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________________ षट्प्राभृते [ ५.५१ न्निर्गमनोपायमजानन्तं तं कोऽपि भिषग्वरो यदृच्छया गच्छन् दृष्ट्वा दयार्द्रचित्तः केनाप्युपायेन महोदरान्निष्कास्य मंत्रौषधि प्रयोगेण विहितचरणप्रसारणं सूक्ष्मरूपसमालोकनोन्मीलितनेत्रं स्फुटाकणने विज्ञाननिजशक्तिकर्णयुगलं व्यक्त वाक्प्रसरसंयुक्त जिव्हं स चकार । पुनः सर्वरमणीयं पुरं तन्मार्गदर्शनेन प्रस्थापयामास । निर्मलहृदयाः कस्योपकारं न विदध्युः । पुनः स विषयाक्तमतिः पथिकदुर्मतिः प्रकटीकृतदिग्भागमाहः प्राक्तनकूपकं सम्प्राप्य तस्मिन् पुनः पतितः तथा क्वचित्संसारे मिथ्यात्वादिकपंचोग्रव्याधयो दीप्त्युपागता जन्मकूपे क्षुधादाहाद्या तंमङ्गिनं वीक्ष्य गुरुः सन्मतिर्वेद्यो दयालुत्वाद्धर्माख्यानोपायपण्डितस्तस्मान्निगमय्य जिनवागौषधि - निषेवना (णा) त् सम्यक्त्वलोचनमुन्मील्य सम्यग्ज्ञान तियुगलमुद्घाटय्य सद्वृत्तपादौ प्रसारित विधाय दयामयीं जिह्वां व्यक्तां विधाय विधिपूर्व पंचप्रकारस्वाध्यायवचनानि तं वादयित्वा स्वर्गापवगयोर्मागं सुधीः साध्वगमयत् । तत्र केचिद्दीर्घसंसाराः स्वपापोदयात् भ्रमरा इव सुगन्धिवन्धु रोद्भिन्नचम्पकसमीपवर्तनस्तत्सो ३७० उपभोग करता हुआ रहता था। वह उस वृक्षको छोड़ आगे गया तो सन्मार्गको भूल सघन जंगलमें जा पड़ा। वहाँ एक चीता उसे खाने के लिये आया उसे देख भयभीत होता हुआ वह भागा और भागता भागता एक भयंकर कुएं में जा पड़ा। वहाँ पापके कारण शीत आदि लगनेसे उसे त्रिदोष की बीमारी हो गई । उसकी बोलने देखने सुनने तथा चलने आदि की शक्ति नष्ट होगई, सर्प आदिकी बाधा उसके निकट ही थी, वह वहाँसे निकलने का उपाय भी नहीं जानता था, भाग्यवश स्वेच्छासे कोई वैद्य वहाँसे निकला, उसने उसे देखा, देखते हो उसका चित्त दयासे आर्द्र हो गया, अतः उसने किसी उपाय से उसे उस महा कूपसे निकाला तथा मन्त्र और औषधि प्रयोगसे ठीक किया । चलने में उसके पैर पसरने लगे, सूक्ष्म रूपके देखने में उसके नेत्र खुल गये, अच्छी तरह सुनने में उसके दोनों कान अपनी शक्ति से युक्त हो गये, तथा उसकी जिह्वा भी स्पष्ट वचन बोलने लगी । वैद्य ने उसे ठोक कर उसके सब सुन्दर नगरको उसका मार्ग दिखाकर रवाना कर दिया, सो ठोक ही है क्योंकि निर्मल हृदय वाले मनुष्य किसका उपकार नहीं करते ? परन्तु वह दुर्बुद्धि पथिक विषय आसक्तचित्त हो दिग्भाग में मूढताको प्रकट करता हुआ उसी पहले कुएं में जा पड़ा। उसी प्रकार कहीं संसार में मिथ्यात्व आदि पञ्च भयंकर बीमारियाँ प्रबलताको प्राप्त हो रही हैं, और यह जीव संसाररूप कुएं में पड़ा पड़ा क्षुधा की दाहसे दुखी हो रहा है उसे देख सद्बुद्धिके 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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