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________________ ३६८ बझाभूते [५.५१ सर्वेऽपि हर्षमाणाः समेत्य मुनि सुस्थितं प्रदक्षिणीकृत्य संपूज्य चागन्तुमुद्यताः। तत्रैव ग्रामे दुर्मर्षणो नाम गृहपतिः । तस्य नागवसुर्भार्या । तयोः पुत्री नागश्रीः । सा विधिपूर्वकं भवदेवाय ताभ्यां ददे । भगदत्त गमनं श्रुत्वा भवदेवोऽपि विकुर्वाणोऽत्रागत्वा भगदत्तं विनयात्प्रणम्य तद्दत्ताशीर्वादेनाद्रितमनास्तस्थिवान् । भगदत्तो धर्मस्वरूपं संसारवरूप्यं व्याख्याय गृहीतकर एकान्ते भ्रातः । त्वया संयमो गृहीतव्य इत्याह । भवदेव-उवाच-नागश्रीमोक्षणं विधाय भवत उदितं करिष्यामि । भगदत्त उवाच-हे भ्रातः ! संसारे जायादिपाशवद्धो जीवः कथमात्महितं करोति परित्यज मोहमेतमिति । तदा भवदेव उत्तरमपश्यन् ज्येष्ठानुरोधेन दीक्षायां मति विदधौ। भगदत्तः स्वगुरु सुस्थितसमीपं तं नीत्वा संसारच्छेदनार्थ मोक्षीं दीक्षां मा ग्राहयांबभूव । सतां सौदर्यमीदृग्भवति । भवदेवो द्रव्यसंयमी भूत्वा गुरुभिः समं द्वादशवर्षाणि विहृत्यापरेधुर्विधीरसहायो निजं वृद्धग्रामं गत्वा सुब्रतां गणिनीं समीक्ष्य तां प्राह-हेऽम्ब ! 'काचिन्नागश्री मा काचिदस्ति । सा तस्येङ्गितं ज्ञात्वा जगाद-मुने ! तदुदन्तमहं सम्यग्न वेदेति । तदोवासीन्यं प्राप्तं तं संयमे स्थिरीकतुं गुणवत्यायिकां प्रति अर्थाख्यानकं जगाद । सर्वसमृद्धनामा वैश्यः, लिये शीघ्र ही मोक्ष की दीक्षा दिला दी सो ठीक ही है क्योंकि सत्पुरुषों का भाई-चारा ऐसा ही होता है। भवदत्त द्रव्यसंयमी होकर गुरुओं के साथ बारह वर्ष तक विहार करता रहा । किसी समय वह अज्ञानी अकेला ही अपने वृद्धग्राम आया । वहाँ सुव्रता नाम की गणिनी को देखकर बोलाहे मातः! क्या यहाँ कोई नागश्री नामकी स्त्री है ? वह उसके अभिप्रायको जानकर बोली हे मुने ! मैं नागश्री के वृत्तान्त को अच्छी तरह नहीं जानती। यह सुन कर भवदत्त मुनि उदासीनता को प्राप्त हो गया उसे संयम में दृढ़ करने के लिये सुव्रता नामकी गणिनो गुणवतो आर्यिका को लक्ष्य कर एक कथा कहने लगी (१) एक सर्व समृद्ध नामका वैश्य था, उसकी दासीका एक लड़का था जो निरन्तर घिनावना रहता था तथा दारुक उसका नाम था । अपनी माता अर्थात् वैश्यको स्त्रीने उससे कहा कि तुझे हमारे सेठका जूठा भोजन खाना पड़ेगा। हठ कर उससे कहा, खिला भी दिया । परन्तु दारुक १. काविन्नामंत्री मा काचिदस्ति म० । क प्रती नामास्ति, काचित् पदं केनापि निःसारितम् । २. सुत्रता कामा गणिनी अस्मिान गुणपती प्रति जगाव इति पूर्वापर सम्बन्धः । (0.टी.)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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