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-५. ५१] भावप्राभतम्
३६७ स्काल एव नष्टः । सागरदत्तश्चिन्तयामास यौवनं धनं शरीरं जीवितमन्यच्च सर्व वस्तु विनश्वरं वर्तते यथायं मेघ इति निर्वेगं गतः । अपरेवुमनोहरोद्याने धर्मतीर्थनायकममृतसागरं नाम तीर्थकरं वज्रदत्तेन निजवप्ता सह वन्दितुमितः । तत्र धर्म श्रुत्वा निश्चितसर्वस्थितिः सर्वबन्धुविसर्जन कृत्वा बहुभी राजभिः समं संयम जग्राह । मनःपर्ययद्विसम्पदं प्राप्य धर्मोपदेशेन देशान् विहृत्यात्र वीतशोकपुरमागतः । इति मंत्रिपुत्रवचनानि श्रुत्वा शिवकुमारः प्रीतमनाः स्वयं च गत्वा मुनिवरं स्तुत्वा धर्मामृतं ततः पीत्वा जगाद भगवन् ! भवन्तं दृष्ट्वा मम महान स्नेहः संजातः । तत्र कः प्रत्यय इत्यपृच्छत् । भगवान् सागरदत्तः प्राह अत्र जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे मगधदेशे वृद्धग्रामे राष्ट्रकूटो नाम वणिक् । तस्य भार्या रेवती । तयोी पुत्री भगदत्तभवदेवी । तयामध्ये भगदत्तः सुस्थितनामगुरुं नत्वा दीक्षां जग्राह । विनयान्वितो गुरुणा सह नानादेशान् विहृत्य स्वजन्मग्राममाजगाम । तदा तद्वान्धवाः
इसी जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र सम्बन्धो मगधदेश के वृद्ध ग्राम में राष्ट्रकूट नामका एक वणिक् रहता था। उसकी स्त्री का नाम रेवती था। उन दोनोंके भगदत्त और भवदत्त नामके दो पुत्र हुए। उनमें भगदत्त ने सुस्थित नामक गुरुको नमस्कार कर दोक्षा धारण करली । विनयी भगदत्त गुरुके साथ नाना देशों में विहार कर अपने जन्मके ग्राम आया। तब उसके सभी कूटम्बो जनों ने हर्षित हो मिलकर सुस्थित नामक मुनिराज को प्रदक्षिणा देकर पूजा की । पूजा करने के बाद सब लोग वापिस आने को उद्यत हए। उसी ग्राम में एक दुमर्षण नामका वेश्य रहता था। उसकी नागवसू नामकी स्त्री थी। उन दोनों की नामश्री नामकी पुत्री थी। उन्होंने वह पुत्री भगदत्त के भाई भवदेव के लिये दी थी। भगदत्त का आगमन सुनकर भवदेव भी कुछ विकार करता हुआ वहाँ आया और भगदत्तको विनय-पूर्वक प्रणाम कर बैठ गया। भगदत्त ने आशीर्वाद दिया जिससे उसका मन आर्द्र हो गया। भगदत्त ने धर्म का स्वरूप और संसार की विरूपता का उपदेश देकर भवदत्त का हाथ एकान्त में पकड़ कर एकान्त में कहा-भाई ! तुझे संयम ग्रहण करना चाहिये । भवदेव ने कहा-नागश्री से छुट्टी लेकर आपका कहा करूंगा। भगदत्त ने कहाहे भाई ! संसार में स्त्री आदिके जाल में बंधा हुआ जीव आत्मा का हित कैसे कर सकता है ? इस मोह को छोड़ो। तब कोई उत्तर न देख भवदेव ने बड़े भाईके अनुरोध से दीक्षा लेनेका विचार कर लिया। भगदत्त ने उसे अपने गुरु सुस्थित मुनिराज के पास ले जाकर संसारका छेद करने के
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