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________________ भावप्राभृतम् ३६९ तद्दासीसुतोऽशुचिर्दारुकाभिधेयः स्वमात्रा प्रोचे - अस्मत्श्रेष्ठ्युच्छिष्टभोजनं तु त्वयाऽशनीयमिति । निबंन्धाद्भोजितः । स जुगुप्सया वान्तवान् । तत् कंसपात्रेण धृत्वाऽऽच्छाद्य धृतं । दारुकः पुनर्बुभुक्षुः स्वमातरं भोजनं ययाचे । तया तत्कंसपात्रं वान्तभृतमुपढौकितं । क्षुत्पीडितोऽपि स आत्मवान्तं न जग्राह । सोऽशुचिरपि चेत्तादृशस्तहि साधुः कथं त्यक्तमभीप्सतीति ( १ ) । गुणवति ! पुनरेकमर्थाख्यानकं निजं मनो निश्चलं कृत्वा त्वं शृणु । नरपालनामा नरेन्द्र एकं श्वानं कुतूहलेन मृष्टान्नेन संपोष्य कनकाभरणभूषितं सदा वनक्रीडादी सुवर्णरचितां शिविकामारोप्यैव मन्दमतिस्तमपालयत् । एकदा शिविकारूढः सरमासुतो गच्छन बालविष्टामालोक्य तामालेढुमापपात । तद्दृष्ट्वा राजा लकुटीताडनेन तमपाचकार । तथा पुत्रि ! साधुः सर्वेषां पूजनीयः पूर्वंत्यक्तं पुनर्वाञ्छन् पराभवं प्राप्नोति ( २ ) । हे गुणवति ! पुनरेकां कथां शृणु क्वचित्कोपि पथिकस्तद्वनान्तरे सुगन्धिफलपुष्पादिसेवया युतस्तं तरुं त्यक्त्वा सन्मार्ग विहा महाटवीसंकटे पतितः । तत्र जिघांसुकं -५.५१] मूरं दृष्ट्वा ततो भीत्वा घावन्नेकस्मिन् भीमे कूपे बिम्यत् पपात । तत्रय पापाच्छीतादिभिर्दोषत्रयसंभवे वाग्दृष्टि तिगतिप्रभृतिहीनं सर्पादिबाघ निकटं तस्मा ने उसे ग्लानि-वश उगल दिया । सेठानी ने उस वमन को कांसे के पात्रमें रखकर कपड़े से ढाँक कर रख दिया । दारुक को पुनः भूख लगी तब उसने अपनी माता से भोजन माँगा । माता ने वमन से भरा वह ही काँसेका पात्र उसे दे दिया था। दारुक ने भूखसे पीडित होने पर भी अपने वमनको नहीं खाया। उस दारुक ने घिनावना होने पर भी जब अपना वमन नहीं खाया तब साघु अपनी छोड़ी वस्तुको कैसे इच्छा कर सकता है ? 1 (२) हे गुणवति ! अपना मन निश्चलकर एक कथा और सुन । नरपाल नाम का एक राजा था उसने एक कुत्तेको मिठाई खिला-खिलाकर पाला था वह उसे सुवर्ण के आभूषणों से विभूषित कर सदा वन - क्रीडा आदिके समय सुवर्णनिर्मित पालकी में बैठाकर साथ ले जाता था । इस तरह वह मूर्ख राजा उस कुत्ते का पालन करता था । एक दिन पालकी पर चढ़ा कुत्ता जा रहा था सो बालक की विष्ठा देख उसे चाटनेके लिये कूद पड़ा। राजा ने यह देख उसे डण्डे से पीट कर भगा दिया । हे पुत्र ! इसी तरह सबका पूजनीय साधु यदि पहले छोड़ी हुई वस्तुकी इच्छा करता है तो तिरस्कारको प्राप्त होता है । (३) हे गुणवति ! एक कथा और सुन। कहीं कोई एक पथिक किसी नमें एक वृक्षके नीचे ठहरा था उसके सुगन्धित फल और फूल आदिका २४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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