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षट्प्राभृते
[१.६बोधिस्तस्या लाभं न लभन्ते । कियत्कालपर्यन्तं बोधिलाभं न लभन्ते इत्याह( अवि वाससहस्सकोडीहिं ) अपि वर्षसहस्रकोटिभिः वर्षसहस्रकोटिभिरपि अनन्तकालमपि गमयित्वा ते मुक्ति न गच्छन्तीत्यर्थः । इति ज्ञात्वा दान-पूजादिकं व्यवहारधर्म निश्चयधर्मे प्रधानभूतं न वर्जनीयमिति भावार्थः ।।५।।
सम्मत्त-णाण-दंसण-बल-बीरिय-बड्ढमाण जे सव्वे । कलि-कलुसपावरहिया वरणाणी होति अइरेण ॥६॥ सम्यक्त्वज्ञानदर्शनबलवीर्यवर्द्धमाना ये सर्वे । . .
कलिकलुषपापरहिता वरज्ञानिनो भवन्ति अचिरेण ।।६।। ( सम्मत्तणाणदसणबलवीरियवड्ढमाण ) सम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-बल-वीर्यवर्द्धमानाः । (जे सव्वे ) ये सर्वे भव्यजीवाः । सम्यक्त्वेन जिनवचनरुचिरूपेण, ज्ञानेन पठन-पाठनादिना, दर्शनेन सत्तावलोकनमात्रेण, बलेन निजवीर्यानिगृहनरूपेण, वीर्येणात्मशक्त्या, ये पुरुषा वर्द्धमानाः । वर्तमाना वा वट्टमाणपाठेन । ते पुरुषाः । (वरणाणी होंति ) केवलज्ञानिनो भवन्ति । वर-शब्देन तीर्थकरत्वं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । कदा ? ( अइरेण ) अचिरेण स्तोककालेन, तृतीयभवे मोक्षं यान्तीत्यर्थः । ते पुरुषाः
हजार करोड़ वर्षों में भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप लक्षण से युक्त बोधि को नहीं प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् सम्यक्त्व के बिना अनन्त काल व्यतीत करके भी मुक्ति को प्राप्त नहीं हो सकते हैं । ऐसा जान कर निश्चय धर्म में प्रधानभूत दान-पूजा आदिक व्यवहार धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये ।।५।।
गाथार्थ-जो समस्त भव्य जीव सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, बल और वीर्य से निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होते हैं वे शीघ्र ही घातिया कर्मों से रहित हो उत्कृष्ट ज्ञानी होते हैं अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थंकर होते हैं ॥६॥
विशेषार्थ-जिनवचन अर्थात जिनागम में श्रद्धा रखना सम्यक्त्व है। जिनागम का पठन-पाठन आदि करना ज्ञान है। पदार्थ की सामान्य सत्ता का अवलोकन होना दर्शन है। अपनी शारीरिक शक्ति को नहीं छिपाना बल है। और आत्मा की शक्ति को वीर्य कहते हैं । जो भव्य जीव इन सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, बल और वीर्य गुणों से वर्धमान हैं अर्थात् जिनके ये गुण निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं; अथवा 'वड्ढमाण' के स्थान पर 'वट्टमाण' पाठ होने के कारण जो इन सम्यक्त्व आदि गुणों से
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