः प्रतिपादितः कथित आत्मा जिनवरेन्द्रः सर्वज्ञवीतरागैरिति तात्पर्यार्थः । दसणणाणावरणं मोहणियं अंतराइयं कम्मं । णिदुवइ भवियजीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो ॥१४७॥ .. दर्शनज्ञानावरणं मोहनीयमन्तरायं कर्म। निष्ठापयति भव्यजीवः सम्यग्जिनभावनायुक्तः ॥ १४७ ॥ ( दसणणाणावरणं ) दर्शनावरणं नवविध, तत्र चक्षुर्दर्शनावरणं अचक्षुर्दर्शनावरणं अवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणचेति चतुर्विधं दर्शनावरणं निद्रानिद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचला-प्रचला स्त्यानगृद्धिश्चेति पंचविधा निद्रा एवं नवविध दर्शनावरणं । मतिज्ञानावरणं श्रुतज्ञानावरणं अवधिज्ञानावरणं मनःपर्ययज्ञानावरण केवलज्ञानावरणं चेति पंचविधं ज्ञानावरणं । ( मोहणियं अंतराइयं कम्म) मोहनीयं कर्म अष्टाविंशतिभेदं, अन्तरायं कर्म पंचभेदे। तत्राष्टाविंशतिभेदं मोहनीयं कर्म यथा-तत्र त्रिविधं दर्शनमोहनीयं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वं चेति । चारित्रमोहनीयं पंचविंशतिभेदं, अकषायभेदा नव हास्यं रतिः अरति शोको भयं जुगुप्सा स्त्रोवेदः पुवेदो नपुंसकवेदश्चेति नव नोकषाया अकषाया उच्यन्ते ०७॥ कारण आत्मा केवल ज्ञानरूप ही है, ऐसा वीतराग सर्वज्ञ देवने कहा है ॥ १४६ ।। . गाथार्थ-सम्यक् जिनभावना से युक्त अर्थात् जिनसम्यक्त्व का आराधक भव्य जीव, ज्ञानावरण मोहनीय और अन्तराय कर्मका क्षय करता है ॥ १४७ ॥ विशेषार्थ-चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण ये चार दर्शनावरण तथा निद्रा, निद्रा-निद्रा प्रचला, प्रचला, प्रचला और स्त्यानगृद्धि ये पाँच निद्राएं दोनों मिलाकर दर्शनावरण कर्म नौ प्रकारका है। मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये पाँच ज्ञानावरण के भेद हैं । मोहनीय के अट्ठाईस भेद हैं जिनमें सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यगमिथ्यात्व ये तीन दर्शन मोहनीय के भेद हैं। चारित्र मोहनीय के पच्चीस भेद हैं जिनमें हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री-वेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद, ये नो कषाय अथवा अकषाय कहलाती हैं क्योंकि ये यथाख्यातचारित्र की घातक For Personal & Private Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १४८] भावप्राभृतम् ५४१ यथाख्यातचारित्रघातकत्वात् । षोडश कषायाः । तथाहि-अनन्तानुबन्धी क्रोधोऽनन्तानुबन्धी मानोऽनन्तानुबन्धिनी मायाऽनन्तानुबन्धी लोभश्चेति चत्वारः कषायाः सम्यक्त्वघातकाः पूर्वोक्तं त्रिविधं दर्शनमोहनीयं च । अप्रत्याख्यानक्रोधोऽप्रत्याख्यानमानोऽप्रत्याख्यानमायाऽप्रत्याख्यानलोभश्चेति चत्वारः कषायाः श्रावकवतघातकाः। प्रत्याख्यानक्रोधः प्रत्याख्यानमानः प्रत्याख्यानमाया प्रत्याख्यानलोभश्चेति चत्वारः कषाया महाव्रतपातकाः । संज्वलनक्रोधः संज्वलनमानः संज्वलनमाया संज्वलनलोभश्चेति चनारः कषाया यथाख्यात-चारित्रघातकाः। अन्तरायः पंचविधो दानान्तरायो लाभान्तरायो भोगान्तराय उपभोगान्तरायो वीर्यान्तरायश्चेति । एतत्सर्व कर्म (णिट्ठवइ भवियजीवो ) निष्ठापयति क्षयं नयति, कोऽसौ ? भविकजीवो भव्यजनः । ( सम्मं जिणभावणा जुत्तो ) सम्यग्जिनभावनायुक्तो जिनसम्यक्त्वाराधक इत्यर्थः। बलसोक्खणाणदसण चत्तारि वि पायडा गुणा होति । गळे घाइचउक्के लोयालोयं पयासेदि ॥१४॥ बलसौख्यज्ञानदर्शनं चत्वारोपि प्रकटा गुणा भवन्ति । नष्टे घातिचतुष्के लोकालोकं प्रकाशयति ॥ १४८ ॥ (बलसोक्खणाणदंसण ) बल चानन्तवीयं केवलज्ञानदर्शनाभ्यामनन्तानन्तद्रव्यपर्यायस्वरूपरिच्छेदकत्वलक्षणा शक्तिरनन्तवीर्यमुच्यते न तु कस्यचिद्घातकरणे . भगवान् बलं विदधाति सूक्ष्मगुणाभावप्रसक्तेः तथा चोक्तमाशापरेण महाकविना है। शेष सोलह कषाय कहलाती हैं जिनमें अनन्तानुबन्धी क्रोध मान मावा और लोभ ये चार कषाय तथा पहले कहा हुआ तीन प्रकार का पर्शनमोहनोय ये सात प्रकृतियां सम्यक्त्व का घात करने वाली हैं। बप्रत्याख्यान क्रोध मान माया और लोभ ये चार कषाय श्रावक के व्रतोंकरपात करने वाली हैं। प्रत्याख्यान क्रोध मान माया और लोभ ये चार कषाय महाव्रत की घातक हैं तथा सज्वलन क्रोध मान माया और लोभ . में पार कषाय यथाख्यातचारित्र को घातक हैं। अन्तराय पांच प्रकार है-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । सम्यग् जिन भावनासे युक्त भव्य जीव इन सब कर्मोका क्षय करता है। ... बससोक्स-सम्यग्दर्शन के प्रभाव से चार घातिया कोंके नष्ट होने पर इस जीव के बल, सुख, ज्ञान और दर्शन ये चार गुण प्रकट होते हैं तथा मक बोर अलोक को प्रकाशित करने लगता है ॥ १४८ ॥ For Personal & Private Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ षट्प्राभूते [५. १४८यद्व्याहंति न जातु किचिदपि न व्यावहन्यते केनचिद् । यन्निष्पीतसमस्तवस्त्वपि सदा केनापि न स्पृश्यते । यत्सर्वज्ञसमक्षमप्यविषयस्तस्यापि चादिगिरां । . तद्वः सूक्ष्मतमं 'स्वतत्वमभया भाव्यं भवोच्छित्तये ॥१॥ तथा अनन्तसौख्यं भगवतः सिद्धस्य भवति तदप्यनन्तज्ञानगुणसद्भावात् परमानन्दोत्पत्तिलक्षणं वस्तुस्वरूपपरिच्छेदकत्वमेव वेदितव्यं । तथा चोक्तं विमानपंक्त्युपाख्यानपर्यन्ते । तथा हि शास्त्रं शास्त्राणि वा ज्ञात्वा तीवं तुष्यन्ति साधवः । सर्वतत्वार्थविज्ञाना न२ सिद्धाः सुखिनः कथं ॥ विशेषार्थ-यहाँ बलका अर्थ अनन्त वीर्य है। केवलज्ञान और केवलदर्शनके द्वारा अनन्तानन्त द्रव्य और उनके पर्यायोंके स्वरूप को जाननेकी जो शक्ति है वह अनन्तवीर्य कहलाती है। भगवान् किसी का व्याघात करने में अपने बलका प्रयोग नहीं करते अन्यथा उनके सूक्ष्मत्व गुणके अभाव का प्रसङ्ग आ जायगा। जैसा कि महाकवि आशाधर जी ने कहा है यव्याहन्ति-जो कभी किसी का व्याघात नहीं करता और न कभी किसी के द्वारा व्याघात को प्राप्त होता है। जो समस्त वस्तुओं के आकार को सदा स्वयं निष्पीत किये हैं अर्थात् अपने आपमें प्रतिबिम्बित किये है परन्तु स्वयं किसी अन्यके द्वारा स्पृष्ट नहीं होता। जिसे सर्वज्ञ प्रत्यक्ष जानते हैं तो भी जो वाणीका विषय नहीं है वह अत्यन्त सूक्ष्म तत्व ही तुम्हारा निजका तत्व है। हे सप्तभय से रहित सम्यग्दृष्टि पुरुषों! संसारका उच्छेद करने के लिये तुम उसीका चिन्तवन करो। इसी प्रकार सिद्ध परमेष्ठी के जो अनन्त सुख नामका गुण है वह भी अनन्त ज्ञान गुण के सद्भाव से परमानन्द की उत्पत्ति रूप वस्तु स्वरूप को जानने की जो योग्यता है तद्प ही जानना चाहिये। जैसा कि विमान पंक्तिव्रत की कथाके अन्त में कहा गया है शास्त्रं-जब एक या चार छह शास्त्रोंको जानकर साधु अत्यन्त संतुष्ट होते हैं-सुखी होते हैं, तब समस्त तत्वार्थ को जानने वाले सिद्ध भगवान् सुखी क्यों नहीं होंगे ? अवश्य होंगे ॥१॥ १. मभवा म०। २. विज्ञान म For Personal & Private Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४३ ५. १४८] भावप्राभृतम् चक्रिणां कुरुजातानां नागेन्द्राणां मरुत्वताम् । अनन्तगुणितं सौख्यमुत्तरोत्तरवतिनां ॥२॥ तस्त्रिकालभवात् सौख्यादनन्तगुणितं सुखं । सिद्धानां तु क्षणार्धेन ते वो यच्छन्तु तच्छिवं ॥३॥ तथा ज्ञानं केवलज्ञानं लोकालोकवस्तुपरिज्ञायकं, दर्शनं चानन्तदर्शनं ज्ञानक्षण एव वस्तुसत्तास्वरूपेण ग्रहणलक्षणं बोद्धव्यं ( चत्तारि वि पायडा गुणा होति ) चत्वारोऽपि गुणाः प्रकटा भवन्ति । कस्मिन् सति, ( णट्ठ घाइचउक्के ) नष्टे विनाशं प्राप्ते घाइचउक्के-मोहज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायात्मकेवलज्ञानसाम्राज्यविध्वंसकारके कर्मशत्रुचतुष्टये । (लोयालोयं पयासेदि ) लोकालोकं प्रकाशयति । लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवपुद्गलधर्माधर्मकालाकाशा यस्मिन्निति लोकः । ते न चक्रिणां-चक्रवर्ती, भोगभूमिज, मनुष्य, नागेन्द्र और देव इनके उत्तरोत्तर अनन्त-गुणा सुख होता है ।।२।। तस्त्रिकाल-और इन सबको तीनकालमें जितना सुख होता है उससे अनन्त गुण सुख सिद्ध भगवान् को आधे क्षण में प्राप्त होता है । वे सिद्ध भगवान् तुम सबको मोक्ष प्रदान करें ॥३॥ - इसी प्रकार ज्ञान शब्द से लोक तथा अलोककी वस्तुओंको जानने वाला केवलज्ञान लेना चाहिये और दर्शन शब्द से अनन्त दर्शन अर्थात् केवल-दर्शनका ग्रहण करना चाहिये। यह केवलदर्शन ज्ञानके साथ ही वस्तुके सत्ता स्वरूपको ग्रहण करनेवाला होता है। मोह, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय ये चार कर्म, आत्माके केवलज्ञान रूप साम्राज्य का विध्वंस करने वाले कर्म शत्रु हैं । इनका क्षय होनेपर ही ऊपर कहे हुए केवल ज्ञानादि गुण प्रकट होते हैं। जिसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, बाकाश और काल ये छह द्रव्य दिखाई देते हैं-वह लोक है और जिसमें सब ओर अनन्तानन्त जीव आदि पदार्थ नहीं दिखाई देते हैं वह अलोक १. त्रिलोकसारस्य निम्नाङ्किताः गाथा एतेषां श्लोकानां मूलाधारः प्रतीताः एवं सत्यं सव्वं सत्यं वा सम्म मेत्थ जाणंता । तिव्वं तुस्सति गरा कि ण समत्थत्थतच्चव्हा ॥१॥ सक्कि कुरु फणि सुरिंदे सह मिदेजं सुहं तिकालभवं । ततो अणंत गुणिदं सिद्धाणं राणसुई होदि ॥२॥ For Personal & Private Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पप्रामृते [५.१४९- . लोक्यन्ते न दृश्यन्ते यस्मिन् संसारे सर्वतोऽनन्तानन्तजीवादयः पदार्थाः सोऽलोकः' . लोकश्चालोकश्च लोकालोकस्तं लोकालोकं प्रकाशयति जानाति पश्यति चेत्यर्थः । णाणी सिव परमेट्ठी सव्वण्हू विण्हु चइमुहो बुद्धो। अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुक्को य होइ फुडं ॥१४९॥ ज्ञानी शिवः परमेष्ठी सर्वज्ञो विष्णुः चतुर्मुखो बुद्धः । । आत्मापि च परमात्मा कर्मविमुक्तश्च भवति स्फुटम् ।।१४९।। . . . सम्यग्दर्शनप्रभावेणायं संसारी जीवः सिद्धो भवतीति न केवलं भवतीत्यपि शब्दस्यार्थः। स सिद्धः कथंभूतः तस्य नाममालां प्रतिपादयन्नाह भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यः-( णाणी सिव परमेट्ठी ) ज्ञानी शानमनन्तकेवलज्ञान विद्यते यस्य स भवति ज्ञानी। शिवः परमकल्याणभूतः शिवति लोकाग्रे गच्छतीति शिवः । 'नाम्युपधप्रीकृगृज्ञां कः" । परमेष्ठी इन्द्रचन्द्रधरणेन्द्रवंदित पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी । औणादिकोऽयं प्रयोगः । ( सव्वण्हू विण्हू चउमुहो बुद्धो) सर्व लोकालोकं जानाति वेत्तीति सर्वज्ञः । वेवेष्टि केवलज्ञानेन लोकालोक व्याप्नोतिति विष्णुः "विषेः किच्च" इत्यनेन युप्रत्ययः स च कित् कानुबन्धत्वान्न गुणः । चतुहै। पातिचतुष्क के नष्ट होने पर यह जीव लोक और अलोक को प्रकाशित करने लगता है अर्थात् जानने देखने लगता है ॥१४८॥ गाथार्थ-सम्यग्दर्शन के प्रभाव से यह संसारी जीव भी ज्ञानी, शिव, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुख, बुद्ध और परमात्मा हो जाता है तथा निश्चय-पूर्वक कर्मों से मुक्त हो जाता है ॥१४९। विशेषार्व-सम्यग्दर्शनके प्रभावसे यह संसारी जीव सिद्ध हो जाता है, मात्र इतनी ही बात नहीं है किन्तु सर्वज्ञ आदि भी होता है, यह अपि शब्दका अर्थ है। वह सिद्ध कैसा होता है ? उसको नामावली का प्रतिपादन करते हुए श्री भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं-वह सिद्ध ज्ञानी है अर्थात् अनन्त-केवलज्ञानसे युक्त होनेके कारण ज्ञानी है। परम कल्याण भूत होनेसे शिव है अथवा 'शिवति लोकाग्रे गच्छंतीति शिवः' इस व्युत्पत्ति से लोकाग्र को प्राप्त होनेसे शिव है। शिव शब्द में 'नाभ्युपधप्रोकृगृज्ञां कः' इस सूत्र से क प्रत्यय हुआ है। इन्द्र चन्द्र तथा धरणेन्द्र से वन्दित परम पद-उत्कृष्ट पदमें स्थित होनेसे परमेष्ठो हैं। परमेष्ठी शब्द उणादि प्रकरण से सिद्ध होता है। समस्त लोकालोक को १. पदार्थाश्यालोकः म००। For Personal & Private Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४५ -५. १५०] भावप्राभृतम् मुखः भूतपूर्वनयापेक्षया चतुर्मुखः चतुर्विक्षुसर्वसम्यानां सन्मुखस्य दृश्यमानत्वात् सिद्धावस्थायां तु सर्वत्रावलोकनशीलत्वात् चतुर्मुखः । बुदधते सर्व जानातीति बुद्धः । "ञ्यनुबन्धमतिबुद्धिपूजार्थेभ्यः क्तः" इत्यनेन सूत्रेण वर्तमानकाले क्तप्रत्ययः । ( अप्पो वि य परमप्पो ) आत्मापि च संसारी जीवोऽपि च परमात्मा अहंन सिद्धश्च भवति । कथंभूतः सिद्धः, ( कम्मविमुक्को य होइ फुडं ) कर्मभ्यो विमुक्तो रहितो भवति संजायते स्फुटं निश्चयेनेति शेषः। एतत् सम्यग्दर्शनस्य महान् महिमा ज्ञातव्य इति भावार्थः । इय घाइकम्ममुक्को अट्ठारहदोसवजिओ सयलो। तिहुवणभवणपदीवो देउ सम उत्तमं बोहि ॥१५॥ इति घातिकर्यमुक्तः अष्टादशदोषवज्जितः सकलः । त्रिभुवनभवनप्रदीपः ददातु मह्यमुत्तमं बोधम् ॥१५०॥ ( इय घाइकम्ममुक्को ) इति पूर्वोक्तलक्षणघातिकर्मभ्यो मुक्तः । ( अट्ठारहदोसवज्जिो सयलो ) अष्टारशदोषवजितो रहितः, सकलः सह कलया शरीरेण वर्तते इति सकलः तेन तस्य धर्मोपदेशोऽपि घटते शरीरसंयुक्तपरमाप्तत्वात् । एते. नेदं वचनं प्रत्युक्तं भवतिजानता है इसलिये सर्वज्ञ है। केवलज्ञानके द्वारा लोकालोक को व्याप्त करता है इसलिये विष्णु है। विष्णु शब्द में 'विषेः किच्च' इस सूत्र से नु प्रत्यय हुआ है तथा कित् होनेके कारण गुण नहीं हुआ है। भूतपूर्व नयकी अपेक्षा अर्थात् समवशरण में चारों दिशाओं में बैठे हुए सभ्यों को सन्मुख दर्शन होते थे इस विवक्षासे चतुर्मुख कहलाता है और सिद्धावस्था में सब ओर के पदार्थों को जानता देखता है इसलिये चतुर्मुख कहलाता है । समस्त पदार्थों को जानता है इसलिये बुद्ध है। बुद्ध शब्द में 'ज्यनुबन्ध-मति-बुद्धि-पूजार्थेभ्यः क्तः' इस सूत्र से वर्तमान काल में क्त प्रत्यय हुआ है। अर्हन्त और सिद्ध होनेसे परमात्मा कहलाता है तथा निश्चय से ज्ञानावरणादि कर्मोसे विमुक्त होता है। यह सब सम्यग्दर्शन की महान् महिमा जानना चाहिये ॥१४९॥ ___ गावा-इस प्रकार जो घातिया कर्मोंसे मुक्त हो चुके हैं, अठारह दोषों से रहित हैं तथा तीन लोक रूपी भवन को प्रकाशित करने के लिये श्रेष्ठ दीपक के समान हैं वे सकल अर्थात् परमौदारिक शरीरके धारक अर्हन्त भगवान् मुझे उत्तम ज्ञान-केवलज्ञान देवें ॥१५०॥ - विशेषार्थ-अर्हन्त भगवान् पूर्वोक्त चार घातिया कोसे रहित हैं। अठारह दोषों से रहित हैं और सकल अर्थात् कला-परमौदारित शरीर For Personal & Private Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते 'अदृष्टविग्रहाच्छान्ताच्छिवात्परमकारणात् । नादरूपं समुत्पन्नं शास्त्रं परमदुर्लभं । अशरीरस्य शास्त्रोत्पत्तिर्न संगच्छते कूर्म रोमवत् बंध्यास्तनन्धयवत् शशविषा - णवत् विष्णुपदलतांतवत् मरुमरोचिकोदकवत् " अष्टौ स्थानानि वर्णानां " इति शब्दानां करणकारणत्वात् । ( तिहुवणभणवपईवो ) त्रैलोक्यगृहस्य दीपः प्रद्योतकः त्रिभुवनप्रदीपः । ( देउ मम उत्तमं बोहं ) ददातु मम मह्यं उत्तमं बोषं केवलज्ञानं । इतीष्टप्रार्थना श्रीकुन्दकुन्दाचार्याणां शास्त्रकरणस्य फलाभिलषित्वात् । अथ के ते अष्टादश दोषा इति चेदुक्ता अप्युच्यन्ते ५४६ क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मान्तकभयस्मयाः । न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः सः प्रकीर्त्यते ॥ १ ॥ से सहित हैं । यहाँ सकल विशेषण देने से अर्हन्त भगवान् के शरीर संयुक्त परमात्म-पना प्रकट किया है इसीसे उनके धर्मोपदेश भी घटित हो जाता है । अर्हन्त परमेष्ठी को शरीर सहित मान लेनेसे निम्नाङ्कित कथन खण्डित हो जाता है १. यशस्तिलके । अदृष्ट - 'जिसका शरीर अदृष्ट है, जो शान्त है तथा जो परम कारण रूप है, उस शिव से परम दुर्लभ नाद रूप शास्त्र उत्पन्न हुआ है।' जिस प्रकार कछुए से रोम की, बन्ध्या से पुत्रकी, शश से सींग को, आकाश से पुष्प को और मृगमरीचिका से जल की उत्पत्ति असंगत है उसी तरह शरोर-रहित शिव से शास्त्र की उत्पत्ति असंगत है। क्योंकि, अष्टौ स्थानानि वर्णानाम् वर्णों की उत्पत्ति कण्ठ तालु आदि आठ स्थानों से होती है, इस नियम के अनुसार शब्दों की उत्पत्ति का कारण करण शरीर ही हो सकता है । अर्हन्त भगवान् तोन लोक रूपी घर को प्रकाशित करनेके लिये उत्तम दीप-स्वरूप हैं | श्री कुन्दकुन्दाचार्य शास्त्र - रचना के फलकी अभिलाषा रखते हुए इष्ट प्रार्थना करते हैं कि वे अरहन्त भगवान् मेरे लिये उत्तम ज्ञान- केवलज्ञान प्रदान करें । अब उन अठारह दोषोंको कहते हैं जो अरहन्त भगवान् में नहीं होते । क्षुत्पिपासा - भूख, प्यास, बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, राग रत्नकरण्ड श्रावकाचारे । [ ५.१५० For Personal & Private Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४७ -५. १५१] भावप्राभृतम् __चकाराच्चिन्ताऽरतिनिद्राविषादस्वेदखेदविस्मया गृह्यन्ते । निर्दोषपरमाप्तविचारोऽष्टसहस्रोन्यायकुमुदचन्द्रोदयप्रमेयकमलमार्तण्डाप्तपरीक्षातत्वार्थराजवातिकतत्वार्थश्लोकवार्तिकन्यायविनिश्चयालङ्कारादिषु महाशास्त्रेषु विस्तरेण ज्ञातव्यः । जिणवरचरणंबुरुहं णमंति जे परमभत्तिराएण। ते जम्मवेल्लिमूलं खणंति वरभावसत्थेण ॥१५१॥ जिनवरचरणाम्बुरुहं नमन्ति ये परमभक्तिरायेण । ते जन्मवल्लीमूलं खनन्ति वरभावशस्त्रेण ॥१५१॥ (जिणवरचरणंबुरुह ) जिनोऽनेकविषमभवगहनव्यसनप्रापणहेतून कर्मारातीन् जयतीति जिनः "इणजिकृषिभ्यो 'नक्"। जनश्चासौ वरः श्रेष्ठो जिनवरः । अथवा जिनानां गणघरदेवादीनां मध्ये वरः श्रेयस्करो जिनवरस्तस्य चरणावेवाम्बुरहं जिनवरचरणाम्बुरुहं श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागपादपद्म । ( णमंति जे परम द्वेष, मोह और चकार से संगृहीत चिन्ता अरति निद्रा विषाद पसीना खेद और आश्चयं ये अठारह दोष जिसमें नहीं होते हैं वह आप्त कहा जाता है। निर्दोष आप्त का विचार अष्ट-सहस्री, न्याय कुमुदचन्द्रोदय, प्रमेयकमलमार्तण्ड, आप्तपरीक्षा, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक तथा न्यायविनिश्चयालङ्कार आदि शास्त्रों में विस्तारसे जानना चाहिये ॥१५०॥ गाथार्थ-जो उत्कृष्ट भक्तिसम्बन्धी रागसे जिनेन्द्रदेवके चरण कमलों को नमस्कार करते हैं वे उत्तम भाव रूपी शस्त्रके द्वारा संसाररूपी लताके मूलको उखाड़ देते हैं ॥१५१॥ विशेषार्थ-'जयतीति जिनः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो संसार रूपी संघन वन में अनेक विषय कष्टोंको प्राप्त कराने वाले कर्मरूपी शत्रुओं को जीतता है वह जिन कहलाता है। 'इण् जिकृषिभ्योनक्' इस सूत्र से 'ज़ि जये' धातु से नक् प्रत्यय होने पर जिन शब्द सिद्ध होता है। जो जिन होकर श्रेष्ठ है वह जिनवर है अथवा जिन शब्द से गणधर देव आदिका ग्रहण होता है उनमें जो वर-श्रेष्ठ है वे जिनवर-तीर्थंकर परमदेव कहलाते हैं । उन तीर्थंकर सर्वज्ञ अर्हन्त देवके चरण कमलों को निकट भव्य जीव परमभक्ति रूप अनुराग अर्थात् अकृत्रिम स्नेह से नमस्कार १. इत्यनेन जि जये न इत्यस्य धातोर्नगादेशः क इत् कित्वान्नैङ् । For Personal & Private Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते [ ५.१५२ भत्तिराएण ) नमन्ति नमस्कुर्वन्ति ये आसन्नभम्याः परमभत्तिरागेण परमभक्त्यनुरागेणाकृत्रिमस्नेहेन । ( ते जम्मबेल्लिमूलं ) ते पुरुषा जन्मवल्लीमूलं खनन्तीति सम्बन्धः, जन्मैव वल्ली संसारवीत् अनन्तानन्तप्रसारत्वात् तस्या मूलं कन्दं वनंति उत्पाटयन्ति उद्धरन्ति समूलकार्ष कषन्तीत्यर्थः मोहस्य विच्छेदकत्वात्, संसारवल्लीमूलं मिथ्यात्वमोहः तस्यः मूलं खनन्ति सम्यग्दृष्टयो भवन्ति । उक्तं च श्रीभोजराजमहाराजेन ५४८ 'सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुमंगलाय दृष्टव्यमस्ति यदि मंगलमेव वस्तु । अन्येन किं तदिह नाथ ! तवैव वक्त्रं त्रैलोक्यमंगल निकेतनमीक्षणीयं ॥ "1 ( खणंति वरभावसत्येण ) सनन्ति निमूलकाषं कर्षान्ति, केन कृत्वा ? वरभावशस्त्रेण विशिष्टभावनाकुद्दालेन द्रात्रादिना वा । जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलणिपत्तं सहावपयडीए । तह भावेण ण लिप्प कसायविसएहि सम्पुरिसो ॥ १५२ ॥ यथा सलिलेन न लिप्यते कर्मालिनोपत्रं स्वभावप्रकृत्या । तथा भावेन न लिप्यते कषायविषयः सत्पुरुषः ॥ १५२॥ (जह सलिलेण ण लिप्पइ ) यथा येन प्रकारेण सलिलेन जलेन न लिप्यते न स्पृश्यते । किं तत्कर्मतापन्न, ( कमलणिपत्तं सहावपयडीए) कमलिनीपत्रं पद्मनीच्छदः स्वभावप्रकृत्या निजस्वभावेन । (तह भावेण ण लिप्पइ) तथा तेन प्रकारेण करते हैं वे जन्मवल्ली अर्थात् संसार रूपी लता के मूल को - जड़को खोद डालते हैं । संसार रूपी लता का मूल मिथ्यात्व रूप मोह है उसे जो विशिष्ट भावना रूपी कुदालो के द्वारा खोदते हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं । जैसा कि भोज महाराज ने कहा है सुप्तोत्थितेन - सोकर उठे हुए सत्पुरुष को यदि सुमङ्गल के कोई माङ्गलिक वस्तु देखने योग्य है तो हे नाथ ! और दूसरी वस्तु की क्या आवश्यकता है ? उसे तीन लोक के मङ्गलोंका घर स्वरूप आपके श्री मुखका ही दर्शन करना चाहिये । गाथार्थ - जिस प्रकार कमलिनी का पत्ता स्वभाव से ही जलसे लिप्त नहीं होता उसी प्रकार सत्पुरुष - सम्यग्दृष्टि मनुष्य स्वभाव से ही कषाय और विषयों से लिप्त नहीं होता ॥ १५२॥ १. जिन चतुरविशतिका स्तोत्रे भृपाल कबेः । २. न लिप्पड़ क० ६० । For Personal & Private Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५. १५३ ] ५४९ भावेन जिनचरणकमलभक्तिलक्षणसम्यक्त्वेन करणभूतेन कृत्वा । कैः कर्तृभूतैः न लिप्यते, ( कसायविस एहि सप्पुरिसो) कषायैः क्रोधमानमायालोभः, विषयैः विषयसुखैः स्पर्शरसगन्ध वर्णशब्दः सत्पुरुषः सम्यग्दृष्टिजीवः । तथा चोक्तंघात्रीबालाऽसतीनाथपद्मिनीदलवारिवत् 1 दग्धरज्जुवदाभासं भुञ्जन् राज्यं न पापभाक् ॥ १ ॥ ते च्चिय भणामिहं जे सयलकलासीलसंजमगुणेह । बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो ॥१५३॥ तानेव भणामि अहं ये सकलकलाशीलसंयमगुणैः । बहुदोषाणामावासः सुमलिनचित्तः न श्रावकसमः सः ॥ १५३॥ ( ते च्चिय भणामिहं जे ) तानेव सत्पुरुषानहं कुन्दकुन्दाचार्यो भणामि कथयामि । तान् कान्, ये पुरुषाः ( सयलकलासीलसंजमगुणेह ) सकलकलाः परिपूर्ण भावप्राभृतम् विशेषार्थ - जिस प्रकार निजस्वभाव के कारण कमलिनी का पत्ता पानो से लिप्त नहीं होता है उसी प्रकार सत्पुरुष सम्यग्दृष्टि जीव, जिनेन्द्र देवके चरण कमलोंकी भक्ति रूपी सम्यक्त्व के कारण क्रोधादि कषायों तथा स्पर्शादि विषयों से लिप्त नहीं होता । जैसा कि कहा है धात्रीबाला - सम्यग्दृष्टि मनुष्य धात्रीबाल, असतीनाथ, कमलिनीपत्र पर स्थित जल और जली हुई रस्सी के समान राज्यका उपभोग करता हुआ भी पापी नहीं होता है । भावार्थ - जिस प्रकार धाय बालक का लालन-पालन करती हुई भी उसे अपना बालक नहीं मानती है, जिस प्रकार पुरुष अपनी दुश्चरित्रा स्त्रो से सम्बन्ध रखता हुआ भी उससे विरक्त रहता है, जिस प्रकार कमलिनीके पत्र पर पड़ा हुआ पानी उस पर रहता हुआ भी उससे भिन्न रहता है और जली हुई रस्सी जिस प्रकार ऊपर से भको लिये हुई दिखती है परन्तु भीतर से अत्यन्त निर्बल रहती है इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव राज्य आदिका उपभोग करता हुआ भी अन्तरङ्ग से आसक्त नहीं होता, अतः पापी नहीं कहलाता । गाथार्थ - मैं उन्हीं को सत्पुरुष अथवा मुनि कहता हूँ जो शील संयम तथा गुणों के द्वारा परिपूर्ण हैं । जो अनेक दोषोंका स्थान तथा अत्यन्त मलिन चित्त है वह तो श्रावक के भी समान नहीं है ।। १५३ ।। विशेषार्थ - श्री कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जो शील संयम तथा गुणों के द्वारा सकल कला हैं अर्थात् समीचीन रीति से परीक्षा देने वाले For Personal & Private Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० षट्प्राभृते [ ५. १५३कलनाः सम्यक्परीक्षादायिनः, कैः ? शीलसंयमगुणैः शीलनिकषक्षमाः संयमनिकपक्षमा गुणनिकषक्षमा भवन्ति । तथा चोक्तं यथा चतुभिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनतापताडनः । तथैव धर्मो विदुषा परीक्ष्यते श्रुतेन शोलेन तपोदयागुणैः ॥ १॥ तथा चोक्तं संजमु सीलु सउच्चु तवु जसु सूरिहि गुरु सोइ । दाहछेदकसघायखमु उत्तमु कंचणु होइ ॥१॥ ( बहुदोसाणावासो ) बहूनां दोषाणामतीचारादीनामावासो गृहं, अथवा वधूनां स्त्रीणां दोष्णां बाहूनां आवास आलिंगको मुनिः। ( सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो ) सुष्ठु अतीव मलिनचित्तो रागद्वेषमोहकश्मलचेता मुनिः मुनिन भवत्येवं, तर्हि किं भवति ? ण सावयसमो सो-न श्रावकसमः श्रावकेणापि गृहस्थेनापि समः सदृशः .. स न भवति । तस्य दानपूजादिलाभसंयुक्तत्वादुत्तमत्वं । तथा चोक्तं वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः ।। स्वःस्त्रोकटाक्षलु ठाकलोप्यवैराग्यसम्पदः ॥१॥ हैं-जिनके शील संयम और गुणोंमें कभी कमी नहीं आती वे ही मुनि हैं। जैसा कि कहा है यथाचतुभिः-जिस प्रकार घिसना, छेदना, तपाना और ताड़ना इन चार उपायों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती है उसी प्रकार श्रुत शील तप और दया रूप गुणके द्वारा धर्म की परीक्षा को जाती है ॥१॥ जैसा कि कहा है संजमु-जिसमें संयम शील शौच तथा तप विद्यमान हैं वही गुरु हो सकता है, क्योंकि तपाना छेदना घिसना तथा चोट खाना आदि कार्यों में जो समर्थ है वही सुवण हो सका है। इसके विपरीत जो अनेक दोषों अथवा अतिचारोंका आवास हो अथवा जो स्त्रियों को भुजाओं के आलिङ्गन की इच्छा रखता हो तथा जिसका चित्त अत्यन्त मलिन हो वह मुनि नहीं है वह तो श्रावक के भी समान नहीं है। क्योंकि श्रावक दान पूजा आदि लाभ से संयुक्त होनेके कारण उत्तम है । जैसा कि कहा -- वरगाहस्थ--आगे होनेवाले उस तपकी अपेक्षा तो जिसमें कि देवाङ्गनाओं के कटाक्ष रूप लुटेरों के द्वारा वैराग्य रूपी संपदा लुट जाती है, आज गृहस्थ रहना भी अच्छा है। For Personal & Private Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१.१५४] भावप्राभृतम् ५५१ "चित्र चेम अस्मदीयस्त्यानस्थाणुमूकतूष्णीकदवैकमृदुकसेवानखनीडनिहितव्याहृतकुतूहलस्थूलव्याकुलेषु वा" इत्यनेन प्राकृतव्याकरणसूत्रेण चिम इत्यस्य वा द्विस्वं । चित्र इति कोऽर्थः “अवधारणे णइ च्च चित्र चेाः।" अन्यच्च ते च्चिा धण्णा ते चिय साउरिसा ते जियंति जियलोए । वोद्दहदहम्मि पडिया तरंति जे च्चिय लं लोए ॥ १ ॥ बोद्दह इति कोऽर्थो यौवनम् । ते धोरवीरपुरिसा खमदमखग्गेण विप्फुरतेण । दुज्जयपबलबलुद्धर कसायभडणिज्जिया जेहिं ॥१५४॥ - ते धीरवीरपुरुषाः क्षमादमखड्गेन विस्फुरताः। : । दुर्जयप्रबलोद्धरकषायभटा निजिता यैः ॥१५४॥ (ते धोरवीरपुरिसा) ते पुरुषा धोरा अनिवर्तकाः संयमसंग्रामात् कर्मशत्रूणां पातमकृत्वा न पश्चाद्व्याघुटंति, वीरा विशिष्टां केवलज्ञानसाम्राज्यलक्ष्मी रान्ति सीकुर्वन्तीति वीराः। ( खमदमसग्गेण विप्फुरतेण ) क्षमा प्रकृष्टप्रशमः, दमो चितेन्द्रियत्वं क्षमयोपलक्षितो दमः क्षमदमः स एव खङ्गः कौलेयः करवालोऽसिमस्त्रिशः पातिकर्मशत्रसंघातघातकत्वात् तेन क्षमादमखड्गेन । किं कुर्वता ? विक्करता बप्रतिहतव्या पारतया चमत्कुर्वता । ( दुज्जयपबलबलुबर) दुःखेन । 'गाथा में "च्चिय' शब्द दिया है उसे चिज चेञ्ज आदि प्राकृत व्याकरण के सूत्र से द्वित्व हो गया है चिज का अर्थ अवधारण है। और भी कहा है तेन्धिय-संसार में वे ही धन्य हैं, वे ही सत्पुरुष हैं और वे ही जीवित है जो यौवन रूपी गहरे ह्रद में गिरकर भी लीलासे उसे पार कर भावार्य-वे धीर वीर पुरुष हैं जिन्होंने क्षमा और जितेन्द्रियता रूपी बमकती तलवार से दुर्जेय तथा प्रचुर बलसे उत्कट कषाय रूपी योद्धाओं को जीत लिया है ।।१५४॥ विशेषा-धीर वे हैं जो संयम रूपी संग्राम से कर्मरूपी शत्रुओं का चत किये बिना पीछे नहीं लौटते और वीर वे हैं जो वि-विशिष्ट, ईमाल-बान-रूपी लक्ष्मी को, र-स्वीकृत करते हैं। लोकोत्तर प्रशमभावकपमा कहते हैं तथा इन्द्रियों को जीतना दम कहलाता है। कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि इस संसारमें धीर वीर पुरुष वे ही हैं जिन्होंने क्षमा For Personal & Private Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ षट्प्राभृते [५. १५५ महता कण्टेन जेतुमशक्या दुर्जयाः, प्रबलं प्रचुरं, बलं सामर्थ्य तेन उद्धरा उत्कटा ये कषायभटाः क्रोधमानमायालोभसुभटाः । ( कसायभडणिज्जिया जेहिं ) एवंविधा कषायभटा यनिर्जिता भारिता भूमो पातिताः ।। धण्णा ते भयवंता दंसणणाणग्गपवरहत्यहि । विसयमयरहरपडिया भविया उत्तारिया जेहिं ॥१५५॥ धन्यास्ते भगवन्तो दर्शनज्ञानाग्रप्रवरहस्ताभ्याम् । विषयमकरधरपतिता भव्या उत्तारिता यैः ॥१५५।। (धण्णा ते भयवंता ) धन्याः पुण्यवन्तः ते भगवन्तः इन्द्रादिपूजिताः अथवा भयं वांतं त्यक्तं यस्ते भयवन्ता निर्भयाः सप्तभयरहिताः (दसणणाणग्गपवरहत्यहिं ) दर्शनज्ञाने एव प्रवरौ बलवत्तरौ हस्तौ करौ दर्शनज्ञानप्रवराग्रहस्तौ ताभ्यां द्वाभ्यां हस्ताभ्यां करणभूताभ्यां । ( विसयमयरहरपडिया) विषय एव मकरधरः समुद्रः तत्र पतिता बुडिताः। ( भविया उत्तारिया जेहिं ) भव्यजीवा उत्तारिता हस्तावलम्बनं दत्वा उत्तारिताः संसारसुखक्षारसमुद्रस्य पारं नीताः, य:रवर्द्धमानश्रीगौतमस्वाम्यादिभिरिति मंगलाभिप्रायः । से युक्त जितेन्द्रियता रूप देदीप्यमान तलवार से दुर्जेय-बहुत भारी कष्टसे जीतने के अयोग्य एवं प्रचुर बलसे दुर्धर कषाय रूपी भटोंको-क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी योद्धाओं को मारकर भूमि पर गिरा दिया है। सबसे प्रबल शत्रु कषाय ही हैं इन्हें क्षमा और जितेन्द्रियता के द्वारा ही जीता जा सकता है जिन्होंने इन्हें जीत लिया है वे ही धोर वीर पुरुष हैं ।।१५४॥ गाथार्थ-वे भगवान् धन्य हैं जिन्होंने ज्ञान दर्शन रूपी श्रेष्ठ अग्रगामी हाथों के द्वारा विषय रूपी समुद्र में पड़े हुए भव्य जीवों को उतार कर पार लगाया है ।।१५५॥ विशेषार्थ-इन्द्र आदि के द्वारा पूजित वे भगवान् धन्य हैं-अतिशय पुण्यवान हैं अथवा 'भयवन्ता' छाया मान कर शङ्का आदि सात भयों से रहित हैं जिन्होंने दर्शन और ज्ञान रूपी बलिष्ठ हाथों के द्वारा विषयरूपी मकराकर-समुद्र में पड़े हुए भव्य जीवोंको निकाल कर पार लगा दिया है। यहाँ मङ्गल कामना से श्री वर्धमान भगवान् तथा गौतम स्वामी आदि की स्तुति की गई है ।।१५५॥ For Personal & Private Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १५६-१५७] भावप्राभृतम् ५५३ मायावेल्लि असेसा मोहमहातरुवरम्मि आरूढा । विसयविसपुष्फफुल्लिय लुगंति मुणि गाणसत्यहि ॥१५६॥ मायावल्लोमशेषां मोहमहातरुवरे आरुढाम् । विषयविषपुष्पपुष्पिता लुनन्ति मुनयः ज्ञानशस्त्रैः ॥१५६।। ( मायावेल्लि असेसा ) माया परवंचनस्वभावा सैव वल्ली प्रतानिनी तां मायावल्ली, अशेषां अनन्तानुबन्धिप्रभृतिचतुर्भेदसमग्रां । ( मोहमहातरुवरम्मि आरूढा) मोह एव तरुवरः पुत्रकलत्रमित्रादिस्नेहमहावृक्षस्तमारूढां चटितां । (विसयविसपुप्फफुल्लिय) विषया एव विषपुष्पाणि तैः पुष्पिता विषयविषपुष्पपुष्पिता तां । ( लुणंति मुणि गाणसत्येहिं ) लुनन्ति च्छिन्दन्ति, के ते ? मुनयः सम्यग्ज्ञानसमुपेता दिगम्बरगुरव इत्यर्थः । केन, ज्ञानशस्त्रेण सम्यग्ज्ञानशस्त्रेण परशुना इति शेषः । मोहमयगारवेहि य मुक्का जे करुणभावसंजुत्ता । ते सव्वदुरियखंभं हर्णति चारित्तखग्गेण ॥१५७॥ मोहमदगारवैः च मुक्ता ये करुणभावसंयुक्ताः। ते सर्वदुरितस्तंभं ध्वन्ति चारित्रखड्गेन ।।१५७।। गांधार्थ-मोहरूपी महावृक्ष पर चढ़ी और विषय रूपी विष पुष्पोंसे फूली, माया रूपी सम्पूर्ण लताको मुनिगण ज्ञानरूपी शस्त्र के द्वारा छेदते हैं ॥१५६॥ - विशेषार्थ-स्त्री पुत्रादि के स्नेह में पड़ कर मनुष्य नाना प्रकार की माया करता है । मायाका स्वभाव दूसरों को ठगना है । यह माया अनन्ता. नुबन्धी आदिके भेद से चार प्रकार की है माया के द्वारा मनुष्य विषयों को प्राप्त कर प्रसन्न होता है। यहाँ आचार्य महाराज ने स्त्री-पुत्रादि के स्नेहरूपी मोहको महान् ऊँचे वृक्ष की उपमा दो है, मायाको लता की • सपमा दी है, विषय को विषपुष्प को उपमा दो है तथा ज्ञानको शस्त्र की उपमा दी है । इस प्रकार गाथा का अर्थ होता है कि मोहरूपी ऊँचे वृक्ष पर चढ़ो एवं विषयरूपी विष पुष्पों से फूली माया रूपी लताको । सम्पूर्ण रूपसे मुनि ज्ञानरूपी शस्त्र के द्वारा छेदकर-काटकर दूर फेंक देते हैं ॥१५६|| गाचार्ष-जो मोह मद और गारव से रहित तथा करुणा भाव से मुक्त हैं ऐसे मुनि चारित्र रूपी खड़गके द्वारा समस्त पाप रूपी स्तम्भको भकर नष्ट करते हैं ।।१५७॥ ...... For Personal & Private Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ षट्नाभृते [५. १५८( मोहमयगारवेहि य ) मोहः कलत्रपुत्रमित्रादिषु स्नेहः, मदो ज्ञानादिरष्टप्रकारो निजोन्नत्यं, गारवं शब्दगारद्धिगारक्सातगारवभेदेन त्रिविध । तत्र शब्दगारव वर्णोच्चारगर्वः, ऋद्धिगारवं शिष्यपुस्तककमण्डलुपिच्छपट्टादिभिरात्मोद्भावनं, सातगारवं भोजनपानादिसमुत्पन्नसौख्यलीलामदस्तैर्मोहमदगारवैः । चकार उक्तसमुच्चयार्थस्तेन निजपक्षीयसघनराजमान्य श्रावकादिभिरभिमानः। ( मक्का जे करुणभावसंजुत्ता) पूर्वोक्तोहादिभिर्ये मुक्ताः, करुणभावः कारुण्यं दयापरिणामस्तेन संयुक्ताः । ( ते सव्वदुरियखंभं ) ते मुनयः सर्वदुरितस्तंभं समस्तमला- : .. तिचारादिसमुत्पन्नं पापस्तंभ (हणंति चारित्तखग्गेण) घ्नन्ति चारित्रखड्गेन छिन्दन्ति निजनिर्मलसवृत्तनिस्त्रिशेनेति शेषः । गुणगणमणिमालाए जिणमयगयणे णिसायरमणिदो। तारावलिपरियरिओ पुणिमइंदुव्व पवणपहे ॥१५८॥ गुणगणमणिमालया जिनमतगगने निशाकरमुनीन्द्रः । तारावलिपरिकलितः पूर्णिमेन्दुरिव पवनपथे ॥१५८|| . ( गुणगणमणिमालाए ) गुणा अष्टाविंशतिमूलगुणाः दश धर्माः तिस्रो गुप्तयः अष्टादशशोलसहस्राणि द्वाविंशतिपरीषहाणां जय एते उत्तरगुणाः, गुणानां गणाः समूहा गुणगणास्त एव मणयो रत्नानि तेषां माला मुक्ताफलहारस्तया गुणगण विशेषार्थ-स्त्री-पुत्र तथा मित्र आदि में जो स्नेह है वह मोह कहलाता है, ज्ञान पूजा आदि के भेद से मद आठ प्रकार का है। शब्द गारव, ऋद्धि गारव और सात गारव के भेद से गारव के तीन भेद हैं। हमारे वर्णोका उच्चारण साफ और सुन्दर होता है इस प्रकारका गर्व होना वर्णोच्चार गारव है । शिष्य, पुस्तक, कमण्डलु, पीछी तथा पाटे आदि बाह्य सामग्री से अपने महत्व का प्रकट करना ऋद्धि गारव है और भोजन पान आदि से समुत्पन्न सुखका गर्व होना सात गारव है। चकार उक्त समुच्चयार्थक है अर्थात् कहने के जो बाकी रह गये हैं उनका समुच्चय करने वाला है इसलिये अपने पक्षके श्रावक धनवान् अथवा राज-मान्य हों इस बातका गर्व करना । जो मुनि इन मोह, मद और गारवों से मुक्त हैं तथा करुणा भाव-दया भावसे संयुक्त हैं वे सब प्रकार के दोष अथवा अतिचार आदि से समुत्पन्न पाप रूपी खम्भेको चारित्ररूपी खड्गके द्वारा नष्ट कर देते हैं। यथार्थ में निर्मल चारित्र के द्वारा ही पापका नाश होता है ॥१५७॥ गाथार्थ-जिस प्रकार आकाशमें ताराओंकी पंक्तिसे सहित पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होता है उसी प्रकार जिनमत रूपी आकाश में गुण For Personal & Private Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १५९ ] भावप्राभृतम् ५५५ मालया मुनिः शोभते इत्युपस्कारः। (जिणमयगयणे णिसायरमुणिदो ) जिनमतमाहतशासनं तदेव गगनं आकाशः पापलेपरहितत्वात् जिनमतगगनं तस्मिन् जिनमतगगने सर्वज्ञशासनाकाशे, निशाकरश्चन्द्रः निशां करोति उद्योतयंति निशाकरो मुनीन्द्रः तत्र मुनीन्द्रो दिगम्बरः निशाकरः पापान्धकारविच्छेदकत्वात् ( तारावलिपरियरिओ) तारावलिपरिकलिता नक्षत्रमालापरिवेष्टितो नक्षत्रमण्डलोपेतः । ( पुण्णिमइदुव्व पवणवहे ) पूर्णिमेन्दुरिव पूर्णिमाचन्द्रवच्छोभते, पवनगथे गगनमार्गे इति शेषः । चक्कहररामकेविसुरवरजिणगणहराइ सोक्खाई। चारणमुणिरिद्धीओ विसुद्धभावा जरा पत्ता ॥१५९॥ चक्रधररामकेशवसुरवरजिनगणधरादिसौख्यानि । चारणमन्यद्धोः विशुद्धभावा नराः प्राप्ताः ॥१५९।। (चक्कहररामकेसवसुरवरजिणगणहराइसोक्खाई) चक्रधराश्च भरतादयः सकलचक्रवर्तिनः, रामश्च बलदेवाः, केशवाश्चार्धचक्रवर्तिनः, सुरवराश्च सौधर्मेन्द्राघच्युतेन्द्रपर्यन्ता अहमिन्द्रान्ताः, जिनाश्च वृषभादिवीरान्ताः, गणधरादयश्च वृषभसेनादयः श्रीगौतमान्तास्तेषां सौख्यानि महापुराणादिशास्त्रवणितानि समूह रूपो मणियों को मालासे युक्त मुनि-रूपी चन्द्रमा सुशोभित होता है ॥१५८॥ विशेषार्थ-अट्ठाईस मूलगुण हैं, तथा दश धर्म, तीन गुप्तियाँ, अठारह हजार शीलके भेद और बाईस परोषहों को जोतना आदि उत्तरगुण हैं । इन सब गुणोंके समूह रूप मणियों की माला से अलंकृत मुनि रूपी चन्द्रमा, जिनमत-अहंन्त सर्वज्ञ देवके शासन रूपो आकाश में उस प्रकार सुशोभित होता है जिस प्रकार के निर्मल आकाश में नक्षत्रों को पंक्ति से घिरा हुआ पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होता है ।।१५८।। गाथार्थ-विशद्ध भावोंके धारक मनुष्य, चक्रवर्ती बलभद्र नारायण सुरेन्द्र जिनेन्द्र और गणधरादिके सुखोंको तथा चारण मुनियों को ऋद्धियों को प्राप्त हुए हैं ।।१५९॥ - विशेषार्थ-चक्ररत्न के धारक भरत आदि सकल चक्रवर्ती, राम अर्थात् बलदेव, केशव अर्थात् अर्ध चक्रवर्ती-नारायण, सुरवर अर्थात् सौधर्मेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक अथवा अहमिन्द्र तक जिन अर्थात् ऋषभादि तीर्थकर, गणधरादि अर्थात् वृषभसेन को आदि लेकर गौतमान्त मगर इन सबके सुखोंको जिनका कि महापुराण आदि शास्त्रों में वर्णन For Personal & Private Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ षट्प्राभृते [५] १६०-१६१ ( चारणमुणिरिद्धीओ ) चारणमुनीनां आकाशगामिनामृषीणां ऋद्धी: अक्षीणमहानसालयप्रभृतिः । ( विसुद्धभावा णरा पत्ता ) विशुद्धभावा नरा जीवाः प्राप्ता लभन्ते स्म । सिवमजरामलिंगमणोवममुत्तमं परमविमलमतुलं । पत्ता वरसिद्धिसुहं जिणभावणभाविया जीवा ॥ १६०॥ शिवमजरामर लिङ्गमनुपममुत्तमं परमविमलमतुलम् । प्राप्ता वरसिद्धिसुखं जिनभावनाभाविता जीवाः ॥ १६० ॥ ( सिवमजरामरलिंगं ) शिवं परमकल्याणं परमंमंगलभूतं कर्ममलकलंकरहितत्वात्, अजरामरलिंगं जरामरणरहितचिन्हं । ( अणोवमं ) उपमारहितं । ( उत्तमं ) परममुख्यं ( परमविमलं ) द्रव्यकर्मभावकर्म नोकर्मरहितं । ( अतुलं ) अनन्तमित्यर्थः । ( पत्ता वरसिद्धिसुहं ) एतद्विशेषणविशिष्टं वरं श्रेष्ठं सिद्धिसुखं परमनिर्वाणसौख्यं प्राप्ताः लभन्ते स्म । ( जिणभावणभाविया जीवा ) जिनभावनया निर्मलसम्यक्त्वेन भाविता वासिता जीवा आसन्नभव्याः । ते मे तिहुवण महिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्चा । वितु वरभावसुद्ध दंसणणाणे चरिते य ॥१६१॥ ते मे त्रिभुवनमहिताः सिद्धाः शुद्धा निरंजना नित्याः । ददतु वरभावशुद्धि दर्शनज्ञाने चारित्रे च ।। १६१ ।। है तथा आकाशगामी चारण ऋषिके धारक मुनियों को अक्षीण महानसअक्षीण महालय आदि अनेक ऋद्धियों को शुद्धसम्यक्त्व के धारक मनुष्य ही प्राप्त हुए हैं ।। १५९ ॥ गाथा - जन भावना, अर्थात् निर्मल सम्यक्त्व से वासित आसन्न भव्य जीव परम मङ्गल भूत जरा और मरण के चिह्नों से रहित होने के कारण जो अजरामर लिंग हैं, वे अनुपम, उत्तम, अत्यन्त विमल और अतुल - अनन्त उत्कृष्ट सिद्धि के सुखको प्राप्त हुए हैं ।। १६० ।। विशेषार्थ - कर्ममल कलङ्क से रहित होनेके कारण जो शिव अर्थात् मोक्ष परम कल्याण एवं परम मङ्गल भूत है, उपमा रहित होनेसे अनुपम है, परम मुख्य है, द्रव्य कर्म भावकर्म और नो-कर्म से रहित होने के कारण अत्यन्त विमल है, अतुल्य अर्थात् अनन्त है, ऐसे उत्कृष्ट सिद्धि सम्बन्धी परम निर्वाण सुखको जिन भावना अर्थात् निर्मल सम्यक्त्व से भावित अर्थात् वासित निकट भव्य जोव प्राप्त करते हैं ॥ १६० ॥ गाथार्थ - जो त्रिभुवन के द्वारा पूजित हैं, शुद्ध हैं, निरञ्जन हैं और For Personal & Private Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १६२ ] भावप्राभृतम् " ( ते मे तिहुवणमहिया ) ते जगत्प्रसिद्धाः मे मम श्री कुन्दकुन्दाचार्यस्य, त्रिभुवनमहितास्त्रैलोक्यपूजिताः । ( सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्चा) सिद्धा मुक्तिस्त्रीवल्लभाः, शुद्धाः कर्ममलकलंकरहिताः, निरंजना निरुपलेपाः, नित्याः शाश्वताः । ( बिंतु वरभावसुद्धि ) ददतु प्रयच्छन्तु, वरभावशुद्धि विशिष्टपरिणामशुद्धि । कस्मिन्, ( दंसणणाणे चरिते य ) सम्यग्दर्शने सम्यग्ज्ञाने सम्यक्चारित्रे चेत्यर्थः । कि जंपिएण बहुणा अत्थो धम्मो य काममोक्खो य । अण्णेवि य वावारा भावम्मि परिट्टिया सव्वे ॥ १६२॥ कि जल्पितेन बहुना अर्थो धर्मश्च काममोक्षश्च । " अन्येपि च व्यापारा भावे परिस्थिताः सर्वे ।। १६२ ।। ( कि जंपिएण बहुणा ) बहुना प्रचुरतरेण, जल्पितेन कि ? न किमपि । ( अत्यो धम्मो य काममोक्खो य ) अर्थो धनं, धर्मो यति श्रावकगोचरः कामः पंचेन्द्रियसुखदायिनी इष्टवनिता तस्या भोगः, मोक्षः सर्वकर्मक्षयलक्षणः । ( अण्णे वि य वावारा) अन्येऽपि च व्यापारा विद्यादेवतासाघनादय: । ( भावम्मि परिट्ठिया सब्वे ) भावे शुद्धपरिणामे परिस्थिता भावाधीना भवन्तीति भावार्थ: । उक्तं च नित्य हैं, वे जगत्प्रसिद्ध सिद्धभगवान् हमारे दर्शन ज्ञान और चारित्र में उत्कृष्ट भाव शुद्धिको प्रदान करें ।। १६१ ॥ विशेषार्थ—कुन्दकुन्द स्वामी इष्ट प्रार्थना के रूप में कहते हैं कि जो तीन लोकके द्वारा पूजित हैं, कर्ममल कलंक से रहित होने के कारण शुद्ध हैं, भाव कर्म से रहित होने के कारण निरञ्जन हैं और नित्य हैं - शाश्वत हैं - सादि अनन्त पर्याय से युक्त हैं वे जगत्प्रसिद्ध सिद्धपरमेष्ठी हमारे दर्शन ज्ञान और चारित्रमें उत्कृष्ट भावशुद्धिको करें ।। १६१ ॥ ५५७ गाथार्थ - अधिक कहने से क्या ? धर्म अर्थ काम और मोक्ष तथा अन्य जितने व्यापार हैं वे सब भाव में ही - परिणामों की विशुद्धता में ही स्थित हैं ।। १६२ ॥ विशेषार्थ - आचार्य कहते हैं कि अधिक कहने से क्या लाभ है ? अर्थ - धन, धर्म-मुनि धर्म, श्रावक धर्म, काम - पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी सुख देने वाली इष्ट स्त्रीका भोग और मोक्ष सर्व कर्म क्षय तथा विद्या देवता का साधन करना आदि सभी कार्य शुद्ध परिणामों पर निर्भर हैं इसलिये परिणामों की सुनता पर ध्यान देना चाहिये। कहा भी है For Personal & Private Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [५. १६३न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृन्मये। . भावेषु विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणं ॥१॥ भावविहूणउ जीव तुहं जइ जिणु वहहि सिरेण । पत्थरि कमलु किं निप्पजइ जइ सिंचहि अमिएण ॥ २ ॥ सीसु नमंतह कवणु गुणु भाउ कुसुद्धउ जाहं । पारदीदूणउ नमइ ढुक्कतउ हरिणाहं ॥ ३ ॥ अघ्नन्नपि भवेत् पापी निघ्नन्नपि न पापभाक् । परिणामविशेषेण यथा धीवरकर्षकौ ॥ ४॥ इय भावपाहुडमिणं सव्वं बुद्धेहि देसियं सम्मं । जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ अविचलं ठाणं ॥१६३॥ इति भावप्राभतमिदं सर्वं बुद्धः देशितं सम्यक् । यः पठति शृणोति भावयति स प्राप्नोति अविचलं स्थानम् ॥१६३॥ ( इय भावपाहुडमिणं ) इति-एवं प्रकार, भावप्राभृतमिदं भावप्राभृतनाम शास्त्रं ( सव्वं बुद्धहि देसियं सम्मं ) सर्व बुद्धः सर्वज्ञः देशितं कथितं सम्यङ् निश्चयेन । यथा मया कथितं सर्व बुद्ध रप्येवमेवोक्तमिति भावार्थः । ( जो पढइ न देवी-देव न काष्ठ में हैं, न पाषाण में हैं, न मिट्टी के पिण्ड में हैं किन्तु भावों में हैं इसलिये भाव ही कारण है। . भावविहणऊ-हे जीव ! यदि तू भावसे विहीन होकर शिरसे जिन भगवान् को धारण करता है तो इससे क्या होनेवाला है ? क्या अमृत से सींचने पर पत्थर पर कमल उत्पन्न हो सकता है ? सीसु-जिसका भाव-अभिप्राय कुशुद्ध खोटा है उसके शिर झुकाने से कौनसा लाभ होनेवाला है अर्थात् कोई भी नहीं । हरिणों को मारने के लिये शिकारी बहत नम्रीभूत होता है। अघ्नन्नपि-परिणाम विशेष के कारण धीवर घात न करता हुआ भी पापी है और खेत जोतने वाला किसान जोवोंका घात करता हुआ भी पापी नहीं होता। ___ गाथार्थ-सर्वज्ञ देवके द्वारा कथित इस समस्त भाव पाहड़ को जो पढ़ता है, सुनता है तथा उसकी भावना करता है वह अविचलस्थान को प्राप्त होता है ॥ १६३ ॥ विशेषार्थ-जो निकट भव्य मुनि श्रेष्ठ, सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे हुए इस समप्र भावप्रप्रभृतका पठन करता है, सुनता है और चिन्तवन करता For Personal & Private Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. १६३ ] भावप्राभृतम् ५५९ सुणइ भावइ य ) आसन्नभव्यो जीवः पठति गुर्वग्रेऽनुशीलयति अभ्यस्यति, सुणइ एतदर्थमाकर्णयति, भावइ-श्रुत्वा श्रद्दधाति । ( सो पावइ अविचलं ठाणं ) स आसन्नभव्यो मुनिपुंगवः, प्राप्नोति लभते, अविचलं निश्चलं, स्थानं मोक्षपदमिति सिद्धम् । ___ इति श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचार्यलाचार्यगृध्रपिच्छाचार्यनामपंचकविराजितेन श्रीसीमन्धरस्वामिसम्यग्बोधसंबोधितभव्यजनेन श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृतभावनाग्रन्थे सर्वमुनिमण्डलीमण्डितेन कलिकालगौतमस्वामिना श्रीमल्लिभूषणेन भट्टारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभयभाषाकविचक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दिगुर्वन्तेवासिना श्रीदेवेन्द्रकोतिप्रशिष्येण सूरिवर श्रीश्रुतसागरेण विरचिता भावप्राभृतटीका परिसम्पूर्णा' है वही श्रेष्ठ मुनि अविचल स्थान को प्राप्त होता है अर्थात् मोक्ष जाता - इस प्रकार श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य वक्रग्रोवाचार्य, एलाचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य, इन पांच नामोंसे सुशोभित श्री सोमन्धर स्वामीके सम्यग्ज्ञान से भव्यजीवों को संबोधित करने वाले श्री जिनचन्द्र सूरि भट्टारक के पट्ट के आभरण-भूत कलिकाल सर्वज्ञ श्री कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा विरचित षट्प्राभृत भावना नामक ग्रन्थ में समस्त मुनि मण्डली से सुशोभित कलिकाल के गौतम स्वामी श्री मल्लिभूषण भट्टारक के द्वारा अनुमत सकल विद्वज्जन समाज के द्वारा सम्मानित उभय भाषा के कवियों में प्रमुख श्री विद्यानन्दि गुरुके शिष्य और श्री देवेन्द्रकीति के प्रशिष्य सूरिवर श्री श्रुतसागर के द्वारा विरचित यह भावप्राभूत की टीका समाप्त हुई। १. परिसमाप्ताम। For Personal & Private Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्रामृतम् अथ देवेन्द्रयशोगुरुविद्यानन्दीश्वरस्य शिष्येण । मुक्तिप्रियामुखाम्बुजदिदृक्षुणा शिक्षितेन गुणे ॥१॥ श्रुतसागरेण कविना विनापि बुद्धधा विरच्यते रुचिदा। मोक्षप्राभृतविवृतिष्टीकाऽलोकप्रमुक्तेन ॥२॥ याचकजनकल्पतरुः 'स्वरुरपि मिथ्यामताद्रिशङ्ग । भव्यजनजनकतुल्यो विवेकवान् मल्लिभूषणो जयति ॥ ३ ॥ गीतिरार्या णाणमयं अप्पाणं उवलद्धं जेण मडियकम्मेण । . चइउण य परदव्वं णमो गमो तस्स देवस्स ॥१॥ ज्ञानमय आत्मा उपलब्धो येन क्षरितकर्मणा । त्यक्त्वा च परद्रव्यं नमो नमस्तस्मै देवाय ॥ १॥ बय देवेन-तदनन्तर देवेन्द्र-कोति जिनके गुरु हैं, ऐसे विद्यानन्दी महाराज के शिष्य, मुक्ति रूपी वल्लभा के मुख कमल के देखनेके इच्छुक सम्यग्दर्शनादि गुणोंके विषय में अच्छी तरह शिक्षित एवं मिथ्या वचन से रहित श्री श्रुतसागर कविके द्वारा बुद्धि के बिना ही, रुचिको उत्पन्न करने वाली मोक्षप्राभूत को यह टीका रची जाती है। जो याचक जनोंके लिये कल्पवृक्ष रूप हैं, मिथ्यामत रूपी पर्वतों की शिखरों पर वज्र रूप हैं, भव्यजनोंके लिये पिताके समान हैं और परम विवेको हैं वे श्रीमल्लिभूषण गुरु जयवन्त रहें ॥ १-३॥ ___ अब मोक्ष पाहुड ग्रन्थ के प्रारम्भ में मङ्गलाचरणकी इच्छासे श्री कुन्दकुन्द स्वामी देवको नमस्कार करते हैं गाचार्य-जिन्होंने कर्मोका क्षय करके तथा पर-द्रव्यका त्याग करके ज्ञानमय आत्मा को प्राप्त कर लिया है उन श्री सिद्धपरमेष्ठी रूप देवके लिये बारबार नमस्कार हो ॥१॥ १. ह्रादिनी वजमस्त्री स्यात् कुलिशं भिदुरं पविः । शतकोटिः स्वरुः शम्बो दभोलिरशनियोः । २. बस्भावने ॐ नमः सिम्यः इति पाठक। For Personal & Private Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.२] मोक्षप्रामृतम् (णाणमयं अप्पाणं ) ज्ञानमय आत्मा । ( उवलद्ध' जेण प्रडियकम्मेण ) उपलब्धो येन क्षरितकर्मणा । (चइऊण य परदव्वं ) त्यक्वा च परद्रव्यं शरीरं कर्म च परित्यज्य नमो नमः-पुनः पुनर्नमः । तस्य देवस्य तस्मै देवायेति भावार्थः । गमिऊण य तं देवं अणंतवरणाणसणं सुद्ध। 'वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ॥२॥ नत्वा च तं देवं अनन्तवरज्ञानदर्शनं शुद्ध। वक्ष्ये परमात्मानं परमपदं परमयोगिनाम् ॥ २॥ (णमिऊण य तं देवं) नत्वा च तं देवं सर्वज्ञवीतरागं । कथंभूतं देवं, (अणंतवरणाणदंसणं सुद्ध) अनन्तवरज्ञानदर्शनं शुद्धं अनन्तज्ञानमनन्तदर्शनमनन्तवीर्यमनन्तसौख्यमित्यर्थः, शुद्ध घातिकर्मसंघातनेन निर्मलस्वरूपं अष्टादशदोषरहितमित्यर्थः । (वोच्छ परमप्पाणं ) वक्ष्यामि कथयिष्यामि । कः कर्ता ? अहं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः, के वक्ष्ये ? परमात्मानं शुद्धनयेन परमात्मानं अर्हत्सिबसमानं । कथंभूतं परमात्मानं, विशेषार्ष-जिन्होंने ज्ञानावरणादि कर्मोंका आत्यन्तिक क्षयकर मानस्वरूप आत्मा को प्राप्त कर लिया है तथा कर्म, नोकर्म रूप परव्यका त्याग कर दिया है, उन 'सिद्ध भगवान् को बार-बार नमस्कार गावार्थ-अनन्त उत्कृट ज्ञान तथा अनन्त उत्कृष्ट दर्शन से युक्त, निर्मल स्वरूप उन सर्वज्ञ वीतराग देवको नमस्कार कर मैं परम योगियों के लिये परम पद रूप परमात्मा का कथन करूंगा ॥