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________________ ३६६ षट्प्राभृते [ ५.५१ कौतुकाः पौरास्तं मनोहरोद्यानवासिनं पूजयित्वा वन्दितु ं परमभक्त्या यान्तीति । शिवकुमारः प्राह - अयं सागरदत्ताख्यां 'सश्रुततां विविधद्धश्च कथं प्राप । मंत्रिपुत्रोऽपि यथा श्रुतं तथा प्राह - पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिणी नगरी, तस्याः पतिश्चक्री वज्रदत्तः । तस्य महादेवी यशोधरा गर्भिणी समुत्पन्नदौहृदा । सा सीतासागरसंगमे महाविभूत्या गत्वा महाद्वारेण समुद्रं प्रविष्टा । जलकेलीविधाने जलजानना आसन्ननिर्वृति पुत्रं प्राप । तेन हेतुनास्य सनाभयः सागारदत्ताख्यां चक्र: । अथ सागरदत्तः परिप्राप्तयौवनः स्वपरिवारमण्डितो हर्म्यतले स्थितो नाटकं पश्यन्ननुकूलाख्यनाम्ना चेटकेनोक्तः । हे कुमार ! त्वमाश्चर्यं पश्य मेर्वा - कारोऽयं मेघस्तिष्ठति । तं मेघं लोचनप्रियं सोन्मुखो निरीक्षितुमहिष्ट । स मेघस्त महाद्वार से समुद्र में प्रविष्ट हुई । जल-क्रीडा के समय ही उस कमल मुखी ने निकट मोक्षगामी पुत्रको उत्पन्न किया इसी कारण इसके कुटुम्बी जनोंने इसका सागरदत्त नाम रक्खा । तदनन्तर एक बार तरुण सागरदत्त अपने परिवार के साथ महलकी छत पर बैठकर नाटक देख रहा था उसी समय अनुकूल नामक सेवक ने उनसे कहा कुमार ! तुम यह आश्चर्य देखो, मेरु पर्वत के आकार यह मेघ स्थित है। उस सुन्दर मेघ को देखने के लिये ज्यों ही वह ऊपर की ओर मुँह उठाकर देखने की चेष्टा करता हैत्यों ही वह मेघ तत्काल नष्ट हो गया। सागरदत्त विचार करने लगा कि जिस प्रकार यह मेघविनश्वर है उसी प्रकार यौवन, धन, शरीर जीवन तथा अन्य समस्त पदार्थं विनश्वर हैं। इस प्रकार विचार कर वह वैराग्य को प्राप्त हो गया। दूसरे दिन वह मनोहर नामक उद्यान में धर्म तीर्थं के नायक अमृत सागर नामक तीर्थंकर को वन्दना करने के लिये अपने पिता वज्रदत्त के साथ गया । वहाँ धर्मका श्रवण कर इसने सर्वस्थिति का निश्चय किया तथा समस्त बन्धु जनों को विदा कर बहुत से राजाओं के साथ संयम ग्रहण कर लिया । मनःपर्यय ऋद्धि रूपी संपत्तिको प्राप्त कर धर्मोपदेश द्वारा अनेक देशों में विहार कर वे यहाँ वीतशोक नगर में पधारे हैं । इस प्रकार मन्त्रिपुत्रके वचन सुनकर शिवकुमार बहुत प्रसन्न हुआ और स्वयं जाकर मुनिराज की स्तुति कर तथा उनसे धर्मामृत का पान कर कहने लगा भगवन् ! आपके दर्शन कर मुझे बड़ा हर्ष हुआ है इसका क्या कारण है ? भगवान् सागरदत्त कहने लगे १. श्रुतां म० क० । २. गोत्रिणः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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