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________________ -५. ५१] भावप्राभृतम् ३७१ गन्ध्यावबोधरहिताः पार्श्वस्थाख्याः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रसमीपवर्तनात्, क्रोधादिकषायस्पर्शादिविषयलौकिकज्ञानचिकित्सादिकुज्ञानाः जिह्वायामष्टया स्पर्शेषु च लम्पटा दुराशयाः कुशीलनामानः निषिद्धेषु द्रव्येषु भावेषु च लोलुपाः संसक्ताह्वया, हीयमानज्ञानादिका अवसानसंज्ञाः, समाचारबहिभूता मृग-चर्यानामधेयका महामोहानिवृत्या कृत्वा 'आजर्वजवागस्तदन्धकूपे पेतुर्निपतन्ति च ( ३ ) भवदेव इति श्रुत्वा सम्प्राप्तशान्तभावो बभूव । सुब्रता गणिनी सर्वार्याग्रसरी तद्विज्ञाय दारिद्रोपादितदौस्थित्यां नागश्रियमानाय्य तं दर्शयामास । भवदेवोऽपि तां दृष्ट्वा संसारस्थिति स्मृत्वा धिगिति निन्दित्वा पुनः संयम गृहीत्वाऽऽयुःप्रान्ते भ्रात्रा भगदत्तेन सह आराधनां शिवाय । समाधिना मृत्वा माहेन्द्रकल्पे बलभद्र विमाने सामानिको धारक गुरु रूपी वैद्य जो कि धर्मोपदेशरूपी उपायके जानने में निपुण हैं, दयालु होनेसे उसे उस संसार कूपसे बाहर निकलवाते हैं, जिनवाणी रूपी औषधिका सेवन कराकर उसके सम्यक्त्व रूपी लोचनको खोलते हैं, सम्यग्ज्ञान रूपी कानोंके युगलको खोलते हैं, सदाचार रूपी पैरोंको पसारते हैं, दया रूपी जिह्वाको प्रगट करते हैं, विधिपूर्वक पाँच प्रकारके स्वाध्याय के वचन उससे बुलवाते हैं, और यह सब कह कर बुद्धिमान् वैद्य उसे स्वर्ग तथा मोक्षके मार्गमें अच्छी तरह रवाना कराता है। उनमें कितने ही दीर्घसंसारी जीव अपने पापके उदयसे उन भ्रमरों के समान जो सुगन्धिसे युक्त खिले हुए चम्पाके समीपवर्ती होकर उसकी सुगन्धिके ज्ञान से रहित हैं, पार्श्वस्थ नाम धराते हैं, क्योंकि वे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके समीपमें रहते हैं । कितने ही लोग क्रोधादि कषाय तथा स्पर्गादि विषयोंके लौकिक ज्ञान और औषध आदि के मिथ्याज्ञान से युक्त हो जिह्वा इन्द्रिय के तथा आठ प्रकार के स्पर्शीक विषयमें लम्पट होकर कुशील नाम धराते हैं, इनका अभिप्राय खोटा रहता है। कितने ही लोग निषिद्ध द्रव्य और भावोंमें लुभाकर संसक्त कहलाने लगते हैं। कितने हो लोग जिनके ज्ञान आदिक निरन्तर घटे रहते हैं, अवसान नाम रखाते हैं और कितने ही समोचोन आचारसे बाह्य होकर मृगचर्या नाम पाते हुए महामोह के दूर न होनेके कारण संसार पतन के कारण अपराध को करते हैं तथा अन्धकूप में पड़े हैं और वर्तमान में पड़ रहे हैं। भवदेव इन सब कथाओं को सुनकर शान्तभाव को प्राप्त होगया। तदनन्तर समस्त आर्यिकाओं की प्रधान सुब्रता गणिनी ने दरिद्रता से १. आजवंजवास्ताधकूपे म०५०। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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