२॥ . १. विशेषा-इस गाथा में श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने मङ्गल और प्रतिमा पाक्य दोनों का उल्लेख करते हुए कहा है कि में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन ज्या सहचर सम्बन्ध से अनन्तवीर्य और अनन्त-सुख से युक्त एवं पातिया कोका नाश होनेसे निर्मल स्वरूप अर्थात् अठारह दोषों से रहित वीतराग देवको नमस्कार कर मुनियों के लिये उस परमात्मा कामहन्त सिद्ध परमेष्ठी का निरूपण करूंगा जो कि परम पद रूप है-उत्कृष्ट परस्प है । अर्थात् अरहन्त की अपेक्षा इन्द्रादि देव, नरेन्द्र आदि मनुष्य और गणधरादि महामुनियोंसे संयुक्त समवशरणरूप पद-स्थानसे मण्डित ईबोर सिद्धिकी अपेक्षा त्रिलोकाग्र रूप पद-स्थान पर समासीन हैं । १. युच्छ कचित् । १. वहां भाव मोक्ष तो बरहंत के, अर द्रव्य भाव करि दो प्रकार सिक परमेष्ठी है यातें बोळकू नमस्कार जानना । (पं० जयचन्द्र जी कृत वचनिका )। For Personal & Private Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ षट्प्राभृते (परमपयं) परमपदं परमं उत्कृष्टं इन्द्रादिदेव-नरेन्द्रादिमानव-गणधरादिमहामुनीश्वरसंयुक्तसमवसरणस्थानमण्डितं । अथ केषां परमात्मानं वक्ष्यामि ? (परमजोईणं) परमयोगिनां दिगम्बरगुरूणां । इत्यनेन मुनीनामेव परमात्मध्यानं घटते । तप्तलोहगोलकसमानगृहिणां परमात्मध्यानं न संगच्छते । तेषां दानपूजापर्वोपवाससम्यक्त्वप्रतिपालनशीलवतरक्षणादिकं गृहस्थधर्म एवोपदिष्टं भवतीति भावार्थः । ये गृहस्था अपि सन्तो मनागात्मभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रुवते .. ते जिनधर्मविराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः । अयत्याचारा गृहस्थधर्मादपि पतिता उभयभ्रष्टा वेदितव्याः । ते लोकाः, तन्नामग्रहणं तन्मुखदर्शनं प्रभातकाले न कर्तव्यं इष्टवस्तुभोजनादिविघ्नहेतुत्वात् । ते बिनस्नपनपूजादानादिसर्मघातका ज्ञातव्याः। जं जाणिऊण जोई जो 'अत्यो जोइऊण अणवरयं । अव्वावाहमणंतं अणोवमं हवइ णिव्वाणं ॥३॥ यद्ज्ञात्वा योगी यमर्थं दृष्ट्वाऽनवरतम् । अव्यावाधमनन्तं अनुपमं भवते निर्वाणम् ॥ ३॥ , में परम योगियों अर्थात् दिगम्बर गुरुओं के लिये यह कथन करूंगा, इस प्रतिज्ञा वाक्य से यह सूचित होता है कि परमात्मा का ध्यान मुनियों के ही घटित होता है तपे हुए लोहेके गोले के समान गृहस्थों के परमात्मा का ध्यान संगत नहीं होता। उनके लिये तो दान, पूजा, पर्वके दिन उपवास करना, सम्यक्त्व का पालन करना तथा शीलव्रत की रक्षा करना आदि गृहस्थ धर्मका उपदेश ही कार्य-कारी होता है। जो गृहस्थ होते हुए भी तथा रंच मात्र आत्माको भावना को न पाते हुए भी यह कहते हैं कि हम तो आत्मा का ध्यान करते हैं वे जिन धर्मको विराधना करने वाले मिथ्यादृष्टि हैं। ऐसे जीव मुनियोंके आचार से तो रहित हैं ही, गृहस्थ धर्म से भी पतित होकर उभय भ्रष्ट-दोनोंसे पतित हो जाते हैं। गाथार्थ-जिस आत्म-तत्व को जानकर तथा जिसका निरन्तर साक्षात् कर योगी ध्यानस्थ मुनि, बाधा-रहित, अनन्त, अनुपम निर्वाण को प्राप्त होता है ।।३॥ १. जोयत्यो योगस्थो ध्यानस्थ इत्यर्थः । इति पुस्तकान्तरे पाठ तत्पक्षे योगस्थः इति तस्य। For Personal & Private Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.४ ] मोक्षप्राभृतम् ५६३ ( जं जाणिऊण जोई ) यं अथं आत्मतत्वं ज्ञात्वा हे योगिन् ! ( जो अत्थो जोऊण अणवरयं (यं ) ) अथं तत्त्वं, जोइऊण — दृष्ट्वा ज्ञानेन साक्षाद्वीक्ष्य योगी ध्यानवान् मुनिः । ( अव्वाबाहमणंतं ) अन्याबाधं बाधारहितं, अनन्तमविनश्वरं । ( अणोवमं हवइ णिव्वाणं) अनुपमं उपमारहितं भवते प्राप्नोति । "भूप्राप्तावात्मनेपदी" इति वचनात् । किं ? निर्वाणं शुद्धसुखं मोक्षस्थानं । उक्तं च- 'जन्मजरामयमरणैः शोकदु : खैर्भयैश्च परिमुक्तं । निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यं ॥ १ ॥ तिपयारो सो अप्पा परभितरबाहिरो दु हेऊणं । तत्थ परो शाइज्जइ अंतोबाएण चयहि बहिरप्पा ॥ ४ ॥ त्रिप्रकारः स आत्मा परमन्तो बहिः तु हित्वा । तत्र परं ध्यायते अन्तरुपायेन त्यज बहिरात्मानम् ॥ ४ ॥ (तिपयारो सो अप्पा ) त्रिप्रकारः स आत्मा त्रिविधः । ( पर्शभतरवाहिरो दु हेऊणं ) परमात्मा-अन्तरात्मा बहिरात्मा चेति । तत्र बाहिरो दु हेऊणं बहिरा - विशेषार्थ - दूसरी गाथा की 'वोच्छ' क्रिया के साथ सम्बन्ध जोड़ते हुए कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि मैं उस परमात्म-तत्त्वका कथन करूंगा जिसको जानकर तथा जिसका निरन्तर अवलोकन कर योगी - ध्यानस्थ मुनि, अव्यावाध - बाधा रहित अनन्त - अविनाशी और अनुपम - उपमारहित निर्वाण - शुद्ध सुख रूप मोक्ष स्थानको प्राप्त होते हैं । कहा भी है जन्मजरामय - जो जन्म जरा रोग मरण शोक दुःख और भय से रहित है, शुद्ध सुख से युक्त है तथा नित्य है ऐसा निर्वाण - मोक्ष निःश्रेयस कहलाता है । गाथा में आया हुआ 'हवइ' पद भूप्राप्तो धातुका रूप है । भूप्राप्तावात्मनेपदी. इस कथन से उसका आत्मनेपद में प्रयोग होता है ॥ ३ ॥ गाथार्थ - वह आत्मा परमात्मा, अभ्यन्तरात्मा और बहिरात्मा के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें से बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा का ध्यान किया जाता है । है योगिन् ! तुम बहिरात्मा का त्याग करो ||४|| १. रत्नकरण्ड श्रावकाचारे । २. 'परमंतर बाहिरो दु देहोणं' इति पाठ: पं० जयचन्द्र वचनिकायां स्वीकृत: सुष्ठुः च प्रतिभाति । For Personal & Private Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते ५६४ [६.५त्मानं हित्वापरित्यज्य । (तत्थ परो माइज्जइ) तत्र परमात्मा ध्यायते कथं परमात्मा ध्यायते ? ( अंतोबाएण) अन्तरात्मोपायेन भेदज्ञानबलेनेत्यर्थः ( चयहि बहिरप्पा ) त्यज परिहर त्वं हे मुने वहिरप्पा वहिरात्मानं-शरीरमेवात्मेति मत मन्यते वहिरात्मा तमभिप्रायं त्वं त्यजेति तात्पर्यार्थः। अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो। कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ॥५॥ अक्षाणि बहिरात्मा अन्तरात्मा स्फुटं आत्मसंकल्पः। .. कर्मकलंकविमुक्तः परमात्मा भण्यते देवः ॥५॥ (अक्खाणि बाहिरप्पा ) अक्षाणि इन्द्रियाणि बहिरात्मा भवति । ( अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो) अन्तरात्मा हु-स्फुटं मात्मसंकल्पः शरीरकर्मरागद्वेषमोहादिदुःखपरिणामरहितोऽयं ममात्मा वर्तते शरीरे तिष्ठन्नशुद्धनिश्चयनयेन शरीरं न स्पृशति, कर्मबन्धनबद्धोपि सन् कर्मबन्धनबंदो न भवति नलिनीदलस्थितजलवदि. तीदृशं भेदज्ञानं आत्मसंकल्प उच्यते स वात्मसंकल्पो यस्य जीवस्य वर्तते सोऽन्त विशेषार्थ-आत्मा के तीन भेद हैं १ परमात्मा २ अन्तरात्मा ३ बहि: रात्मा । इन तीनोंके लक्षण आगे स्वयं कुन्दकुन्द स्वामी कहेंगे । इनमें से बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के उपाय से-भेदज्ञान के बलसे परमात्मा का ध्यान किया जाता है। हे मुने! तू बहिरात्मा को छोड़ अर्थात् शरीर ही आत्मा है इस अभिप्राय का त्याग कर ||४|| . गाचार्य-इन्द्रियाँ बहिरात्मा हैं, आत्मा का संकल्प अन्तरात्मा है और कर्म-रूपी कलंक से रहित आत्मा परमात्मा कहलाता है। परमात्मा को देव संज्ञा है ॥५॥ विशेषार्थ-यह जोव इन्द्रियों के द्वारा पदार्थ का स्पर्श आदि करता है इसलिये इन्द्रियों को बहिरात्मा कहा है। शरीर कर्म रागद्वेष मोह आदि दुःख रूप परिणामों से रहित मेरा आत्मा अशुद्ध निश्चयनय से यद्यपि शरीर में निवास कर रहा है तथापि शरीर का स्पर्श नहीं करता है, कर्म-बन्धन से बद्ध होनेपर भी बद्ध नहीं है, जैसे कमलिनो के पत्र पर स्थित पानी उस पर स्थित होता हआ भो निलिप्त होने से उससे पयक माना जाता है इसी प्रकार मेरो आत्मा भो शरीर में रहतो हई भी निलिप्त होनेसे उससे पृथक् है, इस प्रकार का भेद-जान आत्म-संकल कहलाता है जिसके यह आत्म-संकल्प होता है वह अन्तरात्मा कहलाता For Personal & Private Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.६] मोक्षप्रामृतम् ५६५ रात्मा वेदितव्यः । ( कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो) कर्मकलङ्कविमुक्तो द्रव्यकर्मभावकमनोकर्मरहितः सिद्धपरमेश्वरो देवः परमात्मा भण्यते अर्हन् परमेश्वरः सामान्यकेवली च परमात्मा कथ्यते तस्य जीवन्मुक्तत्वात् । उक्तं च आत्मन्नात्मविलोपनात्मचरितैरासीर्दुरात्मा चिरं स्वात्मा स्याः परमात्मनीनचरितरात्मीकृतरात्मनः । आत्मेत्यां परमात्मतां प्रतिपतन् प्रत्यात्मविद्यात्मकः स्वात्मोत्थात्मसुखो निषीदवि' लसन्नध्यात्ममध्यात्मना ॥१॥ मलरहिओ कलचत्तो अणिदिओ केवलो विसुद्धप्पा। परमेट्ठी परमजिणो सिवंकरो सासओ सिद्धो॥६॥ मलरहितः कलत्यक्तः अनिन्द्रियः केवलो विशुद्धात्मा । परमेष्ठी परमजिनः शिवङ्करः शाश्वतः सिद्धः ॥६॥ ( मलरहिओ कलचत्तो) मलरहितः कर्ममलकलंकरहितः, कलया शरीरेण त्यक्तः कलत्यक्तः । याकारी स्त्रीकृती ह्रस्वौ क्वचित् यथा इष्टकषितं इषीकतूल है। और जो द्रव्यकर्म भावकर्म तथा नोकम से रहित सिद्ध परमेश्वर है वे परमात्मा कहलाते हैं। अरहन्त परमेश्वर तथा सामान्य केवली भी परमात्मा कहलाते हैं, क्योंकि उनकी जीवन्मुक्त अवस्था है। कहा भी है ___आत्मन्नात्म-आत्मन् ! तू आत्माको लुप्त करने वाले अपने आचार से चिरकाल तक दुरात्मा (दुष्ट स्वभावसे युक्त बहिरात्मा) रहा, अब आत्मस्वरूप किये हुए परमात्मा के चरित से अर्थात् परमात्मा के ध्यान से स्वात्मा ( उत्तम स्वभाव से युक्त-अन्तरात्मा ) हो जा । जिसे आत्मविद्या-आत्मज्ञान प्राप्त हो चुका है, ऐसा तू आत्मा के द्वारा प्राप्त करने योग्य परमात्म-दशाको प्राप्त होता हुआ अपनी आत्मा से ही उत्पन्न होने वाले आत्म-सुखसे सम्पन्न हो अध्यात्मकी भावनासे सुशोभित होता हुआ आत्मामें लीन हो जा ॥५॥ गावार्थ-वह परमात्मा मल रहित है, कला अर्थात् शरीर से रहित है, अतीन्द्रिय है, केवल है, विशुद्धात्मा है, परमेष्ठी है, परम जिन है, शिवकर है, शाश्वत है और सिद्ध है ॥६॥ १. निसीबसी लसन्न म। For Personal & Private Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ षट्प्राभृते [ - ६. ६ मिति । ( अणिदिओ केवली विसुद्धप्पा ) अनिन्द्रिय इन्द्रियज्ञानरहितः केवलज्ञानेन द्रव्यपर्यायस्वरूपं जानन्नित्यर्थः । उक्तं च पुष्पदन्तेन महाकविना सर्वहणु अणदिओ णाणमओ जो मयमुटु न पत्तियइ | सो णिदिओ पंचिदियनिरओ वइतरणिहि पाणिउ पियइ ॥ १ ॥ अथवा -- अणिदिओ - अनंदित इन्द्रधरणेन्द्रनरेन्द्र खगेन्द्रादीनां स्तुत्य इत्यर्थः । उक्तं च सुलोचनाकान्तेन- तुच्छोऽप्युपयात्यतुच्छतां । शुचिशुक्तिपुटेऽम्बु घृतं ननु मुक्ताफल प्रपद्यते ॥ १ ॥ शमिताखिलविघ्नसंस्तवस्त्वयि विशेषार्थ - इस गाथा में श्री कुन्दकुन्द स्वामीने दश विशेषणों के द्वारा परमात्माका निरूपण किया है, जिनका भाव यह है- परमात्मा मलसे रहित है अर्थात् कर्ममल कलंक से रहित है, कला अर्थात् शरीर से रहित होनेके कारण कलत्यक्त अथवा निष्फल है, ईकार और आकार स्त्रीलिङ्ग में कहीं कहीं ह्रस्व भी होते हैं जैसे 'इष्टक चित्तम्' यहाँ पर इष्टिका के बदले इष्टकचितं प्रयुक्त होता है और 'इषीका तुलम्' यहाँ पर इषीका के स्थान पर ह्रस्वान्त ईषीक शब्दका प्रयोग हुआ है। परमात्मा अतीन्द्रिय है अर्थात् इन्द्रिय ज्ञानसे रहित है क्योंकि वह केवलज्ञान के द्वारा द्रव्य और पर्याय के स्वरूप को जानता है । जैसा कि महाकवि पुष्पदन्त ने कहा है सव्वण्हु - परमात्मा सर्वज्ञ अतीन्द्रिय और ज्ञानमय है, ऐसा जो मूढमति मनुष्य श्रद्धान नहीं करता है वह निन्दित है, पंचेन्द्रियों में निरत है तथा मरकर वैतरणी नदी का पानी पीता है अर्थात् नरक जाता है। अथवा 'अणिदियो' की छाया 'अनिन्दितः' है, इस पक्ष में यह अर्थ होता है कि वह परमात्मा अनिन्दित है--निन्दित नहीं है अर्थात् इन्द्र धरणेन्द्र नरेन्द्र तथा विद्याधरेन्द्र आदिका स्तुत्य है । जैसा कि सुलोचना - कान्त-जयकुमार ने कहा है शमिता - आपके विषय में किया हुआ समस्त विघ्नोंको शान्त करने वाला छोटा सा भी स्तवन अतुच्छता - विशालता को प्राप्त होता है, सो ठीक हो है, क्योंकि उज्ज्वल सीप के भीतर रखा हुआ पानी निश्चय से मुक्ताफलपने को प्राप्त होता है । १. विघृतं म० । For Personal & Private Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.६ ] मोक्षप्राभृतम् घटयन्ति न विघ्नकोटयो निकटे त्वत्क्रमयोनिवासिनाम् । पटवोऽपि पदं दवाग्निभिर्भयमस्त्व 'म्बुषि मध्यवर्तिनाम् ॥ २ ॥ हृदये त्वयि सन्निधापिते रिपवः केऽपि भयं विधित्सवः । अमृताशिषु सत्सु सन्ततं विषभेदापितविप्लवः कुतः ॥ ३ ॥ उपयान्ति समस्तसम्पदो विपदो विच्युतिमाप्नुवन्त्यलम् । वृषभं वृषमार्गदेशिनं झषकेतुद्विष मानुषां सताम् ॥ ४ ॥ इत्थं भवंतमतिभक्तिपथं निनीषोः, प्रागेव बन्धकलयः प्रलयं व्रजन्ति । पश्चादनश्वरमयाचितमप्यवश्यं, संपत्स्यतेऽस्य विलसद्गुणभद्रभद्रम् ॥ ५ ॥ ५६७ केवलोसहायः केवलज्ञानमयो वा के परब्रह्मणि निजशुद्धबुद्धैकस्वभावे आत्मनि बलमनन्तवीर्यं यस्य स भवति केवलः, अथवा केवते सेवते निजात्मनि एकलोली घटयन्ति -- बड़े बड़े करोड़ों विघ्न भी आपके चरणों के समीप निवास करने वाले लोगों में अपना स्थान नहीं बना पाते सो ठीक ही है क्योंकि ऐसा होने पर फिर समुद्र के मध्य वास करनेवाले लोगों को भी दावानलसे भय उत्पन्न हो ? हृदये - हृदयमें आपके स्थापित किये जाने पर भय उत्पन्न करने वाले शत्रु कौन होते हैं ? अर्थात् कुछ भी नहीं । सो ठीक ही है क्योंकि अमृतभोजी जनोंके रहते हुए किसी भी प्रकार के विषसे उत्पन्न होने वाला उपद्रव कैसे हो सकता है ? उपयान्ति -- जो इस तरह धर्मका मार्ग बतानेवाले तथा कामके द्वेषी भगवान् वृषभदेव को प्राप्त हुए हैं— उनके शरणागत हुए हैं उन्हें समस्त सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं और विपत्तियां अच्छी तरह नष्ट होती हैं । इत्थं - शोभायमान गुणों से कल्याण करने वाले जिनेन्द्र इस प्रकार • अपने आपको अपने भक्ति के मार्ग में ले जाने के इच्छुक मनुष्य के बन्धसम्बन्धी कलह पहले ही नष्ट हो जाते हैं और पीछे अविनाशी पद बिना याचना किये अवश्य ही प्राप्त होता है । परमात्मा केवल अर्थात् असहाय हैं - दूसरे पदार्थों की सहायता से - आलम्बनता रहित हैं अथवा केवल ज्ञान मय हैं अथवा 'के' परब्रह्मणि १. मस्त्यम्बुधि म० । २. द्विषमेवमायुषां क० द्विषमायुषां म० । ३. एतत् श्लोकपञ्चकं महापुराणस्य ४४ तमे पर्वणि ३५८-३६२ संख्यानं वर्तते । जयकुमारोक्तिरियम | For Personal & Private Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ षट्प्राभूते ६.६भावेन तिष्ठतीति केवलः । विशुद्धात्मा विशेषेण शुद्धः कर्ममलकलंकरहित आत्मा । स्वभावो यस्य स विशुद्धात्मा। (परमेट्ठी परमजिणो ) परमेष्ठी परमजिनः, परमे इन्द्रधरणेन्द्रनरेन्द्रमुनीन्द्रादिवंदिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी पंचपरमेष्ठिरूपः, परमजिणो परा उत्कृष्टा प्रत्यक्षलक्षणोपलक्षिता मा प्रमाणं यस्येति परमः, अथवा परेषां भव्यप्राणिनां उपकारिणी मा लक्ष्मीः समवसरणविभूतिर्यस्येति परमः, अनेकविषमभवगहनदुःखप्रापणहेतून् कर्मारातोन् जयति समूलकाषं कषतीति जिनः परमश्वासी जिनः परमजिनः तीर्थंकरपरमदेवः । ( सिवंकरो ) शिव परममंगलं करोति शिवंकरः, अथवा शिवं मोक्षं करोति भक्तभव्यजीवानां मोक्षं विदधातीति शिवंकरः शिवतातिरपरपर्यायः । निज शुद्ध-बुद्धव-स्वभावे आत्मनि बलमनन्तवोयं यस्य स भवति केवलः इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिनकी के अर्थात् शुद्ध बुद्धक स्वभाव आत्मा में अनन्त बल विद्यमान है उस रूप है अथवा 'केवते सेवते निजात्मनि एकलोलीभावेन तिष्ठतीति केवलः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार निज आत्म-स्वरूप में लीन हैं। __ वह परमात्मा विशुद्धात्मा है अर्थात् उनका आत्म-स्वभाव कर्ममलकलंकसे रहित होने के कारण अत्यन्त शुद्ध है। इन्द्र धरणेन्द्र नरेन्द्र और मनीन्द्रों के द्वारा वन्दित परम उत्कृष्ट पदमें स्थित होनेसे परमात्मा परमेष्ठी कहलाता है। अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु के भेद से परमेष्ठीके पाँच भेद हैं, परमात्मा उन्हीं पंच परमेष्ठी रूप हैं। प्रत्युत्पन्न-ग्राही नेगमनय की अपेक्षा अरहन्त और सिद्ध परमेष्ठी रूप हैं तथा भूतप्रज्ञापन नैगमनय की अपेक्षा आचार्य उपाध्याय और साधु रूप भी हैं। परमात्मा परम जिन हैं 'परा-उत्कृष्टा प्रत्यक्षलक्षणोपेता मा-प्रमाणं यस्य सः' इस समास के अनुसार जो प्रत्यक्ष प्रमाण से युक्त हैं वह परम हैं अथवा 'परेषां भव्यप्राणिनामुपकारिणी मा लक्ष्मीः समवसरणविभूतिर्यस्येति परमः' इस समास के अनुसार जो भव्य जीवोंका उपकार करने वाली लक्ष्मी से सहित हैं वह परम हैं। 'कर्मारातीन् जयतीति जिनः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो संसार के गहन दुःखों को प्राप्त कराने वाले कर्म रूपी शत्रुओं को जीतता है वह जिन है। इस तरह परम-जिनका अर्थ तीर्थकर परम देव है। वह परमात्मा शिवंक है अर्थात् परममङ्गल अथवा मोक्षको प्राप्त करानेवाला है, शाश्वत है, अविनाशी है अथवा 'सासो' के स्थान पर For Personal & Private Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.७] मोक्षप्राभृतम् ५६९ सासबो शश्वद्भवः शाश्वतोऽविनश्वरः । ( सासओ) इति च क्वचित् पाठो दृश्यते तत्रायमर्थः-साशपः भक्तभव्यानां आशापूरणसमर्थ इत्यर्थः । (सिद्धो) सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिविद्यते यस्य स सिद्धः परमनिर्वाणपदमारूढ इत्यर्थः। 'तदुक्तं--तस्य त्रिविधस्यात्मनः स्वरूपं शास्त्रान्तरेऽपि प्रोक्तमस्तीति श्रीकुन्दकुन्दाचार्या निरूपयन्ति आरुहवि अंतरप्पा बहिरप्पा छडिऊण तिविहेण । झाइज्जइ परमप्पा उवइ8 जिणवरिदेहि ॥ ७॥ आरुह्य अन्तरात्मानं बहिरात्मानं त्यक्त्वा त्रिविधेन । ध्यायते परमात्मा उपदिष्टं जिनवरेन्द्रः ॥ ७॥ ( आरुहवि अंतरप्पा ) आरुह्य प्रादुर्भाव्य आश्रित्येति, किं ? अंतरप्पा-- अन्तरात्मानं भेदज्ञानावलम्बनं कृत्वेत्यर्थः। (बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण ) त्रिविधेन मनोवचनकायबंहिरात्मानं त्यक्त्वा । (झाइज्जइ परमप्पा) घ्यायते 'सासवो' पाठ भी कहीं देखा जाता है उस पाठकी अपेक्षा 'साशप' है अर्थात् भक्त भव्य जीवोंकी आशाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं। परमात्मा सिद्ध है अर्थात् स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धि उसे प्राप्त हो चुकी है। ____ इस तरह तीन प्रकारके जोवोंका स्वरूप अन्य शास्त्रों में भी कहा गया है ॥ ६॥ गाथार्य-मन वचन काय इन तीनों योगों से बहिरात्मा को छोड़कर तथा अन्तरात्मा पर आरूढ़ होकर अर्थात् भेदज्ञानके द्वारा अन्तरात्मा का आलम्बन लेकर परमात्मा का ध्यान किया जाता है, ऐसा जिनेन्द्र देवने उपदेश दिया है ॥ ७ ॥ विशेषार्थ-जो शरीर को ही आत्मा मानता है वह बहिरात्मा है, मिथ्यादृष्टि है। इस अवस्था को त्रिविध योग से छोड़कर अन्तरात्मा १. समस्त प्रतियों में 'तत्तं' पाठ है परन्तु उसके आगे कोई गाथा उद्घत नहीं है । ऐसा जान पड़ता है कि 'आरुहवि'--आदि गाथा ही उद्धृत गाथा है क्योंकि यह गाथा न०४ की गाथासे गतार्थ हो जाती है । संस्कृत टीकाकार ने इसे मूल ग्रन्थ समझ कर इसकी टीका कर दी है। इसलिये यह मूल में शामिल हो गई। यह गाथा कहां की है, इसकी खोज आवश्यक है। For Personal & Private Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० षट्प्राभूते [ ६.८ अहर्निशं चित्यते, कौऽसौ ? परमात्मा निश्चयनयेन कर्ममलकलङ्करहितः सिद्धस्वरूपः निजपरमात्मा ध्यायते अर्हत्सिद्धस्वरूपोऽवलोक्यते द्विविधमभ्यासं कुर्वाणो मुनिः परमात्मानमेव प्राप्नोति - - अर्हत्सिद्धसदृशो भवति । तथा चोक्तं'आत्मा मनीषिभिरयं त्वदभेदबुद्ध्या घ्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं किं नाम नो विषविकारमपाकरोति ॥१॥ ( उवट्ठ' जिणर्वारिदेहि ) उपदिष्टं प्रतिपादितं । कैः, जिनवरेन्द्रः श्रीमद्ः भगदहंत्सर्वज्ञवीतरागेरिति शेषः । बहिरत्ये फुरियमणो इंदियदारेण णियसरूवचुओ । णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठीओ ॥८॥ बहिरर्थे स्फुरितमना इन्द्रियद्वारेण निजस्वरूपच्युतः । निजदेहं आत्मानमध्वस्यति मूढदृष्टिस्तु ॥ ८ ॥ बनना चाहिये अर्थात् भेदज्ञानका आलम्बन कर शरीरसे भिन्न आत्माका अनुभव करना चाहिये, अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि है । इस तरह अन्तरात्मा बनकर परमात्मा का ध्यान करना चाहिये । निश्चयनय से परमात्मा कर्ममल कलंक से रहित सिद्ध स्वरूप है । जो अर्हन्त और सिद्धका स्वरूप है वही मेरा स्वरूप है, इस प्रकार ध्यान करना चाहिये। ऐसा ध्यान करने वाला मुनि परमात्मा को प्राप्त कर लेता है अर्थात् स्वयं अर्हन्त सिद्ध स्वरूप हो जाता है । . जैसा कि कहा गया है— आत्मा - हे भगवन् ! विद्वानोंके द्वारा आपसे अभिन्न मानकर ध्यान किया हुआ आत्मा आपके ही समान प्रभाव वाला हो जाता है सो ठीक ही है क्योंकि 'यह अमृत है' इस प्रकार ध्यान किया हुआ पानी भी क्या विषके विकार को दूर नहीं कर देता ? अर्थात् अवश्य कर देता है । परमात्म- अवस्था को प्राप्त करने का यह मार्ग जिनेन्द्र भगवान् वीतराग सर्वज्ञ देवने कहा है ॥ ७ ॥ गाथार्थ - बाह्य पदार्थों में जिसका मन स्फुरित हो रहा है तथा इन्द्रिय रूप द्वारके द्वारा जो निज स्वरूप से च्युत हो गया है ऐसा मूढदृष्टि - बहिरात्मा पुरुष अपने शरीर को ही आत्मा समझता है ||८|| १. कल्याणमन्दिरस्तोत्रे कुमदचन्द्रस्य । For Personal & Private Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.९] मोक्षप्राभृतम् ५७१ ( बहिरत्थे फुरियमणो ) बहिरर्थे इष्टवनितासुतस्वापतेयादौ स्फुरितं चमत्कृतं मनो यस्य स इष्टार्थे स्फुरितमनाः । ( इंदियदारेण णियसरूवचुओ ) इन्द्रियद्वारेण इन्द्रियेषु प्रविश्य, निजस्वरूपच्युत आत्मभावनायाः प्रभृष्टः । ( णियदेहं अप्पाणं ) निजदेहं स्वकीयशरीरं आत्मानमध्यवस्यतीति सम्बन्धः - शरीरमात्मानं जानातीत्यर्थः । ( अज्झवसदि मूढदिट्ठीओ ) अध्यवस्यति मूढदृष्टिस्तु ममायं काय आत्मनि जानाति मूढदृष्टिहिरात्मेतिभावार्थ: । णियदेहसरिस्सं पिच्छिऊण परविग्गहं पयज्ञेण । अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ 'परमभाए ॥ ९ ॥ निजदेहसदृक्षं दृष्ट्वा परविग्रहं प्रयत्नेन । अचेतनमपि गृहीतं ध्यायते परमभावेन ।। ९ ।। ( णियदेहसरिस्सं पिच्छिऊण ) निजदेहसदृक्षं सदृशं पिच्छिऊण दृष्ट्वा । ( परविग्गहं पयत्तेण ) परविग्रहं इष्टवनितादिशरीरं पयत्तेण -- प्रयत्नेन मलमूत्र - शुक्ररुधिरमांसकीकसचर्मरोमादिदुर्गन्धापवित्रादिपरिणामभावेन । ( अच्चेयणं प गहियं ) अचेतनमपि आत्मना गृहीतं जोवेन स्वीकृतं । ( झाइज्जइ परमभाएण ) विशेषार्थ - इस गाथामें बहिरात्मा जोवकी प्रवृत्तिका वर्णन करते हुए श्री कुन्दकुन्द स्वामी लिखते हैं कि जिसका मन इष्ट स्त्री पुत्र तथा धन आदिमें चमत्कार को प्राप्त हो रहा है तथा इन्द्रिय-सम्बन्धी विषयों में आसक्त होकर जो निज रूपसे च्युत हो गया है अर्थात् आत्माकी भावना से भृष्ट हो गया है ऐसा मूढ़ दृष्टि मनुष्य निज शरीरको ही आत्मा मान बैठता है ॥ ८ ॥ गाथार्थ - ज्ञानी मनुष्य निज-शरीर के समान पर शरीर को देखकर भेद ज्ञान पूर्वक विचार करता है कि देखो इसने अचेतन शरोरको भी प्रयत्नपूर्वक ग्रहण कर रक्खा है ॥ ९ ॥ विशेषार्थ - ज्ञानी जीव भेद ज्ञान -पूर्वक ऐसा विचार करता है कि जिस प्रकार मेरा शरीर मल मूत्र शुक्र रुधिर मांस हड्डी चर्म रोग आदि दुर्गन्ध युक्त अपवित्र पदार्थों से भरा हुआ है तथा अचेतन है, उसी प्रकार पर का शरीर भी अपवित्र वस्तुओं से भरा तथा जड़ रूप है परन्तु मोहो जीव उसे प्रयत्नपूर्वक ग्रहण किये हुए है । यहाँ संस्कृत टीकाकार ने 'परमभाण' की छाया 'परमभागेन' स्वीकृत की है और उसका अर्थ 'शरीर भिन्न है तथा आत्मा भिन्न है' ऐसा ज्ञान लिया है। १. मिच्छभावेण, ग० घ० अन्यत्र च । For Personal & Private Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ ___षट्प्रामृते [६.१०ध्यायते शरीरस्वरूपं चिन्त्यत परमभागेन पृथक्तया भेदज्ञानेन-शरीर भिन्न आत्मा भिन्नी वर्तते इति भेद कृत्वेत्यर्थः । तथा चोक्त आत्मा भिन्नस्तदनुगतिमत् कर्म भिन्नं तयोर्या प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः सापि भिन्ना तथैव । कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्न मतं मे । भिन्न भिन्नं निजगुणकलालङ्कृतं सर्वमेतत् ॥ १॥ ... सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं । . सुयदाराईविसए मणुयाणं वड्ढए मोहो ॥१०॥ स्वपराध्यवसायेन देहेषु च अविदितार्थमात्मानम् । सुतदारादिविषये मनुजानां वर्धते मोहः ॥ १० ॥ ( सपरज्झवसाएणं ) स्वपराध्यवसायेन परवस्तुशरीरादिकं स्वमात्मानं मन्यते स्वपराध्यवसायः । केषु पदार्थेषु, ( देहेसु य) शरीरेषु च, चक्रराद्वनितादिषु च, . शरीरं वनितासुतस्वापतेयादिकं वस्तु खलु परकीयं वर्तते तत्र। (अविदिदत्थं ) जैसा कि कहा है आत्मा-आत्मा भिन्न है, उसके साथ लगे हुए कर्म भिन्न हैं, आत्मा और कर्म की प्रत्यासत्ति-एक क्षेत्रावगाह से जो विकार उत्पन्न हुआ है वह भी भिन्न है । आत्माका काल तथा क्षेत्र आदि भिन्न हैं तथा आत्मगुणों की कला से अलंकृत जो कुछ है वह सब भिन्न भिन्न है। [ इस गाथाके 'परमभाएण' पाठकी छाया पं० जयचन्द्र जी ने 'परमभावेन' स्वीकृत की है और उसका अर्थ परम भाव लिया है। अन्य कितनो ही प्रतियों में 'परमभाएण' के स्थान पर 'मिच्छभावेण' पाठ है । इस पाठ से गाथा का अभिप्राय ही दूसरा हो जाता है उससे गाथा में ज्ञानी जीव के विचार को चर्चा न होकर अज्ञानी जीव की चर्चा दिखने लगती है। यह जीव मिथ्या भावके कारण बहिरात्मा बनकर अपने शरीर के समान इष्ट स्त्री आदि परके शरीरको भी आत्मा मानता है तथा प्रयत्नपूर्वक उनमें राग भाव करता है ] गाथार्थ-स्व-पराध्यवसाय के कारण अर्थात् परको आत्मा समझने के कारण यह जोव अज्ञान-वश शरीरादिको आत्मा मानता है। इस विपरीत अभिनिवेश के कारण ही मनुष्यों का पुत्र तथा स्त्री आदि विषयों में मोह बढ़ता है ॥१०॥ For Personal & Private Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. १०] मोक्षप्राभृतम् ५७३ अविदितार्थ यथावत्स्वरूपपरिज्ञानरहितार्थ यथा भवत्येवं वर्तमान आत्मा । (अप्पाणं) इति जीवः आत्मानं जानीते तच्च देहादिकं वस्तु आत्मा न भवति । तेन विपरीताभिनिवेशेन (सुयदाराईविसए) सुतदारादिविषये पुत्रकलत्रादिषु । ( मणुयाणं वड्ढए मोही ) मनुजानां मानवानां वर्धते मोहः-स्नेहेनाज्ञानमूलं मोहो वैचित्त्यं वृद्धि याति, मोहेन परिणतो जीवो बहिरात्मा पुनः कर्माण्यष्टौ बध्नाति । उक्तं च 'जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गला कर्मभावेन ॥ १॥ विशेषार्थ-'स्वम् इति परस्मिन् अध्यवसायः स्वपराध्यवसायः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'यह आत्मा है' इस प्रकार पर पदार्थों में जो निश्चय होता है वह स्वपराध्यवसाय कहलाता है । 'अविदितोऽर्थो यस्मिन् कर्मणि तत् अविदितार्थ यथावत् स्वरूप परिज्ञानरहितार्थं यथास्यात् तथा' इस समास के अनुसार अविदितार्थ क्रिया-विशेषण है। 'जीवः' इस कर्तृ पदको ओर 'जानीते' इस क्रिया पद की ऊपर से योजना करनी चाहिये । इस तरह गाथा का अर्थ होता है कि यह जीव पर पदार्थ में आत्म-बुद्धि होनेके कारण अज्ञानी होता हुआ शरीरादि पर वस्तुओंका आत्मा जानता है। इसी विपरीताभि-निवेश-मिथ्या अभिप्रायसे मनुष्यों का पुत्र तथा स्त्री आदि में मोह बढ़ता है। मोह रूप परिणत हुआ जीव बहिरात्मा कहलाता है तथा बहिरात्मा होकर यह जीव आठ कर्म बांधता है। जैसा कि कहा है जीवकृत-जीवके द्वारा किये हुए रागादि परिणाम को निमित्त मात्र प्राप्त करके जीवसे भिन्न पुद्गल द्रव्य स्वयं ही कर्म-रूप परिणत होजाते है। यहाँ पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्म रूप परिणत होजाते हैं, इससे आचार्य ने यह भाव सूचित किया है कि कर्मका उपादानकारण पुद्गल द्रव्य है क्योंकि वह स्वयं कर्म रूप परिणत होता है परन्तु पुद्गल द्रव्यका कर्म रूप परिणमन अनिमित्तक न होकर जीवके रागादि परिणाम-निमित्तक है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका उपादान कारण नहीं हो सकता क्योंकि एक अव्यका दूसरे द्रव्य में अत्यन्ताभाव होता है परन्तु निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध दो भिन्न द्रव्यों में भी होता है इसीलिये पुरुषार्थसिद्धयुपायके इस श्लोकमें श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने पुद्गल द्रव्यके कर्म रूप परिणमन में जीवके रागादि भावोंको निमित्त कारण माना है और 'परिणममानस्य या सिधुपाये। ...... .......... .:. For Personal & Private Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ ६. ११-१२ मिच्छाणाणेस रओ मिच्छाभावेण भाविओ संतो । मोहोदएण पुणरवि अंगं सं मव्णए मणुओ ॥ ११ ॥ मिथ्याज्ञानेषु रतः मिथ्याभावेन भावितः सन् । मोहोदयेन पुनरपि अङ्गं स्वं मन्यते मनुजः ।। ११ ।। ( मिच्छाणाणेषु रओ) मिथ्याज्ञानेषु रतोऽयं मनुजो जीवः । ( मिच्छाभावेण भाविओ संतो) मिथ्यापरिणामेन कुगुरुकुदेवभक्त्या भावितो वासितः सनः । ( मोहोदएण पुणरवि ) मोहोदयेन मिथ्यामोहस्य त्रिविधस्योदयेन विपाकेन, पुनरपि भूयोऽपि । ( अंगं सं मण मणुओ ) अंगं शरीरं, स्वमात्मानं मन्यते जानाति, मनुज मनुष्यो मिथ्यादृष्टिजीव इत्यर्थः । जो देहे णिरवेक्खो णिहंदो णिम्ममो णिरारम्भो । आवसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥ १२॥ यो देहे निरपेक्षः निर्द्वन्द्वः निर्ममः निरारम्भः । आत्मस्वभावे सुरतः योगी स लभते निर्वाणम् ॥ १२ ॥ ५७४ चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः । भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिक कर्म तस्यापि । इस पद्य में जीवके रागादि रूप परिणमन में पौद्गलिक कर्म को निमित्त कारण माना है । एकान्त से मात्र उपादान का पक्ष लेकर वर्णन करनेसे लोक- प्रचलित-निमित्त नैमित्तिक भाव तथा शास्त्र-वर्णित षट्द्रव्योंका उपकार्य उपकारक भाव विरुद्ध जान पड़ने लगता है । अतः अनेकान्त की दृष्टि से ही पदार्थ का वर्णन करना संगत है ॥ १०॥ 1 गाथार्थ - यह मनुष्य मोहके उदय से मिथ्याज्ञान में रत है तथा मिथ्याभाव से वासित होता हुआ फिर भी शरीर को आत्मा मान रहा है ॥११॥ विशेषार्थ - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति के भेदसे मोहके तीन भेद हैं । इस तीन प्रकारके मोहके उदयसे यह जीव मिथ्याज्ञानमें रत हो रहा है - मिथ्याशास्त्रों के अध्ययनादि में प्रवृत्त हो शुद्धबुद्धेक-स्वभाव आत्मज्ञान से विमुख हो रहा है तथा कुगुरु कुदेव आदि की भक्ति रूप मिथ्या परिणाम की भावना से वासित होता हुआ शरीर को फिर भी आत्मा मान रहा है अर्थात् इस जीवकी मिथ्याबुद्धि हट नहीं रही है। गाथार्थ - जो शरीर में निरपेक्ष है, द्वन्द्व-रहित है, ममता रहित है, For Personal & Private Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ पट्नाभूते [५. १२(आदसहावे सुरओ) आत्मस्वभावे टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावचिच्चमत्कारलक्षणनिजशुद्धबुद्धकपरिणामे जीवतत्वे सुष्ठु-अतिशयेन रत एकलोलीभावः । ( जोई सो लहइ णिव्वाणं) य एवंविधो योगी शुद्धोपयोगरतो मुनिः स लभते निर्वाणं, सर्वकर्मक्षयलक्षणोपलक्षितं मोक्षं लभते प्राप्नोति । अथवा जोई सो योगो ध्यानं विद्यते यस्य स योगी योगिनामीशो यागीश इत्यनेन गृहस्थस्य स्त्रियाः परलिंगे च मुक्तिनं भवतीति सूत्रितं ज्ञातव्यं । उक्तं च साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चिन्तानिरोधनम् । शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचकाः ॥१॥ कथं गृहस्थस्य मुक्तिनं भवतीति चेत् ? खणनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भः प्रमार्जनी । पंच सूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति ॥ १॥ और जो टोत्कीर्ण एक-मात्र ज्ञायकस्वभाव, चैतन्य-चमत्कार लक्षण से युक्त, निज शुद्ध-बुद्धक परिणाम जीव तत्व में अतिशय से लीन है वह योगी शुद्धोपयोग में रत होता हुआ सर्व कर्मक्षय लक्षणसे सहित मोक्षको प्राप्त होता है। अथवा 'योगो ध्यानं विद्यते यस्य स योगी योगिनामीशो योगीशः' इस समास के अनुसार ध्यानी मुनियों का स्वामी-उत्कृष्ट मुनि ही मोक्षको प्राप्त होता है, ऐसा अर्थ लेना चाहिये। ऐसा अर्थ करनेसे गृहस्थ के स्त्री के तथा दिगम्बर मुद्रा के सिवाय अन्यवेष के धारक साधु के मोक्ष नहीं होता है यह भाव सूचित होता है । कहा भी है साम्यं-साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चिन्ता-निरोध और शुद्धोपयोग ये सब एकाथं के वाचक हैं। प्रश्न-गृहस्थ के मुक्ति क्यों नहीं होती है ? उत्तर-गृहस्थ के कूटना, पीसना, चूला सुलगाना, पानी के घट भरना और बुहारी लगाना ये पाँच हिंसा के कार्य होते हैं अतः वह मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। इसो प्रकार स्त्रियों की भी मुक्ति नहीं होती क्योंकि उनके महाव्रतका अभाव है। प्रश्न-स्त्रियों के महाव्रत का अभाव क्यों है ? उत्तर-क्योंकि उनकी कोखरियों में, स्तनों के बीच में, नाभि में और योनि में जोवों की उत्पत्ति तथा विनाश रूप हिंसा होती रहती है, उनके निःशङ्कपनेका अभाव है तथा वस्त्र रूप परिग्रह का त्याग भी नहीं For Personal & Private Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. १२ ] मोक्षप्राभूतम् ५७५ ( जो देहे णिरवेक्खो ) यो योगी देहे शरीरे निरपेक्ष उदासीनो ममत्वेन च्युतः । ( हिंदी निम्ममो निरारंभो ) निर्द्वन्द्वो निष्कलहः केनापि सह कलहर - हित । अथवा निर्द्वन्द्वो नियुग्मः स्त्रीभोगरहितः "द्वन्द्वं कलहयुग्मयोः" इति वचनात् । निर्ममो ममत्वरहितः, ममेति अदन्तोऽव्ययशब्दः निर्गतं ममेति परिणामो यस्येति निर्ममः । उक्तं च 'अकिंचनोऽहमित्यास्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः । योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥ १ ॥ निरारंभ: सेवाकृषिवाणिज्यादिकमंरहितः । उक्तं च आरंभे णत्थि दया महिलासंगएण णासए बंभं । संकाए सम्मत्तं पव्वज्जा अत्थगहणेण ॥ १ ॥ आरम्भ रहित है और आत्म-स्वभाव में सुरत है - संलग्न है, वह योगी निर्वाणको प्राप्त होता है ॥ १२ ॥ | विशेषार्थ - जो योगी शरीर में निरपेक्ष है - उदासीन है । निर्द्वन्द्वकलह रहित है अथवा 'द्वन्द्वै कलहयुग्मयो:' इस कोशके वचन के अनुसार द्वन्द्वका अर्थ स्त्री पुरुषका युगल भी होता है, अतः निर्द्वन्द्व है - अर्थात् स्त्री भोग रहित है । निर्मम है अर्थात् ममता भाव से रहित है । 'मम' यह अदन्त अव्यय शब्द है उसका अर्थ 'यह मेरा है' इस प्रकार का परिणाम है। योगी निर्मम होता है अर्थात् मम परिणामों से सबंधा रहित है जैसा कि कहा है--- अकचिनोऽहं - हे आत्मन् ! 'मैं अकिञ्चन हूँ - मेरा मेरे पास कुछ नहीं है' यह विचार कर तुम चुपचाप बैठ जाओ क्योंकि ऐसा करने से तुम तीन लोक अधिपति हो सकते हो। मैंने परमात्मा का यह योगिगम्य रहस्य तेरे लिये कहा है । 4 जो योगी निरारम्भ है अर्थात् सेवा कृषि वाणिज्य आदि कार्योंसे रहित है। कहा है। आरंभ - आरम्भ में दया नहीं है, स्त्रियों की संगति से ब्रह्मचर्यं नष्ट हो जाता है, शङ्का से सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है और धन के ग्रहण करने से प्रव्रज्या - दीक्षा नष्ट हो जाती है ! बास्मानुशासने । For Personal & Private Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. १२] मोक्षप्राभृतम् ५७७ तथा स्त्रीणामपि मुक्तिर्न भवति महाव्रताभावात् । तदपि कस्मान्न भवति ? कक्षयोः स्तनयोरन्तरे नाभौ योनौ च जीवानामुत्पत्तिविनाशलक्षणहिंसासद्भावात्, निःशंकत्वाभावात्, वस्त्रपरिग्रहात्यजनात्, अहमिन्द्रपदमपि न लभन्ते कथं निर्वाणमिति हेतोश्च । यदि च स्त्रियोमुक्ता भवन्ति तर्हि तत्पर्यायमूर्तयः कथं न पूज्यन्ते । सर्वथा दुर्मतं विहाय पुरुषस्यैव मुक्तिमन्तव्येति भावः । परलिंगे च मुक्तिनं भवति मिथ्यात्वदूषितत्वात्, दण्डकमण्डलुमृगचर्मकर्माशर्मकारणात् । तद्विस्तरेण प्रमेयकमलमार्तण्डादिषु शास्त्रेषु ज्ञातव्यं । सज्जातिज्ञापनार्थ स्त्रीणां महाव्रतान्युपचर्यन्ते न परमार्थतस्तासां महाव्रतानि सन्ति तेन मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्परं वन्दनापि न युक्ता । यदि ता वन्दन्ते तदा मुनिभिर्नमोऽस्त्विति न वक्तव्यं, किं तहि वक्तव्यं ? समाधिकर्मक्षयोस्त्विति । ये तु परस्परं मत्थएण वंदामीति आर्याः प्रतिवन्दन्ति तेऽप्यसंयमिनो ज्ञातव्याः । दिगम्बराणां मते या नीतिः कृता सा प्रमाणमिति मन्तव्यं । उक्तं च वरिससदिक्खियाए अज्जाए अज्ज दिक्खिओ साहू ।। अभिगमण वंदण नमसणेण विणएण सो पुज्जो ॥१॥ होता है । एक हेतु यह भी है कि स्त्रियाँ अहमिन्द्र पद भी नहीं प्राप्त कर सकती हैं फिर मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकती हैं ? यदि स्त्रियां मुक्त होती हैं तो उस पर्यायकी मूतियाँ क्यों नहीं पूजी जाती हैं ? अतः सब प्रकारके दुराग्रह को छोड़कर पुरुष की ही मुक्ति होती है, ऐसा मानना चाहिये । - अन्य लिङ्ग में भी मुक्ति नहीं होती क्योंकि वह मिथ्यात्व से दूषित है .: तथा दण्ड कमण्डलु मृगचर्म और आरम्भ आदिके कार्यों से दुःख का कारण है। इसका विस्तार से वर्णन प्रमेय-कमल-मार्तण्ड आदि शास्त्रों में : जानना चाहिये। सज्जातित्व बतलाने के लिये स्त्रियों के महाव्रतों का उपचार होता है, - परमार्थ से उनके महाव्रत नहीं होते। इसलिये मुनि और आर्यिका को परस्पर वन्दना करना युक्त नहीं है । यदि आर्यिकाएं वन्दना करती हैं तो मुनियों को 'नमोऽस्तु' नहीं कहना चाहिये किन्तु 'समाधिकर्मक्षयोऽस्तु'समाधि के द्वारा कर्मोंका क्षय हो, ऐसा कहना चाहिये। इतना होने पर भी जो परस्पर 'मत्थएण वंदामि'-मस्तकसे वन्दना करता हूँ, यह कह कर आयिकाओं को बदले में वन्दना करते हैं वे भी असंयमी हैं, ऐसा जानना चाहिये। दिगम्बरों के मत में जो नीति प्रचलित है उसे ही प्रमाण मानना चाहिये । कहा भी है परिसलय-आर्या सौ वर्ष की भी दीक्षित हो और साधु आज ही For Personal & Private Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते इति गाथा अप्रमाणं भवति यदि स्त्रीणां मुक्तिः स्यात् । परदव्वरओ बज्झइ विरओ मुच्चेइ विविहम्मेहि । एसो जिणउवएसो समासओ बन्धमोक्खस्स ॥ १३॥ ५७८ [ ६.१३ परद्रव्यरतः बध्यते विरतः मुञ्चति विविधकर्मभिः । एष जिनोपदेश: समासतः बन्धमोक्षस्य ॥१३॥ ( परदव्वरओ बज्झइ ) परद्रव्यं शरीरादिकं तत्र रतो बध्यते बन्धनं प्राप्नोति चौरवत्, यथा चौरः परद्रव्यं चोरयन् पुमान् राजलोकैर्बध्यते यो न परद्रव्यं चोरयति स न बध्यते । ( विरओ मुच्चेइ विविहकम्मेहि ) विरतः परद्रव्यपराङमुखः पुमान् मुच्यते - मुक्तो भवति विविधैर्नानाप्रकारैः कर्मभिर्ज्ञानावरणादिभि: । ( एसो जिउवएसो ) एष जिनोपदेशः । ( समासओ बंधमोक्खस्स ) समासतः संक्षेपात्, बन्धमोक्षस्य बन्धेनोपलक्षितो मोक्षो बन्धमोक्षः तस्य बन्धमोक्षस्य । अथवा बन्धश्च मोक्षश्च बन्धमोक्षं समाहारद्वन्द्वस्तस्य । दीक्षित हुआ हो तो भी आर्या के द्वारा साधु संमुख गमने करना, वन्दना, नमस्कार और विनय के द्वारा पूजनीय होता है। यदि यह गाथा अप्रमाण है तो स्त्रियों की मुक्ति हो सकती है ॥१२॥ गाथार्थ - पर - द्रव्यों में रत पुरुष नाना कर्मोंसे बन्धको प्राप्त होता है और पर-द्रव्यों से विरत पुरुष नाना कर्मों से मुक्त होता है, बन्ध और मोक्ष के विषय में जिनेन्द्र भगवान् का यह संक्षेप से उपदेश है || १३|| विशेषार्थ - जिस प्रकार पर द्रव्य को चुराने वाला चोर पुरुष राजपुरुषों के द्वारा बद्ध होता है - बाँधा जाता है और जो पर- द्रव्यको नहीं चुराता है वह बद्ध नहीं होता, उसी प्रकार शरीरादि पर द्रव्यमें लीन रहने वाला पुरुष नाना प्रकार के ज्ञानावरण आदि कर्मोंसे बन्ध को प्राप्त होता है और पर-द्रव्य से पराङमुख रहने वाला पुरुष नाना प्रकार के ज्ञानावरणादि कर्मों से मुक्त होता है, बन्ध और मोक्षके विषय में जिनेन्द्र भगवान् का यह संक्षेप से उपदेश है । प्रश्न - - यहाँ 'बन्धश्च मोक्षश्च बन्धमोक्षौ तयोः ' इस प्रकार इतरेतर योग द्वन्द्व समास करने पर द्विवचन होना चाहिये एकवचन का प्रयोग तयों हुआ ? उत्तर-- यहाँ इतरेतर योग न करके 'बन्धेन मोक्षः बन्धमोक्षः तस्य' इस प्रकार मध्यम पद लोपो तत्पुरुष समास करने से द्विवचन रखने की For Personal & Private Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७९ -६. १४-१५] मोक्षप्राभृतम् सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण । सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुदृट्ठकम्माणि ॥१४॥ स्वद्रव्यरतः श्रमणः सम्यग्दृष्टिर्भवति नियमेन । सम्यक्त्वपरिणतः पूनः क्षियते दुष्टाष्टकर्माणि ॥ १४ ॥ ( सद्दव्वरओ सवणो ) स्वद्रव्यरतः श्रवण आत्मस्वरूपे तन्मयभूतो दिगम्बरः । ( सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण ) सम्यग्दृष्टिर्भवति नियमेन निश्चयेन, अत्र सन्देहो नास्ति । सम्यग्दर्शनस्य आत्मपरिणामत्वेन सूक्ष्मत्वात्, चक्षुरादीन्द्रियाणामगोचरत्वात् । ( सम्मतपरिणदो उण ) सम्यक्त्वपरिणतः पुनः । (खवेइ दुट्ठकम्माणि) क्षिपते दुष्टानि अष्टकर्माणि ज्ञानावरणादीनि । जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्टी हवेइ सो साहू । मिच्छत्तपरिणदो उण बज्झदि दुट्ठकम्मेहि ॥१५॥ यः पुनः परद्रव्यरतः मिथ्यादृष्टिर्भवति स साधुः । मिथ्यात्वपरिणतः पुनः बध्यते दुष्टाष्टकर्मभिः ॥१५।। ( जो पुण परदव्वरओ ) यः पुनः साधुः परद्रव्यरत इष्टवनितादिरतः स्तनजघनवदनलोचनादि विलोकनादिलम्पटः । (मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहू ) मिथ्यादृष्टिर्भवति संजायते साधुः जिनलिंगोपजीवी । (मिच्छत्तपरिणदो उण ) मिथ्यात्व— आवश्यकता नहीं है अथवा 'बन्धश्च मोक्षश्च अनयोः समाहारः' इस प्रकार समाहार द्वन्द्व करने से नपुंसकलिङ्ग तथा एकवचन का प्रयोग . व्याकरण से सिद्ध है ॥१३॥ गाथार्थ--स्वद्रव्य में रत साधु नियम से सम्यग्दृष्टि होता है और सम्यक्त्वरूप परिणत हुआ साधु दुष्ट आठ कर्मोको नष्ट करता है ॥१४॥ . विशेषार्थ-आत्म स्वरूप में तन्मय रहने वाला दिगम्बर साधु निश्चय से सम्यग्दृष्टि होता है इसमें संशय नहीं है। सम्यग्दर्शन आत्मा की परिणति होनेसे सूक्ष्म है तथा चक्षुरादि इन्द्रियों का अविषय है। सम्यक्त्वरूप परिणत हुआ साधु ज्ञानावराणादि आठ दुष्ट कर्मोको खिपाता हैनष्ट करता है ।।१४|| - गायार्थ-जो साधु परद्रव्य में रत है वह मिथ्यादृष्टि होता है और मिथ्यात्व रूप परिणत हुआ साधु दुष्ट आठ कर्मोंसे बन्धन को प्राप्त होता है ॥१५॥ .. १. लोचनादिकायादिविलोकन मः । For Personal & Private Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० षट्प्राभृते [ ६. १६परिणतः पुनः मिथ्यादर्शने वासितो मुनिः ( वज्झदि दुट्ठकम्मेहिं ) बध्यते दुष्टाष्टकर्मभिः । उक्तं च कम्मइं दिढघणचिक्कणई गरुयई वज्जसमाई। णाणवियक्खणजीवडउ उप्पहि पाडहि ताई ॥१॥ इति कारणात् कर्माणि दुष्टत्वविशेषणविशिष्टत्वं लभन्ते । परदव्वादो दुगई सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ । इय णाऊण सदव्वे कुणह रई विरइ इयरम्मि ॥१६॥ परद्रव्यात् दुर्गतिः स्वद्रव्यात् स्फुटं सुगतिः भवति । इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रति विरतिमितरस्मिन् ॥१६॥. . (परदव्वादो दुगई ) परद्रव्यादुर्गतिः परमात्मध्यानं परिहत्य परद्रव्ये परिगमनान्नरकादिषु चतसृषु गतिषु पतनं हे जीव ! तव भवति । ( सहव्वादो हु सुग्गई हवइ) स्वद्रव्यादात्मद्रव्ये एकलोलीभावात् सम्यक्त्रदानज्ञानानुचरणात् सुगतिर्भवति मुक्तिर्भवति । ( इय णाऊण सदन्वे ) इति ज्ञात्वा इदृशमयं परिमाय स्वद्रव्ये आत्मतत्वे । (कुणह रई बिरइ इयरम्मि) कुरुत यूयं रति भावनां, विरति विरमणं, इतरस्मिन् परद्रव्ये, मा रज्यत यूयमिति । विशेषार्थ जो साधु इष्ट स्त्री आदि पर-द्रव्य में रत है अर्थात् उनके स्तन जघन मुख नेत्र आदि के देखने में लम्पट है वह मिथ्यादृष्टि है अर्थात् जिनलिन धारण कर मात्र आजीविका करता है और मिष्यात्व रूप परिणत अर्थात् मिथ्यादर्शन की वासना रखने वाला साघु आठ दुष्ट कर्मोसे बैधता है। कहा भी है कम्मई-कर्म अत्यन्त मजबूत चिकने, भारी और वज़ के समान हैं वे इस मानी जीवको भी कुमार्ग में डाल देते हैं। इसी कारण कर्म दुष्ट विशेषण को प्राप्त हैं ॥१५॥ गाथार्य-परद्रव्य से दुर्गति और स्वद्रव्य से निश्चित ही संगति होती है ऐसा जानकर स्वद्रव्य में रति करो और परद्रव्य में विरति करो॥१६॥ विशेषार्थ-परमात्म-द्रव्यको छोड़कर परद्रव्यमें परिणमन करने सेउनमें तल्लीनता बढ़ाने से जीव ! तेरा नरकादि चारों गतियोंमें पतन होता है और स्वद्रव्य अर्थात् आत्म-द्रव्य में तन्मयो भाव रूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्वारित्रसे सुगति होती है-मुक्ति को प्राप्ति होतो है ऐसा जातकर तू आत्मद्रव्यमें रति कर और परदूव्यसे विरति कर अर्थात् उसमें राग मत कर ॥१६॥ For Personal & Private Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. १७-१८] मोक्षप्राभृतम् ५८१ त परदव्वं सदव्वं च केरिसं हवदि । तं जहातत्परद्रव्यं स्वद्रव्यं च कीदृशं भवति । तद्यथा-तदेव निरूपयंत्याचार्याः आदसहावादणं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवदि । तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरसोहि ॥१७॥ आत्मस्वभावादन्यत् सचित्ताचत्तिमिश्रितं भवति । तत् परद्रव्यं भणितं-अवितथं सर्वदर्शिभिः ॥१७॥ ( आदसहावादण्णं ) आत्मस्वभावादन्यत् पुद्गलादिद्रव्यं । ( सच्चिताचित्तमिस्सियं हवदि ) सचित्तं विद्यमानचेतनं इष्टवनितादिकं अचित्तं अचेतनं घनकनकवसनादिकं, मिश्रितं आभरणवस्त्रादिसंयुक्तं कलत्रादिकं भवति । ( तं परदवं भणियं ) तत्परद्रव्यं भणितं-आगमे प्रतिपादितं । ( अवितत्थं सव्वदरिसीहिं ) अवितथं सत्यरूपं सर्वदर्शिभिः श्रीमद्भगवत्सर्वज्ञवीतरागैरिति शेषः ॥ दुटुकम्मरहियं अणोवमं णाणविग्गहं णिच्चं । सुद्धं जिणेहि कहियं अप्पाणं हदि सद्दव्वं ॥१८॥ दुष्टाष्टकर्मरहितं अनुपमं ज्ञानविग्रह नित्यम् ।। शुद्धं जिनः कथित आत्मा भवति स्वद्रव्यम् ॥१८॥ (दुद्रुकम्मरहियं ) दुष्टाष्टकर्मरहितं दुष्टानि पापिष्ठानि यानि अष्टकर्माणि दुर्गतिसंपातहेतुत्वात् तैः रहितं वजितं ( अणोवमं णाणविग्गहं णिचं) अनुपमं उपमारहितं, ज्ञानविग्रहं ज्ञानशरीरं केवलज्ञानमयं, नित्यं शाश्वतं अवि आगे वह परद्रव्य और स्वद्रव्य कैसा होता है यह बताते हैं- गाथार्थ-आत्मस्वभाव से अतिरिक्त जो सचित्त अचित्त अथवा मिश्र द्रव्य है वह सब पर-द्रव्य है, ऐसा यथार्थ रूप से समस्त पदार्थों को जानने वाले सर्वज्ञ देवने कहा है ॥१७॥ . विशेषार्थ--आत्मस्वभाव से भिन्न सचित्त-इष्ट स्त्री आदिक, अचित्त-धन सुवर्ण वस्त्र आदिक और मिश्र-आभरण तथा वस्त्र आदि से युक्त स्त्री आदिक जो भी पदार्थ हैं वे सब परद्रव्य हैं, ऐसा आगम में सत्यरूप से समस्त पदार्थों को देखने वाले सर्वज्ञ देव ने कहा है ॥१७।। - गाथार्थ-आठ दुष्ट कर्मोंसे रहित, अनुपम, ज्ञानशरीरी, नित्य और शुद्ध जो आत्मद्रव्य है उसे जिनेन्द्र भगवान् ने स्वद्रव्य कहा है ॥१८॥ विशेषार्थ-जो दुर्गति में गिरानेके हेतु होनेसे अत्यन्त पापी कहे जानेवाले ज्ञानावरणादि कर्मोंसे रहित है, उपमा-रहित है, केवलज्ञान रूप शरीर से युक्त है, अविनश्वर है तथा कर्ममल-कलंक से रहित होनेके For Personal & Private Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ षट्प्राभृते [ ६. १९-२० नश्वरं । ( सुद्धं जिणेहि कहियं ) शुद्ध निष्केवलं कर्ममलकलङ्करहितं रागद्वेषमोहादिविभावपरिणामवर्जितं, जिनैः सर्वज्ञवीतरागः कथितं - आगमे प्रतिपादितं । ( अप्पाणं हवदि सद्दव्वं ) आत्मा भवति स्वद्रव्यं आत्मरूपं स्वद्रव्यं निजद्रव्यं ज्ञातव्यमिति । जे झायंति सदव्वं परदव्वपरम्मुहा दु सुचरिता । ते जिणवराण मग्गं अणुलग्गा लहदि णिव्वाणं ॥ १९॥ ये ध्यायन्ति स्वद्रव्यं परद्रव्यपराङ्मुखास्तु सुचरित्राः । ते जिणवराणां मार्गमनुलग्ना लभन्ते निर्वाणम् ||१९|| ( जे झायंति सदव्वं ) ये मुनयो ध्यायन्ति चिन्तयन्ति स्वद्रव्यं आत्मतत्वं । ( परदव्वपरम्मुहा दु सुचरिता ) परद्रव्यात् पराङ्मुखाः परद्रव्ये शरीरादौ रागरहिताः, तु पुनः सुचरित्राः शोभनं चारित्रं अनतिचारचारित्रसहिताः ( ते जिणवराण मग्गं अणुलग्गा ) ते मुनयो, जिनवराणां सर्वज्ञवीतरागाणां मार्ग रत्नत्रय - लक्षणं, अनुलग्नाः पृष्ठतो लग्ना भवन्ति -- जिनमार्गाराधका भवन्ति । ( लहदि णिव्वाणं ) निर्वाणमनन्त सुखं परममोक्षं लभन्ते प्राप्नुवन्ति । जिणवरमएण जोई झाणे झाएइ सुद्धमप्पाणं । जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइ कि तेण सुरलोयं ॥२०॥ जिनवरमतेन योगी ध्याने ध्यायति शुद्धमात्मानम् | येन लभते निर्वाणं न लभते कि तेन सुरलोकम् ||२०|| कारण अथवा रागद्वेष मोह आदि विभावपरिणामों से शून्य होने के कारण शुद्ध है वह आत्मद्रव्य ही स्वद्रव्य है, ऐसा सर्वज्ञ वीतराग जिनेन्द्र आगम में कहा है || १८ || गाथार्थ - जो स्वद्रव्यका ध्यान करते हैं, परद्रव्यसे पराङ्मुख रहते हैं और सम्यक् चारित्रका निरतिचार पालन करते हुए जिनेन्द्र देवके मार्ग में लगे रहते हैं वे निर्वाणको प्राप्त होते हैं ||१९|| विशेषार्थ - जो मुनि पूर्व गाथा में कथित स्वद्रव्यका ध्यान करते हैं शरीरादि परद्रव्य से पराङ्मुख रहते हैं तथा अतिचार रहित सम्यक्चारित्रका पालन करते हुए • सर्वज्ञ वीतराग जिनेन्द्र देवके रत्नत्रय रूप मार्ग में संलग्न हैं अर्थात् ज़िनमार्ग के आराधक हैं वे अनन्त सुख-सम्पन्न निर्वाण को प्राप्त करते हैं ||१९|| गाथार्थ - जो योगी ध्यान में जिनेन्द्रदेवके मतानुसार शुद्ध-आत्माका For Personal & Private Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. २०] मोक्षप्राभृतम् ५८३ (जिणवरमएण जोई ) जिनवरमतेन जिनशासनेन सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुभवनलक्षणेन रत्नत्रयेन योगी दिगंबरो मुनिः । ( झाणे झाएइ सुद्धमप्पाणं) ध्याने एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षणे, ध्यायति चिन्तयति, शुद्ध रागद्वेषमोहादिरहितं कर्ममलकलंकरहितं टंकोत्कीर्णस्फटिकमणिविंबसदृशं ज्ञायकैकस्वभावं चिच्चमत्कारस्वरूपं, आत्मानं निजात्मतत्वं । ( जेण लहइ णिव्वाणं ) येनात्मध्यानेन लभते निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणमोक्षमनन्तसौख्यं । (ण लहइ किं तेण सुरलोयं ) तनात्मध्यानेन न लभते कि न प्राप्नोति सुरलोकं स्वर्गभोगं ? तथा चोक्तं तृष्णा भोगेषु चेद्भिक्षो ! सहस्वाल्पं स्वरेव ते । 'प्रतीक्ष्प पाकं किं पीत्वा पेयं भुक्ति विनाशयः ॥१॥ ध्यान करता है वह स्वर्ग लोक को प्राप्त होता है सो ठीक ही है क्योंकि जिस ध्यान से निर्वाण प्राप्त हो सकता है उससे क्या स्वर्ग लोक प्राप्त नहीं हो सकता ? ॥२०॥ ... विशेषार्थ-जो दिगम्बर मुनि जिनवरके मतानुसार अर्थात् सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के अनुभवन रूप रत्नत्रय के अनुसार ध्यान में रागद्वेष मोहसे रहित टंकोत्कीर्ण स्फटिकमणिके विम्बके समान ज्ञायक-स्वभाव चिच्चमत्कार रूप निज आत्म-तत्वका ध्यान करता है, वह स्वर्ग-लोकको प्राप्त होता है। सो ठीक ही है क्योंकि जिससे सर्व कर्मक्षय रूप लक्षण से युक्त मोक्ष प्राप्त होता है उससे क्या स्वर्गलोक प्राप्त नहीं होगा ? अवश्य होगा। जैसा कि कहा है.. तृष्णाहे मुने ! यदि भोगों में ही तेरी इच्छा है तो कुछ काल तक स्वर्गके विलम्ब को सहन कर ले। भोजन के पाककी प्रतीक्षा कर अर्थात् भोजन तैयार हो जाने दे क्षुधा की अधिकतासे मात्र-पेय-पानीको पीकर .. भोजन को क्यों नष्ट करता है ? 'पेयाम्' पाठ में उसे मुक्ति विशेषण लगाना चाहिये । १. प्रतीच्छ इति पाठः शुद्धो भाति 'प्रतीक्ष्य' इति पाठोऽनुपमयोगी, प्रतीक्षस्व इति .. पाठः शुद्धः किन्तु छन्दोभङ्गावहः। २. पेयां म०। ३. आत्मानुशासने । For Personal & Private Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ . षट्प्राभृते - [६. २१-२२जो जाइ जोयणसयं दियहेणेक्केण लेवि गुरुभारं । सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जाहु भुवणयले ॥२१॥ यो याति योजनशतं दिनेनैकेन लात्वा गुरुभारम् । स किं क्रोशाधमपि हु न शक्यते यातु भुवनतले ॥२१॥ (जो जाइ जोयणसयं ) यो याति यः पुमान् याति गच्छति, किं ? योजनशतं सहस्रयोजनदशमभागं । ( दियहेणेककेण लेवि गुरुभारं ) दिवसेनकेन लेवि लात्वा गृहीत्वा, के ? गुरुभारं महाभारं । ( सो किं कोसद्ध पि हु ) स पुमान् ( किं) क्रोशार्धमपिह हु स्फुटं । ( ण सक्कए जाहु भुवणयले ) न शक्नोति न समर्थो भवति यातु भुवनतले पृथिवीमण्डले अपि तु गज्यूतिचतुर्थमंशं यातु शक्नोत्येव । जो कोडिए ण जिप्पइ सुहडो संगामएहिं सव्वेहि । सो कि जिप्पइ इक्कि परेण संगामए सुहडो ॥२२॥ यः कोटया न जीयते सुभटः संग्रामिकैः सर्वैः । स किं जीयते एकेन नरेण संग्रामे सुभटः ।।२२।। ( जो कोडिए ण जिप्पइ ) यः सुभटः सुभटानो कोट्या न जीयते न पराभूयते । ( सुहडो संगामएहि सवेहि ) सुभटः संग्रामकैः सर्वैरपि । ( सो किं जिप्पइ आगे इसी बातको दृष्टान्त से सिद्ध करते हैं-- . गाथार्थ-जो मनुष्य बहुत भारी भार लेकर एक दिन में सौ योजन जाता है वह क्या पृथिवी तल पर आधा कोस भी नहीं जा सकता? अवश्य जा सकता है ॥२१॥ विशेषार्थ-जिस जिनधर्म के द्वारा निर्वाण प्राप्त हो सकता है उस धर्म से स्वर्ग का प्राप्त होना दुष्कर नहीं है, इसी बातको यहाँ दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है कि जो पुरुष एक दिन में बहुत भारी बोझा लेकर सौ योजन चल सकता है उसे आधा कोस चलना क्या कठिन हो सकता है ? अर्थात् नहीं । यथार्थमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप रत्नत्रय मोक्षके ही कारण हैं परन्तु इनके साथ रहने वाला जो रागांश है वह देवायु के बन्धका कारण है इस रागांशको प्रबलतासे कितने हो जोव देवायुका बन्धकर स्वर्ग भी जाते हैं ॥२१॥ गाथार्थ--जो सुभट संग्राम में करोड़ों की संख्या में विद्यमान सब योद्धाओं द्वारा मिलकर भी नहीं जोता जाता वह क्या एक योद्धा के द्वारा जीता जा सकता है ? अर्थात् नहीं जीता जा सकता ॥२२॥ For Personal & Private Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. २३] मोक्षप्राभृतम् ५८५ इक्किं ) स सुभटः किं जीयते एकेन सुभटेन-अपि तु न जीयते ( णरेण संगामए सुहडो ) नरेण एकेन पुरुषेण संग्रामके एकस्मिन् संग्रामे । सग्गं तवेण सव्वो वि पावए तहि वि झाणजोएण । जो पावइ सो पावइ परलोए सासयं सोक्खं ॥२३॥ स्वर्ग तपसा सर्वोऽपि प्राप्नोति तत्रापि ध्यानयोगेन । यः प्राप्नोति स प्राप्नोति परलोके शाश्वतं सौख्यम् ।।२३।। ( सग्गं तवेण सम्बो वि पावए ) स्वर्ग तपसा कृत्वा उपवासादिना कायक्लेशेन सर्वोऽपि भव्यजीवोऽभव्यजीवोऽपि प्राप्नोति लभते । ( तहि वि झाणजोएण) तत्रापि सर्वेष्वपि जीवेषु मध्ये ध्यानयोगेन कृत्वा । ( जो पावइ सो पावइ ) यः प्राप्नोति स्वर्ग न पुमान् प्राप्नोति । ( परलोए सासयं सोक्खं) परलोके आगामिनि भवे शाश्वतमविनश्वरं सौख्यं परमनिर्वाणमिति शेषः । परभावे इति च क्वचित्पाठः तत्रायमर्थः-परभावे भवनं भावो जन्मोच्यते तस्मिन् परभावे परजन्मनीत्यर्थः । विशेषार्थ--जिस प्रकार अतिशय शरवीर योद्धा संग्राममें अजेय होता है उसी प्रकार जिनवर मतका अनुयायी मुनि भो परीषहों द्वारा अजेय होता है इसी बातको यहाँ दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया है कि जिसे करोड़ों योद्धा मिलकर नहीं जीत सकते उसे एक योद्धा के द्वारा जीतना अशक्य है इसी प्रकार जो साधु अनेक इन्द्रियों के विषयों से नहीं जीता जा सकता वह क्या एक इन्द्रिय के विषय से जोता जा सकता है ? अर्थात् नहीं जीता जा सकता ॥२२॥ गाथार्थ-तपसे स्वर्ग सभी प्राप्त करते हैं, पर जो ध्यान से स्वर्ग प्राप्त करता है उसका स्वर्ग प्राप्त करना कहलाता है, ऐसा जीव पर-भव • में शाश्वत-अविनाशी-मोक्ष सुखको प्राप्त होता है ।।२३।। विशेषार्थ--उपवास आदि तपके द्वारा स्वर्ग तो भव्य-अभव्य-सभी जीव प्राप्त कर लेते हैं परन्तु उन सभी जीवों में ध्यान के योगसे जो स्वर्ग प्राप्त करते हैं वे यथार्थ में स्वर्ग प्राप्त करने वाले कहे जाते हैं क्योंकि ऐसे जीव स्वर्ग से आकर आगामी भव में अविनाशी सुख-मोक्ष सुख को प्राप्त कर सकते हैं । जो साधारण कायक्लेश से स्वर्ग जाते हैं उनका मोक्ष जाना निश्चित नहीं है । अभव्य जीव भो मुनिव्रत धारण कर तपके प्रभाव से नौवें ग्रेवेयक तक उत्पन्न हो जाता है परन्तु उसके मोक्षका कभी ठिकाना नहीं है । यहाँ परलोए' के स्थान में 'परभावे' ऐसा For Personal & Private Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ षट्प्राभृते [६. २४अइसोहणजोएणं सुद्ध हेमं हवेइ जह तह य ।। कालाईलद्धोए अप्पा परमप्पओ हवदि ॥२४॥ अतिशोभनयोगेन शुद्धं हेमं भवति यथा तथा च । कालादिलब्ध्या आत्मा परमात्मा भवति ॥२४॥ ( अइसोहणजोएणं ) अतिशोभनयोगेन सामग्रया अनन्धपाषाणादिकं अग्निमध्ये पचितं गरूपदिष्टौषधयोगेन । ( सुद्ध हेमं हवेइ जहं तह य ) शुद्ध षोडशवणिक हेमं सुवर्णं भवति यथा तह य-तथा च तथैव च ( कालाईलद्धीए) कालादिलब्ध्या कृत्वा कालादिलब्ध्यां सत्यां वा। ( अप्पा परमप्पओ हवदि ) .. आत्मा संसारी जीवः परमात्मा भवति-अर्हन् सिद्धश्च संजायते । उक्तं च नागफणीए मूलं नागिणितोएण गब्भणाएण । नाग होइ सुवण्णं धम्मं तह पुण्णजोएण ॥१॥ भी पाठ संस्कृत टोकाकारको कहीं मिला है उसके अर्थ की संगति उन्होंने 'परभाव का पर-जन्मनि' अर्थ करके बैठाई है ॥२३॥ गाथार्थ-जिस प्रकार अत्यन्त शुभ सामग्री से-शोधन सामग्री से अथवा सुहागासे सुवर्ण शुद्ध होजाता है उसी प्रकार काल आदि लब्धियों से आत्मा परमात्मा हो जाता है। विशेषार्थ--अन्ध पाषाण से सुवर्ण नहीं निकल सकता अतः उसके सिवाय जो अनन्ध पाषाण आदि पदार्थ हैं वे अग्नि के मध्य में पकाये जाने पर गुरुके द्वारा उपदिष्ट औषधके प्रयोग से शुद्ध-सोलहबानी के सुवर्ण बन जाते हैं, इसो दृष्टान्तको लेकर आचार्य आत्माके शुद्ध होनेका मार्ग दिखलाते हैं--जिस प्रकार अतिशोभन योगसे-अनुकूल उत्कृष्ट सामग्री से सुवर्ण शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार काल आदि लब्धियों से अथवा काल आदि लब्धियों के प्राप्त होनेपर आत्मा-संसारो जीव, परमात्मा बन जाता है-अर्हन्त सिद्ध हो जाता है। जैसा कि कहा है-- नागफणीए-नागफणी-शंपाफनी की जड़ को हस्तिनी के मूत्रके साथ पीसकर यदि उसमें सिन्दूर भो मिलाया जाता है तो सीसा सुवर्ण बन जाता है अर्थात् इन सबको मिट्टी के बर्तन में रखकर खैर के अंगारों में फूका जाय तो पुण्य योग से सुवर्ण बन जाता है, पुण्य योग के बिना कार्य को सिद्धि नहीं होती । इसका सार यह है कि जिस प्रकार विभिन्न १. अतिशोधनयोगेन इत्यपि छाया भवितुमर्हति । For Personal & Private Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८७ -६. २५ ] मोक्षप्राभृतम् ___ अस्या अयमर्थः-नागफणीए मूलं-नागौषधिः । नागिणितोएण-हस्तिनीमूत्रेण पिष्ट्वा । गभणाएण-गर्भे नागः सोसको यस्य स गर्भनागः सिन्दूरः सोऽपि मध्ये क्षिप्त्वा मद्यते । नागं होइ सुवण्णं नागः सीसकः । एतत्सर्वं मृत्तिकाभाजने क्षिप्त्वा अधोऽग्निः क्रियते खदिराङ्गारयिते सुवर्णं भवति । पुण्ययोगेन पुण्ययोगं विना सुवर्णं न भवति ब्रह्मादिभ्रष्टस्येति भावः तथायं आत्मा कालादिलब्धि प्राप्य सिद्धपरमेष्ठी भवतीति भावार्थः । वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ निरइ इयरेंहिं। छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ॥२५॥ वरं व्रततपोभिः स्वर्गः मा दुःखं भवतु नरके इतरैः । छायातपस्थितानां प्रतिपालयतां गुरुभेदः ॥२५।। ( वर वयतवेहि सग्गो ) वरं ईषदुचौ वरं श्रेष्ठ व्रतस्तपोभिश्च स्वर्गो भवति तच्चारु । ( मा दुक्खं होउ निरइ इयरेहिं ) मा दुःख भवतु निरइ-नरकावासे, इतररव्रतरतपोभिश्च । ( छायातवट्टियाणं ) छायातपस्थितानां ये छायायां अनुकूल बाह्यनिमित्त तथा पुण्योदय रूप अन्तरङ्गनिमित्त से सीसा सुवर्ण रूप हो जाता है उसी प्रकार अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग-दोनों प्रकार की सामग्री के मिलने पर आत्मा परमात्मा हो जाता है। यहाँ काल आदि लब्धि के द्वारा जीव को उपादान शक्ति रूप अन्तरङ्ग योग्यता का वर्णन किया है और अतिशोभन योगके द्वारा गुरूपदिष्ट उत्तम शुभ योग-शुभध्यान आदि बाह्य सामग्री का वर्णन किया गया है। कार्य की सिद्धि में अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग दोनों प्रकार की सामग्रीका सद्भाव अपेक्षित है ॥२४॥ . गाथार्थ-व्रत और तपके द्वारा स्वर्ग का प्राप्त होना अच्छा है परन्तु - अव्रत और अतपके द्वारा नरक के दुःख प्राप्त होना अच्छा नहीं है । छाया और घाम में बैठकर इष्ट स्थान की प्रतीक्षा करने वालों में बड़ा भेद है ॥२५॥ विशेषार्थ-व्रत तप आदि शुर्भापर्याग की परिणति से जीवको स्वर्ग प्राप्त होता है सो उसका प्राप्त होना भो कुछ अच्छा है । सम्यग्दृष्टि जोवका सर्वोत्तम लक्ष्य तो मोक्ष प्राप्त करना ही है परन्तु उसके अभाव • में स्वर्ग की प्राप्ति होना भी अच्छा है । आचार्य कहते हैं कि व्रत और तपके अभाव में पाप तथा अतप में प्रवृत्ति करने से इस जोवको जो नरक For Personal & Private Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [ ६.२५ स्थिता अनावर्तन्ते ते सुखेन तिष्ठन्ति ये आतपे स्थिता वर्तन्ते ते दुःखेन तिष्ठन्ति ( पडिवालंताण गुरुभेयं ) प्रतिपालयतां व्रतानि अनुतिष्ठतां स्वर्गों भवति तद्वरं संसारित्वेनापि ते सुखिनः । अव्रतानि प्रतिपालयतां नरके दुःखमनुभवतां अतिनिन्दितमिति महान् भेदो वर्तते । तथा चोक्तं पूज्यपादेनेष्टोपदेशग्रन्थे - ५८८ वरं व्रतैः पदं देवं नाव्रतैर्ब्रत नारकं । छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान् ॥ १ ॥ दुःख प्राप्त होते हैं, वे न हों। दो मनुष्य कहीं जा रहे थे मार्ग में थक के कारण एक उनमें से एक छाया में बैठकर विश्राम कर रहा है और दूसरा घाममें बैठ कर विश्राम कर रहा है। जो छाया में बैठा है वह सुखसे बैठा हुआ अपने लक्ष्यका विचार कर रहा है, पर जो घाम बैठा है वह दुःख से बैठा हुआ अपने लक्ष्यका विचार कर रहा है । इस तरह छाया और घाम में बैठे हुए पुरुषों में जिस प्रकार महान् अन्तर है उसी प्रकार शुभोपयोग और अशुभोपयोग में स्थित जीवोंमें महान् अन्तर है । शुभोपयोग वाला जीव स्वर्ग में विश्राम कर वहीं से आने पर मनुष्यभव प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करता है और अशुभोपयोग वाला जीव नरकके दुःख वर्तमान में भोगता है और आगामी पर्यायको अनुकलता अनिश्चित है । तात्पर्य यह है कि शुभोपयोग सर्वथा हेय नहीं है किन्तु हेयाय उभय रूप है, शुद्धोपयोगकी अपेक्षा हेय है और अशुभोपयोगकी अपेक्षा अहे है | इतनी बात अवश्य है कि सम्यग्दृष्टि जीव शुभोपयोग करता हुआ भी उसे साक्षात् मोक्षका कारण नहीं मानता है किन्तु परम्परा से ही मोक्षका कारण मानता है। श्रीपूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश ग्रन्थ में कहा है वरं व्रत:- व्रतों के द्वारा देव-सम्बन्धी पद प्राप्त करना कुछ अच्छा है परन्तु अव्रत के द्वारा दुःखदायक नरक का पद प्राप्त करना अच्छा नहीं है क्योंकि छाया और घाममें बैठकर प्रतीक्षा करने वालों में महान् भेद है । यथार्थ में श्री पूज्यपाद की यह कारिका कुन्दकुन्दस्वामी के 'वरवयतवेहि' - गाथा से अनुजीवित है ॥ २५ ॥ For Personal & Private Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८९ -६. २६-२७] मोक्षप्राभृतम् जो इच्छइ निस्सरिदु संसारमहण्णवस्स रुंदस्स । कम्मिधणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद्ध॥२६॥ य इच्छति निस्सरितु संसारमहार्णवस्य रुद्रस्य । कर्मेन्धनानां दहनं स ध्यायति आत्मानं शुद्धम् ॥ २६ ॥ ( जो इच्छइ निस्सरिदु) यो मुनिवर इच्छति अभिलषति, किं कर्तुं ? निःसरितु पारं यातु । कस्य, ( संसारमहण्णवस्स रुदस्स ) संसारमहार्णवस्य संसारमहासमुद्रस्य । कथंभूतस्य, रुन्द्रस्य अतिविस्तीर्णस्य । ( कम्मिघणाण डहणं ) कर्मेन्धनानां दहनं कर्मकाष्ठानां भस्मीकरणं । ( सो झायइ अप्पयं सुद्ध) स मुनि ायति चिन्तयति, आत्मानं शुद्ध कर्ममलकलंकरहितं रागद्वेषमोहादिविभाववर्जितमिति शेषः । सव्वे कसाय. मोत्तुं गारवमयरायदोसवामोहं । लोयववहारविरदो. अप्पा झाएइ झाणत्थो ॥२७॥ सर्वान् कषायान् मुक्त्वा गारवमदरागद्वेषव्यामोहम् । लोकव्यवहारविरत आत्मानं ध्यायति ध्यानस्थः ॥ २७॥ गावार्थ-जो मुनि अत्यन्त विस्तृत संसार महासागरसे निकलनेकी इच्छा करता है वह कर्म रूपी ईंधन को जलाने वाले शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है ।। २६ ॥ - विशेषार्थ-यहां संसार रूपी महासागर से बाहर निकलने का उपाय आत्मध्यान बतलाया है । यह संसार महासागर के समान अतिशय विस्तुत है। इसके बीच मञ्जनोन्मज्जन करते हुए जीव अनादि कालसे दुःख उठा रहे हैं । आचार्य कहते हैं कि जो मुनि इस संसार रूप महासागर से पार होना चाहता है वह मुनि कर्म रूपी ईंधनको जलानेवाली शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है । वह विचार करता है-यद्यपि आत्मा वर्तमानमें कर्ममल से कलंकित हो रहा है तथापि आत्मा का यह स्वभाव नहीं है। शुद्ध निश्चयनय से आत्मा रागद्वेष मोह आदि विभाव भावों से रहित है, अतः पर-निमित्तसे स्वकीय आत्मामें उत्पन्न हुए विभाव भावोंको मुझे नष्ट करना चाहिये ।। २६ ।। . गाथार्थ-ध्यानस्थ मुनि समस्त कषायों और गारव मद रागद्वेष तथा व्यामोह को छोड़कर लोक व्यवहार से विरत होता हुआ आत्मा का ध्यान करता है ॥ २७ ॥ For Personal & Private Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० षट्प्राभृते [६. २७( सब्वे कसाय मोत्तु ) सर्वान् कषायान् क्रोधमानमायालोमान् मुक्त्वा परित्यज्य क्षीणकषायो मुनिर्भूत्वा । ( गारवमयरायदोसवामोहं ) गारव च शब्दगारवं--अहं वर्णोच्चारं रुचिरं जानामि न त्वेते यतयः, ऋद्धिगारवं-शिष्यादिसामग्री मम बह्वी वर्तते न त्वमीषां यतीनां, सातगारवं--अहं यतिरपि सन् इन्द्रत्वसुखं चक्रिसुखं तीर्थंकरसुखं भुंजानो वर्ते विमे यतयस्तपस्विनो वराकाः । मदा अष्ट--अहं ज्ञानवान् सकलशास्त्रज्ञो वर्ते, अहं मान्यो महामंडलेश्वरा मत्पादसेवकाः । कुलमपि मम पितृपक्षोऽतोवोज्ज्वल: कोऽपि ब्रह्महत्याऋषिहत्यादिभिरदोषं । जातिः मम माता संघस्य पत्यु? हिता-शीलेन सुलोचना सीता-अनन्तमती चन्दनादिका वतते । बलं-अहं सहस्रभटो लक्षभटः कोटीभटः । ऋद्धि:-ममानेकलक्षकोटिगणनं धनमासीत् तदपि मया त्यक्तं अन्ये मुनयोऽधमर्णाः संतो दीक्षां जागृहः । तपः-अहं सिंहनिष्क्रीडितविमानपंक्तिसर्वतोभद्रशातकुंभसिंहविक्रमत्रिलोकसारवज्रमध्याल्लोणोल्लीणमृदंगमध्यधर्मचक्रवालरुद्रोत्तरवसंतमेरुनन्दी mmmmmmmmmmmmmmmm.com विशेषार्थ-सर्व कषाय से क्रोध, मान, माया और लोभ का ग्रहण होता है । गारव के तीन भेद हैं-१-शब्द गारव २-ऋद्धिगारव और ३-सात गारव । 'मैं वर्गों के उच्चारण सुन्दर जानता हूँ ये अन्य मुनि नहीं जानते' इस प्रकार के गर्वको लिये हुए परिणाम को शब्द-गारव कहते हैं । 'मेरी शिष्यादि सामग्रो बहुत है इन मुनियों को नहीं है' इस प्रकार के गर्व रूप परिणाम को ऋद्धि-गारव कहते हैं। मैं मुनि होने पर भी इन्द्रपनेका सुख, चक्रवर्ती का सुख और तीर्थंकर का सुख भोग रहा हूँ ये बेचारे तपस्वी क्या भोगेंगे' इस प्रकार के गर्व रूप परिणाम को सात गारव कहते हैं। मद आठ होते हैं-१ ज्ञानमद, २ पूजामद, ३ कुलमद, ४ जातिमद, ५ बलमद, ६ ऋद्धिमद, ७ तपमद और ८ शरीर मद । मैं ज्ञानवान् हूँ, सकल शास्त्रों का ज्ञाता हूँ इस प्रकारके अहंकारको ज्ञानमद कहते हैं। मैं माननीय हूँ, महामण्डलेश्वर राजा हमारे चरण सेवक हैं इस प्रकार के अहंकार को पूजामद कहते हैं, मेरा पितृपक्ष कोई अद्भुत तथा अत्यन्त उज्ज्वल है, ब्रह्महत्या ऋषिहत्या आदि दोषोंसे कभी दूषित नहीं हुआ है, इस प्रकार के अहंकार को कुलमद कहते हैं। मेरी माता संचपति (सिंघई) को लड़की है तथा शोलसे सुलोचना, सीता, अनन्तमती तथा चन्दना आदि है, इस प्रकार के अहंकारको जाति मद कहते हैं। मैं सहस्रभट, लक्षभट अथवा कोटोभट हूँ इस प्रकार के For Personal & Private Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९१ -६. २७] मोक्षप्राभृतम् श्वरपंक्तिपल्यविधानादिमहातपोविधिविधाता मम जन्मैवं तपः कुर्वतो गतं, एते तु यतयो नित्यभोजनरताः । वपुः-ममरूपाने कामदेवोऽपि दासत्वं करोतीत्यष्टमदाः । रागश्च प्रोतिलक्षणः । द्वेषश्चाप्रीतिलक्षणः। व्यामोह पुत्रकलत्रमित्रादिस्नेहः । वामानां स्त्रीणां वा ओहो वामौहः तत्तथोक्तं समाहारो द्वन्द्वः । ( लोयववहारविरदो ) धर्मोपदेशादिकमपि न करोति लोकव्यवहारविरतः । ( अप्पा झाएइ झाणत्थो ) आत्मानं, ध्यायति चिन्तयति, झाणत्थो-"उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहर्तात्" इत्युक्तलक्षणो ध्याने तिष्ठतीति ध्यानस्थः। “स्थश्च" इति कप्रत्ययप्रयोगत्वात् ध्यानस्थ उच्यते । अहंकार को बलमद कहते हैं। मेरे . पास अनेक लाख अथवा अनेक करोड़ का धन था फिर भी मैंने छोड़ दिया। इन अन्य मुनियों ने तो कर्जदार होकर दीक्षा ली है. इस प्रकार के अहंकार को ऋद्धिमद कहते हैं। मैं सिंहनिष्क्रीडित, विमान-पंक्ति, सर्वतोभद्र, शातकुम्भ, सिंहविक्रम, त्रिलोकसार, वज्रमध्य, उल्लीणोल्लीण, मृदङ्गमध्य, धर्मचक्रवाल, रुद्रोत्तर, वसन्त, मेरु, नन्दीश्वर पंक्ति तथा पल्यविधान आदि महातपोंका करने वाला हूँ, मेरा जन्म इस तरहके तप करते हुए व्यतीत हुआ है। परन्तु ये मनि नित्य भोजन में लीन हैं अर्थात् एक भी उपवास नहीं करते हैं, इस प्रकारके अहंकारको तपमद कहते हैं। और मेरे रूपके आगे कामदेव भी दासता करता है, इस प्रकार के मदको शरीरमद कहते हैं। रागका अर्थ प्रीति है, द्वेषका अर्थ अप्रीति है, व्यामोह का अर्थ पुत्र स्त्री तथा मित्र आदि का स्नेह है। लोकव्यवहार का अर्थ धर्मोपदेश आदि है तथा ध्यान का अर्थ उत्तम संहनन वाले जोवका अन्तमुहूर्त तक किसी पदार्थ में चित्तको गतिका स्थिर हो जाना है । __इस तरह समस्त पदोंका अर्थ-विवेचना के बाद गाथा का अर्थ यह है कि ध्यान में बैठा मुनि समस्त कषायों को तथा गारव, मद, राग, द्वेष और व्यामोहको छोड़कर लोक-व्यवहार से विरत होता हुआ आत्मा का ध्यान करता है । पूर्व गाथा में यह कहा था कि जो संसार सागर से पार होना चाहता है वह शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है और इस गाथा में शुद्ध आत्मा का ध्यान किस प्रकार किया जाता है यह बताया है । - गाथामें आये हुए ध्यानस्थ शब्द की सिद्धि 'स्थश्च' इस सूत्रसे क १. जैनेन्द्रस्येदं सूत्रं परिज्ञायते । अस्य स्थाने स्थः कः इति शाकटानीय सूत्रं । For Personal & Private Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ षट्माभृते [६.२८मिच्छत्तं अण्णाणं पावं पुण्णं चएवि तिविहेण । मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा ॥२८॥ मिथ्यात्वमज्ञानं पापं पुण्यं च त्यक्त्वा त्रिवेधेन । मौनव्रतेन योगी योगस्थो द्योतयति आत्मानम् ॥ २८॥ (मिच्छत्तं अण्णाणं ) मिथ्यात्वं बौद्धवैशेषिकचार्वाककणभक्षकापिलभट्टवेदा- . न्तप्राभाकरश्वेतपटगौपुच्छिकयापनीयद्रामिलनिष्पिच्छाद्यनेककान्ताद्याश्रितमंत, अज्ञानं मस्करपूरणमतं । ( पावं पुण्णं चएवि तिविहेण ) पापं पंचप्रकार प्राणातिपातानृतचौर्यमैथुनपरिग्रहरात्रिभोजनादिकं सप्तव्यसनादिलक्षणं च, पुण्यं शुभपुद्गलग्रहणलक्षणं स्वदुःखसहनं इत्यादिकं त्यक्त्वा परिहृत्य त्रिविधेन मनोवचनकाययोगप्रकारेण । ( मोणन्वएण जोई) मौनव्रतेन वाग्व्यापाररहिततया योगी दिगम्बरः । ( जोयत्यो ) योगस्थितः शुद्धोपयोगतल्लीनः ( जीयए अप्पा ) योतयति ध्यायत्यात्मानं शरीरप्रमाण निजजीवस्वरूपं । प्रत्यय होकर हुई है। 'ध्याने तिष्ठतीति ध्यानस्थः' यह उसकी व्युत्पत्ति है ॥२७॥ गाथार्थ-मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप और पुण्यको मन वचन काय रूप त्रिविध योगों से जोड़कर जो योगी मौन व्रतसे ध्यानस्थ होता है वही आत्माको योतित करता है-प्रकाशित करता है-आत्मा का साक्षात्कार करता है ॥२८॥ विशेषार्थ-बौद्ध, वैशेषिक, चार्वाक, नैयायिक, सांख्य, मीमांसक, वेदान्त, प्रभाकर (मीमांसकका एक भेद), श्वेताम्बर, गोपुच्छिक, यापनीय, द्वामिल और निष्पिच्छ आदि अनेक एकान्तवादियों के मत मिथ्यात्व कहलाते हैं । मस्कर-पूरण का मत अज्ञान नाम से प्रसिद्ध है । हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन तथा सप्त व्यसन आदि पाप कहलाते हैं। शुभ-पुद्गलों-पुण्य कर्म-वर्गणाओं का ग्रहण करानेवाला कायक्लेश आदि पुण्य कहलाता है। इन सबका त्रिविध-मन वचन काय रूप योगोंके प्रकार से छोड़कर मौनव्रत से जो योगी योगस्थ होता है अर्थात् शुद्धोपयोग में तल्लीन होता है वह शरीर-प्रमाण आत्मा का ध्यान करता है ॥२८॥ For Personal & Private Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२३ -६. २९] मोक्षप्राभृतम् कगं मीनेन तिष्ठतीति प्राकृतवक्त्रमाहजं मया दिस्सदे रुवं तण्ण जाणादि सव्वहा । जाणगं दिस्सदे गंतं तम्हा जंपेमि केण हं ॥२९॥ यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा । ज्ञायको दृश्यतेऽनन्तः तस्माज्जयामि केनाहम् ॥२९॥ (जं मया दिस्सदे रूवं ) यन्मया दृश्यते रूपं तद्पं स्त्रीप्रभृतिशरीरादिकं दृश्यतेऽवलोक्यते रूपं रूपिपदार्थ तत् सर्वं पुद्गलद्रव्यपर्यायत्वात्परमार्थतोऽचेतनं । ( तण्ण जाणादि सव्वहा ) तद्रूपं सर्वथा निश्चयनयेन न जानाति, अचेतनेन सह कथं जल्पामि । ( जाणगं दिस्सदे गंतं ) ज्ञायकमात्मानं रूपाश्रितं वस्तु, अनन्तमात्मतत्वमनन्तकेवलज्ञानस्वभावत्वादनन्तं यदहं तेन सह जल्लामि स तु जानात्ये आगे योगी मौन से क्यों रहता है ? इसका कारण बतलाने के लिये प्राकृत का अनुष्टुप छन्द कहते हैं गाथार्थ-जो रूप मेरे द्वारा देखा जाता है वह बिलकुल नहीं जानता और जो जानता है वह दिखाई नहीं देता तब में किसके साथ बात करू ॥२९॥ विशेषार्थ-जो स्त्री आदिके शरीर आदि रूपी पदार्थ दिखाई देते हैं वे सब पुद्गल हैं तथा परमार्थ से अचेतन हैं-वे कुछ भी नहीं जानते हैं इसलिये अचेतन पुगल के साथ कैसे बात करूं? और जो केवलज्ञान रूप स्वभाव से युक्त होनेके कारण अनन्त आत्म-तत्व अनुभवमें आता है . वह मात्र ज्ञायक है-बोल नहीं सकता है, अतः किसके साथ बोलू ? : किसके साथ बात करूं ? अथवा किस कारण बोलू? यह विचार कर योगी मौनको ही शरण मानते हैं अर्थात् किसी से कुछ कहते नहीं हैं ॥२९॥ - [जाणगं दिस्सदे णंतं-यहां संस्कृत टीकाकारने जो अनन्तं, छाया स्वीकृत की है तथा उसीके आधार पर संस्कृत टीका की है, उससे गाथा का भाव दूसरा होगया है। हमारी समझसे इसकी छाया 'न तत्' होना . चाहिये और तब गाथाका अर्थ यह होता है यह आत्मा ज्ञायक है वह दिखाई नहीं देता । यही भाव पूज्यपाद ने इस गाथाकी अनुकृति कर जो ३८ For Personal & Private Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ षट्नाभृते [६.३०वात्मा । ( तम्हा जंपेमि केण हं ) तस्मात्कारणात केन सहाहं जल्पामि, अथवा केन कारणेन जल्पामि तेन मे मौनमेव शरणं। सव्वासवणिरोहेण कम्मं खवदि संचिदं। ... जोयत्यो जाणए जोई जिणदेवेण भासियं ॥३०॥ सर्वानवनिरोधेन कर्मक्षिपयति संचितम् । योगस्थो जानाति योगी जिनदेवेन भाषितम् ॥३०॥ ( सव्वासवणिरोहेण ) सर्वेषामास्रवाणां मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगलक्षणानां निरोधेन निषेधेन ( कम्म खवदि संचिदं) कर्म क्षिपयति पूर्वोपार्जित तडागेऽभिनवजलप्रवेशाभावे संचितपूर्वजलशोषवत् । ( जोयत्यो जाणए जोई ) योगस्थः ध्यानस्थित आत्मकलोलीभावमिलितो जानाति केवलज्ञानमुत्पादयति योगी शुक्लध्यानविशेषागमभाषया केवली भवति । ( जिणदेवेण भासिय) सिद्धार्थनृपनन्दनेन वीरेण कथितमिति भावः ।, श्लोक' लिखा है उससे प्रकट होता है। पं० जयचन्द्रजी ने अपनी वचनिका में 'न तत्' छाया स्वोकृत की भी है। ] गाथाथ-सब प्रकार के आस्रवों का निरोध होनेसे संचित कर्म नष्ट होजाते हैं तथा ध्यान-निमग्न योगो केवल ज्ञानको उत्पन्न करता है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ||३०|| विशेषार्थ-जिस प्रकार तालाब में नवीन जलके प्रवेश का अभाव होनेपर पहले का संचित पानी धीरे-धीरे सूखकर नष्ट होजाता है उसो प्रकार मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय और योग रूप समस्त आस्रवोंका अभाव होजाने पर पहले के संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं और ध्यान में स्थित अर्थात् आत्मा में एक लोलोभाव-तन्मयो भावको प्राप्त हुआ योगी जानता है अर्थात् केवलज्ञान को उत्पन्न करता है। अथवा शुक्लध्यान , रूप विशेष आगम की भाषा से केवली होता है, ऐसा भगवान् महावीर ने कहा है ॥३०॥ १. यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा । मानन्न दृश्यते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् ॥१८॥ .. -समाधिशतके पूज्यपादस्य । For Personal & Private Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ३१-३२ ] मोक्षप्राभृतम् 'जो सुत्ती ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ॥३१॥ जागत स्वकार्ये । आत्मनः कार्ये ॥ ३१ ॥ यः सुप्तो व्यवहारे स योगी यो जागर्ति व्यवहारे स सुप्त ( जो सुत्तो ववहारे ) यो मुनिः सुप्तः क्व ? व्यवहारे व्यवहारमध्ये न पतितः । ( सो जोई जग्गए सकज्जम्मि ) स योगी जागति सावधानो भवति, स्वकार्ये आत्मकार्ये कर्मक्षयविधाने । ( जो जग्गदि ववहारे ) यो योगी जागत सावधानो भवति, क्व ? व्यवहारे लोकोपचारे । ( सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ) स योगी मुनिः सुप्तो न वेदयतेऽसावधानो भवति आत्मनः कार्ये आत्मस्वरूपे । उक्तं च जा निसि सयलह देहियहं जोग्गिउ तहि जग्गेइ । जहि पुणु जग्गइ सयलु जगु सा निसि भणेवि सुएइ ॥ १ ॥ इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं । शायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरदेण ॥ ३२ ॥ इति ज्ञात्वा योगी व्यवहारं त्यजति सर्वथा सर्वम् । ध्यायति परमात्मानं यथा भणितं जिनवरेन्द्रेण ||३२|| गाथार्थ -- जो मुनि व्यवहार में सोता है वह आत्म- कार्य में जागता है और जो व्यवहार में जागता है वह आत्म-कार्य में सोता है ॥ ३१ ॥ विशेषार्थ - जो मुनि लौकिक कार्योंसे उदासीन रहता है वह कर्मक्षय रूप आत्मकार्य में सावधान रहता है और जो लौकिक कार्योंमें जागरूक है वह आत्म- कार्य में उदासीन रहता है। जैसा कि कहा है- ५९५ जा निसि- समस्त जीवोंके लिये जो रात्रि है उसमें योगी जागता है और जिसमें सब जगत् जागता है उसे योगी रात्रि कह कर सोता है । गाथार्थ - ऐसा जानकर योगी सब तरह से सब प्रकार के व्यवहार htछोड़ता है और जिनेन्द्र देवने जैसा कहा है उस प्रकार परमात्मा का ध्यान करता है ||३२|| १. व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागर्त्यात्मगोचरे । जागति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥७८॥ -समाविशतके पूज्यपादस्य । For Personal & Private Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ षट्प्राभूते [६.३३( इय जाणिऊण जोई ) इतीदृशमर्थ ज्ञात्वा, कोऽसौ ? योगी ध्यानवान् मुनिः । ( ववहार चयइ सव्वहा सव्वं ) व्यवहारं त्यजति सर्वथा सर्व आत्मना सह एकलोलीभाव गते सति व्यवहारः स्वयमेव [ न ] तिष्ठति ( झायइ परमप्पाणं ) ध्यायति परमात्मानं–निजशुद्धबुद्ध कस्वभावे आत्मनि तल्लीनो भवति । (जह भणियं जिणवरिदेण ) यथा भणितं प्रतिपादितं जिनवरेन्द्रेण प्रियकारिणीप्रियपुत्रेण श्रीवीरवर्धमानस्वामिना। पंचमहव्वयजुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु। रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सया कुणह ॥३३॥ पञ्चमहाव्रतयुक्तः पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु । । रत्नत्रयसंयुक्तः ध्यानाध्ययनं सदा कुरु ॥३३॥ (पंचमहन्वयजुत्तो) पंचमहाव्रतयुक्तो दयावान् सत्यवादी अदत्तादानविरतः सर्वस्त्रीसोदरः वस्त्रादिपरिग्रहरहितः दिवा एकवारं प्रत्युत्पन्न प्रासुकं भुक्तं शुद्ध शोधितं भुंजानः । ( पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु ) ईर्यायां युगान्तरविलोकगमनः आगमोक्तभाषानिपुणः, चर्मजलस्पृष्टभोजनपरित्यागी हिंगुसंवासितव्यंजनाभोजनः विशेषार्थ-ऐसा जानकर ध्यानस्थ मुनि सब व्यवहार को सब प्रकार से छोड़ता है अर्थात् जब योगो आत्मा के साथ तन्मयी भावको प्राप्त होता है तब व्यवहार स्वयमेव नहीं ठहरता है तथा प्रियकारिणी-त्रिशला देवी के प्रियपुत्र श्री वर्धमान स्वामी ने जिस प्रकार कहा है उस तरह परमात्मा का ध्यान करता है ॥३२॥ गाथार्थ हे मुने! तू पांच महाव्रतों से युक्त होकर पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों में प्रवृत्ति करता हुआ रत्नत्रय से युक्त हो सदा ध्यान और अध्ययन कर ॥३३॥ विशेषार्थ हे जीव ! तू दयावान्, सत्यवादो, अदत्तादान से विरत, सब स्त्रियों के साथ सहोदर का व्यवहार करनेवाला, वस्त्रादि परिग्रह से रहित तथा दिन में एक बार प्रासुक, शुद्ध और शोधे हुए अन्न का आहार लेता हुआ पञ्चमहाव्रत का धारो हो। तदनन्तर पञ्चसमितियों और तोन गुप्तियोंका पालन करनेके लिये चलते समय एक युग प्रमाण भूमिको देखकर चलने वाला, आगमोक्त भाषा के बोलने में निपुण, चमड़े के बर्तन में रखे हुए जलसे छुए भोजन का त्यागो, होंगसे सुवासित शाक आदिका For Personal & Private Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ३४ ] मोक्षप्राभृतम् अजिनसंगघृततैलपरिहारी, दृष्टमृष्टोपकरणग्रहणनिक्षेपः प्रासुकारुद्ध भूमिमलमूत्रव्युत्सर्जनकुशलः, अपध्यानमनोनिषेधी, मौनवान्, कूर्मवत्संकोचितकरचरणादिकाय: । ( रयणत्तयसंजुत्तो ) मिथ्यात्व कंदकुद्दालः सम्यग्ज्ञानानुशोलनकुशलः सच्चरित्रपवित्रगात्रः । ( झाणज्झयणं सया कुणह) ध्यानाध्ययनं सदा सर्वकालं कुरु त्वं हे जीव ! इति तात्पर्यार्थः । " रयणत्तयमाराहं जीवो आराहओ मुणेयव्वो । आराहणाविहाणं तस्स फलं केवलं गाणं ॥ ३४ ॥ रत्नत्रयमाराधयन् जीव आराधको मुनितव्यः । आराधनाविधानं तस्य फलं केवलं ज्ञानम् || ३४॥ ( ' रयणत्तयमाराहं ) रत्नत्रयमासघयन् । ( जीवो आराहबो मुणेयब्वो ) जीव आत्मा आराधको मुनितव्यो ( ? ) ज्ञातव्यः । ( आराहणाविहाणं ) इदमाराधनाविधनं विधिः । ( तस्स फलं केवलं गाणं ) तस्याराधनाविधानस्य, किं फलं केवलं ज्ञानं अनन्तकेवलज्ञानमिति अनन्तचतुष्टयं । ५९७ न खानेवाला, चमड़े के पात्र में रखे हुए घी तेल आदिका परित्याग करने बाला, देखभालकर कोमल उपकरण-पिच्छो से शुद्ध वस्तु को धरने उठाने बाला, प्रासुक तथा रोक टाक से रहित भूमि में मलमूत्र छोड़ने में कुशल, अपध्यान से मन को हटाने वाला, मौनवान् तथा कछुए के समान हस्त पादादिके कार्यको कछुए के समान संकोचित करनेवाला बन तथा मिथ्यात्वरूपी कन्दको खोदने के लिये कुदाली स्वरूप, सम्यग्ज्ञानके अनुशोलनमें • अत्यन्त कुशल और सम्यक् चारित्र से पवित्र शरीर होकर अर्थात् रत्नत्रय सें युक्त होकर सदा ध्यान और अध्ययन कर ||३३|| गाथार्थ - रत्नत्रय की आराधना करनेवाले जोवको आराधक मानना चाहिये, आराधना करना सो आराधना है और उसका फल केवलज्ञान है ॥ ३४॥ विशेषार्थ - इस गाथा में आराधक, आराधना और आराधना का फल बतलाते हुए कहा है कि जो मुनि रत्नत्रय की आराधना करता है वह आराधक है, आराधनाका करना आराधना कहलाती है तथा केवलज्ञान उस आराधनाका फल है ॥ ३४ ॥ रगमतयमाराहं अयं पाठः क पुस्तके नास्ति, ख. पुस्तकात् संयोजितः । For Personal & Private Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ षट्प्राभूते [ ६. ३५-३६ सिद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सव्वलोयदरसी य । सो जिणबह भणियो जाण तुमं केवलं जाणं ॥ ३५॥ सिद्धः शुद्धः आत्मा सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च । स जिनवरैः भणित: जानीहि त्वं केवलं ज्ञानम् || ३५ ॥ ( सिद्धो सुद्धो आदा ) सिद्ध आत्मोपलब्धिमान् । शुद्धः कर्ममलकलङ्करहितः, ईदृग्विध आत्मा अतति समयैकेन ऊर्ध्वं ब्रज्यास्वभावेन त्रिभुवनाग्र गच्छतीति आत्मा शुद्धबुद्धैकस्वभावः । ( सव्वण्हू सव्वलोयदरिसी य ) सर्वज्ञ: त्रैलोक्यालोक - स्वरूपज्ञायककेवलज्ञानसमुपेतः सर्वलोकदर्शी च सर्वशब्देनालोकाकाशो लभ्यते लोकशब्देन षड्द्रव्याघारवत्त्रिभुवनमुच्यते तद्वयं अवलोकयितुं शीलमस्येति सर्वलोकदर्शी । चकार उक्तविशेषणसमुच्चयार्थः तेनानन्तवीर्यानन्तसौख्यवदादिरनन्तगुणोऽपि गृह्यते । ( सो जिणवरेह भणिओ ) स एवं गुणविशिष्ट आत्मा जिनवरैस्तीर्थंकरपरमदेवैर्भणितः प्रतिपादितः । एव गुणविशिष्ट मात्मानं ( जाण तुम केवलं गाणं ) जानीहि त्वं केवलं ज्ञानं, आत्मा खलु केवलं ज्ञानं-- अभेदनयत्वात् ज्ञानमेवात्मानं जानीहि । रयणत्तयं पि जोई आराहइ जो हु जिणवरमएण । सो शायदि अप्पाणं परिहरदि परं ण संदेहो ॥३६॥ रत्नत्रयमपि योगी आराधयति यः स्फुटं जिनवरमतेन । स ध्यायति आत्मानं परिहरति परं न सन्देहः ॥ ३६ ॥ , गाथार्थ - जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ वह आत्मा सिद्ध है, शुद्ध है, आत्मा है, सर्वज्ञ है, सर्वलोक -दर्शी है तथा केवलज्ञानरूप है, ऐसा तुम जानो || ३५ ॥ विशेषार्थ - जिनेन्द्र देवने जिस आत्माका प्रतिपादन किया है वह सिद्ध है - आत्मोपलब्धि से युक्त है। शुद्ध है - कर्ममल कलंक से रहित है । आत्मा है—ऊर्ध्व-गमन स्वभाव होनेसे एक समय में त्रिभुवन के अग्रभाग तक गमन करता है अथवा शुद्धबुद्धक स्वभाव वाला है । सर्वज्ञ है - तीनों लोक तथा अलोक को जानने वाले केवलज्ञान से सहित है । सर्वलोकदर्शी है - अलोकाकाश और लोकको देखने वाला है । तथा अभेदनय से केवलज्ञान रूप है। चकार से अनन्तवीर्यं तथा अनन्त सुख सम्पन्ता आदि अनन्त गुणोंसे युक्त है, ऐसा है जीव ! तू जान ॥ ३५ ॥ गाथार्थ - जो योगी - ध्यानस्थ मुनि जिनेन्द्रदेव के मतानुसार रत्नत्रय For Personal & Private Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६ ३७ ] मोक्षप्रामृतम् ५९९ ( रयणत्तयं पि जोई ) रत्नत्रयमपि योगी ध्यानवान् मुनिः, न केवलं गुणिनमात्मानं तद्गुणं रत्नत्रयमपीत्यपेरर्थः । ( आराहइ जो हु जिणवरमएण ) आराघयति यः संयमी हुस्फुटं जिनवरमतेन सर्वज्ञवीतराग कथितमार्गेण । ( सो शायद अप्पाणं ) स योगी ध्यायति चितयति, कं ? आत्मानं सहजानन्दस्वभावं जीवतत्वं । चकाराद्य आत्मा, तद्रत्नत्रयं यद्रत्नत्रयं स आत्मा गुणगुणिनोरभेदनयात् ( परिहरदि पर ण संदेहो ) परिहरति परित्यजति परं पुद्गलाद्यचेतनद्रव्यं, न सन्देहोऽत्रार्थे संशयो नास्ति । " कह आदे रयणत्तयं हवदि तं जहा - कथमात्मनि रत्नत्रयं भवतीति चेत् ? यद्यथा तदेव निरूपयतिजं जाणइ तं गाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं । तं चारितं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ॥ ३७॥ यज्जानाति तज्ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं ज्ञेयम् । तच्चारित्रं भणितं परिहारः पुण्यपापानाम् || ३७ ॥ ( जं जाणइ तं गाणं ) यज्जानाति तज्ज्ञानं आत्मैव जानाति तेनात्मैव ज्ञानमित्यर्थः। “कृत्ययुटोऽन्यत्रापि” इति वचनात् कर्तरि युट् । ( जं पिच्छइ तं च दंसण की आराधना करता है वह आत्मा का ध्यान करता है और पर-पदार्थ का परित्याग करता है इसमें संदेह नहीं है || ३६ || विशेषार्थ - जो ध्यानारूढ मुनि, सर्वज्ञ वीतराग द्वारा कथित मार्ग से न केवल गुणी - आत्मा की आराधना करता है किन्तु आत्मगुण - रत्नत्रय की भी आराधना करता है वह सहजानन्द स्वभाव जीवतत्व का ध्यान करता है तथा पुद्गलादि अचेतन द्रव्योंका परित्याग करता है इसमें संशय नहीं है । यहाँ गुणी और गुणों में अभेदनय की अपेक्षा से कहा गया है। कि जो आत्मा है वही रत्नत्रय है ॥ ३६ ॥ w आगे आत्मा में रत्नत्रय किस प्रकार रहते हैं यही निरूपण करते हैं'गाथार्थ - जो जानता है वह ज्ञान है, जो देखता है - सामान्य अवलोकन करता है वह दर्शन है और पुण्य पापका परित्याग है वह चारित्र है ।। ३७ ।। विशेषार्थ - 'जो जाने सो ज्ञान है' इस व्युत्पत्ति से आत्मा जानता है अतः आत्मा ही ज्ञान है । यहाँ 'कृत्ययुटोऽन्यत्रापि' अर्थात् कृत्य संज्ञक तथा युट् प्रत्यय कर्म और भाव के सिवाय अन्यवाच्य - कर्तृवाच्य में भी प्रत्यय होते हैं इस वचन से कर्तृवाच्य में युटु प्रत्यय हुआ है । इसी तरह जो देखे वह दर्शन है इस व्युत्पत्ति से आत्मा ही दर्शन है। यहाँ भी --- For Personal & Private Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० षट्प्राभृते [ ५.३८ यं ) यत्तु भूतं, पश्यति तद्दर्शनं ज्ञेयं ज्ञातव्यं आत्मैव पश्यति तेन कारणेनात्मैव दर्शनं । अत्रापि पूर्ववत् कर्तरि युट् । ( तं चारितं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ) तच्चारित्रं भणितं प्रतिपादितं तत्कि ? परिहारः पुण्यपापानां आत्मैव पुण्यं पापं च परिहरति तेनात्मैव चारित्रं । "पापक्रियाविरमणं चरणं किल" इति वचनात् । तथा चोक्तं न किंचित् पापाय प्रभवति न वा पुण्यत तये प्रसिद्धेद्धां शुद्धि समधिवसतो ध्वंसविधुरां । भवेत् पुण्यायैवाखिलमपि विशुद्धयंगमपरं मतं पापायैवेत्युदितमवताद्वो मुनिपतेः ॥ १ ॥ मुनिपतिरत्र विद्यानन्दी समन्तभद्रो वा मंतव्यः । अण्णं च - अन्यच्च वचनमस्तीति भगवंतो निरूपयन्ति - तच्चरुई सम्मतं तच्चग्गहणं च हवइ सगाणं । चारितं परिहारो पयंपियं जिणर्वारदेहि ॥ ३८ ॥ तत्वरुचिः सम्यक्त्वं तत्वग्रहणं च भवति संज्ञानम् । चारित्रं परिहारः प्रजल्पितं जिनवरेन्द्रः ॥ ३८ ॥ पूर्वकी तरह कर्तृवाच्य में युट् प्रत्यय जानना चाहिये पुण्य और पापका जो परित्याग करता है वह चारित्र है। इस व्युत्पत्ति के आधार पर आत्मा ही पुण्य और पाप का परित्याग करता है अतः आत्मा हो चारित्र है । यथार्थ में गुण और गुणी में अभेद की विवक्षा से यहां गुणो-आत्मा को गुण- ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप कहा गया है । जैसा कि कहा है न किंचित् - प्रसिद्ध देदीप्यमान तथा विनाश से रहित शुद्धिको प्राप्त होने वाले साधुके कोई वस्तु न तो पापके लिये होती है और न कोई वस्तु पुण्य के लिये होती है । उसका जितना भी विशुद्धिका अङ्ग है वह सब पुण्यके लिये हो है और जितना अविशुद्धि का अङ्ग है वह सब पापके लिये ही है, इस प्रकार मुनिपति मुनीन्द्र का कथन तुम सबकी रक्षा करे । यहाँ मुनिपति शब्द से विद्यानन्दी अथवा समन्तभद्रको समझना चाहिये ||३७|| आगे और भी इसी प्रकारका वचन है यह कुन्दकुन्द भगवान् कहते हैंगाथार्थ - तत्वरुचि होना सम्यग्दर्शन है, तत्वज्ञान होना सम्यग्ज्ञान For Personal & Private Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ३९ ] मोक्षप्राभृतम् ( तच्च रुई सम्मत्तं ) तत्वरुचिः सम्यक्त्वं तत्वानां जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षलक्षणोपलक्षितानां सप्तानां रुचिः श्रद्धा सम्यक्त्वमुच्यते । "तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं" इति वचनात् । ( तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं ) तत्वानां पूर्वोक्तसप्तपदार्थानां ग्रहणं सम्यग्विज्ञानं भवति सज्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानं । ( चारित्तं परिहारो ) चारित्रं पापक्रियापरिहरणं परिहारः सम्यक्चारित्रं भवति । ( पयंपियं जिणवरिदेहि ) प्रजल्पितं कथितं जिनवरेन्द्र: ।.. दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं । दंसणविहीणपुरिसो न लहइ तं इच्छियं लाहं ॥ ३९ ॥ दर्शनशुद्धः शुद्धः दर्शनशुद्धः लभते निर्वाणम् । दर्शनविहोनपुरुषः न लभते तं इष्टं लाभम् ।। ३९ ।। ( दंसणसुद्धो सुद्धो ) दर्शनेन सम्यग्दर्शनेन सम्यक्त्वेन शुद्धो निर्मल निरतिचार: पंचविंशतिदोषरहितः पुमान् शुद्धः कथ्यते । उक्तं च ६०१ सम्यग्दर्शनसंशुद्धमपि मातंगदेहजं । देवा देवं विदुर्भस्मगुढाङ्गारान्तरोजसं ॥ १ ॥ है और पाप का परिहार होना सम्यक्चारित्र है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् कहा है ॥ ३८ ॥ ने विशेषार्थ - जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वोंकी रुचि श्रद्धा होना सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन कहलाता है । क्योंकि 'तत्वार्थं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' अर्थात् यथार्थतासे सहित जीवादि तत्वोंका श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है, ऐसा आगम में कहा गया है। पूर्वोक्त सात तत्वोंका ग्रहण करना अर्थात् उनके यथार्थ स्वरूपको जानना सम्यग्ज्ञान कहा जाता है और पापका परित्याग होना सम्यक्चारित्र . कहलाता है, ऐसा जिनवरेन्द्र - तीर्थंकर सर्वज्ञ देवने कथन किया है ||३८|| गाथार्थ - सम्यग्दर्शन से शुद्ध मनुष्य, शुद्ध कहलाता है । सम्यग्दर्शन शुद्ध मनुष्य निर्वाणको प्राप्त होता है। जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से रहित है वह इष्ट लाभ को नहीं पाता ॥ ३९ ॥ से विशेषार्थ - जो मनुष्य सम्यग्दर्शन में कभी अतिचार नहीं लगाता तथा पच्चीस दोषों से रहित है वह शुद्ध कहलाता है । कहा भी है सम्यग्दर्शन - सम्यग्दर्शन से शुद्ध चाण्डाल को भी गणधरादिक देव, भस्म के भीतर छिपे अङ्गारके समान आभ्यन्तर तेजसे युक्त देव कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ षट्नाभृते [६. ४०(सणसुद्धो लहइ णिग्वाणं ) दर्शनशुद्धः पुमांल्लभते निर्वाणं मोक्षं । (दसणविहीणपुरिसो) दर्शनविहीनः पुरुषः सम्यग्दर्शनरहितः पुमान् सम्यक्त्वविवर्जितो जीवः । ( न लहइ तं इच्छियं लाहं ) न लभते न प्राप्नोति तं जगत्प्रसिद्धं योगिनां प्रत्यक्षं इष्टं लाभं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षपदार्थ । । इय उवएसं सारं जरमरणहरं खु मण्णए जंतु। . तं सम्मत्तं भणियं समणाणं सावयाणं पि ॥४०॥. इति उपदेशः सारो जन्ममरणेहरं स्फुटं मन्यते यत्तु । तत् सम्यक्त्वं भणितं श्रमणानां श्रावकाणामपि ॥४०॥ . . ( इय उवएस सार ) इतीदृश उपदेशः संबोधनवचनं, सारं-सारः श्रेष्ठतरः । श्रेष्ठे 'बले स्थिरस्वान्ते मज्जायां सार उच्यते । .. . जले न्याय्ये घने विद्भिः सारमुक्तं नपुसके ॥१॥ (जरमरणहरं खु मण्णए ज तु) जरामरणहरं जरामरणविनाशकं इमं उपदेशं मन्यते श्रद्दधाति यत्तु यत् श्रद्धत्ते तु पुनः । (तं सम्मत्तं भणियं ) तत्स: म्यक्त्वं भणितं प्रतिपादित । ( समणाणं सावया पि ) श्रमणानां अनगारयतीनां श्रावकाणामपि गृहस्थानां । अपिशब्दाच्चातुर्गतिकजीवानामपि । ww जिस मनुष्य का सम्यग्दर्शन शुद्ध है वह निर्वाण को प्राप्त होता है । सम्यग्दर्शन से रहित मनुष्य इष्ट लाभको-सर्वकर्मक्षय रूप मोक्षको नहीं पाता ॥ ३९ ॥ गाथार्थ-यह श्रेष्ठतर उपदेश स्पष्ट हो जन्म मरण को हरने वाला है इसे जो मानता है-इसकी श्रद्धा करता है वह सम्यक्त्व है । यह सम्यक्त्व मुनियों के, श्रावकों के तथा चतुर्गति के जीवोंके होता है ॥४०॥ विशेषार्थ-यहाँ सार शब्दका अर्थ श्रेष्ठतर-अत्यन्त श्रेष्ठ है । जैसा कि कहा है__ श्रेष्ठेबले-पुलिङ्ग में सार शब्द श्रेष्ठ, बल, दृढ़चित्त ओर मज्जा अर्थ में कहा जाता है और नपुंसक लिङ्गमें सार शब्द जल, न्यायपूर्ण बात और धन अर्थ में विद्वानों द्वारा प्रयुक्त होता है। इस पूर्वोक्त अत्यन्त श्रेष्ठ उपदेशका जो जरा और मरणका नाश करनेवाला मानता है वह सम्यक्त्व कहा गया है। यह सम्यग्दर्शन श्रमण-दिगम्बर मुनियों के, श्रावकों के और अपि शब्द से चारों गतियों १. अमरेज्युक्त-"मारो बले स्थिरांशे न्याय्ये क्लीवं वरे त्रिषु ।" For Personal & Private Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतम् जीवाजीवविहत्ती जोई जाणे जिणवरमएणं । तं सण्णाणं भणियं अवियत्यं सव्वदरिसीहि ॥ ४१ ॥ जीवाजीवविभक्ति योगी जानाति जिनवरमतेन । तत् संज्ञानं भणितं अवितथ सर्वदर्शिभिः ॥ ४१ ॥ ( जीवाजीव विहत्ती) जीवाजीवानां विभक्तिः भेदस्तां जीवाजीव विभक्ति । ( जोई जाणेइ जिणव रमणं ) योगी दिगम्बरो मुनिः, जानाति वेत्ति यथावत्स्वरूपमवैति, जिनवर मतेन सर्वज्ञशासनेन । ( तं सण्णाणं भणियं ) तत्संज्ञानं भणितं तत्सम्यग्ज्ञानं कथितं । ( अवियत्थं सन्दरिसीहि ) अवितथं सत्यभूतं, सर्वदशभिः सर्वज्ञैरिति शेषः । उक्तं च -६. ४१-४२ ] 'अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात् 1 निःसन्देहं वेद याहुतज्ज्ञानमागमिनः ॥ १ ॥ जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं । तं चारितं भणियं अवियप्पं कम्मरहिए ॥ ४२॥ यत् ज्ञात्वा योगी परिहारं करोति पुण्यपापयोः । तत् चारित्रं भणितं अविकल्पं कर्म्मरहितेन ॥ ४२ ॥ ६०३ के जीवों होता है । सम्यक्त्व की प्राप्ति चारों गतियों के संज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्त भव्य जीवको हो सकती है ॥ ४० ॥ गाथार्थ - जो मुनि जिनेन्द्रदेव के मतसे जीव और अजीवके विभाग को जानता है उसे सर्वदर्शी भगवान् ने यथार्थ सम्यग्ज्ञान कहा है ॥ ४१ ॥ विशेषार्थ - यद्यपि तत्व सात हैं तथापि संक्षेपसे उनका समावेश जीव और अजीव इन दो तत्वों में हो जाता है इस दृष्टिको हृदयस्थ कर श्रीकुन्दकुन्दस्वामी कहते हैं कि जो जिनेन्द्रदेव के मतानुसार जीव और अजीव के विभाग को जानता है अर्थात् शुद्ध-बुद्धकस्वभाव आत्मा और उसके साथ लगे हुए कर्म नोकर्म तथा भावकर्म के विभाग को अच्छी तरह समझता है उसे सर्वज्ञ देवने सत्यभूत सम्यग्ज्ञान कहा है । कहा भी है- • अन्यून - जो ज्ञान वस्तुके स्वरूपको न्यूनता रहित, अधिकता रहित, जैसाका तसा, विपरीतता के बिना और संशय-रहित जानता है उसे आगम के ज्ञाता पुरुष सम्यग्ज्ञान कहते हैं । गाथार्थ - यह सब जानकर योगी जो पुण्य और पाप दोनों का १. रत्नकरण्ड श्रावकाचारे । For Personal & Private Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ षट्प्राभूते [ ६. ४३ ( जं जाणिऊण जोई ) यज्ज्ञात्वा विज्ञाय योगी जैनी मुनिः । ( परिहारं पुणइ पुण्णपावाणं ) परिहारं परित्यागं करोति पुण्यपापयोः । ( तं चारितं भणियं ) तदात्मना सहकलोलीभावः तन्मयत्वं तत्परत्वं तन्निष्ठत्वं तदेकतानत्वं चारित्रं परमोदासीनतालक्षणं भणितं प्रतिपादितं । केन, ( कम्मरहिएण ) घाति कर्मविध्वंसकेन सर्वज्ञेन । तत्कथंभूतं चारित्रं, ( अवियप्पं ) अविकल्पं संकल्पविकल्परहितं निर्विकल्पसमाधिलक्षणं यथाख्यातनामकं । जो रयणत्तयजुत्तो कुणइ तवं संजदो ससत्तीए । सो पावइ परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं ॥ ४३ ॥ यो रत्नत्रययुक्तः करोति तपः संयतः स्वशक्त्या । स प्राप्नोति परमपदं ध्यायन् आत्मानं शुद्धम् ||४३|| ( जो रयणत्तयजुत्तो ) यो जैनो मुनी रत्नत्रययुक्तः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसहितः सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानसमुपेतः ( कुणइ तवं संजदो ससत्तीए ) करोति विदधाति सम्यगनुतिष्ठति, किं तत् ? तर इच्छानिरोध लक्षणं आत्मनि ज्ञानवत्तया परिहार करता है उसे कर्म- रहित सर्वज्ञ देवने निर्विकल्पक चारित्र कहा है ॥ ४२ ।। विशेषार्थ - चारित्र का यथार्थ लक्षण आत्मस्वरूप में स्थिरता है । जब तक इस जीव की पुण्य अथवा पाप में प्रवृत्ति होती रहती है तब तक स्वरूप की स्थिरता नहीं होती क्योंकि पुण्य और पाप की प्रवृत्ति कषायसे जन्य है तथा कषाय- जन्य होनेसे उसमें अनेक संकल्प-विकल्प उठते रहते है । संकल्प - विकल्प दशा में निर्विकल्प समाधिरूप यथाख्यातचारित्र का प्रकट होना असंभव है, इसलिये आचार्य महाराज ने कहा कि योगी-जैन मुनि वस्तुरूपको जानकर जो पुण्य और पाप दोनोंका परित्याग करता है अर्थात् परम शुद्धोपयोग रूप अवस्था को प्राप्त होता है उसे घातिया कर्मों का क्षय करने वाले सर्वज्ञदेवने निर्विकल्प समाधि रूप यथाख्यात नामका चारित्र कहा है || ४२॥ गाथार्थ - रत्नत्रय को धारण करने वाला जो मुनि शुद्ध आत्मा का ध्यान करता हुआ अपनी शक्ति से तप करता है वह परम पद को प्राप्त होता है ||४३|| For Personal & Private Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०५ -६. ४४] मोक्षप्रामृतम् तपनं, संयतो जैनो मुनिः परमोदासोनतालक्षणसंयमं सम्पन्नः, स्वशक्त्या आत्मशक्त्यनुसारेण । उक्तं च 'जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सहहइ । सदहमाणो जीवो पावइ अजरामरं ठाणं ॥ १ ॥ "शक्तितस्त्यागतपसी" इति वचनात् । ( सो पावइ परमपयं ) स प्राप्नोति स मुनिलंभते, किं तत् ? परमपदं इन्द्रधरणेन्द्रमुनीन्द्रनरेन्द्रवंदितं स्थानं परमनिर्वाणं । ( शायंतो अप्पयं सुद्धं ) ध्यायन् सन् एकाग्रतया चिन्तयन्, कं ? आत्मानं निजशुद्धबुद्धकस्वभावात्मतत्वं, शुद्धं द्रव्यकर्मभावकर्मनोकर्मरहितं रागद्वेषमोहादिविवजितं कर्ममलकलङ्करहितं प्रत्यक्षतया प्राप्तमिति तात्पर्यार्थः । तिहि तिणि धरवि णिच्चं तियरहिओ तह तिएण परियरिओ। दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई ॥४४॥ त्रिभिः त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहितः तथा त्रिकेण परिकलितः । द्विदोषविप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायति योगी ॥४४॥ विशेषार्थ-जो जैन मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे युक्त होता हुआ अपनी शक्तिके अनुसार इच्छा-निरोध रूप तपको करता है वही वास्तव में संयत है अर्थात् परम उदासीनता रूप संयम को प्राप्त है। ऐमा संयत यदि द्रव्यकर्म भावकर्म और नोकर्म से रहित अथवा रागद्वेष मोह आदिसे रहित अथवा कर्म-मल-कलंक से रहित शुद्ध-बढेक स्वभावसे युक्त निज आत्माका ध्यान करता है तो वह परम पद-इन्द्र धरणेन्द्र मनीन्द्र और नरेन्द्रोंके द्वारा वन्दित परम निर्वाण को प्राप्त होता है। तप शक्तिके अनुसार होता है क्योंकि 'शक्तितस्त्यागतपसी'-त्याग और तप शक्ति के अनुसार होते हैं ऐसा आगम का वचन है । और भी कहा है जं सक्कइ-जो किया जा सके उसे करना चाहिये और जो न किया जा सके उसका श्रद्धान करना चाहिये क्योंकि श्रद्धान करने वाला जोव भी अजर-अमर पदको प्राप्त होता है ।।४३॥ - गाथार्थ-तीनके द्वारा तीन को धारण कर, निरन्तर तीनसे रहित, तीनसे सहित और दो दोषों से मुक्त रहने वाला योगी परमात्मा का ध्यान करता है ।।४४॥ १. सक्कह तं कोरइ जं च ण सक्केइ तं च सहहणं । केवलिजिहि भणिय सहमाणस्स सम्मत्तं ॥२२॥ -दर्शनप्राभूते For Personal & Private Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ षट्प्राभृते [ ६. ४५ ( तिहि ) त्रिभिः मनोवचनकायै: । ( तण्णि घरवि ) श्रीन् वर्षाशीतोष्णका - लयोगान् धृत्वा । “तुआण तणाव तुम् च क्त्वायाः" इति प्राकृतव्याकरणसूत्रेण क्त्वास्थानेऽव-आदेशः तेन धृत्वा इत्यस्य स्थाने घरवि इति प्रयोगः साधुः । ( णिच्चं ) सर्वदा सर्वस्मिन् दीक्षाकाले । ( तियरहिओ ) मायामिथ्यात्वनिदान - शल्य त्रिकरहितः । ( तह तिएण परियरिओ) तथा तेनैव त्रिकरहितप्रकारेण, त्रिकेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेण परिकरितो मंडित: । ( दोदोसविप्पमुक्को ). द्विदोषविप्रमुक्तः विशेषेण प्रकर्षेण रागद्वेषदोषरहितः । ( परमप्पा झायए जोई ) परमात्मानं सिद्धस्वरूपमात्मानं ध्यायति चितयति योगिन ध्यानवान् मुनिः । अथवा योगीति योगबलेन मनोवाक्काययोगावष्टम्भेन । मयमायकोहरहिओ लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो । णिम्मलसहावजुत्तो सो पावद्द उत्तमं सोक्खं ॥ ४५ ॥ मदमायाक्रोधरहितः लोभेन विवजितश्च यो जीवः । निर्मलस्वभावयुक्तः स प्राप्नोति उत्तमं सौख्यम् ||४५ || ( मयमायकोहरहिओ ) मदमायाक्रोष रहितः । ( लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो ) लोभेन विवर्जितश्च यो जीव आत्मा । ( णिम्मलसहावजुत्तो ) निर्मलस्वभावः रागादिरहितः परिणामस्तेन संयुक्तः । ( सो पावइ उत्तमं सोक्खं ) स जीवः विशेषार्थ - तीनके द्वारा अर्थात् मन वचन कायके द्वारा तीनको अर्थात् वर्षा कालयोग, शीतकाल योग और उष्णकालयोगको धारण कर निरन्तर अर्थात् दीक्षाकाल से लेकर तीनसे रहित अर्थात माया मिथ्यात्व और निदान इन शल्योंसे रहित, तीनसे सहित अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से सहित और दो दोषों से विप्रमुक्त अर्थात् राग, द्वेष इन दोषोंसे सर्वथा रहित योगी - ध्यानस्थ मुनि परमात्मा अर्थात् सिद्धके समान उत्कृष्ट निज-स्वरूप का ध्यान करता है ||४४|| गाथार्थ - जो जीव मद माया और क्रोधसे रहित है, लोभसे वर्जित है तथा निर्मल स्वभाव से युक्त है, वह उत्तम सुखको प्राप्त होता है ॥४५॥ विशेषार्थ - यह जीव क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चार कषायों के कारण स्वभाव से च्युत हो रहा है, इसलिये इन चारों कषायों का अभाव करके जो रागादि परिणाम से रहित होता हुआ निर्मल स्वभाव से युक्त हो गया है वही जीव कर्म-क्षयसे उत्पन्न होनेवाले, इन्द्रियसुखसे रहित देव-दुर्लभ परमानन्द रूप उत्तम सुखको प्राप्त होता है । For Personal & Private Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५. ४६ ] मोक्षप्राभूतम् ६०७ प्राप्नोति लभते कि ? उत्तमं सोरथं कर्मक्षयसंजातं - इन्द्रियमुखरहितं इन्द्रादीनामपि दुर्लभं सौख्यं परमानन्दलक्षणं । तथा चोक्तं जं मुणि लहइ अनंतसुहु णियअप्पा झायंतु । तं सुहु इंदु विन वि लहर देविहि कोडि रंमंतु ॥ १ ॥ विसयकसाएहि जुदो रुद्दो परमप्पभावरहियमाणो । सोन लहइ सिद्धिसुहं जिणमुदपरम्हो जीवो ॥४६॥ विषयकषायैर्युक्तः रुद्रः परमात्मभावरहितमनाः । स न लभते सिद्धिसुखं जिन मुद्रापराङमुखो जीवः ॥४६॥ ( विसयकसाएहि जुदो ) विषयः वनिताजनानामालिंगनादिस्पर्शादिपंचेन्द्रियसुखैः कषायैश्च क्रोधमानमायालो भैः युतः संहितः । ( रुद्दो परमप्पभावरहियमणो ) रुद्रः सात्यकि महाराजपुत्रः परमात्मभावरहितमनाः परमात्मभावनायाः प्रभृष्टः । ( सो न लहइ सिद्धिसुहं ) स रुद्रो न लभते न प्राप्नोति, कि ? सिद्धिसुखं आत्मोपलब्धिसुखं । तर्हि किं लभते ? नरकदुःखं लभते ? इत्यर्थापत्तिः । ( जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो) जिनमुद्रापराङ्मुखो जीवः - जिनमुद्रां परित्यज्य भृष्टो बभूवेति भावार्थ: । रुद्रस्य कथा यथा - अथेह भरतक्षेत्रे विजयार्घपर्वते दक्षिणश्रेण्यां किन्नरगीत जैसा कि कहा गया है जंgणि - निज आत्माका ध्यान करता हुआ मुनि जिस अनन्त सुखको प्राप्त करता है उस सुखको करोड़ों देवियोंके साथ रमण करता हुआ भी इन्द्र नहीं प्राप्त कर सकता है । 'गाथार्थ - जो विषय कषाय से युक्त है जिसका मन परमात्माकी भावना से रहित है तथा जो जिन-मुद्रासे पराङमुख - भ्रष्ट हो चुका है ऐसा रुद्रपद धारी जोव सिद्धि सुख को प्राप्त नहीं होता ||४६ || विशेषार्थ — स्त्रीजनों के आलिङ्गन आदि पञ्चेन्द्रियों के विषयों तथा क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय से युक्त होनेके कारण जिसका मन परमात्मा की भावना से हट गया है तथा जो जिन-मुद्राको छोड़कर भ्रष्ट हो चुका है ऐसा रुद्र मोक्ष सम्बन्धी सुखको प्राप्त नहीं होता किन्तु नरक के दुःखको प्राप्त होता है । रुद्र की कथा इस प्रकार है— रुद्र की कथा अथानन्तर इसी भरत क्षेत्रके विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में एक किन्नरगीत नामका नगर है। उसमें रत्नमाली नामका विद्याधरों का For Personal & Private Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ षट्नाभृते [६. ४६नगरे रत्नमाली खगनरेन्द्रो मनोहरी विद्याधरी कान्ता, तत्पुत्र रुद्रमाली। स एकस्मिन् दिने स्वच्छन्दं वने विहरमाणो विद्यां साधयन्ती विद्याधरकुमारी ददर्श । तदरूपमोहितो विद्यया भ्रमरो बभूव । षण्मासपर्यन्तं तद्वदनकमल स्थिति चकार । पुनः सूक्ष्मो भूत्वा स्तनयोजघने च तस्थौ। पश्चात्प्रकटीकृत निजशरीरः स तया परिगलितर्यो भणितः-प्रतीक्षस्व कियत्कालं तावत् विघ्नं मा कार्षीः । शिखिदुर्लभा विद्या सिद्धयति तस्यां सिद्धायां तव जाया भविष्यामि । हे सुभग ! बद्धानरागाहं वर्ते । तदा तेन सा पृष्टा । भद्रे ! त्वं कस्य धूदा ? । भणितं च तया। । अत्रैव पर्वते उत्तरस्यां श्रेणी गन्धर्वपुरपत्तनाधीशो मम पिता महाबलः । तस्य प्रभाकरी भार्या । तयोधूदा प्रसिद्धाहमचिमालिनी । तयापि पृष्टः त्वं कः ? स आह अत्र गिरौ दक्षिणश्रेणौ किन्नरगीतप्रभुरत्नमालिमनोहर्योः सुतोऽहं रुद्रमाली नाम । राजा रहता था। उसकी स्त्रीका नाम मनोहरी विद्याधरी था। उन दोनोंके रुद्र-माली नामका पुत्र था। एक दिन वह स्वच्छन्दतापूर्वक वनमें विहार कर रहा था। उसी समय उसने विद्या सिद्ध करती हुई एक विद्याधर कुमारी को देखा। उसके रूपसे मोहित होकर रुद्रमाली विद्या. से भ्रमर बन गया और छह महोने तक उसके मुख कमलमें रहा आया। उसके बाद और भो सूक्ष्म रूप बना कर स्तनों तथा. जघन प्रदेश में रहा आया । पश्चात् उसने अपना असली शरीर प्रकट किया उस समय उसका धेर्य छूट रहा था अर्थात् वह उस विद्याधर-कुमारी को पानेके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहा था। यह देख विद्याधर कुमारी ने कहा कि कुछ समय तक प्रतीक्षा करो, विघ्न मत करो। शिखिदुर्लभा नामकी विद्या सिद्ध हो रही है उसके सिद्ध होनेपर मैं तुम्हारी स्त्रो बन जाऊँगी। हे सुभग ! मैं तुम्हारे प्रति बद्धानुराग हूँ। ___ उस समय रुद्रमाली ने उससे पूछा कि हे भद्रे ! तू किसकी पुत्री है ? उसने कहा कि इसी पर्वत को उत्तर श्रेणोपर गन्धर्वपुर नगर का राजा महाबल रहता है वह मेरा पिता है । उसको स्त्रीका नाम प्रभाकरी है । में अचिमालिनी नामसे प्रसिद्ध उन्हीं दोनों की पुत्री हूँ। इस प्रकार अपना परिचय देकर विद्याधर कुमारीने भी पूछा कि तुम कौन हो ? तब रुद्रमाली ने कहा कि इसी पर्वत की दक्षिण श्रेणी पर किन्नरगीत नामका नगर है। उसके राजा रत्नमालो और रानी मनोहरी का में रुद्रमाली नामका For Personal & Private Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ४६ ] मोक्षप्राभृतम् ६०९ बहुभिर्दिनः साधितविद्याचिमालिनीन्दुवदना सदनं जगाम । मातरपितरौ द्वयोर्मनो विज्ञाय तयोर्विवाहं चक्रतुः । तौ रतिरसरंजितौ साधितप्रज्ञप्तिविद्यौ नन्दनवने शान्तिहेतवे जिनस्नपनपूजनस्तवनानि कृत्वा सुखं स्थितौ । मनोजयचित्तवेगौ तस्या मैथुनिकावागत्य महाजालिनीविद्यया रुद्रमालिनं वद्ध्वा प्रगृह्य गतौ । सोऽपि तौ निर्जित्य पुनरागतः । अचिमालिन्या सह निजपुरं प्रविवेश । सानुरागस्तस्थौ । एकदा वैराग्यं प्राप्य चारणचरणमूले सभार्यो दिदीक्षे । तौ परस्परं ममायं कान्तो भविष्यति ममेयं प्राणप्रिया भविष्यतीति सनिदानौ सौधमं संन्यासेन गतौ । तत्रापि दीर्घकालं निसुखं भुक्त्वा गन्धारदेशे माहेश्वरपुरे स देवः सत्यन्ध र महाराज सत्यवत्योः सुतः सात्यकिर्जातः । अचिमालिनीचरी देवी सौधर्माच्च्युत्वा सिन्धुदेशे विशालीपत्तने चेटकमहाराजसुप्रभादेव्योः सुता ज्येष्ठा जाता । सा सात्यकेः पूर्वमेव दत्ता । परं विवाहो न वर्तते । अवान्तरे श्रेणिकमहाराजपुत्रः कस्यार्थं सार्थवाहो भूत्वा अभयकुमारो नाम धूर्तस्तत्रागतः । तत्र राजपुत्र्यौ चेलनां ज्येष्ठां च चालयित्वा उपायं कृत्वा सुरगया निःसृतः । तत्र चेलनया जेष्ठा आभरणादिमिषेण व्याघोटिता स्वयं श्रेणिकं आगता । यावज्ज्येष्ठा जिनप्रतिमां गृहीत्वा गच्छति बहुत दिनों में विद्या सिद्ध कर, चन्द्रमुखी, इन्दुमालिनी अपने घर चल गई। माता-पिता ने दोनोंका मन जानकर उनका विवाह कर दिया । रतिके रागसे रंगे तथा प्रज्ञप्ति नामक विद्या को सिद्ध करने वाले वे दोनों शान्ति के हेतु नन्दन वनमें जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक पूजन तथा स्तवन कर सुखसे बैठे थे। इतने में मनोजय और चित्तवेग नामके दो विद्याधर जो कि अर्चिमालिनी के अभिलाषी थे महाजालिनी विद्या से रुद्रमाली को बाँधकर ले गये । परन्तु रुद्रमाली उन दोनोंको जीतकर फिर आगया । अर्चिमालिनीके साथ उसने नगर में प्रवेश किया तथा अनुराग पूर्वक रहने लगा । एक दिन उसने विरक्त होकर चारण ऋद्धिधारी मुनिके चरण मूलमें स्त्रीके साथ दीक्षा ले ली अर्थात् रुद्रमाली मुनि होगया और अर्चिमालिनी आर्यिका बन गई । उन दोनों ने 'परस्पर यह मेरा पति होगा और यह मेरी स्त्री होगी' इस प्रकार निदान कर संन्यास धारण किया और मरकर सौधर्म स्वर्गं गये । वहाँ भी दीर्घकाल तक रति सुखका उपभोग कर देव तो गन्धार देशके माहेश्वर पुरनगर में महाराज सत्यन्धर और उनकी . रानी सत्यवतीके सात्यकि नामका पुत्र हुआ । तथा अर्चिमालिनी का जीव देवी सौधर्मं स्वर्गसे च्युत हो सिन्धुदेश के विशाली नगर में महाराज चेटक ३९. For Personal & Private Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० . षट्प्राभृते . [६.४६तावत्तत्र कोऽपि न दृष्टः । जेष्ठा तु लज्जिता "अह वृहद्भगिन्या वंचिता" इति वैराग्येण पितृष्वसुर्यशस्वत्या 'श्चैत्यालये स्थितायाश्चरणमूले दीक्षां जग्राह । कनकांचनवायाः कन्याया वार्ता श्रुत्वा सत्यकिर्नाम कुमारः संसाराद्विरक्तो राज्यलक्ष्मी परित्यज्य समाधिगुप्त नत्वा जिनदीक्षामग्रहोत् । त्रिगुप्तिगुप्तः सन् स तपस्तीव्र कुर्वाण उत्तरगोकर्णमद्रि मुक्त्वा कदाचित् राजगृहनगरसमीपे उच्चग्रीवपर्वते स्थितः। एकस्मिन् दिने तद्गुणनुरागिण्यस्तत्रत्यार्यास्तं वन्दितुमागताः । वन्दित्वा यावतगिरेरवतरन्ति तावन्महामेघवृष्टिरागता । आर्यास्तु स्तिम्यन्त्यो विव्हलीभूतं यत्र तत्र गताः । जेष्ठाया सात्यकिमुनेगुहां प्रविष्टा । तत्र वस्त्रं निष्पोलयन्ती ज्येष्ठा सात्यकिना मुनिना दृष्टा । समुत्पन्नकामोद्रेकेण और उनकी रानी सुप्रभादेवी के ज्येष्ठा नामकी पुत्री हुई । ज्येष्ठा सात्यकि के लिये पहले ही दे दी थी परन्तु विवाह नहीं हुआ था। ___ इसी बीच में महाराज श्रेणिक का पुत्र धूर्त अभय कुमार कन्या के लिये सेठ बन कर वहां आया। वहां उसने राजा की दो पुत्रियों चेलना और ज्येष्ठा को चला दिया और उपाय कर सुरङ्ग द्वारा निकल गया। उन दोनों पुत्रियों में चेलना ने ज्येष्ठा को आभरण आदिके बहाने वापिस लौटा दिया और स्वयं अकेली श्रेणिकके पास आ गई । जिन प्रतिमा लेकर जब ज्येष्ठा वहाँ पहँची तब वहाँ कोई नहीं दिखा। इस घटना से ज्येष्ठा बहुत लज्जित हुई 'मैं बड़ी बहिन के द्वारा ठगी गई'.इस अभिप्राय से विरक्त होकर उसने अपनी बुआ यशस्वती नामकी आर्यिका के जो कि जिन मन्दिर में रहती थीं चरण मूलमें दोक्षा धारण कर ली । देदीप्यमान सुवर्णके समान वर्ण वाली ज्येष्ठा कन्याका दीक्षा लेने का समाचार सुनकर सात्यकि नामक कुमार भी संसारसे विरक्त हो गया। उसने राज्यलक्ष्मी का परित्याग कर समाधि गुप्त नामक मुनिराज को नमस्कार पूर्वक जिनदीक्षा ले ली। तीन गुप्तियोंसे युक्त होकर तीव्र तप तपश्चरण करते हुए सात्यकि मुनि एकबार उत्तर गोकर्ण पर्वत को छोड़कर राजगृह नगर के समीप उच्चग्रीव पर्वत पर स्थित हुए। एक दिन उनके गुणों में अनुराग रखनेवाली आर्यिकाएं उनकी वन्दना करनेके लिये आईं । वन्दना करके ज्योंही ही वे पर्वत से उतरने लगी त्योंही बहुत भारी मेघवृष्टि आ पहुंची । आर्यिकाएँ भोंग कर विह्वल होती हुई इधर उधर चली गईं। परन्तु जेष्ठा नामकी आर्यिका सात्यकि मुनिकी गुफा में प्रविष्ट हुई । वहाँ १. बार्यिकायाः। For Personal & Private Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ —६. ४६ ] मोक्षप्राभृतम् ६११ सा तेन भुक्ता । पुनरालोचनां निन्दां गर्हणं च कृत्वा श्रमणधर्मे स्थितः । सा सगर्भा शास्त्यायया ज्ञात्वा चेलन्या: समर्पिता । तत्र तिष्ठन्ती सा पुत्रमसूत । स पुत्रोऽभयकुमारेण स्वयंभू गुहायां क्षिप्तः । तत्र रात्री स्वप्नदर्शनाच्चेलनया ख आनायितः । 'दर्शनोड्डाहं शमयित्वा स्वयंभूनामा कृतः । ज्येष्ठा तु निःशल्या भूत्वा गता । आर्यायाः पार्श्वे संयमनियमान् पालयन्ती स्थिता । स्वयंभूस्तु वर्धमानः शिशूनां चपेटादिताडनेन सन्तापं करोति । तद्देव्या चेलनया अपरमपि कालेनायुक्त दृष्ट्वा स्वयंभूरुक्तः । खलो जारजातो निर्लज्जः किं केनापि स्वभावं मुंचति । कुकृत्वा दुर्वचनेन शूलभिन्न इव ताडितः । पुनः स प्रणामं कृत्वा पृष्टवान्मातः ! किमेतदुक्तं ? चेलनया तु न किमपि रक्षितं यथोक्तमुवाच । निजोत्पत्तिव्यतिकरं ज्ञात्वा उत्तरगोकर्णपर्वतं गत्वा सात्यकिमुनि नत्वा वैराग्येण दिगम्बरो भूत्वा उत्तरगोकर्णपर्वते स्थितः । गुरुशिक्षया मनो रुद्ध्वा स एकादशाङ्गानि शिक्षितः । तत्र रोहिणीप्रभृतयः पंचशतविद्या महातिशया आगताः सिद्धाः । अपरा 1 वह कपड़ा निचोड़ने लगी । उसी समय सात्यकि मुनि की दृष्टि उस पर पड़ी। देखते हो मुनिके कामोद्रेक हो गया जिससे उन्होंने उसका उपभोग कर लिया | मुनि तो आलोचना निन्दा तथा गर्हा कर मुनि धर्म में स्थिर हो गये परन्तु ज्येष्ठा आर्या गर्भावती हो गई । जब शान्ति नामक प्रधान आर्याको पर्ता चला तो उसने उसे चेलनाको सौंप दिया । चेलना के पास रहते हुए उसने पुत्र उत्पन्न किया। उस पुत्रको अभय कुमारने स्वयंभू गुफा में डाल दिया । रात्रिके समय चेलना को स्वप्न दिखा जिससे उसने उसे गुफा से बुलवा लिया तथा दर्शन सम्बन्धी अनिष्ट का शमन कर उसका स्वयंभू नाम रखा । ज्येष्ठा निःशल्य होकर चली गई तथा आर्यिका के पास संयम सम्बन्धी नियमों का पालन करती हुई रहने लगी । स्वयंभू ज्यों ज्यों बड़ा होने लगा त्यों त्यों चाँटा आदि की ताड़ना से अन्य बच्चों को संताप पहुँचाने लगा। किसी समय रानी चेलना ने उसके और भी अनुचित कार्य को देखकर स्वयंभू से कहा- जो दुष्ट, जार जात तथा निर्लज्ज होता है वह क्या किसी भी कारण स्वभाव को छोड़ता है। चलना ने भौंह टेढ़ी कर उक्त दुर्वचन कहे थे इसलिये स्वयंभू इतना पीड़ित हुआ मानों किसी ने शूल से ही विदीर्ण कर दिया हो । उसने फिर प्रणाम कर पूछा- माता जी ! आपने यह क्या कहा है ? चेलना ने कुछ भी नहीं रख छोड़ा सब ज्योंका त्यों कह दिया । अपनी उत्पत्ति का समा १. दर्शनोडाहं क० । For Personal & Private Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ षट्प्राभृते [ ६. ४६ अपि अंगुष्ठप्रसेनाप्रभृतयः सप्तशतक्षुद्र विद्यास्तस्य सिद्धाः । विद्यासामर्थ्येन सिंहो भूत्वा जनं भीषयति । तद्वृत्तान्तः केनचित् सात्यकेनिरूपितः । गुरुणा स ऊचे - मुने! तव स्त्रीहेतुना विनाशो भविष्यति । तद्भुत्वा यत्र स्त्रीमुखं न पश्यामि तत्राहं तपः करिष्यामीति कैलासपर्वतं गत्वा तपः कतु लग्नः । तावद्विजया - दक्षिणश्रेणौ मेघनिबद्धपत्तने कनकरथो नाम विद्याधरनरेन्द्रः । तद्देवी मनोरमा । देवदारुविद्युद्रसनौ द्वौ पुत्रौ । एकदा देवदारुं राज्ये स्थापयित्वा विद्युज्जिन्हं च युवराजं कृत्वा कनकरथो गुणघरगुरुचरणमूले दीक्षां जग्राह । प्रज्ञप्तिविद्याप्रभावेण विद्युज्जिव्हेन देवदारुजतो निर्धाटितः । कैलासमागत्यसपरिवारो विद्यापुरं कृत्वा निर्भयः स्थितः । तस्य देवदारोः चतस्रो महादेव्यः सन्ति योजनगन्धा, कनका, तरंगवेगा, तरंगभामिनी चेति । चतस्रोऽप्यतिमनोहरशरीराः योजनगन्धायां षिला गन्धमालिनी चेति द्वे धूदे जाते अतिविनीते । कनकायां कनकचित्रा कनकमाला चेति धूदे द्वे जाते तरंगवेगायं तरङ्गसेना तरङ्गवती चेति द्वे कन्ये संजाते । चार जानकर स्वयंभू उत्तर गोकर्ण पर्वत पर गया और सात्यकि मुनिको नमस्कार कर वैराग्य वश दिगम्बर साधु हो गया तथा उसी उत्तर गोकर्ण पर्वत पर रहने लगा। गुरु की शिक्षा से मन रोककर उसने ग्यारङ्ग अङ्ग सीख लिये । वहाँ उसे महान् अतिशय से युक्त रोहिणी आदि पांचसौ विद्याएँ आकर सिद्ध हो गईं। विद्या की सामर्थ्य से वह सिंह बन कर लोगोंको डराने लगा। यह समाचार किसीने उसके गुरु सात्यकि मुनि से कह दिया । तब गुरु ने उससे कहा कि हे मुने ! स्त्री के कारण तुम्हारा विनाश होगा | गुरुके वचन सुनकर वह कहने लगा कि 'मैं जहाँ स्त्री का करूँगा' ऐसा कह कर वह कैलाश पर्वत पर मुख न देख सकूँ वहाँ तप जाकर तप करने लगा । उसी समय विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी पर मेघनिबद्ध नामक नगर में कनकरथ नामका विद्याधरोंका राजा रहता था । उसकी स्त्री का नाम मनोरमा था । उन दोनोंके देवदारु और विद्युज्जिह्व नामके दो पुत्र थे। एक दिन देवदारु को राज्य पर स्थापित कर तथा विद्युज्जिह्न को युवराज बनाकर राजा कनकरथ ने गुणधर गुरुके पाद मूल में दोक्षा ले ली । उधर प्रज्ञप्ति विद्या के प्रभाव से विद्युज्जिह्व ने देवदारु को जीतकर निकाल दिया जिससे वह कैलास पर्वत पर आकर तथा विद्या से एक नगर १. सत्यः म० । For Personal & Private Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभृतम् तरङ्गभामिन्यां सुप्रभा प्रभावती चेति द्वे पतिवरे बभवतुः । एता अष्टावपि दिव्याभरणभूषिता दिव्याम्बरधरा अमरकुमारिका इव कंचुकिपरिवरितास्तिष्ठन्ति । एकदा कलासोपरि मानससरसि जलक्रीडार्थमागताः पीनोन्नतस्तनशोभिताः स्नानं कुर्वतीस्ता रुद्रो ददर्श । मदनबाणैर्वक्षसि बिद्धः । क्षुभितो रुद्रो व्यामोहं प्राप । तेनासन्नस्थितेनकामबाणजर्जरितहृदयेन चिन्तित उपायः । विद्यया सरस्तटस्थितानि वस्त्राभरणानि हारयति स्म । ता अनुपमाः स्नानं कृत्वा तटमागत्य वस्त्राभरणानि पश्यन्ति स्म । व्याकुलितमनोभिस्ताभिर्मुनिसमीपं गत्वा स मुनिरूचे । स्वामिन् ! न ज्ञायते देवानामपि प्रियाणि अस्माकं वस्त्राभरणानि केनचिद्गृहीतानि । भगवन् ! त्वं ज्ञानवान् जानासि निश्चितं कथय । रुद्र उवाच । जानाम्येव, यदि मामिच्छतं यूयं तदा दर्शयामि । एतद्दुत्वा विस्मित्य नवयौवना विद्याधरकुमार्य ऊचुः । मुने ! वयं स्वच्छन्दचारिण्यो न वर्तामहे । अस्मन्मातरपितरौ जानीतः । स्वछन्दचारिणीनां विद्यामाहात्म्यं कुतः । ततो वस्त्राभरणानि दत्वा शिपिविष्टः प्राह । निजमातरपितृगणं पृष्ट्वा मम उत्तरं दत्त यूयं । ताभिर्गृह गत्वा पितुरले वार्ता कृता। पित्रा तु एकः कंचुकी संदेशहरो हरं प्रेषितः । स बसा कर सपरिवार निर्भय रहने लगा। उस देवदारु की चार महा देवियाँ थी १ योजन गन्धा, २ कनका, ३ तरङ्ग वेगा और ४ तरङ्ग भामिनी । चारों ही अत्यन्त सुन्दर शरीर की धारक थीं। योजन गन्धा के गन्धिका और गन्धमालिनी नामकी दो अत्यन्त विनीत पुत्रियां उत्पन्न हुई। कनका के कनक चित्रा और कनक माला ये दो पुत्रियाँ हुईं। तरङ्ग वेगा के तरङ्ग सेना और तरङ्गवती ये दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई और तरङ्ग भामिनी के सुप्रभा तथा प्रभावती ये दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। ये आठों ही कन्याएं दिव्य आभूषणों से सुशोभित दिव्य वस्त्रों को धारण करने वाली देव कन्याओं के समान कञ्चुकियों से घिरी रहती थीं। एक दिन वे सब कन्याएं कैलास पर्वत पर मानस सरोवर में जल क्रीड़ा करने के लिये आई । स्थूल तथा उठे हुए स्तनों से सुशोभित उन कन्याओं को स्नान करती हुई रुद्र ने देखा। देखते ही वह कामके बाणों से हृदय में घायल हो गया । क्षुभित रुद्र व्यामोह को प्राप्त हो गया। समीप में स्थित तथा काम के बाणों से जर्जरित हृदय वाले रुद्र ने उपाय सोच लिया। उसने विद्या के द्वारा सरोवर के तट पर रखे हुए उन कन्याओं के वस्त्राभूषण उठवा लिये । वे अनुपम कन्याएं स्नान कर जब तट पर आई तब उन्होंने अपने वस्त्राभूषण नहीं देखे । जिनके चित्त व्याकुल हो रहे थे ऐसी उन - लड़कियों ने मुनि के पास जाकर कहा कि हे स्वामिन् ! देवोंको भी प्रिय For Personal & Private Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ षट्प्राभृते [ ६. ४६ गत्वा मुनिमुवाच । स्वामिन् ! अस्मत्स्वाम्स्येवं भणति । यदि मेघनिबद्ध पत्तनं गत्वा मेघनृपं तथा मेघनादं च दायिनं निर्धाट्य 'त्रिकहर्षदायि त्रिपुरं पुरं प्रवेशयसि मां तदा जनमनोमोहनकारिणीर्मम सुता अष्टा अपि ददामि । कर्पादना ओमिति भणिते कंचुकिना चागत्य राज्ञे तथा कथिते खचराधिपो हर्षं चकार । सुहृत्स्वजन वर्गेण सर्वेण तत्र गत्वा सर्वं स्वमन्दिरमानिनाय । तत्रोपवेश्येश्य रमादितो वृत्तान्तं जगाद यथा दायिना राज्यमपहृतं । ईशान उवाच । राजन् ! यत्त्वं भस तदहं साधयामि किमेकेन त्रिपुराधिपेन ? त्रिजगदपि संहरामि । तदनन्तरं सरोषो देवदारुर्भयरहितो नाना छत्रध्वज चामरसैन्यसहितः शंकरं तीत्वा तत्र गतः । पुरं वेष्टितवान् । विद्युज्जि व्हस्तु निर्गतः, चन्द्रशेखरस्तेन सह त्रैलोक्यचित्तचम लगने वाले हमारे वस्त्राभूषण किसी ने ले लिये हैं पर जान नहीं पड़ता किसने लिये हैं? आप ज्ञानवान् हैं अतः निश्चित जानते हैं । बतलाइये,' किसने लिये हैं ? रुद्र बोला, जानता ही हूँ यदि तुम सब मुझे चाहो तो मैं दिखला दूं। यह सुनकर आश्चर्य में पड़ी नवयौवनवती विद्याधर कुमारियाँ बोलीं- मुने ! हम स्वच्छन्दचारिणी नहीं हैं हमारे माता पिता जानते हैं, स्वच्छन्दचारिणी स्त्रियों को विद्या का माहात्म्य कैसे प्राप्त हो सकता है ? तब उनके वस्त्राभरण देकर रुद्र ने कहाअच्छा आप लोग अपने माता पिता से तथा सपरिवार से पूछकर उत्तर देओ । उन कन्याओं ने घर जाकर पिता के आगे सब समाचार कहा । पिता ने एक कञ्चुकी को दूत बनाकर रुद्र के पास भेजा । कञ्चुकी ने जाकर मुनि से कहा - स्वामिन्! हमारे स्वामी ऐसा कहते हैं - यदि आप मेघ निबद्ध नगर जाकर मेघनृप तथा मेघनादको जो कि हमारी दासी हैंसम्पत्ति पर अधिकार किये बैठी हैं निकालकर मानसिक, वाचनिक और शारीरिक के भेद से तीनों प्रकार के हर्ष को देनेवाले त्रिपुर नगर में मेरा प्रवेश करा दें तो मनुष्यों के मनको मोहित करने वाली अपनी आठों पुत्रियाँ आपको दे दूँ । रुद्र ने 'ओम्' कह कर स्वीकृति दे दी । कचुकी ने आकर सब समाचार कहा जिससे विद्याधर राजा हर्ष को प्राप्त हुआ। वह समस्त मित्र तथा परिवार के लोगों के साथ जाकर रुद्र को अपने घर लिवा लाया । वहाँ बैठा कर उसने दासोने जिस प्रकार राज्य अपहृत १. त्रिकहर्ष दायिनि क० । २. सुहृप्युजन म० । For Personal & Private Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ४६] मोक्षप्राभृतम् ६१५ कारकारकं समनीकं चकार । ज्वालिन्या विद्यया ज्वालयित्वा रिपु भस्मयामास । त्रिपुरं गृहीत्वा देवदारुः सुखी बभूव । जामातरं त्रिपुरं नीत्वा तस्मै चन्द्र. खराय अष्टा अपि कन्या अदित । तास्तन्मैथुनमसहमाना अष्टा अपि मृताः। देवदारुखगस्याष्टचन्द्रः सुहृद्भिः शत्रुमारकस्य भूतेशस्य मालतीमाला इव कोमल. भुजाः पंचशतकन्याः पुनर्दत्ताः। ता अपि खण्डपरशोविषमरतेन दिनं दिनं प्रति भुक्ता एककाः सर्वा अपि मनुः। तदा तासां मरणे गिरीशश्चिन्ताव्याकुलितमनाः स्थितः । अथ गौर्या सह यथा संयोगो जातस्तत्कथां कथयामि शृणुत भव्याः !। पूर्वभवे खल्वेका क्षान्तिका देशान्तरं यान्ती मार्गश्रमश्रान्ता धीवरेण नदीमुत्ता रिता। तस्य मत्स्यबन्धस्य शीतलशरीरस्पर्शेन सा आप्यायिता । तया विषयाशया कर्मवशेन निदानं कृतं-अन्यस्मिन् भवे प्रकटितपरमस्नेहोऽयं मम भर्ता भविष्यतीति । ईदृशं किया था वह सब समाचार प्रारम्भ से लेकर रुद्र को सुनाया। रुद्र ने कहा-राजन् ! तुम जो कह रहे हो वह मैं अभी सिद्ध किये देता हूँ। एक त्रिपुर के राजा से क्या मैं तो तीनों जगत् का संहार कर सकता है। तदनन्तर रोष से भरा देव दारु निर्भय होकर नाना छत्र ध्वजा चमर और सेना से सहित रुद्रको साथ लेकर वहाँ गया। उसने नगर को घेर लिया। विद्युज्जिह्व बाहर निकला रुद्र ने उसके साथ तीन लोक के चित्त में चमत्कार उत्पन्न करने वाला युद्ध किया तथा ज्वालिनी विद्यासे शत्रु को जलाकर भस्म कर दिया। देवदारु त्रिपुर को लेकर सुखी हुआ। - तदनन्तर जमाता को त्रिपुर ले जाकर उसने आठों कन्याएँ उसके लिये दे दीं। परन्तु वे आठों कन्याएँ उसके मैथुन को सहन नहीं कर सकीं अतः मर गईं । देवदारु विद्याधरके अष्ट चन्द्र नामक मित्र थे। उनकी मालती की माला के समान कोमल भुजाओं वाली पाँचसौ कन्याएं थीं। शत्रु को नष्ट करने वाले रुद्र के लिये उन्होंने वे पाँचसौ कन्याएं पुनः दे दी परन्तु रुद्रके विषम रत के कारण एक-एक दिनके उपभोग से एक-एक कर वे सब मर गई। उन सबके मर जाने पर रुद्र चिन्ता से व्याकुलचित्त हो उठा। अब गौरी के साथ जिस प्रकार संयोग हुआ वह कथा कहता हूँ हे भव्य जीवो ! सुनो- पूर्व भव में एक साध्वी दूसरे देश को जाती हुए मार्ग के श्रम से थक गई। एक धीवर ने उसे उस नदी से पार उतारा। उस धीवर के शीतल शरीर के स्पर्श से वह साध्वी संतुष्ट हई तथा विषय की आशा से कर्मवश निदान कर बैठी कि अन्यभव में यह धीवर परम स्नेह को प्रकट करने For Personal & Private Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ षट्प्राभूते [ ६.४६ निदानं कृत्वा कार्यं विमुच्य सौधर्मेन्द्रस्य देवी जाता । कैवर्तस्तु संसारे भ्रमित्वा मिथ्यातपः कृत्वा ज्येष्ठासुतो जातः । अथ सावस्तिपुरे राजा वासव: । तन्महादेवी मित्रवती । तया विद्युन्मती नाम्नी कन्या जनिता । तडिद्दंष्ट्रस्य विद्याधरस्य सा दत्ता । सौधर्मेन्द्रदेवी च्युत्वा विद्युन्मतीगर्भे स्थिता | नवमे मासे कष्टेन जनिता । विद्युम्मती विद्याधरी पीडावशेन निर्विन्ना ( ण्णा ) सती सावस्तिनगरे पर्वतगुहायां त्याजिता । तत्र गुहायां चतस्रो द्विजपुत्र्य क्रीडितुं कन्यापुण्येनागताः । उमा उमा इति शब्देन रटन्ती ताभिदृष्टा उमेति नाम कृत्वा सा कोमलाङ्गी करुणया.. गृहमानीता । ब्राह्मणपुत्रीभिश्चतसृभि सा कन्या राजकुले विद्युन्मत्या' [ मित्र बत्या ^ "महादेव्या 'वासवनृपपत्न्या दर्शिता । तथापि गृहीत्वा पुत्र्याः पुत्री निज י वाला मेरा भर्ता हो । ऐसा निदान कर वह शरीर छोड़ सौधर्मेन्द्र की देवी हुई । वह धीवर संसार में भ्रमण कर मिथ्या तप के प्रभाव से ज्येष्ठा का पुत्र हुआ । - तदनन्तर सावस्तिपुर में एक वासव नामका राजा रहता था उसकी रानी का नाम मित्रवती था । मित्रवती ने विद्युन्मती नामकी कन्या को जन्म दिया तथा वह कन्या विद्युद्दंष्ट्र नामक विद्याधर को दी गई । साध्वी का जीव जो सौधर्मेन्द्र की देवी हुई थी वहाँ से च्युत होकर विद्य न्मती के गर्भ में आई और नौवें मास में बड़े कष्ट से उत्पन्न हुई । विद्युन्मती विद्याधरी प्रसवकालिक पीड़ा से अत्यन्त खिन्न हो गई थी इसलिये उसने उस कन्या को सावस्ति नगर के समीप पर्वत की गुफा छुड़वा दिया । कन्या के पुण्य से प्रेरित हुई चार ब्राह्मण कन्याएँ क्रीड़ा करने के लिये उस गुफा में आई । ब्राह्मण कन्याओं ने 'उमा उमा' इस में १. अत्रत्यः पाठो भिन्न भिन्न पुस्तकेषु यथा बुद्धि पाठकैः संशोधितः । शुद्ध पाठस्तु ममदृष्टौ एवं प्रतिभाति ब्राह्मण पुत्रोभिश्चतसृभिः सा कन्या विद्युन्मत्या इति महाविद्याया ज्ञात्वा राजकुले महादेव्या वासवनुपपत्न्याः सा बालिका दर्शिता । "ब्राह्मण की चार पुत्रियों ने महाविद्या से यह जानकर कि यह विद्युन्मती की पुत्री है, राजकुल में वासव नृप की पत्नी - मित्रवती को वह कन्या दिखलाई' इति च तदर्थं । २. महाविद्या घ० ( ? ) महाविद्यायाः इति क प्रती लिखित्वा केनापि महादेव्या इति संशोधियम् । ३. रम्या इति संशोषितं । For Personal & Private Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ४६] मोक्षप्राभृतम् . ६१७ धान्याः पंडितायाः पालयितु दत्ता। अथाष्टचन्द्रनपेषु प्रधान 'चन्द्रसेनाभिधानो गगनाङ्गणे संचोदितविमान एकस्मिन् दिने सावस्तिमागतः । तस्य कुलस्त्रिया निजभगिन्या अपत्यरहितायाः सन्मानपूर्वक मित्रवत्या वासवनृपभार्यया गिरिकाणकानाम्न्याः सा उमा दत्ता । तयापि प्रतिपाल्य नवयौवना कृता सा सुन्दरी सुरकूटपुरेशविद्याधरेशतडिद्वेगस्य परिणायिता। सा मदोन्मत्त सुष्टु सुरतानुरागा यदा सुरतसुखमनुभवति तदा तडिवेगो मतः । उमात यौवनमदेन स्वच्छन्दा जाता । विध्वस्तोमा देवदारुनगरे एकस्मिन् दिने गता । देवदारुणा तच्चारं ज्ञात्वा रतिगुणाधिका सा स्थाणोविद्याविभवस्या,माननेनार्धासनस्याङ्गीकरणेन च तस्य भार्या पुनर्भू र्जाता। भूतेशस्तु तस्या मुखविशप्रसूनं निरीक्षमाणोऽहनिशं तिष्ठति । सरित्सु mmm शब्द से रोती हुई उस कन्या को देखा। वे उसका उमा नाम रखकर उस कोमलाङ्गी को दयाभाव से घर लेती आई । उन चारों ब्राह्मण कन्याओं ने उस कन्या को राजमहल में ले जाकर वासव राजा को महादेवी मित्रवती को दिखलायां और उसने भी 'यह हमारी पुत्री की पुत्री है' यह जान कर ले ली तथा पालन करने के लिये अपनी पण्डिता नामकी धायको दे दी। तदनन्तर अष्ट चन्द्र नामक विद्याधर राजाओं में प्रधान इन्द्रसेन नामका राजा एक दिन आकाशमें विमान चलाता हुआ सावस्ति नगर आया । चन्द्रसेन की स्त्री सन्तान रहित थी तथा रिश्ते में वह सावस्ति के राजा वासव की रानी मित्रवती की बहिन होती थी उसका नाम गिरिकणिका था। मित्रवती ने वह उमा नामकी पुत्री उसे सन्मान पूर्वक दे दी। तथा उसने भी पाल कर उसे नवयौवनवती कर दिया। वह सुरकूट नगर के स्वामी तडिद्वेग नामक विद्याधर राजा को विवाही गई । उमा मदोन्मत्त थी तथा सुरत-संभोग में अत्यन्त अनुराग रखती थी। एक दिन जब वह संभोग सुख का अनुभव कर रही थी उसी समय तडिद्वेग का मरण हो गया। उमा यौवन के मद से स्वच्छन्द हो गई। विधवा उमा एक दिन देवदारु के नगर आई वहाँ देवदारु के द्वारा उसे रुद्र की प्रवृत्ति का पता चला। वह स्वयं रतिगुण से अधिक था अर्थात् अधिक रतिको अच्छा मानतो थी इसलिये रुद्र की भार्या हो गई। रुद्र ने उसे विद्या रूप ऐश्वर्य का आधा भाग दिया अपना अर्धासन प्रदान किया। रुद्र उसके मुख कमलको रात दिन देखता रहता था। वह सीता, सीतोदा १. इन्द्रसेनाभिधानो म०। . For Personal & Private Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ षट्नाभृते सीतासीतोदादिषु सरस्सु पद्मादिषु गिरिषु मेर्वादिषु लवणोदादिषु समुद्रेषु देवारण्यादिषु च वनेषु सर्वमंगलया तया साधमनुदिनं रममाण उर्वरायां पर्यटति । स जटामुकुटविभूषितो वृषारूढो भस्मोद्धूलितो लोकानेवं वदति-अह त्रिजगस्वामी, कर्ता, हर्ता, शिवः, स्वयंभूः, शंभुः, ईश्वरः, हरः, शंकरः, सिद्धः, बुद्धः, त्रिपुरारिः, त्रिलोचनः, प्रकृतिशुद्धः, सर्वज्ञः, उमापतिः, भवः, ईशः, ईशानः, मृडः, मृत्युञ्जयः, श्रीकण्ठः, वामदेवः, महादेवः, व्योमकेश इत्यादीनि मम नामानि । अहमेव वर्तेऽपरो नास्ति । मायावी विजया बहूनि दिनान्युषित्वा जनमनांसि मंत्र रंजयित्वात्र भरतक्षेत्रमागत्य तेन शेवशास्त्र प्रकटीकृतं । तद्दीक्षिताः शैवाचार्या बहवो बभूवुः । दर्शितगुणा गणाः प्रभूता मिलताः, तेः परिवृताऽस्खलितप्रतापोऽनवरतमुमाप्रेमानुरागो द्वादश वर्षाणि विषयसौख्यं भुजानो मह्या हतविपक्षो भ्रमितः । तत्प्रताप दृष्ट्वा सर्वेऽपि विद्याधरा अतिभीताः । तैविचारितं एष महाविद्याबलीयानस्मान् भारयित्वा उभये अपि श्रेण्यौ निश्चितं ग्रहीष्यति । केनोपाये आदि नदियों में, पद्म आदि सरोवरों में, मेरु आदि पर्वतों में लवणोद आदि समुद्रों में तथा देवारण्य आदि वनों में सर्व मङ्गल स्वरूप उस उमा के साथ प्रतिदिन रमण करता हुआ पृथिवी पर घूमने लगा। जटा रूप मुकुट से विभूषित, बैल पर बैठा एवं भस्म रमाये हुए लोगों से यह कहता था कि मैं तीन जगत् का स्वामी हूँ, कर्ता हूँ, हर्ता हूँ, शिव हूँ, स्वयंभू हूँ, शम्भु हूँ, ईश्वर हूँ, हर हूँ, शंकर हूँ, सिद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, त्रिपुरारि हूँ, त्रिलोचन हूँ, प्रकृति से शुद्ध हूँ, सर्वज्ञ हूँ, उमापति हूँ, भव हूँ, ईश हूँ, ईशान हूँ, मृड हूँ, मृत्युञ्जय हूँ, श्रीकण्ठ हूँ, वामदेव हूँ, महादेव हूँ, व्योमकेश है, इत्यादि सब मेरे ही नाम हैं शिव मैं ही हूँ, और दूसरा नहीं है । उस . मायावी ने विजया, पर्वत पर बहुत दिन तक रह कर मन्त्रों से लोगों के मनको अनुरक्त किया। तदनन्तर भरत क्षेत्र में आकर उसने शैव शास्त्र प्रकट किया। उसके द्वारा दीक्षा को प्राप्त हुए बहुत से शैवाचार्य होगये । उसके गुणोंको देखकर बहुत से गण आ मिले। उन सब से घिरा, अस्खलित प्रताप का धारक, निरन्तर उमाके प्रेम से अनुराग रखने वाला एवं विषय सुखका उपभोग करता हुआ वह रुद्र बारह वर्ष तक पृथिवी में शत्रु रहित हो घूमता रहा। उसके प्रताप को देखकर सभी विद्याधर अत्यन्त भयभीत हो गये। उन विद्याधरों ने विचार किया कि यह महाविद्याओं से अत्यन्त बलवान् है अतः हम सबको मारकर निश्चित ही दोनों श्रेणियों को ले लेगा। जब तक यह हम लोगोंको नहीं मारता है तब तक किस उपाय से इस दुष्ट को मारा जाय ? For Personal & Private Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ४६ ] मोक्षप्राभृतम् ६१९ नायं खलो हन्यते यावन्न हन्तीति । लोकं चिन्ताकुलं दृष्ट्वा मात्रा गिरिकर्णिकानाम्या निजसुतोमा भेदं पृष्टापुत्रि उमे ! मम जामातुविद्याः कदाचिदपि अवशा भवन्ति न वेति, उमा प्राह-मातगिरिकणके ! यदायं मया सह सुरतसुखमनुभवति तदा सुरतकाले विद्या अस्य न स्फुरन्ति । इत्युपदेशं लब्धा । गन्धारदेशे दुरंडनगरे वनप्रदेशे सुरतमारुढः, तैविद्याधरैः कान्तासहितस्य शिरश्चिच्छिदे । तस्मिन् हते तद्विद्याभिर्देश उपद्रुयोद्वासितः । गृहे गृहे कृतचौरः प्रविष्टः जीवधनं मुष्णाति । तन्नगरस्य राज्ञा विश्वसेनेन नन्दिषेणो मुनिः पृष्टः । भगवन् ! "मारिकोपसर्गस्य कः प्रत्ययः । मुनिरुवाच । रुद्रनामा विद्याधरस्तव नगरे विद्यानामक्षमापणं कुर्वाणो मारितस्तेनोपसर्गो वर्तते । तहि स्वामिन् ! उपसर्गविनाशः कथं भविष्यति ? तल्लिगं छित्वा उमोपस्थे स्थापयित्वा यदि पूजयन्ति भवंतस्तदा विद्या उपशाम्यन्ति । उत्पात उपशाम्यतीति तदृश्रुत्वा विश्वसेनस्तत्र गत्वा लोगों को चिन्ताकुल देख माता गिरिकर्णिका ने अपनी पुत्री उमा से पूछा कि बेटी उमे ! हमारे जामाता की विद्याएँ कभी अनाधीन होती हैं या नहीं ? उमा ने कहा- माता गिरिकण के ! जब यह हमारे साथ संभोग सुखका अनुभव करता है तब संभोग काल में इसे विद्याएँ स्फुरित नहीं रहतीं । गिरिकणिका माता इस उपदेश को प्राप्त हुईं । तदनन्तर गन्धार देश सम्बन्धी दुरण्ड नगर के वन प्रदेश में जब वह संभोग कर रहा था तब उन विद्याधरों ने स्त्रो सहित उसका शिर काट डाला । रुद्र के मरने पर उसकी विद्याओं ने उपद्रव कर उस देशको ऊजड़ कर दिया। घर घर में यम प्रविष्ट होकर लोगों के प्राण रूपी धनको चुराने लगा । उस नगर के राजा विश्वसेन ने नन्दिषेण मुनि से पूछा कि भगवन् ! इस भारी रोग के उपसर्ग का कारण क्या है ? मुनि बोले- रुद्र नामका विद्याघर तुम्हारे नगर में विद्याओं से क्षमा याचना नहीं कर सका उसके पहले हो उसे मार डाला गया इसी कारण उपसर्ग हो रहा है। राजा ने फिर पूछा कि स्वामिन् ! उपसर्ग का विनाश किस तरह होगा । इसके उत्तर में मुनि ने कहा कि यदि आप लोग उसका लिङ्ग काट कर तथा पार्वती की योनि में रखकर पूजा करेंगे तो विद्याएँ शान्त हो जावेंगी । “उपद्रव शान्त होता है" यह सुनकर राजा विश्वसेन ने वहाँ जाकर देश के सब लोगों से उक्त बात कही। लोगों ने ईंटों का ऊँचा चबूतरा बनाकर उस पर काटकर शिवका लिङ्ग रक्खा उस लिङ्ग पर योनि को स्थापना की १. मरकोपसर्गस्य म० घ० । For Personal & Private Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० षट्प्राभृते . [६. ४७सर्वोऽपि जनपदो व्याहृतः । इष्टकाभिरुच्चां मंचिकां कृत्वा तल्लिगं छित्वा तदुपरि धृत्वा तल्लिगोपरि सुरतसुखक्षोणिं तदुपरि धृत्वा तन्मध्ये ऊर्ध्वमणि-शिवलिंग स्थापयित्वा जलेन प्रक्षाल्य परिमलबहुलेन चन्दनेन विलिप्य पुष्पाक्षतादिभिर्लोक राजाज्ञया पूजयित्वा तदिन्द्रिययोर्नमस्कारः कृतः तदा विद्याभिः क्षमा कृता, लोकस्योपसर्गस्य विनाशो जातः । तद्दिनमारभ्य प्रहतलज्ज लोकस्येश्वरं लिंगं पूज्यं जातमित्यज्ञानिभिर्लोकः श्रीमद्भगवदर्हत्परमेश्वरं परित्यज्य स एव देवः परमात्मीकृतः। इति मोक्षप्राभृते रुद्रोत्पत्युपाख्यानं जिनमुद्रापरिभ्रष्टत्वसूचकं समाप्तम् । जिणमुदं सिद्धिसुहं हवेइ नियमेण जिणवरुद्द्विा । सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे ॥४७॥ . जिनमद्रा सिद्धसुखं भवति नियमेन जिनवरोद्दिष्टा। स्वप्नेपि न रोचते पुनः जीवा तिष्ठन्ति भवगहने ॥ ४७ ॥ .. (जिणमुद्दसिद्धिसुहं ) जिनमुद्रा सिद्धिसुखं आत्मोपलब्धिलक्षणमुक्तिसुखंसिद्धिसुखयोगाज्जिनमुद्रव सिद्धिसुखमुपचर्यते । ( हवेइ ) भवति । (नियमेण और उसके मध्य में खड़ा मणिमय शिवलिङ्ग रख कर जलसे उसका प्रक्षालन किया, चन्दन का विलेपन लगाया, पुष्प तथा अक्षत आदि से पूजा की इस प्रकार राजा की आज्ञा से लोगों ने उमा और रुद्र दोनों की इन्द्रियों को नमस्कार किया। उसी समय विद्याओं ने क्षमा कर दी और लोगों का उपसर्ग नष्ट हो गया। उसी दिन से लेकर लज्जा को नष्ट करने वाला शिवलिङ्ग लोगोंका पूज्य हो गया तथा अज्ञानी लोगों ने श्रीमान् भगवान् अरहन्त परमेश्वर को छोड़ कर उस देव को ही परमात्मा मान लिया। इस प्रकार मोक्षप्राभृत में जिन मुद्रा से भ्रष्टता को सूचित करने वाला रुद्रोत्पत्ति का कथानक समाप्त हुआ। गाथार्थ-जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कही हुई जिनमुद्रा नियम से सिद्धि सुख रूप है । जिन जीवों को यह जिनमुद्रा स्वप्नमें भी नहीं रुचती वे संसार रूप वनमें रहते हैं ।। ४७ ।। विशेषार्थ-यहाँ कारण में कार्य का उपचार कर जिनमुद्रा को ही सिद्धि सुख रूप कहा है। बिना जिनमुद्रा-दिगम्बर वेष धारण किये मोक्ष । १. 'तदामेढभगयोः द्वयोः' इति वा पाठः (१० टि० ) । For Personal & Private Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.४८ ] मोक्षप्राभृतम् ६२१ जिणवरुद्द्द्दिट्ठा ) नियमेन निश्चयेन, कथंभूता जिनमुद्रा ? जिनवरोद्दिष्टा केवलि -- प्रतिपादिता । तल्लक्षणं पूर्वमेवोक्तं वर्तते । ( सिविणे विण रुच्चइ पुण ) सा जिनमुद्रा जीवस्य स्वप्नेऽपि निद्रायामपि न रोचते । रुचधातोः प्रयोगे चतुर्थी प्रोक्ता "यस्मै दित्सा रोचते धारयते वा तत्संप्रदानं" इति वचनात् संप्रदाने चतुर्थी तदयुक्त, कस्मादिति चेत् ? यदा रोचते तदा संप्रदानं यदा तु न रोचते तदा षष्ठीप्रयोग एव । स्वप्नेऽपि न रोचते पुनर्जीवस्येति सम्बन्ध: । ( जीवा अछंति भवगहणे ) येन कारणेन जिनमुद्रा न रोचते भावचारित्रं भावचारित्रमिति लौंकादिभिराम्रेड्यते तेनैव कारणेन जीत्रास्तिष्ठन्ति भवगहने संसारवने । रुद्रादिवत् -- भ्रष्ट निमुद्रा नरकादौ पतन्ति । परमप्पय झायंतो जोई मुच्चेइ मलदलोहेण । नादियदि णवं कम्मं णिदिट्ठ जिनवरिदेहि ॥ ४८ ॥ परमात्मानं ध्यायन् योगी मुच्यते मलदलोभेन । नाद्रियते नवं कर्म निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रः ॥ ४८ ॥ ( परमप्पय झायंतो ) परमात्मानं निजात्मस्वरूपं ध्यायन् । ( जोई मुच्चे इ मलदलोहेण ) योगी ध्यानवान् मुनिर्मुच्यते, परिह्रियते केन ? मलदलोभेन मल पापं ददातीति मलदः स चासौ लोभो धनाकांक्षा तेन मलदलोभेन । ( णादियदि णकं कम्मं ) लोभरहितो मुनिर्नाद्रियते न बध्नाति, नवं कर्म अभिनव पापं पूर्वोपार्जितं की प्राप्ति होना संभव नहीं है। जिनमुद्रा का यथार्थं रूप केवली भगवान् ने प्रतिपादित किया है। जिन जीवों को यह जिनमुद्रा साक्षात् तो दूर रही स्वप्न में भी नहीं रुचतो वे इस संसार रूप अटवी में ही विद्यमान रहते हैं । का आदि लोग बार बार भावचारित्र, भावचारित्रकी ही रट लगाते परन्तु भावचारित्र के अनुसार जिस जिनमुद्रा की आवश्यकता है उसे स्वप्न में भी अच्छा नहीं समझते - आदर की दृष्टि से नहीं देखते तब सिद्धिकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? जो जीव जिनमुद्रासे भ्रष्ट हो जाते हैं वे रुद्रादि के समान नरक आदि कुगतियों में पड़ते हैं । गाथा - परमात्मा का ध्यान करने वाला योगी पाप दायक लोभ से मुक्त हो जाता है और नवीन कर्म बन्धको नहीं करता ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है ॥ ४८ ॥ विशेषार्थ - परमात्मा निज आत्म स्वरूप को कहते हैं उसका ध्यान करने वाला मुनि, पाप उत्पन्न करने वाले लोभ से छूट जाता है लोभ For Personal & Private Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ । षट्नानृते . [६. ४९-५०तु स्वयमेव क्षीयते । ( णिद्दिटुं जिणवरिंदेहि ) निर्दिष्टं कथितं, जिनवरेन्द्रः जिनवरा एव इन्द्रास्त्रिभुवनप्रभवस्तजिनवरेन्द्रः सर्वज्ञवीतरागैरिति शेषः । . होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेण भावियमईओ। झायंतो. अप्पाणं परमपयं पावए जोई ॥४९॥ भूत्वा दृढचरित्रः दृढसम्यक्त्वेन भावितमतिः । ध्यायन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी ॥४९॥ . . ( होऊण दिढचरित्तो) दृढचरित्रोऽचलितचारित्रो भूत्वा । ( दिढसम्मत्तेण भावियमईओ) दृढसम्यक्त्वेन चलमलिनतारहितसम्यग्दर्शनेन भावितमतिस्तु वासितमनाः। ( झायंतो अप्पाणं ) ज्ञानबलेन ध्यायन्नात्मान । ( परमपयं पावए जोई ) परमपदं केवलनानं निर्वाणं च प्राप्नोति, योगी भेदज्ञानवान् मुनिः । चरणं हवइ सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो। सो रागरोसरहिओ जीवस्स अबण्णपरिणामो ॥५०॥ चरणं भवति स्वधर्मः धर्मः स भवति आत्मसमभावः । स रागरोषरहितः जीवस्य अनन्यपरिणामः ॥१०॥ manwwwmmmm रहित मनुष्य नवीन कर्मबन्ध को नहीं करता है किन्तु उसके पूर्वोपार्जित कर्म अयं क्षीण हो जाते हैं ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है ।। ४८ ॥ गाथाथ-योगी-ध्यानस्थ मुनि, दढचारित्र का धारक तथा दृढ़सम्यक्त्व से वासित हृदय होकर आत्मा का ध्यान करता हुआ परम पदको प्राप्त होता है । ४९ ॥ विशेषार्थ-जो दृढ़चारित्र है अर्थात् चारित्रसे कभी विचलित नहीं होता और दृढ़सम्यक्त्वसे अर्थात् चल मलिनता आदि दोषोंसे रहित सम्यग्दर्शनसे जिसकी बुद्धि सुसंस्कारित है ऐसा योगी आत्मा का ध्यान करता हुआ परमपद-केवलज्ञान और निर्वाण को प्राप्त होता गाथार्थ-चारित्र आत्मा का धर्म है, अर्थात् चारित्र आत्मा के धर्म को कहते हैं, धर्म आत्माका समभाव है अर्थात् आत्माके समभाव को धर्म कहते हैं, और समभाव राग द्वेष से रहित जीवका अभिन्न परिणाम है अर्थात् रागद्वेष से रहित जीवके अभिन्न परिणामको समभाव कहते For Personal & Private Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२३ -६. ५०] मोक्षप्राभृतम् (चरणं हवइ सधम्मो ) परवं पारित्र भवति स्पवर्म मात्मस्वरूपं । ( धम्मो सो हवइ बप्पसमभावो ) धर्मो भवति, कोऽसौ ? स एव यः स्वधर्म यात्मस्वरूपं, स धर्मः कथंभूतः ? अप्पसमाबो-आत्मसमभाव आत्मसु सर्वजीवेसु सभभावः समतापरिणामः, यादृशो मोक्षस्थाने सिद्धो वर्तते तादृश एव ममात्मा शुद्धबुद्धकस्वभावः सिद्धपरमेश्वरसमानः यादृशोऽहं केवलज्ञान स्वमावस्तादृश एव सर्वोऽपि जीवराशिरत्र भेदी न कर्तव्यः । ( सो रागरोसरहिओ जीवस्स अणण्णपरिणामो) स आत्मसमभावः कथंभूतस्तस्य लक्षणं निरूपयन्ति भगवन्तः–स आत्मसमभावो रागरोषरहितो भवति यं प्रति प्रीतिलक्षणं रागं करोमि सोऽप्यहमेव, यं प्रति अप्रीतिलक्षणं द्वेषं करोमि सोऽप्यहमेव तेन रागरोषरहितो जीवस्यात्मनोऽनन्यपरिणाम एकलोलीभावः समत्वमेव परमचारित्रं ज्ञातव्यमिति । तथा चोक्तं जीवा जिणवर जो मुणइ जिणवर जीव मुणेइ । सो समभावपरिट्ठियओ लहु णिव्वाणु लहेइ ॥ १ ॥ विशेषार्थ-चारित्र स्वधर्म है-आत्मा का स्वरूप है, आत्मस्वरूप जो धर्म है वह आत्म समभाव है अर्थात् सब जीवों में समता भाव है। मोक्ष स्थान में जिसप्रकार सिद्ध परमेष्ठी विद्यमान हैं उसी प्रकार शुद्ध बुद्धक स्वभाव वाला मेरा आत्मा है। जिस प्रकार में केवलज्ञान स्वभाव वाला हूँ उसी प्रकार समस्त जीव राशि केवलज्ञान स्वभाव वाली है शुद्धनय से इनमें शक्तिको अपेक्षा भेद नहीं करना चाहिये । आत्म समभाव रागद्वेष से रहित है अर्थात् जिसके प्रति प्रीतिरूप राग करता हूँ वह भो मैं ही है और जिसके प्रति अप्रीति रूप द्वेष करता है वह भी में .. हो है इसलिये रागद्वेष से रहित जीवका जो अनन्य परिणाम-एक लोली'भाव रूप समता परिणाम है वही परम चारित्र है ऐसा जानना चाहिये। जैसा कि कहा है... जीवा जिणवर-जो जीवोंको जिनेन्द्र तथा जिनेन्द्रको जीव जानता है वह समभाव में स्थित है तथा समभाव में स्थित योगी शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त होता है। १. यह कथन द्रव्यदृष्टि की अपेक्षा है पर्यायदृष्टि से संसारी और सिद्ध जीवमें महान् अन्तर है। For Personal & Private Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ षट्प्राभूते [ ६.५१ जह फलिहमणि विसुद्ध परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो । तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्ण विहो ॥५१॥ यथा स्फटिकमणिः विशुद्धः परद्रव्ययुतो भवति अन्यः सः । तथा रागादिवियुक्तः जीवो भवति स्फुटमन्यान्यविधः ॥ ५१ ॥ ( जह फलिहमणि विसुद्धो ) यथा येन प्रकारेण स्फटिकमणिः स्वभावेन विशुद्धो निर्मलो वर्तते । ( परदव्वजुदो हवइ अण्णं सो) परद्रव्येण जपापुष्पादिना युतः, अण्णं —– अन्याऽन्यादृशो भवति । ( तह रागादिविजुत्तो ) तथा तेनैव स्फटिकमणिप्रकारेण रागादिभिर्विशेषेण युक्तः स्त्र्यादिरागयुतो रागादिमान् [ इस गाथा का भाव प्रवचनसार के चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो सम्मोति णिदिट्ठो । मोहक्खोह विहिणो परिणामो अप्पणो हु समो । गाथाके समान जान पड़ता है अर्थात् निश्चय से चारित्र का अर्थ धर्म है, धर्मका अर्थ सम परिणाम है और समपरिणाम का अर्थ रागद्वेष से रहित आत्माका अभिन्न परिणाम है परन्तु संस्कृत टीकाकार ने दूसरा ही भाव प्रदर्शित किया है जो ऊपर स्पष्ट किया गया है । ] गाथार्थ - जिस प्रकार स्फटिक मणि स्वभावसे विशुद्ध अर्थात् निर्मल है परन्तु पर द्रव्य से संयुक्त होकर वह अन्य रूप हो जाता है उसी प्रकार यह जीव भी स्वभावसे विशुद्ध है - अर्थात् वीतराग है परन्तु रागादि विशिष्ट कारणों से युक्त होने पर स्पष्ट ही अन्य अन्य रूप हो जाता है ।। ५१ ।। विशेषार्थ - जिस प्रकार स्वभावसे स्वच्छ स्फटिक मणि जपापुष्प आदि के सम्बन्ध से लाल, पीला आदि अन्य रूप हो जाता है उसी प्रकार स्वभाव से स्वच्छ — वीतराग जीव रागादि के द्वारा विशिष्ट रूप से युक्त होकर अन्य अन्य प्रकार का हो जाता अर्थात् स्त्रियोंके योग में रागी शत्रुओंके योग में द्वेषी और पुत्रादि जाता है। है के योग में मोही हो ( यहाँ गाथा का एक भाव यह भी समझ में आता है कि जिस प्रकार स्फटिक मणि स्वभाव से विशुद्ध है परन्तु पर पदार्थ के सम्बन्ध से वह For Personal & Private Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.५२] मोक्षप्रामृतम् ६२५ भवति । ( जीवो हदि हु अणण्णविहो) जीव आत्मा भवति हु-स्फुटं अन्योन्यविधोऽपरापरप्रकारो भवति-स्त्रीभिर्योगे रागवान् भवति शत्रुभिर्योगे द्वेषवान् भवति पुत्रादिभिर्योगे मोहवान् भवतीति तात्पर्याथः । देव गुरुम्मि य भत्तो साहम्मि य संजदेसु अणुरत्तो। सम्मत्तमुम्वहंतो झाणरओ होइ जोई सो ॥५२॥ देवे गुरौ च भक्तः सामिके च संयतेषु अनुरक्तः। सम्यक्त्वमुद्वहन् ध्यानरतः भवति योगी सः ॥५२॥ ( देव गुरुम्मि य भत्तो ) देवे गुरौ च भक्तो विनयपरः । ( साहम्मि य संजदेसु अणुरत्तो ) सामिकेषु समानधर्मेषु, जैनेषु संयतेषु महामुनिषु, अनुरक्तोऽकृत्रिमस्नेहवान् वात्सल्यपरः । ( सम्मत्तमुव्वहंतो) सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनमुद्वहन् मूर्धनि स्थापयन् । ( शाणरओ होइ जोई सो ) एवं विशेषणत्रयविशिष्टो योगी अष्टाङ्गयोगनिपुणो मुनिर्व्यानरतो भवति ध्यानानुरागी भवति सः । विपरीतस्य ध्यान न रोचत इत्यर्थः । तथा चोक्तंअन्य रूप हो जाता है उसी प्रकार यह जीव स्वभाव से रागादि वियुक्त है अर्थात् रागद्वेष आदि विकार भावों से रहित है परन्तु परद्रव्य अर्थात् कर्म नोकर्म रूप पर पदार्थों के संयोग से अन्यान्य प्रकार हो जाता है। इस अर्थमें वियुक्त शब्दके प्रचलित अर्थको बदल कर 'विशेषेण युक्ती वियुक्तः अर्थात् साहितः' ऐसी जो क्लिष्ट कल्पना करनी पड़ती है उससे बचाव हो जाता है। ___ गाथार्थ-जो देव और गुरुका भक्त है, सहधर्मी भाई तथा संयमो जीवोंका अनुरागी है तथा सम्यक्त्व को ऊपर उठाकर धारण करता है अर्थात् अत्यन्त आदरसे धारण करता है ऐसा योगी ही ध्यान में तत्पर होता है ॥५२॥ ___ विशेषार्थ-यहाँ कैसा मुनि ध्यानमें तत्पर होता है इसका वर्णन करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जो देव-अरहंत, सिद्ध और गुरु-आचार्य उपाध्याय साधुका भक्त है अर्थात् उनकी विनय करने में तत्पर रहता है, सहधर्मी-जैनों में तथा संयम के धारक महामुनियों में अनुरक्त रहता है अर्थात् अकृत्रिम स्नेह से युक्त हो वात्सल्य भाव प्रकट करता है और सम्यक्त्व को सिर पर धारण करता है अर्थात् बड़े आदर से उसकी आराधना करता है ऐसा योगी-अष्टाङ्गयोग में निपुण मुनि ही ध्यान में रत होता है । इससे विपरीत पुरुष को ध्यान नहीं रुचता है। जैसा कि For Personal & Private Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ षट्प्राभृते सर्वपापात्र वे क्षीणे ध्याने भवति भावना । पापोहतवृत्तीनां ध्यान वार्तापि दुर्लभा ॥ अन्यच्च -- || 'स्वयुध्यान् प्रति सद्भावसनाथापेत कैतवा । प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥ २ ॥ उग्गतवेणण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहि । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेइ अंतोमुहत्तेण ॥ ५३ ॥ उग्रतपसाऽज्ञानी यत्कर्म क्षपते भवैर्बहुकै: । तज्ज्ञानी त्रिभिगुप्तः क्षपयति अन्तर्मुहूर्तेन ॥ ५३ ॥ ( उग्गतवेण ). उग्रतपसा तीव्रतपसा कृत्वा । ( अण्णाणी ) अज्ञानो मुनिः आत्मभावनाविवजितस्तपस्वी । ( जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहि ) यत्कर्म पापकर्म क्षिपते भवैर्बहुकैः कोटिभवैः शतकोटिभटैः सहस्रकोटिभवैः लक्ष कोटिभवैः कोटिकोटिभवैश्चेत्यादिभिः । ( तं णाणी तिहि गुत्तो ) तत्कर्म ज्ञानी आत्मभावना परः सूरिः तिहि गुत्तो— त्रिभिर्गुप्तो मनोवचनकाय गुप्तिसहित: ( - खवेइ अंतोमुहतेण ) क्षपयति क्षयमानयति - कियति काले ? अन्तर्मुहूर्तेन । कोऽसावन्तर्मुहूर्त इति चेत् ? — [ ६.५३ सर्वपापात्र वे- - जब समस्त पापोंका आस्रव क्षीण हो जाता है तभी ध्यान की भावना होती है। जिनकी वृत्ति पापसे उपहन हो रही है ऐसे पुरुषों को ध्यान की बात करना भी दुर्लभ है || १|| और भी कहा है स्वयूथ्यान् — अपने सह धर्मी भाईयों के प्रति उत्तम भावसे सहित तथा कपट से रहित यथायोग्य आदर प्रकट करना वात्सल्य कहलाता है ||२|| गाथार्थ - अज्ञानी जीव उग्रतपश्चरण के द्वारा जिस कर्मको अनेक भवोंमें खिपा पाता है उसे तीन गुप्तियोंसे सुरक्षित रहने वाला ज्ञानी जीव अन्तर्मुहूर्त में खिपा देता है। विशेषार्थ- - आत्म भावनासे रहित अज्ञानी मुनि तीव्र तपके द्वारा जिस कर्म को करोड़ - सौ करोड़ - हजार करोड़ - लाख करोड़ अथवा कोटि कोटि भवोंके द्वारा नष्ट कर पाता है उस कर्मको आत्म भावना में तत्पर रहने वाला ज्ञानो मुनि मनोगुप्ति वचनगुप्ति और काय गुप्ति से सुरक्षित होता हुआ अन्तर्मुहूर्त में नष्ट कर देता है । १. रत्नकरण्ड श्रावकाचारे । For Personal & Private Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२७ -६. ५४] मोक्षप्राभृतम् 'आवलि असंखसमया संखेज्जावलिहि होइ उस्सासो। सत्तुस्सासो थोओ सत्तत्थोओ लवो भणिओ ॥१॥ अठ्ठत्तीसद्धलवा नाली दो नालिया मुहुत्तं तु । समऊणं तं भिण्णं अंतमुहुत्तं अणेयविहं ॥ २ ॥ इति गाथाद्वयकथितक्रमेण आवल्या उपरि एकः समयोऽधिको भवति सोऽन्तमुहूर्तो जघन्यः कथ्यते । एवं ब्यादिसमयवृद्धया समयद्वयहीनोऽन्मुहूर्त उत्कृष्टः कथ्यते । मध्येऽसंख्यातभेदा अन्तर्मुहूर्तस्य ज्ञातव्याः । तेषु कस्मिदन्तर्मुहूर्ते ज्ञानी कर्म क्षपयति । एकेन समयेन हीनो मुहूर्तो भिन्नमुहूर्त उच्यते इति भावः । सुभजोगेण सुभावं परदब्वे कुणइ रागदो साह । सो तेण दु अण्णाणी गाणी एत्तो दु विवरीदो ॥५४॥ __ शुभयोगेन सुभाव परद्रव्ये करोति रागतः साधुः । स तेन तु अज्ञानी ज्ञानो एतस्माद्विपरीतः ॥५४॥ ( सुभजोगेण सुभावं ) शुभस्य मनोज्ञपदार्थस्येष्टवनितादेः योगेन संयोगेन मेलनेनोपढौकनेनाग्रत आगतेन सुभावं- शोभनं प्रीतिलक्षणं भावं परिणाम । (पर प्रश्न-अन्तर्मुहूर्त क्या है ? उत्तर-असंख्यात समय की एक आवलि होती है, संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास होता है, सात उच्छ्वास का एक स्तोक होता है, सात स्तोकों का एक लव कहा गया है। साढ़े अड़तीस लव की एक नाड़ी होती है, दो नाड़ियों का एक मुहूर्त होता है। एक समय कम एक मुहूर्त को भिन्न मुहूर्त कहते हैं । अन्तर्मुहूर्त अनेक प्रकार का होता है। ___ इन दो गाथाओं में कहे हुए क्रमसे आवली के ऊपर एक समय अधिक होने पर जघन्य अन्तर्मुहूर्त कहलाता है। इस प्रकार दो तीन आदि समय बढ़ाते बढ़ाते जब मुहूर्त में दो समय कम रह जाते हैं तब वह उत्कृष्ट अन्तमुहर्त कहलाता है। बीच में अन्तमहर्त के असंख्यात भेद जानना चाहिये । इनमें से किसी भी अन्तर्मुहूर्त में ज्ञानी जीव कर्मोको नष्ट कर देता है। एक समय से कम मुहूर्त को भिन्न मुहूर्त कहते हैं ॥५३॥ आगे ज्ञानी और अज्ञानी मुनिका लक्षण प्रकट करते हैं गाथार्थ-जो साधु शुभ पदार्थ के संयोग से रागवश परद्रव्य में प्रीतिभाव करता है वह अज्ञानी है और इससे जो विपरीत है वह ज्ञानी है ।।५४॥ १. जीवकाण्डे। For Personal & Private Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ षट्प्राभृते [ ६.५४ दव्वे कुणइ रागदो साहू ) परद्रव्ये आत्मनो भिन्ने वस्तुनि इष्टवनितादी, करोति विदधाति सुभावमिति सम्बन्धः, रागतः प्रेमपरिणामात् । कः कर्ता, साधुर्वेषधारी मुनिः पुष्पदन्तवत् । तथा चोक्तं 'अलकवलय रम्यं भूलतानर्तकान्तं नवनयनविलासं चारुगण्डस्थलं च । मधुरवचनगर्भ स्मेरबिम्बाधरायाः पुरत इव समास्ते तन्मुखं मे प्रियायाः ॥ १ ॥ कर्णावतंसमुखमण्डन कण्ठभूषावक्षोजपत्रजघनाभरणानि रागात् । पादेष्वलक्तकरसेन च चर्चनानि कुर्वन्ति ये प्रणयिनीषु त एव धन्याः ॥ २ ॥ लीलाविलासविलसन्नयनोत्पलायाः स्फारस्मरोत्तरलिताधरपल्लवायाः । उत्तुंगपीवरपयोधरमंडलायास्तस्या महा सह कदा ननु संगमः स्यात् ॥३॥ विशेषार्थ - इष्ट स्त्री आदि शुभ पदार्थ के योग से मिलने, पास में आने अथवा आगे आने आदि के कारण जो साधु रागके वशीभूत हो उसमें प्रीति रूप परिणाम करता है तथा उपलक्षणा से अनिष्ट पदार्थ के योग से द्वेष वश अप्रीति रूप परिणाम करता है वह पुष्पदन्त (पुष्पडाल) के समान मात्र वेषको धारण करने वाला अज्ञानी साघु है और इससे विपरीत लक्षणों वाला साधु ज्ञानी साधु है। अज्ञानी साघु निरन्तर विषय सामग्रीका चिन्तन करता है । जैसा कि कहा है अलक वलय — जो घुंघराले बालोंसे सुन्दर है, भ्रकुटी रूपलता के नृत्य से मनोहर है, नेत्रोंके नये नये विलास से सहित है, सुन्दर कपोलों से सुशोभित है और मीठे मीठे वचनों से युक्त है ऐसा, मन्दमुसकान से युक्त बिम्बफलके समान लाललाल ओठों वाली प्रिया का वह मुख ऐसा जान पड़ता है मानों मेरे सामने ही स्थित हो ॥१॥ 'कर्णावतस - जो पुरुष रागवश स्त्रियों के कानों में आभूषण पहिनाना, मुखको सुसज्जित करना, गले में आभूषण बाँधना, स्तनों पर पत्र रचना करना, नितम्ब पर मेखला कसना तथा पैरों में महावर से चर्चग करना आदि करते हैं वे ही धन्य हैं - भाग्यशाली हैं ॥२॥ लीलाविलास – जिसके नेत्र रूपी नील कमल लोला से सुशोभित हो रहे हैं, जिसका अधर पल्लव अत्यधिक कामकी बाधा से चुञ्चल हो रहा है और जिसका स्तन मण्डल उन्नत तथा स्थूल है उस प्रिया का मेरे साथ संगम कब होगा ॥३॥ १. एते सर्वेश्लोका यशस्तिलकचम्प्यां सोमदेवस्य । For Personal & Private Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ५५] मोक्षप्राभृतम् चित्रालेखनकर्मभिमनसिजव्यापारास्मृतर्गाढाभ्यासपुरःस्थितप्रियतमापादप्रणामक्रमैः । स्वप्ने संगमविप्रयोगविषयप्रीत्यप्रमोदागमैरित्थं वेषमुनिदिनानि गमयत्युत्कंठितः कानने ॥१॥ ( सो तेण दु अण्णाणी ) इत्यादिसुदतीचिन्तनेनाज्ञानी मूढः कथ्यते । ( णाणी एत्तो दु विवरीदो ) ज्ञानी निर्मोहो मुनिः एतस्मादुक्तलक्षणात् साधोविपरीतः शुभवस्तुयोगे सति रागं न करोतीति तात्पर्यार्थः । आसवहेदू य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि । सो तेण दु अण्णाणी आदसहावस्स विवरोदो ॥५५॥ आस्रवहेतुश्च तथा भावो मोक्षस्य कारणं भवति । स तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावात् विपरीतः ॥५५।। (आसवहेदू य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि) आस्रवहेतुश्च यथा यथेष्टवनितादिविषये राग आस्रवहेतुर्भवति तथा निर्विकल्प समाधि विना मोक्षस्यापि रागः और भी कहा हैचित्रालेखन-वह वेषधारी मुनि कभी प्रियतमा का चित्र बनाने बैठता था पर कामको सारपूर्ण व्यापार अर्थात् संभोग के स्मरण से उसे बीच में ही भूल जाता था। कभी प्रगाढ संस्कार के कारण उसे प्रियतमा सामने बैठी दिखती थी और वह उसके चरणों में प्रणाम करता था। कभी स्वप्नमें संगम होनेसे प्रसन्न हो उठता था और वियोग से दुखी हो जाता था इस प्रकार वेषको धारण करने वाला वह मुनि उत्कृष्ठित होकर वन में दिन व्यतीत करता था ॥१॥ गाथार्थ-जिस प्रकार इष्ट विषय का राग कर्मास्रव का हेतु है उसी प्रकार मोक्ष विषयक राग भी कर्मास्रव का हेतु है और इसी रागभाव के कारण यह जीव अज्ञानी तथा आत्म स्वभाव से विपरीत होता है ॥५५॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार इष्ट वनिता आदि विषय का राग कर्मास्रवका कारण होता है उसी प्रकार निर्विकल्प समाधि के बिना मोक्ष का भो राग कर्मास्रव का हेतु होता है। मोक्ष विषयक रागभाव कर्मक्षय का कारण न होकर पुण्य कर्म बन्धका कारण होता है अतः उस रागभाव के कारण यह जीव अज्ञानी अर्थात् निर्विकल्प समाधि रूप आत्म स्वभाव से विपरीत होता है। For Personal & Private Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० . षट्प्राभृते . [६: ५५कर्मास्रवहेतुर्भवति । ( सो तेण दु अण्णाणी ) स साधुर्मोक्षेऽपि रागभाव कुर्वाणः तेन कारणेन पुण्यकर्मबन्धहेतुत्वादज्ञानी भवति--मूढः स्यात् ( आदसहावस्स विवरीदो ) आत्मस्वभावान्निविकल्पसमाधिलक्षणात्मध्यानरूपाद्विपरीतः । तथा चोक्तमेकत्वसप्तत्यां स्पृहा मोक्षेऽपि मोहोत्था तन्निषेधाय जायते । अन्यस्मै तत्कथं शान्ताः स्पृहयन्ति मुमुक्षुवः ॥ . जैसा कि एकत्व सप्तति में कहा गया है स्पृहा-जब मोह से उत्पन्न हुई मोक्षकी इच्छा भी मोक्षके निषेध के लिये होती है तब शान्त मुमुक्षु जन अन्य पदार्थ की इच्छा कैसे कर सकते हैं ? [ रागभाव मात्र बन्धका कारण है अतः वह राग चाहे इष्ट विषय सम्बन्धी हो चाहे मोक्ष सम्बन्धी। यह जुदी है कि इष्ट विषय सम्बन्धी राग पाप कर्मके बन्धका कारण है और मोक्ष का राग पुण्य बन्धका कारण है। चन्दन यद्यपि ठण्डा होता है तथापि उसमें लगी आग जलाने का ही काम करती है। जो इस राग भावको उपादेय मानता है वह अज्ञानी है तथा आत्म स्वभाव से विपरीत है। यह कथन कर्म बन्धन को अपेक्षा जानना चाहिये वैसे दोनों रागोंमें तारतम्य बहुत है। विषय सम्बन्धी राग संसार का ही कारण है परन्तु मोक्ष सम्बन्धो राग परम्परा से मोक्षका भी कारण है। . इस गाथा में 'जहाँ' शब्द नहीं है तथा 'मोक्खस्स' के साथ 'कारणं' . शब्द प्रथमान्त पृथक् दिया हुआ है इसलिये एक अर्थ यह भी समझ में आता है "भाव ही आस्रव का हेतु है, भाव ही मोक्षका कारण है और उस भाव से ही यह जीव अज्ञानी तथा आत्म स्वभाव से विपरीत होता है।" भावार्थ-शुभ-अशुभ रागरूप भाव कर्मास्रवका हेतु है, निर्विकल्प समाधि रूप भाव मोक्षका कारण है तथा मोह रूप भावके कारण यह जीव अज्ञानी तथा निर्विकल्पसमाधि रूप आत्मस्वभाव से च्युत होता है। १. पद्मनन्दि पञ्च विशती। For Personal & Private Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ५६] मोक्षप्राभृतम् ६३१ जो कम्मजादमइओ सहावणाणस्य खंडदूसयरो। सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो ॥५६॥ यः कर्मजातमतिकः स्वभावज्ञानस्य खण्ढदूषणकरः। __स तेन तु अज्ञानी जिनशासनदूषको भणितः ॥५६॥ ( जो कम्मजादमइओ ) यः पुमान् कर्मजातमतिक इन्द्रियानिन्द्रियाणि खलु कर्मजातानि तदुत्पन्नमतिलेशसंयुक्तः । (सहावणाणस्स खंडदूसयरो) स्वभावज्ञानस्यात्मोत्थज्ञानस्य केवलज्ञानस्य दूसयरो-दोषदायकः । आत्मनः खल्वतीन्द्रियज्ञानं नास्ति चक्षुरादीन्द्रियजनितमेव ज्ञानं वर्तते इत्येवं स्वभावज्ञानस्य दूषणकरो भवति, अतीन्द्रियज्ञानं न मन्यते । खंडदूसयरो-खण्डज्ञानेन दूषणकरः कश्चिन्मिथ्यादृष्टिः । ( सो तेण दु अण्णाणी) स पुमान, तेन तु दूषणदानेन अज्ञानी ज्ञातव्यो ज्ञानिनः ज्ञेयो वेदितव्य इति यावत् । स कथंभूतः, ( जिणसासणदूसगो भणिदो) जिनशासनस्याहतमतस्य दूषको दोषभाषको भणितः स नरकदुखं प्राप्स्यति । तथा चोक्तं पुष्पदन्तेन महाकविना काव्यपिशाचखण्डकव्यपरनामद्वयेन सव्वण्ह अणिदिओ णाणमउ जो मइमूढ न पत्तियइ । सो णिदिउ पंचिदियणिरउ वैतरणिहि पाणिउ पियइ ॥१॥ गाथार्थ-कर्म जन्य मतिज्ञान को धारण करने वाला जो जीव स्वभाव ज्ञान-केवल ज्ञान का खण्डन करता है अथवा उसमें दोष लगाता है वह अपने इस कार्य से अज्ञानी तथा जिनधर्म का दूषक कहा गया है ॥५६॥ विशेषार्थ-जो पुरुष ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न पाँच इन्द्रियों और मनके निमित्त से होनेवाले अल्पतम मति ज्ञानसे युक्त होकर भी आत्मोत्थ-स्वभावभूत केवलज्ञान को दोष देता है अर्थात् कहता है कि आत्मा के अतीन्द्रिय ज्ञान नहीं है चक्षुरादि इन्द्रियों से होनेवाला ज्ञान ही है अतीन्द्रिय ज्ञानको नहीं मानता है तथा अपने खण्डज्ञानसे दूषण लगाता है उसे उस दूषण के देनेसे अज्ञानी जानना चाहिये । ऐसा पुरुष जिन शासक का दूषक कहा गया है तथा उसके फल स्वरूप वह नरकको प्राप्त करता है । जैसाकि काव्य पिशाच और खण्डकवि इन दो दूसरे नामों को धारण करने वाले महाकवि पुष्पदन्त ने कहा है___सम्बण्ड-'सर्वज्ञ अतीन्द्रिय तथा केवल ज्ञानमय है' ऐसा जो मूढमति श्रद्धान नहीं करता है. वह निन्दित है, पञ्चेन्द्रियों के विषयों में निरत है तथा वैतरणी नदी का पानी पीता है अर्थात् मरकर नरक जाता है। . For Personal & Private Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ . षट्नाभृते १६.५७-१८गाणं चरित्तहीणं दंसणहोणं तवेहि संजुत्तं । ... अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं ॥५७॥ ज्ञानं चारित्रहीनं दर्शनहीनं तपोभिः संयुक्तम् । अन्येषु भावरहितं लिङ्गग्रहणेन किं सौख्यम् ॥५७॥ . ( णाणं चरित्तहीणं ) ज्ञानं चरित्रहीनं सौख्यकरं न भवतीति सम्बन्धः । (दसणहीणं तवेहि संजुत्तं ) दर्शनहीनं सम्यग्दर्शनरत्नरहितं तपोभिः संयुक्तं कर्म सौख्यकरं न भवतीति सम्बन्धः । ( अण्णेसु भावरहियं ) अन्येषु षडावश्यकादिषु. भावरहितं कर्म । ( लिंगग्गहणेण किं सोक्खं ) लिंगग्रहणेन वेषमात्रेण आत्मभावनारहितेन कर्मणा किं सौख्यं भवति–अपितु सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षसुखं न भवतीति भावार्थः। अच्चेयणं पि चेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी। सो पुण गाणी भणिओ जो मण्णइ चेयणे चेदा ॥५८॥ अचेतनमपि चेतयितारं यो मन्यते स भवति अज्ञानी । स पुन ज्ञानी भणितः यो मन्यते चेतने चेतयितारम् ॥५८।। गाथार्थ चारित्र रहित ज्ञान सुख करने वाला नहीं है, सम्यग्दर्शन से रहित तपों से युक्त कर्म सुख करने वाला नहीं है तथा छह आवश्यक आदि अन्य कार्यों में भी भाव रहित प्रवृत्ति सुख करने वाली नहीं है फिर मात्र लिङ्ग ग्रहण करनेसे क्या सुख मिल जायगा ? ॥१७॥ विशेषार्थ-चारित्र के बिना ज्ञान कार्यकारी नहीं है, सम्यग्दर्शन से रहित तपश्चरण कार्यकारी नहीं है इसी तरह छह आवश्यक आदि में भाव रहित प्रवृत्ति भी कार्यकारी नहीं है फिर भी आत्म भावना से रहित वेष मात्र से क्या सुख हो सकता है ? अर्थात् उससे सर्वकर्म क्षय रूप मोक्ष सुख प्राप्त नहीं हो सकता है ॥५७॥ [इस गाथा का एक भाव यह भी हो सकता है-हे साधो ! तेरा ज्ञान यथार्थ चारित्र से रहित है तेरा तपश्चरण सम्यग्दर्शन से रहित है तथा तेरा अन्य कार्य भो भाव से रहित है अतः तुझे लिङ्ग ग्रहण से-मात्र वेष धारण से क्या सुख प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं। गाथार्थ-जो अचेतन को भी चेतयिता मानता है वह अज्ञानो है और जो चेतन को चेतयिता मानता है वह ज्ञानी कहा गया है ।।५८॥ For Personal & Private Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.५८] मोक्षप्रामृतम् ६३३ (अच्यणं पि चेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी ) चेतयितारमात्मानं यः पुमान कापिलमतानुसारी अचेतनमात्मानं मन्यते स पुमान अज्ञानी ज्ञानवर्जितो मूों भवेत् । ( सो पुण णाणी भणिओ ) स पुमान पुनर्ज्ञानी भणितः । स कः ? ( जो मण्णइ चेयणे चेदा ) यः पुमान् चेतने चेतनद्रव्ये चेतयितारमात्मानं मन्यते । उक्तं च-- स यदा दुःखत्रयोपतप्तचेतास्तद्विघातकहेतुजिज्ञासोत्सेकितविवेकस्रोताः स्फाटिकाश्मानमिवानन्दात्मनमप्यात्मानं सुखदुःखमोहावहपरिवर्तेर्महदहंकारविवर्तश्च विशेषार्थ-सांख्य मतका अनुसरण करने वाला जो पुरुष चेतयिता अर्थात् आत्मा को अचेतन अर्थात् ज्ञान से शून्य मानता है वह अज्ञानी है और जो चेतन द्रव्य में चेतयिता-आत्मा को मानता है वह ज्ञानी है । भावार्थ-सांख्यों का कहना है कि पुरुष तो उदासीन चेतना स्वरूप है, नित्य है और ज्ञान प्रधान का धर्म है। इस मत में पुरुष कू उदासीन चेतना स्वरूप माना सो ज्ञान बिना जड़ ही हुआ । ज्ञानके बिना चेतन किस प्रकार हो सकता है ? ज्ञानको प्रधान का धर्म माना और प्रधान को जड़ माना तब अचेतन में चेतना मानने से अज्ञानी ही हुआ। नैयायिक और वैशेषिक गुण गुणी में सर्वथा भेद मानते हैं इसलिये इनके मतसे चेतना गुण जोवसे पृथक् है और चेतना गुण के पृथक् रहने से जीव अचेतन सिद्ध होता है अतः अचेतन को चेतन मानने के अज्ञानी दशा है। इसी प्रकार भूतवाती चार्वाक पृथिवी जल अग्नि और वायु के संयोग से चेतना की उत्पत्ति मानते हैं सो भूत तो जड़ हैं उनसे चेतना किस प्रकार उत्पन्न हो सकती है ? इसलिये अन्य मतवादियों का कथन अज्ञान से भरा हुआ है। यथार्थ में जीव द्रव्य ज्ञान गुण से तन्मय है इनमें गुण गुणी भाव अवश्य है परन्तु प्रदेश भेद नहीं है । ज्ञानगुण से तन्मय होनेके कारण जीव द्रव्य चेतन कहलाता है इसलिये चेतन को चेतन कहना अचेतन को अचे न कहना चेतन को अचेतन नहीं कहना और अचेतन को चेतन नहीं कहना ज्ञानी जीव को पहिचान है सांख्यों के यहाँ मुक्ति का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है___स यवा तु-शारीरिक मानसिक और आधि भौतिक इन तीन प्रकार के दुःखों से इस जीवका चित्त निखार संतप्त रहता है परन्तु उन दुःखों के विषात के कारणों की जिज्ञासा से जब इसके विवेक का स्रोत प्रस्फुटित For Personal & Private Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ षट्प्राभृते . [६. ५९कलुषयन्त्याः सत्वरजःसाम्यावस्थापरनामवत्याः सनातनव्यापिगुणाधिकृतः प्रकृतेः स्वरूपमवगच्छति तदायामयगोलकानलतुल्यवर्गस्य वोधबद्वहुधानकसंसर्गस्य सति विसर्गे सकलज्ञानज्ञेयसम्बन्धवैकल्यं कैवल्यमवलम्बते तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानं मुक्तिरिति कापिलाः विवदन्तः प्रतिवक्तव्याः-- कपिलो यदि वांछति वित्तिमचिति सुरगुरुगीगुफेष्वेष पतति । चैतन्यं वाह्यग्राह्यरहितमुपयोगि कस्य वद तत्र विदित ॥१॥ तवरहियं ज णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं ॥५९॥ तपोरहितं यत् ज्ञानं ज्ञानवियुक्तं तपोऽपि अकृतार्थं । तस्मात् ज्ञानतपसा संयुक्तः लभते निर्वाणम् ॥५९॥ होता है तब यह स्फटिक के समान स्वच्छ आनन्द रूप आत्मा को सुख । दुःख तथा मोह के परिवर्तनों और महत् तथा अहंकार की विवों से कलुषित करने वाली सत्व और रजोगुण की साम्यवस्था रूप दूसरे नाम से युक्त प्रकृति के स्वरूप को समझ लेता है तब लोहे के गोलों में जिस प्रकार अग्निका सम्बन्ध तन्मयके समान जान पड़ता है उसी प्रकार ज्ञान के साथ आत्मा का तन्मय सम्बन्ध होनेसे आत्मा ज्ञानमय जान पड़ती है। परन्तु जब वह पर पदार्थों का सम्बन्ध यहाँ तक कि ज्ञान ज्ञेय सम्बन्धी समस्त विकल्प भी विलीन हो जाता है और पुरुष कैवल्य अर्थात् मात्र अपने आपका अवलम्बन करने लगता है तब. दृष्टा पुरुष जो अपने स्वरूपमें अवस्थित रहता है उसे मुक्ति कहते हैं । इस प्रकार विवाद करते हुए सांख्योंके प्रति यों कहना चाहिये कपिलो--कपिल यदि अचेतन प्रधान में ज्ञान मानता है तो वह भी चार्वाकों के वचन जाल में फंसता है, अर्थात् जिस प्रकार चार्वाक अचेतन भूत चतुष्टक से चेतन की उत्पत्ति मानता है उसी प्रकार सांख्य की भी अचेतन प्रधान से चेतन की उत्पत्ति इसके उत्तर में यदि सांख्य कहता है कि मैं चैतन्य को तो मानता है परन्तु उसे बाह्य पदार्थों के ग्रहण से विमुख मानता हूँ। इसके उत्तर में कहना यह है कि हे प्रख्यात पुरुष ! बाह्य पदार्थों के ग्रहण से विमुख चैतन्य किसके उपयोग आता है तुम्ही बताओ। गाथार्थ-जो ज्ञान तपसे रहित है वह व्यर्थ है और जो तप ज्ञानसे १. वंदत । For Personal & Private Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३५ -६. ६० ] मोक्षप्राभृतम् ( तवरहियं जं गाणं ) तपोरहितं यज्ज्ञानं तदकृतार्थमिति सम्बन्धः । ( णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो) ज्ञानवियुक्तं ज्ञानरहितं अज्ञानं तपोऽपि अकृतार्थ मोक्षं न साधयति । ( तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं) तस्मात्कारणात् ज्ञानतपसा ज्ञान च तपश्च ज्ञानतपः समाहारो द्वन्द्वस्तेन ज्ञानतपसा। अथवा ज्ञानेनोपलक्षितं तपो ज्ञानतपस्तेन तथोक्तेन संयुक्तो मुनिर्लभते निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षमित्यर्थः। तथा चोक्तं-- मान्यं ज्ञानं तपोऽहोनं ज्ञानहोनं तपोऽहितं । द्वाभ्यां युक्तः स देवः स्याद्विहीनो गणपूरणः ॥१॥ धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं । णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं गाणजुत्तो वि ॥६०॥ ध्रुवसिद्धिस्तीर्थंकरः चतुष्कज्ञानयुतः करोति तपश्चरणम् । ज्ञात्वा ध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणं ज्ञानयुक्तोपि ॥६०।। (धुवसिद्धी तित्थयरो) ध्रुवसिद्धिरवश्यं मोक्षगामी, कोऽसौ ? तीर्थंकरः तीर्थकरपरम देवः । (चउणाणजुदो करेइ तवयरणं ) दीक्षानन्तरमेवोत्पन्नमनःपर्ययज्ञानः रहित है वह भी व्यर्थ है, इसलिये ज्ञान और तपसे युक्त पुरुष ही निर्वाण को प्राप्त होता है ।।५९॥ विशेषार्थ-तप रहित ज्ञान अकार्यकारी है, और ज्ञान रहित तप भी अकार्यकारी है अर्थात् मोक्षका साधक नहीं है इसलिये ज्ञान और तप अथवा ज्ञान से उपलक्षित तप से सहित मुनि ही सर्व कर्मरूप रूप मोक्षको प्राप्त होता है । जैसा कि कहा है.. मान्यं -तपसे अहीन अर्थात् सहित ज्ञान ही मान्य है--आदरणीय है और ज्ञान से हीन तप अहित है-कर्म बन्ध का कारण होने से अहितकारी है। जो मुनि ज्ञान और तप दोनोंसे युक्त है वह देव हो जाता है अर्थात् घाति चतुष्क का क्षय कर अरहन्त बन जाता है और जो दोनों से रहित है वह मात्र संघकी पूर्ति करता है अर्थात् संघ को संख्या बढ़ाता है, आत्मकल्याण नहीं करता है |॥१॥ ___ गाथार्थ-जो ध्रुव सिद्धि है-अर्थात् जिन्हें अवश्य ही माक्ष प्राप्त होना है तथा जो चार ज्ञानों से सहित हैं ऐसे तीर्थंकर भगवान् भी तपश्चरण करते हैं ऐसा जानकर ज्ञान युक्त पुरुष को तपश्चरण करना चाहिये ॥६०॥ For Personal & Private Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नाभृते [६. ६०तथापि तपश्चरणं विरात्रादिकं तपश्चरणं करोति । ( गाऊण धुर्व कुज्जा तवयरणं पाणजुत्तो वि) इति ज्ञात्वा, ध्रुवमिति निश्चयेन, कुर्याद्विदध्यात्, किं तत् ? तपश्चरण ज्ञानयुक्तोऽपि । अहं सकलशास्त्रप्रवीणः किं ममोपवासादिना तपश्चरणेनेति न वाच्यमिति भावः । उक्तं च उववाससो एक्कहो फलेण संवोहियपरिवार । णायदत्तु दिवि देव हुउ पुणरवि णायकुमारु ॥१॥ तें कारणि जिय पइभणमि करि उववासब्भासु । जाम्व ण देहकुडिल्लयहि ढुक्कइ मरणहुँ यासु ॥ २ ॥ .. यदज्ञानेन जीवेन कृतं पापं सुदारुणं ।। उपवासेन तत्सर्वं दहत्यग्निरिवेन्धनं ॥१॥ तथा चोक्तं प्रभाचन्द्रेण तार्किकलोकशिरीमणिना उपवासफलेन भजति नरा भुवनत्रयजातमहाविभवान् । खलु कर्ममलप्रलयादचिरादजरामरकेवलसिद्धिसुखं ॥१॥ विशेषार्थ-यद्यपि तीर्थकर भगवान् नियम से मोक्षगामी हैं तथा दीक्षा लेते ही मनःपर्यय ज्ञानके भी उत्पन्न होजाने से चार ज्ञानके धारी हैं तथापि वे वेला तेला आदि उपवास करते हैं ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष को भी तपश्चरण करना चाहिये । यह नहीं विचारना चाहिये कि मैं तो सकल शास्त्रों में प्रवीण हैं मुझे उपवास आदि तपश्चरण करने से क्या प्रयोजन है। कहा भी है___उववासहो-एक उपवास के फलसे परिवार को संबोधित करने वाला नागदत्त स्वर्ग में देव हआ और फिर नागकुमार हुआ ॥१॥ तेंकारणि--इसलिये हे जीव ! मैं कहता हूँ कि जब तक शरीर रूपी कुटी पर मरण रूपी अग्नि का आक्रमण नहीं होता है तब तक उपवास का अभ्यास कर ॥२॥ यवज्ञानेन-इस जोवने अज्ञान वश जो भयंकर पाप किया है उपवास से वह सब उस प्रकार जल जाता है जिस प्रकार कि अग्नि से इंधन ||३|| ऐसा ही तार्किकजनों के शिरोमणि प्रभाचन्द्र ने कहा है उपवासफलेन--उपवास के फलसे मनुष्य तीनों लोकों में उत्पन्न होने वाले महान् वैभवों को प्राप्त होते हैं और कर्म रूपी मलको नष्ट कर निश्चय से शोघ्र ही अजर-अमर पद, केवल ज्ञान और मोक्ष के सुखको प्राप्त होते हैं ॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ६१] मोक्षप्राभृतम् 'होइ वणिज्जु ण पोट्टलिहिं उववासें गउ धम्मु ।। एउ अहाणउ सो चवइ जसु कउ भारत कम्मु ॥ १॥ पोट्टलियहि मणिमोति यहं धणु कित्तइवि ण जाइ। वोरिहि भरिय वलद्दडइं तं णाहि जोक्खाइ ॥१॥ आत्मशुद्धिरियं प्रोक्ता तपसैव विचक्षणैः । . किमग्निना विना शुद्धिरस्ति कांचनशोधने ॥ १ ॥ बाहरलिंगेण जुदो अन्भंतलिंगरहिदपरियम्मो। सो सगचरित्तभट्ठो मोक्खपहविणासगो साहू ॥६१॥ बहिलिगेन युतो अभ्यंतलिंगरहितपरिकर्मा। स स्वकचरित्रभ्रष्टः मोक्षपथविनाशकः साधुः ॥ ६१ ॥ (बाहिरलिंगेण जुदो ) बहिलिगेन युतो नग्नमुद्रासहितः । ( अब्भंतरलिंगरहिदपरियम्मो) अभ्यन्तरलिंगरहितपरिकर्मा आत्मस्वरूपभावनारहितं परिकर्म अङ्गसंस्कारो यस्य सोऽभ्यन्तरलिंगरहितपरिकर्मा। (सो सगचरित्तभट्ठो) स होईवणिज्जु-पोटली (कपड़े की छोटी सी गठरी) से वाणिज्य नहीं हो सकता और उपवास करने से धर्म नहीं हो सकता ऐसा अहाना (लोकोक्ति) वही कहता है जिसके कर्म भारी है। पोलियहि-मणि और मोतियों की पोटली (गठरी) का धन कितना है कहा नहीं जाता। वह धन बोरों से भरे हुए बैलों से नहीं जोखा जा सकता नहीं तोला जा सकता क्योंकि अतुल है। ___आत्मशुद्धि--यह आत्मशुद्धि तपसे ही हो सकती है ऐसा विद्वानों ने कहा है । क्या सुवर्ण के शोधने में अग्नि के बिना शुद्धि हो सकती है ? अर्थात् नहीं। . .. गावार्थ-जो साधु बाह्य लिङ्ग से तो सहित है परन्तु जिसके शरीर का संस्कार (प्रवर्तन) आभ्यन्तर लिङ्ग से रहित है वह आत्म चारित्र से भ्रष्ट है तथा मोक्षमार्ग का नाश करने वाला है ॥६१॥ . विशेषार्थ-बाह्य लिङ्ग अर्थात् नग्न मुद्रा से सहित होनेपर भी जिसके शरीर की प्रवृत्ति आभ्यन्तर लिङ्ग से रहित है अर्थात् आभ्यन्तर स्वरूप की भावना से शून्य है वह साधु आत्म चारित्र से भ्रष्ट है तथा मोक्ष ...१. साक्य पम्म दोहा १०९।। २. साक्य पम्म दोहा ११० । For Personal & Private Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ षट्प्राभूते [ ६. ६२ साघु स्वकचरित्रभ्रष्टः । ( मोक्खपहविणासबो साहू) मोक्षपथविनाशक: साधु: स साघुर्मोक्षमार्गविध्वंसको ज्ञातव्यो ज्ञानीयो ज्ञेयः । इति भावं ज्ञात्वा निजशुद्धबुद्धैकस्वभावे आत्मतत्वे नित्यं भावना कर्तव्या साघोः । सुहेण भाविदं गाणं दुहे जादे विणस्सदि । तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए ॥ ६२ ॥ ६२ ॥ सुखेन भावितं ज्ञानं दुःखे जाते विनश्यति । तस्माद् यथाबलं योगी आत्मानं दुःखः भावयेत् ॥ ( सुहेण भाविदं गाणं ) सुखेन नित्यभोजनादिना भावितं वासितं ज्ञानं आत्मा । ( दुहे जादे विणस्सदि ) दुःखे जाते सति भोजनादेर प्राप्तौ सत्यां विनश्यति आत्मभावनाप्रच्युतो भवति । ( तम्हा जहा बलं जोई ) तस्मात्कारणाद्यथाबलं निजशक्त्यनुसारेण योगी मुनिः । ( अप्पा दुक्खेहि भावए ) आत्मानं दुःखैरनेकतपःक्लेशैः भावयेद्वासयेत् दुःखाभ्यासं कुर्यादित्यर्थः । मार्गका विध्वंस करने वाला है। ऐसा जानकर साधुको शुद्धबुद्धक स्वभाव युक्त निज आत्म तत्व की भावना करना चाहिये । से [ मोक्षमार्ग के प्रवर्तन के लिये बाह्य लिङ्गको निर्दोष प्रवृत्ति तथा तदनुरूप आत्म तत्व की भावना और रागादि विकारों के अभाव की आवश्यकता है जिस साधु में उक्त बातों की कमी हैं वह यथार्थ चारित्र से रहित है तथा अपनी प्रवृत्तिसे मोक्षमार्गको दूषित करने वाला है।] गाथा - सुख से वासित ज्ञान दुःख उत्पन्न होनेपर नष्ट हो जाता है इसलिये योगी को यथाशक्ति आत्माको दुःख से वासित करना चाहिये ॥ ६२ ॥ विशेषार्थ - नित्य प्रति भोजन करना आदि सुखिया स्वभाव से जो ज्ञानका अर्जन होता है वह भोजनादि की अप्राप्ति जन्य दुःख के उपस्थित होनेपर नष्ट हो जाता है । अथवा ज्ञान का अर्थ आत्मा है । जो आत्मा सुखसे वासित है वह दुःख के उत्पन्न होनेपर आत्म भावना से च्युत हो जाता है इसलिये योगी को चाहिये कि वह निज शक्ति के अनुसार अनेक तप सम्बन्धी दुःखों से आत्मा को वासित करे अर्थात् दुःख सहन करने का अभ्यास करे ।। ६२ ।। For Personal & Private Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षप्राभूतम् आहारासणणिद्दाजयं च काऊण जिणवरमएण । झायव्वो णियअप्पा णाऊ गुरुपसाएण ॥६३॥ आहारासननिद्राजयं च कृत्वा जिनवरमतेन । ध्यातव्यो निजात्मा ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ।। ६३ ।। ( आहारासणणिद्दाजयं च काऊण जिणवरमएण ) आहारासननिद्राजयं च कृत्वा जिनवरमतेन, शनैः शनैः आहारोऽल्पः क्रियते । शनैः शनैरासनं पद्मासनं उद्भासनं चाभ्यस्यते । शनैः शनैः निद्रापि स्तोका स्तोका क्रियते एकस्मिन्नेव पार्श्वे पार्श्वपरिवर्तनं न क्रियते । एवं सति सर्वोऽप्याहारस्त्यक्तु ं शक्यते आसनं च कदाचिदपि त्यक्तु ं '( न ) शक्यते । निद्रापि कदाचिदप्यकतु ं शक्यते । अभ्यासात् कि न भवति ? तस्मादेवकारणात्केवलिभिः कदाचिदपि न भुज्यते । पद्मासन एव वर्षाणांसहस्रं रपि स्थीयते, निद्राजयेनाप्रमत्तर्भूयते, स्वप्नो न दृश्यते । एवं जिनवरमतेन वृषभस्वामिवोरचन्द्रशासनेनानुशील्यते । ( झायव्वो णियअप्पा ) ध्यातव्यो निज आत्मा । ( णाऊणं गुरुपसाएण ) आत्मानमष्टाङ्ग [ योगं ] च ज्ञात्वा गुरु —६. ६३ ] गाथार्थ - आहार आसन और निद्रा को जीतकर जिनेन्द्र देवके मता - नुसार गुरुओं के प्रसाद से निज आत्मा को जानना चाहिये और जानकर उसीका ध्यान करना चाहिये । ६३९ विशेषार्थ - जिनेन्द्र देवके मतानुसार पहले धीरे धीरे आहार अल्प . किया जाता है। धीरे धीरे पद्मासन और खङ्गासन का अभ्यास किया जाता है तथा धीरे धीरे निद्रा भी कम की जाती है एक ही करवट से शयन करनेका अभ्यास किया जाता है करवट नहीं बदली जाती । इस तरह अभ्यास होते होते सभी आहार का त्याग किया जा सकता है । आसन का कभी भी त्याग नहीं किया जा सकता निद्रा भी कभी बिलकुल छोड़ी जा सकती है । अभ्यास से क्या नहीं होता ? इसी कारण केवलो कभी भोजन नहीं करते । पद्मासन से ही हजारों वर्ष स्थित रहे आते हैं । निद्रा जीतने से अप्रमत्त रहा जाता है अर्थात् प्रमाद का अभाव होता है, स्वप्न नहीं दिखाई देता । इस तरह जिनेन्द्र देवके मतानुसार अभ्यास किया जाता है । साधुको चाहिये कि वह गुरुओं के प्रसाद से अर्थात् निग्रन्थाचार्यवर्य की करुणा से आत्मा को तथा अष्टाङ्ग योग को जानकर उसका ध्यान करे। गुरुप्रसाद के बिना आत्मा का ज्ञान होना संभव नहीं है । 'द्रष्टव्यो वारेऽयमात्मा श्रोतव्योऽनमन्तव्यो निदिध्यासितव्य ' — निश्चय १. सर्वप्रतिषु नकारो नास्ति परन्तु आसनस्य त्यागः कथं शक्यः । For Personal & Private Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० षट्शाभूते [६.६४प्रसादेन निम्रन्याचार्यवर्यस्य कारुण्येन । गुरुप्रसादं विना "द्रष्टव्यो वा रेऽयमात्मा श्रोतव्योऽनुमन्तव्यो निदिध्यासितव्य" इति ब्रुवद्भिरपि वेदान्तवादिभिनिवृत्तः केनापि जनेम याज्ञवल्क्यादिना न प्राप्त इति भावार्थः । अप्पा चरित्तवंतो दंसणणाणेण संजुदो अप्पा । सो झायन्वो णिच्चं पाऊणं गुरुपसाएण ॥६४॥ आत्मा चारित्रवान् दर्शनज्ञानेन संयुत आत्मा । स ध्यातव्यो नित्यं ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ।। ६४ ॥ ( अप्पा चरितवंतो.) आत्मा चारित्रवान् वर्तते आत्मात्मानमेवानुतिष्ठतीति कारपात् यस्य मुनेश्चारित्रे प्रीतिरस्ति स आत्मानमेवाश्रयत्विति भावार्थः । (दसणणाणेण संजुदो अप्पा ) दर्शनेन ज्ञानेन च संयुतः संयुक्तः, कोऽसौ ? आत्मा जीवतत्वं, अत्रापि स एव भावार्थः-यस्य मुनेदर्शने प्रेम वर्तते. ज्ञाने वानुरागो. ऽस्ति स मुनिरात्मानमेवाश्रयतु तवयमपि तत्रैव यस्मात् । (सो शायव्वो णिच्चं ) स आत्मा ध्यातव्यो नित्यं सर्वकालं । रलानां त्रयस्योपायभूतस्यात्मलाभे मोक्षलाभे वा प्रीतिमत इत्यर्थः । (गाऊणं गुरुपसाएण) गुरोनियन्याचार्यस्य शिक्षादीक्षाचारवाचनादेश्च कतुः प्रसादेन कारुण्येन । अयं वस्तुस्वभावो वर्तते यदाचार्यप्रसन्नतयात्मलाभो भवति तद्विराधने सत्यात्मा न स्फुटीभवति । तथा चोक्तं से आत्मा दृष्टवा, श्रोतव्य, अनुमन्तव्य और निदिध्यासितव्य है इस प्रकार गृह जंजाल से निवृत्त वेदान्तवादी कहते अवश्य हैं परन्तु याज्ञ. वल्क्य आदि कोई भी उसे प्राप्त नहीं कर सका ॥ ६३ ॥ गाथार्थ-आत्मा चारित्र से सहित है, आत्मादर्शन और ज्ञान से युक्त है इस प्रकार गुरु के प्रसाद से जानकर उसका नित्य ही ध्यान करना चाहिये ॥ ६४ ॥ विशेषार्थ--आत्मा चारित्रवान् है इसलिये जिस मुनिकी चारित्रमें प्रीति है वह आत्माका हो आश्रय करे। आत्मादर्शन और ज्ञान से सहित है इसलिये जिस मुनिका दर्शन और ज्ञान में अनुराग है वह आत्मा का आश्रय करे। गुरुका अर्थ निर्ग्रन्थाचार्य है। उसके प्रसाद से आत्मा को जानकर उसका निरन्तर ध्यान करना चाहिये। यह वस्तु का स्वभाव है कि जिस आचार्य की प्रसन्नता से आत्म लाभ होता है उसको विराधना आज्ञाभन करने पर आत्मा अच्छी तरह स्पष्ट नहीं होती। जैसा कि For Personal & Private Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ६५ ] मोक्षप्राभृतम् गुणेषु ये दोषमनीषयान्धा दोषान् गुणीकर्तु मधेशते थे। श्रोतु कवीनां वचनं न तेऽहाः सरस्वतीद्रोहिषु कोऽधिकारः ॥१॥ __ अथवा गुरूणां पंचतयानां परमेष्ठिनां प्रसादादात्मा प्रभुलभ्यते । तेषां प्रसाद विना आत्मप्रभून प्राप्यत इत्यर्थः । यथा राजानं द्रष्टुकामः कश्चित् पुमान तत्सामन्तकादीन् पूर्वं पश्यति ते तु राजानं मेलयन्ति, तानन्तरेण तत्र प्रवेष्टुमपि न लभ्यते इति कारणात् पूर्व पंचदेवताः प्रसादनीया आत्मलाभमिच्छता योगिनेति भावार्थः। दुक्खे गज्जइ अप्पा अप्पा गाऊण भावणा दुक्खं । भावियसहावपुरिसो विसएसु विरच्चए दुक्खं ॥६५॥ दुःखेन ज्ञायते आत्मा आत्मानं ज्ञात्वा भावना दुःखम् । भावितस्वभावपुरुषो. विषयेषु विरज्यति दुःखम् ॥ ६५ ॥ (दुक्खं गज्जइ अप्पा ) दुःखेन महता कष्टेन तावदात्मा ज्ञायते आत्मास्तीति बुद्धिरुत्पद्यते । ( अप्पा गाऊण भावणा दुक्खं ) यद्यात्मास्तीति शातं तदा तस्मिनात्मनि भावना वासनाऽहनिशचिन्तनं तद्गुणस्मरणादिकं दुःखं दुष्प्राप्यं भवति । गुणेषु ये-जो गुणों में दोष बुद्धि से अन्धे हैं अर्थात् गुणों को दोष सिद्ध करते हैं और दोषों को गुण सिद्ध करने की सामर्थ्य रखते हैं वे कवियों के वचन सुनने के योग्य नहीं हैं। सरस्वती द्रोहियों का अधिकार ही क्या है? - अथवा गुरु से पंच परमेष्ठियों का ग्रहण करना चाहिये। उन्हीं के प्रसाद से आत्मा रूपी प्रभुका लाभ होता है अर्थात् उनके प्रसादके बिना बात्मा रूपी प्रभुकी प्राप्ति नहीं होती। जिस प्रकार राजाके दर्शनको इच्छा करने वाला कोई पुरुष पहले उनके सामन्त आदि से मिलता है क्योंकि वे उसे राजासे मिला देते हैं उनके बिना वहाँ प्रवेश भी प्राप्त नहीं होता इसलिये आत्मलाभ के इच्छुक मुनिको पहले पंचपरमेष्ठियों को प्रसन्न करना चाहिये ॥ ६४ ॥ पाया-प्रथम तो आत्मा दुःख से जानी जाती है, फिर जान कर उसकी भावना दुःख से होती है फिर आत्म स्वभाव की भावना करने बाला पुरुष दुःख से विषयों में विरक्त होता है ॥६५॥ विशेषार्थ-प्रथम तो 'मैं आत्मा हूँ' इस प्रकार की बुद्धि ही बड़े दुःख से उत्पन्न होती है तदनन्तर आत्मा हूँ इस प्रकार का ज्ञान भी यदि हो ' जाता है तो उस आत्मा को निरन्तर भावना करना-रातदिन उसो के For Personal & Private Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ षट्प्राभृते [ ६. ६६-६७ ( भाविय सहावपुरिसो विसएसु विरच्चइ दुक्खं ) भावितस्वभावः पुरुषः आत्मभावनासहितोऽपि सूरिः यद्विषयेषु वनिताजनस्तनजघनवदनलोचनादिविलोने तद्वार्ता - लाप गोष्ठीषु शरीर स्पर्शनादिसुखेषु विरज्यति तत्सुख हालाहलंविषास्वदनवज्जानाति तदतीव दुःख दुष्करमीति तात्पर्यार्थः । ताव ण णज्जइ अप्पा विसएसु णरो पवट्टए जाम । विस विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं ॥ ६६ ॥ तावत् न ज्ञायते आत्मा विषयेषु नरः प्रवर्तते यावत् । विषये विरक्तचित्तः योगी जानाति आत्मानम् ॥ ६६ ॥ ( ताव ण णज्जइ अप्पा ) तावत्कालमात्मा न ज्ञायते । तावत्कियत् ? ( विसएसु णरो पवट्टएं जाम ) यावत्कालं विषयेषु पूर्वोक्तलक्षणेषु नरो जीवः प्रवर्तते व्याप्रियते । ( विसए विरत्तचित्तो) विषये पूर्वोक्तलक्षणे विरक्तचित्तो निवृत्तचेता यती । ( जोई जाणेइ अप्पाणं ) योगी ध्यानवान् पुमान् महामुनिरात्मानं जानाति प्रत्यक्षतया पश्यति । अप्पा गाऊण णरा केई सब्भावभावपब्भट्टा । हिंडति चाउरंगं विसएसु विमोहिया मूढा ॥ ६७ ॥ आत्मानं ज्ञात्वा नराः केचित्सद्भाव प्रभ्रष्टाः । हिण्डन्ते चातुरङ्ग ं विषयेषु विमोहिता मूढाः ॥ ६७ ॥ गुणों का स्मरण आदि करना दुःख है - दुष्प्राप्य है तदनन्त र यदि आत्मा की भावना भी होती है तो स्त्री आदि विषयों से विरक्त होना दुःख हैदुष्प्राप्य है ॥ ६५ ॥ गाथार्थ - जब तक मनुष्य विषयों में प्रवृत्ति करता है तब तक आत्मा नहीं जानो जाती अर्थात् आत्म ज्ञान नहीं होता है । विषयों से विरक्त चित्त योगी ही आत्मा को जानता है ।। ६६ ।। विशेषार्थ - तब तक आत्मा नहीं जानो जाती जब तक की मनुष्य विषयों में प्रवृत्त होता रहता है । यथार्थ में विषयों से विरक्त चित्त योगी अर्थात् महामुनि ही आत्माको जानता है ॥ ६६ ॥ गाथार्थ - आत्माको जानकर भी कितने ही लोग सद्भाव की भावना से – निजात्म भावना से भ्रष्ट होकर विषयों में मोहित होते हुए चतुर्गति रूपी संसार में भटकते रहते हैं ॥ ६७ ॥ For Personal & Private Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.६७ ] मोक्षप्राभृतम् ६४३ ( अप्पा गाऊण णरा ) आत्मानं ज्ञात्वा आत्मास्तीति सम्यग्विज्ञाय नरा वहिरात्मजीवाः । ( केई सब्भावपब्भट्ठा) केचित् सद्भावप्रभ्रष्टाः केचित् विवक्षिताः सन् समीचिनो भावः सद्भावः निजात्मभावना तस्मात्प्रभ्रष्टा निजशुद्धबुद्ध कस्वभावात्मभावनाप्रच्युता विषयसुखदुर्भावनासु रता इत्यर्थ: । ( हिडंति चाउरंग ) हिण्डन्ते परिभ्रमन्ति पर्यटनं कुर्वन्ति चाउरंगं - चतुरंगे भवं चातुरंगं चतुर्गतिसंसारसंसरणं यथा भवत्येवं । ( विसए सु विमोहिया मूढा ) विषयेषु पंचेन्द्रियार्थेषु स्पर्शरसगन्धवर्णशब्देषु विमोहिता लोभ गताः, ते च विषया अनादिकाले जीवेनास्वादिताः, आत्मोत्थस्वाघीनं सुखं कदाचिदपि न प्राप्ताः । तथा चोक्तं अदृष्टं किं किमस्पृष्टं किमनाघ्रातमश्रुतं । किमनास्वादितं येन पुनर्नवमिवेक्ष्यते ॥ || भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ॥ २ ॥ वियेषु विमोहिता ये ते मूढा अज्ञानिनो बहिरात्मन इत्यर्थः । तेन वहिरात्मभावं परित्यज्यात्मभावना कर्तव्या । विशेषार्थ - कितने हो बहिरात्मा जीव किसी तरह आत्मा को जान भी लेते हैं परन्तु शुद्ध बुद्धक स्वभाव आत्मा की भावना से भ्रष्ट होकर पंचेन्द्रियों के स्पर्श रसगन्ध वर्णं और शब्द रूप विषयों में लुभा जाते हैं और उसके फल स्वरूप चतुरङ्ग - चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। इस जीवने पञ्चेन्द्रियों के विषय अनादि कालसे प्राप्त किये परन्तु आत्मोत्थ स्वाधीन सुख कभी भी प्राप्त नहीं किया है। जैसा कि कहा है अदृष्ट-इन विषयों में ऐसा कौन विषय है जिसे इस जीवने पहले न देखा हो, न छूआ हो, न सुधा हो, न सुना हो, न चखा हो, जिससे कि वह नवोन के समान दिखाई देता है ॥ १ ॥ भक्तोज्झिता — मेरे द्वारा सभी पुद्गल बार बार भोगकर छोड़े गये हैं फिर आज मुझ ज्ञानी की जूठन की तरह उन विषयों में मोह वश इच्छा करना क्या है ? जो जीव विषयों में मोहित हैं वे मूढ़ हैं - अज्ञानी हैं, बहिरात्मा हैं, अतः बहिरात्मभाव को छोड़कर आत्म भावना करना चाहिये ॥ ६७ ॥ For Personal & Private Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [६.६८-. जे पुण विसयविरत्ता अप्पा णाऊण भावणासहिया। छंडति चाउरंगं तवगुणजुत्ता ण संदेहो ॥६८॥ ये पुनः विषयविरक्ता आत्मानं ज्ञात्वा भावनासहिताः । त्यजन्ति चातुरङ्ग तपोगुणयुक्ता न सन्देहः ॥ ६८॥ (जे पुण विसयविरत्ता ) ये पुनरासन्नभव्यजीवा विषयेभ्यो विरक्ताः पसन ङ्मुखा विषयेषूत्पन्नविषयभावनाः। ( अप्पा गाऊण भावणासहिया ) आत्मानं ज्ञात्वा आत्मभावनासहिता भवन्ति । ( छंडति चाउरंग) ते पुरुषास्त्यजन्ति, किं ? चातुरंगं संसारं । ( तवगुणजुत्ता ण संदेहो) तप एव गुणस्तपोगुणस्तेन युक्ताः । अथवा तपो द्वादशभेदं गुणा अष्टाविंशतिमूलगुणा उत्तरगुणाश्च बहुभेदास्तयुक्ताः संसारं त्यजन्ति अत्र सन्देहो नास्ति संशयो न कर्तव्यः । उक्तं च गौतमेना महर्षिणा वदसमिदिदियरोषो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥१॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहि पण्णता । एत्य पमादकदादो अइचारादो नियत्तो हं ॥ २॥ गाथार्थ और जो विषयोंसे विरक्त होते हुए आत्मा, को जानकर उसकी भावना से सहित रहते हैं वे तप रूपी गुण अथवा तप और मूलगुणों से युक्त होकर चतुरङ्ग संसार को छोड़ते हैं ।। ६८.॥ विशेषार्थ-जो निकट भव्य जीव विषयों को विषके समान देखते हुए उनसे विरक्त रहते हैं तथा आत्मा को जानकर सदा उसके शुद्धबुद्धक स्वभाव को भावना रखते हैं वे तप रूप गुण अथवा बारह तप और अट्ठाईस मूलगुण तथा अनेक भेदोंसे युक्त उत्तर गुणों से सोहत होते हुए चतुर्गति रूप संसार का त्याग करते हैं इसमें संशय नहीं है। जैसा कि महर्षि गौतम ने कहा है बदसमिददिय-पांच महाव्रत, पांच समिति, पाँच इन्द्रियदमन, केशलोचन, छह आवश्योंका पालन, वस्त्र त्याग, स्नान त्याग और एकबार खड़े खड़े भोजन करना ये मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण जिनेन्द्र भगवान् ने कहे हैं । इनमें प्रमादके कारण लगे हुए अतिचारों से में निवृत्त हुआ For Personal & Private Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ६९-७० ] मोक्षप्राभृतम् परमाणुपमाणं वा परदव्वे रवि हवेदि मोहादो । सो मूढो अण्णाणी आवसहावस्स विवरदो ॥६९॥ परमाणुप्रमाणं वा परदव्ये रति र्भवति मोहात् । स मूढोऽज्ञानी आत्मस्वभावाद्विपरीतः ॥ ६९ ॥ ( परमाणुपमाणं वा ) परमाणु प्रमाणं वा । ( परदव्वे रदि हवेदि मोहादो ) परद्रव्ये रतिभर्वति मोहादज्ञानात् परमाणुमात्रापि रतिर्मोहादज्ञानाद्भवति, किमुच्यते बव्ही रतिः ? महती रतिस्तु अज्ञानाद्भवत्येव । ( सो मूढो अण्णाणी ) यस्य परद्रव्ये स्त्र्यादिविषये रतिभर्वति स मुनिमूढः तस्यैव पर्यायोऽज्ञानीति । ( आदसहावस्स विवरीदो ) स मुनिरात्मस्वभावाद्विपरीतः परद्रव्यरत इत्युच्यते बहिरात्मा कथ्यत इति भावार्थ: । एवं ज्ञात्वा परमात्मानं परित्यज्य परद्रव्ये रतिनं कर्तव्येति तात्पर्यार्थः । अप्पा झायंताणं दंसणसुद्धीण दिढचरित्ताणं । होवि धुवं णिव्वाणं विसऐसु विरतचित्ताणं ॥७०॥ आत्मानं ध्यायतां दर्शनशुद्धीनां दृढचारित्राणाम् । भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानाम् ॥ ७० ॥ गाथार्थ - जिसकी अज्ञान वश परद्रव्यमें परमाणु प्रमाण भी रति है वह मूढ़ है, अज्ञानी है और आत्मस्वभाव से विपरीत है ॥ ६९ ॥ विशेषार्थ - परद्रव्य विषयक रति अज्ञान के कारण होती है। जब कि परमाणु प्रमाण रति भी अज्ञान के कारण होती है तब अधिक रति तो अज्ञान से होती ही है । जिस साधु की स्त्री आदि परद्रव्य में रति है वह साधु मूढ है, उसीका दूसरा नाम अज्ञानी है, ऐसा साधु आत्मस्वभाव से विपरीत है । परद्रव्य में रत रहने वाला साधु बहिरात्मा कहा जाता है । ऐसा जान परमात्माको छोड़कर द्रव्यमें रति नहीं करना चाहिये || ६९ || ६४५ गाथार्थ - जो आत्माका ध्यान करते हैं, जिनके सम्यग्दर्शन की शुद्धि विद्यमान है, जो दृढ़चारित्र के धारक हैं तथा जिनका चित्त विषयों से बिरक्त है ऐसे पुरुषों को निश्चित ही निर्वाण प्राप्त होता है ॥ ७० ॥ १. परमाणुमित्तयं पि हु रायादीणं तु विज्जदे जस्स । वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरोवि ॥ २०१ ॥ अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो । कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयातो ॥ २०२ ॥ For Personal & Private Use Only - समयसार Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ षट्प्राभृते: [ ६. ७१ ( अप्पा झायंताणं ) आत्मानं ध्यायतां मुनीनां । ( दंसणसुद्धीण दिढचरित्ताणं) दर्शनस्य शुद्धिर्नेमंस्यं चलमलिनत्वरहितसम्यक्त्वानां चमंज लघृततैलभूतनाशनादिपरिहरतां शरीरमात्रदर्शनेन परगृहेषु कृतादिदो परहिताशनमश्नतां दर्शनशुद्धिमतां दृढचारित्राणां ब्रह्मचर्यप्रत्याख्यानादिदृढचारित्राणां । ( होदि ध्रुवं णिव्वाणं ) भवति ध्रुवमिति निश्चयेन निर्वाणं मोक्षो भवति । ( विसऐसु विरत्तचित्ताणं ) विषयेषु इष्टवनितालिङ्गनादिषु विरक्तचित्तानां विषयान् विषं मन्यमानानामिति संक्षेपताऽर्थो ज्ञातव्यो ज्ञानीयो ज्ञेय इति । जेण रागे परे दव्वे ससारस्स हि कारणं । तेणावि जोइणो णिच्चं अप्पे सभावणा ॥ ७१ ॥ येन रागे परे द्रव्ये संसारस्य हि कारणम् । तेनापि योगो नित्यं कुर्य्यादात्मनि स्वभावनाम् ॥ ७१ ॥ कुज्जा ( जेण रागे परे दव्वे ) वनितादिना पर्यायेण, रागे सति राग उत्पद्यते, परकीये द्रव्ये आत्मनो भिन्ने वस्तुनि । ( संसारस्स हि कारणं ) स रागः कथंभूतः, संसारस्य भवभ्रमणस्य, हि निश्चयेन, कारणं हेतुः । ( तेणावि ) न केवलं आत्मनि आत्मभावनां कुर्यात् किन्तु तेनापोष्ट वनितादिना । ( जोइणो ) योगी । ( णिचं ) विशेषार्थ -- जो मुनि आत्मा का ध्यान करते हैं, जिनके सम्यग्दर्शन की निर्मलता है अर्थात् जिनका सम्यक्त्व चलमलिनत्व आदि दोषों से रहित है जो चमड़े के पात्र में रखे हुए जल घी तेल तथा हींग आदिका परित्याग करते हैं, जो शरीर मात्र दिखाकर दूसरों के घरों में कृतादि दोषों से रहित आहार ग्रहण करते हैं, जो ब्रह्मचर्यं तथा प्रत्याख्यान आदि दृढ चारित्र से युक्त हैं तथा इष्ट- स्त्री आदि पञ्चेन्द्रियों के विषयों में विरक्त चित्त हैं अर्थात् विषयोंको विषके समान मानते हैं उन मुनियों को निश्चय से निर्वाण मोक्ष प्राप्त होता है ॥ ७० ॥ गाथार्थ - जिस स्त्री आदि पर्याय से परद्रव्य में राग होनेपर वह राग संसारका कारण होता है योगी उसी पर्यायसे निरन्तर आत्मा में आत्मा भावना करता है ॥ ७१ ॥ विशेषार्थ - साधारण मनुष्य के स्त्री आदि पर्याय के कारण परद्रव्य जो राग भाव होता है वह उसके संसार का कारण बन जाता है परन्तु योगी - वीतरागी मुनिके उसी स्त्री आदि पर पर्याय से निरन्तर आत्मा में आत्म भावना उत्पन्न होती है जो कि मोक्षका कारण बनती है। भावार्थ-साधारण मनुष्य स्त्रीको देखकर उसमें राग करता है जिससे For Personal & Private Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ७२] मोक्षप्राभृतम् ६४७ नित्यं-सर्वकालं । ( अप्पे ) आत्मनि । ( सभावणा कुज्जा) स्वभावनां आत्मभावनां कुर्यात् । कथमिति चेत् ? इयमिष्टवनिता अनन्तकेवलज्ञानमयी वर्तते यथा ममात्मानन्तकेवलज्ञानमयो वर्तते । इयमहं च द्वावपि केवलज्ञानिनौ वर्तावहे । तेन इयमप्यात्मा ममेति को नाम पृथग्वतंते येन सह स्नेहं करोमि । तथा चोपनिषद् यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः । तत्र को मोहः कश्शोक एतत्वमनुपश्यतः ॥ १ ॥ जिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य । सत्तूणं चेव बंधूणं चारितं समभावदो ॥७२॥ निन्दायां च प्रशंसायां दुःखे च सुखेषु च । शत्रूणां चैव बन्धूनां चारित्रं समभावतः ॥७२।। (णिदाए य पसंसाए ) निन्दायां प्रशंसायां च समभावतश्चारित्रं भवतोति सम्बन्धः । ( दुक्खे य सुहएसु य ) दुखे च सुखके च समागतेष्वित्युपस्कारः । ( सत्तूणं चेव बंधूण ) शत्रुषां चैव बन्धूनां समायोगे इत्युपस्कारः। ( चारित्तं उसके संसार की वृद्धि होती है परन्तु योगी ज्ञानी मनुष्य स्त्री को देखकर विचार करता है कि जिस प्रकार मेरी आत्मा अनन्त केवल ज्ञानमय है उसी प्रकार इस स्त्री की आत्मा भी अनन्त केवल ज्ञानमयी है। यह स्त्री और मैं-दोनों ही केवल ज्ञानमय हैं। इस कारण यह स्त्री भी मेरी आत्मा है मुझसे पृथक् इसमें है ही क्या ? जिससे स्नेह करूं। उपनिषद् में भी ऐसा कहा है यस्मिन्-जिस एकत्व के प्राप्त होनेपर ज्ञानी जीवके समस्त भूत आत्मस्वरूप ही होजाते हैं उस एकत्व भावको में प्राप्त हो चुका हूँ अतः मुझे मोह क्या है ? और शोक क्या है ? अर्थात् एकत्व के प्राप्त होनेपर आत्मा के राम और द्वेष दोनों नष्ट हो जाते हैं। [पं० जयचन्द्र जी ने अपनी वनिका में "जेणरागो परे दव्वे" ऐसा पाठ स्वीकृत कर यह अर्थ प्रकट किया है-च कि पर द्रव्य सम्बन्धी राग संसारका कारण है इस लिये योगी को निरन्तर आत्मा में ही आत्म भावना करना चाहिये । परन्तु इस अर्थ में 'तेणावि-तेनापि' यहां तेन शब्दके साथ दिये हुए अपि शब्दकी निरर्थकता सिद्ध होती है।] .' गापार्ष-निन्दा और प्रशंसा, दुःख और सुख तथा शत्रु और मित्र · में समभाव से ही चारित्र होता है ॥७२॥ For Personal & Private Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ षट्नाभृते [६.७३समभावदो ) समभावतः समतापरिणामे सति चारित्रं भवतीति निर्विकल्पसमाधिरूपं यथाख्यातं चारित्रं भवतीति भावार्थः । चरियावरिया वदसमिदिवज्जिया सुद्धभावपन्भट्टा । केई जपंति गरा ण हु कालो झाणजोयस्स ॥७३॥ . चर्यावरिका व्रतसमितिवजिता शुद्धभावप्रभ्रष्टाः । . केचित् जल्पन्ति नराः न हि कालो ध्यानयोगस्य ||७३|| (चरियावरिया ) चर्यायाश्चारित्रस्य आवरिका आवरणं येषां ते चर्यावरिकाः चारित्रमोहनीयकर्मयुक्ताः ( वदसमिदिवज्जिया) व्रतसमितिवजिता व्रतरहिताः समितिहीनाश्च । ( सुद्धभावपन्भट्ठा ) शुद्धभावप्रभ्रष्टा रागद्वेष मोहादिभिः परि. णामः कश्मलीकृता आत्मध्यानहीनाः । ( केई जंपंति णरा) केचिद्वहिरात्मानो नराः पुरुषा जल्पन्ति ववन्ति । कि जल्पन्ति ? (ण हु कालो प्राणजोयस्स) विशेषार्थ-मोह अर्थात् मिथ्यात्व और क्षोभ अर्थात् रागद्वेष के अभाव को समभाव कहते हैं । इस समभाव के प्रकट होनेपर मुनिके इष्ट अनिष्ट पदार्थोंके मिलने पर हर्ष विषाद उत्पन्न नहीं होता यही भाव हृदयंगत कर आचार्य महाराज कहते हैं कि निन्दा और प्रशंसा में समभाव रखने से चारित्र होता है, दुःख और सुख के प्राप्त होनेपर समभाव रखने से चारित्र होता है और शत्रओं तथा बन्धओं के संयोग होनेपर सम. भाव रखने से चारित्र होता है। यहां चारित्र पद से निर्विकल्प समाधि रूप यथाख्यान चारित्र का ग्रहण करना चाहिये ॥७२॥ आगे कोई कहते हैं कि यह ध्यानके योग्य समय नहीं है सो इसका निराकरण करते हैं___ गाथार्य-जो चारित्र को आवरण करने वाले चारित्रमोहनीय कर्म से युक्त हैं, व्रत और समिति से रहित हैं तथा शुद्धस्वभाव से च्युत हैं ऐसे कितने ही मनुष्य कहते हैं कि यह ध्यान रूप योग का समय नहीं है अर्थात् इस समय ध्यान नहीं हो सकता ॥७३॥ विशेषार्थ-योग के आठ अङ्ग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । इन आठ अङ्गों में से ध्यान योग का सातवाँ अङ्ग है। कुछ लोग कहते हैं कि यह पञ्चम काल ध्यान के योग्य नहीं है अर्थात् इस समय ध्यान नहीं हो सकता है। परन्तु ऐसा कहने वाले हैं कौन ? जो चारित्र मोहनीय कर्मके उदयसे युक्त है, जो व्रती और समितियों से रहित हैं, तया जो राग, द्वेष और मोह रूप परिणामों For Personal & Private Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ७४] मोक्षप्रामृतम् ध्यानयोगस्य अष्टाङ्गयोगमध्ये सप्तमो योगो ध्यानयोगस्तस्य कालोऽवसरो न वर्तते । कथं ? हि-स्फुटं । के ते अष्टाङ्गयोगाः यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाभ्यानसमाधयः । इति । सम्मत्तणाणरहिओ अभव्वजीवो हु मोक्खपरिमुक्को । संसारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ माणस्स ॥७४॥ सम्यक्त्वज्ञानरहितः अभव्यजीवो हि मोक्षपरिमुक्तः । संसारसुखे सुरतः न हि कालो भणति ध्यानस्य ।।७४॥ (सम्मत्तणाणरहिओ ) सम्यक्त्वरहितो मिथ्यादृष्टिः, ज्ञानरहितोऽज्ञानो मूढजीवो बहिरात्मा । ( अभव्यजीवो हु मोक्खपरिमुक्को ) अभव्यजीवो रत्नत्रयस्यायोग्यो लौकादिको मोक्षपरिमुक्तः तस्य कदाचिदपि कर्मयो न भविष्यति स न सेत्स्यति कंकटूकमुद्गवत् । ( संसारसुहे सुरदो ) संसारसुखे वनितायोनिमथनसुखे, सुरतः सुष्ठु अतिशयेन रतः तत्परः । ( ण हू कालो भणइ झाणस्स ) एव दोषदुष्टो भणति बूते, किं भणति ? ध्यानस्य कालो न भवति । कथं ? हु–सुटं।.. से कलुषित होनेके कारण शुद्धभाव से भ्रष्ट हैं-आत्मध्यान से विमुख हैं। ऐसे जीव अपनी पुरुषार्थ होनता को छिपाने के लिये कहते हैं कि यह ध्यान के योग्य समय नहीं है ।।७४।। आगे और भी इसी बातको स्पष्ट करते हैं गाथार्थ-जो सम्यक्त्व तथा सम्यग्ज्ञान से रहित है, जिसे कभी मोक्ष होना नहीं है, तथा जो संसार सम्बन्धी सुख में अत्यन्त रत है ऐसा अभव्य जोव हो कहता है कि यह ध्यान का समय नहीं है अर्थात् इस समय ध्यान नहीं हो सकता ॥४॥ .. विशेषार्थ-मोक्ष की योग्यता से रहित, संसार सुख में आसक्त मिथ्यादृष्टि एवं मिथ्याज्ञानी अभव्य जीव ही ऐसा कहते हैं कि यह ध्यान का काल नहीं है-इस समय ध्यान नहीं हो सकता परन्तु सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी, मोक्ष प्राप्ति को योग्यता रखने वाले और संसार सुख से विरक्त रहने वाले पुरुष ऐसा नहीं कहते कि यह ध्यान का काल नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० . षट्प्राभृते . [६. ७५पंचसु महव्वदेसु य पंचसु समिदोसु तीसु गुत्तोस् । जो मूढो अण्णाणी ण हु कालो भणई माणस्स ॥७५॥ पञ्चसु महाव्रतेसु य पञ्चसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु । यो मूढः अज्ञानी न हि कालो भणति ध्यानस्य ।।७५॥ (पंचसु महव्वदेसु य) पंचसु महाव्रतेषु च प्राणातिपातमृषावादस्तैन्यमैथुनपरिग्रहसर्वथापरित्यागो महानतमुच्यते एतेषु पंचसु महाव्रतेषु यो मूढश्चारित्रमोहबलवत्तरः । चकारादणव्रतानामपि अप्रतिपालको रात्रिभोजननियमरहितः चर्मजलवृततैलरामठास्वादन 'रतः (पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु) ईर्यासमितिः-करचतुष्टयं मार्गमवलोक्य गमनं, भाषासमितिः-आगमाविरुद्धभाषणं, एषणासमितिः-पूर्वोक्तषट्चत्वारिंशद्दोषरहिताहारग्रहणं, आदाननिक्षेपणासमितिः--ज्ञानोपकरणशौचोपकरणानां पूर्व दृष्ट्वा पश्चान्मयूरपिच्छैः प्रतिलेख्य ग्रहणं विसर्जन च आदाननिक्षे गाथार्थ-जो पांच महाव्रतों, पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों के विषय में मूढ है तथा अज्ञानी है वही कहता है कि यह ध्यान का काल नहीं है अर्थात् इस समय ध्यान नहीं हो सकता ॥७५।। विशेषार्थ-हिंसा, झूठ, चोरो, मैथुन और परिग्रह इन पाँच पापोंका सर्वथा त्याग करना महाव्रत है । ये अहिंसा महावत आदिके भेदसे पांच हैं जो इन पांचों महाव्रतोंमें मूढ है अर्थात् अत्यन्त बलवान् चारित्र मोहके उदय से जो महाव्रत धारण करने में असमर्थ है । चकार से यह भी सूचित होता है कि जो अणुव्रतों का भी पालन नहीं करता है, रात्रिभोजन के त्यागका जिसके नियम नहीं है तथा चमड़े के पात्र में रखे हुए जल, घी, तैल और हींग के खाने से जो आसक्त है। चार हाथ प्रमाण मार्ग देखकर चलना ईर्यासमिति है, आगम के अविरुद्ध वचन बोलना भाषासमिति है, पूर्वोक्त छयालीस दोषोंसे रहित आहार ग्रहण करना एषणासमिति है, ज्ञान तथा शौच के उपकरणों को पहले देखकर पीछे मयूर को पिछी से परिमार्जन कर उठाना रखना आदाननिक्षेपण समिति है, तथा मलमूत्रादि का लोकसे अविरुद्ध एवं जीव रहित स्थान में छोड़ना प्रतिष्ठापनसमिति है। जो इन पाँचों समितियों में मूढ है अर्थात् विवेक से शून्य है तथा जो मनोगुप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्ति के पालन करने में मूढ है साथ ही अज्ञानी अर्थात् जिनागम से बहिर्भूत है वही ऐसा कहता है कि यह १. स्वादन मठः म०। For Personal & Private Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ७६ ] मोक्षप्राभृतम् ६५१ पणासमितिः, प्रतिष्ठापनासमितिः-मलमूत्रशरीरादिकस्याविरुद्धनिर्जन्तुप्रदेशे विसर्जनं एतासु पंचसु समितिषु यो मूढो निर्विवेकः । तिसृषु गुप्तिषु मनोगुप्तिवाग्गुप्तिकायगुप्तिषु । ( जो मूढो अण्णाणी ) यः पुमान् मूढा निविवेकोऽज्ञानी जिनसूत्रबहिभूतः । (ण हु कालो भणइ झाणस्स )न विद्यते हु-स्फुटं, कोऽसौ ? कालोऽवसरः, ध्यानस्य सप्तमयोगस्य, एवं भणति ब्रूते । भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स । तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणो ॥७६॥ भरते दुःषमकाले धर्म्यध्यानं भवति साधोः । तदात्मस्वभावस्थिते न हि मन्यते सोऽपि अज्ञानी ।।७६।। ( भरहे दुस्समकाले ) भरहे-भरतक्षेत्रे भारतवर्षे, दुःषमे काले पंचमकाले कलिकालापरनाम्नि काले । (धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स ) धर्मध्यानं भवति साधोदिगम्बरस्य मुनेः । (तं अप्पसहावठिदे ) तद्धर्मध्यानं आत्मस्वभावस्थिते आत्मभावनातन्मये मुनी भवति । (ण हुमण्णइ सो वि अण्णाणो) न मन्यते नाङ्गीकरोति सोऽपि पुमान् पापीयान् अज्ञानी जिनसूत्रबाह्यः । ध्यान का समय नहीं है। इसके विपरीत जो पांच महाव्रत, पाँच समिति तथा तीन गुप्तियोंका पालन करने वाला और जिनागमका पाठी-सम्यज्ञानी है वह ऐसा नहीं कहता कि यह ध्यानका समय नहीं है ॥७॥ गाथार्थ-भरत क्षेत्रमें दुःषमनामक पञ्चम काल में मुनि के धर्म्यध्यान होता है तथा वह धय॑ध्यान आत्म स्वभाव में स्थित साधु के होता है ऐसा जो नहीं मानता वह अज्ञानो है ।।७६।। . .. विशेषार्थ-भरत क्षेत्र में क्रम क्रम से उत्सर्पिणी और अपसर्पिणो के छह कालों का परिवर्तन होता रहता है। इस समय यहाँ दुःषमा नामका अपसपिणी का पांचवाँ काल चल रहा है । यह ठोक है कि इस समय यहाँ मोक्षमार्ग का प्रचलन नहीं है अर्थात् इस काल का उत्पन्न हुआ मनुष्य मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता तथापि धर्म्यध्यान का निषेध नहीं है जो मुनि इस समय की आत्म भावना से तन्मय है उसे धर्म्यध्यान हो सकता है ऐसा जो नहीं मानता है वह पुरुष पापो, अज्ञानी तथा जिनागम के शान से रहित है ।।७।। For Personal & Private Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ षट्नाभृते [६. ७७अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहहि इंदत्तं । लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिदि जंति ॥७७॥ अद्यापि त्रिरत्लशुद्धा आत्मानं ध्यात्वा लभन्ते इन्द्रत्वम् । लोकान्तिकदेवत्वं ततः च्युत्वा निर्वाणं यान्ति ॥७॥ ( अज्ज वि तिरयणसुद्धा ) अद्यापि पंचमकालोत्पन्नाः समनस्काः पंचेन्द्रिया उत्तमकुलादिसामग्रीप्राप्ता वैराग्येण गृहीतदीक्षास्त्रिरत्नशुद्धाः सम्यक्त्वज्ञानचारित्रनिर्मला वर्तन्त एव, ये कथयन्ति महावतिनो न विद्यन्ते ते नास्तिका जिनसूत्रबाह्या ते ज्ञातव्याः आसन्न भव्याः किं कुर्वन्ति ? (अप्पा झाएवि लहहि इंदत्तं ) आत्मानं ध्यात्वा भावयित्वा लभन्ते इन्द्रत्वं शक्रपदं । न केवलमिन्द्रत्वं लभन्ते, (लोयंतियदेवत्तं ) केचिदल्पश्रुता अपि साधव आत्मभावनावलेन लोकान्तिकत्वं लभन्ते पंचमस्वर्गस्यान्ते पर्यन्तप्रदेशेषु तेषां विमानानि सन्ति, तत्र भवा लोकान्तिकाः सुरमुनयश्च कघ्यन्ते, ते स्वर्ग स्थिता अपि ब्रह्मचर्य प्रतिपालयन्ति-स्त्रीरहिता भवन्ति, तीर्थंकरसम्बोधनकाले मत्यलोकमागच्छन्ति अथवा स्वस्थानमेवावतिष्ठन्ते । गाथार्थ-आज भी रत्नत्रयसे शुद्धता को प्राप्त हुए मनुष्य आत्मा का ध्यान कर इन्द्र पद तथा लोकान्तिक देवोंके पदको प्राप्त होते हैं और वहाँ से च्युत होकर निर्वाणको प्राप्त होते हैं ॥७७॥ विशेषार्थ-आज भी पञ्चम काल में उत्पन्न सैनी पञ्चेन्द्रिय जीव उत्तम कुल आदि सामग्री को प्राप्त होकर वैराग्य वश दीक्षा धारण करते हैं तथा रत्नत्रय से शुद्ध रहते हैं अर्थात् निर्दोष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ओर सम्यक्चारित्र के धारके रहते हो हैं। जो कहते हैं कि इस समय महाव्रती नहीं हैं वे नास्तिक हैं उन्हें जिनशासन से बाह्य जानना चाहिये। रत्नत्रय की शुद्धता को प्राप्त हुए निकट भव्य जीव आज भी इस पंचम कालके समय भी इन्द्रपद को प्राप्त होते हैं। न केवल इन्द्रत्व पदको ही प्राप्त होते हैं किन्तु कितने हो मुनि अल्पश्रुत के ज्ञाता होकर भी आत्म भावना के बल से लौकान्तिक देवोंका पद प्राप्त करते हैं। पञ्चम स्वर्ग के अन्त में अन्तिम प्रदेशों में लोकान्तिक देवों के विमान हैं उनमें उत्पन्न होने से वे लौकान्तिक कहलाते हैं इन्हें सुरमुनि-देवर्षि भी कहते हैं वे स्वर्ग में स्थित रहते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं-स्त्री से रहित होते हैं और तीर्थंकरों को सम्बोधने के समय मनुष्य लोक में आते हैं अन्यथा अपने स्थान में ही स्थित रहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ७८ ] मोक्षप्राभृतम् चतुर्लक्षाः सहस्राणि सप्त चैव शताष्टकं । विशतिर्मेलिता एते बुधैर्लोकान्तिका मताः ॥ १ ॥ " सारस्वत्यादित्यवन्ह्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च" इति तेषां अष्टो जातयः । तथा तेषां षोडशजातयश्च वर्तन्ते । सारस्वतादित्यान्तरे अग्न्याभसूर्याभाः । आदित्यवन्हिमध्ये चन्द्राभसत्याभाः । वन्ह्यरुणान्तरे श्रेयस्कर क्षेमंकराः । अरुण दंतोयमध्य वृषभोष्ट्रकामचराः । गर्दतोय तुषितान्तरे निर्वाणरजोदिगन्तरक्षिता: । तुषिताव्यावाघमध्ये आत्मरक्षित सर्व रक्षिताः । अव्याबाधारिष्टान्तरे महद्वसवः । अरिष्टसारस्वतान्तरे अश्वविश्वाः । ( तत्थ चुआ णिव्वुदि जंति ) तस्माच्युता निर्वृति निर्वाणं यान्ति गच्छन्ति सर्वेऽपि पूर्वधारिण एकं गर्भवासं गृहीत्वा मोक्षं प्राप्नुवन्ति । जे पावमोहियमई लिंग घेत्तूण जिणवरदाणं । 'पावं कुणति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गमि ॥ ७८ ॥ ये पापमोहितमतयः लिङ्गं गृहीत्वा जिनवरेन्द्राणाम् । पापं कुर्वन्ति पापाः ते त्यक्ता मोक्षमार्गे ॥ ७८ ॥ ६५३ चतुर्लक्षा - विद्वानों ने समस्त लौकान्तिक देवोंका प्रमाण चार लाख सात हजार आठसौ बीस माना है । " सारस्वतादित्यवन्ह्यरुण गर्दतोय तुषिताव्याबाधारिष्टाश्च" तत्वार्थ सूत्र के इस सूत्र में उनकी आठ जातियाँ बतलाई गई हैं । अथवा उनकी सोलह जातियाँ भी होती हैं। सारस्वत और आदित्य के मध्य में अग्न्याभ और सूर्याभ रहते हैं । आदित्य और वह्निके मध्य में चन्द्रमा तथा सत्याभमें रहते हैं । वह्नि और अरुणके बीच में श्रेय -- स्कर तथा क्षेमंकर रहते हैं । अरुण और गर्दतोय के मध्य में वृषभोष्ट्र और कामचर रहते हैं । गर्दतोय और तुषित के बीच में निर्वाणरज और दिगन्त रक्षित रहते हैं । तुषित और अव्यावाध के मध्य में आत्म रक्षित और सर्व रक्षित रहते हैं । अव्याबाध और अरिष्ट के मध्य में मरुद् तथा वसु रहते हैं । तथा अरिष्ट और सार स्वत के मध्य में अश्व और विश्व रहते हैं । ये लौकान्तिक देव वहाँ से च्युत होकर नियम से निर्वाण को प्राप्त होते हैं। सभी पूर्वके धारी होते हैं और एक गर्भवास ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । भावार्थ - जो पाप से मोहित बुद्धि मनुष्य, जिनेन्द्र देवका लिङ्ग धारण कर पाप करते हैं वे पापी मोक्ष मार्ग से पतित हैं ॥७८॥ For Personal & Private Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ षट्नाभृते [ ६. ७९ (जे पावमोहियमई ) ये मुनयः पापमोहितमतयः पापेन ब्रह्मचर्यभंगप्रत्याख्यानभंजनादिना मोहिता लोभं प्रापिताः पापमोहितमतयः। ( लिंग घेत्तण जिणवरिदाणं) लिंगं चिन्हं मुद्रां नग्नत्वं वस्त्रमात्रोपेतक्षुल्लकत्वं च चक्रवर्तिलिगं, घेत्तूण गृहीत्वा धृत्वा, जिनवरेन्द्राणां तीर्थकरपरमदेवानां । ( पावं कुणंति पावा ) पापं ब्रह्मचर्यभंगादिकं कुर्वन्तिपापानिपापमूर्तयः पापरूपाः । ( ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि) ते जिनलिंगोपजोविनः त्यक्ताः पतिता मोक्षमार्गादित्यर्थः । उक्तं च अन्यलिंगकृतं पापं जिनलिंगेन मुच्यते । जिनलिंगकृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ॥१॥ जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासोला। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ॥७९॥ ये पञ्चचेलसक्ताः ग्रन्थग्राहिणः याचनशीलाः। . अधःकर्मणि रताः ते त्यक्ताः मोक्षमार्गे ॥७९|| (जे पंचचेलसत्ता ) ये मुनयः पंचचेलसक्ताः पंचविधवस्त्रलंपटा अंडजवुडज-वल्कज--चर्मज-रोमजपंचप्रकारवस्त्रेष्वन्यतमं वस्त्रप्रकारं परिदधत्युपदधति च। ( गंथग्गाहीय जायणासीला ) ग्रन्थग्राहिणो रिक्थस्वीकारिणः, याचनाशीलाः विशेषार्थ-जो ब्रह्मचर्य भंग तथा प्रत्याख्यान भंग आदि पापोंसे मोहित बुद्धि होकर जिनेन्द्र देवका लिङ्ग अर्थात् नग्न दिगम्बर मुद्रा और चक्रवर्ती का पद अर्थात् वस्त्रमात्र परिग्रह के धारक क्षुल्लक का पद ग्रहण करके भी पाप करते हैं ब्रह्मचर्य भङ्ग आदि पाप कर बैठते हैं वे पापी हैं तथा मोक्षमार्ग से पतित हैं। जैसा कि कहा है___ अन्यलिङ्ग–अन्य लिङ्गसे किया पाप जिनलिङ्ग से छूटता है और जिनलिङ्ग के द्वारा किया हुआ पाप वज्रलेप होता है ।।७८॥ गाथार्थ-जो पांच प्रकार के वस्त्रों में आसक्त हैं, परिग्रह को ग्रहण करने वाले हैं, याचना करते हैं तथा अद्यः कर्म-निन्द्य कर्म में रत हैं वे मुनि मोक्षमार्ग से पतित हैं। विशेषार्थ-अण्डज, बुण्डज, वल्कज, चर्मज और होमज के भेदसे वस्त्रके पांच भेद हैं। जो मुनि इन पांच प्रकार के वस्त्रों में से किसी एक वस्त्र में आसक्त हैं, किसी काज से धन स्वीकृत करते हैं, याचना करना जिनका स्वभाव पड़ गया है और जो अधः कर्म में निन्द्यकम में रत हैं वे For Personal & Private Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.८०] मोक्षप्रामृतम् स्वभावेन याञ्चापरा जिनमुद्रां प्रदश्यं धनं याचन्ते मातरं प्रदश्य भाटी गृहणन्ति तत्समानाः। ( आषाकम्मम्मि रया) आधाकर्मणि अधःकर्मणि निन्द्यकर्मणि उपविश्य भोजनं कारयित्वा भुंजते ये तेऽधःकर्मरता इत्युच्यन्ते । ( ते चत्ता मोक्समग्गम्मि ) ते मुनयस्त्यक्ताः पतिता मोक्षमार्गादिति भावार्थः । निगंथ मोहमुक्का बावीसपहरीसहा जियकसाया। पावारंभविमुक्का ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ॥८॥ निर्ग्रन्थ मोहमुक्ता द्वाविंशतिपरीषहा जितकषायाः । पापारम्भविमुक्ताः ते गृहीता मोक्षमार्गे ॥८॥ ( निग्गंथ ) निग्रन्थाः परिग्रहरहिताः ( मोहमुक्का ) मोहमुक्ताः पुत्रमित्रकलत्रादिस्नेहरहिताः । ( बावीहपरीसहा ) द्वाविंशतिपरीषहा द्वाविंशतिपरीषहसहनशीलाः । (जियकसाया ) क्रोधमानमायालोभकषायरहिताः। ( पावारंभविमुक्का ) पापारंभेभ्यो विमुक्ता रहिता हिंसादिपंचपातकविहीनाः सेवाकृषिवाणिज्यादिप्राणातिपातहेतुभूतारम्भरहिताः। (ते गहिया मोक्खमग्गम्मि) ते गृहीता अङ्गीकृता, मोक्षमार्गे रत्नत्रयलक्षणे । मुनि मोक्षमार्ग से त्यक्त हैं छूटे हुए हैं अर्थात् पतित हैं । जो मुनि जिन मुद्राको दिखाकर धन की याचना करते हैं वे माता को दिखा कर भाड़ा ग्रहण करने वालों के समान हैं ।।७९।। .: गाथार्य-जो परिग्रह से रहित हैं पुत्र मित्र स्त्री आदि के स्नेह से रहित हैं, बाईस परीषहों को सहन करने वाले हैं, कषायों को जीतने वाले हैं तथा पाप और आरम्भ से दूर हैं वे मोक्षमार्ग में अङ्गीकृत हैं। विशेषार्थ-जो निर्ग्रन्थ हैं अर्थात् परिग्रह से रहित हैं, मोहमुक्त हैं अर्थात् पुत्र मित्र तथा स्त्री आदि के स्नेह से रहित हैं, जिन परोषह हैं अर्थात् क्षुधा तृषा आदि बाईस परोषहों को सहन करने वाले हैं, जिनकषाय हैं अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय को जीतने वाले हैं और पापारम्भ विमुक्त हैं अर्थात् हिंसादि पापों और सेवा कृषि आदि आरम्भों से रहित हैं वे मोक्षमार्ग में गृहीत हैं अर्थात् उन्हें मोक्षमार्ग में प्रविष्ट माना गया है . . . . For Personal & Private Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते उद्धद्धमझलोए कई मज्झं ण अहयमेगागी । इय भावणाए जोई पावंति हु सासयं सोक्खं ॥८१॥ ऊर्ध्वाधोमध्यलोके केचित् मम न अहंकमेकाकी । इति भावनया योगिनः प्राप्नुवन्ति हि शाश्वतं सौख्यम् ॥ ८१ ॥ ( उद्धद्धमज्झलोए ) ऊर्ध्वलोकेऽघोलोके मध्यलोके । ( केई मज्झं ण अह - मेगागी ) केचिज्जीवा मम न वर्तन्ते, अहकं अहं एकाकी एक एव वर्ते । ( इय भावणाए जोई ) इति भावनया योगिनो मुनयः । ( पार्वतिहु सासयं सोक्खं ) प्राप्तुवन्ति लभन्ते हु—स्फुटं शाश्वतं सौख्यं अविनश्वरं परमनिर्वाणसुखं । ठाण इति पाठे शाश्वतं अविनश्वरं स्थानं मोक्षं प्राप्नुवन्तीति सम्बन्धः । देवगुरूणं भत्ता णिव्वेयपरंपरा विचितंता । झाणरया सुचरिता ते गहिया मोक्खमग्गमि ॥ ८२ ॥ देवगुरूणां भक्ताः निर्वेदपरम्परां विचिन्तयन्तः । ध्यानरताः सुचरित्राः ते गृहीता मोक्षमार्गे ||८२|| (देवगुरूणं भत्ता) देवानामष्टादशदोषरहितानामिन्द्रादिपूजितानां पंचकल्याण -- प्राप्तानां अष्टमहाप्रातिहार्यशोभितानां संसारसमुद्र निस्तारकाणां भव्यकमलबोधमार्तण्डानामित्याद्यनन्तगुण गरिष्ठानामर्हद्देवानां तथा गुरूणां निग्रं न्याचार्यवर्याणां ६५६. गाथार्थ - 'ऊर्ध्व मध्य और अधोलोक में कोई जीव मेरे नहीं हैं में अकेला ही हूँ' इस प्रकार की भावना से योगी शाश्वत - अविनाशी सुखको प्राप्त होते हैं ॥ ८१ ॥ [ ६. ८१-८२ विशेषार्थ -- ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक में कोई भी जीव मेरे नहीं हैं - मेरा किसी के साथ स्वामित्व नहीं है में अकेला ही हूँमेरे प्रति किसीका स्वामित्व नहीं है इस प्रकार की भावना से योगी शाश्वत सुख - अविनश्वर परम निर्वाण सुखको प्राप्त होते हैं । 'सास सोक्खं' के बदले कहीं 'सासयं ठाणं' पाठ है उसका अर्थ अविनाशी मोक्षस्थान को प्राप्त होते हैं ऐसा समझना चाहिये ||८१ || गाथार्थ - जो देव और गुरुके भक्त हैं, वैराग्य की परम्पराका विचार करते रहते हैं, ध्यान में तत्पर रहते हैं तथा शोभन - निर्दोष आचार का पालन करते हैं वे मोक्षमार्ग में अजीकृत हैं ॥ ८२ ॥ | विशेषार्थ - जो अठारह दोषों से रहित, इन्द्रादि के द्वारा पूजित, पञ्चकल्याणका को प्राप्त आठ महाप्रातिहार्यों से शोभित संसार समुद्र से पार करनेवाले, भव्य रूपी कमलों को विकसित करने के लिये सूर्य तथा For Personal & Private Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.८२] मोक्षप्राभृतम् ६५७ शास्त्रसमुद्रपारगाणां सम्यग्दर्शनशानचारित्रपवित्रगात्राणां स्त्रीविवर्जितानां विवाहादिपापारम्भविवर्जितानां क्षत्रद्विजवैश्यअश्ववृषभगजवर्करादिजीवानाममारकाणां मधुलिप्त वनिताभगानास्वादकालं सौत्रामणिमद्यानामपायकानां गोवघं कृत्वा संवत्सरे मातृभगिन्यादिभोगालम्पटानां भव्यजीवसंबोधने मातृपितृवृद्धितोपदेशकानां पापघटाग्राहकाणां, कृष्यादिसावद्यकर्मरहितानां प्रासुकपरगृहयोग्यभोजनभोजकानां अवर्णलोपकानामतुच्छिष्टभुक्तिग्रहणमार्गाणां इत्यादिगुणगणगरिष्ठानां जगदिष्टानां गुरूणां ये भक्ताः पाचपंकजमधुलिहः देवगुरूणां भक्ता इत्युच्यन्ते (णिब्वेयपरंपरा विचितंता ) निर्वेदः संसारशरीरभोगविरागता तस्य परंपरा नानाविधोपदेशस्तां विशेषेण चिन्तयन्तः पर्यालोचयन्तः नरकादिगतिगर्तपातिपातकभयभीतमूर्तयः । (माणरया सुचरित्ता) घ्याने धर्म्यशुक्लध्यानद्वये रतास्तत्पराः, सुचारित्राः शोभनाचाराः । (ते गहिया मोक्समग्गम्मि) ते भव्यवरपुण्डरीका गृहीता अङ्गीकृता मोक्षमार्ग इति । . इन्हें आदि लेकर अनन्त गुणोंसे अतिशय श्रेष्ठ अर्हन्त देवका और निर्ग्रन्थ आचार्यों में श्रेष्ठ, शास्त्र समुद्र के पारगामी, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे पवित्र शरीर, स्त्री से रहित, विवाह आदि पापके आरंभों से रहित क्षत्रिय, ब्राह्मण और वैश्य, घोड़ा, बैल, हाथी तथा बकरा आदि जीवों को नहीं मारने वाले, मधुसे लिप्त स्त्री के भगका स्वाद नहीं लेनेवाले, सौत्रामणि नामक यज्ञ में मदिरा को नहीं पीने वाले, गोवध करके संवत्सर नामक यज्ञ में माता बहिन आदि के भोग में अलम्पट, भव्यजीवों के संबोधन करने में माता पिता के समान हितका उपदेश देनेवाले, पाप समूह को ग्रहण नहीं करने वाले, खेती आदि पाप कार्यों से रहित. दूसरों के घरमें योग्य प्रासुक आहार का भोजन करने वाले, ब्राह्मणादि ..वर्णोंका लोप नहीं करने वाले, जंठे भोजन को ग्रहण करने के मार्ग से रहित, इत्यादि गुणोंके समूह से श्रेष्ठ तथा जगत् के लिये इष्ट गुरुओं के भक्त हैं:-उनके चरण कमलों में भ्रमर बनकर रहते हैं जो संसार शरीर और भोगों से विरागता रूप निर्वेद की परम्परा का विशेष रूप से विचार करते हैं, जो नरकादि गति रूप गर्त में गिराने वाले पापों से भयभीत रहते हैं, धय॑ध्यान और शुक्लध्यान में तत्पर रहते है तथा सुचारित्र हैं अर्थात् निर्दोष आचार का पालन करते हैं वे श्रेष्ठ भव्य जीव मोक्षमार्ग में बङ्गीकृत हैं अर्थात् मोक्षमार्ग में विचरण करने बा२॥ For Personal & Private Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभूते च्छिणायस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो । सो होदि हु सुचरितो जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥ ८३ ॥ निश्चयनयस्येवं आत्माऽऽत्मनि आत्मने सुरतः । सभवति हि सुचरित्र : योगी स लभते निर्वाणम् ||८३|| ( णिच्छयणयस्स ) एवं निश्चयनस्यैवमभिप्रायः । ( एवं ) कथमिति चेत् ? ( अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो ) आत्मा कर्ता, आत्मन्यधिकरणभूते . आत्मने आत्मार्थमिति संप्रदाने तादयंचतुर्थी, सुष्ठु अतिशयेनालौकिकप्रकारेण रतः तन्मयीभूत एकलोलीभावं गतः । ( सो होदि ह सुचरितो ) स आत्मा भवति कथंभूत भवति सुचरित्रः निश्चयचारित्रः । ( जोई सो लहइ णिव्वाणं ) योगी ध्यानवान् पुमान् लभते प्राप्नोति, किं तत् ? निर्वाणं परमसुखं मोक्षमिति, अथवा योगीशो योगिनां ध्यानिनामीशः स्वामी निर्वाणं लभते इति सम्बन्धः । ६५८ पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाण दंसणसमग्गो । जो शायदि सो जोई पावहरो भवदि णिद्वंदो ॥ ८४ ॥ पुरुषाकार आत्मा योगी वरज्ञानदर्शनसमग्रः । यो ध्यायति स योगी पापहरो भवति निर्द्वन्द्वः ॥ ८४ ॥ [ ६.८३-८४ गाथार्थ - निश्चय का ऐसा अभिप्राय है कि जो आत्मा आत्मा के लिये आत्मा में तन्मयीभाव को प्राप्त है वही सचारित्र - उत्तम चारित्र है । इस चारित्र को धारण करने वाला योगी निर्वाण को प्राप्त होता है ॥ ८३ ॥ विशेषार्थ - निश्चयनयके अनुसार सम्यक् चारित्रका स्वरूप निरूपण करते हुए कहा है कि जो आत्मा आत्मा के लिये आत्मा में सुख है अर्थात् अलौकिक प्रकार से तन्मयी भावको प्राप्त है वह आत्मा सुचारित्रनिश्चयचारित्र | निश्चयनय गुणगुणी के भेदको भी स्वीकृत नहीं करता इसलिये यहाँ आत्मा और चारित्र में गुणी तथा गुण का भेद न कर आत्मा के लिये ही सुचारित्र कह दिया है । जिस योगी को ऐसा सुचारित्र प्राप्त हो गया है वह नियम से निर्वाण को प्राप्त करता है अथवा 'जोई सो' की संस्कृत छाया 'योगीश: ' है इस पक्ष में निश्चयचारित्र का धारक योगीश निर्वाण को प्राप्त अर्थ होता है कि वह होता है ॥ ८३ ॥ गाथार्थ - पुरुषाकार अर्थात् मनुष्य शरीर में स्थित जो आत्मा, योगी बनकर उत्कृष्ट ज्ञान और दर्शन से पूर्ण होता हुआ आत्मा का ध्यान करता है, वह पापों को हरने वाला तथा निर्द्वन्द्व होता है ॥८४॥ For Personal & Private Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ८५] मोक्षप्रामृतम् (पुरिसायारो अप्पा ) पुरुषस्य नरस्याकार आकृतिर्यस्य स पुरुषाकारः, एवं गुण विशिष्टः कः ? आत्मा चेतनस्वभावो जीवतत्वं, (जोई वरणाणदंसगसमग्गो) योगी मुनिः, इत्यनेन गृहस्थस्य मोक्षं त्रुवाणाः सितपटाः प्रत्युक्ता भवन्ति । वरज्ञानदर्शनसमग्रः केवलज्ञानकेवलदर्शनपरिपूर्णः । इत्यनेनाचैतन्यमात्मानं मन्यमानाः कपिलाः शुनका इव निराकृताः । ( सो झायदि सो जो जोई ) एवं गुणविशिष्टमात्मानं यो मुनिया॑यति स योगो ध्यानी भवति । अन्यश्चार्वाको नास्तिको योगिनामा । एवं स्थाने मतान्तराश्रयेण व्याख्यानं कर्तव्यमिति भावः । ( पावहरो भवति णिइंदो ) पापहरस्त्रिषष्ठिप्रकृतिविच्छेदको भवति घातिसंघातघातकः स्यात्, निर्द्वन्द्वः समवसरणागतपरस्परविरोधिजन्तुकलहनिषेधक इत्यर्थः । एवं जिणेहि कहियं सवणाणं सावयाण पुण पुणसु । संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ॥४५॥ एतत् जिनः कथितं श्रवणानां श्रावकाणां पुनः पुनः। संसारविनाशकरं सिद्धिकरं कारणं परमम् ॥८५।। विशेषार्थ-यद्यपि जीवत्व सामान्य की अपेक्षा चारों गतिके जीव समान हैं परन्तु मोक्ष का अधिकारी वही जीव है जो वर्तमान में मनुष्याकार परिणमन कर रहा है। इसी प्रकार मनुष्यत्व सामान्य की अपेक्षा गृहस्थ और योगी समान है परन्तु मोक्षका अधिकारी योगी ही है गृहस्थ नहीं है। इस कथन से 'गृहस्थ को मोक्ष होता है। ऐसा कथन करने वाले श्वेताम्बरों का निराकरण हो जाता है। यद्यपि योगित्व सामान्य की अपेक्षा योगो और अरहन्त भगवान् समान हैं तथापि मोक्षके अधिकारी वही योगी हैं जो उत्कृष्ट ज्ञान और दर्शन से परिपूर्ण हैं अर्थात् • अरहन्त अवस्था को प्राप्त हैं। इस कथन से आत्माको अचेतन मानने वाले सांख्यों का निराकरण हो जाता है। इस प्रकार की विशेषताओं से युक्त होकर जो योगो अर्थात् ध्यानी बनता है वह पापहर अर्थात् वेसठ प्रकृतियों का क्षय करने वाला होता है तथा निर्द्वन्द्व होता है अर्थात् समवशरण में आगत परस्पर विरोधी जीवोंको कलह को दूर करने वाला होता है ।।८४॥ गाथार्य-इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा बार बार कहे हुए वचन मुनियों तथा श्रावकों के संसार को नष्ट करने वाले तथा सिद्धि को प्राप्त कराने वाले उत्कृष्ट कारण स्वरूप है ।।८५॥ For Personal & Private Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्पामते (एयं जिणेहि कहियं ) एतद्धातिसंघातपातनादिकं फलं आत्मध्यानस्य, जिनः सर्वज्ञः कथितं प्रमाणभूतवचनैः प्रतिपादितं । (सवणाणं सावयाण पुण पुणसु) श्रवणानां दिगम्बराणां महामुन्यपरसंज्ञानामृषीणामिति, न . केवलं श्रवणानां श्रावकाणां सदृष्टीनामुपासकानां च यतस्ते दीक्षायोग्या ध्यानाधिकारिणो देशव्रताः सन्त आत्मभावनापराः संसारविरक्तचित्ता आरक्षकगृहीतचौरवत् गृहपरित्यागपरिहारमनसः षोडशान्यतमस्वर्गगामिनः । पुनः पुनः भणितं तत्वज्ञानविज्ञानाथं च । ( संसारविणासयरं) सर्वशवीतरागवचनमिदं कथंभूतं ? संसारविनाशकरं मोक्षप्रदायकं । ( सिद्धियरं ) आत्मोपलब्धिकरं । ( कारणं) हेतुभूतं । (परमं) उत्कृष्टं उपदेशानामुपदेशोत्तमं । गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कं । तं माणे माइज्जइ सावय दुक्खक्खयट्ठाए ॥८६॥ गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सुनिमलं सुरगिरिरिव निष्कम्पम । तद् ध्याने ध्यायते श्रावक ! दुःखक्षयार्थे ।।८६।। (गहिऊण य सम्मत्तं ) गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनं तत्वार्थश्रद्धानलक्षणं । ( सुनिम्मलं सुरगिरीव निक्कंपं ) सुनिम्मलं-सुष्ठु अतिशयेन निर्मल निरतिचारं विशेषार्थ-घातिकर्मों के समूह को नष्ट करना आदि आत्मध्यान का फल है ऐसा जिनेन्द्र सर्वज्ञ देवने प्रमाण भूत वचनों द्वारा महामुनि इस दूसरे नामको धारण करने वाले दिगम्बर ऋषियों तथा सम्यग्दृष्टि श्रावकोंके लिये बारबार कहा है। मुनि दोक्षाको योग्यता रखनेवाले गृहस्थ भी ध्यान के अधिकारी हैं। क्योंकि आत्मा की भावना में तत्पर रहने वाले गृहस्थ भो देशव्रती होते हुए संसार से विरक्त चित्त रहते हैं । कोतवाल के द्वारा पकड़े हुए चोर के समान वे अपने गृहस्थाश्रम की गर्दा करते हैं गृह छोड़ने की इच्छा रखते हैं ऐसे श्रावक भो मर कर सोलह स्वर्गों में से किसी स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। सर्वज्ञ वीतराग देवका यह वचन संसार का विनाश करने वाला है तथा आत्मा को उपलब्धि करने का श्रेष्ठ कारण है ॥८५।। गाथार्य हे श्रावक ! अत्यन्त निर्मल और मेरुपर्वत के समान निश्चल सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर दुःखोंका क्षय करने के लिये ध्यान में उसोका ध्यान किया जाता है ।।६।। विशेषार्थ-श्रावक का वाच्यार्थ सम्यग्दृष्टि उपासक है अथवा 'श्रावयति धर्म' 'जो धर्म सुनावे वह श्रावक है' इस व्युत्पत्ति के अनुसार For Personal & Private Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.८७ ] मोक्षप्राभृतम् शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवलक्षणातिचाररहितं । सुरगिरिवन्मेरुपर्वत इव निष्कम्पं चलमलिनत्वरहितं । ( तं शाणे झाइज्जइ ) तज्जिनवचनं सम्यक्त्वं वा ध्याने धर्म्यध्यानावसरे दानपूजादिस्तवनमहापुराणादिशास्त्रश्रवणसामायिकजिनयात्राप्रतिष्ठादिप्रस्तावे घ्यायते मुहुर्मुहुश्चिन्त्यते भाव्यते । ( सावय दुक्खक्खयट्टाए) हे श्रावक सम्यग्दृष्टयुपासक ! हे मुने ! च, श्रावयति धर्ममिति श्रावक इति व्युत्पत्तेः, दुःखक्षयार्थे । ६६१ सम्मत्तं जो झार्यादि सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो । सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ टुटुकम्माणि ॥८७॥ सम्यक्त्वं यो ध्यायति सम्यग्दृष्टिः भवति स जीवः । सम्यक्त्वपरिणतः पुनः क्षयति दुष्टाष्टकर्माणि ||८७|| ( सम्मत्तं जो शायद ) सम्यक्त्वमनयंमाणिक्यं यो जीवो ध्यायति चिन्तयति पुनः पुनर्भावयति । ( सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो ) सम्यग्दृष्टिर्भवति स आसन्न - आचार्य मुनि अर्थ भी हो सकता है अतः दोनों को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि हे सम्यग्दृष्टि उपासक अथवा हे मुने ! चतुर्गति भ्रमण रूप दुःख का क्षय करने के लिये अत्यन्त निर्मल अर्थात् शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशंसा, और अन्यदृष्टि संस्तव इन पाँच अतिचारों से रहित तथा सुमेरु पर्वत के समान अत्यन्त निष्कम्प अर्थात् चल मलिन आदि दोषों से रहित सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर ध्यान के समय अर्थात् धर्म्यध्यान के काल में अथवा दान, पूजन, स्तवन, महापुराणादि शास्त्रों के श्रवण, सामायिक, जिन यात्रा तथा प्रतिष्ठा आदि के अवसर पर बार बार उसीका ध्यान किया जाता है । दान पूजा आदिके समय सम्यक्त्व के बार-बार ध्यान करने की प्रेरणा देनेका अभिप्राय यह है कि इन सबको तू भोगोपभोग प्राप्ति के निमित्त तो नहीं कर रहा है क्योंकि इन सबके करते हुए मिध्यादृष्टि जीवका अभिप्राय भोगोपभोग की प्राप्ति का रहता है और उसके इस अभिप्राय के कारण उसकी यह सब क्रियाएँ बन्धका कारण होती हैं परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव इन सबको करते हुए आत्मा के क्षायक भावको ही प्राप्त करनेका अभिप्राय रखता है अतः बन्धका अभाव होकर दुःखका क्षय होता है ||८६ ॥ गाथार्थ - जो जीव सम्यक्त्व का ध्यान करता है वह सम्यग्दृष्टि हो जाता है और सम्यक्त्व रूप परिणत हुआ जीव दुष्ट आठ कर्मोंका क्षय करता है ॥८७॥ : For Personal & Private Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ षट्प्राभृते [ ६.८८-८९ भव्यजीवः । ( सम्मत्तपरिणदो उण ) सम्यक्त्वरत्नंपरिणतः सम्यग्दर्शनमयीभूतः पुनः । किं भवति ? ( खवेइ दुट्ठट्ठकम्माणि ) क्षिपते विनाशयति दुष्टानि दुःखदायीनि अष्टकर्माणि ज्ञानावरणादीनि । कि बहुणा भणिएणं जे सिद्धा नरवरा गए काले । सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ॥८८॥ कि बहुना भणितेन ये सिद्धा नरवरा गते काले । सेत्स्यन्ति येऽपि भव्याः तज्जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यं ॥८८॥ ( कि बहुणा भणिएणं) कि वहुनां भणितेन किं प्रचुरेण जल्पितेन न किमपीत्याक्षेपः । ( जे सिद्धा नरवरा गए काले ) ये किंचित्सिद्धा मुक्ति गता मोक्षं प्राप्ताः, नरवराः भव्यवरपुण्डरीका भरतसगररामपाण्डवादयः, तत्सर्वं सम्यक्त्वमाहात्म्यं जानीत यूयमिति सम्बन्धः, गते काले अतीते काले । ( सिज्झिहहि जे वि. भविया) सेत्स्यन्ति भविष्यति काले सिद्धि यास्यन्ति मोक्षं प्रायन्ति येऽपि भव्याः । ( तं जाणह सम्ममाहप्पं ) तज्जानीत सम्यक्त्वस्य माहात्म्यं प्रभावं । ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया ।. सम्मत्तं सिद्धियरं सिवणे वि ण मइलियं जहि ॥ ८९ ॥ ते धन्याः सुकृतार्थाः ते शूराः तेपि पण्डिता मनुजा ।. सम्यक्त्वं सिद्धिकरं स्वप्नेऽपि नलिनितं येः ॥ ८९ ॥ विशेषार्थ - सम्यक्त्व अमूल्य माणिक्य के समान है जो जीवं निरन्तर इसका ध्यान करता है वह निकट भव्य जीव सम्यग्दृष्टि बन जाता है और सम्यक्त्व रूप परिणत हुआ जीव दुःखदायी अष्टकर्मों को नष्ट कर देता है । कर्मक्षय का प्रारम्भ सम्यग्दर्शन से ही होता है अतः पूर्ण प्रयत्न से सर्व प्रथम उसे ही प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिये || ८७॥ गाथार्थ – अधिक कहने से क्या ? अतीत काल में जितने श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हुए हैं और भविष्यत्काल में जितने सिद्ध होंगे उन सबको तुम सम्यदर्शनका हो माहात्म्य जानो || ८८|| विशेषार्थ - - बार बार सम्यक्त्व के माहात्म्य का वर्णन करते हुए आचार्य महाराज कहते हैं कि अधिक कहने से क्या प्रयोजन है ? अतीत काल में जितने भरत, सगर, राम तथा पाण्डव आदि श्रेष्ठ भव्यजीव मोक्षको प्राप्त हुए हैं और भविष्य काल में जो मोक्षको प्राप्त करेंगे वह सम्यग्दर्शन का ही माहात्म्य है ऐसा जानना चाहिये ||८८|| गाथा - वे ही मनुष्य धन्य हैं, वे ही कृतकृत्य हैं, वे ही शूरवीर हैं, For Personal & Private Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ९० ] मोक्षप्राभृतम् ६६३ ( ते घण्णा सुकयत्था ) ते पुरुषा धन्याः पुण्यवन्तः, ते पुरुषाः सुकृतार्थाः सुष्ठु अतिशयेन कृतार्थाः कृतकृत्याः साधितचतुः पुरुषार्थाः । ( ते सूरा ते वि पंडिया मणुया ) ते पुरुषाः शूराः सुभटाः पापकर्म शत्रु विध्वंसकत्वात्, ते पुरुषाः पण्डिताः विद्वांसस्तार्किका अपि मनुजा मानवा अपि सन्तो देवा इत्यर्थं । ( सम्मत्त सिद्धियरं सिवणे विण मइलियं जेहि ) सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनं, स्वप्नेऽपि निद्रायां, अपिशब्दाज्जाग्रदवस्थायामपिः, यैः पुरुषः, सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनरत्नं, न मलिनीकृतं निरतिचारं प्रतिपालितं । कथंभूतं सम्यक्त्वं सिद्धियरं - सिद्धिकरं आत्मोपलब्धिलक्षणमोक्षकारकमिति । तं सम्मत्त सिंहवदितं जहा - तत्सम्यक्त्व कीदृशं भवति तद्यथाहिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे । , निग्गंथे पावयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥ ९० ॥ हिंसारहिते धर्मे अष्टादश दोषवर्जिते देवे । C निर्ग्रन्थे प्रावचने श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम् ||१०|| ( हिंसारहिए धम्मे ) हिंसारहिते धर्मे श्रद्धानं सम्यक्त्वं भवतीति सम्बन्धः, हिंसारहितो धर्मो जैनधर्मः यत्र धर्मे ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राश्वपश्वादिको जीवो वष्यते सोऽधमं इति तत्वार्थ: । ( अट्ठारह दोसवज्जिए देवे ) अष्टादशदोषवर्जिते देवे श्रद्धानमिति सम्बन्धः । रुद्रः किल शृगालश्रेष्ठिनः पुत्रं भक्षितवान् तत्र क्षुधादोषः हिंसादोषश्च । ब्रह्मणः कमण्डलुग्रहणात् पिपासादोषः, जीर्णशरीरत्वात्तस्य और वे ही पण्डित हैं जिन्होंने सिद्धि को प्राप्त कराने वाले सम्यक्त्व को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया है || ८९|| विशेषार्थ - यह सम्यग्दर्शन ही सिद्धि अर्थात् स्वात्मीय लब्धि रूप मोक्षको प्राप्त कराने वाला है इसकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । इसे पाकर जिन्होंने जागृत अवस्था की तो बात ही जुदी है स्वप्न में भी कभी मलिन नहीं किया है अतिचारों से दूषित नहीं किया है वे ही पुरुष धन्य हैंपुण्यवान् हैं, वे ही अतिशय कृतकृत्य हैं - चारों पुरुषार्थों को साधने वाले हैं, वे ही शूरवीर हैं - पाप कर्म रूपी शत्रुओं का विध्वंस करने के लिये सुभट हैं और वे ही पण्डित हैं महाविद्वान् तार्किक हैं अथवा मनुष्य होते हुए भी देव हैं ।।८९।। W वह सम्यग्दर्शन कैसा होता है ? इसका वर्णन करते हैंगावार्थ - हिंसा रहित धर्म, अठारह दोषों से रहित देव और निर्ग्रन्थ गुरु में जो श्रद्धा है वह सम्यग्दर्शन है ॥९०॥ For Personal & Private Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ षनाभूते [६.९०जरावोषः । गजचर्मत्व ? कण्ठे कालत्वं रुद्रे रुग्दोषः, सूर्ये पादकुष्ठत्वाद्रग्दोषः । दशावतारसंयुक्तत्वात् कृष्णे जन्मदोषः वसुदेवदेवकीनन्दन त्याच्च । त्रयाणामपि मृत्युसद्भावो वेदितव्यः । नरकासुरभयान्नष्टः खलु श्रीमहादेवस्तत्र मयदोषः, ब्रह्मा दंडं घरति, रुद्रः शूलं खण्डपरशु पिनाकं धनुश्चेत्यादिकं धत्ते, विष्णुश्चक्र सुदर्शन कौमोदकी गदां चेत्यादिकं गृहणाति तेन त्रयाणामपि भयसभावो बुधरवबुद्धयते । सृष्टिकर्तृत्वसंहर्तृत्वादिकस्तत्र स्मयो मदश्च निश्चीयते विपश्चिभिः । रुद्रः पार्व तीमढुङ्गे धरति जटामध्ये गंगां चादधाति, ब्रह्मा वशिष्ठस्य पितृत्वादुवंशीवल्ल. भत्वात्, विष्णुः षोडशसहस्रगोपीभजते गोपनाथस्य दुहितरं च, सूर्यो रण्णादेवीं चन्द्रो रोहिणी च भुक्ते तेनैते रागवन्तोऽपि ज्ञातव्याः । ब्रह्मा गजासुर द्वेष्टि, रुद्र विशेषार्थ-हिंसा रहित धर्मकी श्रद्धा करना सम्यक्त्व है । हिंसा.. रहित धर्म जैनधर्म है। जिस धर्म में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, मनुष्य तथा अश्व आदि पशुओं का वध किया जाता है वह अधर्म है । अठारह दोषों से रहित देवका श्रद्धान करना सो सम्यक्त्व है। अठारह दोषों से रहित देव यदि कोई है तो वीतराग सर्वज्ञ देव ही हैं उन्हींका श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। रुद्र ने शृगाल श्रेष्ठी के पुत्र का भक्षण किया था इसलिये उनमें क्षुधा दोष तथा हिंसा का दोष है । ब्रह्मा कमण्डल ग्रहण करते थे इसलिये उनमें प्यासका दोष तथा जीर्ण शरीर होने से जराका दोष था रुद्र के गज चर्मत्व था अर्थात् उनके शरीर का चमं फूलंकर मोटा होगया था और कण्ठ में कालापन था इसलिये रोग नामका दोष था। सूर्य के पैर में कुष्ठ था इसलिये रोग नामका दोष था। दश अवतारों से सहित होने अथवा वसुदेव और देवकी के पुत्र होनेके कारण कृष्ण में जन्म नामका दोष था मृत्यु नामका दोष ब्रह्मा, रुद्र और कृष्ण तीनोंके जानना चाहिये। नरकासुरके भयसे महादेव नष्ट हुए थे इसलिये उनके भय था। ब्रह्मा दण्ड धारण करते हैं रुद्र शूल खण्ड परशु और पिनाक नामके धनुष को धारण करते हैं, तथा विष्णु सुदर्शन चक्र तथा कौमोदकी नामकी गदा इत्यादि शस्त्रों को धारण करते हैं इसलिये तीनों के भय का सद्भाव विद्वान् स्वतः समझते हैं । ब्रह्मा को सृष्टिकर्तृत्व का तथा रुद्रको संहर्तत्व आदिका गर्व है इसलिये विद्वान् उनके मद नामक दोष का निश्चय करते हैं। रुद्र पार्वती को अर्धाङ्ग में धारण किये हैं तथा गङ्गा को जटाओं में धारण करते हैं ब्रह्मा वसिष्ठ के पिता हैं तथा उर्वशी के पति हैं । विष्णु सोलह हजार गोपियोंका तथा गोपनाप को पुत्री राधा का For Personal & Private Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.९०] मोक्षप्रामृतम् स्त्रिपुरदानवं भस्मयति, विष्णुः कसकेशवाणूरजरासन्धान् पिनष्ठि तेनैते द्वेषवन्तोऽपि ज्ञातव्याः । ब्रह्मा वशिष्ठमुखं पश्यति, रुद्रस्तु स्कन्द निरीक्षते, विष्णु प्रद्यम्ने स्निह्मति तैनेते मोहिनोऽपि शातव्याः । ब्रह्मणः सृष्टिचिन्ता समुत्पन्ना रुद्रस्य नरकवरदानात् विष्णोर्जरासन्धशिशुपालादिवधे महती चिन्ता समुत्पन्ना । तेनैते चिन्तावतो पि ज्ञातव्याः ब्रह्मा उर्वश्यां रमत्ते, रुद्रः पार्वती भुंक्ते, विष्णुः सत्यभामाद्याः क्रीडति तेनैतेषुरतिदोषोऽपि घटते । ब्रह्मा योगनिद्रां करोति, रुद्रः कैलासे शेते गिरिशनामकत्वात्, विष्णुर्जलशायीति कथ्यते तेनैते प्रमीलावन्तोऽपि विज्ञेयाः निद्रादोषा इत्यर्थः। रुद्रो नरकाय वरं दत्वा विषीदति इत्यादि विषाददोषोऽपि संगच्छते। मैथुनादिषु स्वेदसद्भावोऽपि लोककल्पितदेवानामभ्यूह्यः । खेवस्तु संग्रा. मादौ । विस्मयस्तु रूपादिदर्शने । इत्यादि लोकदेवतानामष्टादशापि दोषाश्चिन्तनीयाः । सर्वज्ञवीतरागे तु कश्चिदपि दोषो न वर्तते । उक्तं च सेवन करते है। सूर्य एणादेवीका और चन्द्रमा रोहिणी देवीका उपभोग करता है इसलिये इन सबको रागी भी जानना चाहिये। ब्रह्मा गजासुर के साथ द्वेष करते हैं, रुद्र त्रिपुर दानवको भस्म करते हैं, विष्णु कस, केश, चाणर और जरासन्धको पीस डालते हैं इसलिये इन सबको द्वेष से रहित भी जानना चाहिये । ब्रह्मा वसिष्ठ का मुख देखते हैं, रुद्र स्कन्द-कार्तिकेय को देखते हैं और विष्णु प्रद्युम्न पर स्नेह रखते हैं इसलिये इन्हें मोही भी जानना चाहिये । ब्रह्मा को सृष्टिको चिन्ता उत्पन्न हुई, रुद्रको नरकासुर के वरदान से चिन्ता उत्पन्न हुई और विष्णु को जरासन्ध तथा शिशुपाल आदि की बड़ी भारी चिन्ता उत्पन्न हुई इसलिये इन्हें चिन्तावान जानना चाहिये । ब्रह्मा उर्वशी में रमण करते हैं, रुद्र पार्वती का भोग करते हैं और विष्णु सत्यभामा आदिके साथ क्रोड़ा करते हैं इसलिये इनमें रतिदोष ' भी घटित होता है ब्रह्मा योग निद्रा लेते हैं, रुद्र कैलास पर्वत पर सोते हैं क्योंकि गिरिश उनका नाम ही है और विष्णु जलमें शयन करते हैं इसलिये इन्हें प्रमीला अथवा निद्रा दोष से युक्त भी जानना चाहिये। रुद्र नरकासुर वरदान देकर विषाद करते हैं, इसलिये विषाद दोष भी संगत होता है । मैथुनादिक समय स्वेदनामका दोष भी इन लोक कल्पित देवोंमें समझना चाहिये । संग्राम आदि के समय खेद और रूपादि के दिखाने में विस्मय नामका दोष संगत होता है । इस तरह लोक कल्पित देवताओं में अठारहों दोषों का सद्भाव विचार लेना चाहिये परन्तु सर्वज्ञ वीतराग देवमें कोई भी दोष नहीं है। पेसा किया है For Personal & Private Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते रागादिदोषसद्भावो ज्ञेयोऽमीषां तदागमात् । असतः परदोषस्य गृहीतौ पातकं महत् ॥ १ ॥ ( निग्गथे पावणे ) निर्ग्रन्थे प्रावचने प्रवचननियुक्ते गुरी । ( सद्दहणं होई सम्मत्तं ) एतेषु धर्मदेवगुरुषु पदार्थेषु श्रद्धानं रुचिः अन्येषु स्ववांतान्नास्वादनवदरूचिः सम्यक्त्वं भवतीति क्रियाकारकसम्बन्धः । ६६६ जहजारूवरूवं सुसंजयं सव्वसंगपरिचत्तं । लिंगं ण परोवेक्खं जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं ॥९१॥ यथाजातरूपरूपं सुसंयतं सर्वसंगपरित्यक्तम् । लिङ्ग न परापेक्षं यः मन्यते तस्य सम्यक्त्वम् ॥९१॥ ( जहजायख्वरूवं ) यथाजातरूपं मातुर्गर्भनिर्गतवालकरूपं तद्वद्रूपमाकारो यस्य लिंगस्य तद्यथाजातरूप रूपं । ( सुसंजय सव्वसंगपरिचत्त ) पुनः कथंभूतं लिंगं, सुसंयतं सुष्ठु अतिशयवत्संयमसहितं सर्वसंगपरित्यक्तं सर्वपरिग्रहरहितं शिरःकणंकण्ठकरकटीक्रमप्रभृत्यङ्गाभरणवस्त्ररहितं सर्वथा नग्नं । ( लिंगं ण वरावेक्ख ) [ ६.९१ रागादि - इन सब लौकिक देवों में रागादि दोषों का सद्भाव उन्हों के शास्त्रों से जानने योग्य है क्योंकि दूसरे के अविद्यमान दोष के ग्रहण करने में महान् पाप है ||१|| इसी तरह प्रवचन कर्ता निग्रन्थ गुरुका श्रद्धान करना भी सम्यग्दर्शन है । इस प्रकार धर्म देव गुरु तथा जीवादि पदार्थों में श्रद्धान या रुचि करना और अन्य धर्म तथा देवताओं में अपने द्वारा वान्त अन्न के खाने के समान अरुचि रखना सम्यक्त्व होता है ॥९०॥ गाथार्थ - दिगम्बर मुनिका लिङ्ग (वेष) यथा ज्ञान - तत्काल उत्पन्न हुए बालक के समान होता है, उत्तम संयम से सहित होता है सब परिग्रह से रहित होता है और परकी अपेक्षा से रहित होता है ऐसा जो मानता है उसके सम्यक्त्व होता है । । ९१ ।। विशेषार्थ -- जिस प्रकार माता के गर्भ से निकले हुए बालक का रूप निर्विकार होता है उसी प्रकार दिगम्बर मुनिका वेष निर्विकार होता है । दिगम्बर मुनिका वेष सुसंयत अर्थात् अत्यधिक संयम से युक्त होता है । सर्व परिग्रहों से रहित होता है अर्थात् शिर कान कण्ठ हाथ कमर तथा पैर आदि अङ्गों के आभूषणों और वस्त्र से रहित सर्वथा नग्न होता है। तथा परकी अपेक्षा से रहित शरीर मात्र परिग्रह का धारी होता है । निर्ग्रन्थ साधु का वेष ऐसा होता है ऐसी जिसकी मान्यता है उसके सम्यक्त्व होता For Personal & Private Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ९२] मोक्षप्राभृतम् ६६७४ ईदृग्विघं लिंगं कथंभूतं, न परापेक्षं परापेक्षारहितं शरीरमात्र परिग्रहं । (जो मण्णइ तस्स सम्मत्तं ) ईदृशं लिंगनिर्ग्रन्थवेषं यः पुमान् मन्यते साधु वक्ति तस्य सम्यक्त्वं भवति, यः सग्रन्थलिगेन मोक्षं वक्ति स मिथ्यादृष्टितिव्य इति । कुच्छियदेवं धम्म कुच्छिलिगं च वंदए जो दु । लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु ॥१२॥ कुत्सितदेवं धर्म कुत्सितलिङ्गं च वदन्ते यस्तु । लज्जाभयगारवतः मिथ्यादृष्टिर्भवेत् स हु ।।१२।। (कुच्छियदेवं धम्म ) कुत्सितदेवं श्रीमहादेवं ब्रह्माणं नारायणं बुद्धं रविं चन्द्रमसं यक्ष त्रिपुरभैरवीं चेत्यादिकं । कुत्सितधर्म आलंभनकुंडखण्डितपशुचक्रवषट्कारसम्बन्ध शूलपाणि, झंपापातं , वन्हिप्रवेशं, 'भः सह गमनं सूर्यार्घग्रहणस्नानं, सक्रान्तिदानं, नदीसागरादिमज्जनं, गोयोनिस्पर्शनं, तन्मूत्रपानं, शमी, तरुपूजनं, पिप्पलालिंगनं मृत्तिकाविलेपनं, कृष्णसारचर्मवसनं, नक्तं भोजनं धूलीदृषदुच्चयवन्दनं, रत्नपूजनं वाहनार्चनं, भूमिपूजनं, खङ्गपूजनं, पर्वतपूजनं, घृते मुखवीक्षणमित्यादि कुत्सितधर्म ( कुच्छियलिंगं च वंदए जो दु) कुत्सिलिगं नग्नाण्डकं, जटाधारिणं, पंचशिखं, एकवण्डिनं, त्रिदण्डिनं, शिखाधारिणं, सौगतपाशु है जो परिग्रह सहित वेष से मोक्ष कहता है उसे मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये ॥११॥ - गाथार्थ--जो लज्जा भय और गारव से कुत्सित देव, कुत्सित धर्म और कुत्सित लिङ्ग की वन्दना करता है वह मिथ्यादृष्टि होता है ॥१२॥ विशेषार्थ-महादेव, ब्रह्मा, नारायण, बुद्ध, सूर्य, चन्द्रमा, यक्ष तथा त्रिपुर भैरवी इत्यादि को कुत्सित देव कहते हैं । यज्ञकुण्ड में होमे गये पशु • समूह की स्वीकृति से सम्बन्ध रखने वाले शूलपाणि, पर्वत आदि से कूदकर झंपाघात करना, अग्नि में प्रवेश करना, पतिके साथ गमन करना अर्थात् अग्नि में जलकर सती होना, सूर्य को अर्घ देना तथा ग्रहण के समय स्नान करना, संक्रान्तिके समय दान देना, नदी समुद्र आदिमें स्नान करना, गाय की योनिका स्पर्श करना, उसका मूत्र पीना, शमी वृक्ष की पूजा करना, पीपल का आलिङ्गन करना, मिट्टी का लेप लगाना, काले मृग की चर्मका पहिनना, रात्रिभोजन करना, धूली और पत्थरों के ढेर की वन्दना करना, १. भर्वा सह गमनं ख० इदमेव साधु । For Personal & Private Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ पद्माभूले [ ६.९३ पतयोगपेत्यादि - कुत्सितलिंगं च वन्दते नमस्करोति अभिवादनं विदधाति नमोनारायणमिति वाचा प्रणमति मस्तकेन वन्दे इति प्रणमति यस्तु पुमान् । ( लज्जाभयगारवदो ) लज्जया कृत्वा भयेन च गारवेण गर्वेण च यो वन्दते । (मिच्छादिट्ठी हवे सो हु ) मिथ्यादृष्टिर्भवति सः । कथं ? हु-स्फुटं । सपरावेक्खं लिंगं राई देवं असंजयं वंदे | माणइ मिच्छाविट्टी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मतो ॥९३॥ स्वपरापेक्षं लिङ्गं रागिणं देवं असंयतं वन्दे । मानयति मिथ्यादृष्टि: न हि मानयति शुद्धसम्यक्त्वः ॥९३॥ ( सपरावेक्खं लिगं ) स्वपरापेक्षं लिंगं, स्वापेक्षं ऋषिपत्नीयुतं परापेक्षं रक्तवस्त्रमृगचर्मादि सापेक्षं लिंगं वेषं । ( राई देवं असंजयं वंदे ) रागिणं देवं पार्वतीपति लक्ष्मीकान्तं तिलोत्तमामुखकमलप्रघट्टकचतुर्वक्त्रं चेत्यादिकं देवं, असंजयं वंदे - असंयतं अनेक मानुषमांसदधि भक्षणमुख 'भक्षकं वन्दे इति यो वक्ति । ( माणइ मिच्छादिट्ठी ) मानयति मिथ्यादृष्टिः श्रद्दधाति मिथ्यादृष्टि जिनानाम रत्नोंको पूजना, घोड़ा आदि वाहनों की पूजा करना, भूमि की पूजा करना, खड्ग की पूजा करना, पर्वत की पूजा करना तथा घी में मुख देखना आदि कुधर्मं कहलाता है । नग्नाण्डक, जटाधारी पञ्चशिव एकदण्डी, त्रिदण्डी, शिखाधारी सोगत, पाशुपत तथा यौगप आदि वेष कुलिङ्ग कहलाते हैं । जो मनुष्य लज्जा भय अथवा गारव से इन सबको नमस्कार तथा अभिवादन आदि मन वचनकाय से करता है वह मिथ्यादृष्टि होता है ॥९२॥ गाथार्थ - -स्व और पर की अपेक्षा से सहित लिङ्गको तथा रागी और असंयत देवकी वन्दना करता हूँ ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव मानता है शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव नहीं ॥९३॥ विशेषार्थ - जो वेष स्त्री से सहित होता है वह स्वापेक्ष है तथा लाल वस्त्र और मृगचर्म आदि की अपेक्षा रखता है वह परोपेक्ष है । रुद्र, विष्णु तथा तिलोत्तमा के मुख कमल को प्रघटित करने वाले चार मुखके धारक ब्रह्मा आदि रागो देव हैं तथा अनेक मनुष्यों का मांस भक्षण करने वाले १. मांस दक्षिणमुख भक्षकं । २. जैन सिद्धान्त की अपेक्षा कोई भी देव मांसभक्षक नहीं होता । यह कथा अन्य सिद्धान्त की अपेक्षा है । For Personal & Private Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षत्रामृतम् भक्तः । ( ग हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो) न मानयति न सन्मानं ददाति कोऽसौ ? शुद्धसम्यक्त्वो निर्मलसम्यक्त्वरत्नमंडितः । सम्माइट्ठी सावय धम्मं जिणदेवदेसियं कुणदि । विवरीयं कुव्वंतो मिच्छादिट्ठी मुणयन्वो ॥१४॥ सम्यग्दृष्टिः श्रावकः धर्म जिनदेवदेशितं करोति । विपरीतं कुर्वन् मिथ्यादृष्टिः ज्ञातव्यः ॥ ९४ ॥ ( सम्माइट्ठी सावय ) सम्यग्दृष्टिः श्रावकः सम्यक्त्वरत्नसंशोभितो गृहस्थः । अथवा श्रावयतीति श्रावको मुनिः। अथवा हे सम्यग्दृष्टिश्रावकं ! इति सम्बोधनपदं । ( धम्म जिणदेवदेसियं कुणदि ) धर्म दुर्गतिपातादुदृत्य इन्दचंन्द्र मुनीन्द्रवन्दिते पदे धरतीति धर्मस्तं । जिणदेवदेसियंजिनदेशितं श्रीमदभगवदहत्सर्वज्ञवीतरागकथितं करोति । ( विवरीयं कुब्वंतो) विपरीतं कुर्वन् रुद्रजिमिनिकणभक्षकापिलसौगतादिभिरुपदिष्टं धर्म कुर्वन् पुमान् । ( मिच्छादिट्ठी मुणेयव्यो) मिथ्यादृष्टिरिति ज्ञातव्यः। mmmmm~~~~~ यक्ष आदि असंयत देव हैं इन सबकी जो वन्दना करता है, मानता है अर्थात् उनको श्रदा करता है वह मिथ्यादृष्टि है। शुद्ध सम्यक्त्व का धारक जीव न उन्हें वन्दना करता है और न उनकी श्रद्धा करता है ॥१३॥ . गाथार्थ-सम्यग्दृष्टि श्रावक अथवा मुनि जिनदेवके द्वारा उपदेशित . धर्मको करता है । जो विपरीत धर्मको करता है उसे मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये ॥९४॥ . विशेषार्थ-प्रसिद्धि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि श्रावक का अर्थ सम्यक्त्व रूपी रत्नसे सुशोभित गहस्थ है और 'श्रावयति धर्म भव्यजीवान' जो भव्य जीवों को धर्म श्रवण करावे । इस व्युत्पत्ति के अनुसार मुनि अर्थ भी • होता है । 'सावय'-श्रावक यह सम्बोधनान्त पद भी माना जा सकता है। श्रावक को सम्बोधित करते हुए कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि हे श्रावक ! जो जिनदेवके द्वारा उपदेशित धर्मको करता है वह सम्यग्दृष्टि है तथा जो इससे विपरीत धर्मको करता है उसे मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये। जिनदेव के द्वारा उपदेशित धर्म दुर्गति के पतन से निकालकर इन्द्र चन्द्र . तथा बड़े बड़े मुनियों के द्वारा वन्दित पद में प्राप्त करा देता है इसलिये वह धर्म है। इसके विपरीत रुद्र जिपिनि कणभक्षक, सांख्य तथा बौद्ध आदिके द्वारा उपदिष्ट धर्म कुगति पातका कारण होने से अधर्म है।। १४॥ . For Personal & Private Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [६. ९५-९६मिच्छाविट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ। जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो ॥१५॥ ___ मिथ्यादृष्टिः यः सः संसारे संसरति सुखरहितः।। जन्मजरामरणप्रचुरे दुःखसहस्राकुले जीवः ॥ ९५ ॥ (मिच्छादिट्ठी जो सो) मिथ्यादृष्टियों जीवः सः । किं करोति ? ( संसारे संसरेइ सुहरहिओ ) संसारे भवसागरे संसरति सम्यकप्रविशति सुखरहितो दुःख- .. सहितः । कथंभूते संसारे ( जम्मजरमरणपउरे ) जन्मजरामरणप्रचुरे बहुले । ( दुक्खसहस्साउले जीवो ) दुःखानां सहस्र रनन्तदुःखैराकुले परिपूर्णे कः ? जीवो मिथ्यादृष्टिप्राणीति शेषः। सम्मगुण मिच्छदोसो मणेण परिभाविऊण तं कुणसु। जं ते मणस्स रुच्चइ किं बहुणा पलविएणं तु ॥१६॥ सम्यक्त्वं गुणः मिथ्यात्वं दोषः मनसा परिभाव्य तत्कुरु ।। यत्ते मनसे रोचते किं बहुना प्रलपितेन तु ।। ९६ ॥ ( सम्म गुण मिच्छं दोसो ) सम्यक्त्वं गुणो भवति, मिथ्यात्वं दोषो भवति पापं स्यात् । ( मणेण परिभाविऊण तं कुणसु ) इममथं मनसा चित्तेन परिभाव्य गाथार्थ-जो मिथ्यादृष्टि जीव है वह जन्म जरा और मरण से युक्त तथा हजारों दुःखों से परिपूर्ण संसार में दुखी होता हुआ भ्रमण करता रहता है ॥९५ ॥ विशेषार्थ-मिथ्यात्व का फल बतलाते हुए श्री कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जो जीव मिथ्यादृष्टि है वह सदा सुखसे रहित अर्थात् दुखी होता हुआ जन्म जरा और मरण से परिपूर्ण तथा अनन्त दुःखों से व्याप्त संसार में संसरण करता रहता है-चतुर्गति रूप संसार में सब ओर परिभ्रमण करता रहता है। इस परिभ्रमण से बचने का मूल उपाय एक सम्यग्दर्शन ही है सो हे आत्महित के अभिलाषो जन इसे धारण कर ॥ ९५ ॥ गाथार्थ-सम्यक्त्व गुण है और मिथ्यात्व दोष है ऐसा मनसे विचार कर तेरे मनके लिये जो रुचे वह कर अधिक कहने से क्या लाभ है ? .. विशेषार्थ-आचार्य सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की विस्तार से चर्चा करने के बाद कहते हैं कि भाई ! अधिक कहने से क्या लाभ है ? संक्षेप में इतना ही समझ ले कि सम्यक्त्व गुण रूप है और मिथ्यात्व दोष रूप है For Personal & Private Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६.९७ ] मोक्षप्रामृतम् ६७१ सम्यग्विचायं तत्त्वं विधेहि । तत् किं ? ( जं ते मणस्स रुच्चर ) यद्वयोर्गुणदोषयोर्मध्ये ते तव मनसे रोचते । ( कि बहुणा पलविएणं तु ) बहुना प्रलपितेन अनर्थकवचनेन कि-- न किमपि । यदि तव मनसे गुणो रोचते तर्हि सम्यक्त्वं विधेहि उत दोषो रोचते तर्हि मिथ्यात्वं विधेहि । अर्थतस्तु सम्यक्त्वं विधेहीति सम्यगुपदेशा भगवतां श्रीकुन्दकुन्दाचार्याणां । बाहिरसंगविमुक्को ण वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो । किं तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि अप्पसमभावं ॥९७॥ बाह्यसंगविमुक्तः न विमुक्तः मिथ्याभावेन निग्रन्थः । कि तस्य स्थानमोनं नापि जानाति आत्मसमभावम् ॥ ९७ ॥ ( बाहिरसंगविमुक्को ) बहिःसंगाद्विमुक्तो रहितो नग्नवेषः । ( ण वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो ) नापि मुक्तः नैव मुक्तः न विमुक्तो वा मिथ्याभावेन - मिथ्यात्वदोषेण रहितो न भवति, कोऽसौ ? निर्ग्रन्थो दिगम्बरवेषाजीवी जीवः । ( कि तस्स ठाणमउणं ) तस्य निग्रन्थस्य स्थानं उद्भकायोत्सर्गः किं न किमपि, कर्मक्षयलक्षणं मोक्षं न साधयतीत्यर्थः । तथा मौनं कि- मूकत्वमपि न किमपि, ऐसा तू मन से विचार कर । फिर तुझे जो अच्छा लगे उसे कर । यदि सम्यक्त्व अच्छा लगता है तो सम्यक्त्व को प्राप्त कर और मिथ्यात्व अच्छा लगता है तो मिथ्यात्व को कर परन्तु मिथ्यात्व का फल दुर्गति है और सम्यक्त्व का फल सुगति है । यहाँ मिथ्यात्व को दोष और सम्यक्त्व को गुण रूप बता कर सम्यक्त्व की ओर ही आचार्य ने लक्ष्य दिलाया 1198 11 तो गाथार्थ - जो साधु बाह्य परिग्रह से भाव से नहीं छूटा है. उसका कायोत्सर्ग के से रहना क्या है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है को तो जानता ही नहीं है ॥ ९७ ॥ छूट गया है परन्तु मिथ्यालिये खड़ा होना अथवा मौन क्योंकि वह आत्मा के समभाव विशेषार्थ - मिथ्यात्व को छोड़े बिना मात्र बाह्य परिग्रह का छोड़ना कार्यकारी नहीं है इस बातका वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं कि जिस निग्रन्थ साधु ने-दिगम्बर धारी मुनि ने बाह्य परिग्रह तो छोड़ दिया परन्तु मिथ्याभाव रूप अन्तरङ्ग परिग्रह नहीं छोड़ा उसका खड़े होकर कायोत्सर्ग करना तथा मौन धारण करना क्या कर सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं । उसकी यह सब प्रवृत्ति कर्मक्षय रूप मोक्षका कारण नहीं है क्योंकि वह मात्मा समभाव रूप है-रागद्वेष से रहित है यह नहीं जानता For Personal & Private Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्रामृते ६७२ [६.९८मोक्षाश्रितं कार्य न करोतीत्यर्थः । ( ण वि जाणदि अप्पसमभावं ) नापि जानीते न लभते न वेत्ति आत्मसमभावं आत्मनां जीवानां समत्वपरिणाम-सर्वे जीवाः शुद्धबुद्ध कस्वभावा इति सिद्धान्तवचनं न जानाति । . मूलगुणं छित्तूण य बाहिरकम्मं करेइ जो साह। सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंगविराधगो णिच्चं ॥९८॥ ___ मलगणं छित्वा बाह्यकर्मकरोति यः साधः । । स न लभते सिद्धिसुखं जिनलिङ्गविराधकः नित्यम् ॥ ९८॥ .. ( मूलगुणं छित्तूण य ) मूलगुणमष्टाविंशतिभेदभिन्नं पंचमहाव्रतानि पंचसमितयः पंचेन्द्रियरोधो लोचः षडावश्यकानि अचेलत्वमस्नानं क्षितिशयनं दन्तधावनरहितत्वं उद्भभोजनं एकभक्तं इत्यष्टाविंशतिमूलगुणाम्नाय ।तत्र यदुक्तः स्नाना- . भावस्तस्यायमर्थः नित्यस्नानं गृहस्थस्य देवाचनपरिग्रहे । यतेस्तु दुर्जनस्पर्शात् स्नानमन्यद्विहितं ॥१॥ तत्र यतेः रजस्वलास्पर्श अस्थि स्पर्श-पण्डाल स्पर्श शुनकमर्दभनापितयोगकपालस्पर्श वमने विष्टोपरि पादपतने शरीरोपरिकाकविण्मोचने इत्यादिस्नानोत्पत्ती है अथवा आत्मा अर्थात् जीवों के समभाव है-सभी जीव शुद्ध बुद्धक स्वभाव से युक्त हैं इस आगम के वाक्य को नहीं जानता है ॥ ९७ ॥ ___ गाथार्थ-जो साधु मूलगुणों को छेद कर बाह्य कर्म करता है वह सिद्धिके सुखको नहीं पाता वह तो निरन्तर जिन लिङ्ग की विराधना करने वाला माना गया है ।। ९८॥ विशेषार्थ-पांच महाव्रत, पांच समितियां, पंचेन्द्रिय दमन, केशलोंच, छह आवश्यक, अचेलत्व, स्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़े खड़े भोजन करना और एक बार भोजन करना ये मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण हैं । इन मूलगुणों में जो स्नान नामका मूलगुण बतलाया है उसका भाव यह है नित्यस्नान-भगवान् की पूजा करने के लिये गृहस्थ को प्रतिदिन स्नान करना चाहिये परन्तु मुनिके दुर्जन का स्पर्श होनेपर स्नान करने की विधि है उसके लिये अन्य स्नान निन्दित हैं। ___ दुर्जन स्पर्श का स्पष्ट भाव यह है कि यदि मुनिको रजस्वला स्त्रीका स्पर्श हो जाय, हड्डी का स्पर्श हो जाय, चाण्डाल का स्पर्श हो जाय, कुत्ता, गधा, नाई बरवा कापालिकों के नर कपालका पक्ष हो जाय, बमन For Personal & Private Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. ९९] मोक्षप्राभृतम् ६७३ सत्या दंडवदुपविश्यते, श्रावकादिकश्छात्रादिको वा जलं नामयति, सर्वाङ्गप्रक्षालनं क्रियते, स्वयं हस्तमर्दनेनाङ्गमलं न दूरीक्रियते, स्नाने संजाते सति उपवासो गृह्यते, पंचनमस्कारशतमष्टोत्तरं कायोत्सर्गेण जप्यते एवं शुद्धिर्भवति । एवं मूलगुणं छित्वा । (बाहिरकम्मं करेइ जो साहू ) बहिःकर्म आतपनयोगादिकं यः साधुःकरोति । ( सो ण लहइ सिद्धिसुहं ) स साधुःसिद्धिसुखं मोक्षसौख्यं न लभते न प्राप्नोति । (जिर्णालगविराधगो णिच्चं ) स साधुनिलिंगविराधको भवति, कथं ? नित्यं सर्वकालं। कि काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि बहुविहं च खवणं च । कि काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो ॥१९॥ किं करिष्यति बाह्यकर्मे किं करिष्यति बहुविधं च क्षमणं च । किं करिष्यति आतापः आत्मस्वभावाद्विपरीतः ॥१९॥ ( किं काहिदि बहिकम्मं ) किं करिष्यति-न किमपि करिष्यति, मोक्षं न करिष्यति, किं तत् ? बहिष्कर्म पठनपाठनादिकं प्रतिक्रमणादिकं च । ( किं काहिदि बहुविहं च खवणं च ) किं करिष्यति--- किमपि करिष्यति, न मोक्षं दास्यति । .wwwwammmmmmmmmmmmmwr अथवा विष्ठा पर पैर पड़ जाय अथवा शरीर के ऊपर कौआ बीट कर दे तो स्नानका प्रसङ्ग होता है। परन्तु इस स्थिति में मुनि दण्डके समान सीधे बैठ जाते हैं और भावक अथवा छात्र आदिक जल डालते हैं तथा 'उनके सर्व शरीर का प्रक्षालन करते हैं मुनि स्वयं हाथ से मीठ कर शरीर का मैल दूर नहीं करते हैं । स्नान हो चुकने पर मुनि उस दिनका उपवास - लेते है और खड़े होकर पञ्च नमस्कार मन्त्र का एकसौ आठ बार जाप " करते हैं । इस तरह शुद्धि होती है। . उक्त मूलगुणों को छेदकर अर्थात् उनमें दोष लगाकर जो साधु . आतापन योग आदि बाह्य कार्य करता है वह सिद्धि सुख-मोक्ष सुखको नहीं प्राप्त करता । वह निरन्तर जिन लिङ्ग की विराधना करने वाला ' माना गया है ।। ९८॥ गावार्थ-जो साधु आत्मस्वभावसे विपरीत है मात्र बाह्य कर्म उसका क्या कर देगा? नाना प्रकार का उपवासादि क्या कर देगा ? और आतापन योग क्या कर देगा? अर्थात् कुछ नहीं ॥ ९९ ॥ .. विशेषा-पठन-पाठन तथा प्रतिक्रमण आदि बाह्य कर्म उस साधुका क्या कर देंगे जो आत्मस्वभाव से विपरीत है । नाना प्रकार के उपवास For Personal & Private Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६. १०० ६७४ षट्प्राभृते किं तत् ? बहुविधं नानाप्रकारं क्षमणमुपवासः । ( किं काहिदि आदावं ) किं करिष्यति, न किमपि करिष्यति, कोऽसौ ? आतापः धर्मकायोत्सर्ग पूर्वोक्तः समाचारः । कथंभूतः, ( आदसहावस्स विवरीदो ) आत्मस्वभावाद्विपरीतः बाह्यवस्तुसम्मोहित्तमनः। जदि पढदि वहुसुदाणि य जदि काहिदि बहुविहे य चरिते। तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं ॥१००॥ यदि पठति श्रुतानि च यदि करिष्यति बहुविधानि चारित्राणि । तद्वालश्रुतं चरणं भवति आत्मनः विपरीतम् ॥१०॥ ( जदि पढदि वहुसुदाणि य ) यदि चेत्, पठति व्यक्तमुच्चारयति, बहुश्रुतानि अनेकतर्कव्याकरणच्छन्दोऽलङ्कारसिद्धान्तसाहित्यादीनि शास्त्राणि । चकार उक्तसमुच्चयार्थ एकादशाङ्गानि दशपूर्वाणि च । (जदि काहिदि बहुविहे य चरित्ते ) यदि चेत्, काहिदि-करिष्यति अनुष्ठास्यति, बहुविधानि चारित्राणि त्रयोदशप्रकाराणि सामायिकादीनि पंचविधानि वा । ( त बालसुदं चरणं ) तत्सर्व बालश्रुतं मूर्खशास्त्रं, बालचरणं मूर्खचारित्रं । ( हवेइ अप्पस्स विवरीदं ) भवति बालश्रुतं बालचारित्रं भवति, कथभूतं सत् ? आत्मनो निजशुद्धबुद्धकस्वभावजीवतत्वाद्विपरीतं पराङ्मुखमात्मभावनारहितमिति भावार्थः । आदि तप भी उस साधु का क्या कर देंगे जो आत्म स्वभाव से विमुख है और घाम में कायोत्सर्ग से खड़े होकर आतप योग धारण करना भी उसका क्या कर सकता है जो आत्मस्वभाव से विपरीत है। अर्थात् जिसका चित्त बाह्य वस्तुओं से संमोहित है ॥ ९९ ।। गाथार्थ-यदि ऐसा मुनि अनेक शास्त्रोंको पढ़ता है तथा नाना प्रकार के चारित्रों का पालन करता है तो उसकी वह सब प्रवृत्ति आत्म स्वरूप से विपरीत होनेके कारण बालश्रुत और बालचारित्र कहलाती विशेषार्थ--यदि कोई मुनि स्पष्ट उच्चारण करता है अथवा तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार, सिद्धान्त और साहित्य तथा चकार से ग्यारह अङ्ग और दशपूर्वो को पढ़ता है तथा तेरह अथवा सामायिक आदि पांच प्रकार के चारित्र को करता है तो उसका यह सब कार्य बालशास्त्र और बाल-चारित्र होता है क्योंकि वह मुनि आत्मस्वभाव से पराङ्मुख है-- आत्म भावना से रहित ॥ १००॥ For Personal & Private Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. १०१] मोक्षप्रामृतम् ६७५ 'वेरग्गपरो साहू परदव्यपरम्मुहो य सो होदि । संसारसुहविरत्तो सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो ॥१०१॥ वैराग्यपरः साधुः परद्रव्यपराङ्मुखश्च स भवति । संसारसुखविरक्तः स्वकशुद्धसुखेषु अनुरक्तः ॥ १० ॥ (वेरग्गपरो साहू ) वैराग्यपरः साधुः संसारशरीरभोगनिविण्णः सम्यग्दर्शनज्ञानानामाराधकत्वात्साधक आत्मनामान्वर्थत्वात् । ( परदव्वपरम्मुहो य सो होदि ) यः साधुः वैराग्यपरः स साधुः परद्रव्यपराङ मुखो भवति इष्टवनितादिविरक्तो भवति । ( संसारसुहविरत्तो) संसारस्य सुखं कपूरकस्तूरीचन्दनमालापट्टकुलसुवर्णमणिमौक्तिकप्रासादपल्यंकनवयौवनयुवतिपुत्रसम्पदिष्टसंयोगारोग्यदीर्घायुयशःकीतिप्रभृतिकं तस्माद्विरक्तः ( सगसुद्धसुहेसु अणुरत्तो) पूर्वोक्तामशरीरकर्मसमुत्पन्नविश्वसुखाद्विरज्य निष्केवललवणखिल्यास्वादवत् सुखेषु अनन्तज्ञानादिचतुष्टयेऽनुरक्तोऽनुरागवान् भवतीति भावार्थः । गाथार्य--जो साधु वेराग्य में तत्पर होता है वह परद्रव्य से परांगमुख रहता है । इसी प्रकार जो साधु संसार सुख से विरक्त होता है वह स्वकीय शुद्ध सुख में अनुरक्त होता है ॥ १० ॥ विशेषार्थ-जो साधु वैराग्यमें तत्पर है, अर्थात् संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त है वह इष्ट स्त्री आदि परद्रव्य से विमुख रहता है और जो कपूर, कस्तूरी, चन्दन, पुष्पमाला, रेशमी वस्त्र, सुवर्ण, मणि, मोती, महल, पलंग,. नवयोवनवती स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति, इष्टजन संयोग, आरोग्य, दीर्घायु तथा यशस्कोति आदि संसार के सुखसे विरक्त रहता है वह अनन्त चतुष्टय रूप अपने दुख सुख में अनुरागी होता है जिस प्रकार नमक डलोको जिस ओर से चखा जाय उसी ओर से उसमें खारापन का स्वाद आता है इसी प्रकार आत्मा का किसी भी अंश-गुण की अपेक्षा अनुभव किया जाय उसी अंश से वह अनन्त ज्ञानादि रूप अनुभव में आता है ॥ १०१॥ १. ५० जयचन्द्रेण इमां गायां १०२ तम् गाथयां सह पठित्वा "उत्तमं ठाणं पावइ" इति कर्म किया सम्बन्धोयोजितः। For Personal & Private Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ षट्प्राभृते [ ६. १०२ गुणगण विहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छिदो साहू । झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं ॥ १०२ ॥ गुणगणविभूषिताङ्गः हेयोपादेय निश्चितः साधुः । ध्यानाध्ययने सुरत्तः स प्राप्नोति उत्तमं स्थानम् ॥ १०२ ॥ ( गुणगण विहूसियंगो) गुणानां ज्ञानध्यानतपोरत्नानां गणैः समूहैविभूषिताङ्गः शोभितशरीरः । ( हेयोपादेयणिच्छिदो साहू ) हेयं मिथ्यात्वादिकं उपादेयं ग्रहणीयं सम्यक्त्व रत्नादिकं तत्र निश्चितं निश्चयो यस्य स हेयोपादेयनिश्चितः साधू रत्नश्रयाराधको मुनिः । ( झाणज्झयणे सुरदो ) ध्यानमार्तरौद्रध्यानद्वयपरित्यागेन धर्म्यशुक्लध्यानद्वये रतस्तत्परस्तन्निष्ठस्तदेकतानः । ( सो पावर उत्तमं ठाणं ) य एवंविघः साधुः स प्राप्नोति किं ? उत्तमस्थानं भावस्थानं 'शरीरलक्षण हीनस्थानं' परिहृत्य कर्मशरीरबन्धन 'रहित मोक्ष प्राप्नोति लभते सिद्धः प्रसिद्धश्च भवतीति तात्पर्यार्थः । गाथा - गुणों के समूह से जिसका शरीर शोभित है, जो हेय और उपादेय पदार्थों का निश्चय कर चुका है तथा ध्यान और अध्ययन में जो अच्छी तरह लीन रहता है वही साधु उत्तम स्थान को प्राप्त होता है ॥ १०२ ॥ विशेषार्थ - ज्ञान ध्यान और तप रूपी रत्न गुण कहे जाते हैं इनके समूह से जिस साधुका शरीर सुशोभित हो रहा है। मिथ्यात्वादिक हेयछोड़ने योग्य हैं तथा सम्यक्त्व रत्नादिक उपादेय-ग्रहण करने योग्य पदार्थ हैं इन दोनों के विषय में जो साधु दृढ़निश्चय कर चुका है तथा आतं और रौद्र इन दोनों खोटे ध्यानों को छोड़कर धर्म्य और शुक्लध्यान में तथा वीतराग सर्वज्ञ देवके द्वारा उपाज्ञात शास्त्रों के अध्ययन में जो तदेकतान हो रहा है पूर्ण रूपसे संलग्न है वह साधु उत्तम स्थान को अर्थात् रूप हीन स्थानको छोड़कर कर्म और शरीर के बन्धन से रहित मोक्षको प्राप्त होता है ॥ १०२ ॥ १. शरीर लक्षणं म० । २. रहितत्वं मोक्षं म० । For Personal & Private Use Only Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६. १०३] मोक्षप्राभृतम् ६७७ विहिं जं णविज्जइ झाइज्जइ झाइएहि अणवरयं । थुवंतेहि थुणिज्जइ देहत्थं कि पि तं मुणह ॥१३॥ नतेः यत् नम्यते ध्यायते ध्यातैः अनवरतम् । स्तूयमानः स्तूयते देहस्थं किमपि तत् मनुत ।। १०३ ॥ ( णविरहिं जं णविज्जइ) नतैर्देवेन्द्रादिभिर्यन्नम्यते । (झाइज्जइ झाइएहि अणवरयं ) ध्यायतेऽहनिशं चिन्त्यते झाइएहि-ध्यातस्तीर्थकरपरमदेवैर्यधायते महनिशं शुक्लध्यानाथं सर्वकर्मक्षयार्थ तत्पदप्राप्त्यर्थ अनुचिन्त्यते । (थुव्वंतेहि युणिज्जइ ) स्तूयमानस्तीथंकरपरमदेवैयंत् स्तूयतेऽनन्तगुणोद्भावनतया प्रशस्यते । ( देहत्थं कि पितं मुणह ) देहस्थं शरीरमध्ये स्थित किमप्यपूर्वमनिर्वचनीयमासंसारमप्राप्तं तद्योगिनां प्रसिद्ध तत्वं आत्मस्वरूपं मुणह-जानीत यूयं । तदुक्त. तिलमध्ये यथा तैलं दुग्धमध्ये यथा घृतं । काष्ठमध्ये यथावह्निर्देहमध्ये तथा शिवः ।। १॥ गाथार्य-दूसरों के द्वारा नमस्कृत इन्द्रादिदेव जिसे नमस्कार करते हैं, दूसरों के द्वारा ध्यान-ध्यान किये गये तीर्थकर देव जिसका निरन्तर ध्यान करते हैं और दूसरों के द्वारा स्तूयमान-स्तुति किये गये तीर्थकर जिनेन्द्र भी जिसकी स्तुति करते हैं शरीर के मध्यमें स्थित उस अनिर्वचनीय आत्म तत्वको तुम जानो ॥ १०३ ॥ विशेषार्थ-यहां शरीर के मध्यमें स्थित रहने वाले आत्मतत्वको श्री कुन्दकुन्द भगवन्त ने कोई अनिर्वचनीय तत्व कहा है उसकी महिमा बतलाते हुए कहा है कि उस आत्मतत्वको दूसरों के द्वारा नमस्कृत इन्द्रादिक भी नमस्कार करते हैं, दूसरे प्राणी जिनका ध्यान करते हैं ऐसे तीर्थंकर भगवान् भी उसका ध्यान करते हैं तथा. समस्त लोग जिनकी स्तुति कर रहे हैं ऐसे तीर्थकर भी उसकी स्तुति करते हैं। हे भव्यजीवो! उस आत्म तत्व को तुम जानो-उसीका मनन करो। यद्यपि वह आत्म तत्व तुम्हारे शरीर में ही स्थित है परन्तु आज तक तुम्हारा उस ओर लक्ष्य नहीं गया । कहा गया है-- -तिलमध्ये-जिस प्रकार तिल के बीच में तैल, दूध के बीचमें घी और काष्ठ के बीच में अग्नि रहती है उसी प्रकार शरीर के बीचमें शिव रहता है। यहां शिवका अर्थ आत्मतत्व है ॥ १.३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fve षट्प्रानृते [६. १०४शिवशब्दावाच्यमात्मतत्वमित्यर्थः। इदानीं शास्त्रस्यान्ते मंगलनिमित्तं पंचपरमेष्ठिपुरस्सररत्नत्रयगतिमात्मतत्वमुद्भावयन्ति भगवन्तः अरुहा सिद्धायरिया उज्माया साहु पंचपरमेट्ठी । ते वि हु चिट्ठहि आवे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥१०४॥ अर्हन्तः सिद्धा आचार्या उपाध्यायाः साधवः पंचपरमेष्ठिनः । तेऽपि हु तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा हु मे शरणम् ।।१०४।। (अरुहा सिद्धायरिया ) अहंन्तः सिद्धा प्राचार्याश्च । (उज्माया साहु पंचपरमेट्ठी ) उपाध्यायाः, साधवः, एते पंचपरमेष्ठिनो देवा ममेष्टदेवताः। ( ते वि हु चिट्ठहि आदे ) तेऽपि पंचपरमेष्ठिनो देवा अपि तिष्ठन्ति, क्व ? आत्मनि निजजीवतत्वे । केवलज्ञानादिगुणविराजमानत्वात् सकलभव्यजीवसम्बोधनसमर्थत्वाच्यात्मायमर्हन् वर्तते । सर्वकर्मक्षयलक्षणमोक्षपदासत्वात् निश्चयनयान्ममात्मायमेव सिद्धः । दीक्षाशिक्षादायकत्वात् पंचचाराचरणचारणप्रवीणत्वात् सूरिमंत्रतिलक अब शास्त्र के अन्त में मङ्गल के निमित्त पञ्चपरमेष्ठियों के साथ साथ रत्नत्रय से गर्भित जो आत्मतत्व है श्री कुन्दकुन्द भगवन्त उसोका वर्णन करते हैं गाथार्थ-अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये पांच परमेष्ठी हैं सो ये पाँचों परमेष्ठी भी जिस कारण आत्मा में स्थित हैं उस कारण आत्मा ही मेरे लिये शरण हो ॥ १०४॥ विशेषार्थ-अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच परमेष्ठी हमारे इष्ट देवता हैं सो ये सभी आत्मा में स्थित हैं अर्थात् आत्मा की ही परिणति रूप हैं। केवलज्ञानादि गुणों से विराजमान होने तथा समस्त भव्यजीवोंके संबोधनमें समर्थ होनेसे मेरी यह आत्मा ही अरहत है। समस्त कर्मोंके क्षय रूप मोक्षको प्राप्त होनेसे निश्चयनय की अपेक्षा मेरी आत्मा ही सिद्ध है। दोक्षा और शिक्षाके दायक होनेसे, पञ्चाचार के स्वयं आचरण तथा दूसरोंको आचरण करानेमें प्रवीण होनेसे और सूरिमन्त्र तथा तिलक मन्त्र से तन्मय होनेके कारण मेरो आत्मा ही आचार्य है । श्रुतज्ञान के उपदेशक होनेसे, स्वपर मतके ज्ञाता होनेसे तथा भव्य जीवोंके संबोधक होनेसे मेरो आत्मा हो उपाध्याय है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रय के साधक होनेसे, सर्व प्रकार के द्वन्द्वों से रहित होनेसे, दोला शिक्षा यात्रा प्रतिष्ठा For Personal & Private Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.- १०५] मोक्षप्रामृतम् ६७९ मंत्रतन्मयत्वान्ममात्मायमेवाचार्यपदभागी वर्तते । श्रुतज्ञानोपदेशकत्वात् स्वपरमतविज्ञायकत्वात् भव्यजीवसम्बोधकत्वान्ममात्मायमेवोपाध्यायः । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररत्नत्रयसाधकत्वात् सर्वद्वन्द्वविमुक्तत्वात् दीक्षाशिक्षायात्राप्रतिष्ठाद्यनेकधर्मकार्यनिश्चिन्ततयाऽऽत्मतत्वसाधकतया ममात्मायमेव सर्वसाधुर्वर्तते इति पंचपरमेष्ठिन आत्मनि तिष्ठन्तोति कारणात् । ( तम्हा आदा हू मे सरणं ) तस्मात्कारणादात्मा हु-स्फुटं मे मम शरणं संसारदुःखनिवारकत्वादतिमथनसमर्थः मम शरणं गतिरिति । सम्मत्तं सग्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव । चउरो चिट्ठहि आवे तह्मा आदा हु मे सरणं ॥१०५॥ सम्यक्त्वं सज्ज्ञानं सच्चरित्रं हि सत्तपश्चैव । चत्वारः तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा हु मे शरणम् ॥१०५॥ ( सम्मत सणाणं) 'सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनरत्नं सज्ज्ञानं समीचीनमवाधितं पूर्वापरविरोषरहितं . सम्यग्ज्ञानं । ( सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव ) सच्चारित्रं सम्यक्चारित्रं पापक्रियाविरमणलक्षणं परमोदासीनतास्वरूपं च सम्यक्चारित्रं, सत्तवं-समीचनं तपः इच्छानिरोधलक्षणं चेति । ( चउरो चिट्ठहि आदे ) एते चत्वारोऽपि परमाराधनापदार्थास्तिष्ठन्ति, क्व तिष्ठन्ति ? आत्मनि निजशुद्धबुद्धकआदि अनेक धर्म कार्योंकी निश्चिन्तता से तथा आत्मतत्व की साधकता से मेरी यह आत्मा ही साधु है। इस प्रकार पञ्चपरमेष्ठी रूप मेरी यह आत्मा ही मेरे लिये स्पष्ट रूप से शरण है-यही संसार सम्बन्धी दुःखोंका निवारक होनेसे मेरी पीड़ा को नष्ट करने में समर्थ है ॥१०४॥ गाथार्य-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप 'ये चारों आत्मा में स्थित हैं इसलिये आत्मा ही मेरा शरण है ।।१०५।। · विशेषार्थ-सम्यक्त्व सम्यग्दर्शन रूपी रत्नको कहते हैं। समीचीन और अबाधित अर्थात् पूर्वापर विरोध से रहित जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है। पापक्रियाओं से विरत होना तथा परम उदासीनता को धारण करना सम्यक्चारित्र है। और इच्छानिरोध हो जाना सम्यक्तप है। ये चारों ही परम आराधनाएं निज शुद्ध-बुद्ध स्वभावसे युक्त आत्मा में स्थित हैं। चूंकि आत्मा ही आत्मा का श्रदान करती है, आत्मा हो आत्मा के ज्ञानको करती है, आत्मा ही आत्मा के साथ एकलोली भाव ...तो सपा नास्ति। For Personal & Private Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० षट्प्राभृते [ ६. १०६ स्वभावजीवतत्वे तिष्ठन्ति । यदात्मनः श्रद्धानमात्मैव करोति, आत्मनो ज्ञानमामैव विधत्ते, आत्मा सहेकलोलीभावमात्मैव कुरुते, आत्म-वात्मनि तपति, केवलज्ञानैश्वर्यं प्राप्नोति चतुभिरपि प्रकारैरात्मात्मानमेवाराधयति । ( तम्हा आदा हु मे सरणं) तस्मादात्मैव मम शरणमतिमथनसमर्थः संसाराति निषेधकत्वात् आत्मैव मे गतिः, मंगलं मलगालने कर्म मलकलङ्कनिषेधने मंगस्य सुखस्य दाने च समर्थ - त्वादात्मैव परमं मंगलमिति भावार्थः । एवं जिणपण्णत्तं मोक्खस्य य पाहुडं सुभत्तीए । जो पढइ सुणइ सो पावइ सासयं सोक्खं ॥ १०६ ॥ एवं जिनप्रज्ञप्तं मोक्षस्य च प्राभृतं सुभक्त्या । यः पठति शृणोति भावर्यात स प्राप्नोति शाश्वतं सौख्यम् ॥ १०६ ॥ ( एवं जिणपण्णत्तं ) एवममुना प्रकारेण जिनप्रज्ञप्तं सर्वज्ञवीतरागभावितं ( मोक्खस्स य पाहुडं सुभत्तीए ) मोक्षस्य परमनिर्वाणपदस्य प्राभृतं सारमिदं शास्त्र सुष्ठु — अतिशयेन भक्त्या परमधर्मानुरागेण । ( जो पढइ सुणइ भावइ ) य आसन्नभव्यो जीवः पठति जिह्वा करोति यश्च भव्यजीवः श्रुणोत्याकर्णयति, यश्च मोक्षाभिलाषुको जीवो भावयति एतच्छास्त्रं यस्मै रोचते । ( सो पावड अर्थात् तन्मयी भाव को प्राप्त होती है, आत्मा ही आत्मा में तपती है और आत्मा ही आत्मा में केवलज्ञान रूप ऐश्वर्य को प्राप्त होती है इस तरह चारों प्रकार से आत्मा ही आत्मा की आराधना करती है इसलिये आत्मा ही मेरा शरण है- मेरी पीड़ाको नष्ट करने में समर्थ है । इस प्रकार संसार की पीड़ा का नाश करने वाली होनेसे आत्मा ही मेरी गति हैअन्तिम लक्ष्य है । आत्मा ही मङ्गल रूप है क्योंकि वही मं अर्थात् पापको गलाने वाली है अथवा कर्म रूपी मलके कलंक को दूर करने वाली है अथवा आत्मा हो मगं अर्थात् सुखको देनेवाली है इसलिये आत्मा ही परम मङ्गल रूप है || १०५ ।। गाथार्थ - इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा प्रणीत इस मोक्षप्राभृत 'को जो उत्तम भक्ति से पढ़ता है, सुनता है और इसकी भावना करता है वह शाश्वत सुखं- अविनाशी मोक्ष सुखको प्राप्त होता है ।। १०६ ।। विशेषार्थ - ग्रन्थ के फलका निरूपण करते हुए श्री कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार सर्वज्ञ वीतराग देवके द्वारा मूलरूप से उपदिष्ट इस मोक्षप्राभूत नामक सारभूत शास्त्रको जो निकट भव्यजीव परम धर्मानुराग से पढ़ता है अर्थात् कष्ठस्थ करता है, सुनता है और मोक्ष की For Personal & Private Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८१ -६. १०६] मोक्षप्रामृतम् सासर्य सोक्खं ) स जीवः ८ रममुनीश्वरः, प्राप्नोति लभते, शाश्वतमविनश्वर, सौख्यं निजात्मोत्यं परमानन्दलक्षणं सौख्यं । टोकाकर्तुः प्रशस्तिः नानाशास्त्रमहार्णवैकतरणे यद्बुद्धिरिश्रिया। पूर्णा पुण्यकविप्रमोदजननी सारेकनौकायते ॥ यत्पादाम्बुजयुग्ममाप्य मुनिभि भृगेरिवा 'प्यायते । स श्रीमान् श्रुतसागरो विजयतामेनस्तमोऽहप्प॑तिः ॥ १ ॥ मत्स्वामिसमन्तभद्रममलं श्रीकुन्दकुन्दाव्हयं । यो धीमानकलङ्कभट्टमपि च श्रीमत्प्रमेन्दुप्रभुं ॥ विद्यानन्दमपीक्षि तु कृतमनाः श्रीपूज्यपादं गुरुं । वीक्षेत श्रुतसागरं सविनयात् विद्यधीमन्नुतं ॥ २॥ अभिलाषा रखता हुआ इसका चिन्तन-मनन करता है वह निज . आत्मा से उत्पन्न होनेवाले परमानन्द रूप अविनाशी सुखको प्राप्त होता है ।।१०६॥ . आगे संस्कृत टीकाकार अपनी प्रशस्ति लिखते हैं... देदी यमान लक्ष्मी से पूर्ण तथा पुण्यशाली कवियों को आनन्द उत्पन्न . करनेवाला जिनकी बुद्धि नाना शास्त्र रूपी महासागर के तैरने में सुदृढ़ नौका के समान आचरण करती है, जिनके चरण कमलों के युगल को पाकर मुनि भ्रम के समान संतुष्ट हो जाते हैं तथा जो पाप रूपी अन्धकार को नष्ट करने के लिये सूर्य हैं वे श्रीमान् श्रुतसागर मुनि विजय को प्राप्त हों ॥१॥ - धीमत्-जो बुद्धिमान् श्रोभान् स्वामी समन्तभद्र, निर्मल कुन्द कुन्दाचार्य, अकलङ्कभट्ट, श्री प्रभाचन्द्रस्वामी, विद्यानन्द तथा श्री पूज्यपाद गुरुको देखनेकी इच्छा करता है अर्थात् उनकी रचनाओंका स्वाद जानना चाहता है वह विनयपूर्वक विद्य पदधारी विद्वानों के द्वारा स्तुत श्री श्रुतसागरको विनयसे देखे अर्थात् उनकी रचनाओंका पठन पाठन करे ॥२॥ १. रिवापीयते म००। . For Personal & Private Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ षशाभूते [६. १०६श्रीमल्लिभूषणागुरोर्वचनादलंच्या । न्मुक्तिश्रिया सह समागममिच्छतेयं ॥ षट्प्राभृते सकलसंशयशत्रुहंती । टीका कृताऽकृतधियां श्रुतसागरेण ॥३॥ इति श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचार्यलाचार्यगृध्रपिच्छाचार्यनामपंचकविराजितेन चतुरङ्गुलाकाशगमनद्धिना पूर्वविदेहपुण्डरीकिणीनगरवंदितसीमन्धरापरनामस्वयंप्रभजिनेन तत्श्रुतज्ञानसम्बोधितभरतवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनचन्द्र सूरिभट्टारक पट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृतग्रन्थे सर्वमुनिमण्डलीमंडितेन कलिकालगौतमस्वामिना श्रीपद्मनन्दिदेवेन्द्रकीति-विद्यानन्दिपट्टभट्टार. केण श्रीमल्लिभूषणेनानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानिते नोभयभाषाकवि• चक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दिगुर्वन्तेवासिना सूरिवर श्रीश्रुतसागरेण विरचिता मोक्षप्राभृतटीका परिसमाप्ता षष्ठः परिच्छेदः श्री यात् श्री मल्लिभूषण-श्री मल्लिभूषण गुरुके अलङ घश वचनों से मुक्ति लक्ष्मी के साथ समागम को इच्छा करने वाले श्री श्रुतसागर ने मन्दबुद्धि लोगोंके लिये षट्प्राभृत ग्रन्थ पर समस्त संशयरूपी शत्रुओं को नष्ट करने वाली यह टीका रची है ॥३॥ ___ इस प्रकार श्री पद्मनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गद्धपिच्छाचार्य इन पांच नामोंसे विराजित, चार अंगुल प्रमाण आकाश में चलनेवाली ऋद्धि से युक्त, पूर्वविदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी में सीमन्धर इस दूसरे नामसे युक्त स्वयंप्रभ जिनकी वन्दना करने वाले, उनके श्रुतज्ञान से भरत क्षेत्रके भव्य जीवों को सम्बोधित करने वाले, श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारक के पट्टके आभरणभूत तथा कलिकाल के सर्वज्ञ स्वरूप श्री कुन्दकुन्द स्वामी के द्वारा विरचित षट्नाभृत ग्रन्थ पर समस्त मुनि मण्डली से मण्डित कलिकाल के गौतमस्वामी, श्री पद्मनन्दी, देवेन्द्रकीर्ति और विद्यानन्दी के पद पर स्थित भट्टारक श्री मल्लिभूषण के द्वारा अनुमत सकल विद्वज्जनों के समूह से सन्मानित, उभय भाषा के कवियों के चक्रवर्ती, श्री विद्यानन्दी गुरुके शिष्य सूरिवर श्री श्रुतसागर के द्वारा विरचित मोक्षप्राभूत की टोका समाप्त हुई । For Personal & Private Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्ग प्राभृतम् काऊण णमोकारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं । समासेण ॥ १ ॥ सिद्धानां । वोच्छामि समर्णालगं पाहुडसत्थं कृत्वा नमस्कारं अर्हतां तथैव वक्ष्यामि श्रमणलिंगं प्राभृतशास्त्र ं समासेन ॥ १ ॥ धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती । जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो ॥ २ ॥ धर्मेण भवति लिंग न लिंगमात्रेण धर्मसंप्राप्तिः । जानीहि भावधर्मं कि ते लिंगेन कर्तव्यं ॥ २॥ जो पावमोहिदमदी लिंगं घेत्तूण जिणवरिदाणं । उवहसइ लिंगि भावं 'लिंगं णासेदि लिंगीणं ॥ ३॥ यः पापमोहितमतिः लिगं गृहोत्वा जिनवरेन्द्राणां । उपहसति लिंगिभावं लिंगं नाश्यति लिंगीनां ॥ ३ ॥ काऊ - में अरहन्तों तथा सिद्धों को नमस्कार कर संक्षेप से मुनिलिङ्ग का वर्णन करने वाले प्राभृत शास्त्र को कहूँगा ॥ १ ॥ धम्मेण - धर्म से ही लिङ्ग होता है, लिङ्गमात्र धारण करने से धर्म की प्राप्ति नहीं होती इसलिये भावको धर्म जानो, भाव-रहित लिङ्ग से तुझे क्या कार्य है ? वेष भावार्थ - लिङ्ग अर्थात् शरीर का भावंके बिना मात्र शरीरका वेष धारण नहीं होती इसलिये भाव ही धर्मं है भावके नहीं है ।। २ ।। जो पाप - जिसकी बुद्धि पापसे मोहित हो रही है ऐसा जो पुरुष जिनेन्द्र देवके लिङ्गको नग्न दिगम्बर वेषको ग्रहण कर लिङ्गी के यथार्थ भावकी हंसी करता है वह सच्चे वेषधारियों के वेषको नष्ट करता है अर्थात् लजाता है । धर्म से होता है जिसने किया है उसके धर्मकी प्राप्ति बिना मात्र वेष कार्यकारी १. उवहमह इति पाठ: अ: पं० जयचन्द्रिण स्वीकृतः । लिगिम्मी य णारदो लिगी ।. For Personal & Private Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ षट्प्राभूते [ ७.४-६ 11 णच्चदि गायदि तावं वायं वाएदि लिंगरूवेण । सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ ४ ॥ नृत्यति गायति तावत् वाद्य ? वादयति लिंगरूपेण । स पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न स श्रमणाः ।। सम्मूहदि रक्खेदि य अट्टं शाएदि बहुपयत्तेण । सा पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ ५ ॥ समूहयति रक्षति च तं ध्यायति बहुप्रयत्नेन । स पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न स श्रमणः ॥ ५ ॥ कलहं वादं जूवा णिच्च वहुमाणगव्विओ लिंगी । वच्चदि रयं पाओ 'करमाणो लिगिरूवेण ॥ ६ ॥ कलहं वाद द्यूतं नित्यं वहुमानगवितो लिंगी । व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरूपेण || ६ || भावार्थ - जो नग्न मुद्राको धारण कर पीछे पापसे मोहित बुद्धि होता हुआ वेषधारियों के यथार्थं भावका उपहास करता है अर्थात् भावलिङ्ग की ओर लक्ष्य नहीं देता मात्र पापसे प्रेरित होकर विपरीत आचरण करता है वह अन्य जो यथार्थं वेषधारी हैं उनके भी वेषको नष्ट करता है। उनके वेषके प्रति लोगों में अनादरका भाव उत्पन्न कराता है ||३|| णच्चदि - जो मुनि लिङ्गसे नाचता है, गाता है अथवा बाजा बजाता है वह पापसे मोहित बुद्धि पशु है, मुनि नहीं है। भावार्थ - जो मुनि होकर भी नृत्य करता है, गाता है और बाजा ता है वह पापी पशु है, मुनि नहीं है ॥४॥ सम्महदि - जो बहुत प्रकार के प्रयत्नों से परिग्रह को इकट्ठा करता है, उसकी रक्षा करता है तथा आर्तध्यान करता है वह पापसे मोहित बुद्धि पशु है, मुनि नहीं है। भावार्थ - मुनि होकर भी जो नाना प्रकार के प्रयत्नों से परिग्रह को इकट्ठा करता है, उसकी रक्षा करता है तथा उसके निमित्त आर्तध्यान करता है उसकी बुद्धि पापसे मोहित है उसे पशु समझना चाहिये वह मुनि नहीं कहलाता है ||५|| कलहं - जो पुरुष मुनि लिङ्ग का धारक होकर भी निरन्तर अत्य१. करणमर्णा लाउराण य इतिपाठ पं० जयचन्द्रेण स्वीकृतः तेनैव राउलाणं इत्यपि पाठान्तर सूचितं समाएण म० । For Personal & Private Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७. ७-८] लिंगप्राभृतम् पावोपहदिभावो सेवदि य अबंभु लिंगिरवेण।। सो पावमोहिदमदी हिंडदि संसारकांतारे ॥७॥ पापोहतभावः सेवते च अब्रह्म लिगिरूपेण । स पापमोहितमतिः हिंडते संसारकांतारे ॥ ७ ॥ दंसणणाणचरित्ते उवहाणे जइ ण लिंगरूवेण । अट झायदि झाणं . अणंतसंसारिओ होदी ॥४॥ दर्शनज्ञानचारित्राणि उपधानानि यदि न लिंगरूपेण । आतं ध्यायति ध्यानं अनन्तसंसारी को भवति ॥ ८॥ धिक गर्व से युक्त होता हुआ कलह करता है, वादविवाद करता है, अथवा जुआ खेलता है वह चूँकि मुनि लिङ्ग से ऐसे कुकृत्य करता है अतः पापी है और नरक जाता है। भावार्थ-जो ऊंचा पद धारण कर कुकृत्य करता है वह पापी नियम से नरकगामी होता है ॥६॥ .. पापोपहद-पापसे जिसका यथार्थ भाव नष्ट होगया है ऐसा जो पुरुष मुनिलिङ्ग धारण कर भी अब्रह्म का सेवन करता है वह पापसे मोहित बुद्धि होता हुआ संसार रूपी अटवी में भ्रमण करता रहता है। भावार्थ-मनि लिङ्ग धारण कर जिसने पहले अब्रह्म सेवन का परित्याग किया पीछे पापोदय से परिणामों को मलिन कर जो अब्रह्म का सेवन करता है वह दुर्बुद्धि दीर्घ काल तक संसार रूपी वन में घूमता रहता है॥७॥ . सणणाण-जो मुनि लिङ्ग धारण कर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को उपधान अर्थात् आश्रय नहीं बनाता है तथा आर्तध्यान करता है वह संसारी होता है। भावार्थ-मुनिवेषका प्रयोजन तो रत्नत्रय की आराधना है पर जो मुनिवेष रख कर रत्नत्रय को ध्यानका आलम्बन नहीं बनाता उलटा . - आत्तध्यान करता है वह अनन्त संसारी होता है अर्थात् जिसके संसार - का अन्त नहीं ऐसा अभव्य कहलाता है ॥८॥ For Personal & Private Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ पट्मागते [७.९-१०जो जोडदि विव्वाहं किसिकम्मवणिज्जजीवधादं च। ... वच्चदि गरयं पाओ करमाणो लिंगिहवेण ॥ ९॥ यः र्याजयति विवाहं कृषिकर्मवाणिज्यजीवघातं च । व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिगिरूपेण ॥९॥ चोराण मिच्छवाण य जुद्ध विवाहं च तिव्वकम्मेहि । जतेण दिव्यमाणो गच्छदि लिंगी गरयवासं ॥१०॥ चोराणां मिथ्यावादिनां युद्धं विवादं च तीवकर्मभिः। यंत्रेण दीव्यमानः गच्छति लिंगी नरकवास ॥१०॥ जो जोडदि-जो मनिका लिङ्ग रखकर भी दूसरों के विवाह सम्बन्ध जोड़ता है तथा खेतो और व्यापार के द्वारा जीवों का घात करता है वह चुकि मुनिलिङ्ग के द्वारा इस कुकृत्य को करता है अतः पापी है और नरक जाता है। भावार्थ-जो पुरुष नग्न मुद्राका धारी होकर दूसरों के विवाह सम्बन्ध जुड़वाता है और खेती तथा व्यापार के द्वारा जीव घात करता है वह नियम से नरक जाता है । गृहस्थ ने अपने पदके अनुकूल इन कार्योंका त्याग नहीं किया है इसलिये वह इन्हें करता हुआ भी नरक का पात्र अनिवार्य रूप से नहीं होता परन्तु जो मनुष्य मुनिलिङ्ग धारण कर इन कुकृत्यों को करता है वह नियम से नरक का पात्र होता है ॥९॥ चोराण-जो लिङ्गी चोरों के तथा झूठ बोलने वालों के युद्ध और विवाद को कराता है तथा तीव्रकर्म-खर कर्म अर्थात् जिनमें अधिक हिंसा होती है ऐसे कार्योसे और यन्त्र अर्थात् चौपड़ आदिसे क्रीड़ा करता है वह नरकवासको प्राप्त होता है। भावार्थ-मुनिका वेष रखकर भी जो मनुष्य पैशुन्य कार्य से चोरों तथा असत्यवादियों को परस्पर लड़ा देता है उनमें विवाद-संघर्ष पैदा कर देता है, अत्यधिक हिंसा के कार्यों से विनोद करता है, तथा चौपड़, शतरंज, पासा और हिंडोला आदि यन्त्रोंके द्वारा क्रीड़ा करता है वह नियम से नरक को प्राप्त होता है ॥१०॥ For Personal & Private Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७. ११-१२] लिंगप्रामृतम् ६७ दसणणाणचरितं तवसंजमणियमणि'च्चकम्मम्मि । पीडयदि बट्टमाणो पाववि लिंगी गरयवासं ॥११॥ दर्शनज्ञानचरित्रेषु तपःसंयमनियमनित्यकर्मणि । पोडयति वर्तमानः प्राप्पोति लिंगी नरकवासं ॥११॥ कंदप्पा इय वट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धि । माई लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥१२॥ कंदादिकं वर्तते कुर्वाणः भोजनेषु रसगृद्धि । मायावी लिंगव्यपायी तियंग्योनिः न स श्रमणः॥१२॥ दंसण-जो मुनि वेषी दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तप संयम नियम और नित्यकार्यों में प्रवृत्त होता हुआ दूसरे जीवों को पीड़ा पहुंचाता है वह नरकवास को प्राप्त होता है। __ भावार्थ-जो पुरुष मुनिपद धारण कर अपनी प्रमाद पूर्ण प्रवृत्ति से दूसरे जीवों को पीड़ा पहुंचाता है वह नरकगामी होता है। अथवा 'पीड़यति' के स्थान पर 'पीड़यते' छाया मानी जावे तो यह अर्थ होता है कि जो पुरुष मुनि पद धारण कर उक्त कार्योंको करता हुआ पीड़ित होता है अर्थात् अरुचि भावसे दुःखी होता है वह नरकगामी होता है । कुछ प्रतियों में 'वट्टमाणो' के स्थान पर 'बद्धमानो' भी पाठ है सो उसका अर्थ अहं कार-वश होता हुआ ऐसा करना चाहिये ॥११॥ . कंदप्याइय-जो पुरुष मुनिवेषी होकर भी कांदी आदि कुत्सित भावनाओं को करता है तथा भोजन में रस सम्बन्धी लोलुपता को धारण करता है वह मायाचारी, मुनिलिङ्ग को नष्ट करने वाला पशु है, मुनि नहीं है। .. भावार्थ-मुनि होकर भी जो कषाय वश काम कथा आदि विकथाएं करते हैं तथा भोजन में अत्यधिक आसक्ति रखता है वह मायाचारी है तथा लिङ्ग को लजाने वाला है ऐसा पुरुष पशु है, मुनि नहीं है ॥१२॥ १.णिय । २. पवमानो म०। ३. ५० जयचन्द्र टीकायां पवियते इति छाया स्वीकृता। ४.धीम। For Personal & Private Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते [७. १३-१५धावदि पिंडणिमित्तं कलहं काऊणः भुजदे पिडं । अवरुपरूई संतो जिणमगि ण होइ सो समणो ॥१३॥ धावति पिंडनिमित्तं कलहं कृत्वा भुक्ते पिंडं । — अपरप्ररूपी सन् जिनमार्गी न भवति स श्रमणः॥१३॥ . गिहदि अदत्तदाणं पणिदा वि य परोक्खदूसेहिं । जिलिंगं धारतो चोरेण व होइ सो समणो ॥१४॥ .. गृह्णाति अदत्तदानं परनिन्दामपि च परोक्षदूषणैः। . जिनलिंगं धारयन् चोरेणेव भवति स श्रमणः ॥१४॥ उप्पडदि पडदि धावदि पुढवीओ खण्दि लिंगरूंवेण । इरियावह धारतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥१५॥ उत्पतति पतति धावति पृथिवी खनति लिंगरूपेण । ईर्यापथं धारयन् तिर्यग्योनिः न स श्रमणः ॥१५॥ .. पावदि-जो आहार के निमित्त दौड़ता है, कलह कर भोजन को ग्रहण करता है और उसके निमित्त दूसरे से ईर्ष्या करता है वह जिनमार्गी श्रमण नहीं है। भावार्थ-इस कालमें कितने ही लोग जिनलिङ्ग से भ्रष्ट होकर अर्घपालक हए फिर उनमें श्वेताम्बादिक संघ हए। उन्होंने शिथिलाचार का पोषण कर लिङ्ग की प्रवृत्ति विकृत कर दी। उन्हीं का यहाँ निषेध समझना चाहिये। उनमें अब भी कोई ऐसे साधु हैं जो आहार के निमित्त शीघ्र दौड़ते हैं ईर्यासमिति को भूल जाते हैं और गृहस्थ के घरसे लाकर दो चार सम्मिलित बैट कर खाते हैं और बटवारा में सरस नीरस आनेपर परस्पर कलह करते हैं तथा इस निमित्त को लेकर दूसरों से ईर्ष्या भी करते हैं सो ऐसे साधु जिनमागी नहीं हैं ॥१३॥ गिण्हदि-जो मनुष्य जिन लिङ्गको धारण करता हुआ भी बिना दी हुई वस्तुको ग्रहण करता है तथा परोक्ष में दूषण लगा लगा कर दूसरे की निन्दा करता है वह चोर के समान है, साधु नहीं है। भावार्थ-दातार की इच्छा न होने पर अड़कर भिक्षा आदि को ग्रहण करना अदत्तादान है । जो साधु इस प्रकारके आहारको ग्रहण करता है और परोक्ष में दोष लगाकर दूसरे की निन्दा भी करता है वह चोर के समान है॥१४॥ उप्पदि-जो मुनिलिङ्ग धारण कर चलते समय कभी उछलता है, For Personal & Private Use Only Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७. १६-१७ ] लिंगप्राभृतम् बंधे णिरओ संतो सस्सं खंडेदि तह व वसुहं पि । छिंददि तरुगण बहुसो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥ १६ ॥ बंध 'विरतः सन् सस्यं खण्डयति तथा च वसुधामपि । छिनत्ति तरुगणं बहुशः तिर्यग्यानिः न स श्रमणः ॥ १६ ॥ रागो ( रागं) करेदि णिच्चं महिलावग्गं परं च दूसेदि । दंसणणाणविहोणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥१७॥ रागं करोति नित्यं महिलावर्गं परं च दृष्यति । दर्शनज्ञानविहीनः तिर्यग्योनिः न स श्रमणः ॥ १७॥ कभी दौड़ता है और कभी पृथिवी को खोदता है वह पशु है, मुनि नहीं है। ६८९ भावार्थ - मुनिलिङ्ग धारण करते समय ईर्यासमिति से चलने का नियम लिया जाता है सो उस प्रतिज्ञा की ओर ध्यान न देकर जो कूदता हुआ, गिरता हुआ, दोड़ता हुआ तथा पृथिवी को खोदता हुआ चलता है वह मुनि नहीं है वह तो वृषभ आदि पशुके तुल्य है ॥ १५॥ बंघेणिरओ - जो किसी के बन्ध में लीन होकर अर्थात् उसका आज्ञाकारी बनकर धान कूटता है, पृथिवी खोदता है और वृक्षोंके समूहको छेदता है वह पशु है, मुनि नहीं है । भावार्थ - यह कथन अन्य साधुओं की अपेक्षा है जो साघु वनमें रहकर स्वयं धान तोड़ते हैं उसे कूटते हैं, अपने आश्रम में वृक्ष लगाने आदिके उद्देश्यसे पृथिवी खोदते हैं तथा वृक्ष लता आदि को छेदते हैं वे पशु के तुल्य हैं उन्हें हिंसा पापकी चिन्ता नहीं है ऐसा मनुष्य साधु नहीं कहला सकता ॥ १६॥ रागोकरेदि - जो स्त्रियोंके समूह के प्रति निरन्तर राग करता है दूसरे निर्दोष प्राणियोंको दोष लगाता है तथा स्वयं दर्शन और ज्ञानसे रहित है वह पशु है, साधु नहीं है । भावार्थ - कितने ही साधु निरन्तर स्त्रियों के पास उठते हैं बैठते हैं, उन्हीं से अधिक वार्तालाप करते हैं, दूसरे निर्दोष व्यक्तियों की निन्दा करते रहते हैं और स्वयं ज्ञान दर्शन से रहित हैं न अपने इन गुणों की वृद्धि की ओर लक्ष्य रखते हैं वे साधु नहीं हैं वे पशु हैं - पशुके तुल्य अज्ञानी हैं ||१७|| १. नीरजाः म० अ० । Y For Personal & Private Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्नामृते पव्वज्जहोणगहिणं णेहं सोसम्मि वदे बहुसो। . आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ग सो सवणो ॥१८॥ __ प्रव्रज्याहीनगृहिणि स्नेहं शिष्ये वर्तते बहुशः।। आचारविनयहीनः तिर्यग्योनिः न स श्रमणः ॥१८॥ एवं सहिओ मुणिवर संजदमझम्मि वट्टदे णिच्चं । बहुलं पि जाणमाणो भावविणो ण सो सवणो ॥१९॥ . एवं सहितः मुनिवर संयतमध्ये वर्तते नित्यं । . . बहुलमपि जानानः भावविनष्टो न स श्रमणः ॥१९॥ दंसणणाणचरिते महिलावग्गम्मि देदि वोपट्टो। पासत्थ वि हु णियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो ॥२०॥ दर्शनज्ञानचारित्राणि महिलावर्गे ददाति विश्वस्तः। पार्श्वस्थादपि हु निकृष्टः भावविनष्टः न स श्रमणः ॥२०॥ .. पव्वज्ज-जो दीक्षासे रहित गृहस्थ शिष्य पर अधिक स्नेह रखता है तथा आचार और विनय से रहित है वह तिर्यञ्च है साधु नहीं है। __ भावार्थ-कोई कोई साधु अपने गृहस्थ शिष्य पर अधिक स्नेह रखते हैं अपने पद का ध्यान न कर उसके घर आते जाते हैं सुख दुःख में आत्मीयता दिखाते हैं तथा स्वयं मनि के योग्य आचार तथा पूज्य पुरुषों की विनय से रहित होते हैं । आचार्य कहते हैं कि वे मुनि नहीं हैं किन्तु पशु हैं ॥१८॥ एवं सहिओ-हे मुनिवर ! ऐसी खोटी प्रवृत्तियों से सहित मुनि, यद्यपि संयमो जनों के मध्यमें रहता है और बहुत ज्ञानवान् भी हो तो भो वह भाव से नष्ट है अर्थात् भावलिङ्ग से रहित है 'यथार्थ मुनि नहीं है।' भावार्थ-कार जिन खोटो प्रवत्तियों का वर्णन किया है उनसे जो सहित है, निरन्तर संयमी जनों के बीच में रहता है और अनेक शास्त्रों का ज्ञाता भी है वह भावसे शून्य मात्र द्रव्यलिङ्गो साधु है परमार्थ साधु नहीं है ॥१९॥ दसण णाण-जो स्त्रियों में विश्वास उपजा कर उन्हें दर्शन, ज्ञान १. देहि म०। For Personal & Private Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७. २१-२२ ] लिंगप्राभृतम् ६९१ पुंश्चलिघरि जसु भुजइ णिच्चं संयुणदि पोसए पिंडं । पावदि वालसहावं भावविणट्ठो ण सो सवणो ॥ २१ ॥ गृहे यः भुंक्ते नित्यं संस्तोति पुष्णाति पिंडं | प्राप्नोति बालस्वभावं भावविनष्टो न स श्रवणः ॥२१॥ इ लिंगपाहुडमिणं सव्वं बुद्धेहि देसियं धम्मं । पालेहि कटु सहियं सो गाहदि उत्तमं ठाणं ॥ २२ ॥ इति लिंगप्राभूतमिदं सर्वं बुद्धेः देशितं धर्मं । पालयति कष्टसहितं स गहते उत्तमं स्थानं ॥ २२॥ इति श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचितलिंगप्रभृतकं समाप्तम् और चारित्र देता है वह पार्श्वस्थ मुनि से भी निकृष्ट है तथा भावलिङ्ग से शून्य है वह परमार्थं मुनि नहीं है । भावार्थ - जो मुनि अपने पदका ध्यान न कर स्त्रियों से संपर्क बढ़ाता है उन्हें पास में बैठा कर पढ़ाता है तथा दर्शन या चारित्र आदिका उपदेश देता है वह पार्श्वस्थ नामक भ्रष्ट मुनिसे भी अधिक निकृष्ट है । जब आकाओं से भी बात नहीं करते । सात हाथ की दूरी पर दो या दो से अधिक संख्या में बैठी हुई आर्यिकाओं से ही धर्म चर्चा करते हैं, उनके प्रश्नों का समाधान करते हैं तब गृहस्थ स्त्रियों को एक दम पास में बैठा कर उनसे सम्पर्क बढ़ाना मुनिपद के अनुकूल नहीं है । ऐसा मुनि भावलिङ्ग से शून्य है अर्थात् द्रव्यलिङ्गी परमार्थं मुनि नहीं है ||२०|| है पुच्छलिधरि - जो साधु व्यभिचारिणी स्त्री के घर आहार लेता है, निरन्तर उसकी स्तुति करता है तथा पिण्डको पालता है अर्थात् उसकी स्तुति कर निरन्तर आहार प्राप्त करता है वह बालस्वभाव को प्राप्त होता है तथा भाव से विनष्ट है वह मुनि नहीं है । भावार्थ - यह बड़ी धर्मात्मा है त्यागो व्रतो तथा मुनियों को सदा आहार देती है इस प्रकार व्यभिचारिणी स्त्री की प्रशंसा कर जो उससे आहार प्राप्त करता है वह अज्ञानी है ऐसा मुनि भावलिङ्ग से रहित है नहीं है ॥ २१ ॥ इलिंग - इस प्रकार यह लिङ्ग प्राभृत नामका समस्त शास्त्र ज्ञानी गणधरादि के उपदिष्ट है सो इसे जान कर जो कष्ट सहित धर्मका पालन For Personal & Private Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ षट्प्राभूते [ ७. २१-२२ करता है अर्थात् कष्ट भोग कर भी धर्म की रक्षा करता है वह उत्तम स्थान को प्राप्त होता है । भावार्थ - ज्ञानी जीवों ने लिङ्ग प्राभृत का उपदेश मुनिजनों के हित के लिये दिया है इसलिये इसे जानकर मुनिव्रत का निर्दोष पालन करना चाहिये । यदि ग्रहण किये हुए व्रत के पालन करने में परिषह आदिका कष्ट भी उठाना पड़े तो उसे समता भाव से सहन करना चाहिये। ऐसा पुरुष ही उत्तम स्थान - निर्वाण को प्राप्त होता है ||२२|| इस प्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित लिङ्गप्राभृत समाप्त हुआ For Personal & Private Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील प्राभृतम् वीरं विसालणयणं रत्तुप्पलकोमलस्समप्पायं । तिविहेण पणमिऊणं सीलगुणाणं णिसामेह ॥ १ ॥ वीरं विशालनयनं रक्तोत्पलकोमलसभपादम् । त्रिविधेन प्रणम्य शीलगुणान् निशाम्यामि ॥ १ ॥ सीलस्स य णाणस्स य णत्थि विरोहो बुधेहि णिछिट्टो । raft य सीलेण विणा विसया णाणं विणासंति ॥ २ ॥ शीलस्य च ज्ञानस्य च नास्ति विरोधो बुधैर्नदिष्टः । नवरि च शीलेन विना विषया: ज्ञानं विनाशयन्ति ॥ २ ॥ दुक्खणज्जहि णाणं गाणं णाऊण भावणा दुक्खं । भावियमई व जीवो विसएसु विरज्जए दुक्खं ॥ ३ ॥ दुःखेन ज्ञायते ज्ञानं ज्ञानं ज्ञात्वा भावना दुःखं । भावितमतिश्च जीवो विषयेषु विरज्यति दुःखं ॥ ३ ॥ वीरं विसाल - ( बाह्य में ) जिनके विशाल नेत्र हैं तथा जिनके पाँव लाल कमल के समान कोमल हैं ( अन्तरङ्ग पक्ष में ) जो केवलज्ञानरूपी विशाल नेत्रोंके धारक हैं तथा जिनका कोमल एवं रागद्वेष से रहित वाणी का समूह रागंको दूर करने वाला है उन महावीर भगवान् को मन, वचनकाय से प्रणाम कर शीलके गुणों को अथवा शील तथा गुणोंका कथन करता हूँ ॥ १॥ शीलस्स - विद्वानों ने शीलका और ज्ञानका विरोध नहीं कहा है। किन यह कहा है कि शीलके बिना विषय ज्ञानको नष्ट कर देते हैं । भावार्थ - शील और ज्ञान का विरोध नहीं है किन्तु सहभाव है जहाँ शील होता है वहीं ज्ञान अवश्य होता है और शील न हो तो पञ्चेन्द्रियों के विषय ज्ञानको नष्ट कर देते हैं ||२|| दुक्खे -- प्रथम तो ज्ञान ही दुःख से जाना जाता है फिर यदि कोई For Personal & Private Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ षट्प्राभृते [८. ४-५ताव ण जाणदि गाणं विसयवलो जाव वट्टए जीवो। विसए विरत्तमेत्तो ण खवेइ पुराइयं कर्म ॥ ४॥ __तावन्न जानाति ज्ञानं विषयवलः यावत् वर्तते जीवः । विषये विरक्तमात्रः न क्षिपते पुराणकं कर्म ॥ ४॥ णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहूणं । संजमहीणो य तबो जइ चरइ णिरत्ययं सव्वं ॥ ५ ॥ ज्ञानं चारित्रहीनं लिंगग्रहणं च दर्शनविहीनं । . . संयमहीनश्च तपः यदि चरति निरर्थक सर्व ॥ ५॥ ज्ञानको जानता भी है तो उसकी भावना दुःख से होती है फिर कोई जीव उसकी भावना भी करता है तो विषयों में विरक्त दुःख से होता है। भावार्थ-पहले तो सम्यग्ज्ञान का होना ही दुर्लभ है। यदि किसीको सम्यग्ज्ञान प्राप्त भी हो जाता है तो निरन्तर उसकी भावना रखना दुर्लभ है और किसी को उसकी भावना भी प्राप्त हो जाती है तो विषयों से विरक्त होना कठिन है । इस प्रकार तीनों कार्यों में उत्तरोत्तर कठिनता अथवा दुर्लभपना है ॥३॥ तावण-जब तक जीव विषयों के वशीभूत रहता है तब तक ज्ञानको नहीं जानता और ज्ञानके बिना मात्र विषयोंसे विरक्त हआ जीव पुराने बंधे हुए कर्मोंका क्षय नहीं करता । भावार्थ-प्रथम तो विषयासक्त जीवको यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती नहीं है और कदाचित् कोई जीव विषयों से विरक्त हो भी जावे तो यथार्थ ज्ञानके बिना वह पूर्व बद्ध कर्मोंकी निर्जरा करने में असमर्थ रहता है ॥४॥ ___णाणं-यदि कोई साधु चारित्र रहित ज्ञान का, सम्यग्दर्शन रहित लिङ्ग का और संयम रहित तप का आचरण करता है तो उसका यह सब आचरण निरर्थक है। भावार्थ-हेय और उपादेय का ज्ञान तो हुआ परन्तु तदनुरूप चारित्र न हुआ तो वह ज्ञान किस काम का ? मुनि लिङ्ग तो धारण किया परन्तु सम्यग्दर्शन न हुआ तो वह मुनि लिङ्ग किस काम का ? इसी तरह तप तो किया परन्तु जीव रक्षा अथवा इन्द्रिय वशीकरण संयम नहीं हुआ तो वह तप किस काम का ? इस सब का उद्देश्य कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्त For Personal & Private Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलप्राभृतम् गाणं चरित्तसुद्ध लिंगग्गहणं च दंसणविसुद्ध । संजमसहिदो य तवो थोओ वि महाफलो होइ ॥ ६ ॥ -८. ६-७ ] ६९५ ज्ञानं चारित्रशुद्ध लिंगग्रहणं च दर्शनविशुद्ध । संयमसहितश्च तपः स्तोकमपि महाफलं भवति ॥ ६॥ गाणं णाऊण णरा केई विसयाइभावसंसत्ता । हिडंति 'चादुरर्गादि विसएसु विमोहिया मूढा ॥ ७ ॥ ज्ञानं ज्ञात्वा नराः केचित् विषयादिभावसंसक्ताः । हिण्डन्ते चातुर्गीत विषयेषु विमोहिता मूढाः ॥ ७ ॥ करना है परन्तु उसकी सिद्धि न होने से सब का निरर्थकपना दिखाया है ॥५॥ गाणं चरित - चारित्र से शुद्ध ज्ञान, दर्शन से शुद्ध लिङ्ग धारण और संयम से सहित तप थोड़ा भी हो तो वह महाफल से युक्त होता है । भावार्थ - जिस ज्ञान के साथ थोड़ा भी यथार्थचारित्र है वह ज्ञान यथार्थं कार्यकारी है । जिस मुनिवेश में सम्यग्दर्शन की विशुद्धता है वह थोड़े समय के लिये अर्थात् मरणान्त काल में भी धारण किया गया हो तो भी यथार्थ फल को देता है इसी प्रकार जिस तपश्चरण में संयम की साधना है वह मात्रा में अल्प होने पर भी कर्म निर्जरा का प्रमुख कारण होता है || ६ || गाणं णाऊण - जो कोई मनुष्य ज्ञान को जान कर भी विषयादिक रूप भाव में आसक्त रहते हैं वे विषयों में मोहित रहने वाले मूर्ख प्राणी चतुर्गति रूप संसार में भ्रमण करते रहते हैं । भावार्थ - ज्ञान का फल विषयों से निवृत्त अनेक शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर भी विषयों में करनेका पुरुषार्थं नहीं करते हैं वे मूढ़ कहलाते हैं अर्थात् जानते हुए भी विषयपान करने वाले समान हैं, मूढ़ हैं और अपनी इस मूढ़ता - मूर्खता के कारण वे चारों गतियों में चिरकाल तक भ्रमण करते रहते हैं ॥७॥ १. चतुरगति म० । होना है सो जो मनुष्य संलग्न रहते हैं उनके त्याग For Personal & Private Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्प्राभृते ८. ८-१०जे पुण विसयविरत्ता णाणं गाऊण भावणासहिदा । छिदंति 'चादुरर्गाद तवगुणजुत्ता न संदेहो ॥ ८॥ ये पुनविषयविरक्ता ज्ञानं ज्ञात्वा भावनासहिताः। छिन्दन्ति चातुर्गति तपोगुणयुक्ता न सन्देहः ॥ ८॥ जह कंचणं विसुद्ध धम्मइयं खंडियलवणलेवेण । तह जीवो वि विसुद्धं णाण विसलिलेग विमलेणं ॥ ९॥.. यथा कंचन विशुद्धं ध्मातं खडिकलवणलेपेन। तथा जीवोऽपि विशुद्धो ज्ञानसलिलेन विमलेन ॥ ९॥ णाणस्स पत्थि दोसो का पुरिसाणो वि मंदबुद्धीणो। जे गाणगविदा होऊणं विसएसु रज्जति ॥१०॥ ज्ञानस्य नास्ति दोषः कापुरुषस्यापि मन्दबुद्धः । ये ज्ञानगविता भूत्वा विषयेषु रज्यन्ति ॥१०॥ . . जे पुण-किन्तु जो ज्ञान को जानकर उसकी भावना करते हैं और विषयों से विरक्त होते हुए तपश्चरण तथा मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त होते हैं वे चतुर्गति रूप संसार को छेदते हैं-नष्ट करते हैं इसमें संदेह नहीं है। भावार्थ-जो पुरुष हेयोपादेय का ज्ञान प्राप्त कर निरन्तर उसका विचार करते हैं और विचारों को परिपक्व बनाकर विषय कषाय से निवृत्त हो तपश्चरण करते हैं-मुनिव्रत का पालन करते हैं वे संसार सागर से पार होकर मोक्षको प्राप्त होते हैं इसमें संशय नहीं है ।।८।। जह कंचणं-जिस प्रकार सुहाग और नमकके लेप से युक्त कर फूका हुआ सुवर्ण विशुद्ध हो जाता है उसी प्रकार ज्ञानरूपी निर्मल जल से यह जीव भी शुद्ध हो जाता है ।। ____ भावार्थ-मोहनीय कर्म के उदय से इस जीव का ज्ञान अनादिकाल से मलिन हो रहा है उसी मलिन तप के कारण यह अशुद्ध होकर संसार सागर में मज्जनोन्मज्जन करता रहता है इसलिये ज्ञान में से मोह को धारा को दूर कर ज्ञानको निर्मल बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिये । ज्ञान की निर्मलता से ही आत्मा की निर्मलता होती है ॥९॥ ___गाणस्स-जो पुरुष ज्ञान के गर्व से युक्त हो विषयों में राग करते हैं १. चतुरगति अ०। २. कम्पुरिसाणी अ० । For Personal & Private Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोलप्राभूतम् णाणेण दंसणेण य तवेण चरिएण सम्मस हिएण । - ८. ११-१२ ] होहदि परिणिव्वाणं जीवाणं ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण भविष्यति परिनिर्वाणं जीवानां सोलं रक्खंताणं दंसणसुद्धाण अस्थि धुवं णिव्वाणं विसrसु विरतचित्ताणं ॥ १२ ॥ शीलं रक्षतां दर्शनशुद्धानां दृढचारित्राणां । अस्ति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानां ॥ १२ ॥ चरितसुद्धाणं ॥ ११ ॥ सम्यक्त्वसहितेन । चारित्रशुद्धानां ॥ ११ ॥ दिढचरित्ताणं । ६९७ सो वह उनके ज्ञान का अपराध नहीं है किन्तु मन्द बुद्धि से युक्त उसका पुरुषका ही अपराध है । भावार्थ-संसार में कितने ज्ञानो तपी विषयों में अनुरक्त देखे जाते हैं सो यह दोष उनके ज्ञान का नहीं है किन्तु ज्ञान के साथ मोह की धारा ने मिलकर उन पुरुषों की जो मन्दबुद्धि और पुरुषार्थहीन बना दिया है सो यह अपराध उसी पुरुषार्थं हीन मन्द बुद्धि पुरुष का है ||१०|| णाणेण - निर्दोष चारित्र का पालन करने वाले जीवों को सम्यक्त्व सहित ज्ञान, सम्यक्त्व सहित दर्शन, सम्यक्त्व सहित तप और सम्यक्त्व सहित चारित्र से निर्वाण प्राप्त होगा । भावार्थ - जैनागम में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्तप और सम्यक् चारित्र इन चार आराधनाओं से मोक्ष प्राप्ति होती है ऐसा कहा गया है। परन्तु ये चारों उन्हीं जोवों के मोक्ष का कारण होती हैं जो चारित्र से शुद्ध होते हैं अर्थात् प्रमाद छोड़ कर निर्दोष चारित्र का पालन करते हैं ॥११॥ सोलं— जो शील की रक्षा करते हैं, जो शुद्ध दर्शन - निर्मल सम्यक्त्व से सहित हैं, जिनका चारित्र दृढ़ है और जो विषयों से विरक्त चित्त रहते हैं उन्हें निश्चित ही निर्वाण की प्राप्ति होती है । भावार्थ - शील का अर्थ आत्माका वीतराग स्वभाव है सो जो पुरुष सदा इसकी रक्षा करते हैं अर्थात् विषय कषाय के कारण अपने वीतराग स्वभाव को नष्ट नहीं होने देते, जो कठिन तपश्चरण करने पर भी है देवादिकृत अतिशयों को न देख अपने सम्यक्त्व में कभी दोष नहीं लगाते हैं, जो परिषहादिक के आने पर भी चारित्र से विचलित नहीं होते और For Personal & Private Use Only Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ षट्प्राभृते [८. १३-१४ विसएसु मोहिदाणं कहियं मग्गं पि इट्ठदरिसीणं । उम्मग्गं दरिसीणं गाणं पिणिरत्थयं तेसि ॥१३॥ विषयेषु मोहितानां कथितो मार्गोऽपि इष्टदर्शिनां । उन्मार्ग दर्शिनां ज्ञानमपि निरर्थकं तेषा॥१३॥ . कुमयकुसुदपसंसा जाणंता बहुविहाई सत्याणि । सोलवदणाणरहिवा ण हु ते आराधया होति ॥१४॥ कुमतकुश्रुतप्रशंसां (सकाः) क्षानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि। शीलव्रतज्ञानरहिता न ह ते आराधका भवन्ति ॥१४॥ विषयों से अपने चित्त को सदा उदासीन रखते हैं उन्हें निश्चित हो मोक्ष प्राप्त होता है ॥१२॥ . विसएसु-जो मनुष्य इष्ट-लक्ष्य को देख रहे हैं वे वर्तमान में भले ही विषयों में मोहित हों तो भी उन्हें मार्ग प्राप्त हो गया है ऐसा कहा गया है परन्तु जो उन्मार्ग को देख रहे हैं अर्थात् लक्ष्य से भ्रष्ट हैं उनका ज्ञान भी निरर्थक है। भावार्थ-एक मनुष्य दर्शनमोहनीय का अभाव होने से श्रद्धा गुण के प्रकट हो जाने पर अपने लक्ष्य प्राप्तव्य मार्ग को देख रहा है परन्तु चारित्र मोहका तीव्र उदय होने से उस मार्ग पर चलने के लिये असमर्थ है तो भी कहा जाता है कि उसे मार्ग प्राप्त हो गया है परन्तु दूसरा मनुष्य अनेक शास्त्रों का ज्ञान होने पर भी मिथ्यात्व के उदय के कारण अपने गन्तव्य मार्ग को न देख उन्मार्ग को देख रहा है तो ऐसे मनुष्य का वह भारी ज्ञान भी निरर्थक होता है ॥१३॥ कुमय-जो नाना प्रकारके शास्त्रों को जानते हुए भी मिथ्यामत और मिथ्याश्रुत की प्रशंसा करते हैं तथा शील व्रत और ज्ञानसे रहित हैं वे स्पष्ट ही आराधक नहीं हैं। भावार्थ-कितने ही लोग नाना शास्त्रों के ज्ञाता होकर भी मिथ्या मत और मिथ्याश्रुत की प्रशंसा करते हैं सो उनका ऐसा करना मिथ्यात्व का चिह्न है क्योंकि अन्य दृष्टि प्रशंसा और अन्य दृष्टि संस्तव सम्यग्दर्शन के दोष हैं । साथ ही शील अर्थात् समता परिणाम, व्रत और यथार्थ ज्ञानसे रहित हैं अतः ऐसे लोग आराधक नहीं हैं-मोक्षमार्गकी आराधना करने वाले नहीं हैं ॥१४॥ For Personal & Private Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८. १५-१७] शीलप्राभृतम् ६९९ रूवसिरिगन्विदाणं जुव्वणलावण्णकतिकलिदाणं । सोलगुणवज्जिदाणं णिरत्ययं माणुसं जम्मं ॥१५॥ रूपश्रीगवितानां यौवनलावण्यकान्तिकलितानां । शीलगुणजितानां निरर्थकं मातुषं जन्म ॥१५॥ वायरणछंदवइसेसियववहारणायसत्थेसु । वेदेऊण सुदेसु य तेसु सुयं उत्तम सोलं ॥१६॥ व्याकरणछन्दो वैशेषिकव्यवहारन्यायशास्त्रेषु । विदित्वा श्रुतेषु च तेषु श्रुतं उत्तम शीलं ॥१६॥ सीलगुणमंडिदाणं देवा भवियाण वल्लहा होति । सुदपारयपउरा गं दुस्सीला अप्पिला लोए ॥१७॥ शीलगुणमण्डितानां देवा भव्यानां वल्लभा भवन्ति । श्रतपारगप्रचुरा दुःशीला अल्पकाः लोके ।।१७।। - रूपसिरि-जो मनुष्य सौन्दर्य रूपी लक्ष्मी से गर्वीले तथा यौवन, लावण्य और कान्ति से युक्त हैं किन्तु शोल गुण से रहित हैं तो उनका मनुष्य जन्म निरर्थक है। भावार्थ-कितने ही मनुष्य अत्यन्त रूपवान् यौवन, लावण्य और कान्ति से युक्त होते हैं परन्तु शील गुणसे रहित होकर निरन्तर विषय वासनाओं में फंसे रहते हैं सो आचार्य कहते हैं कि उनका मनुष्य जन्म पाना निरर्थक है । मनुष्य जन्म की सार्थकता तो रत्नत्रय की उपासना कर मोक्ष प्राप्त करनेमें ही है जिन पुरुषोंने मनुष्य जन्म पाकर रत्नत्रय की उपासना नहीं की उल्टे विषयों में निमग्न रहे उनका मनुष्य जन्म निरर्थक ही समझना चाहिये ॥१५॥ वायरण-कितने ही लोग व्याकरण, छन्द, वैशेषिक, व्यवहार, गणित तथा न्याय शास्त्रको जानकर श्रुतके धारी बन जाते हैं परन्तु उनमें यदि शील होवे तभी उत्तम है। भावार्थ-शोल समताभावको कहते हैं उसके बिना अनेक लौकिक शास्त्रों के ज्ञाता हो जाने पर मनुष्य कल्याणके मार्गसे दूर रहते हैं इसलिये सर्व प्रथम शील को प्राप्त करने का प्रयत्न श्रेयस्कर है ।।१६।।। ___ सोलगुण-जो भव्य पुरुष शील गुणसे सुशोभित हैं उनके देव भी प्रिय हो जाते हैं अर्थात् देव भो उनका आदर करते हैं और जो शील For Personal & Private Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० षट्नाभूते [८. १८१९सव्वे वि य परिहोणा स्वविरुवा वि वदिदसुवया वि । सोल जेसु सुसोलं सुजोविदं माणुसं तेसि ॥१८॥ सर्वेऽपि च परिहीना रूपविरूपा अपि पतितसुवयसोऽपि । शीलं येषु सुशीलं सुजीवितं मनुष्यत्वं तेषां ॥१८॥ जीवदया दम सच्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे। .. सम्मदंसणणाणं तओ य सीलस्स परिवारो ॥१९॥ जीवदया दमः सत्यं अचौर्य ब्रह्मचर्यसन्तोषो। सम्यग्दर्शनं ज्ञानं तपश्च शीलस्य परिवारः ॥१९॥ गुण से रहित हैं वे श्रुतके पारगामी होकर भी लोकमें तुच्छ-अनादरणीय बने रहते हैं। भावार्थ-शीलवान् जीवों को पूजा प्रभावना मनुष्य तो करते ही हैं परन्तु देव भी करते देखे जाते हैं परन्तु दुःशील अर्थात् खोटे शील से युक्त मनुष्यों को अनेक शास्त्रों के ज्ञाता होनेपर भी कोई नहीं पूछता है वे सदा तुच्छ बने रहते हैं। यहाँ 'अल्पका' का अर्थ संख्याके अल्प नहीं है किन्तु तुच्छ अर्थ है संख्या की अपेक्षा तो दुःशील मनुष्य ही अधिक है शीलवान् नहीं ॥१७॥ सम्वे वि य-जो सभी में होन हैं अर्थात् हीन जाति के हैं, रूप से विरूप हैं अर्थात् कुरूप हैं और जिनको अवस्था बीत गई है अर्थात् वृद्धअवस्था से युक्त हैं इन सबके होने पर भी जिनमें शील सुशील है अर्थात् जो उत्तम शीलके धारक हैं उनका मनुष्यपना सुजीवित है-उनका मनुष्य भव उत्तम है। भावार्थ-जाति, रूप तथा अवस्था की न्यूनता होने पर भी उत्तम शील मनुष्यके जीवन को सफल बना देता है इसलिये सुशील प्राप्त करना चाहिये ।।१८॥ जीवदया-जीव दया, इन्द्रिय दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्तप ये सब शीलके ही परिवार हैं। - भावार्थ-जिस मनुष्य के उत्तम शील होता है उसके जीव दया, इन्द्रिय दमन आदि गुण स्वयं प्रकट होजाते हैं ॥१९॥ For Personal & Private Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०१ -८. २०-२२] शोलप्राभृतम् सोलं तवो विसुद्धं दंसणसुद्धी य णाणसुद्धी य। . सोलं विसयाण अरी सोलं मोक्खस्स सोपाणं ॥२०॥ शीलं तपो विशुद्ध दर्शनशुद्धिश्च ज्ञानशद्धिश्च । शीलं विषयाणामरिः शोलं मोक्षस्य सोपानं ॥२०॥ जह विसय लुद्धविसदो तह थावरजंगमाण घोराणं । 'सव्वेसि पि विणासदि विसयविसं दारुणं होई ॥२१॥ यथा विषयो लुब्धविषदः तथा स्थावरजङ्गमान् घोराणन् । सर्वानपि विनाशयति विषयविषं दारुणं भवति ॥२१॥ वार एक्कम्मि य जम्मे मरिज्ज विसवेयणाहदो जीवो। विसयविसपरिहया णं भमंति संसारकांतारे ॥२२॥ वारं एक जन्म गच्छेत् विषवेदनाहतो जीवः। विषयविषपरिहता भ्रमन्ति संसारकान्तारे ॥२२॥ सोलं तवो-शील विशुद्ध तप है शील दर्शनकी शुद्धि है, शील ही ज्ञान की शुद्धि है, शील विषयों का शत्रु है और शील मोक्ष की सीढ़ी है। भावार्थ-जिस जोवके समता भाव रूप शील प्रकट हुआ हो उसोके तप, दर्शन और ज्ञान की शुद्धता प्रकट होती है। वही जीव विषयों को नष्ट कर पाता है और वही मोक्षको प्राप्त हो सकता है ॥२०॥ जह विसय लुब्ध-जिस प्रकार विषय, लोभी मनुष्यको विषके देनेवाले हैं उसी प्रकार भयंकर स्थावर तथा जङ्गम-त्रस जीवोंको विष भी सबको नष्ट करता है परन्तु विषय रूपी विष अत्यन्त दारुण होता है। भावार्थ-जिस प्रकार हस्ती मीन भ्रमर पतंग तथा हरिण आदि के विषय उन्हें विषकी भाँति नष्ट कर देते हैं उसी प्रकार स्थावरके विष मोहरा सोमल आदि और जङ्गम अर्थात् साँप बिच्छू आदि भयंकर जीवोंके विष सभी को नष्ट करते हैं इस प्रकार जीवोंको नष्ट करने की अपेक्षा विषय और विषमें समानता है परन्तु विचार करने पर विषय रूपी विष अत्यन्त दारुण होता है। क्योंकि विष से तो जीवका एक भव ही नष्ट होता है और विषय से अनेक भव नष्ट होते हैं ॥२१॥ वारि-विष की वेदना से पीड़ित हुआ जीव एक जन्म में एक ही १. "क्वचिदसादे," इत्यनेन द्वितीयास्थाने षष्ठी। द्वितीयादिविभक्तीनां स्थाने . क्वचित् षष्ठी स्यादिति सूत्रार्थः । २. "अस्टासोमप" इत्येनेन द्वितीयास्थाने सप्तमी । द्वितीयातृतीययोः स्थाने क्वचित् सप्तमी भवतीति सूदपर्य। (सं०) । For Personal & Private Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ षट्प्राभृते [८. २३-२४गरएसु वेयणाओ तिरिक्खए माणुएस दुक्खाई। देवेसु वि दोहरगं लहंति विसयासता जीवा ॥२३॥ नरकेषु वेदनाः तिरश्चि मानवेष दुःखानि । देवेष्वपि दौर्भाग्यं लभन्ते विषयासक्ता जीवाः ॥२३।।. तुसधम्मतबलेण य जह दव्वं ण हि गराण गच्छेदि। तवसोलमंत कुसली खवंति विसयं विसं व खलं ॥२४॥ ... तुषध्मद्वलेन च यथा द्रव्यं न हि नराणां गच्छति । तपः शीलमन्तः कुशला क्षिपन्ते विषयं विषमिव खलं! ॥२४॥ बार मरणको प्राप्त होता है परन्तु विषय रूपी विष से पीड़ित हुए जीव... संसार रूपी अटवी में निश्चय से भ्रमण करते रहते हैं अर्थात् बार बार जन्म धारण करते हैं। भावार्थ-विषय रूपी विष तथा साधारण विष में अन्तर बतलाते हुए आचार्य लिखते हैं कि अन्य विष तो इस जीवको एक ही बार मारता है परन्तु विषयरूपी विष निरन्तर ही मारता रहता है। विषयी जीव नई नई पर्याय धारण कर संसाररूपी वनमें घूमता ही रहता है। इसलिये हे भव्य ! . इस विषय रूपो विष से अपनी रक्षा कर ॥२२।। __णरएसु-विषयासक्त जीव नरकों में वेदनाओं को, तिर्यञ्च और मनुष्यों में दुःखों को तथा देवों में दौर्भाग्य को प्राप्त होते हैं ॥२३॥ भावार्थ-विषयों में आसक्त हए जीव नरकों में उत्पन्न होकर वहाँ की तीव्र वेदनाओंको प्राप्त होते हैं। तिर्यञ्च और मनुष्य गति सम्बन्धी दुःख सामने ही अनुभवमें आते है और देवों में कदाचित कषाय की मन्दता से उत्पन्न होते हैं तो वहाँ अभियोग्य या किलविष्क जाति के देव होकर निरन्तर दुःख उठाना पड़ता है ॥२३॥ तुसपम्मत-जिस प्रकार तुषों के उड़ा देनेसे मनुष्यों का कोई सार भत द्रव्य नष्ट नहीं होता उसी प्रकार तप और शीलसे युक्त कुशल पुरुष विषय रूपी विषको खल के समान दूर छोड़ देते हैं। भावार्थ-तुषको उड़ा देने वाला सूपा आदि तुषध्मत् कहलाता है उसके बलसे मनुष्य सारभूत द्रव्य को बचाकर तुषको उड़ा देता है-फेंक देता है उसो प्रकार तप और उत्तम शोलके धारक पुरुष ज्ञानोपयोग के द्वारा विषभूत पदार्थों के सार को ग्रहण कर विषयों को खलके समान दूर छोड़ देते हैं । तप और शील से सहित ज्ञानी जोव इन्द्रियों के विषय को For Personal & Private Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीलप्राभृतम् वट्ट सुय खण्डेसु य भद्देसु य विसालेसु अंगेसु । अंगेसु य पप्पेसु य सव्वेसु य उत्तमं सीलं ॥ २५ ॥ -८. २५-२६ ] वृत्तेषु च खण्डेषु च भद्रेषु च विशालेषु अंगेषु । अंगेषु च प्राप्तेषु सर्वेषु च उत्तमं शीलं ॥२५॥ पुरिसेण वि सहियाए कुसुमयमूढेहि विसयलोलह । अरयघरट्ट व भूर्दोह ॥ २६ ॥ संसारे भमिदव्वं पुरुषेणापि सहितेन कुसमयमूढैः विषयलोलेः । संसारे भ्रमितव्यं अरहटघरट्टं इव भूतैः ॥ २६ ॥ ७०३ खल के समान समझते हैं जिस प्रकार इक्षुका रस ग्रहण कर लेने पर छिलके फेंक दिये जाते हैं उसी प्रकार विषयों का सार उन्हें जानना था सो ज्ञानी जींव इस सार को ग्रहण कर छिलके के समान विषयों का त्याग कर देता है । ज्ञानी मनुष्य विषयों को ज्ञेयमात्र जान उन्हें जानता तो है परन्तु उनमें आसक्त नहीं होता है अथवा एक भाव यह प्रकट होता है कि कुशल मनुष्य विषय को दुष्ट विषके समान छोड़ देते हैं ||२४|| वट्टेसु. य - इस मनुष्य के शरीर में कोई अङ्ग वृत्त अर्थात् गोल है, कोई खण्ड अर्थात् अर्धं गोलाकार है कोई भद्र अर्थात् सरल है और कोई विशाल अर्थात् चौड़े हैं सो इन अंगों के यथास्थान प्राप्त होने पर भी सब में उत्तम अङ्ग शील ही है । भावार्थ - शीलके बिना मनुष्य के समस्त अङ्गों की शोभा निःसार है इसलिये विवेकी जन शील की ओर ही लक्ष्य रखते हैं ||२५|| पुरिसेण - मिथ्यामत में मूढ हुए कितने हो विषयों के लोभी मनुष्य ऐसा कहते हैं कि हमारा पुरुष ब्रह्म तो निर्विकार है विषयों में प्रवृत्ति भूत चतुष्टय की होती है इसलिये उनसे हमारा कुछ बिगाड़ नहीं है सो यथार्थ बात ऐसी नहीं है क्योंकि उस भूत चतुष्टय रूप शरीर के साथ पुरुष को भी ब्रह्मको भी अरहट की घड़ी के समान संसार में भ्रमण करना पड़ता है । 'भावार्थ - जबतक यह जीव शरीर के साथ एकी भावको प्राप्त हो १. इस गाथा का भावार्थ पं० जयचन्द्र जी ने इस प्रकार लिखा है 'कुमति विषया सक्त मिध्यादृष्टि आपनो विषयनिकू भले माति सेव हैं। केई कुमती ऐसे भी हैं जो ऐसे कहे हैं जो सुन्दर विषय सेवने तें ब्रह्म प्रसन्न होय है यह परमेश्वर की बड़ी भक्ति है ऐसे कहिकर अत्यन्त आसक्त For Personal & Private Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ षट्प्राभृते [८. २७-२८आदेहि कम्मगंठी जावद्धा विसयरायमोहि। तं छिदंति कयत्या तवसंजमसीलयगुणेण ॥२७॥ आत्मनि हि कर्मग्रथिः यावद्धा विषयरागमोहाभ्यां । तां छिन्दन्ति कृतार्थाः तपः संयमशीलगुणेन ॥२७|| उदधी व रदणभरिदो तवविणयंसीलदाणरयणाणं । सोहे तोय ससीलो णिव्वाणमणुत्तर पत्तो ॥२८॥ उदधिरिव रत्नभृतः तपोविनयशीलदानरत्नानां । शोभेत सशीलः निर्वाणमनन्तरं प्राप्तः ॥२८॥ रहा है तब तक शरीर के साथ इसे भी भ्रमण करना पड़ता है इसलिये मिथ्या मतके चक्र में पड़कर अपनी विषय लोलुपता को बढ़ाना श्रेयस्कर नहीं है ॥२६॥ आदेहि-विषय सम्बन्धी राग और मोहके द्वारा आत्मामें जो कर्मों. की गांठ बांधी गई है उसे कृतकृत्य-ज्ञानी मनुष्य तप संयम और शील रूप गुणके द्वारा छेदते हैं। भावार्थ-जीवके रागादि भावोंका निमित्त पाकर कर्मोका सम्बन्ध होता है सो ज्ञानी मनुष्य उन भावोंको समझ उसके विपरीत तप संयम तथा शील आदि गुणोंको धारण कर उस बन्ध को रोकते हैं तथा सत्ता में स्थित कर्म परमाणुओं को निर्जरा कर आत्मा और कर्म को जुदा जुदा करते हैं ॥२७॥ ___ उदघी व-जिस प्रकार समुद्र रत्नों से भरा होता है तो भी तोय अर्थात् जल से ही शोभा देता है उसी प्रकार यह जीव भी तप विनय शील दान आदि रत्नों से युक्त है तो भी शील से सहित होता हो सर्वोत्कृष्ट निर्वाण पदको प्राप्त होता है। __ भावार्थ-तप विनय दान आदिसे युक्त होनेपर भी यदि मोह और क्षोभसे रहित समता परिणाम रूपी शील प्रकट नहीं होता है तो मोक्ष की प्राप्ति नहीं होतो इसलिये शोलको प्राप्त करना चाहिये ॥२८॥ होय सेवे हैं, ऐसा ही उपदेश अन्यकू दे करि विषयनि में लगावे हैं ते आप तो अरहट की घड़ी ज्यों संसार में भ्रमैं ही हैं वहाँ अनेक प्रकार दुःख भोगवे हैं परन्तु अन्य पुरुष भी तहाँ लगाय भ्रमाव हैं तातें यह विषय सेवना दुःख ही के आर्थि है दुःखका ही कारण है, ऐसे जानि कुमतीनि का प्रसंग न करना, विषया सक्त पणा छोड़ना यात सुशील पना होंग है। For Personal & Private Use Only Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०५ -८. २९-३०] . शीलप्राभृतम् सुणहाण गद्दहाण य गोपसुमहिलाण दोसदे मोक्खो। जे सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंता जणेहि सहि ॥२९॥ शुनां गर्दभानां च गोपशुमहिलानां दृश्यते मोक्षः। ये साधयन्ति चतुर्थं दर्यमानाः जनैः सर्वैः ॥२९॥ जइ विसयलोलएहिं णाणोहि हविज्ज साहिदो मोक्खो। तो सो सुरतपुत्तो दसपुत्वीओ वि किं गदो परयं ॥३०॥ यदि विषयलोलैः ज्ञानिभिः भवेत् साधितो मोक्षः । तर्हि स सात्यकि पुत्रः दशपूर्विकः किं गतो नरकं ॥३०॥ सुणहाण-सब लोग देखो, क्या कुत्ते, गधे, गाय आदि पशु तथा स्त्रियों को मोक्ष देखने में आता है ? अर्थात् नहीं आता। किन्तु चतुर्थ पुरुषार्थ अर्थात् मोक्षको जो साधन करते हैं उन्हीं को मोक्ष देखा जाता है। भावार्थ-बिना शीलके मोक्ष नहीं होता। यदि शील के बिना भी मोक्ष होता तो कुत्ते, गधे, गाय आदि पशु और स्त्रियों को भी मोक्ष होता, परन्तु नहीं होता । यहाँ काकु द्वारा आचार्य ने दृश्यते क्रिया का प्रयोग किया है इसलिये उसका निषेधपरक अर्थ होता है। अथवा 'चउत्थं' के स्थान पर 'चउक्क' पाठ ठीक जान पड़ता है उसका अर्थ होता है जो क्रोधादि चार कषायों को शोधते हैं-दूर करते हैं अर्थात् कषायों को दूर कर शीलसे वीतराग भाव से सहित होते हैं वे ही मोक्षको प्राप्त करते हैं ॥२९॥ जइ-यदि विषयों के लोभी ज्ञानी मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकते होते तो दशपूर्वो का प्राणी रुद्र नरक क्यों जाता? ___भावार्थ-विषयों के लोभी मनुष्य शील से रहित होते हैं अतः ग्यारह अङ्ग और नौ पूर्व का ज्ञान होने पर भी मोक्ष से वञ्चित रहते हैं । इसके विपरीत शीलवान् मनुष्य अष्ट प्रवचनभातृका के जघन्य ज्ञानसे भी अन्तमुहूर्तवाद केवलज्ञानी होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। शील कोवीतराग भाव की कोई अद्भुत महिमा है ॥३०॥ १. जो। २. सो। ३. रुद्रः। For Personal & Private Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ षट्प्राभृते [ ८. ३१-३३ जह णाणेण विसोहो सीलेण विणा बुहेहि विद्दिट्ठो । दसपुव्विस्स य भावो ण कि पुर्ण णिम्मलो जादो ॥ ३१ ॥ यदि ज्ञानेन विशुद्धः शीलेन विना बुधैर्नदिष्ठः । दशपूर्विणः च भावो न कि पुनः निर्मलो जातः ॥३१॥ जाए विसयविरतो सो गमयदि णरयवेयणा पउरां । ता लेहदि अरुहपयं भणियं जिणवड्ढमाणेण ॥३२॥ यः विषयविरक्तः स गमयति नरकवेदनां प्रचुरां । तल्लभते अर्हत्पदं भणितं जिनवर्धमानेनं ॥ ३२ ॥ एवं बहुप्पयारं जिणेहि पच्चक्खणाणदरिसीहि । सीलेण य मोक्खयं अक्खातीदं च लोयणाणेह ॥ ३३ ॥ एवं बहुप्रकारं जिनैः प्रत्यक्षज्ञानदर्शिभिः । शीलेन च मोक्षपदं अक्षातीतं च लोकज्ञानैः ॥ ३३॥ जह णाणे -- यदि विद्वान् शील के बिना मात्र ज्ञान से भाव का शुद्ध हुआ कहते हैं तो दश पूर्व के पाठी रुद्र का भाव निर्मल-शुद्ध क्यों नहीं हो गया । भावार्थ - मात्र ज्ञान से भाव की निर्मलता नहीं होती । भाव की निर्मलता के लिये राग, द्वेष और मोह के अभाव की आवश्यकता होती है । राग, द्वेष और मोह के अभाव से भाव की जो निर्मलता होती है वही शील कहलाता है इस शील से ही जीव का कल्याण होता है ||३१|| जाएं विसय - जो विषयों से विरक्त है वह नरक की भारी वेदना दूर हटा देता है तथा अरहन्त पद को प्राप्त करता है ऐसा वर्धमान जिनेन्द्र ने कहा है । भावार्थ - जिनागम में ऐसा कहा है कि तीसरे नरक तक से निकल कर जीव तीर्थंकर हो सकता है सो सम्यग्दृष्टि मनुष्य नरक में रहता हुआ भी अपने सम्यक्त्व के प्रभाव से नरक की उस भारी वेदना का अनुभव नहीं करता - उसे अपनी नहीं मानता और वहाँ से निकलकर तीर्थंकर पद को प्राप्त होता है यह सब शील की ही महिमा है ||३२|| एवं वहुप्ययारं - इस प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान और प्रत्यक्ष दर्शन से युक्त लोक के ज्ञाता जिनेन्द्र भगवान् ने अनेक प्रकार से कथन किया है कि अतीन्द्रिय मोक्ष पद शील से प्राप्त होता है । For Personal & Private Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०७ -८. ३४-३५ ] शीलप्राभृतम् सम्मत्तणाणदंसणतबबीरियपंचयारमप्पाणं । जलणो वि पवणसहिदो डहंति पोरायणं कम्मं ॥३४॥ सम्यक्त्वज्ञानदर्शनतपोवीर्यपंचाचारा आत्मनां । ज्वलनोऽपि पवनसहितः दहंति पौराणकं कर्म ॥ ३४ ॥ गिद्दड्ढअटुकम्मा विसयविरत्ता जिदिदिया धीरा । तवविणयसोलसहिदा सिद्धा सिद्धिदि पत्ता ॥३५॥ निर्दग्धाष्टकर्माणः विषयविरक्ता जितेन्द्रिया धीराः। तपोविनयशोलसहिताः सिद्धाः सिद्धिगति प्राप्ता ॥३५॥ भावार्थ केवलज्ञान और केवलदर्शन से सहित लोक के ज्ञाता जिनेन्द्र भगवान् ने . ऊपर नाना युक्तियों से यह निरूपण किया है कि अक्षनीय-अतीन्द्रिय मोक्ष पद की प्राप्ति शील से होती है मोहनीय कर्म का क्षय होने से पहले वीतराग परिणति रूप शील की प्राप्ति होती है उसके बाद केवलज्ञान की प्राप्ति होती, तदनन्तर मोक्ष प्राप्त होता है। १. सम्मत-सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, तप और वीर्य ये पञ्च आचार पवन सहित अग्नि के समान जीवों के पुरातन कर्मों को दग्ध कर देते हैं। .. भावार्थ-जिस प्रकार वायु से प्रज्वलित अग्नि काष्ठ के समूह को जला देती है उसी प्रकार सम्यक्त्व आदि पञ्च आचार जीवों के पूर्व बद्ध कर्मों को जला देते हैं। पञ्च आचार के प्रभाव से यह जीव कर्मों का क्षय कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। यहाँ सम्यक्त्व शब्द से चारित्र का ग्रहण जानना चाहिये ॥३४॥ . निद्दड्ढअट्ठकम्मा-जिन्होंने इन्द्रियों को जीत लिया है, जो विषयों से विरक्त हैं, धीर हैं अर्थात् परीषहादि के आने पर विचलित नहीं होते हैं, जो तप, विनय, और शील से सहित हैं ऐसे जीव आठ कर्मों को समग्र रूपसे दग्ध कर सिद्धगति को प्राप्त होते हैं । उनकी सिद्ध संज्ञा है अर्थात् वे सिद्ध कहलाते हैं। भावार्थ-यहाँ सिद्ध जीव कौन है ? तथा सिद्धि कैसे जीवों को प्राप्त होती है ? इसका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो इन्द्रियों को जीत चुके हैं, इन्द्रियों को जीतने के कारण जो उनके स्पर्शादि विषयों से विरक्त हुए हैं जो परीषह तथा उपसर्ग के सहन करने में धीर वीर हैं तथा तप For Personal & Private Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ षट्प्राभृते [८.३६-३८लावण्णसीलकुसला जम्ममहीरुहो जस्स सवणस्स। सो सोलो स महप्पा भमित्थ गुणवित्थरो भविए ॥३६॥ . लावण्यशोलकुशलाः जन्ममहीरुहः यस्य श्रवणस्य । ... स शोल: सः महात्मा भ्रमेत् गुणविस्तारे भव्ये ॥ ३६॥ गाणं झाणं जोगो दसणसुद्धी य वोरियावत्तं । सम्मत्तदंसणेण य लहंति जिणसासणे बोहिं ॥३७॥ ज्ञानं ध्यानं योगो दर्शनशुद्धिश्च वीर्यत्वं । सम्यक्त्वदर्शनेन च लभन्ते जिनशासने बोधि ॥ ३७॥ जिणवयणगहिदसारा विसयबिरत्ता तवोधणा धीरा। सोलसलिलेण व्हावा ते सिद्धालयसुहं जंति ॥३८॥ जिनवचनगृहीतसारा विषयविरक्ताः तपोधना धीराः। शीलसलिलेन स्नाताः ते सिद्धालयसुखं यान्ति ॥ ३८॥ विनय और शील से सहित हैं वे सिद्धि गति को प्राप्त होते हैं और वे ही सिद्ध कहलाते हैं ॥३५॥ ___ लावण्णशील-जिस मुनि का जन्म रूपी वृक्ष लावण्य और सील से कुशल है वह शीलवान् है, महात्मा है तथा उसके गुणों का विस्तार लोक में व्याप्त होता है। भावार्थ-जिस मुनि का जन्म जीवों को अत्यन्त प्रिय है तथा समता भाव रूप शील से सुशोभित है वही मुनि शीलवान कहलाता है वही महात्मा कहलाता है और उसी के गुण लोक में विस्तार को प्राप्त होते हैं॥३६॥ णाणं झाणं-ज्ञान, ध्यान, योग और दर्शन की शुद्धि-निरतिचार प्रवृत्ति ये सब वीर्य के आधीन हैं और सम्यग्दर्शन के द्वारा जीव जिनशासन सम्बन्धी बोधिरत्नत्रय रूप परिणति को प्राप्त होते हैं। भावार्थ-आत्मा में वीर्य गुण का जैसा विकास होता है उसी के अनुरूप ज्ञान, ध्यान, योग और दर्शन की शुद्धता होती है तथा सम्यग्दर्शन के द्वारा जीव जिनशासन में बोधि-रत्नत्रय का जैसा स्वरूप बतलाया है उस रूप परिणति को प्राप्त होते हैं ॥३७।। जिणवयण-जिन्होंने जिनेन्द्र देव के वचनों से सार ग्रहण किया है, For Personal & Private Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -८ ३९-४० ] भावप्रामृतम् सव्वगुणखीणकम्मा सुक्खविवज्जिदा मणविसुद्धा | पप्फोडियकम्मरया हवंति आराहणापडा ॥ ३९ ॥ सर्वंगुणक्षीणकर्माणः सुखदुःखविवर्जिता मनोविशुद्धाः । प्रस्फुटितकर्मरजसः भवन्ति अराधनाप्रकटाः ॥ ३९ ॥ अरहंते सुहभत्ती समत्तं दंसणेण सुविसुद्धं । सीलं विसयविरागो गाणं पुण केरिसं भणियं ॥ ४० ॥ अर्हति शुभभक्तिः सम्यक्त्वं दर्शनेन सुविशुद्धं । शीलं विषयविरागो ज्ञानं पुनः कीदृशं भणितं ॥ ४० ॥ इति श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचितशीलप्राभृतकं समाप्तं । ७०९ जो विषयों से विरक्त हैं, जो तप को धन मानते हैं, धीर वीर हैं और जिन्होंने शील रूपी जल से स्नान किया है वे सिद्धालय के सुख को प्राप्त होते हैं । भावार्थ -- जो पुरुष जिनवाणी का सार ग्रहण कर विषयोंसे विरक्त होते हुए तप धारण करते हैं दृढ़ता से तपकी रक्षा करते हैं तथा सदा समता भाव रखते हैं वे जोव मोक्ष के सुख को प्राप्त होते हैं ॥ ३८ ॥ सव्वगुण - जिन्होंने समस्त गुणों से कर्मों को क्षीण कर दिया है, जो सुख और दुःख से रहित हैं, मन से विशुद्ध हैं और जिन्होंने कर्मरूपी धूलि को उड़ा दिया है ऐसे आराधनाओं को प्रकट करने वाले होते हैं। भावार्थ - जिन जीवों के दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप ये चार आराधनाएँ प्रकट होती हैं अर्थात् पूर्णता को प्राप्त होती हैं वे समस्त मूलगुणों और उत्तरगुणों के द्वारा कर्मों को क्षीण करते हैं अर्थात् उनकी स्थिति तथा अनुभाग को क्षीण कर देते हैं आत्मानुभव की मुख्यता के कारण उनका सांसारिक सुख दुःख का विकल्प छूट जाता है, उनका हृदय अत्यन्त शुद्ध हो जाता है और कर्मरूपी धूली को उड़ाकर कर्म रहित हो जाते हैं। आराधनाओं का फल मोक्ष प्राप्ति है यदि आराधनाओं के पूर्ण रूप से प्रकट होने में न्यूनता रह जाय तो स्वर्गं की प्राप्ति होती है वहाँ से आने के बाद फिर मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥ ३९ ॥ अरहंते — अरहन्त भगवान् में शुभभक्ति होना सम्यक्त्व है, यह सम्यक्त्व तत्त्वार्थं श्रद्धान से अत्यन्त शुद्ध है और विषयों से विरक्त होना For Personal & Private Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८.४०-. ७१० षट्प्राभृते ही शील है। ये दोनों ही ज्ञान हैं इनसे अतिरिक्त ज्ञान कैसा कहा गया है। भावार्थ-सम्यक्त्व और शील से रहित जो ज्ञान है वही ज्ञान ज्ञान है इनसे रहित ज्ञान कैसा ? अन्य मतों में ज्ञानको सिद्धिका कारण कहा गया है परन्तु जिस ज्ञान के साथ सम्यक्त्व तथा शील नहीं है वह अज्ञान है, उस अज्ञान रूप ज्ञानसे मुक्ति नहीं हो सकती ॥ ४० ॥ .. . . इस प्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित शीलप्राभृत समाप्त हुआ For Personal & Private Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ जिनवाणी स्तुति माँ जिनवाणी ममता न्यारी, प्यारी प्यारी गोद है थारी । आँचल में मुझको तू रख ले, तू तीर्थंकर राजदुलारी ।। टेक ।। वीर प्रभो पर्वत निर्झरणी, गौतम के सुख कंठ झरी हो । अनेकान्त और स्याद्वाद की, अमृतमय माता तुम ही हो । भव्यजनों की कर्णपिपासा, तुझसे शमन हुई जिनवाणी । । १ । । माँ जिनवाणी....... सप्तभंग मय लहरों से माँ, तू ही सप्त तत्व प्रकटाये । द्रव्य गुणों अरू पर्यायों का ज्ञान आत्मा में करवाये । हेय ज्ञेय अरु उपादेय का, भान हुआ तुमसे जिनवाणी ।। २ ।। माँ जिनवाणी... ............ तुझको जानूँ तुझको समझँ, तुझसे आतम बोध को पाऊँ । तेरे आँचल में छिप-छिपकर दुग्धपान अनुयोग को पाऊँ । माँ बालक की रक्षा करना, मिथ्यातम को हर जिनवाणी || ३ | माँ जिनवाणी... घर बनूँ मैं वीर बनूँ माँ, कर्मबली को दल-दल जाऊँ । ध्यान करूँ स्वाध्याय करूँ बस, तेरे गुण को निशदिन गाऊँ । अष्टकम की हान करे यह, अष्टम क्षिति को दे जिनवाणी ||४|| माँ जिनवाणी.. ऋषि मुनि यति सब ध्यान धरे माँ, शरण प्राप्त कर कर्म हरें । सदा मत की गोद रहूँ मैं, ऐसा शिर आशीष फले । नमन करें "स्याद्वादमती" नित, आत्म सुधारस दे जिनवाणी ।। ५ ।। माँ जिनवाणी.. -गणिनी आर्यिका स्याद्वादमती माताजी For Personal & Private Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् के प्रकाशन १. सिद्धचक्र विधान (संस्कृत) ४४. जीवकचिन्तामणि | ८७. युगल आचार्य पूजा २. विमल भक्ति (षष्ठम) ४५. आप्तमीमांसा ८८. सर्वार्थसिद्धि (मूल) ३. धर्ममार्गसार (द्वि०) ४६. मेरुमन्दरपुराण ८९. बालबोध स्तुति शिक्षा (च०) ४. आराधना कथाकोष (द्वि०) ४७. युक्त्यनुशासन | ९०. छहढाला (प्रश्नोल्टी०षष्ठम) ५. रत्नाकर की लहरें |४८. सूर्यप्रकाश ग्रन्थ ९१. चारित्रचक्रवर्ती ६. अष्टपाहुड (द्वि०) ४९. भाव संग्रह ९२. शान्तिनाथ विधान ७. पंचास्तिकाय (द्वि०.) ५०. लघुतत्त्वस्फोट ९३. नित्यपाठावली ८. पंचस्तोत्र संग्रह (द्वि०) ५१. रत्नकरण्डश्रावकाचार-टीका ९४. कल्याणमन्दिर स्तोत्र विधान ९. पुरुषार्थसिद्धयुपाय (द्वि०) ५२. अमरसेनचरिउ ९५. चौबीस ठाणा १०. चर्चासागर ५३. मूलाचार भाषा वचनिका ९६. जैन सिद्धान्त प्रवेशिका. ११. चन्द्रप्रभ चरित ५४. पद्मपुराण ९७. सुशीला उपन्यास १२. सम्यक्त्वकौमुदी (द्वि०) ५५. प्रमेयरत्नमाला ९८. हनुमानचरित १३. परीक्षामुख (द्वि०) ५६. यशस्तिलकचम्पू भाग-१ ९९. अलौकिक दर्पण १४. क्षत्रचूड़ामणि (द्वि०). ५७. यशस्तिलचम्पू भाग-२ १००. प्रशांत वाणी (द्वि०) १५. तत्त्वानुशासन (द्वि०) ५८. अर्थप्रकाशिका १०१. जैनशासन १६. योगसार ५९. निजात्मशुद्धिभावना १०२. धर्मपरीक्षा १७. नीतिसार समुच्चय ६०. आत्मानुशासन (द्वि०) १०३. शान्तिनाथ पुराण १८. परमात्मप्रकाश ६१. सुधर्मध्यान प्रदीप १०४. महावीर पुराण १९. न्यायदीपिका (द्वि०) ६२. मंगलघट के भीतर अमृत २०. शान्तिसुधासिन्धु ६३. भक्ति मुक्ति सोपान १०५. प्रद्युम्नचरित २१. इन्द्रनंदि नीतिसार |१०६. चौबीसी पुराण ६४. अंगपण्णत्ति २२. इष्टोपदेश (तृ०) ६५. पार्वाभ्युदयं |१०७. पुण्यास्रवकथाकोश २३. समाधितन्त्र (तृ०) ६६. मल्लिनाथपुराण (द्वि०) १०८. मदनजुद्ध काव्य २४. वरांगचरित (संस्कृत, हिन्दी) |६७. विमलनाथपुराण (द्वि०) १०९. भावत्रयफलदर्शी २५. भरतेश वैभव (भाग-१,२)द्वि०/६८. नेमिनाथपुराण (द्वि०) ११०. श्रेणिकचरित २६. वैरागमणि माला ६९. प्रवचनसार १११. तीर्थराज पर आचार्य २७. ध्यानसूत्राणि (४०) ७०. धन्यकुमार चरितम् ___ विमलसागर कृतित्व २८. श्रुतावतार ७१. सिद्धप्रिय स्तोत्र ११२. श्रीमद्भगवद् जिनसहस्रनाम २९. अमितगतिश्रावकाचार ७२. सुदर्शनचरित ११३. भक्तामर विधान ३०. महामृत्युंजय पूजा विधान ७३. अमृतशीति ११४. णमोकार मंत्र कल्प ३१. स्वयंभूस्तोत्र (द्वि०) ७४. रयणसार ११५. विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका (दि. ३२. द्रव्यसंग्रह प्रश्नोत्तर (टीका ष०)/७५. मोक्षशास्त्र (प्रश्नो० टीका तृ०) ११६. भारत का भरत (द्वि०) ३३. धम्मरसायन ७६. मर्यादा की रक्षा (तृ०) ११७. मान्यखेट के हीरे ३४. सार समुच्चय ७७. स्याद्वाद बाल शिक्षा भाग-१ ११८. सम्मेदशिखर माहात्म्य (द्वि०) ३५. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार ७८. स्याद्वाद बाल शिक्षा भाग-२ ११९. सत्पथ की ओर ३६. आलापपद्धति (द्वि०) ७९. स्याद्वाद बाल शिक्षा भाग-३ १२०. जिनाभिषेक ३७. मदनपराजय ८०. स्याद्वाद बाल शिक्षा भाग-४ १२१. सम्मेदशिखर पूजा विधान ३८. वसुनन्दिश्रावकाचार ८१. पंचामृताभिषेक पाठ (द्वि०) ११२. जिनवाणी ३९. सागारधर्मामृत (द्वि०) ८२. वात्सल्यरत्नाकर भाग १,२,३ १२३. ऋषिमण्डल विधान : ४०. बोधामृतसार ८३. नैतिक संस्कार भाग-१-३ १२४. जिनदत्त चरित ४१. पाण्डवपुराण (द्वि०) ८४. सुभोम चरित्र १२५. नागकुमार चरितम् ४२. आप्तपरीक्षा (द्वि०) ८५. पद्मपुराण हिन्दी १२६. मरण मुक्ति का द्वार : सल्लेखना ४३. पाश्वचरितम् (द्वि) ८६. भक्तामर स्तोत्र (प्रश्नोल्टी०) १२७. शीलकलश For Personal & Private Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WA WWW WWW. 22 ARX G W 2018 USH BERMINE HA SH THE LUC CH For Personal & Private Use Only WOW! 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